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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

🌼शिव की सर्वोत्तम शिक्षा - "जहर पीना सीखो ,जहर उगलना नहीं।"🌼

  🌺 बालकों जैसा विश्वास और दर्शन की व्याकुलता होने से ईश्वर लाभ  🌺\


Hindustan Ki Sherni 🚩 Kanchan Singh auf Twitter: "शिव की सर्वोत्तम शिक्षा...  जहर पीना सीखो जहर उगलना नहीं... हर हर महादेव 🙏🏻📿📿… "
🌼शिव की सर्वोत्तम शिक्षा - "जहर पीना सीखो ,जहर उगलना नहीं।"🌼


मणि की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं – “अनुराग होने पर ईश्वर मिलते हैं । खूब व्याकुलता होने पर संपूर्ण मन उन्हें अर्पित हो जाता है । 
[মণির দিকে চাহিয়া বলিতেছেন —“অনুরাগ হলে ঈশ্বরলাভ হয়। খুব ব্যাকুলতা চাই। খুব ব্যাকুলতা হলে সমস্ত মন তাঁতে গত হয়।”
The Master glanced at M. and said: "One attains God when one feels yearning for Him. An intense restlessness is needed. Through it the whole mind goes to God.]
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शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

" कुमारी पूजा "

 [13/10, 06:05] +91 82502 65921: 

" कुमारी पूजा "

 🙏🙏 .....आज 13 अक्टूबर 2021 , तदानुसार 'महा-अष्टमी' तिथि है ! कश्मीर के क्षीरभवानी मन्दिर में 'महा-अष्टमी' के इसी विशेष दिन पर स्वामी विवेकानन्द ने 'कुमारी देवी' के रूप में एक मुस्लिम कन्या की पूजा   की थी। 

  'कुमारी पूजा ' शारदीय दुर्गोत्स्व के अवसर पर आयोजित होने वाला रंगबिरंगा कार्यक्रम ( colorful episode) माना जाता है ......इस अवसर पर  विशेष रूप से 'कुमारी देवी' को माँ दुर्गा की सांसारिक प्रतिनिधि के रूप पूजा -अर्चना की जाती है। हर वर्ष दुर्गा पूजा की महाष्टमी पूजा के अन्त में कुमारी पूजा का आयोजन किया जाता है। श्रीश्री माँ सारदा देवी की अनुमति से,  1901 ई ० में  इस पूजा की शुरुआत स्वामी विवेकानन्द ने की थी। हमारे धर्म - ग्रन्थों में नारी-जाति के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए इस 'कुमारी पूजा ' को अनुष्ठित करने का विधान किया गया है। हमारे 'सनातन धर्म ' में नारी को सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान किया गया है।  

       प्रत्येक पुरुष (Male) को 'मनुष्य' बनने के लिए अपनी पाशविक-मनोवृत्ति पर अंकुश लगाकर महिलाओं (Female)  के प्रति सम्मान का भाव (मातृभाव) रखना सीखना अनिवार्य है - यही कुमारी पूजा का मुख्य उद्देश्य है। 'बृहद धर्म  पुराण' (Brihaddharma Purana)  में यह वर्णन मिलता है कि देवताओं द्वारा की गयी स्तुति से प्रसन्न होकर , देवी चण्डिका एक कुमारी कन्या का रूप धारण कर देवताओं के सामने प्रकट हुई थीं। 'देवी पुराण' में भी इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है ...... तथापि बहुत से लोगों का मानना है कि तान्त्रिक साधना के अनुसार दुर्गापूजा के साथ कुमारी पूजा को  जोड़ा गया है। ऐसा सुनने में आता है कि एक समय था जब भारत के सभी शक्तिपीठों में कुमारी पूजा पद्धति (ritual of Kumari Puja ) प्रचलित थी। श्वेताश्वतर उपनिषद में भी कुमारी पूजा का उल्लेख हुआ है , और इससे हम यह समझ सकते हैं कि कुमारी पूजा की प्रथा बहुत पुरानी है। जिस प्रकार देवी दुर्गा के लिये 'कुमारी' का नाम (virgin name of the goddess) बहुत पुराना है , उसी प्रकार उनकी पूजा और आराधना करने की रीति-नीति भी बहुत प्राचीन और व्यापक है। 

योगिनीतंत्र , पुरोहित दर्पण आदि धार्मिक ग्रन्थों में कुमारी पूजा की पद्धति और उसके महात्म्य का वर्णन विस्तार से किया गया है। उस वर्णन के अनुसार , कन्या मात्र ही पूजनीय होती है। 'कुमारी पूजा' में किसी भी जाती, धर्म और वर्ण की कन्या के पूजन करने में कोई भेदभाव करने विधान नहीं है। देवी-ज्ञान से किसी भी 'कुमारी' की पूजा की जा सकती है । हालाँकि सामान्य तौर पर 'कुमारी देवी ' के रूप में सर्वत्र 'ब्राह्मण' कन्या की पूजा ही प्रचलित है।  

'कुमारी पूजा' के लिये आयु के आधार पर एक से 12-13  वर्ष के आयु तक की कन्याओं का ही चयन किया जाता है। यद्यपि किसी भी अन्य जाति और धर्म की कन्याओं का चयन 'कुमारी देवी ' के रूप में पूजने के लिए किया जा सकता है, तथापि उनमें रजोधर्म (Menstruation) का प्रारम्भ निश्चित रूप से नहीं होना चाहिए।  

अलग -अलग उम्र की कुमारी कन्याओं का धार्मिक विधान के अनुसार अलग-अलग नाम निर्धारित किया गया है --  

एक साल की कन्या का नाम है -  संध्या ( Sandhya)

दो साल की कन्या  का नाम है - सरस्वती (Saraswati)।  

तीन साल की कन्या का नाम है - त्रिधाममूर्ति (Tridhamurti) । 

चार साल की कन्या का नाम है - कालिका (Kalika)। 

पांच साल की कन्या का नाम है - सुभागा (Subhaga)। 

छह साल की कन्या का नाम है - उमा (Uma)। 

सात साल की कन्या का नाम है - मालिनी (Malini)। 

आठ साल की कन्या  का नाम है- कुंजिका (Kunjika)  ,

नौ साल की बेटी का नाम है -कालसन्दर्भा (Kalsandarbha)। 

दस साल की कन्या  का नाम है- अपराजिता (Aprajeeta)। 

ग्यारह साल की कन्या  का नाम है - रुद्राणी (Rudrani) । 

बारह साल की कन्या  का नाम है - भैरवी (Bhairvi) । 

तेरह साल की कन्या  का नाम है -महालक्ष्मी (Mahalakshmi)। 

चौदह साल की कन्या का नाम है - पीठानिका (Pithanika)।

पंद्रह साल की कन्या  का नाम है - क्षेत्रज्ञा (Kshetrajna)

सोलह साल की कन्या का नाम है -अंबिका (Ambika)।    

योगिनीतंत्र में कुमारी पूजा के विषय में उल्लेख किया गया है। ब्रह्माजी के श्राप से भगवान विष्णु के शरीर में जब पाप अवतरित हो जाता है , तब उस पाप से मुक्त होने के लिये विष्णु हिमाचल पर महाकाली की तपस्या करते हैं। महाकाली भगवान विष्णु की तपस्या से प्रसन्न हो जाती हैं , और देवी के सन्तोष मन्त्र से ही विष्णु के कमल से अचानक कोला महा-असुर प्रकट होता है।  उस कोलासुर ने इन्द्र आदि देवताओं को पराजित कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात विष्णु के वैकुण्ठ और ब्रह्मा जी के कमलासन को भी जीत लिया। तब पराजित विष्णु और सभी देवगण विनम्र भाव से " रक्षा करो, रक्षा करो" कहकर देवी की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से संतुष्ट होकर देवी ने विष्णु से कहा , " हे विष्णु , मैं 'कुमारी' रूप धारण करके स्वयं कोलानगरी जाऊँगी और उस कोलासुर का वध कर दूँगी! "  

तत्पश्चात देवी ने जब कोलासुर का वध कर दिया , तब सभी देवताओं ने देवी माँ  की पूजा की। 

कुमारी पूजा का दार्शनिक- तत्व है महिलाओं की मातृशक्ति में परमार्थदर्शन और परमार्थ ज्ञान (सर्वव्यापी मातृहृदय के विराट 'मैं ') का अर्जन। विश्व-ब्रह्माण्ड में जो सृष्टि और प्रलय क्रिया निरन्तर अनुष्ठित हो रही है, वह शक्ति (Energy ऊर्जा) 'कुमारी ' में ही निहित है।  'कुमारी पूजा ' प्रकृति की  बीजावस्था (अव्यक्त अवस्था)  या अव्यक्त मातृ-शक्ति का प्रतीक है। इसीलिए कुमारी कन्या में देवी भाव आरोपित कर के सम्पूर्ण नारीजाति की साधना और पूजा की जाती है , और यह समझाने की चेष्टा की जाती है कि नारीजाति त्याज्य नहीं पूज्य है !  

