आदिशंङ्कराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमाला :
गीता गीता कहत कहत , त्यागी त्यागी होहि।
त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही।।
श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'गीता शब्द का लगातार उच्चारण करने से 'गीता_गीता_गी_तागी ..... ' अर्थात 'त्यागी त्यागी ' निकलने लगता है। अर्थात गीता यही कहती है कि 'हे जीव , सर्वस्व का त्याग कर ईश्वर के पादपद्मों में चित्त लगा।'
लेकिन ' त्याग ' का सही अर्थ क्या है ? इसे समझने में विद्वान् लोग भी भूल कर बैठते हैं। क्योंकि "इस बात का विचार करने में कई कठिनाइयां पैदा होती हैं कि क्या किया जाना चाहिए, और क्या नहीं किया जाना चाहिए ?" [What should be done, and what should not be done"?] क्योंकि कृत्यों को क्रियान्वित करने में समस्याएं आती हैं, इसीलिए कृत्यों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए। गीता में कहे गए त्याग का मतलब हमारे दैनन्दिन कर्तव्यों को छोड़ना और एक मठ का संन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। और न इसका मतलब गृहस्थ धर्म का पालन करने के प्रति उदासीन हो जाना ही है। एक बार हमको पता चल जाए कि लोकसंग्रह या जन कल्याण के लिए क्या अच्छा है, उसे हमें पूरी ईमानदारी, पूरे विश्वास के साथ और सफलता या विफलता की चिंता किए बिना कृत्य को करने में खुद को संलग्न करना चाहिए । गीता में त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित नहीं करती है, अपितु यह कृत्य में अभिमान (मिथ्या अहं) के त्याग का संकेत देती है। इसका मतलब है अपना कर्तव्य निभाना लेकिन एक वैरागी मन के साथ सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे बिना। यह समर्पण त्याग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। कोई भी व्यक्ति मानवता की सेवा करने में तभी सक्षम होता है जब वह अपने कृत्यों को कुशलता के साथ, दक्षता से और परिणाम की चिंता किए बिना करता है।
'न दैन्यं न पलायनम ~न ढूँढ़ो , न टालो ~ आम-मुखत्यारी दे दो'[Neither seek nor avoid ~Give power of attorney to God!] माँ काली या अवतारवरिष्ठ को आम-मुखत्यारी देने, शरणागत होने, या ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए पहले अपने चरित्र का निर्माण करके जगत् की सेवा करने के सिद्धान्त को ऐसी कोई व्यर्थ की कल्पना नहीं समझना चाहिए, जो हमें जगत् की भौतिक सत्यता से पलायन करना करना सिखलाती हों। जगत् में कुशलता- पूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपने चरित्र को ऊँचा उठाना (अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना) आवश्यक है। अखण्ड ईश्वर का स्मरण [ अवतार वरिष्ठ का स्मरण या अद्वैतवादी हो तो अपने आत्मस्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरुप) का स्मरण] वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख कर एक चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। अतः हमें चरित्र-निर्माण के लिए उठ खड़ा होना होगा -
" तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥
(गीता -11.33)
[ तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशो लभस्व/ जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्/ मया एव एते निहताः पूर्वम् एव/ निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥
इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो। (हे बायें हाथ से भी बाण चलाने में निपुण - अर्जुन तुम दोनों हाथोंसे बाण चलाओ अर्थात् युद्धमें अपनी पूरी शक्ति लगाओ, पर,बनना है निमित्त मात्र।) निमित्तमात्र बनने का तात्पर्य अपने बल, बुद्धि, पराक्रम आदि को सम्पूर्ण रूप से लगाना है, परन्तु मैंने मार दिया, मैंने विजय प्राप्त कर ली -- यह अभिमान नहीं करना है। क्योंकि ये सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम्हें केवल निमित्तमात्र बनना है, कोई नया काम नहीं करना है। ]
यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो लोक क्षयकारी महाकाल की शक्ति (माँ जगदम्बा) ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं , तुम केवल निमित्त बनो।
वस्तुतः प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु सामान्यत हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। क्योंकि हमारा गर्वभरा अभिमान (मिथ्या अहं) इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित नहीं होता) कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके। अहंकारी (देहाध्यास -भेंड़शिशु या स्वयं को देह मानने वाले) व्यक्ति को यह जगत् एक बोझ या समस्या प्रतीत होता है। और जिस सीमा तक वह स्वयं को (अपने अहंकार को) किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श (अवतार वरिष्ठ) के प्रति समर्पित कर देता है, उसी सीमा में (पूर्ण भ्रममुक्त अवस्था De-hypnotized अवस्था में) यह जगत् और उसकी उपलब्धियाँ निश्चित सफलता का खेल बन जाती है। इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें अन्तर्निहित महानतर क्षमताओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है।
त्याग के सही मर्म को समझने में आदि शंकराचार्य जी की 'प्रश्नोत्तर-मणिमाला' बहुत ही उपादेय पुस्तिका है। जान पड़ता है कि यह पुस्तिका विशेष रूप से संन्यासियों के लिए ही लिखी गयी थी। लेकिन इसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी गृहस्थों के भी के काम की हैं। सन्यासियों के लिए 'कामिनी -कांचन' को बाह्य रूप से भी त्याग करना अनिवार्य है। लेकिन गृहस्थों को तो आजीवन कामिनी-कांचन के संसर्ग में ही रहना पड़ता है। संसार में (गृहस्थ जीवन में) मनुष्य विशेष रूप से कामिनी-कांचन (स्त्री, धन और पुत्रादि पदार्थों) में अत्यधिक आसक्त हो जाने के कारण ही बन्धन में रहता है, अतः 'कामिनी-कांचन' से वैराग्य होने में ही कल्याण है। कामिनी (स्त्री) में अनासक्त होने के लिए विशेष जोर देने का कारण भी स्पष्ट है। धन, पुत्रादि छोडने वाले भी प्राय: स्त्रियों में आसक्त देखे जाते हैं। वास्तव में यह दोष स्त्रियों का नहीं है, परन्तु मन बड़ा चंचल है, यह दोष तो पुरुषों के बिगड़े हुए मन का है। इसलिए संन्यासियों को तो हर तरह से , यहाँ तक कि स्त्रियों का चित्र देखने से अलग ही रहना चाहिए। उसी प्रकार स्त्रियों को भी यदि भ्रम मुक्त होने के लिए पुरुष की कामना से अनासक्त होना हो, तो स्त्री-पुरुष दोनों को इसके प्रत्येक प्रश्न और उत्तर पर मनन पूर्वक विचार करना आवश्यक है। अत: उनसे हम लोगों को पूरा लाभ उठाना चाहिए। अतः 'वैराग्य और अभ्यास' की सहायता से - उन्हें बिना रुके 'लक्ष्य' प्राप्त होने तक (अर्थात भ्रममुक्त, ब्रह्मविद, या dehypnotized होने तक) 'कामिनी -कांचन '(स्त्री, पुत्र, धन आदि संसार के सभी नश्वर पदार्थों) में पूर्णतः अनासक्त हो जाने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।
अपार संसार समुद्र मध्ये,
निमज्जतो मे शरणं किमस्ति।
गुरो कृपालो कृपया वदैतत् ,
विश्वेश्वर पादाम्बुज दीर्घ नौका।। १ ।
प्र: हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है?
उ: विश्वपति परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) के चरणकमलरूपी जहाज।
बद्धो हि को यो विषयानुरागी
का वा विमुक्तिर्विषये विरक्तिः।
को वास्ति घोरो नरकः स्वदेह-
स्तृष्णाक्षयः स्वर्गपदं किमस्ति। 2 ।
प्र: वास्तव में बंधा कौन है? -
उ: जो विषयों में आसक्त है।
प्र: विमुक्ति क्या है?
उ: विषयों से वैराग्य।
प्र: घोर नरक क्या है?
उ: अपने नश्वर शरीर में आसक्ति -देहाध्यास ।
प्र: स्वर्ग का पद क्या है?
