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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

swami vivekananda: स्वामी विवेकानंद के नव वेदांत सिद्धांत - युवाओं के प्रति विचार

swami vivekananda स्वामी विवेकानन्द का नव-वेदान्त का सिद्धांत और उपदेश

1. swami vivekananda : 'I have a message to give !'   

" मुझे एक सन्देश देना है !" 

स्वामी विवेकानन्द ने १ फरवरी, १८९५ को न्यूयार्क से कुमारी मेरी हेल को लिखित एक पत्र में कहा था- " मुझे एक सन्देश देना है। मुझे संसार के प्रति मधुर बनने का समय नहीं है; और मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है। .... इस जगत में या अन्य किसी जगत में मेरे लिए मेरे लिए कोई कार्य नहीं है।  मेरे पास विश्व को देने के लिए एक संदेश है, जिसे मैं अपनी शैली में ही दूंगा ।  मैं अपने संदेश को न तो हिन्दू धर्म , न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस. मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा। " (वि० सा० ख० ३/३८०)


[I have a message to give, I have no time to be sweet to the world, and every attempt at sweetness makes me a hypocrite...... "I have no work under or beyond the sun. I have a message, and I will give it after my own fashion. I will neither Hinduise my message, nor Christianise it, nor make it any "ise" in the world. I will only my-ise it and that is all."

"জগৎকে আমার নূতন কিছু দিবার আছে। মানুষের মন যোগানর সময় আমার নাই, উহা করিতে গেলেই আমি ভণ্ড হইয়া পড়িব। .... এ জগতে বা অন্য কোন জগতে আমার কোনই কার্য নাই। আমার কিছু বলিবার আছে, উহা আমি নিজের ভাবে বলিব, হিন্দুভাবেও নয়, খ্রীষ্টানভাবেও নয়, বা অন্য কোনভাবেও নয়; আমি উহাদিগকে শুধু নিজের ভাবে রূপ দিব—এইমাত্র।" 

 (Source -https://www.ebanglalibrary.com/20901/ ]

Swami-vivekanand-ka-nav-vedant-sidhant-aur-updesh-shikago-bhashan

ध्याम मूलं गुरुर मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मन्त्र मूलं गुरुर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥ 


2. Swami Vivekananda What is that message ?

 क्या है वह संदेश है ? 

अपने उस संदेश के सार को प्रस्तुत करते हुए 7  जून, 1896 को Miss Margaret Noble (सिस्टर निवेदिता) को लिखित एक पत्र में विवेकानन्द कहते हैं- " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है, मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।"  

["My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life."

আমার আদর্শ বস্তুতঃ অতি সংক্ষেপে প্রকাশ করা চলে, আর তা এইঃ মানুষের কাছে তার অন্তর্নিহিত দেবত্বের বাণী প্রচার করতে হবে এবং সর্বকার্যে সেই দেবত্ব-বিকাশের পন্থা নির্ধারণ করে দিতে হবে।] 

3.swami vivekananda -  where is the source of that message?

इस महान सन्देश का उद्भव स्थान कहाँ है ~ अंतःस्फुरण ?

Man is essentially divine ! प्रतेक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। 'एकं सव्दिप्रा बहुधा वदन्ति' -सत्ता एक ही है, परन्तु मुनियों ने भिन्न भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है। 'हजारों वर्ष पूर्व यह सत्य भारत में ही उद्घाटित हुआ था।  उस युग को हमलोग वैदिक युग के नाम से जानते हैं। अतः वेदों को ही इस उत्कृष्ट-धारणा का प्रथम उद्भव-स्थान स्वीकार किया जाता है।  25 फरवरी, 1900 को ओकलैंड में दिये गये व्याख्यान में वेद-वेदान्त को परिभाषित करते हुए स्वामीजी कहते है-  " वेदों से आशय किन्हीं ग्रंथों का नहीं है। उनका अर्थ है आध्यात्मिक नियमों का संचित कोष, जिनकी खोज विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न कालों में की; सम्बद्ध तर्क-विचार पूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, यदि भारत में गुरु-शिष्य परम्परा में 'ऋषि' नाम से विख्यात कुछ महान चिन्तकों (ऋषि -मुनि  अंतर्जगत के वैज्ञानिक, 
आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिक - Spiritualistic Scientist) के द्वारा अध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धी की जा सकती है, तो इस सत्य की उपलब्धी जगत के अन्य स्थानों में रहने वाले लोगों (बाह्यजगत के वैज्ञानिक, भौतिकवादी वैज्ञानिक- Materialistic Scientist) को भी इसी गुरु-शिष्य परम्परा का अनुसरण करने से अवश्य होनी चाहिए !  स्वामीजी कहते हैं- ' हम देखते हैं कि यह अन्तःस्फुरण ही धर्म का एकमात्र मूल स्रोत है...अगर कभी किसी एक व्यक्ति को दैवी प्रेरणा (अन्तःस्फुरण या आत्मसाक्षात्कार ) मिली है, तो विश्व के हर व्यक्ति को प्रेरणा मिलने की सम्भावना है, और यही धर्म है।  ' (धर्म के दावे - २/२७४ )

[We find that this inspiration is the only source of religion.... If one man was ever inspired, it is possible for each and every one of us to be inspired, and that is religion. (The Claims of Religion -Volume 4) ]  


4. swami vivekananda's  neo vedanta :  LOVE  for love's sake.
 
[The Genesis of Leadership Inspired by Vedanti Love ]

 अंतःस्फूर्त प्रेम से उन्मत्त नेता सीर्फ प्रेम के लिये प्रेम  करता है 

" पंचेन्द्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है। जबतक हम पंचेन्द्रियों में पड़े हैं, तब तक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं - सगुण ईश्वर के सिवा और दूसरा भाव हम नहीं देख सकते। हम संसार को ठीक इसी रूप में देखेंगे। रामानुज कहते हैं, 'जबतक तुम अपने को देह , मन या जीव (M/F) समझोगे तब तक तुम्हारे अनुभूति (perception) की हर क्रिया में जीव , जगत और इन दोनों के कारणस्वरूप वस्तुविशेष (ईश्वर ,माँ जगदम्बा) का बोध भी रहेगा !' परन्तु मनुष्य (भक्त या सत्यार्थी) के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब उसका मन (अहं) भी क्रमशः सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता हुआ प्रायः तिरोहित हो जाता है, जब देहबुद्धि में डाल देने वाली भावना, भीति और दुर्बलता (मृत्यु का भय) जो हमें कमजोर बनाती हैं, सभी बिल्कुल मिट जाते हैं। तभी -केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है।  वह उपदेश क्या है?   

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।। 

-[इह एव तैः जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ ]

जिनका मन साम्यभाव (Equality-समत्वभाव ) में अवस्थित है , उन्होंने यहीं (जीवित अवस्था में ही) जन्म-मृत्यु रूप संसार-चक्र (सर्ग) को जीत लिया है। चूँकि ब्रह्म निर्दोष और सर्वत्र सम हैं , इसलिए वे ब्रह्म में ही अवस्थित हैं।  (५/१५७) 

[5.19 “Even in this life they have conquered relativity (the round of birth and death) whose minds are firm-fixed on the sameness (Equality), of everything, for God is pure and the same to all, and therefore such are said to be living in God.”

The living entity, by accepting his material existence, has become situated differently than in his spiritual existence. But if one understands that the Supreme is situated in His Paramātmā manifestation everywhere, that is, if one can see the presence of the Supreme Personality of Godhead in every living thing, he does not degrade himself by a destructive mentality, and he therefore gradually advances to the spiritual world. The mind is generally addicted to sense gratifying processes; but when the mind turns to the Supersoul, one becomes advanced in spiritual understanding. ) (५/२३९-४०) 

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।

 [समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् न हिनस्ति आत्मना आत्मानं ततः याति परां गतिम् ॥]

निश्चय ही, वह पुरुष परमेश्वर को सर्वत्र सम भाव (Equality) से अवस्थित देखते हुए, आत्मा (स्वयं) के द्वारा आत्मा (स्वयं) की हिंसा नहीं करता है, इससे वह परम गति (जीवनमुक्त अवस्था, भ्रममुक्त अवस्था , मोक्ष) को प्राप्त होता है।।

[“Thus seeing the Lord the same everywhere, he, the sage, does not hurt the Self by the self, and so goes to the highest goal.”] 

5. swami vivekananda nav vedanta : Love personified ~ Madness of that Love ! 

 स्वामी विवेकानंद नव वेदांत : प्रेम का अवतार ~ उस प्रेम का पागलपन !

जब प्रेम स्वरूप भगवान (Love personified God श्रीरामकृष्ण ) धरती पर अवतरित होते हैं, तब वह प्रेम कैसा होता है? मनुष्य-जाति में समानता (Theory of Equality in mankind) के सिद्धान्त का स्रोत (Origin -आदिकारण) क्या है? स्वामी विवेकानन्द अपने मद्रास में दिए गए भाषण 'भारत के महापुरुष ' में गीता-प्रचारक श्रीकृष्ण की विवेचना करते हुए कहते हैं -" और यह प्रेम कैसा है ? मैंने तुम लोगों से कहा है कि गोपी-प्रेम को समझना बड़ा कठिन है। ....पहले कामिनी-कांचन , नाम-यश और क्षुद्र मिथ्या संसार के प्रति आसक्ति छोड़ो तभी तुम गोपी-प्रेम को समझ पाओगे। हर समय जिनके ह्रदय में काम , धन , यशोलिप्सा के बुलबुले उठते हैं , ऐसे लोग गोपी-प्रेम की आलोचना करने तथा समझने का साहस करते हैं !?  कृष्ण -अवतार का मुख्य उद्देश्य गोपी-प्रेम की शिक्षा है। यहाँ तक कि गीता का महान दर्शन भी उस प्रेमोन्मत्ता की बराबरी नहीं कर सकता। ... यहाँ गुरु और शिष्य , शास्त्र और उपदेश , ईश्वर और स्वर्ग सब एकाकार हैं, भय के भाव का चिन्ह-मात्र नहीं है ; सब बह गया है -शेष रह गयी है केवल प्रेमोन्मत्तता।
उस समय (नेतृत्व-या मार्गदर्शन करते समय) संसार का कुछ भी स्मरण नहीं रहता, भक्त (शिष्य ) उस समय संसार उसी कृष्ण, एकमात्र उसी कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता, उस समय समस्त प्राणियों में कृष्ण के ही दर्शन करता है , उसका मुँह भी उस समय कृष्ण के समान ही दीखता है ! उसकी आत्मा उस समय कृष्णमय हो जाती है। यह है श्रीकृष्ण की महिमा।" (भारत के महापुरुष ५/१५३}

  
[And what a love!!!!! ,  I have told you just now that it is very difficult to understand the love of the Gopis..... Ay, forget first the love for gold, and name and fame, and for this little trumpery world of ours. Then, only then, you will understand the love of the Gopis. People with ideas of sex, and of money, and of fame, bubbling up every minute in the heart, daring to criticise and understand the love of the Gopis! That is the very essence of the Krishna Incarnation. Even the Gita, the great philosophy itself, does not compare with that madness,
for in the Gita the disciple is taught slowly how to walk towards the goal, but here is the madness of enjoyment, the drunkenness of love, where disciples and teachers and teachings and books and all these things have become one; even the ideas of fear, and God, and heaven — everything has been thrown away. What remains is the madness of love. It is forgetfulness of everything, and the lover sees nothing in the world except that Krishna and Krishna alone, when the face of every being becomes a Krishna, when his own face looks like Krishna, when his own soul has become tinged with the Krishna colour. That was the great Krishna! 

" এ প্রেমের মহিমা কি আর বলিব! এইমাত্র তোমাদিগকে বলিয়াছি, গোপীপ্রেম উপলব্ধি করা বড়ই কঠিন। ...প্রথমে এই কাঞ্চন, নাম-যশ, এই ক্ষুদ্র মিথ্যা সংসারের প্রতি আসক্তি ছাড় দেখি। তখনই—কেবল তখনই তোমরা গোপীপ্রেম কি তাহা বুঝিবে। প্রতি মুহূর্তে যাহাদের হৃদয়ে কামকাঞ্চনযশোলিপ্সার বুদ্বুদ উঠিতেছে, তাহারাই আবার গোপীপ্রেম বুঝিতে চায় এবং উহার সমালোচনা করিতে যায়! কৃষ্ণ-অবতারের মুখ্য উদ্দেশ্য এই গোপীপ্রেম শিক্ষা দেওয়া। এমন কি দর্শনশাস্ত্র-শিরোমণি গীতা পর্যন্ত সেই অপূর্ব প্রেমোন্মত্ততার সহিত তুলনায় দাঁড়াইতে পারে না। কারণ গীতায় সাধককে ধীরে ধীরে সেই চরম লক্ষ্য মুক্তিসাধনের উপদেশ দেওয়া হইয়াছে; কিন্তু এই গোপীপ্রেমের মধ্যে ঈশ্বর-রসাস্বাদের উন্মত্ততা, ঘোর প্রেমোন্মত্ততাই বিদ্যমান; এখানে গুরু-শিষ্য, শাস্ত্র-উপদেশ, ঈশ্বর-স্বর্গ সব একাকার, ভয়ের ধর্মের চিহ্নমাত্র নাই, সব গিয়াছে— আছে কেবল প্রেমোন্মত্ততা। তখন সংসারের আর কিছু মনে থাকে না, ভক্ত তখন সংসারে কৃষ্ণ—একমাত্র সেই কৃষ্ণ ব্যতীত আর কিছুই দেখেন না, তখন তিনি সর্বপ্রাণীতে কৃষ্ণদর্শন করেন, তাঁহার নিজের মুখ পর্যন্ত তখন কৃষ্ণের মত দেখায়, তাঁহার আত্মা তখন কৃষ্ণবর্ণে রঞ্জিত হইয়া যায়। মহানুভব কৃষ্ণের ঈদৃশ মহিমা! ]

"ऐसा श्रेष्ठ आदर्श (नेता) और कभी चित्रित नहीं हुआ। जब तुम्हारे ह्रदय में इस उन्मत्तता का प्रवेश होगा , जब तुम भाग्यवती गोपियों के भाव को समझोगे , तभी तुम जानोगे कि प्रेम क्या वस्तु है!  जब समस्त संसार तुम्हारी दृष्टि से अन्तर्धान हो जायेगा, जब तुम्हारे ह्रदय में और कोई कामना नहीं रहेगी , जब तुम्हारा चित्त पूर्णरूप से शुद्ध हो जायेगा , अन्य कोई लक्ष्य न होगा , यहाँ तक कि जब तुममें सत्यानुसन्धान की वासना भी नहीं रहेगी , तभी तुम गोपियों की अहैतुकी प्रेम-भक्ति की महिमा समझोगे; तभी तुम्हारे ह्रदय में उस प्रेमोन्मत्तता का आविर्भाव होगा। यही लक्ष्य है। यदि तुमको यह प्रेम मिला तो सब मिल गया। " ५/१५४ 

[This (Thakur) is the highest idea to picture. The highest thing we can get out of him is Gopijanavallabha, the Beloved of the Gopis of Vrindaban. When that madness comes in your brain, when you understand the blessed Gopis, then you will understand what love is. When the whole world will vanish, when all other considerations will have died out, when you will become pure-hearted with no other aim, not even the search after truth, then and then alone will come to you the madness of that love, the strength and the power of that infinite love which the Gopis had, that love for love's sake. That is the goal. When you have got that, you have got everything.