कुमारी भगवती देवी दुर्गा की सात्विक प्रतिमूर्ति है। माँ जगदम्बा जगत की आत्म-शक्ति हैं , जो सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की सृष्टिकर्त्री होकर भी चिरकुमारी हैं -.... कुमारी आद्याशक्ति महामाया की प्रतीक हैं। देवी दुर्गा का ही एक नाम कुमारी है।   

कुमारी में सम्पूर्ण मातृजाति की श्रेष्ठ-शक्ति , पवित्रता , सृजनी शक्ति (सृजन करने की शक्ति) ,पालनी शक्ति (पालन करने की शक्ति) और सर्व कल्याणी (सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने की शक्ति) सूक्ष्म रूप से विराजित है। इस तथ्य से मानवजाति का परिचय कराना ही कुमारी पूजा का उद्देश्य है। 

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  [ (प्रज्वलित कलम से) [https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/brihaddharma-purana-abridged]

[साभार https://hi.quora.com/डॉ. विनीत बाहरी, Punjab National Bank में पूर्व Sr. Manager (2000-2015) ] 

प्रश्न : देश का मौजूदा माहौल देखते हुए क्या आप 2024 में फिर से बीजेपी को वोट देंगे?

उत्तर  : "फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

मुझे याद आता है उस समय का एक विज्ञापन जब हेलमेट पहनने को अनिवार्य बनाया गया था, जिसमें सिर की तुलना एक तरबूज से करते हुए "अत्यंत स्पीड में चलती हुई मोटर साईकल से एक तरबूज नीचे गिरता है और वह तरबूज टुकड़े टुकड़े हो कर लाल रंग के चीथड़ो में बदल जाता है" तब टेबल में रखे तरबूज को हेलमेट पहनाते हुए बैकग्राउंड से एक भारी सी आवाज आती है -"फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

क्या आप लालू प्रसाद यादव या मायावती या मुलायम सिंह या प्रियंका गाँधी या राहुल गाँधी या ममता दीदी या मुफ़्ती मोहम्मद या फारुख या गुलाम नबी या वाई एस जगनमोहन रेड्डी या नवीन पटनायक या पिनाराई विजयन या भूपेश बघेल या हेमन्त सोरेन या पलानी स्वामी या चंद्रशेखर राव या नितीश कुमार या कमलनाथ या उद्धव ठाकरे या अरविंद केजरीवाल या अशोक गहलोत में से किसी को प्रधान मंत्री चुनना चाहेगे ?

आप मोदी जी के विरुद्ध किसी अन्य नेता की कल्पना करें तो आपको स्वत: जवाब मिल जाएगा.

यद्यपि कई राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सफल नहीं हो रही है, परंतु बावजूद इसके मई 2019 के हाल ही के लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में श्री मोदी को प्रचंड बहुमत से स्वीकार किया है. इसका तात्पर्य है कि इस देश की जनता की अपेक्षाएं देश के लिए अलग हैं और राज्यों के लिए अलग….

असेम्बली चुनाव के मुद्दे उस राज्य से सम्बंधित होते हैं जबकि लोकसभा के चुनाव में देश दांव पर होता है. अब यह तथ्य स्थापित हो चुका है और यह विवाद का विषय नहीं बचा.

तो सीधे और सरल शब्दों में "फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

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[ साभार :बिसात कुमार, आर्य समाज का पूर्व समर्थक, अब सनातन धर्म का पक्षधर/ https://hi.quora.com/] 

प्रश्न : आर्य-समाजी लोग वेद ग्रंथों के भाष्य में झूठा, गलत, संदर्भहीन अर्थ निकालकर क्यों लिखते हैं?

उत्तर :---बिसात कुमार , आर्य समाज का पूर्व समर्थक, अब सनातन धर्म का पक्षधर। (जवाब दिया गया: 21 सित॰ 2020)

यह सवाल पढ़ कर मुझे सांत्वना मिली कि कोई तो है जो इस बात को मानता है, कि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने वेदों का पूर्ण रूप से गलत भाष्य लिखा है। इतना ही नहीं उन्होंने लोगों के बीच और भी कई सारी मिथ्या भ्रांति फैलाई है, जो कि सनातन धर्म के मुख्यधारा से बिल्कुल उलट है। आइए मैं आपको आर्य समाज के द्वारा फैलाई गई कुछ झूठी बातों के बारे में विस्तारपूर्वक बतात हूं। आइए एक एक कर उनके सारे झूठे बातों का पर्दाफाश करें।

मिथ्या सं १. जितने भी पुराण हैं, वे वेद का भाग नहीं है।

तथ्य :- वेदों में पुराणों को पंचम वेद कहा गया है, आइए इसके प्रमाण देखें

छान्दोग्य उपनिषद (७.१.४) : नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥

यह मंत्र साफ साफ ये कहता है कि, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, ये चार वेद है, और इतिहास और पुराण पंचम वेद हैं।

अथर्व वेद (१५.६.१० - १२) स बृहतिं दिशमनु व्यचलत, तम इतिहासश्च पुराण च गाथाश्च नाराशंसोश्चानुरूपचलन,इतिहासस्य च वे स पुराणस्य च गाथानाम च नाराशंसीनाम च, प्रिय धाम भयति य एवं वेद। अर्थ:- उसने बृहती दिशा का गमन शुरू किया तब उनके लिए पुराण, इतिहास, गाथाएं एवं नाराशंसी अनुकूल हो गए, इस बात को जानने वाला पुराण, इतिहास और गाथाओं का प्रियधाम होता है।

इन दो मंत्रों के अलावा वेदों में और भी बहुत से साक्ष्य मिल जाएंगे, जिससे ये बात साफ होता है कि इतिहास और पुराण के बिना आपको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती

मिथ्या सं २. पुराणों को वेद व्यास जी ने नहीं, बल्कि किसी पाखंडी ने लिखा है।

तथ्य :- कलियुग के लोगों के लिए पुराणों की रचना स्वयं वेद व्यास ही किए थे, और सनातन धर्म के जितने भी प्रमुख आचार्य हुए है, उन सभी ने पुराणों को ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है।

आर्य समाज अक्सर यह भ्रांति फैलता है कि पुराणों की रचना तो किसी पाखंडी ने किया है, परन्तु वे इसका साक्ष्य देने में असमर्थ हैं। सच्चाई तो यह है कि आर्य समाज को पुराणों से ही समस्या है, क्योंकि पुराणों में लिखी गई सिद्धांत आर्य समाज के सिद्धांत से परे है, इसलिए उन्होंने पूरे पुराणों को ही नकार दिया। दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि भागवत पुराण की रचना भोपदेव ने ११०० के लगभग करी थी, परन्तु हमें भागवत पुराण के अस्तित्व के साक्ष्य उससे भी पहले मिलता है, आदि गुरु शंकराचार्य (जिनका जन्म ५०८ ई.पु में हुआ) अपने कृत्यों में भागवत पुराण के श्लोकों का उल्लेख करते हैैं। इतना ही नहीं, चाणक्य ने भी चाणक्य नीति में पौराणिक कथाओं के कुछ अंश का उल्लेख करते हैं।

मिथ्या सं‌ ३. वैदिक काल में लोग मूर्ति पूजा नहीं करते थे। 

तथ्य :- स्वयं रामायण में मूर्ति पूजा का उल्लेख है। आर्य समाज यह कहता है, कि राम और कृष्ण यज्ञ किया करते थे परन्तु मूर्ति पूजा नहीं करते थे, बल्कि सच्चाई तो यह है कि, रामायण में राम के द्वारा शिवलिंग की पूजा के बारे में सभी जानते है, और तो और रामायण में मंदिरों का भी उल्लेख है।

मिथ्या सं ४ :- ईश्वर निराकार है। 

तथ्य :- ईश्वर निराकार और साकार दोनों है।

आर्य समाज कहता है कि वेदों के अनुसार ईश्वर निराकार है, परन्तु वेद में तो ईश्वर के साकार रूप का भी वर्णन आता है, जैसे कि यह देखें। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥- श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.१४, यजुर्वेद ३१.१ अतर्ववेद १९.६.१ और ऋग्वेद १०.९०.१ में मंत्र है।

भावार्थ :- वह परम पुरुष हजारों सिर वाला, हजारों आँख वाला और हजारों पैर वाला, वह समस्त जगत को सब ओर से घेर कर नाभि से दस अङ्गुल ऊपर (हृदय में) स्थित है।

मित्रों तथ्य तो ये है कि ईश्वर एक समय निराकार और साकार दोनों होते है, आइए इसे हम बृहद आरण्यक उपनिषद के इस मंत्र से समझें - द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च,स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च॥- बृहदारण्यकोपनिषद् २.३.१भावार्थ:- ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत, स्थित और यत् (चर) तथा सत् और त्यत्। अर्थात् वो भगवान के ही दो स्वरूप है एक निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त)। भगवान की वो रूप जो हमारे बुद्धि से भी आच्छादित है, उन्हें ही शास्त्रों में निराकार कहा गया है।