उ: तृष्णा का नाश होना।
संसारहृत्कः श्रुतिजात्मबोधः को मोक्षहेतुः कथितः स एव।
द्वारं किमेकं नरकस्य नारी का स्वर्गदा प्राणभृतामहिंसा। ३ ।
प्र: संसार जन्म-मृत्यु के चक्र को हरनेवाला कौन है ?
उ: वेद से उत्पन्न आत्मज्ञान ।
प्र: मोक्ष का कारण क्या कहा गया है ?
उ: वही आत्मज्ञान ।
प्र: नरक का प्रधान द्वार क्या है ?
उ: नारी । (उसी प्रकार स्त्रियों में पुरुषों की कामना)
प्र: स्वर्ग को देनेवाली क्या है ?
उ: जीवमात्र की अहिंसा ।
शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि। ४ ।
प्र: (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?
उ: जो परमत्मा के स्वरुप में स्थित है ।
प्र: और कौन जागता है ?
उ: सत और असत के तत्व का जानने वाला ।
प्र: शत्रु कौन हैं ?
उ: अपनी अवशिभूत मन और इन्द्रियां; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं ।
को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।
जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा। ५ ।
प्र: दरिद्र कौन है ?
उ: भारी तृष्णा वाला ।
प्र: धनवान कौन है ?
उ: जिसे सब तरह से संतोष है ।
प्र: (वास्तव में) जीते जी मरा कौन है ?
उ: जो पुरुषार्थहीन है ।
प्र: अमृत क्या हो सकता है ?
उ: सुख देने वाली निराशा (आशा से रहित होना) ।
पाशो हि को यो ममताभिमानः सम्मोहयत्येव सुरेव का स्त्री।
को वा महान्धो मदनातुरो यो मृत्युश्च को वापयशः स्वकीयम् । ६ ।
प्र: वास्तव में फांसी क्या है ?
उ: जो 'मैं' और 'मेरा' पन है ।
प्र: मदिरा की तरह क्या चीज़ निश्चय ही मोहित कर देती है ?
उ: नारी । (स्त्रियों के लिए पुरुष का आकर्षण)
प्र: बड़ा भारी अन्धा कौन है ?
उ: जो कामवश व्याकुल है ।
प्र: मृत्यु क्या है ?
उ: अपनी अपकीर्ति ।
को व गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा
शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव।
को दीर्घरोगो भव एव साधो
किमौषधं तस्य विचार एव। ७ ।
प्र: गुरु कौन है ?
उ: जो केवल हित का ही उपदेश करनेवाला है ।
प्र: शिष्य कौन है ?
उ: जो गुरु का भक्त है ।
प्र: बड़ा भरी रोग क्या है ?
उ: हे साधो ! बार बार जन्म लेना ही ।
प्र: उसकी दवा क्या है ?
उ: परमात्मा के स्वरुप का मनन ।
किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं
तीर्थं परं किं स्वमानो विशुद्धं।
किमत्र हेयं कनकं च कान्ता
श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यं । ८ ।
प्र: भूषणो में उत्तम भूषण क्या है ?
उ: उत्तम चरित्र ।
प्र: सबसे उत्तम तीर्थ (प्रयागराज-संगम) क्या है ?
उ: अपना मन जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो ।
प्र: इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?
उ: काञ्चन और कामिनी ।
प्र: सदा (मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ?
उ: वेद और गुरु का वचन ।
के हेतवो ब्रह्मगतेस्तु सन्ति
सत्संङ्गतिर्दानविचारतोषाः
के सन्ति सन्तोऽखिलवीतरागा
अपास्तमोहाः शिवतत्त्वनिष्ठाः । ९ ।
प्र: परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या साधन हैं ?
उ: सत्संग, सात्विक दान, परमेश्वर के स्वरुप का मनन और संतोष ।
प्र: महात्मा कौन हैं ?