মানবভাষায় এরূপ শ্রেষ্ঠ আদর্শ আর কখনও চিত্রিত হয় নাই। যখন তোমাদের মস্তিষ্কে এই উন্মত্ততা প্রবেশ করিবে, যখন তোমরা মহাভাগা গোপীগণের ভাব বুঝিবে, তখনই তোমরা জানিতে পারিবে প্রেম কি বস্তু ! যখন তোমাদের দৃষ্টিপথ হইতে সমগ্র জগৎ অন্তর্হিত হইবে, যখন তোমাদের অন্য সব চিন্তা লুপ্ত হইবে, যখন তোমরা শুদ্ধচিত্ত হইবে, যখন তোমাদের আর কোন লক্ষ্য থাকিবে না, এমন কি সত্যানুসন্ধানস্পৃহা পর্যন্ত থাকিবে না, তখনই তোমাদের হৃদয়ে সেই প্রেমোন্মত্ততার আবির্ভাব হইবে, তখনই তোমরা গোপীদের অহেতুক প্রেমের শক্তি বুঝিবে। ইহাই লক্ষ্য। যখন এই প্রেম লাভ করিলে, তখন সব পাইলে।] 

6. swami vivekananda nav vedanta --भारत के प्रेमोन्मत्त महापुरुष' - कृष्ण , बुद्ध ,शंकर , रामानुज , चैतन्य , श्रीरामकृष्ण , विवेकानन्द , CINC नवनीदा तक !  


 " क्या भारतवर्ष में कभी सुधारकों का अभाव रहा है ? क्या तुमने भारत का इतिहास पढ़ा है ? रामानुज , शंकर , चैतन्य , कबीर और दादू कौन थे ? ये सब बड़े बड़े धर्माचार्य , जो भारत के गगन में अत्यंत उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह एक के बाद एक उदय हुए और फिर अस्त हो गए , कौन थे ? क्या रामानुज के ह्रदय में नीच जातियों के लिए प्रेम नहीं था ? क्या उन्होंने अपने सारे जीवनभर पैरिया (चाण्डाल) तक को अपने सम्प्रदाय में ले लेने का प्रयत्न नहीं किया ? क्या उन्होंने अपने सम्प्रदाय में मुसलमान तक  को मिला लेने की चेष्टा नहीं की? (हिन्दी 5 /114 )

" गीता के उपदेशों के जीते-जागते उदाहरणस्वरुप, गीता के उपदेशक भगवान श्रीकृष्ण दूसरे रूप - शाक्यमुनि (नवनीदा) के रूप में पुनः इस मर्त्य लोक में पधारे जिससे जनता द्वारा उसका एक कण भी कार्य रूप में परिणत हो सके। ये ही शाक्यमुनि हैं। ये दीन दुःखियों को (झारखण्ड -बिहार जाकर) उपदेश देने लगे। राजसिंहासन को त्यागकर वे दुखी , गरीब ,पतित , भिखमंगों के साथ रहने लगे। उन्होने दूसरे राम के समान चाण्डाल को भी छाती से लगा लिया।" ५/१५७) 
  ... बाद में विभिन्न असभ्य और अशिक्षित जातियां बौद्ध धर्म में घुसने लगीं , वे भगवान बुद्ध के उच्च आदर्शों का ठीक से अनुसरण न कर सकीं। ... बीभत्स उपासना पद्धतियां और कुसंस्कार झुण्ड के झुण्ड आर्यों के समाज में घुसने लगीं। इस प्रकार सारा भारत कुसंस्कारों (भ्र्ष्टाचार) का लीलाक्षेत्र बनकर घोर अवनति को पहुँच गया। " (भारत के महापुरुष  ५/१५८) 
[the same Krishna came to show how to make his theories practical.  As it were to give a living example of this preaching, as it were to make at least one part of it practical, the preacher himself came in another form, and this was Shakyamuni, the preacher to the poor and the miserable, he who rejected even the language of the gods to speak in the language of the people, so that he might reach the hearts of the people, he who gave up a throne to live with beggars, and the poor, and the downcast, he who pressed the Pariah to his breast like a second Rama.But unfortunately such high ideals could not be well assimilated by the different uncivilised and uncultured races of mankind who flocked within the fold of the Aryans. These races, with varieties of superstition and hideous worship, rushed within the fold of the Aryans. and thus the whole of India became one degraded mass of superstition. [THE SAGES OF INDIA]  

 " परन्तु भारत को जीवित रहना ही था , इसीलिए पुनः भगवान का आविर्भाव हुआ। जिन्होंने कहा था , " जब कभी धर्म की हानि होती है , तभी मैं आता हूँ " - वे फिर से आये। इस बार दक्षिण देश में अद्भुत प्रतिभाशाली शंकर का आविर्भाव हुआ !  उसने 16 वर्ष की उम्र में ही अपनी सारी ग्रंथरचना समाप्त कर ली। उस अद्भुत बालक ने संकल्प लिया था कि सम्पूर्ण भारत को प्राचीन सनातन धर्म के विशुद्ध मार्ग पर ले आऊंगा !
[But India has to live, and the spirit of the Lords descended again. He who declared, "I will come whenever virtue subsides", came again, and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin of whom it has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvellous boy Shankaracharya arose.]

 यह कार्य कितना कठिन और विशाल था , इसका विचार भी करो। तातार , मुगल , बलूची आदि भयानक आतंकवादी जातियां भारत में आकर बौद्ध बन गए और हमारे साथ मिल गए। इस तरह हमारा राष्ट्रीय जीवन पाशविक आचारों से भर गया। उस ब्राह्मण युवक को बौद्धों के विरासत से यही मिला था और उसी समय से अब तक भारत भर में इसी अधः पतित बौद्धधर्म पर वेदान्त की पुरनर्विजय का कार्य जारी है। महान दार्शनिक शंकर ने आकर दिखलाया कि बौद्ध धर्म और वेदान्त के सारांश में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु उनके शिष्य अपने आचार्य के उपदेशों के मर्म को ठीक से आत्मसात नहीं कर सके , तथा आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व को ही अस्वीकार करके नास्तिक बन गए। ... पर जो पाशव -अनुष्ठान पद्धतियाँ धर्म के नाम पर प्रचलित थीं, वे उन अनुष्ठानों के आदि बन गए थे। उन अनुष्ठानों के लिए क्या किया जाय, यह कठिन समस्या उठ खड़ी हुई। (५/१५९) 

तब प्रतिभाशाली रामानुज (brilliant Râmânuja) का अभ्युदय हुआ। शंकर की प्रतिभा प्रखर थी, किन्तु उनका ह्रदय रामानुज के समान उदार नहीं था। रामानुज का ह्रदय शंकर की अपेक्षा अधिक विशाल था। उन्होंने पददलितों की पीड़ा का अनुभव किया और उनसे सहानुभूति की। उस समय की प्रचलित अनुष्ठान -पद्धतियों में उन्होंने यथाशक्ति सुधार किया। और नई अनुष्ठान-पद्धतियां , नई उपासना प्रणालियों की सृष्टि उनलोगों के लिए की जिनके लिए ये अत्यावश्यक थीं। इसके साथ उन्होंने ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सबके लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना का द्वार खोल दिया। यह था रामानुज का कार्य ! उनके कार्य का प्रभाव चारों तरफ फैलने लगा , उत्तर भारत तक उसका प्रसार हुआ। वहाँ के भी कई आचार्य इसी तरह कार्य करने लगे ; किन्तु यह बहुत देर में मुगलों के शासन-काल में हुआ। उत्तर भारत के इन अपेक्षाकृत आधुनिक आचार्यों में से चैतन्य सर्वश्रेष्ठ हुए। मुनिस्वामी ध्यान दो -- " रामानुज के समय से धर्म-प्रचार की एक विशेषता पर ध्यान दो - तभी से धर्म का द्वार सर्वसाधारण के लिए खुला रहा। शंकर के पूर्ववर्ती आचार्यों का यह जैसा मूलमंत्र था , रामानुज के परवर्ती आचार्यों का भी यह वैसा ही मूल मंत्र रहा। 

उत्तर भारत के महान सन्त चैतन्य गोपियों के प्रेमोन्मत्त भाव [राधाभाव] के प्रतिनिधि थे। चैतन्यदेव स्वयं एक ब्राह्मण थे, वे न्याय के अध्यापक थे , तर्क के द्वारा सबको परास्त करते थे -यही उन्होंने बचपन से जीवन का उच्चतम आदर्श समझ रखा था। किसी महापुरुष की कृपा से इनका जीवन बदल गया ; तब इन्होने वादविवाद तर्क , न्याय का अध्यापन, सबकुछ छोड़ दिया। संसार में भक्ति के जितने आचार्य हुए हैं, प्रेमोन्मत्त चैतन्य उनमें से एक श्रेष्ठ आचार्य हैं। उनकी भक्ति तरंग सारे बंगाल में फ़ैल गयी , जिससे सबके ह्रदय को शांति मिली। उनके प्रेम की सीमा न थी। साधु -असाधु , हिन्दू -मुसलमान , पवित्र -अपवित्र , वैश्य -पतित -सभी उनके प्रेम के भागी थे , वे सब पर दया रखते थे। 
यद्यपि काल के प्रभाव से सभी अवनति को प्राप्त होते हैं और उनका चलाया हुआ सम्प्रदाय घोर अवनति की दशा को पहुँच गया है। फिर भी आज तक वह दरिद्र , दुर्बल , जातिच्युत ,पतित , किसी भी समाज में जिसका अस्तित्व नहीं है , ऐसे लोगों -'मतुआ सम्प्रदाय ' का भी आश्रय स्थान है ! 
... शंकर-मतावलम्बी यह स्वीकार नहीं करते कि जातिभेद के विषय में शंकर पहले अत्यन्त संकीर्णता का भाव रखते थे ---काशी की दो घटना से  मनीषा -पंचक की रचना हुई है। इसके विपरीत प्रत्येक वैष्णव आचार्य में जातिविषयक प्रश्नो की शिक्षा में उदारता दिखाई देती है।
  शंकर का था अद्भुत मस्तिष्क और चैतन्य महाप्रभु का था विशाल ह्रदय। अब एक ऐसे अद्भुत पुरुष के जन्म लेने का समय आ गया था , जिसमें ऐसा ही ह्रदय और मस्तिष्क दोनों एक साथ विराजमान हो, जो शंकर के प्रतिभसम्प्न्न मस्तिष्क एवं चैतन्य के अद्भुत विशाल, अनंत ह्रदय का एक ही साथ अधिकारी हो। जो यह देखे की सभी सम्प्रदाय एक ही आत्मा की शक्ति, एक ही ईश्वर की शक्ति से चालित हो रहे हैं। और प्रत्येक प्राणी में वही ईश्वर विद्यमान है। जिसका ह्रदय भारत के अथवा भारत के बाहर के दरिद्र, दुर्बल , पतित सबके लिए द्रवित हो , लेकिन साथ ही जिसकी विशाल बुद्धि ऐसे महान तत्वों की परिकल्पना करे , जिनसे भारत में अथवा भारत के बाहर सब विरोधी सम्प्रदायों में समन्वय साधित हो। और इस अद्भुत समन्वय द्वारा वह एक [शरीर ] , ह्रदय और मस्तिष्क के सार्वभौम धर्म को प्रकट करे। एक ऐसे ही महापुरुष ने जन्म ग्रहण किया और मैंने वर्षों तक उनके चरणों में बैठकर शिक्षा-प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त किया। 
ऐसे एक पुरुष के जन्म लेने का समय आ गया था , इसकी अनिवार्यता आ खड़ी हुई थी , और उसे (उस शिक्षक को) अविर्भूत होना पड़ा। सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि उसका समग्र जीवन एक ऐसे शहर के पास व्यतीत हुआ , जो पाश्चात्य भावों से उन्मत्त हो रहा था , जो भारत के सब शहरों की अपेक्षा विदेशी भावों (colonial mindset -गुलामी की मानसिकता, औपनिवेशिक मानसिकता) से अधिक भरा हुआ था।
यह महाप्रतिभासम्पन्न व्यक्ति केवल अक्षर ज्ञान रखते थे, किन्तु हमारे विश्वविद्यालय के बड़े बड़े अत्यंत प्रतिभावान स्नातकों ने उसको एक महान बौद्धिक प्रतिभा के रूप में स्वीकार कर लिया ! वे अद्भुत महापुरुष थे --श्री रामकृष्ण परमहंस ! उनके भीतर जो ईश्वरीय शक्ति थी , उस पर विशेष ध्यान दो। वे एक दरिद्र ब्राह्मण के लड़के थे। उनका जन्म बंगाल के सुदूर , अज्ञात , अपरिचित किसी एक गाँव में हुआ था। आज यूरोप , अमेरिका के सहस्रो व्यक्ति वास्तव में उनकी पूजा कर रहे हैं। भविष्य में और भी करोड़ों मनुष्य उनकी पूजा करेंगे। ईश्वर की लीला को कौन समझ सकता है ? भाइयो, तुम यदि इसमें विधाता का हाथ नहीं देखते तो अंधे हो , सचमुच जन्मान्ध हो। ... यदि मैंने जीवनभर में एक भी सत्य वाक्य कहा है , तो वह उन्हींका , केवल उनका ही वाक्य है ; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं , जो असत्य , भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हो, तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं और उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ ! " ५/ १५९ -६२  
[मद्रास में दिया हुआ भाषण ' भारत के महापुरुष'-(C-IN-C) नवनीदा तक]                 