मिथ्या सं ५. राम और कृष्ण आम व्यक्ति है, वे विष्णु के रूप नहीं है

तथ्य :- राम, कृष्ण और विष्णु एक ही है, वे दिव्य है, मनुष्य रूप में तो वे बस भक्तों के साथ लीला करने के लिए अपनी इच्छा से ही अवतरित होते है. इस बात की पुष्टि स्वयं कृष्ण ही भगवद गीता में करते है, -'जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं ' अर्थात मेरा जन्म और कर्म दिव्य है (भ० गी ० ४.९) और फिर 'न मां कर्माणि लिम्पन्ति' -अर्थात मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, या मैं कर्मों के बंधन से मुक्त हूं। और तो और वे अवतार लेने की बात स्वयं कहते हैं -यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

निष्कर्ष :- मित्रों आर्य समाज ने सिर्फ इतनी ही नहीं और भी बहुत सारी भ्रांतियां लोगों के बीच फैलाई हुई है, इतनी कि अगर मैं लिखने लग जाऊं तो धरती भी छोटी पड़ जाए, वे सभी साक्ष्यों के देने के बावजूद आए दिन यूट्यूब, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से लोगों के बीच मिथ्या भ्रांति फैलाते हुए नजर आते हैं।

मैं आपलोग से बस इतना पूछता हूं कि क्या ये तथा कथित आर्य समाज वेद व्यास, वाल्मीकि, चाणक्य, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य जैसे आचार्यों से भी ज्यादा बुद्धिमान है ? किसी भी दृष्टिकोण से नहीं, अगर कोई ऐसा कहता है तो वह उसका अहंकार और मूर्खता है, आर्य समाज के बातों में अहंकार साफ नजर आता है, चाणक्य हमें ऐसे ही लोगों से दूरी बनाए रखने को कहते है, आप भी ऐसे लोगों से सचेत रहें। 

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विशेष : DAV School में बच्चों को भेजें पर वहाँ सरस्वतीपूजा करने के लिए अनुप्रेरित करें।  

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[13/10, 06:05] +91 82502 65921: 

"  কুমারী পুজা "

🙏🙏  .....  আজ ১৩- ই  অক্টোবর , ২০২১ |  কাশ্মীরে  ক্ষীরভবানী  মন্দিরে  স্বয়ং  স্বামী বিবেকানন্দ  একটি মুসলমান কন্যাকে মহাঅষ্টমীর এই বিশেষ  দিনে কুমারী দেবী  হিসেবে  পুজো  করেছিলেন  |

🙏🙏কুমারী পুজা শারদীয় দুর্গোৎসবের এক বর্ণাঢ্য পর্ব ...... বিশেষতঃ কুমারী দেবী দুর্গার পার্থিব প্রতিনিধি হিসাবে পুজো করা হয়ে থাকে ৷ প্রতি বছর দুর্গাপুজার মহাষ্টমি পুজোর শেষে কুমারী পুজা অনুষ্ঠিত হয় ৷

 শ্রীশ্রীমা -র অনুমতিক্রমে স্বামী বিবেকানন্দ ১৯০১ সালে এই পুজার প্রচলন করেন ৷ শাস্ত্রকাররা নারী জাতিকে সম্মান ও শ্রদ্ধা করতে এই পুজো করতে বলেছেন ৷ আমাদের সনাতন ধর্মে নারীকে সম্মানের শ্ৰেষ্ঠ আসনে বসানো হয়েছে ৷

    পুরুষদের পশুত্বকে সংযত রেখে নারীকে সন্মান জানাতে হবে , এটাই কুমারী পুজোর মুল লক্ষ্য ৷

বৃহদ্ধর্ম পুরাণের বর্ণনা অনুযায়ী দেবতাদের স্তবে . প্রসন্ন হয়ে দেবী চন্ডিকা কুমারী কন্যা রুপে দেবতাদের সামনে গিয়েছিলেন ৷ দেবীপুরানে বিস্তারিত এ বিষয়ে উল্লেখ আছে ..... তবে অনেকে মনে করেন দুর্গাপুজার কুমারী পুজা সংযুক্ত হয়েছে তান্ত্রিক সাধনা মতে ৷ শোনা যায় একসময়ে শক্তিপীঠ সমুহে কুমারী পুজার রীতি প্রচলন ছিল । শ্বেতাশ্বত উপনিষদেও কুমারী পুজার কথা উল্লেখ আছে এবং এথেকেও আমরা বুঝতে পারি যে কুমারী পুজোর প্রথা অনেক পুরোনো ৷ দেবীর কুমারী নাম যেমন পুরোনো , তেমনি তাঁর আরাধনা ও রীতিনীতিও প্রাচীন ও ব্যাপক ৷

     যোগিনীতন্ত্রে , পুরোহিত দর্পন প্রভৃতি ধর্মীয় গ্রন্থে কুমারী পুজোর পদ্ধতি ও মাহাত্ম্য বিশেষভাবে বর্ণিত আছে । বর্ণনানুসারে , কুমারী পুজোয় কোন জাতি , ধর্ম ও বর্নভেদ নেই ৷ দেবীজ্ঞানে যে কোন কুমারীই পুজনীয় ৷ তবে সাধারণতঃ ব্রাহ্মন কন্যার পুজোই সর্বত্র প্রচলিত |

   বয়স অনুসারে এক থেকে ষোল বছর বয়সি কুমারী কন্যাদেরই পুজো করা হয় ৷ তবে অন্যজাতির কন্যাকেও কুমারী পুজোয় নির্বাচন করা যেতেই পারে ..... কিন্তু অবশ্যই তাদের ঋতুবতী হওয়া চলবে না ৷

ধর্মীয় বিধান অনুযায়ী এক এক বয়সের কুমারীর এক এক নাম রয়েছে .....

১  বছরের কন্যার নাম সন্ধ্যা ।

দুই বছরের কন্যার নাম সরস্বতী ৷

তিন বছরের কন্যার নাম ত্রিধামুর্তি ৷

চার বছরের কন্যার নাম কালীকা ৷

পাঁচ বছরের কন্যার নাম সুভাগা ৷

ছয় বছরের কন্যার নাম উমা ৷

সাত বছরের কন্যার নাম মালিনী ৷

আট বছরের কন্যার নাম  কুঞ্জিকা |

নয় বছরের কন্যার নাম কালসন্দর্ভা ৷

দশ বছরের কন্যার নাম অপরাজিতা |

এগারো বছরের কন্যার নাম রুদ্রাণী ৷

বারো বছরের কন্যার নাম ভৈরবী ৷

তের বছরের কন্যার নাম মহালক্ষ্মী ৷

চোদ্দ বছরের কন্যার নাম পীঠনায়িকা ।

পনেরো বছরের কন্যার নাম ক্ষেত্রজ্ঞা ।

ষোল বছরের কন্যার নাম অম্বিকা |

যোগিনীতন্ত্রে কুমারী পুজা সম্পর্কে  উল্লেখ আছে ৷ ব্রহ্মশাপবলে মহাতেজা ভগবান বিষ্ণুর দেহে পাপ অবতার হলে সেই পাপ হতে মুক্ত হতে বিষ্ণু হিমাচলে মহাকালীর তপস্যা করেন ৷ ভগবান বিষ্ণুর তপস্যায় মহাকালী খুশি হন এবং দেবীর সন্তোষ মন্ত্রেই বিষ্ণুর পদ্ম হতে সহসা কোলা নামক মহাসুরের আবির্ভাব হয় ৷ সেই কোলাসুর ইন্দ্রাদি ও দেবগণকে পরাজিত করে অখিল ভূমন্ডল , বিষ্ণুর বৈকুন্ঠ ও ব্রহ্মার কমলাসন প্রভৃতি দখল করে নেয় ৷ তখন পরাজিত বিষ্ণু ও দেবগন " রক্ষ রক্ষ " বাক্যে ভক্তি বিনম্র চিত্তে দেবীর স্তব শুরু করেন ৷ দেবী সন্তুষ্ট হয়ে বিষ্ণুকে বলেন , " হে বিষ্ণু , আমি কুমারী রূপ ধারণ করে কোলানগরী গমন করে কোলাসুরকে সবান্ধবে হত্যা করিব । "

অতঃপর তিনি কোলাসুরকে হত্যা করেন এবং সমস্ত দেবগণ তখন মা-কে পুজো করেন ৷

কুমারী পুজোর দার্শনিকতত্ত্ব হল নারীতে পরমার্থ দর্শন ও পরমার্থ জ্ঞান অর্জন ৷ বিশ্ব ব্রহ্মান্ড প্রতিনিয়ত সৃষ্টি ও লয় ক্রিয়া অনুষ্ঠিত হচ্ছে , সেই  শক্তিই কুমারীতে নিহিত আছে ৷ কুমারী প্রকৃতি বা নারীজাতির প্রতীক ও বীজাবস্থা ..... তাই কুমারী  নারীতে দেবীভাব আরোপ করে তাতে সাধনা ও পুজো করা হয় এবং বোঝানো হয় নারীজাতি ভোগ্যা নয় , পুজ্যা ৷

     কুমারী ভগবতী দেবী দুর্গার  সাত্বিক রূপ ৷ জগতাত্ম বিশ্বব্রহ্মান্ডের সৃষ্টিকর্ত্রী হয়েও চিরকুমারী ..... কুমারী আদ্যাশক্তি মহামায়ার প্রতীক ৷ দেবী দুর্গার আরেক নাম কুমারী ৷