उ: सम्पूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गयी है, जिनका अज्ञान नाश हो चुका है और जो कल्याण रूप परमात्मतत्त्व में स्थित हैं ।
को वा ज्वरः प्राणभृतां हि चिन्ता
मूर्खोस्ति को यस्तु विवेकहीनः।
कार्या प्रिया का शिवविष्णुभक्तिः
किं जीवनं दोषविवर्जितं यत् । १० ।
प्र: प्राणियों के लिए वास्तव में ज्वर क्या है ?
उ: चिन्ता ।
प्र: मूर्ख कौन है ?
उ: जो विचारहीन है ।
प्र: करनेयोग्य प्यारी क्रिया क्या है ?
उ: शिव और विष्णु की भक्ति ।
प्र: वास्तव में जीवन कौन सा है ?
उ: जो सर्वथा निर्दोष है ।
विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या
बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः ।
को लाभ आत्मावगमो हि यो वै
जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ ।
प्र: वास्तव में विद्या कौन सी है ?
उ: जो परमात्मा को प्राप्त करा देने वाली है ।
प्र: वास्तविक ज्ञान क्या है ?
उ: जो यथार्थ मुक्ति (भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति-De-Hypnotized) का कारण है ।
प्र: यथार्थ लाभ क्या है ?
उ: जो परमात्मा (इन्द्रियातीत सत्य) कि प्राप्ति है, वही ।
प्र: जगत को किसने जीता ?
उ: जिसने मन को जीता ।
शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा
मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु।
प्राज्ञोऽथ धीरश्च समस्तु को वा
प्राप्तो न मोहं ललनाकटाक्षैः। १२ ।
प्र: वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ?
उ: जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता ।
प्र: बुद्धिमान, समदर्शी और धीरपुरुष कौन है ?
उ: जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त न हो ।
विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता
दुःखी सदा को विषयानुरागी।
धन्योस्ति को यो परोपकारी
कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ ।
प्र: विष से भी भारी विष कौन है ?
उ: सारे विषयभोग ।
प्र: सदा दुःखी कौन है ?
उ: जो Hypnotized होकर संसार के भोगों में आसक्त है (सिंह शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझता है) ।
प्र: धन्य कौन है ?
उ: जो परोपकारी है ?
प्र: पूजनीय कौन है ?
उ: कल्याणरूप परमात्मतत्व में स्थित महात्मा ।
विज्ञान्महाविज्ञतमोऽस्ति को वा
नार्या पिशाच्या न च वञ्चितो यः।
का शृंखला प्राणभृतां हि नारी
दिव्यं व्रतं किं च समस्तदैन्यम् । १५ ।
प्र: समझदारों में सबसे अच्छा समझदार कौन है ?
उ: जो स्त्रीरूप पिशाचिनी से नहीं ठगा गया है ।
प्र: प्राणियों के लिए सांकल क्या है ?
उ: नारी ही ।
ज्ञातुं न शक्यं च किमस्ति सर्वै-
र्योषिन्मनो यच्चरितं तदीयम् ।
का दुस्त्यजा सर्वजनैर्दुराशा
विद्याविहीनः पशुरस्ती को वा । १६ ।
प्र: सब किसी के लिए क्या जानना सम्भव नहीं है ?
उ: स्त्री का मन और उसका चरित्र ।
प्र: सब लोगों के लिए क्या त्यागना कठिन है ?
उ: बुरी वासना (विषयभोग और पाप की इच्छाएं-मिथ्या अहं)
प्र: पशु कौन है ?
उ: जो सद्विद्या से रहित (मूर्ख) है ।
वासो न सङ्गः सह कैर्विधेयो
मूर्खैश्च नीचैश्च खलैश्च पापैः ।
मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयं
सतसङ्गतिर्निममतेशभक्तिः । १७ ।
प्र: किन-किन के साथ निवास और संग नहीं करना चाहिए ?
उ: मूर्ख, नीच, दुष्ट और पापियों के साथ ।
प्र: मुक्ति चाहनेवालों को तुरन्त क्या करना चाहिए ?
उ: सत्संग, ममता का त्याग और परमेश्वर की भक्ति ।
लघुत्वमूलं च किमर्थितैव
गुरुत्वमूलं यदयाचनं च ।
जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म
को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ ।
प्र: छोटेपन की जड़ क्या है ?