 

6. swami vivekananda GITA : The essence of the Shrutis, or of the Upanishads,

साम्यभाव में अवस्थित नेता श्रीकृष्ण का उदाहरण 
स्वामी विवेकानन्द अपने मद्रास में दिए गए भाषण 'भारत के महापुरुष ' में गीता-प्रचारक श्रीकृष्ण की विवेचना करते हुए कहते हैं -  "गीता के समान  वेदों का भाष्य कभी रचित नहीं हुआ है और आगे रचित भी नहीं होगा। श्रुति अथवा उपनिषदों का तात्पर्य समझना बहुत कठिन है; क्योंकि नाना भाष्यकारों ने अपने अपने मतानुसार उनकी व्याख्या करने की चेष्टा की है। अंत में जो स्वयं श्रुति के प्रेरक हैं, उन्हीं भगवान ने आविर्भूत होकर गीता के प्रचारक के रूप में श्रुति का अर्थ समझाया और आज भारत में उस व्याख्या प्रणाली (कृष्ण -अर्जुन परम्परा में शिक्षा की वर्णाश्रम-व्यवस्था-Be and Make ) की जैसी आवश्यकता है, सम्पूर्ण विश्व को इस शिक्षा -प्रणाली की जैसी आवश्यकता है वैसी किसी और वस्तु की नहीं। " ५/१५५

[Than the Gita no better commentary on the Vedas has been written or can be written. The essence of the Shrutis, or of the Upanishads, is hard to be understood, seeing that there are so many commentators, each one trying to interpret in his own way. Then the Lord Himself comes, He who is the inspirer of the Shrutis, to show us the meaning of them, as the preacher of the Gita, and today India wants nothing better, the world wants nothing better than that method of interpretation

এখানেও আমরা দেখিতে পাই, গীতার মত বেদের ভাষ্য আর কখনও হয় নাই, হইবেও না। শ্রুতি বা উপনিষদের তাৎপর্য বুঝা বড় কঠিন; কারণ ভাষ্যকারেরা সকলেই নিজেদের মতানুযায়ী উহা ব্যাখ্যা করিতে চেষ্টা করিয়াছেন। অবশেষে যিনি স্বয়ং শ্রুতির বক্তা, সেই ভগবান্ নিজে আসিয়া গীতার প্রচারকরূপে শ্রুতির অর্থ বুঝাইলেন, আর আজ ভারতে সেই ব্যাখ্যা-প্রণালীর যেমন প্রয়োজন—সমগ্র জগতে উহার যেমন প্রয়োজন, আর কিছুরই তেমন নহে। 

इसी श्लोक के परम् गति को प्राप्त करने का उपाय बताने वाले 'भारत के महापुरुष' में उद्धृत करते हुए कहते हैं - 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।

हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की यह वाणी --'स्त्री , वैश्य और शूद्र तक परमगति को प्राप्त होते हैं।' सम्पूर्ण मानवजाति के बंधन , सबकी बेड़ियाँ तोड़ देती हैं और सभी को उस परम् पद पाने का अधिकारी बना देती है। (५/१५७) 


 স্ত্রিয়ো বৈশ্যাস্তথা শূদ্রাস্তেঽপি যান্তি পরাং গতিম্ —স্ত্রী, বৈশ্য, এমন কি শূদ্রগণ পর্যন্ত পরমগতি প্রাপ্ত হয়। গীতার বাক্যসমূহ—শ্রীকৃষ্ণের বজ্রগম্ভীর মহতী বাণী সকলের বন্ধন, সকলের শৃঙ্খল ভাঙিয়া ফেলিয়া দেয়, সকলেরই সেই পরমপদলাভের অধিকার ঘোষণা করে।


7.swami vivekananda- The message of the Vedas to the youth of India ! 

भारत के युवाओं के लिए वेदों का सन्देश: ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम '

" हम सभी विकास की प्रक्रिया के मध्य हैं।  इस दृष्टि से एक आदमी दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ नहीं है. ' (९/१६१) तथापि कुछ ऐतिहासिक कारणों से यह भारत का भाग्य था कि, सर्व-प्रथम वही इस सत्य को आविष्कृत करे।  और केवल आविष्कृत ही नहीं करे बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने के लिये, विश्व भर में इसका प्रचार भी करे।  ऋग-वेद कहता है- ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' (९.६३.५) तथा सहस्राब्दियों से अनेकों उत्थान-पतन के मध्य से गुजरते हुए भी यह हमारी मातृभूमि का ही गौरव है कि वह निरन्तर पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने की साधना में निरत रही है।  वस्तुतः वेद विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं।  कोई नहीं जानता कि वे कब लिखे गये और किसके द्वारा लिखे गये. ' विद ' धातु का अर्थ है जानना।  वेदान्त नामक ईश्वरीय ज्ञानराशि 'ऋषि' नामधारी आध्यात्मजगत के वैज्ञानिकों ( Spiritualistic Scientists) द्वारा आविष्कृत हुई है।  ऋषि शब्द का अर्थ है मन्त्र-द्रष्टा, पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उनहोंने प्रत्यक्ष किया है।  पहले वैदिक साहित्य को सदियों तक याद करके कंठस्थ कर लिया जाता था, और सुरक्षित रखा जाता था, बहुत बाद में इसको (अंतःस्फुरणा से उत्पन्न महावाक्यों)  लिख कर रखा जाने लगा। 


8. swami vivekananda ~ कर्मकाण्ड (संस्कार पक्ष) और ज्ञानकाण्ड (आध्यात्मिक पक्ष)  

" यह वेद नामक ग्रंथराशि मुख्यतः दो भागों में विभक्त है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड, संस्कार पक्ष और आध्यात्म पक्ष। कर्मकाण्ड में नाना प्रकार के याग-यज्ञों की बातें हैं; उनमें से अधिकांश का आज कोई उपयोग नहीं होता।  कर्मकाण्ड का प्रधान भाव है- साधारण व्यक्ति के कर्तव्य (४ पुरुषार्थ-धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष) को जानना एवं मनुष्य जीवन के ४ आश्रमों- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा सन्यासी के भिन्न भिन्न कर्तव्यों का पालन जिन्हें अब भी थोडा बहुत माना जा रहा है।  'ज्ञान-काण्ड ' में आध्यात्मिक ज्ञान या शास्वत सत्यों को संचित किया गया है, अतः वे सदैव प्रासंगिक बने रहते हैं. (५/२० ) 

मुख्य रूप से इनको उपनिषदों में संचित रखा गया है।  आगे चल कर समस्त उपनिषदों से आध्यात्मिक तत्वों के सारांश-सुमन को छन्दों में संग्रहित करके गीता रूपी सुन्दर माला ग्रथित हुई है।  महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ की भगवद्गीता में श्लोक-संख्या ७०० है।  गीता सार्वजनीन धर्मग्रंथ है।

9. swami vivekananda Nav vedant '   मुख्य दर्शन

व्यास देव रचित वेदान्त-सूत्र एक दूसरा ग्रन्थ है जिसमें इस दर्शन को सारगर्भित ढंग से विविध उद्धरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। इन तीनों - गीता, उपनिषद और वेदान्त-सूत्र को एकसाथ मिला कर ' प्रस्थान-त्रय ' कहा जाता है।  पारंपरिक रूप से इस दर्शन को ' वेदान्त-दर्शन ' कहा जाता है।  जिसमें अन्य सभी दर्शनों के, विशेष तौर से ' योग-दर्शन ' की अच्छी बातों को भी समाहित किया गया है।  तथा इस 'प्रस्थान-त्रय रूप  वेदान्त-दर्शन '  को ही सनातन धर्म का मुख्य अधिकारी दर्शन माना जाता है। 


10. swami vivekananda लक्ष्य > 'तत्वमसि ' तक पहुँचने के तीन सोपान 

किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यह ' वेदान्त-दर्शन ' ही एकमात्र वैसा दर्शन है, जिसे मनीषियों ने क्रमानुसार व्यवस्थित ढंग से विकसित किया है,  उल्टे यह कुछ आध्यात्मिक-सत्यों के आविष्कारक ऋषियों द्वारा स्वतःस्फूर्त कथनों का संग्रह है।  इतिहास के बाद वाले काल-खंड में इसी प्रस्थान-त्रय को प्रमुख आधार मानकर दर्शन की कई शाखायें विकसित हो गयीं हैं।  उनमें से तीन मतवाद- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत-वाद ऐसे मतवाद हैं जो सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं।  ये तीनों मतवाद पहले एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं बना पाते थे, प्रत्येक मतवाद यह दावा करता था कि वेदान्त के ऊपर केवल उसकी अपनी व्याख्या ही एकमात्र सत्य है।

11. Swami Vivekananda's Neo Vedanta ~  सभी मार्ग सत्य हैं 

श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने नवीन ढंग से इनकी व्याख्या करते हुए कहा - ये सभी मार्ग सत्य हैं क्योंकि एक ही सत्य को विभीन्न दृष्टिकोण से देखते हैं तथा पहले अपने को दूसरों से बिल्कुल पृथक समझने का जो भ्रम हम सबों में विद्यमान था, उन्हें क्रमशः दूर करते हुए, ये सभी मत हमलोगों को विश्व के एकत्व को अनुभूत करने वाले एक ही लक्ष्य तक पहुंचा देने में समर्थ हैं।  

अति संक्षेप में कहा जाय तो द्वैतवाद के अनुसार जीव-जगत और ईश्वर सभी एक दूसरे से पृथक हैं. ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, वे ही इस जगत की सृष्टि-कर्ता, पालन-कर्ता और संहार-कर्ता हैं।  

विशिष्टाद्वैत में यह माना जाता है कि अस्तित्व की प्रत्येक वस्तु चाहे वह कितनी भी क्षुद्र क्यों न हो, उस पूर्ण का अंश है जो पूर्ण है या ईश्वर है।  

अद्वैत दर्शन दृढ़ता से यह घोषित करता है कि केवल ब्रह्म या ईश्वर का ही अस्तित्व है।  अज्ञान के कारण ही हमलोग जीव और जगत को ईश्वर से भिन्न देखते हैं। 

 12.swami vivekananda ' दया नहीं सेवा '

समस्त जगत को ब्रह्मस्वरूप देखने की प्रेरणा देते हुए और अपने गुरुदेव द्वारा उद्धृत सूत्र ' दया नहीं सेवा' की व्याख्या करते हुए विवेकानन्दजी कहते हैं- सभी जीवों पर दया करो, सबको अपने समान देखो।  अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से मुक्त करो। हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, मैं महान हूँ और तुम बुरे हो इसलिए मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ। ' साम्य-भाव में स्थित रहना मुक्त पुरुष का लक्षण है।  केवल पापी ही पाप देखता है।  मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो। शरीर के बंधन से मुक्ति प्राप्त करो।  देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की वासना को त्याग देना।  उनलोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं।  जबतक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते, हमें उसे रखना ही होगा। हमें शरीर से तादाम्य भाव न रखना चाहिए, अपितु उसे केवल एक साधन के रूप में देखना चाहिए, जिसका उपयोग पूर्णता प्राप्त करने में किया जाता है।  श्रीराम भक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा - 


देह्बुद्ध्या तु दासोअहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः। 
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः।।  

मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक हूँ।  जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी पूर्ण ब्रह्म या दिव्य प्रकाश की चिनगारी हूँ,  जो कि तू है ! किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही जाते हैं।  " (विवेकानन्द साहित्य खंड ६/२६७-६८)    

तब भी इष्ट-निष्ठा विशेष रूप से आवश्यक है। अतः भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने आगे कहा है- 
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि। 
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमल लोचनः।। 
 
मैं जानता हूँ, जो परमात्मा लक्ष्मीपति हैं, वे ही जानकीपति हैं, तथापि कमललोचन श्रीराम ही मेरे सर्वस्व हैं।  ' (५/२४९)
 उसी प्रकार ईसामसीह भी ईश्वर को कभी कभी अपना स्वर्गस्थ-पिता कहते हैं, फिर कभी कहते हैं ' स्वर्ग का राज्य तुम्हारे ह्रदय मे है. ' फिर वे भी कहते हैं- ' मैं और मेरा पिता एक हैं। 


13. swami vivekananda : Theories of Past birth and Reincarnation

पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त 


" जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत।  खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई।  परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई।  अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा.... खोज अन्तर्जत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?  समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला। वेदों के इस भाग का नाम- उपनिषद, वेदान्त, आरण्यक या जीवन -रहस्य है !

नचिकेता पूछता है -
 येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥कठोपनिषद -१/१/२०

[मनुष्य प्रेते या इयं विचिकित्सा एके अयं अस्ति इति आहुः एके अयं न सति इति च आहुः । त्वया अनुशिष्टः एतत् अहं विद्याम् एषः वराणाम् तॄतीयः वरः  [“This debate that there is over the man who has passed and some say 'This he is not' and some that he is, that, taught by thee, I would know; this is the third boon of the boons of my choosing.”] 

शब्दार्थ: प्रेते मनुष्ये या इयं विचिकित्सा = मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है; एके अयम् अस्ति इति = कोई तो (कहते हैं) यह आत्मा (मृत्यु के बाद) रहता है; च एके न अस्ति इति = और कोई (कहते हैं) नहीं रहता है; त्वया अनुशिष्ट: अहम् = आपके द्वारा उपदिष्ट मैं; एतत् विद्याम् =इसे भली प्रकार जान लूं; एष वराणाम् तृतीय: वर: = यह वरों में तीसरा वर है।

अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' अर्थ: मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा(मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहता।  हे यमराज ! आप तो मृत्यु के देवता हैं , आप मुझे बताइये कि इनमें कौन सा सत्य है ?  आपसे उपदेश पाकर मैं इसे जान लूं, यह वरों मे तीसरा वर है।

इस प्रश्न के उत्तर में यम उसको  (कठोपनिषद -१/२/१८) में यह बतलाते हैं–

न जायते म्रियते वा विपाश्चन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित ।
 अजो नित्य: शाश्वातोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

[विपश्चित् न जायते म्रियते वा। अयं कुतश्चित् न बभूब। अस्मात् न कश्चित् बभूब । अयम् अजः नित्यः शाश्वतः पुराणः। शरीरे हन्यमाने न हन्यते ॥[That Wise One is not born, neither does he die; he came not from anywhere, neither is he anyone; he is unborn, he is everlasting, he is ancient and sempiternal, he is not slain in the slaying of the body.]