কুমারীতে সমগ্র মাতৃজাতির শ্রেষ্ঠ শক্তি , পবিত্রতা , সৃজনী ও পালনী শক্তি এবং সকল কল্যানী শক্তি সুক্ষ্মরূপে বিরাজিতা ৷

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কলমে  তপতী ৷ 

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प्रज्ज्वलित कलम से निसृत : विजय कुमार सिंह, एक परिचय : मेरे पिता आर्यसमाज के पक्षधर थे , तत्कालीन प्रचलित धार्मिक-अन्धविश्वास जैसे ताबीज , अंगूठी,  छुआछूत आदि पर विश्वास नहीं करते थे।  परन्तु रामायण प्रेमी थे, सुबह -सुबह रामायण की चौपाइयाँ सुनाकर हम सभी भाईबहनों को जागते थे।  उन्हें  पूरा रामायण कंठस्थ था , किन्तु दशरथ के पुत्र राम भगवान विष्णु के अवतार थे , इस बात को नहीं मानते थे। परन्तु हमलोगों को मूर्तिपूजा करने या सनातन धर्म पर चलने से रोकते नहीं थे।   क्योंकि  मेरी माँ कृष्ण-भक्त थीं और सनातन धर्म की पक्षधर थीं। हमलोगों को अवतार पर विश्वास करने की शिक्षा देते हुए कहती थीं। अच्छे संस्कारों को ग्रहण करो , मन से कभी हारना नहीं , विश्वास करो तुम सबकुछ कर सकते हो। सन्तोष की डाल पर मेवा फलता है। अतः अच्छी आदतों के द्वारा अच्छे संस्कार अर्जित करो और  एक चरित्रवान मनुष्य बनकर जीने का प्रयास करो।  आर्य-समाजी लोग मूर्तिपूजा की निन्दा करते हैं , वेद, उपनिषद , मनुसमृति का झूठा,  गलत, संदर्भहीन अर्थ निकालकर सनातन धर्म को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। जो मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं था , लेकिन मेरे पिता आर्य समाजी थे और मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे ,क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना के आर्यसमाजी स्कूल में हुई थी। इसलिए उनके साथ मेरी बैद्धिक-बहस होती रहती थी। किन्तु वे मुझे रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के साथ जाने के लिए कभी मना नहीं किये। 

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शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

एक अद्भुत लेखन ( Awesome writing) [पूजा और त्यौहार में सामंजस्य बनाये रखने का कौशल]

 {[11/10, 23:02] +91 70035 86052 ] 

एक अद्भुत रचना ( Awesome writing)} 

 लेखक को बहुत-बहुत धन्यवाद  🙏(लेखक अज्ञात)

हर कोई कातर अनुरोध कर  रहा है - 'इस साल दुर्गापूजा के अवसर पर उत्स्व मत मनाइये, केवल  'पूजा' भर कीजिये।' नहीं तो कोरोना के अन्तिम दिन 'बेलेघाटा आईडी' (जैसे पटना का बाँसघाट)  पर  'पता' टंग जायेगा। इस बात को लेकर डॉक्टर, पुलिस और समाज-सेवी छटपट कर रहे हैं, 'मास्क-मास्क ' चिल्ला रहे हैं लेकिन परवाह किसे है!

वास्तव में, यह जनसाधारण की गलती नहीं है, यह उन्हीं लोगों की गलती है जो इसके लिए अनुरोध कर रहे हैं! वे एक ऐसे राष्ट्र से 'पूजा ' करने के लिए कह रहे हैं जो कम से कम 50 वर्ष पहले ही 'पूजा करना'  भूल गया है ! यह राष्ट्र प्रत्येक वर्ष ' पूजा करना ' छोड़कर, बाकी 'महोत्स्व ' [মোচ্ছব-টা] को ही बड़ी धूमधाम से (with great pomp) आयोजित करता चला आ रहा हैं!

आइए आत्मविश्लेषण करके देखें कि एक सामान्य भारतवासी (विशेष रूप से बंगालवासी) दुर्गा पूजा के दिनों में अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं ? !  

अगर आप  'teenager' किशोर या युवा  हैं, तो रात भर घूमते हैं (hang out all night long.) या दोस्तों के संग अड्डाबाजी करते हैं 

दोपहर में बिरयानी , शाम को फिश फ्राई, गाँजा -भांग का सेवन , कोल्ड ड्रिंक की बोतल में व्हिस्की मिला कर पीना। दोस्तों के साथ किसी के घर पर या 'पब ' में जाकर वाइन-बियर पार्टी चलता है । अपने गर्लफ्रेंड के साथ  'ओयो रूम' या किसी दोस्त के खाली फ्लैट की तलाश करते हैं । इन सभी 'महत्वपूर्ण लीलाओं' के समाप्त होने पर ब्रह्म-मुहूर्त में या सुबह-सुबह जब देवी की पूजा शुरू हो रही होती है, उस समय आप  घर वापस लौटते हैं। और घर पहुंचकर  दोपहर 12 बजे तक सोते हैं। और नए वस्त्र, दशमी के दिन लाल किनारे की धोती , अष्टमी में पंजाबी-कुर्ता , (भारत या ) बंगाल में जन्म लेने पर ये सब (भारत-वंशियों) वाली आत्मीयता तो मिल ही जाती है।

आइए अब देखते हैं कि जिनकी आयु और अधिक हो गयी है , जो माता-पिता बन चुके हैं , वे सब नौकरी-पेशा माँ-बाप क्या कर रहे हैं ?  वे लोग पूजा के उपलक्ष्य पर परदेश में जहाँ नौकरी -व्यवसाय कर रहे हों , वहां से वापस अपने पैतृक-निवास पर लौटते हैं। देर से उठते हैं , और दोपहर का भोजन अपने माता-पिता के साथ किसी रेस्तरां में  करते हैं । घर पर अपने  दोस्तों और दोस्तों की 'मिसेज ' के साथ पार्टी का आयोजन करते हैं। एक दिन फिल्म, दूसरे दिन कहीं लॉन्ग ड्राइव पर निकल गए, किसी एक रात में जागकर दशभुजा देवी मूर्तियों का दर्शन कर लेता हूं।

जो लोग उसी शहर के रहने वाले हैं , वे लोग क्या करते हैं ? उन लोगों का इस वर्ष के पूजा की छुट्टियों में 'travel program'  यात्रा- कार्यक्रम 5 महीने पहले से ही निश्चित किया हुआ है। शिमला , मनाली ; अथवा जेब गर्म है तो अमेरिका -यूरोप चल दिए। उनकी माँ (तारा) उनके देश आ रही हैं -इसी ख़ुशी में  बँगाली (भारतीय) देश छोड़कर भाग रहे हैं !     

फिर  'सार्वजनिक दुर्गा पूजा ' की उत्पत्ति के विषय में हमलोग गर्व से कहते हैं - " पहले पूँजीपति वर्ग (bourgeoisie) के राज -सत्ताधारी (authorities) लोग अपने कुलीनतंत्रीय पूजा (বনেদি পুজোয় ) में सभी जन-साधारण को भाग लेने की अनुमति नहीं देते थे , इसीलिये बारुयारी और सार्वजनिक दुर्गापूजा  का प्रारम्भ हुआ ! "   

लेकिन वास्तविकता ( real picture)  क्या है ? यदि किसी सार्वजनिक पूजा समिति का बजट दो लाख का है , तो उसमें से एक लाख रुपया पॉकेट में , या बोतल खर्च में चला जायेगा ! भट्टाचार्जी महाशय पूछ-पूछ कर थक जाते हैं , " बेटे , फूलों वाले थैले में कपड़े वाला डब्बा तो नहीं दिख रहा है ; नए कपड़ों के डब्बे बिना माँ की पूजा निष्फल होगी। " उस सार्वजनिक क्लब का सचिव उत्तर देता है , " ओह चाचाजी (जेठू) , आप बहुत डिस्टर्ब करते हैं; आपके पहले वाले पण्डितजी तो ऐसे नहीं थे ! डब्बा के बिना ही क्या आप काम नहीं चला सकते ? देखते नहीं हैं - रात के प्रोग्राम में अभिनय करने (या perform करने) के लिए मिस (सूश्री ....अमुक) आ रही हैं। मेरा कितना ही काम बाकी है।  

"दो सौ साल पहले प्रथम  बारुयारी पूजा का विरोध समाज के गणमान्य लोगों (big gun-হোমরাচোমরাने यह कहकर किया था - " क्या ! अब भिक्षा माँगकर माँ दुर्गा की पूजा करनी होगी ?  इससे तो भयानक प्रकार के मनुष्य निर्मित (অনাসৃষ্টি) होंगे  ? "  

उस समय के उन  रूढ़िवादी ब्राह्मणों की उक्ति भले ही उस समय हास्यास्पद प्रतीत होती हो, लेकिन अब 21 वीं सदी में आकर चिंतनशील बंगालियों को (भारत वासियों को) इस बात का अहसास हो रहा है कि 'बारुयारी पूजा ' के नाम पर हमने कितने भयानक फ्रेंकस्टीन (frankenstien)  का निर्माण कर लिया है। माइक पर होने वाले आवाजों के शोर से कान झनझना उठते हैं। पियक्कड़ लोगों का उत्पीड़न , मुँह-माँगा चन्दा न देने पर रंगदारी की धमकी, रूलिंग पार्टी (सत्ता दल) के नेताओं की लाल ऑंखें , मूर्ति विसर्जन के दिन भाँग खाकर लेटेस्ट  DJ धुन पर उछलना। जनसाधारण के टैक्स के पैसों से यह कैसी बारुयारी (सरकारी) पूजा ! अगले वर्ष भी इसी तरह खूब धूम -धड़ाके से पूजा आयोजित होगी ! पीछे लात मारकर भी विसर्जन तो हो ही सकता है। धन्य आधुनिक बंगाली (आधुनिक भारतीय)! 