उ: याचना ही ।
प्र: बड़प्पन की जड़ क्या है ?
उ: कुछ भी न माँगना ।
प्र: किसका जन्म सराहनीय है ?
उ: जिसका फिर जन्म न हो ।
प्र: किसकी मृत्यु सराहनीय है ?
उ: जिसकी फिर मृत्यु नहीं होती ।
मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा
वक्तुं न युक्तं समाये समर्थः।
तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं
विश्वासपात्रं न किमस्ति नारि । १९ ।
प्र: गूंगा कौन है ?
उ: जो समयपर उचित वचन कहने में समर्थ नहीं है ।
प्र: और बहिरा कौन है ?
उ: जो यथार्थ और हितकर वचन नहीं सुनता ।
प्र: विश्वास के योग्य कौन नहीं है ?
उ: नारी (जो भ्रमित, स्त्री या पुरुष है)।
तत्त्वं किमेकं शिवमद्वितीयं
किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति ।
त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव सम्यग
देयं परं किं त्वभयं सदैव । २० ।
प्र: एक तत्त्व क्या है ?
उ: अद्वितीय कल्याण तत्व (परमात्मा) ।
प्र: सबसे उत्तम क्या है ?
उ: जो उत्तम आचरण है ।
प्र: कौन सा सुख तज देना चाहिए ?
उ: सब प्रकार से स्त्री (या पुरुष) का सुख ही ।
प्र: देने योग्य उत्तम दान क्या है ?
उ: सदा अभय ही ।
शत्रोर्महाशत्रुतमोऽस्ति को वा
कामः सकोपानृतलोभतृष्णः।
न पूर्यते को विषयैः स एव
किं दुःखमूलं ममताभिधानम् । २१ ।
प्र: शत्रुओं में सबसे बड़ा भारी शत्रु कौन है ?
उ: क्रोध, झूठ, लोभ और तृष्णासाहित काम ।
प्र: विषयभोगों से कौन तृप्त नहीं होता ?
उ: वही काम ।
प्र: दुःख की जड़ क्या है ?
उ: ममता नामक दोष ।
किं मण्डनं साक्षरता मुखस्य
सत्यं च किं भूतहितं सदैव ।
किं कर्म कृत्वा न हि शोचनीयं
कामारिकंसारिसमर्चनाख्यम् । २२ ।
प्र: मुख का भूषन क्या है ?
उ: विद्वता।
प्र: सच्चा कर्म क्या है ?
उ: सदा ही प्राणियों का हित करना ।
प्र: कौन सा कर्म करके पछताना नहीं पड़ता ?
उ: भगवान शिव और श्रीकृष्ण का पूजनरूप कर्म ।
कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः
क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्यं परं किं निजमूर्खतैव
के के ह्युपास्या गुरुदेव वृद्धाः। २३ ।
प्र: किसके नाश में मोक्ष है ?
उ: मन के ही ।
प्र: किस उपलब्धि में सर्वथा भय नहीं है ?
उ: मोक्ष में ।
प्र: सबसे अधिक चुभने वाली चीज़ कौन सी है ?
उ: अपनी मूर्खता ही ।
प्र: उपासना के योग्य कौन कौन हैं ?
उ: देवता, गुरु और वृद्ध ।
उपस्थिति प्राणहरे कृतान्ते
किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात् ।
वाक्कायचित्तैः सुखदं यमघ्नं
मुरारिपादाम्बुजचिन्तनं च। २४ ।
प्र: प्राण हरने वाले काल के उपस्थित होने पर अच्छी बुद्धिवालों को बड़े जतन से तुरन्त क्या करना उचित है ?
उ: सुख देनेवाले और मृत्यु का नाश करनेवाले भगवान् मुरारि के चरणकमलों का तन, मन, वचन से चिन्तन करना ।
के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः
कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः।
मातेव का या सुखदा सुविद्या
किमेधते दानवशात्सुविद्या। २५ ।
प्र: डाकू कौन हैं ?