 इस 'प्रज्ञामय' का न जन्म होता है न मरण; अर्थात् यह जो (इस शरीर में) चेतन है, वह न जन्मता है, न मरता है, न यह किसी से बना है, न इससे कुछ बनता है। यह अजन्मा है, नित्य है, पुराना है, पर सदा एकरस है, शरीर के मरने पर यह नहीं मरता है।

और आगे यम  (कठोपनिषद -१/२/१९) में कहते हैं - 

हन्ता चिन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् । 
उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति न हन्यते ।। 

[ हन्ता हन्तुं मन्यते चेत् हतः हतं मन्यते चेत् तौ उभौ न विजानीतः। अयं न हन्ति न हन्यते ॥ If the slayer think that he slays, if the slain think that he is slain, both of these have not the knowledge. This slays not, neither is He slain.]

    अर्थात् मारने वाला ( हन्ता ) यदि समझता है कि मैंने मार डाला है, और मरने वाला (हत)  समझता है कि मैं मरता हूँ तो वह दोनों नहीं जानते हैं; 'यह' न हनन करता है न 'इसका' हनन होता है। यह न मारता है, न मरता है ।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥  - केनोपनिषत् २-५

{मानव शरीर पाकर यदि इस जन्म में ईश्वर को जान लिया तब तो अविनाशी परमात्मा (ब्रह्म) (प्राप्त हो चुका) है। यदि इस जन्म में ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं किया तो बहुत बड़ी हानि हो जायेगी (अर्थात जन्म मरण के चक्कर में फंस कर अनन्त दुखों को भोगना पड़ेगा।) अतः सर्वत्र सभी प्राणियों में उस सर्व व्यापक ब्रह्म का बिशेष रूप से चिंतन करके बुद्धिमान महापुरुष इस शरीर (लोक) से मुक्त हो जाते हैं।}

यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।

If here one comes to that knowledge, then one truly is; if here one comes not to the knowledge, then great is the perdition. The wise distinguish That in all kinds of becomings and they pass forward from this world and become immortal.
 

14 . swami vivekananda ka nav vedant  पुनर्जन्म कहाँ होगा , 


जो इसी शरीर में अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए उनका , पुनर्जन्म कहाँ होगा ,  इसके विषय में आगे यम कठोपनिषद (२. २. ७) में  कहते हैं -  

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्‌ ॥

[यथाकर्म यथाश्रुतम् अन्ये देहिनः शरीरत्व्याय योनिं प्रपद्यन्ते। अन्य स्थाणुम् अनुसयन्ति ॥ (मृत्योपरान्त)  कुछ 'आत्मा' (देही-अहं) के शरीर धारण करने के लिए किसी गर्भ (योनि) में प्रवेश करते हैं; अन्य 'अचल'-स्वरूप परमात्मा, 'स्थाणु' का अनुसरण करते हैं; सभी का गन्तव्य उनके कर्म तथा श्रुतबोध (प्रकट ज्ञान) के अनुसार होता है।

'अर्थात् अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात् वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।

[तदुक्तमृषिणा गर्भे नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा शतं मा पुर आयसीररक्शन्नधः श्येनो जवसा निरदीयमिति। गर्भ एवैतच्छयानो वामदेव एवमुवाच ॥ (ऐतरेयोपनिषद्चतुर्थोऽध्यायः Verse ५/(ऋग 04/27/1 ) ''मैं, वामदेव, गर्भ में होते हुए भी,इन देवताओं के सारे जन्मों का पता लगा लिया है। मैं इन समस्त देवगणों के जन्म तथा उनके कारणों को जान गया हूँ । उन्होंने मुझे सौ लोहपुरियों में नीचे बन्दी बना कर रखा; पर मैंने शक्ति एवं प्रचण्डता से उन सबको भेद डाला।  मैं ऐसे वेग से निकल आया हूँ, जैसे बाज (निकलता) है। - गर्भ में लेटे-लेटे ही वामदेव ने ऐसा कहा। " ]

14.swami vivekananda  पातञ्जल योगदर्शन में पूर्वजन्म के साक्षात्कार का वर्णन : 

महर्षि पतञ्जलिकृत पातञ्जलयोग दर्शन के विभूतिपाद में विभिन्न विभूतियों का वर्णन है । महर्षि पतञ्जलि ने वर्णित किया है कि किस प्रकार वैज्ञानिक तरीके से साधना करने से योगी मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति कर सकता है ।  इसके लिए पहले मनुष्य को यम (अहिंसा, सत्य अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह (उपहार लेकर संग्रह का अभाव) तथा नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) आदि का पालन करना अनिवार्य है । 
[देखें –श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (47 -48)/ विवेक-जीवन ब्लॉग / रविवार, 1 मार्च 2020/  : "पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सत्य है !": Yoga of Practice"] 

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथान्तासंबोध: । (पातञ्जलयोगदर्शन 2. 39) 

 अपरिग्रह में स्थिर होने पर जन्म जन्मान्तरों का बोध हो जाता है ??? पतंजलि अपरिग्रह की सिद्धि बताते हैं। 
.....पहले तो यह समझ नहीं आया पर जब अपरिग्रह के सिद्धान्त को आत्मा को केन्द्रबिन्दु बना कर लगाया तो आत्मा की दृष्टि से तो यह शरीर, मन, इन्द्रियाँ, विषय आदि सभी परिग्रह हैं। और यह भी समझा जा सकता है कि सदियों से हम यह शारीरिक आवरण ओढ़ते आये हैं। यह सबका भान हट जाने से अपनी जन्म जन्मान्तरों की यात्रा स्पष्ट दिखायी पड़ेगी। अर्थात् जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपने पूर्व जन्मों और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । अपरिग्रह का सिद्धान्त स्वार्थ के ऊपर परमार्थ को रखने का है, शरीर के ऊपर अध्यात्म को रखने का है। जब यह विवेक आ जायेगा कि आत्मा और शरीर अलग अलग हैं और शरीर को विषयों से पोषित करना श्रम को व्यर्थ करना है तो वह परवैराग्य होता है। उपहार में द्रव्यों का अपने उपयोग के लिए ग्रहण करना परिग्रह है। ऐसा ग्रहण न करना अपरिग्रह है। वस्तुतः प्राणयात्रा के लिए आवश्यक वस्तुओं से अधिक वस्तुओं का ग्रहण न करना अपरिग्रह है। अपरिग्रह में सम्यक् स्थैर्य होने पर जन्मकथन्तासम्बोध (विषय ज्ञाता एवं विषयों की पूर्वापरस्थिति का ज्ञान) होता है (योगसूत्र 2/39)।
यह जीवन युगों युगों से चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, यह पांच यम हैं। यही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक तुम इनका पालन करते हो उतना अधिक इनका प्रभाव होने लगता है।

' संस्कार साक्षात्करणात् पूर्वजाति ज्ञानम् ।' पातञ्जल  योगदर्शन/३.१८॥ 

संस्कारों का साक्षात्कार होने से पूर्व जन्म की स्मृति हो जाती है।  (संस्कार - संस्कारों में/साक्षात्- करणात्- संयम करने से/पूर्व – पहले/जाति- जाति अर्थात जन्म का/ज्ञानम्- ज्ञान हो जाता है।)योगी द्वारा अपने संस्कारों (चरित्र के ऊपर) में संयम (धारणा-ध्यान और समाधि) करने से उसे अपने पूर्व जन्म के बारे में ज्ञान हो जाता है । अर्थात् संस्कारों का साक्षात् कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है ।

" यहाँ हम देखते हैं, उपनिषदों के वीर तथा साहसी महामना ऋषि निर्भय भाव से बिना समझौता किये ही मनुष्य जाति के लिये ऊँचे से ऊँचे तत्वों की घोषणा कर गये हैं, जो कभी भी प्रचारित नहीं हुए।  श्रुतियों के ये सार्वभौम सत्य, वेदान्त के ये अपूर्व तत्व, अपनी ही महिमा से अचल, अजेय और अविनाशी बनकर आज भी विद्यमान है।  हे हमारे देशवासियो, मैं उन्हीं को तुम्हारे आगे रखना चाहता हूँ। "

15. swami vivekananda : द्वैत मार्ग के मतानुसार उपनिषदों में वर्णित पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि :

 विवेकानन्द स्टार थियेटर , कलकत्ता में दिए भाषण - 'सर्वांग वेदान्त' में आगे कहते हैं " रामानुज के मतानुसार नित्य या शाश्वत पदार्थ तीन हैं -जिसका कभी नाश नहीं होता, और वे हैं - ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति। सभी जीवात्मायें नित्य हैं , ईश्वर के साथ उनका भेद सदैव बना रहेगा , और उनकी स्वतंत्र सत्ता का कभी लोप नहीं होगा। रामानुज कहते हैं , तुम्हारी आत्मा, मेरी आत्मा से अनन्त काल तक पृथक रहेगी और यह प्रकृति भी चिरकाल तक पृथक रूप से विद्यमान रहेगी , क्योंकि उसका अस्तित्व वैसे ही सत्य है , जैसे कि जीवात्मा और ईश्वर का अस्तित्व ! परमात्मा, (भगवान विष्णु, ईश्वर या माँ काली,अल्ला जो कहो) सर्वत्र अन्तर्निहित और आत्मा का सारतत्व है। ईश्वर अन्तर्यामी हैं, [अर्थात भगवान विष्णु की शक्ति माँ काली के अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव भी अन्तर्यामी हैं) ; और इसी अर्थ में रामानुज कहीं कहीं परमात्मा को जीवात्मा से अभिन्न -जीवात्मा का सारभूत पदार्थ बताते हैं। और ये जीवात्मायें प्रलय के समय, जबकि उनके मतानुसार सारी प्रकृति संकुचित अवस्था को प्राप्त होती है , क्रम-संकुचित हो जाती है। और कुछ काल तक उसी संकुचित तथा सूक्ष्म अवस्था में रहती है। और दूसरे कल्प के आरम्भ में वे अपने पिछले कर्मों के अनुसार फिर विकास पाती हैं। और अपना कर्मफल भोगती हैं(५/२२८)

[ According to Ramanuja, these three entities are eternal — God, and soul, and natureThe souls are eternal, and they will remain eternally existing, individualised through eternity, and will retain their individuality all through. Your soul will be different from my soul through all eternity, says Ramanuja, and so will this nature — which is an existing fact, as much a fact as the existence of soul or the existence of God — remain always different. And God is interpenetrating, the essence of the soul, He is the Antaryâmin.  In this sense Ramanuja sometimes thinks that God is one with the soul, the essence of the soul, and these souls — at the time of Pralaya, when the whole of nature becomes what he calls Sankuchita, contracted — become contracted and minute and remain so for a time. And at the beginning of the next cycle they all come out, according to their past Karma, and undergo the effect of that Karma(The Vedanta in all its phases )] 

शुभ -अशुभ विवेक : 

भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति या मोक्ष के लिये अपना प्रयास और माँ जगदम्बा का अनुग्रह दोनों आवश्यक :   

रामानुज का मत है कि जिस कर्म से आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता और पूर्णता का संकोच होता हो ,वही अशुभ कर्म है। और जिससे उसका विकास हो वह शुभ कर्म है। जो कुछ आत्मा के विकास में सहायता पहुंचाए वह अच्छा है , और जो कुछ उसे संकुचित करे वह बुरा। और इसीतरह आत्मा की प्रगति हो रही है , कभी तो वह संकुचित हो रही है , कभी विकसित। अंत में ईश्वर (माँ काली के अवतार, गुरु ) के अनुग्रह से उसे मुक्ति मिलती है। रामानुज कहते हैं जो निष्कपट हैं , और उनके (अवतार वरिष्ठ के) अनुग्रह के लिए प्रयत्नशील हैं , वे ही उस भ्रममुक्त  (De-Hypnotized) अवस्था या मोक्ष को प्राप्त होते हैं! "(५/२२८ )

Every action that makes the natural inborn purity and perfection of the soul get contracted is a bad action, and every action that makes it come out and expand itself is a good action, says Ramanuja. Whatever helps to make the Vikâsha of the soul is good, and whatever makes it Sankuchita is bad. And thus the soul is going on, expanding or contracting in its actions, till through the grace of God comes salvation. And that grace comes to all souls, says Ramanuja, that are pure and struggle for that grace.(The Vedanta in all its phases) ]

Every' -body is changing. ????? 

Every-'body' (2-'H' =Hand and Head) is changing. नेता के लिए 'अहं' (मैं) शब्द के मर्म को अपने अनुभव से जानना अनिवार्य है :   

स्वामी जी आगे कहते हैं -" अद्वैतवादियों के मतानुसार इस समय (भेंडत्व या स्वयं को M/F देह समझते समय) जो हमारा व्यक्तित्व है - वह भ्रम मात्र है ! समग्र संसार के लिये इस बात को ग्रहण कर पाना बहुत ही कठिन रहा है। हरेक व्यक्ति (M/F शरीर) तो निरन्तर परिवर्तित हो रहा है। इस नाम-रूप वाले परिवर्तनशील (मिथ्या) व्यक्तित्व के परे प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः आत्मा (अविभाज्य तो ह्रदय -Heart) ही है। और अद्वैतवादी कहते हैं, यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है, दो अनन्त कदापि नहीं रह सकते। केवल एक ही व्यक्ति (ईश्वर) है, जो अनन्तस्वरूप है! [An individual is that which exists as a distinct entity. 'Individual ' या अविभाज्य (inseparable)-सच्चिदानन्द -तो केवल एक ही है, जो अनन्तस्वरूप है।)... अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और सब माया है, किसीकी कोई तात्त्विक सत्ता नहीं है ! कोई भी जड़ वस्तु क्यों न हो, उसमें जो यथार्थ सत्ता (चेतना) है, वह यही ब्रह्म है। हम वही ब्रह्म है, और नाम-रूप आदि जितने हैं सब माया है। नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे। 'उसी' ब्रह्मस्वरूप में हम सभी एक हैं। तुम्हें इस 'अहं' (मैं ) शब्द को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। (नश्वर व्यष्टि मैं  को माँ जगदम्बा के मातृ-ह्रदय के सर्वव्यापी, विराट  'समष्टि मैं' में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। )

[According to the Advaitist, this individuality which we have today is a delusion. This has been a hard nut to crack all over the world. Everybody is changing. If so, where is your individuality? Certainly not in the body, or in the mind, or in thought. And beyond that is your Atman, and, says the Advaitist, this Atman is the Brahman Itself. There cannot be two infinites. There is only one individual and it is infinite.... And that 'Infinite', says the Advaitist, is what alone exists. Everything else is Maya, nothing else has real existence; whatever is of existence in any material thing is this Brahman; we are this Brahman, and the shape and everything else is Maya. Take away the (नाम-रूप M/F) form and shape, and you and I are all one. But we have to guard against the word, “I”  

 अतः द्वैतवादियों और अद्वैतवादियों में यह बड़ा अन्तर प्रतीत होता है। तुम देखोगे कि शंकराचार्य जैसे बड़े बड़े भाष्यकारों ने भी अपने मत की पुष्टि के लिए, जगह जगह पर शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है जो मेरी समझ में तर्कसंगत (justified) नहीं है । " रामानुज"  ने भी कहीं कहीं शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है कि वह साफ समझ में नहीं आता। "  (५/२३९-४०???????)  