और धन्य है वह प्राचीन बंगाल (भारत) के वे बुजुर्ग जिन्होंने उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी कि - (सरकारी खर्चे पर) बारुयारी करने से " অনাসৃষ্টি হবে" !!! (भयंकर दुश्चरित्र मनुष्यों का निर्माण होगा।)  

इस बार के बारुयारी महोत्स्व के भव्य आयोजन हेतु मुख्यमंत्री जी प्रत्येक क्लब को 50, 000 रुपए की सहायता राशि दे रही हैं ! इसलिए प्रत्येक क्लब को थाना से ठण्ढे गले में फोन आता है - ' कहाँ आपके क्लब से , तो पैसे लेने कोई नहीं आया ?  (Every club gets a cold throat call from the police station - - "Where?" Your club did not come to take money? “) 

अब भला किसकी छाती में इतना दम है कि वह  राजा के द्वारा दिये गए दान को अस्वीकार करने की हिमाकत करे ?  (कार बूकेर पाटा आछे राजार दान प्रत्याख्यान कोरे ! ??কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??)

आइये, अब देखते हैं कि मूर्ति उद्योग (idol industry) हमें क्या ज्ञान दे रहा है । थीम आधारित पूजा में  मूर्ति का सिर बड़ा है, शरीर छोटा। प्रतिमा के त्रिनयन ललाट को लांघते हुए ब्रह्मरन्ध्र का स्पर्श कर रहे हैं ! गणेश पुलिस ! कार्तिक स्वीपर (ঝাড়ুদার) बने हैं  ! सरस्वती  जीन्स और टॉप (jeans-top) पहनी हैं, लक्ष्मी के हाथों में नैपकिन-सैनिटाइज़र,  कभी दानव (अशुभ) ऊपर और देवी (शुभ) नीचे ! इनदिनों  प्रतिमा-निर्माण  अमूर्तकला (abstract art)  और आधुनिक कला (modern art) की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है। किसी जमाने में  मूर्तियाँ ईश्वर के साथ जुड़ने , (मनःसंयोग करने) की माध्यम थीं। इसके साथ जुड़ी थीं- सामाजिकता , परिवेश , आध्यात्मिकता , तथा स्वास्थ और वित्तीय उत्थान। लेकिन अब माँ दुर्गा की प्रतिमा एक आर्ट-मीडियम  (museum) मात्र है, एक उपभोग की सामग्री (commodity)  और दर्शक उपभोगता (consumer) ! 

शास्त्रों में कहा गया है कि यदि प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और परिपूर्ण न हो, तो उस मूर्ति में देवता आविर्भूत नहीं होते। अगर इसे सच मान लिया जाये तो माँ दुर्गा कोलकाता शहर से बहुत पहले पलायन कर चुकी हैं। सर्वांग परिपूर्ण और सुन्दर प्रतिमा तो दूर की बात है , जानबूझकर प्रतिमा को विकृत करना ही आजकल 'आर्ट ' है !     

   यह तो हुई आम बंगाली की 'पूजा संस्कृति' है। अब हमें यह समझायें कि, आपको इन सबके बीच  "पूजा" कहाँ प्राप्त हो गयी ?!

 पूजा करता कौन है ? 

यहाँ तक कि पूजा के वे पाँच दिन जिन्हें धर्म-कर्म के लिए उपयुक्त माना जाता है , उसमें अष्टमी के दिन वाली पुष्पांजलि भी लड़कियों पर प्रभाव  जमाने का अनुष्ठान होने के कारण प्रसिद्द है। विभिन्न विज्ञापनों , सिनेमा में , धारिवाहकों में देखते हैं की जब पुष्पांजलि देते हुए प्रभाव जमाया जा रहा है , तब आनन्द से भर जाते हैं और हमें अपने बंगाली होने पर गर्व होता है। यह हमारी दुर्गा पूजा है। दुनिया में कहीं भी ऐसा त्यौहार नहीं है !! लेकिन इस बात पर जरा भी गौर नहीं करते कि जब हम माँ जगदम्बा की आराधना करने आये हैं , वहाँ यह  कैसा आचरण है !    

अरे भाई, क्या (गर्ल -फ्रैंड) रिझाने (tickle) के लिए तुमको यही समय मिला है?!

तो फिर मेरे कहने का सही तात्पर्य क्या है ? क्या मैं यह चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति पूजा के समय खुशियाँ मनाना भूल कर केवल पूजा -पाठ में डूबा रहे ? कदापि नहीं ! बेशक हमलोग दुर्गोत्स्व का आनन्द मनायेंगे ; किन्तु उसके साथ साथ पूजा का अर्थ (meaning of worship) और उसका विज्ञान (science) भी मन में उज्ज्वल बना रहेगा। ताकि हमलोग उत्सव मनाते हुए कहीं पूजा के मूल सूत्र को ही न भूल जाएँ। जहाँ पूजा के विज्ञान को ध्यान में नहीं रखा जाता, वहाँ उत्सव या त्यौहार  (festivals)  लम्पटता (debauchery-व्यभिचारिता) के नग्न नृत्य  और (orgy-मद्यपान उत्स्व, मदनोत्सव ) आदि को जन्म देते हैं। अतः हमलोगों को पूजा और त्यौहार में सामंजस्य (consistency-अनुरूपता, संगतता , सादृश्य) या सन्तुलन बनाये रखने का कौशल सीखना होगा। उस सामंजस्य रखने के विज्ञान कार्यकर बनाये रखना आवश्यक है। माँ दुर्गा के आगमन की खुशी में , हमें इस बोध (feeling) को खोना नहीं चाहिए। कहीं खुशियाँ मनाने के चक्कर में 'माँ का आगमन ' कहीं  माँ को 'टेने आना (Dragged)' घसीट कर लाना तो नहीं हो रहा है?  हमें अपनी प्राचीन हिन्दू-संस्कृति के जड़ (Root-एकं सत)  को नहीं भूलना चाहिये !   

वास्तविकता तो यह है कि 'बंगाली पूजा ' कई दशकों से लुप्तप्राय हो चुकी है ! प्रति-वर्ष बहुत धुम-धाम से जो कुछ आयोजित होता है उसका नया नाम 'Carnival' , मेला, हुड़दंग पूर्ण त्यौहार में 'मन का रंजन ' करना या  'मन की गुलामी' को प्रदर्शित करना है ! इस प्रकार की 'पूजा' का योग्य नामकरण यही है। इसीलिए जो लोग (Govt Machinery आदि ) गला फाड़ -फाड़ कर चिल्ला रहे हैं - " त्यौहार मत मनाइये , मेला का आयोजन मत कीजिये , केवल पूजा कीजिये " वे लोग एक प्रकार से मूर्खता ही कर रहे हैं। आज के 'बंग्रेज' समाज में परिणत बंगाली के जीवन में बंगाली संस्कार से युक्त पूजा के लिए कोई स्थान  नहीं है। पूजा  के नाम पर जो कुछ चल रहा है , वह सब कुछ 'कार्निवाल ' है ! 

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[11/10, 23:02] +91 70035 86052: অসাধারণ লেখা 👌🌹

                                লেখককে অসংখ্য ধন্যবাদ জানাই 🙏(লেখক অজ্ঞাত)

আসলে দোষ জনগণের না , যারা এই অনুরোধ আবেদন করছেন দোষ তাদেরই ! তারা এমন এক জাতিকে পুজো করতে বলছেন , যে জাতি অন্তত ৫০ বছর আগেই পুজো করতেই ভুলে গেছে ! তারা ফি বৎসর পুজোটুকু বাদ দিয়ে বাকি মোচ্ছব-টা অতি ধুমধাম করে আয়োজন করে !

আসুন বিচার করে দেখি । একটা আম বাঙালী দুর্গা পূজোর দিনে কী করে ?! 