उ: बुरी वासनाएं ।
प्र: सभा में शोभा कौन पाता है ?
उ: जो अच्छा विद्वान है ।
प्र: माता के समान सुख देनेवाली कौन है ?
उ: उत्तम विद्या ।
प्र: देने से क्या बढ़ती है ?
उ: अच्छी विद्या ।
कुतो हि भीतिः सततं विधेया
लोकापवादाद्भवकाननाच्च ।
को वातिबन्धुः पितरश्च के वा
विपत्साहयः परिपालका ये । २६ ।
प्र: निरन्तर किससे डरना चाहिए ?
उ: लोक-निन्दा से और संसार रुपी वन से ।
प्र: अत्यन्त प्यारा बन्धु कौन है ?
उ: जो विपत्ति में सहायता करे ।
प्र: और पिता कौन है ?
उ: जो सब प्रकार से पालन-पोषण करे ।
बुद्ध्वा न बोध्यं परिशिष्यते किं
शिवप्रसादं सुखबोधरूपम् ।
ज्ञाते तु कस्मिन्विदितं जगत्स्या-
त्सर्वात्मके ब्रह्मणि पूर्णरूपे । २७ ।
प्र: क्या समझने के बाद कुछ भी समझना बाकी नहीं रहता ?
उ: शुद्ध विज्ञान, आनन्दघन कल्याणरूप परमात्मा को ।
प्र: किसको जान लेने पर (वास्तव) में जगत जाना जाता है ?
उ: सर्वात्मरूप परिपूर्ण ब्रह्म के स्वरुप को ।
किं दुर्लभं सद्गुरुरस्ति लोके
सत्संगतिर्ब्रह्मविचारणा च ।
त्यागो हि सर्वस्व शिवात्मबोधः
को दुर्जयः सर्वजनैर्मनोजः । २८ ।
प्र: संसार में दुर्लभ क्या है ?
उ: सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार, सर्वस्व का त्याग और कल्याणरूप परमात्मा का ज्ञान ।
प्र: सबके लिए क्या जीतना कठिन है ?
उ: कामदेव ।
पशोः पशुः को न करोति धर्मं
प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।
किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री
के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः। २९ ।
प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?
उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।
प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ?
प्र: नारी (विपरीत शरीर का भोग) ।
प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?
उ: पुत्र आदि ।
प्र: श्रेष्ठ व्रत क्या है ?
उ: पूर्ण रूप से विनयभाव ।
विद्युच्चलं किं धनयौवनायु-
र्दानं परं किञ्च सुपात्रदत्तम् ।
कण्ठङ्गतैरप्यसुभिर्न कार्यं
किं किं विधेयं मलिनं शिवार्चा । ३० ।
प्र: बिजली की तरह क्षणिक क्या है ?
उ: धन, यौवन और आयु ।
प्र: सबसे उत्तम दान कौन सा है ?
उ: जो सुपात्र को दिया जाय ।
प्र: कण्ठगत प्राण होने पर भी क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?
उ: पाप नहीं करना चाहिए और कल्याणरूप परमात्मा की पूजा करनी चाहिए ।
अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं
संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।
किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः
क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ । ३१ ।
प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?
उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।
प्र: वास्तव में कर्म क्या है ?
उ: जो भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय हो ('Be and Make ' जो अवतार वरिष्ठ को प्रिय है)।
प्र:सदैव किसमें विश्वास नहीं करना चाहिए ?
उ: संसार-समुद्र में ।
कण्ठङ्गता वा श्रवणङ्गता वा
प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला ।
तनोतु मोदं विदुषां सुरम्यं
रमेशगौरीशकथेव सद्यः । ३२ ।
यह प्रश्नोत्तर नाम की मणिरत्नमाला कण्ठ में या कानो में जाते ही लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु और उमापति भगवान् शंकर की कथा की तरह विद्वानों के सुन्दर आनन्द को बढ़ावे ।
हरि ॐ
------------------इति स्वामी शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी------------------
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