[Now this seems, therefore, to be the great point of difference between the dualist and the Advaitist. You find even great commentators like Shankaracharya making meanings of texts, which, to my mind, sometimes do not seem to be justified. Sometimes you find Ramanuja dealing with texts in a way that is not very clear. The idea has been even among our Pandits that only one of these sects can be true and the rest must be false, although they have the idea in the Shrutis, the most wonderful idea that India has yet to give to the world: एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। — “That which exists is One; sages call It by various names.” That has been the theme, and the working out of the whole of this life-problem of the nation is the working out of that theme — एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। (The Vedanta in all its phases)]

Yea, except a very few learned men, I mean, barring a very few spiritual men, in India, we always forget this. We forget this great idea, and you will find that there are persons among Pandits — I should think ninety-eight per cent — who are of opinion that either the Advaitist will be true, or the Vishishtadvaitist will be true, or the Dvaitist will be true; and if you go to Varanasi, and sit for five minutes in one of the Ghats there, you will have demonstration of what I say. You will see a regular bull-fight going on about these various sects and things.(The Vedanta in all its phases)] 


16. swami vivekananda : प्रस्थान -त्रय 

उपनिषद और व्यास- सूत्र वेदान्त हैं , गीता उसकी दिव्य व्याख्या  

"आजकल हम लोग प्रायः एक विशेष भ्रम में पड़ जाते है।  वेदान्त कहने से हम केवल अद्वैतवाद समझ लेते हैं। यदि भारत के सभी धार्मिक पन्थों का अध्यन करना है तो वर्तमान समय में प्रस्थान-त्रय को पढना सभी संप्रदाय वालों के लिये आवश्यक है।  सबसे पहले हैं श्रुतियाँ अर्थात उपनिषद, दूसरे हैं व्याससूत्र जो अपने पहले के दर्शनों की समष्टि तथा चरम परिणति स्वरुप होने के कारण इतर दर्शनों से बढ़ कर समझे जाते हैं।  पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि ये दर्शन एक दूसरे के विरोधी हों।  बल्कि वे एक दूसरे के आधार स्वरुप हैं- मानो सत्य की खोज करनेवाले मनुष्यों को सत्य का क्रम-विकास दिखलाते हुए, व्यास-सूत्रों में उनकी चरम परिणति हो गयी है। व्यास-सूत्रों में वेदान्त के अद्भुत सत्यों को क्रमबद्ध किया गया है तथा उपनिषदों एवं व्यास-सूत्रों के मध्य में वेदान्त की दिव्य टीका के रूप में 'गीता' वर्तमान है।  अतः भारत का प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय - चाहे वह द्वैतवादी, अद्वैतवादी या वैष्णव (विशिष्टाद्वैतवादी) हो- उपनिषद, गीता तथा व्यास-सूत्र को प्रमाणिक ग्रन्थ मानता है। ये तीनों ही प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं।  "  (५/२८५-२८७)

  "गीता के समान  वेदों का भाष्य कभी रचित नहीं हुआ है और आगे रचित भी नहीं होगा। श्रुति अथवा उपनिषदों का तात्पर्य समझना बहुत कठिन है; क्योंकि नाना भाष्यकारों ने अपने अपने मतानुसार उनकी व्याख्या करने की चेष्टा की है। अंत में जो स्वयं श्रुति के प्रेरक हैं, उन्हीं भगवान ने आविर्भूत होकर गीता के प्रचारक के रूप में श्रुति का अर्थ समझाया और आज भारत में उस व्याख्या प्रणाली (कृष्ण -अर्जुन परम्परा में शिक्षा की वर्णाश्रम-व्यवस्था-Be and Make ) की जैसी आवश्यकता है, सम्पूर्ण विश्व को इस शिक्षा -प्रणाली की जैसी आवश्यकता है वैसी किसी और वस्तु की नहीं। " ५/१५५


स्वामी विवेकानन्द अपने मद्रास में दिए गए भाषण 'भारत के महापुरुष ' में गीता-प्रचारक श्रीकृष्ण की विवेचना करते हुए कहते हैं - " कर्मकांड  भी गीता में स्वीकृत हुआ है और यह दिखलाया गया है कि यद्यपि कि यद्यपि कर्मकांड साक्षात् मुक्ति का साधन नहीं है , किन्तु गौण भाव से मुक्ति [ भेंड़त्व भ्रम से de-hypnotized होने का साधन का साधन है। मूर्ति-पूजा भी सत्य है ; सब प्रकार के अनुष्ठान और क्रिया-क्रम भी सत्य हैं , केवल एक विषय पर ध्यान रखना होगा कि - समस्त कर्मकांड और उपासना का उद्देश्य है -चित्त शुद्धि ! यदि ह्रदय शुद्ध और निष्कपट हो , तभी उपासना ठीक उतरती है और हमें चरम लक्ष्य तक पहुँचा देती है। ये विभिन्न उपासना -प्रणालियाँ सत्य हैं , क्योंकि यदि वे सत्य न होतीं तो उनकी सृष्टि ही क्यों हुई ?... तलवार और बन्दुक के जोर से तुम संसार में खून बहा दे सकते हो , किन्तु जब तक मूर्तियों की आवश्यकता रहेगी , तबतक मूर्ति-पूजा अवश्य रहेगी। ये विभिन्न अनुष्ठान -पद्धतियाँ और धर्म के विभिन्न सोपान अवश्य रहेंगे ! " (५/१५५-५६ )                

17.Swami Vivekananda : हिन्दू =  वेदान्ती

" जिस किसी आचार्य (नेता ) ने एक नवीन संप्रदाय की नींव डाली है, उसने इन्हीं तीन प्रस्थानों को आधार बना कर एक नये भाष्य की रचना की है।  अतः वेदान्त को उपनिषदों के किसी एक ही भाव में - द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद या अद्वैतवाद के रूप में आबद्ध कर देना ठीक नहीं है।  एक अद्वैतवादी को अपना परिचय वेदान्ती कहकर देने का जितना अधिकार है, उतना रामानुज-संप्रदाय के विशिष्टाद्वैतवादी (भक्तिवेदान्त-सूत्र के रचयिता ' राम ब्रह्म परमारारथ रूपा ' कहने वाले ) को भी है।  हिन्दू शब्द का अर्थ ही वेदान्ती है।  तुम कदापि यह विश्वास न करो कि अद्वैतवाद के आविष्कारक आचार्य शंकर थे।  मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ये सब मत एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। 

18. Swami Vivekananda  - षड्दर्शन 

हमारे षड्दर्शन महान तत्व के क्रमिक उद्घाटन मात्र हैं, जो संगीत कि तरह धीमे स्वरवाले पर्दों से उठते हैं, और अंत में समाप्त होते हैं, अद्वैत की वज्र-गम्भीर ध्वनि में। " ५/२८८)  अद्वैतवादी कहते हैं, अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और नामरूप आदि जितने हैं सब माया है।  नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे। हमारे पण्डितों तक की यह धारणा है कि इन इतने सम्प्रदायों में से केवल उनका सम्प्रदाय ही श्रेष्ठ है , बाकि सब झूठे हैं। यद्यपि उन्होंने भी श्रुतियों में देखा है - 'एकं सव्दिप्रा बहुधा वदन्ति' -सत्ता एक ही है , परन्तु मुनियों ने भिन्न भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है। ' और इसी अद्भुत भाव को हमें सम्पूर्ण विश्व में फैला देना है। हमारे राष्ट्रीय जीवन का, (प्राचीन भारतीय संस्कृति का) यही मूलमंत्र है -एकं सव्दिप्रा बहुधा वदन्ति' -- और इस मूलमंत्र को चरित्रार्थ करने में ही हमारी जाति की समग्र जीवन-समस्या का समाधान होने वाला है ! और इसी अद्भुत भाव को हमें सम्पूर्ण विश्व में फैला देना है ...लेकिन बहुत थोड़े से आध्यात्मिक व्यक्तियों को छोड़कर हम सब सर्वदा ही इस तत्व को भूल जाते हैं !

 `Man is essentially divine !` हम इस महान तत्व  को सदा भूल जाते है, और तुम देखोगे , अधिकांश पंडित (साम्य भाव में प्रतिष्ठित C-IN-C नवनीदा जैसे नेताओं को छोड़कर -गुरुगिरि करने वाले) लगभग 98 % इसी मत के पोषक हैं कि या तो अद्वैतवाद सत्य है , अथवा विशिष्टाद्वैतवाद अथवा द्वैतवाद।  इसकी जाँच करनी हो तो वाराणसी धाम के किसी घाट पर 5 मिनट के लिए जाकर बैठ जाओ, तो तुम्हें मेरी बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जायेगा। तुम देखोगे कि इन भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का मत लेकर लोग (गुरुगिरि करने वाले) निरन्तर लड़-झगड़ रहे है। हमारे समाज और पण्डितों की की ऐसी ही दशा है !   इस परिस्थिति में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ जिनका जीवन उस साम्य भाव की व्याख्या थी जिसका वर्णन गीता (अध्याय ५/ श्लोक १९) में मिलता है।  जो भारत के सभी मतवादों का आधारस्वरूप था, और  जिसको (प्रस्थान-त्रय को ) उन्होंने कार्यरूप (रामकृष्ण-मठ और महामण्डल) में परिणत कर दिखाया।  इस महापुरुष से मेरा मतलब श्रीरामकृष्ण परमहंस (गुरु-शिष्य परम्परा,विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर... युवा नेता, C-IN-C नवनीदा) से है। उनके जीवन से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दोनों मत (सगुण ईश्वर और निर्गुण) आवश्यक हैं।  (५/२३९ )
[Now this seems, therefore, to be the great point of difference between the dualist and the Advaitist. You find even great commentators like Shankaracharya making meanings of texts, which, to my mind, sometimes do not seem to be justified. Sometimes you find Ramanuja dealing with texts in a way that is not very clear. The idea has been even among our Pandits that only one of these sects can be true and the rest must be false, although they have the idea in the Shrutis, the most wonderful idea that India has yet to give to the world: एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। — “That which exists is One; sages call It by various names.” That has been the theme, and the working out of the whole of this life-problem of the nation is the working out of that theme — एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।Yea, except a very few learned men, I mean, barring a very few spiritual men, in India, we always forget this. We forget this great idea, and you will find that there are persons among Pandits — I should think ninety-eight per cent — who are of opinion that either the Advaitist will be true, or the Vishishtadvaitist will be true, or the Dvaitist will be true; and if you go to Varanasi, and sit for five minutes in one of the Ghats there, you will have demonstration of what I say. You will see a regular bull-fight going on about these various sects and things. (The Vedanta in all its phases)] 


19. Swami Vivekananda -The Method and the Means of devotion to God  

ईश्वर भक्ति के उपाय और साधन : (3H विकास के 5 अभ्यास)  


आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।' (छान्दोग्य-७.२६.२)

आचार्य विवेकानन्द कहते हैं - " भक्तियोग के उपाय तथा साधनों के सम्बन्ध में भगवान रामानुज वेदान्त-सूत्रों का भाष्य करते हुए कहते हैं , " भक्ति की प्राप्ति विवेक ( discrimination) , विमोक (कामुकता का दमन-controlling the passions), अभ्यास (practice), क्रिया (यज्ञ -अनुष्ठान), कल्याण (purity, पवित्रता), अनवसाद (strength,बल) और अनुद्धर्ष (अतिशय उल्लास के निरोध) से होती है। " [“The attaining of That comes through discrimination, controlling the passions, practice, sacrificial work, purity, strength, and suppression of excessive joy.”] उनके मतानुसार 'विवेक ' अर्थ यह है कि श्रेय-प्रेय/ या शुभ-अशुभ विवेक ' के साथ हमें खाद्य-अखाद्य का भी विवेक करना चाहिए। उनके मत से खाद्य पदार्थों के अशुद्ध होने के तीन कारण होते हैं - पहला ,जातिदोष अर्थात खाद्य वस्तु का प्रकृतिगत दोष , जैसे लहसुन, प्याज आदि। दूसरा आश्रयदोष अर्थात दुष्ट और पापी व्यक्तियों का अन्न खाने से। और तीसरा है निमित्तदोष अर्थात किसी अपवित्र वस्तु जैसे , बाल , धूल आदि के स्पर्श से होने वाला दोष।