বয়েস কম হোলে মোটামুটি সারা রাত night out আড্ডা । 

 দুপুরে বিরিয়ানি , সন্ধ্যে বেলা ফিশ ফ্রাই , গাঁজা , বিয়ার কিংবা কোল্ড ড্রিঙ্কসের বোতলে মেশানো হুইস্কি। বন্ধুদের সাথে কারুর বাড়ি বা পাবে মদের পার্টি । গার্লফ্রেন্ডের সাথে ওয়ো রুম বা বন্ধুর খালি ফ্ল্যাট খোঁজা । এই সব গুরুত্বপূর্ণ লীলা সমাধা করে ব্রাহ্ম মুহূর্তে কিংবা ভোরে যখন দেবীর পুজোর শুরু হচ্ছে তখন বাড়ি ফিরে বেলা ১২ টা অবধি ঘুম ।  আর জামা কাপড় , দশমীতে লাল পাড় , অষ্টমীতে পাঞ্জাবি এসব বাঙালি জন্মসূত্রে পাওয়া আঁতলামি তো আছেই ।

আসুন দেখা যাক যাদের বয়েস আরও কিছু বেশী , সেই সব চাকুরীজীবী বাবা মায়েরা কি করছে ?  পুজো উপলক্ষে তেনারা বিদেশে কর্মস্থল থেকে বাড়ি ফিরেছেন । দেরি করে ঘুম থেকে ওঠা , নিজের নিজের মা বাবাকে নিয়ে রেস্টুরেন্টে দুপুরের ভোজ । বাড়িতে বন্ধু ও বন্ধুদের মিসেস সহযোগে পার্টি । কোন একদিন একটা সিনেমা , অন্যদিন একটা লং ড্রাইভ , একদিন রাত জেগে ঠাকুর দেখা ।

যারা শহরে থাকে তারা কি করে ? পাঁচ মাস আগে থেকে তাদের পুজোয় ভ্রমন কর্মসূচি ঠিক হয়ে আছে । শিমলা মানালি । পকেটে রেস্ত থাকলে প্যারিস ইউরোপ । নিজের দেশে মা আসছেন বলে বাঙালি আনন্দে দেশ ছেড়ে পালাচ্ছে !

আবার গর্বের সাথে আমরা বলি – " বুরজোয়া শ্রেণির শাসক গোষ্ঠী  নিজেদের বনেদি পুজোয় সাধারণ মানুষ কে ঢুকতে দেয় নি বলে বারইয়ারি আর সার্বজনীন পুজোর উৎপত্তি !  “ 

কিন্তু বাস্তব চিত্র টা কি ? ২ লাখ টাকার পুজো বাজেটের থেকে এক লাখ যাবে পকেটে আর বোতলে ! ভটচাজ মশাই জিগ্যেস করে করে ক্লান্ত – “ বাবা , ফুলের প্যাকেটে দুব্বা নেইকো । দুব্বা ছাড়া মার পুজো অচল । “ ক্লাব কর্তার জবাব – “ বড্ড ডিস্টার্ব করেন আপনি জেঠু , আগের জন এরকম ছিলেন না ! দুব্বা ছাড়া একটু চালিয়ে নিতে পারেন না ? দেখছেন মিস অমুক আসছেন অনুষ্ঠান করতে।  আমার কত্ত কাজ ! “ 

দুশো বছর আগে প্রথম বারইয়ারি পুজোর বিরুদ্ধাচারন করেছিলেন সমাজের হোমরাচোমরা রা। বলেছিলেন - " কি ! ভিক্ষা করে মায়ের পুজো হবে ? এত বড় অনাসৃষ্টি !? " 

সেদিনের সেইসব গোঁড়া বামুনের কথা হাস্যকর শোনালেও , বারইয়ারি পুজোর নামে কি যে এক  ভয়ঙ্কর frankenstien আমরা তৈরি করেছি সেটা বাঙালি টের পাচ্ছে এই একবিংশ শতকে এসে !  মাইকের আওাজে কান ঝালাপালা ! মাতালদের উৎপাত , চাঁদার হুমকি , পার্টির চোখ রাঙ্গানো , বিসর্জনে ডি জে ...... আর নবতম সংযোজন , জনগণের ট্যাক্সের টাকায় বারইয়ারি ! আসছে বছর আবার হবে! পিছনে লাথি মেরে বিসর্জন!  ধন্য বাঙালি ! 

আর ধন্য সেই সব প্রাচীনদের যারা বলেছিলেন - " অনাসৃষ্টি হবে" !!!

বারোয়ারি মোচ্ছবে মুখ্যমন্ত্রি ৫০,০০০ হাজার করে টাকা দিচ্ছেন !  থানা থেকে ক্লাবে ক্লাবে ফোন আসছে ঠাণ্ডা গলায় –“ কই ? আপনাদের ক্লাব তো টাকা নিতে এলো না? “ 

কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??

এবার আসুন দেখি প্রতিমা শিল্প কি জানান দিচ্ছে । থিমের পুজোর প্রতিমার মাথা বড় , দেহ ছোট । ত্রিনয়ন কপাল ছাড়িয়ে মাথার ব্রহ্মরন্ধ্রে গিয়ে ঠেকেছে ! গনেশ পুলিশ! কার্তিক ঝাড়ুদার!  সরস্বতী জিনস-টপ পড়া লক্ষ্মীর হাতে  ন্যাপকিন- স্যানিটাইজার কখনও অসুর ( অর্থাৎ অশুভ ) ওপরে আর দেবী ( শুভ ) নিচে ! প্রতিমা এখন abstract art ও আধুনিক শিল্প কলার মাধ্যম ! কোনও এক যুগে প্রতিমা ছিল ইশ্বরের সাথে সংযোগ স্থাপনের মাধ্যম । এর সাথে জড়িয়ে থাকে  স্বাস্থ্য - সামাজিকতা - পরিবেশ - আর্থিক - ও আধ্যাত্মিকতা।  এখন প্রতিমা একটা আর্ট মিডিয়াম  ( মিউজিয়াম )  মাত্র ! একটা commodity । দর্শক consumer ! 

শাস্ত্র বলছে যে প্রতিমা সর্বাঙ্গসুন্দর ও নিখুঁত না হলে তাতে দেবতা অধিষ্ঠান করেন না ! এটা সত্য মানলে কলকাতা শহর থেকে দেবী দুর্গা অনেকদিন আগেই পালিয়েছেন ! নিখুঁত তো দূর অস্ত , প্রতিমা ইচ্ছাকৃত করে বিকৃত করাই আজকাল "আর্ট" !!

এই তো গেল আম বাঙ্গালীর পুজো কালচার । এবার আমাকে বোঝান , যে এর মধ্যে “পুজো” টা কোথায় পেলেন আপনি ?!

কে পুজো করে ?! 

এমনকি পুজোর পাঁচ দিনের মধ্যে একটু আধটু ধম্ম কম্মের দিন বলে খ্যাত যেটি , সেই অষ্টমীর অঞ্জলিও মেয়েদের ঝারি মারার কারনে প্রসিদ্ধ ! বিভিন্ন বিজ্ঞাপনে সিনেমায় সিরিয়ালে আমরা অঞ্জলি দিতে দিতে ঝারি মারা দেখে আনন্দ বিগলিত হয়ে বাঙালি হিসেবে গর্ব বোধ করি ! এই আমাদের দুর্গা পুজো । এমন উৎসব পৃথিবীর কোত্থাও নেই !! কিন্তু একবারও ভেবে দেখি না যে মায়ের আরাধনা করতে এসে এ কি আচরণ ! 

আরে ভাই , সুড়সুড়ি দেওয়ার কি ওইটাই টাইম পেলি ?! 

 তাহলে আমার বক্তব্যটা ঠিক কি ?  আমি কি চাইছি যে সবাই আনন্দ ভুলে,  পুজো আচ্চা নিয়েই থাকবে ? একদমই না ! অবশ্যই আনন্দ থাকবে। তবে তার সাথে পূজার অর্থ ও তার বিজ্ঞান থাকবে।  পুজোর মূল সুত্রটুকু যেন আমরা না ভুলি । যেখানে বিজ্ঞান নেই সেখানে উৎসব - মোচ্ছব, বেলেল্লাপনা, বিশৃঙ্খলতার জন্ম দেয়।আমাদের সামঞ্জস্য রক্ষা করার কৌশল জানতে হবে।  এই সামঞ্জস্য রক্ষাটাই প্রয়োজন । মায়ের আগমনের কারনে আনন্দ এই বোধ টা যেন না হারায় । আনন্দ করার জন্য মা কে টেনে আনা যেন না হয়ে দাঁড়ায় ! শিকড় যেন বিস্মৃত না হই ! 

 আসল কথা হল , বাঙ্গালীর পুজো বহু দশক হল লুপ্ত ।  ফি। বছর ধুমধাম করে যেটা হয় , সেটার নতুন নামকরণ তো " কার্নিভাল " ! মেলা !! মোচ্ছোব !!! মনের রঞ্জন !!!!  অতি যোগ্য নামকরণ ! তাই যারা উৎসব করবেন না পুজো করুন বলে গলা ফাটাচ্ছেন তারা এক প্রকার মূর্খ ! আজকের বাংরেজি  বাঙ্গালীর জীবনে কোনও পুজো নেই , সংস্কার নেই,  সবটাই কার্নিভাল !

(সংগৃহীত)

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मंगलवार, 28 सितंबर 2021

$$$$ *वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है !* ( 1 जनवरी 1883) परिच्छेद ~22,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]


( 1 जनवरी 1883) परिच्छेद ~22,श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ताँके लाभ होले ,  ताँते समाधिस्थ होले - ज्ञानविचार आर थाके ना।*

पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) --“उन्हें (अपने इष्टदेव को)  प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर (अर्थात आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर), फिर ज्ञान-विचार ("Reasoning and discrimination, कुतर्क करने की आदत और अपना-पराया में भेदभाव)  नहीं रह जाता ।” 

[“তাঁকে লাভ হলে, তাঁতে সমাধিস্থ হলে — জ্ঞানবিচার আর থাকে না।

 "Reasoning and discrimination vanish after the attainment of God and communion with Him in samadhi.

“ज्ञान-विचार तो तभी तक है, जब तक अनेक वस्तुओं की धारणा रहती है- जब तक जीव, जगत्, हम, तुम, यह ज्ञान रहता है । जब एकत्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब चुप हो जाना पड़ता है । जैसे त्रैलंगस्वामी  ^ ।” (^ बनारस के एक प्रसिद्ध संन्यासी जो मौनव्रत का पालन करते थे , जिनसे श्रीठाकुर एक बार मिले थे। )

[“জ্ঞানবিচার আর কতক্ষণ? যতক্ষণ অনেক বলে বোধ হয় —“যতক্ষণ জীব, জগৎ, আমি, তুমি — এ-সব বোধ থাকে। যখন ঠিক ঠিক এক জ্ঞান হয় তখন চুপ হয়ে যায়। যেমন ত্রৈলঙ্গ স্বামী।

 How long does a man reason and discriminate? As long as he is conscious of the manifold, as long as he is aware of the universe, of embodied beings, of 'I' and you'. He becomes silent when he is truly aware of Unity. This was the case with Trailanga Swami. (A noted monk of Benares whom the Master once met. The Swami observed a vow of silence.)

ब्रह्मभोज के समय नहीं देखा? पहले खूब गुलगपाड़ा मचता है । ज्यों-ज्यों पेट भरता जाता है, त्यों-त्यों आवाज घटती जाती है । जब दही आया, तब सुप्-सुप्, बस और कोई शब्द नहीं । इसके बाद ही निद्रा-समाधि ! तब आवाज जरा भी नहीं रह जाती !

[“ব্রাহ্মণ ভোজনের সময় দেখ নাই? প্রথমটা খুব হইচই। পেট যত ভরে আসছে ততই হইচই কমে যাচ্ছে। যখন দধি মুণ্ডি পড়ল তখন কেবল সুপ-সাপ! আর কোনও শব্দ নাই। তারপরই নিদ্রা — সমাধি। তখন হইচই আর আদৌ নাই।

"Have you watched a feast given to the brahmins? At first there is a great uproar. But the noise lessens as their stomachs become more and more filled with food. When the last course of curd and sweets is served, one hears only the sound 'soop, soop' as they scoop up the curd in their hands. There is no other sound. Next is the stage of sleep — samadhi. There is no more uproar.]

 श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) – “कितने ही ऐसे हैं जो ब्रह्मज्ञान की डींग मारते हैं परन्तु नीचे स्तर की वस्तुएँ लेकर मग्न रहते हैं । घर-द्वार, धनमान, इन्द्रियसुख । मोनूमेण्ट  (Monument- ^शहीद मीनार, कोलकाता के एस्प्लेनेड में स्थित है। इसकी ऊँचाई 157 फीट है।)  के नीचे जब तक रहा जाता है, तब तक गाड़ी, घोड़ा, साहब, मेम-यही सब दीख पड़ते हैं । ऊपर चढ़ने पर सिर्फ आकाश, समुद्र लहराता हुआ दीख पड़ता है । तब घर-द्वार, घोड़ा-गाड़ी, आदमी-इन पर मन नहीं रमता, ये सब चींटी जैसे नजर आते हैं ।” 

[(মাস্টার ও প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — “অনেকে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা কয়, কিন্তু নিচের জিনিস লয়ে থাকে। ঘরবাড়ি, টাকা, মান, ইনিদ্রয়সুখ। মনুমেন্টের নিচে যতক্ষণ থাক ততক্ষণ গাড়ি, ঘোড়া, সাহেব, মেম — এইসব দেখা যায়। উপরে উঠলে কেবল আকাশ, সমুদ্র, ধু-ধু কচ্ছে! তখন বাড়ি, ঘোড়া, গাড়ি, মানুষ এ-সব আর ভাল লাগে না; এ-সব পিঁপড়ের মতো দেখায়!

(To M. and Prankrishna) "Many people talk of Brahmajnana, but their minds are always preoccupied with lower things: house, buildings, money, name, and sense pleasures. As long as you stand at the foot of the Monument, (A reference to the Ochterloney Monument in Calcutta.) so long do you see horses, carriages, Englishmen, and Englishwomen. But when you climb to its top, you behold the sky and the ocean stretching to infinity. Then you do not enjoy buildings, carriages, horses, or men. They look like ants.]

“ब्रह्मज्ञान होने पर संसार की आसक्ति चली जाती है, 'कामिनी -कांचन' के लिए उत्साह नहीं रहता –सब शान्त हो जाता है । काठ जब जलता है तब उसमें चटाचट आवाज होती है और कड़ुआ धुआँ भी निकलता है । जब सब जलकर खाक हो जाता है, तब फिर शब्द नहीं होता । कामवासना और लोभ (Lust and greed ) में आसक्ति के जाते ही तृष्णा (Thirst ) भी चली जाती है । अन्त में केवल शान्ति रह जाती है ।” 

[“ব্রহ্মজ্ঞান হলে সংসারাসক্তি, কামিনী-কাঞ্চনে উৎসাহ — সব চলে যায়। সব শান্তি হয়ে যায়। কাঠ পোড়বার সময় অনেক পড়পড় শব্দ আর আগুনের ঝাঁঝ। সব শেষ হয়ে গেলে, ছাই পড়ল — তখন আর শব্দ থাকে না। আসক্তি গেলেই উৎসাহ যায় — শেষে শান্তি।

"All such things as attachment to the world and enthusiasm for 'woman and gold' disappear after the attainment of the Knowledge of Brahman. Then comes the cessation of all passions. When the log burns, it makes a crackling noise and one sees the flame. But when the burning is over and only ash remains, then no more noise is heard. Thirst disappears with the destruction of attachment. Finally comes peace.

“ईश्वर की ओर कोई जितना ही बढ़ता है, उतनी ही शान्ति मिलती है । शान्तिः शान्तिः शान्तिः प्रशान्तिः। गंगा के निकट जितना ही जाया जाता है, उतना ही शीतलता का अनुभव होता जाता है । नहाने पर और भी शान्ति मिलती है ।”

[“ঈশ্বরের যত নিকটে এগিয়ে যাবে ততই শান্তি। শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ প্রশান্তিঃ। গঙ্গার যত নিকটে যাবে ততই শীতল বোধ হবে। স্নান করলে আরও শান্তি।

"The nearer you come to God, the more you feel peace. Peace, peace, peace — supreme peace! The nearer you come to the Ganges, the more you feel its coolness. You will feel completely soothed when you plunge into the river. ] 

“परन्तु जीव, जगत, चौबीस तत्त्व ^* , इनकी सत्ता उन्हीं की सत्ता से भासित हो रही है । उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता । एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है । एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।” 

[“তবে জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব,^* এ-সব, তিনি আছেন বলে সব আছে। তাঁকে বাদ দিলে কিছুই থাকে না। ১-এর পিঠে অনেক শূন্য দিলে সংখ্যা বেড়ে যায়। ১-কে পুঁছে ফেললে শূন্যের কোনও পদার্থ থাকে না।”

"But the universe and its created beings, and the twenty-four cosmic principles,^*  all exist because God exists. Nothing remains if God is eliminated. The number increases if you put many zeros after the figure one; but the zeros don't have any value if the one is not there."

[ चौबीस तत्त्व ^* सांख्य-दर्शन में माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24  ब्रह्माण्डीय तत्वों से मिलकर हुआ है।इसके अनुसार सृष्टि के पूर्व त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृति साम्यावस्था में थी।  गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होने से बुद्धि या महत् की उत्पत्ति होती है।  उससे तीन अंहकार (सत, रज, तम), तामस अहंकार से पांच तन्मात्राएं (the causal energies of creation) : {रूप (Form), रस (Taste), शब्द (Sound) , गन्ध (Smell) और स्पर्श (Touch)। } एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय [पांच ज्ञानेद्रियां ( the Five Sense Organs : आंख,नाक, कान , जीभ और त्वचा); पांच कर्मेन्द्रियां ( the Five Motor Organs :  गुदा,जननेन्द्रिय ,हाथ, पैर, वाणी) तथा उभयात्मक मन ] और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश , वायु, तेजस् , जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत ( the Five Elements)। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 24  तत्व मानता है। इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।] 

प्राणकृष्ण पर कृपा करने के लिए श्रीरामकृष्ण अपनी अवस्था के सम्बन्ध में कह रहे हैं ।

*ब्रह्मज्ञान के उपरान्त~  ‘भक्ति का मैं’* 

पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- ब्रह्मज्ञान के पश्चात् समाधि के पश्चात्, कोई कोई नीचे उतरकर ‘विद्या का मैं’, ‘भक्ति का मैं’ लेकर रहते हैं । हाट का क्रय-विक्रय समाप्त हो जाने पर भी कुछ लोग अपनी इच्छानुसार हाट में ही रह जाते हैं, जैसे नारद आदि । वे ‘भक्ति का मैं’ लेकर लोकशिक्षा के लिए संसार में रहते हैं । शंकारचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रखा था । 

[“ব্রহ্মজ্ঞানের পর — সমাধির পর — কেহ কেহ নেমে এসে ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকে। বাজার চুকে গেলে কেউ কেউ আপনার খুশি বাজারে থাকে। যেমন নারদাদি। তাঁরা লোকশিক্ষার জন্য ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকেন। শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।

{"There are some who come down ,  as it were, after attaining the Knowledge of Brahman — after samadhi — and retain the 'ego of Knowledge' or the 'ego of Devotion' , just as there are people who, of their own sweet will, stay in the market-place after the market breaks up. This was the case with sages like Narada. They kept the 'ego of Devotion' for the purpose of teaching men. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' for the same purpose.