 श्रुति कहती है - आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।' (छान्दोग्य-७.२६.२)--"आहार शुद्ध हो तो सत्त्व गुण की वृद्धि होती है। सत्त्वगुण शुद्ध हो जाता है तो आत्मस्वरूप की स्मृति अविचल (unwavering-दृढ़) हो जाती है। (The Shrutis say, When the food is pure, the Sattva element gets purified, and the memory becomes unwavering”) भक्तों के लिए खाद्य -अखाद्य का यह प्रश्न सदा ही बड़ा महत्वपूर्ण रहा है। यद्यपि कई भक्ति-मार्गी सम्प्रदाय इस विषय में काफी तिल का ताड़ किया है ,  तथापि इसमें एक बहुत बड़ा सत्य है। हमें यह समरण रखना चाहिए कि सांख्य -दर्शन के अनुसार सत्व, रज और तम - जिनकी साम्यावस्था प्रकृति है और जिनकी वैषम्यावस्था से जगत उत्पन्न होता है - वे प्रकृति के गुण और (जगत के शरीर के) उपादान दोनों हैं ! अतएव इन्हीं उपादानों से समस्त मानव-शरीर निर्मित हुआ है। इनमें से सत्व पदार्थ की प्रधानता ही आध्यात्मिक उन्नति के लिए सबसे आवश्यक है। हम भोजन के द्वारा अपने शरीर में जिन उपादानों को लेते हैं, वे हमारी मानसिक गठन पर विशेष प्रभाव डालते हैं। इसलिए हमें खाद्य -अखाद्य पर विशेष सावधान रहना चाहिए। यह कह देना आवश्यक है कि अन्य विषयों के सदृश इस सम्बन्ध में भी जो कट्टरता शिष्यों के द्वारा लादी जाती है , उसका उत्तरदायित्व आचार्यों पर नहीं है। (खंड ४/पृष्ठ ३८-३९/उपाय और साधन) 
.... वास्तव में आहार का अर्थ केवल भोजन नहीं है, शब्द, रूप, त्वचा का स्पर्श आदि विषयों का जो इन्द्रियबोध (sensations -सनसनी, उत्तेजना) आत्मा के उपभोग के लिये भीतर, चित्त या मनवस्तु पर चुन्नट के जैसा आहृत (gathered- इकट्ठा) हो जाता है। 

इस दृश्य,शब्द,स्पर्श जन्य विषयानुभूति रूप उत्तेजना की शुद्धि (sensationsसे चित्त पर पड़े संवेदना की गहरी लकीर की शुद्धि) को आहारशुद्धि कहते हैं। इसलिए आहार-शुद्धि का तात्पर्य हुआ उस परमानन्द (सच्चिदानन्द) की - संवेदनाओं की अनुभूति प्राप्त करना, जो मोह (attachment), प्रतिकूलता (aversion) और भ्रम (Hypnotized-भेंड़त्व) के दोष से रहित हो! 
" इसलिए इन्द्रियानुभव से प्राप्त होने वाली सनसनी की 'चुन्नट' -- रूपी 'आहार ' जब शुद्ध हो जाता है, तब उस व्यक्ति का सत्व उपादान अर्थात चित्त (अन्तःकरण की लकीर ) शुद्ध हो जाता है, और सत्व-शुद्धि हो जाने से उस अनन्त सच्चिदानन्द चैतन्य की शाश्वत, अविच्छिन्न स्मृति जिसका वर्णन शास्त्रों में किया है, प्राप्त हो जाती है ! " (छान्दोग्य-७.२६.२)-      
                    
["That which is gathered in is Ahara. The knowledge of the sensations, such as sound etc., is gathered in for the enjoyment of the enjoyer (self); the purification of the knowledge which gathers in the perception of the senses is the purifying of the food (Ahara). The word 'purification-of-food' means the acquiring of the knowledge of sensations untouched by the defects of attachment, aversion, and delusion; such is the meaning. Therefore such knowledge or Ahara being purified, the Sattva material of the possessor it — the internal organ — will become purified, and the Sattva being purified, an unbroken memory of the Infinite One, who has been known in His real nature from scriptures, will result." (Volume 3 / Bhakti-Yoga /THE METHOD AND THE MEANS/)

" पवित्रता (Purity-साधुता) ही एकमात्र ऐसी भित्ति है , जिस पर सारा भक्ति-भवन (Bhakti-building- home of CINC) खड़ा है। बाह्य शौच -अर्थात शारीरिक पवित्रीकरण और भोजन -विवेक (खाद्याखाद्य विवेक), ये दोनों सरल हैं, पर आंतरिक शौच एवं चारित्रिक साधुता के बिना उनका (भोजन-विवेक का) कोई मूल्य नहीं है ! रामानुज ने आंतरिक शौच एवं चारित्रिक साधुता में प्रतिष्ठित होने के लिए निम्नलिखित गुणों को उपाय स्वरुप बतलाया है - सत्य (truthfulness), आर्जव (निष्कपटता -सरलता sincerity), 'दया' अर्थात बिना किसी स्वार्थ के (बिना किसी ऐषणा-लालसा के) जनताजनार्दन की सेवा में जुटे रहना (doing good to others without any gain to one's self), अहिंसा -अर्थात मन ,वचन कर्म से किसीकी हिंसा न करना, अन-अभिध्या पराई वस्तु को पाने की इच्छा से राहित्य (वह मनोवृत्ति जो किसी परायी वस्तु - 'परनारी या पर-धन' की प्राप्ति की ओर हमारा ध्यान ले जाती है), वृथा चिंतन और कृतघ्न लोगों, धोखेबाज लोगों (ungrateful people, deceitful-कपटी people) द्वारा किये गए आचरण का निरंतर चिंतन करने की बुरी आदत का त्याग। इन गुणों में 'अहिंसा' विशेष ध्यान देने योग्य है। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए (नेता के लिए) परमावश्यक है ! इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि केवल मनुष्यों के प्रति तो दया का भाव रखें और मच्छरों को हाथ से मारते रहें। या कुत्ते -बिल्लियों की रक्षा करें , चींटियों को तो शक्कर खिलाते रहें,  दूसरीओर बिना किसी झिझक के मानव-बंधुओं का गला काटने को तैयार रहें।"A good practice carried to an extreme and worked in accordance with the letter of the law becomes a positive evil."  केवल अक्षरार्थ (literal meaning) ग्रहण करके अति की सीमा तक पहुँचायी अच्छी साधना भी दोष बन जाती हैं। [जैसे गाँधी की अहिंसा और सत्याग्रह ]                           
[Purity is absolutely the basic work, the bed-rock upon which the whole Bhakti-building rests. Cleansing the external body and discriminating the food are both easy, but without internal cleanliness and purity, these external observances are of no value whatsoever.]
शंकर कहते हैं, ब्रह्म सभी प्रकार के ज्ञान के सार है, उसकी भित्ति स्वरुप हैं। तथा जो ज्ञाता , ज्ञेय और ज्ञान रूपी जो त्रिपुटी है, वे ब्रह्म में काल्पनिक भेद मात्र हैं। रामानुज ब्रह्म में भी ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। लेकिन विशुद्ध अद्वैतवादी ब्रह्म में कोई भी गुण स्वीकार नहीं करते--यहाँ तक कि सत्ता तक को स्वीकार नहीं करते,सत्ता शब्द (existence-अस्तित्व या जीवन) को हम चाहे जिस अर्थ में भी क्यों न लें। रामानुज कहते हैं, ईश्वर (ब्रह्म) सचेतन ज्ञान (conscious knowledge) का सारस्वरूप है। अव्यक्त या साम्यभावापन्न ज्ञान (equitable knowledge) जब व्यक्त या वैषम्यावस्था को प्राप्त होता है ,तभी जगत्प्रपंच की उत्पत्ति होती है ! " ७/४९        [Ramanuja attributes consciousness to God; the real monists attribute nothing, not even existence in any meaning that we can attach to it. Ramanuja declares that God is the essence of conscious knowledge. Undifferentiated consciousness, when differentiated, becomes the world.Tuesday, July 9 – Inspired Talks]
भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास ' (खंड १० /१२३) " उधर रामानुज एक अत्यन्त व्यवहारिक दर्शन लेकर आये। उन्होंने भावनाओं को अधिक प्रश्रय दिया, आध्यात्मिक उपलब्धियों के पहले वर्णाश्रम व्यवस्था से जन्मसिद्ध अधिकारों को निषिद्ध कर दिया और सामान्य भाषा में उपदेश दिया। फलतः जनसाधारण को वैदिक धर्मं की ओर प्रवृत्त करने में उन्हें पूरी सफलता मिली।"    
" Ramanuja on the other hand, with a most practical philosophy, a great appeal to the emotions, an entire denial of birthrights before spiritual attainments, and appeals through the popular tongue completely succeeded in bringing the masses back to the Vedic religion.[Source-Volume 6/Historical Evolution of India/OM TAT SAT/ Om Namo Bhagavate Râmakrishnâya/ ]
" रामानुज कहते हैं, वेद ही सर्वापेक्षा पवित्र पठनीय ग्रन्थ हैं। वर्णाश्रम शिक्षा व्यवस्था के अनुसार - त्रैवर्णिक अर्थात ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य इन तीन उच्च वर्णों की संतानों को यज्ञोपवीत संस्कार के बाद आठवें , दसवें या एग्यारहवें वर्ष की अवस्था में वेदाध्यन आरम्भ करना उचित हैं। वेदाध्यन का अर्थ है, गुरुगृह में जाकर (कैम्प में जाकर)  नियमित स्वर और उच्चारण के सहित वेदों की शब्दराशि को आद्यन्त कण्ठस्थ करना। " (देव वाणी-8 जुलाई ,1895 /७-४७)       
[Ramanuja says, the Vedas are the holiest study. Let the sons of the three upper castes get the Sutra (The holy thread.) and at eight, ten, or eleven years of age begin the study, which means going to a Guru and learning the Vedas word for word, with perfect intonation and pronunciation.[Source-Monday, July 8 – Inspired Talks]
श्री ई.टी.स्टर्डी को 1895 में लिखित पत्र -(खंड ४/पृष्ठ ३४१) " रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता उसके ही भीतर अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से रहती है। जब इस पूर्णता का पुनः विकास होता है , जीव मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि दोनों बातें केवल भाषित होती हैं। सच्चिदानन्द में न कोई क्रमसंकोच है , न क्रमविकास। दोनों क्रियायें मायारूप हैं , केवल भासमान -परिदृश्यमान (apparent) अवस्था मात्र। "   

[Ramanuja’s theory is that the bound soul or Jiva has its perfections involved, entered, into itself. When this perfection again evolves, it becomes free. The Advaitin declares both these to take place only in show; there was neither involution nor evolution. Both processes were Maya, or apparent only.[Source]
" महान समानअधिकार वादी (egalitarian-समता वादी) रामानुज, चैतन्य और कबीर ने भारत की नीची जातियों को उठाने का जो प्रयत्न किया था , उसमें उन महान धर्माचार्यों को अपने ही जीवनकाल में अद्भुत सफलता मिली थी। किन्तु फिर उनके बाद उस कार्य का जो सोचनीय परिणाम हुआ , उसकी व्याख्या होनी चाहिए। और जिस एकमात्र कारण से उन बड़े बड़े धर्माचार्यों के तिरोभाव के प्रायः एक ही शताब्दी के भीतर वह उन्नति रुक गयी , उसके कारण की व्याख्या भी करनी होगी। इसका रहस्य यहाँ है --- उन्होंने नीची जातियों को उठाया था। वे सभी नेता यह चाहते थे कि हमारे दलित भाई उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हो जाएँ ,परन्तु उन्होंने जनता में संस्कृत शिक्षा का अध्यन बंद कर दिया। "  [भारत का भविष्य -५/१८४ ]    
The attempts of the great Ramanuja and of Chaitanya and of Kabir to raise the lower classes of India show that marvellous results were attained during the lifetime of those great prophets; yet the later failures have to be explained, and cause shown why the effect of their teachings stopped almost within a century of the passing away of these great Masters. The secret is here. They raised the lower classes; they had all the wish that these should come up, but they did not apply their energies to the spreading of the Sanskrit language among the masses.[Source] 

20.swami vivekananda  उपनिषदों का उद्देश्य  

" वेद -उपनिषद कहते हैं - हे मानव तेजस्वी बनो , वीर्यवान होओ, दुर्बलता को त्याग दो ! मनुष्य प्रश्न करता है क्या मनुष्य में दुर्बलता नहीं है ? उपनिषद कहते हैं , अवश्य है , किन्तु क्या अधिक दुर्बलता द्वारा क्या यह दुर्बलता दूर हो जाएगी ? क्या तुम कीचड़ से कीचड़ को साफ करने का प्रयत्न करोगे ? पाप के द्वारा पाप या निर्बलता के द्वारा निर्बलता दूर होती है ? उपनिषद कहते है, हे मनुष्य , तेजस्वी बनो , वीर्यवान बनो , उठकर खड़े हो जाओ। जगत के साहित्य में केवल इन्हीं उपनिषदों में 'अभीः ' (भयशून्य) यह शब्द बार बार व्यवहृत हुआ है -संसार के किसी किसी अन्य शास्त्र में ईश्वर अथवा मानव के प्रति 'अभीः ' --भयशून्य का विशेषण प्रयुक्त नहीं हुआ है। अभीः ' -निर्भय बनो ! ५/१३२ )
     
 "उपनिषदों का उद्देश्य चरम एकत्व के आविष्कार की चेष्टा है, और विभिन्नता में एकत्व का आविष्कार ही ज्ञान है। दृश्य जगत के नाम और रूपों में हजारों-हजार वैभिन्न्य देख रहे हैं, जड़ और चेतन भेद है, सभी चित्त-वृत्तियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, जहाँ कोई रूप दूसरे से नहीं मिलता, जहाँ प्रत्येक वस्तु अपर वस्तु से पृथक है, उसमें भी एकत्व का आविष्कार करने का हमारा उद्देश्य कितना कठिन है! उपनिषदों का प्रायः प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना से आरम्भ होता है।  पहले शिक्षा दी गयी है कि ईश्वर मानो प्रकृति के बाहर है, वही हमारा उपास्य है, वही शासक है।  आगे चल कर वे ही आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं, नहीं बल्कि प्रकृति में अंतर्व्याप्त हैं।  अंत में ये दोनों भाव छोड़ दिये गये हैं, और जो कुछ है सब वही है - कोई भेद नहीं।  ' तत्वमसि श्वेतकेतो ' - हे श्वेतकेतु, तुम वही (ब्रह्म ) हो ! (५/२८९)

"अपने जीवन में मैं यह दिखाने की कोशिश करूँगा कि वैदान्तिक सम्प्रदाय एक दूसरे के विरोधी नहीं, वे एक दूसरे के अवश्यम्भावी परिणाम हैं , वे एक दूसरे के पूरक हैं, वे क्रमशः ऊपर बढ़ने/चढ़ने के सोपान है; जब तक कि वह अद्वैत - तत्त्वमसि - लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।" (5/217)

["But this is my attempt, my mission in life, to show that the Vedantic schools are not contradictory, that they all necessitate each other, all fulfil each other, and one, as it were, is the stepping-stone to the other, until the goal, the Advaita, the Tat Tvam Asi, is reached."]
  