“कामिनी -कांचन में आसक्ति का नाममात्र भी रहते वे नहीं मिल सकते । सूत के रेशे निकले हुए हों तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता ।” 

[“একটুও আসক্তি থাকলে তাঁকে পাওয়া যায় না। সূতার ভিতর একটু আঁশ থাকলে ছুঁচের ভিতর যাবে না।

"God cannot be realized if there is the slightest attachment to the things of the world. A thread cannot pass through the eye of a needle if the tiniest fibre sticks out.

“जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, उनके काम-क्रोध नाममात्र के हैं, जैसे जली रस्सी, - रस्सी का आकार तो है परन्तु फूकने से ही उड़ जाती हैं ।”

[ “যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর কাম-ক্রোধাদি নামমাত্র। যেমন পোড়া দড়ি। দড়ির আকার। কিন্তু ফুঁ দিলে উড়ে যায়।

"The anger and lust of a man who has realized God are only appearances. They are like a burnt string. It looks like a string, but a mere puff blows it away.}

*शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है वह ईश्वर की वाणी है।*

“मन से आसक्ति के चले जाने पर उनके दर्शन होते हैं । शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है , वह उन्हीं की वाणी है । शुद्ध मन जो है, शुद्ध बुद्धि भी वही है और शुद्ध आत्मा भी वही है; क्योंकि उन्हें छोड़ कोई दूसरा शुद्ध नहीं है ।” 

“परन्तु उन्हें पा लेने पर लोग धर्माधर्म को पार कर जाते हैं ।” 

{“মন আসক্তিশূন্য হলেই তাঁকে দর্শন হয়। শুদ্ধ মনে যা উঠবে সে তাঁরই বাণী। শুদ্ধ মনও যা শুদ্ধ বুদ্ধিও তা — শুদ্ধ আত্মাও তা। কেননা তিনি বই আর কেউ শুদ্ধ নাই।“তাঁকে কিন্তু লাভ করলে ধর্মাধর্মের পার হওয়া যায়।”

"God is realized as soon as the mind becomes free from attachment. Whatever appears in the Pure Mind is the voice of God. (अर्थात व्यष्टि-समष्टि अहं का शवदाह हो जाने के बाद )That which is Pure Mind is also Pure Buddhi; that, again, is Pure Atman, because there is nothing pure but God. But in order to realize God one must go beyond dharma and adharma."

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से भक्त रामप्रसाद का एक गीत गाने लगे-

आय मन  बेड़ाते जाबी। 

काली-कल्पतरु मूले रे (मन),  चारी फल कूड़ाये पाबी।।  


प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (तार),  निवृत्तीरे संगे लोबी। 

ओ रे विवेक नामेर तार बेटारे , तत्व कथा ताय सुधाबि।।

शुचि अशुचिरे लोये दिव्य घोरे कोरे शुबि। 

जोखन दुई सौतिने पिरित होबे, तोखन श्यामा मा के देखते पाबी।। 

अहंकार अविद्या तोर, पितामाताय ताड़िये दिबि। 

जोदि मोहगर्ते  टेने लोय, धैर्य-खोंटा धोरे रोबी।। 

धर्माधर्म दुटो अजा, तुच्छ खूंटाये बेन्धे खुबि। 

जोदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि।। 

प्रथम भार्यार संतानेरे दूर होते बुझाईबि। 

जोदि ना माने प्रबोध, ज्ञान-सिन्धु माझे डूबाईबि।।

प्रसाद बोले, एमोन होले कालेर काछे जोबाब दिबि। 

तबे बापु बाछा बापेर ठाकूर , मोनेर मतो मन होबि।।  

আয় মন, বেড়াতে যাবি ৷

কালী-কল্পতরুমূলে রে (মন) চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ৷৷

প্রবৃত্তি নিবৃত্তি জায়া, (তার) নিবৃত্তিরে সঙ্গে লবি ৷

ওরে বিবেক নামে তার বেটা, তত্ত্ব-কথা তায় সুধাবি ৷৷

শুচি অশুচিরে লয়ে দিব্য ঘরে কবে শুবি ৷

যখন দুই সতীনে পিরিত হবে, তখন শ্যামা মাকে পাবি ৷৷

অহংকার অবিদ্যা তোর, পিতামাতায় তাড়িয়ে দিবি ৷

যদি মোহগর্তে টেনে লয়, ধৈর্যখোঁটা ধরে রবি ৷৷

ধর্মাধর্ম দুটো অজা, তুচ্ছখোঁটায় বেঁধে থুবি ৷

যদি না মানে নিষেধ, তবে জ্ঞানখড়্গে বলি দিবি ৷৷

প্রথম ভার্যার সন্তানের দূর হতে বুঝাইবি ৷

যদি না মানে প্রবোধ, জ্ঞান-সিন্ধু মাঝে ডুবাইবি ৷৷

প্রসাদ বলে, এমন হলে কালের কাছে জবাব দিবি ৷

তবে বাপু বাছা বাপের ঠাকুর, মনের মতো মন হবি ৷৷

(भावार्थ )- “मन, चल, सैर करने चलें । कालीरूप कल्पवृक्ष के नीचे तुझे जीवन के चारों फल (.धर्म,अर्थ , काम और मोक्ष) मिल जायेंगे । हे मन, अपनी इन दो पत्नियों प्रवृत्ति और निवृत्ति,  में से तू निवृत्ति को साथ लेना; और उसी के निवृत्ति के पुत्र विवेक से तत्त्व की बातें पूछना ।” शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्य गृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा। अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं- दोनों को भगा दे । यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह । धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख । यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना । प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना । यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना । रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब से सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा ।” 

{O mind, Come, let us go for a walk,  to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life.  Of your two wives, Dispassion (निवृत्ति)  and Worldliness (प्रवृत्ति) , Bring along Dispassion only, on your way to the Tree, And ask her son Discrimination about the Truth. When will you learn-to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness (शुचि ) and Defilement (अशुचि)  on either side of you? Only when you have found the way, To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama. Ego and Ignorance, your parents, instantly banish from your sight; And should Delusion seek to drag you to its hole, Manfully cling to the pillar of Patience. Tie to the post of Unconcern the goats of Vice and Virtue, Killing them with the sword of Knowledge if they rebel. With the children of Worldliness, your first wife, plead from a goodly distance, And, if they will not listen, drown them in Wisdom's sea. Says Ramprasad: If you do as I say, You can submit a good account, O mind, to the King of Death, And I shall be well pleased with you and call you my darling.}

[( 27 अक्टूबर 1882) परिच्छेद ~ 13, श्री रामकृष्ण वचनामृत ]*... वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है ! ;  गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है । *जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।* 

“संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (framework of illusion-धोखे की टट्टी) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- "एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।  जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"  

‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे) 

["Why shouldn't one be able to realize God in this world? King Janaka had such realization. Ramprasad described the world as a mere 'framework of illusion'. But if one loves God's hallowed feet, then —This very world is a mansion of mirth; Here I can eat, here drink and make merry. Janaka's might was unsurpassed; What did he lack of the world or the Spirit? Holding to one as well as the other, He drank his milk from a brimming cup!

‘মনেতেই বদ্ধ, মনেতেই মুক্ত। আমি মুক্ত পুরুষ; সংসারেই থাকি বা অরণ্যেই থাকি, আমার বন্ধন কি? আমি ঈশ্বরের সন্তান; রাজাধিরাজের ছেলে; আমায় আবার বাঁধে কে? যদি সাপে কামড়ায়, ‘বিষ নাই’ জোর করে বললে বিষ ছেড়ে যায়! তেমনি ‘আমি বদ্ধ নই, আমি মুক্ত’ এই কথাটি রোখ করে বলতে বলতে তাই হয়ে যায়। মুক্তই হয়ে যায়। .... সংসারে ঈশ্বরলাভ হবে না কেন? জনকের হয়েছিল। এ-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ প্রসাদ বলেছিল। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করলে —এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি। জনক রাজা মহাতেজা, তার কীসের ছিল ক্রটি। সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।’

[(১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর)-ব্রাহ্মদিগকে উপদেশ -- খ্রীষ্টধর্ম, ব্রাহ্মসমাজ ও পাপবাদ ]

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