21.swami vivekananda   ब्रह्म की दो अवस्था ~ स्थैतिक और गतिज  

लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपानों पर चर्चा करते हुए - ' विवेकानन्द साहित्य ' की भूमिका में सिस्टर निवेदिता लिखती हैं- ' प्रगति दृश्य से अदृश्य की ओर, अनेक से एक की ओर, निम्न से उच्च की ओर, साकार से निराकार की ओर होती है, किन्तु विपरीत दिशा में कदापि नहीं...द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है।  इस सिद्धान्त का यह एक और भी महान तथा अधिक सरल अंग है कि ' अनेक और एक ' (the Many and One ) विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जानेवाला ' एक ' ही तत्व है। वे आगे कहतीं हैं- ' यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी, सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं।  अतः लौकिक और धार्मिक ( Sacred and Secular ) में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता।  कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है।  स्वयं जीवन ही धर्म है।  प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना (प्रवृत्ति-मार्ग ) उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना (निवृत्ति-मार्ग ). " ( वि० सा० ख० १/ पेज ठ, ड) 

22.swami vivekananda : two states of brahman`ज्ञानी-विज्ञानी '   

१, स्थैतिक (अपरिवर्तिक-Static) और २, गतिज (सक्रीय-Dynamic

अपनी स्थैतिक अवस्था में यह निरपेक्ष सत्ता है, अनेक से परे एकमेवाद्वितीय अवस्था, किसी भी दृष्टिगोचर वस्तु, विचार या कल्पना से परे की अवस्था है।  अपने गतिज अवस्था में यह जीव, जगत और ईश्वर के रूप में प्रकाशित होता है। श्रीरामकृष्ण के शब्दों में जिस व्यक्ति ने ब्रह्म के स्थैतिक अवस्था का अनुभव कर लिया है, वह ज्ञानी है।  तथा जिसने यह अनुभव से जान लिया है कि अपने सक्रीय या गतिज अवस्था में ब्रह्म ही विभिन्न नामरुपों वाला जगत बन कर भास रहा है- वह विज्ञानी है।  श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले साधारण जन इस सत्य से परिचित नहीं थे.

swami vivekananda पाश्चात्य दर्शन या चार्वाक दर्शन के अनुसार जीवन का उद्देश्य ?

आचार्य शंकर ने घोषणा की है वेदान्त दर्शन में यह स्पष्ट कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत और जीव भी ब्रह्म ही हैं- (विवेकचुड़ामणि-४७८) `अंतरस्थ मनुष्य ' को जानने का विज्ञान सोलहवीं शताब्दी में पाश्चात्य जगत नये उत्साह और नये नये विचारों कि उर्जा से तरंगायित हो रहा था।  तभी से विज्ञान ने भी लम्बे लम्बे कदमों से प्रगति करना प्रारम्भ किया एवं उन्नीसवीं शताब्दी आते आते इसने ईसाई धर्म के आध्यात्मिक जड़ों को चकनाचूर करके रख दिया, अब वहां के बुद्धिजीवी धर्म के नाम पर दिये जानेवाले निरर्थक काल्पनिक उपदेशों में विश्वास करने को तैयार नहीं थे। इसीलिए भौतिकवाद विजयी हो गया, और तबसे मनुष्य को केवल एक जैविक-आर्थिक-राजनितिक जन्तु (मानव-संसाधन) समझा जाने लगा।  जड़वादी सभ्यता (चार्वाक दर्शन)  के प्रचार प्रसार ने एक दार्शनिक शून्य एवं आध्यातिक संकट उत्पन्न कर  दिया। 

चार्वाक दर्शन कहता है --

"यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ,ऋण कृत्वा घृतं पीबेत, 

भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।"

‘जब तक जियो सुख से जियो कर्ज लेकर घी पियो, भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भस्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो चुका, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है ? शरीर भस्म हो जाने के बाद वापस नही आता है।‘– चार्वाक 

[^* ‘चारु’+’वाक्’ (अर्थात् लोकलुभावन और आम जन को प्रिय लगने वाले वचन भोगियों का पसंदीदा वचन, या पुनर्जन्म में विश्वास न करनेवाली मानसिकता। दुनिया में 90 प्रतिशत से अधिक लोग चार्वाक सिद्धांत के अनुरूप ही जीवन जीते हैं ।  प्रायः हर व्यक्ति इसी धरती के सुखों को बटोरने में लगा हुआ है । अनाप-शनाप धन-संपदा अर्जित करना, और भौतिक सुखों का आनंद पाना यही लगभग सभी का लक्ष्य रह गया है। मेरा काम जैसे भी निकले वही तरीका जायज है की नीति सर्वत्र है । इस जीवन से परे भी क्या कुछ है इस प्रश्न को हर कोई टाल देना पसंद करता है । यद्यपि वे किसी न किसी आध्यात्मिक मत में आस्था की बात अवश्य करते हैं।  किंतु उनकी धारणा एक प्रकार की भेड़-चाल में अपनाई गयी नीति जैसी महज सतही होती है, एक प्रकार का ‘तोतारटंत’। चूंकि दुनिया में लोग ऐसा या वैसा मानते हैं, अतः हम भी मानते हैं वाली बात उन पर लागू होती है। वस्तुतः इस समय सर्वत्र चार्वाक सिद्धांत की ही मान्यता है; आप मानें या न मानें।

लेकिन आजादी के बाद देश का नेतृत्व फिर चार्वाक दर्शन की मानसिकता या ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ (Colonial Mindset) रखने वाले लोगों के हाथों में चला गया। देश के ज्यादातर राज्य विलासी मानसिकता के संताप से पीड़ित है।  सकल आमदनी (सकल घरेलू उत्पाद या GDP) का एक बड़ा भाग भोगेच्छा पूर्ण करने में होम होता है। अक्सर इसका परिणाम सुरसा की तरह बढ़ते राज्यकोषीय घाटा, कर वृद्धि और कर्ज के रुप में सामने आता है। कर्ज कितना भारी है इसका अनुमान मध्यप्रदेश को देखकर लगाया जा सकता है 2011 में सरकार पर 69,259.16 करोड़ का कर्ज था  जिसका सूद 5051.83 करोड़ रुपया  है।  हमारी कार्य प्रणाली गालिब के उस शेर की तरह है:-

”कर्ज की पीते थे मय और समझते थे ।

रंग लायेगी एक दिन फाकामस्ती हमारी ”।।  

पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के पास इस तरह के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था कि- मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? किसी मनुष्य को निःस्वार्थी क्यों बनना चाहिए तथा उसे कुछ पाने की आशा किये बिना ही दूसरों से प्रेम क्यों करना चाहिए ? स्वामीजी इसका अवलोकन करते हैं- " आधुनिक मनुष्य, चाहे लोगों के बीच जो कुछ भी क्यों न कहे, अपने हृदय के एकान्त में यह जानता है कि अब वह ' विश्वास ' नहीं कर सकता।  कतिपय बातों में इसलिए विश्वास करना कि पुरोहितों की कोई संगठित संस्था (चर्च आदि) विश्वास करने के लिये कहती है, या ऐसा किसी ग्रंथ में लिखा है, या इसलिए विश्वास करना कि उसका समाज चाहता है- आधुनिक मनुष्य जानता है कि ऐसा कर पाना उसके लिये असम्भव है।  कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जो तथाकथित लोकप्रिय धर्म (दशहरा-होली-दिवाली ) से संतोष कर लेते हैं, किन्तु हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कुछ सोचते-विचारते नहीं हैं।  उनकी ' आस्था ' की धारणा को ' चिन्तनशून्य प्रमाद ' ( not-thinking-carelessness ) ही कहना ठीक होगा।  धर्म के इस प्रकार के प्रासाद के चूर चूर हुए बिना यह युद्ध और आगे नहीं चल सकता। 


23. swami vivekananda   वेदान्त है अन्तर्जगत का विज्ञान 

अब प्रश्न उठता है, क्या बचने का कोई उपाय है ? इस प्रश्न को और भी अच्छे ढंग से रखा जा सकता है; क्या धर्म भी उन बुद्धि के आविष्कारों की कसौटी पर स्वयं को सत्य प्रमाणित करा सकता है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं ? बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा अपना विश्वास यह भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा ! यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वंश प्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक बकवास था, --कोरे अन्धविश्वास पर आधारित धर्म था, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा. मेरी अपनी दृढ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी.  सारे मैल जरुर धुल जायेंगे, और इस अनुसन्धान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्व विजयी होकर निकल आयेंगे. और वह विज्ञान की कसौटी पर परीक्षित धर्म केवल विज्ञान-सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक माना जायेगा जितनी कि भौतिकी या रसायनशास्त्र कि उपलब्धयां हैं- प्रत्युत और भी सशक्त हो उठेगा; क्योंकि भौतिकी या रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अन्तः साक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है. " ( २/ २७८ ) वस्तुतः वेदान्त भी एक विज्ञान है जो अन्तर्जगत के सत्यों को आविष्कृत करता है, इसीलिए श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानन्द ने जनसाधारण के समक्ष वेदान्त को अंतरस्थ मनुष्य को जानने का विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया है. विवेकानन्द ने इसकी व्याख्या बहुत सरल युक्ति के आधार पर करते हुए यह दिखलाया है कि वेदान्त का वाह्यजगत के विज्ञान के साथ कोई झगड़ा या मतभिन्नता नहीं है।  स्वामीजी के देहत्याग करने के १०० वर्ष बीत जाने के बाद आधुनिक विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, तथा कई वैज्ञानिकों ने इस मत का समर्थन किया है।  तथा स्वामीजी की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करते हुए विज्ञान और धर्म न केवल एक दुसरे के निकट आ चुके हैं, बल्कि उन दोनों ने आपस में हाथ भी मिला लिया है। 


24.swami vivekananda  साधारण मनुष्य और ऋषि 

साधारण मनुष्य यह सोचता है कि धर्म केवल कुछ विश्वासों, धार्मिक रीती-रिवाजों और धार्मिक क्रियापद्धति के समुच्चय का नाम है, जिसके साथ कुछ साम्प्रदायिक पहचान भी संयुक्त रहती है।  धर्म को इसी दृष्टिकोण से देखनेवालों के लिये स्वामी विवेकानन्द के धर्म के उपर विशेष कुछ कहने के लिये नहीं था।  अन्तर्जगत के सत्यों का अनुसन्धान करके उन्हें अनुभूत करने के सच्चे और गहन खोज को ही वे धर्म मानते थे।  क्या यही काम विज्ञान भी नहीं करता ? 
निस्संदेह वाह्यजगत में ठीक ऐसा ही खोज विज्ञान भी करता है।  अपने अन्तिम उद्देश्य और सन्निकर्ष में विज्ञान और धर्म तत्वतः हुबहू एक ही चीज है।  तथापि इनमें एक अन्तर अवश्य है।  वाह्यजगत का विज्ञान विश्व-ब्रह्माण्ड के सत्यों को खोजने के लिये वाह्य उपकरणों का प्रयोग करता है, वहीँ धर्म अन्तर्जगत का विज्ञान होने के कारण, हमारे अन्तर्निहित सत्य को उद्घाटित करने के लिये, आन्तरिक उपकरणों का उपयोग करता है।  किन्तु इन दोनों प्रकार की खोज में कहीं भी कोई साम्प्रदायिक बुद्धि नहीं रहती है।  चूँकि सापेक्षता के सिद्धान्त (The theory of relativity) का आविष्कार अल्बर्ट आइन्सटाइन ने किया था, इसीलिए उसे जर्मन या युहूदी सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता, ठीक उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि वेदान्त भारतीय या हिन्दुओं की सम्पत्ति है।  स्वामी विवेकानन्द मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखित पत्र में इसी तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं -  " चाहे हम उसे वेदान्त कहें या और किसी नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मों और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है।  हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्ध मानवी समाज का यही धर्म है।  अन्य जातियों की अपेक्षा हिन्दुओं को यह श्रेय प्राप्त होगा कि उनहोंने इसकी सर्वप्रथम खोज की।  इसका कारण यह है कि वे अरबी और हिब्रू दोनों जातियों से अधिक प्राचीन हैं।  तथापि वह व्यावहारिक अद्वैतवाद (वेदान्त)- जो समस्त मनुष्य-जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरुप समझता है, तथा उसीके अनुकूल आचरण करता है- का प्रचार-प्रसार एवं विकास हिन्दुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी भी शेष है।   इसके विपरीत हमारा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायी व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में, इस ' साम्यभाव ' को पर्याप्त रीति से व्यव्हार में अपना सके हैं वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं." (६/४०५)

25. swami vivekananda  सभी धर्मों की नींव है - वेदान्त 

स्वामीजी ने वेदान्त की शिक्षा समन्वयाचार्य के चरणों में बैठ कर ग्रहण की थी, इसलिए प्रारम्भ से ही वे किसी धर्म को मन मारकर बर्दाश्त नहीं करते थे, बल्कि सभी धर्म-मार्गों को सत्य कह कर स्वीकार करते थे।  इतना ही नहीं उन्होंने प्रचुर संश्लेष्ण देते हुए समस्त धर्मों को वेदान्त के विज्ञान में समावेशित करने का प्रयास किया है, ६ मई १८९५ को अमेरिका से आलसिंगा पेरूमल को स्वामीजी लिखते हैं- " अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊंगा।  समग्र धर्म वेदान्त में, अर्थात वेदान्त दर्शन के तीन सोपानों- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत में निहित हैं। मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के क्रम में ये तीनों सोपान के जैसे - एक के बाद एक आते हैं।  प्रत्येक सोपान का अनुभव प्राप्त करना आवश्यक है।  सार-रूप से यही धर्म है।  भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है- हिन्दू धर्म।  यूरोप की जातियों के विचारों में उसके पहले सोपान अर्थात द्वैतवाद के प्रयोग का नाम है- ' ईसाई धर्म '. सेमेटिक जातियों में उसका ही प्रयोग है, ' इस्लाम धर्म '. अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूती के आकर में हुआ ' बौद्ध धर्म '- इत्यादि, इत्यादि।  धर्म का अर्थ है वेदान्त; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा।  मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त, (वैष्णव ?)  आदि हर संप्रदाय ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपान्तरित कर लिया है।  "
( ४/२८३ ) 


26. swami vivekananda ~ `तत्वमसि निरंजन:  अहं-बोध क्या है ?  कच्चा 'मैं' और पक्का 'मैं' 

हमारी आन्तरिक महिमा एवं आधारभूत एकत्व का बीज, सभी जीवों का दैवी सार, हमारा यथार्थ ' मैं ', हमारा अन्तर्निहित चैतन्य-बोध - यह आत्मा ही है।  वेदान्त कहता है कि सारी शक्ति एवं पवित्रता पहले से ही इस आत्मा में विद्यमान है।  आइये सुने कि इस सम्बन्ध में स्वामीजी क्या कहते हैं- " इतने मत-मतान्तरों, विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों तथा शास्त्रों के होते हुए भी यदि कोई सिद्धान्त हमारे सब सम्प्रदायों का सामान्य आधार है, तो वह है आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास, और यह समस्त संसार का भाव-स्रोत परिवर्तित कर सकता है।  हिन्दू, जैन तथा बौद्धों में, वस्तुतः भारत में सर्वत्र यह अटल विश्वास परिव्याप्त है कि आत्मा ही समस्त शक्तियों का आधार है।  और तुम यह भली भांति जानते हो कि भारत में ऐसी कोई दर्शन प्रणाली नहीं है, जो इस बात की शिक्षा देती हो कि हमें शक्ति, पवित्रता अथवा पूर्णता कहीं बाहर से प्राप्त होगी, वरन हमें सर्वत्र यही शिक्षा मिलती है कि वे तो हमारे जन्मसिद्ध अधिकार हैं, हमारे लिये उनकी प्राप्ति स्वाभाविक है।  अपवित्रता तो केवल एक वाह्य आवरण है जिसके नीचे हमारा वास्तविक स्वरुप मानो ढँक सा गया है; परन्तु जो सच्चा ' तुम ' है वह पहले से ही पूर्ण है,शक्तिशाली है. " (५/५६) 

स्वामीजी १८९७ ई० में अपने मद्रास भाषण में स्पष्ट रूप से कहा है कि वे किस दर्शन का प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं- " अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है।  हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की- उसके अपूर्व तत्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्व को जानने की।  यदि मेरे कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता तत्वमसि निरंजन: ' तुमने अवश्य ही पुराण में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी. उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रख कर झुलाते हुए उसके निकट गति थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप; तुम हो सर्वशक्तिशाली, तेरा है अमित प्रताप.' इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है. अपने को महान (बृहद) समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे. " (५/१३७-३८)  इसीलिए उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को तुरही-निनाद करते हुए - उठो ! जागो ! का आह्वान सुनाया।


27. swami vivekananda : गीता का सन्देश- यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो ! 

 संजय बोले - वैसी कायरता से आविष्ट उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।

तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।

('अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्' (गीता 2.1तम्, तथा, कृपया, आविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तम्, इदम्, वाक्यम्, उवाच, मधुसूदनः ॥)  --अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते।  उसका (अर्जुन का) आन्तरिक व्यक्तित्व भग्न हो गया था और उसके चरित्र में गहरी दरार पड़ गयी थी। अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होकर भी वह किसी सामान्य युवती के समान रुदन कर रहा था . इस प्रकार करुणा और शोक से अभिभूत एवं अश्रुरहित रोदन करते हुये अर्जुन से मधुसूदन (मधु नामक असुर का वध करने वाले) भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित वाक्य कहा।  कहाँ तो अर्जुन का यह स्वभाव कि 'न दैन्यं न पलायनम्' और कहाँ अर्जुन का कायरता के दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना ! (क्या इसीलिएश्री शंकराचार्य ने इस श्लोक  2.1  पर कोई टिप्पणी नहीं की। 2.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10. उनकी कमेंट्री 2.10 से शुरू होती है। गीता का संदेश- *न दैन्यं न पलायनम्* अर्थात कोई दीनता नहीं चाहिए , चुनौतियों से भागना नहीं , बल्कि जूझना जरूरी है ! )

तुम शुद्धस्वरुप सच्चिदानन्द आत्मा हो, उठो, जाग्रत हो जाओ।  हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता।  तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो।  हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो।  तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता।  तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है।  जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो-देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो, कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है ! मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम स्वयम अपने दैनन्दिन जीवन में उसका प्रयोग करना सीख सकेंगे. "( ८/१५ ) 

28.swami vivekananda : न दैन्यं न पलायनम्

  स्वामी विवेकानन्द का नव वेदान्त -- हमें जगत् से पलायन नहीं सिखाता,  बल्कि वह इस दृश्यमान जगत् का पुनर्मूल्यांकन करने का उपदेश देता है। सामान्यत जगत् की ओर देखने की हमारी दृष्टि हमारे प्रिय विचारों एवं भावनाओं से रंजित होती है। स्पष्ट है कि उस स्थिति में हम जगत् को यथार्थ रूप में नहीं देखते। इस अज्ञान की दृष्टि का त्यागकर ज्ञान की दृष्टि से विश्व को देखने का अर्थ वर्तमान काल के सुस्त और उदास दुखी कुरूप जगत् में ही पूर्णता और आनन्द दिव्यता और पवित्रता का दर्शन करना है। दुर्व्यवस्थित प्रमाणों के द्वारा परमार्थ सत्य का विपरीत दर्शन ही यह जगत् है जो द्रष्टा जीव को ही पीड़ित करता रहता है। 
उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव को प्राप्त आत्मा जब देखता है तब उसे नानाविध सृष्टि दिखाई देती है। भ्रान्तिजनित यह जगत् कभी उसे खिसियाते और नृत्य करते हुए तो कभी चीखते और हुंकारते हुए प्रतीत होता है। इन सब दुखपूर्ण परिवर्तनों के मध्य ही पारमार्थिक सत्य स्वरूप को पहचानने से ही सभी विक्षेपों, अर्थहीन लक्ष्यों और परिश्रमों की समाप्ति हो सकती है !  
आत्मअज्ञान तथा तज्जनित मिथ्याज्ञान के कारण हमारे शुद्ध आत्मस्वरूप पर आवरण पड़ा रहता है। इस अविद्या के कारण मनुष्य न केवल अपने स्वरूप को नहीं जानता , वरन् स्वरूप से सर्वथा भिन्न देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप मान लेता है।  परिणामत उसका व्यवहार अनुचित और जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक विषयोपभोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। इस लक्ष्य को पाने के लिये वह ऐसे हीन कर्म करता है,  जो स्वयं के लिये और समाज के लिये भी दुखकारक और हानिकारक होते हैं। वह किसी भी स्थान पर परमात्मा की महानता और कीर्ति का दर्शन नहीं कर सकता।  परन्तु जब वह विवेक वैराग्यादि साधनों से सम्पन्न होकर आत्मबोध प्राप्त करता है , तब अज्ञानसहित मिथ्याज्ञान की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ! और वह परम गति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह परमेश्वर ही सर्वत्र समान रूप से स्थित देखता है। ज्ञान के अपने इस अनुभव के कारण फिर ज्ञानी पुरुष को कोई दुख अथवा भय नहीं होता। 

मिथ्या प्रेत के अधिष्ठान स्तम्भ को पहचान लेने पर पूर्व का भय और दुख समाप्त हो जाता है। वह अपने द्वारा अपना नाश नहीं करता है पूर्व में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने स्पष्ट वर्णन किया है कि किस प्रकार हम अपने शत्रु या मित्र बन जाते हैं। जब हमारा निम्नस्तर का अहंकारकेन्द्रित व्यक्तित्व या मन हमारी उच्चतर ज्ञानवती बुद्धि के मार्गदर्शनानुसार कार्य करने के लिए उपलब्ध नहीं होता,  तब वह मन हमारा शत्रु बन जाता है। 

यदि वाहन के ऊपर हमारा नियन्त्रण न रहे,  तो वह वाहन हमारी सेवा करने के स्थान पर हमारे नाश का ही कारण बन जाता है। जिस पुरुष ने सर्वत्र रमण कर रहे परमात्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट मैं-CINC नवनीदा )   का दर्शन कर लिया है, उसका मन (मिथ्या अहं)  कभी भी अपनी दुष्ट छाया से परमात्मा के वैभव को आच्छादित नहीं कर सकता। इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। 

नेता ! और विशेषाधिकार पाने का दावा ? 

 अपने देशवासियों के लिये स्वामीजी आध्यात्मिकता से अधिक बलवान बनने की शिक्षा देना चाहते थे, इसीलिए वे उनके सम्मुख वेदान्त को रखते हुए कहते हैं - " हे बन्धुगण, तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त का प्रवाह हो रहा है, तुम्हारा जीवन-मरण मेरा भी जीवन-मरण है। मैं तुमसे पूर्वोक्त कारणों से कहता हूँ कि हमको शक्ति, केवल शक्ति ही चाहिए , और उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं।  उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं।  उनके द्वारा समस्त संसार पुनरुज्जीवित, सशक्त और वीर्य-सम्पन्न हो सकता है।  समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के दुर्बल, दुखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त होने के लिये वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं।  मुक्ति अथवा स्वाधीनता, दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है. " ( ५/१३३-३४) 
 उसी भाषण में स्वामीजी आगे कहते हैं- " समग्र संसार का अखण्डत्व (भूमण्डलीकरण) - जिसको ग्रहण करने के लिये संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा महान भाव है. " (५/१३५) हमलोग स्वरूपतः बिल्कुल एक हैं, इसीलिए हम सभी लोगों को आपस में प्रेम करना चाहिए।  हमलोगों को अवश्य निःस्वार्थपर होना चाहिए, क्योंकि मेरी आत्मा दूसरों की आत्मा से पृथक है- ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है।  दूसरों का सुख दुःख मेरा सुख दुःख है।  अतः हमलोगों को संघबद्ध होकर काम करना चाहिए, अपने को पृथक पृथक नाम-रूपों वाला श्रीमान अमुक या श्रीमती अमुक मान कर नहीं, बल्कि अपनी अन्तस्थ यथार्थ आत्मा को ही सबों में समान रूप से विद्यमान देख कर संघबद्ध प्रयास करना चाहिए. यह बात समझ में आ जाने पर कोई अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा नहीं कर सकेगा.


29. swami vivekananda : व्यावहारिक वेदान्त ~  प्रेम की पताका फहराओ ! 

स्वामीजी ने कहा है - " अपवित्र ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है।  यन्त्रों तथा अन्य सज-सामानों के निर्माण से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त की जा रही है और आज विशेषाधिकारों का ऐसा दावा किया जा रहा है, जैसा संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था।  इसी कारण वेदान्त इन ( रंग-भेद आदि ) विशेषाधिकार के दावों के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है; ताकि मनुष्यों की आत्मा पर होने वाले अत्याचार को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये। " (९/१०२)  

ह्रदय का विस्तार करने तथा त्याग और सेवा के आदर्श को युवाओं के भीतर प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से भारत के युवाओं के समक्ष व्यावहारिक वेदान्त को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- " अतः, हे लाहौर के युवको, फिर अद्वैत की वही प्रबल पताका फहराओ, क्योंकि और किसी आधार पर तुम्हारे भीतर वैसा अपूर्व प्रेम नहीं पैदा हो सकता।  जब तक तुम लोग उसी एक भगवान को सर्वत्र एक ही भाव से उपस्थित नहीं देखते, तबतक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता- उसी प्रेम की पताका फहराओ उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको ! उठो, एक बार और उठो, क्योंकि त्याग के बिना कुछ हो नहीं सकता।  दुसरे की यदि सहायता करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने अहंभाव को छोड़ना होगा।  ईसाईयों की भाषा में कहता हूँ- तुम ईश्वर (विराट अहं)  और शैतान (मिथ्या अहं) की सेवा एक साथ नहीं कर सकते।  चाहिए वैराग्य. तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने बड़े बड़े कार्य करने के लिए संसार का त्याग किया था।  वर्तमान समय में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिन्होंने अपनी ही मुक्ति के लिए संसार का त्याग किया है।  तुम सब कुछ दूर फेंको- यहाँ तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो- जाओ, दूसरों की सहायता करो।  तुम सदा बड़ी बड़ी साहसिक बातें करते हो, परन्तु अब तुम्हारे सामने यह व्यावहारिक वेदान्त रखा गया है. तुम अपने इस तुच्छ जीवन की बलि देने के लिए तैयार हो जाओ। " (५/३२०-२१)

30. swami vivekananda बहुजन - हिताय  बुद्ध ने भी व्यावहारिक वेदान्त को ही प्रकाशित किया

 विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में सिस्टर निवेदिता स्वामीजी के बारे में लिखती हैं- " उन्होंने एक पंडित की भाँति नहीं, एक अधिकारी व्यक्ति की भाँति उपदेश दिया।  क्योंकि जिस सत्यानुभूति का उपदेश उन्होंने दिया, उसकी गहराइयों में वे स्वयं भी गोता लगा चुके थे, और रामानुज की भाँति उसके रहस्यों को चांडाल, जाति-बहिष्कृत और विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वहाँ से लौटे थे।  " (१/ भूमिका 'ठ') स्वामीजी गौतम बुद्ध के सम्बन्ध में कहते हैं- " बुद्ध ने वेदान्त को प्रकाशित किया, और उसका जनसाधारण में प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की।  " (२/९३)

बुद्ध के जाने के 2500 वर्ष बाद स्वयं स्वामीजी ने भी वही कार्य किया, वे कहते हैं- " प्राचीन काल में केवल अरण्यवासी संन्यासी ही उपनिषदों की चर्चा करते थे।  वे रहस्य के विषय बन गये थे।  उपनिषद सन्यासियों तक ही सीमित थे।  शंकर ने कुछ सदय हो कहा है, ' गृही मनुष्य (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटा हुआ कैप्टन सेवियर जैसा जिज्ञासु) भी उपनिषदों का अध्यन कर सकते हैं; इससे उनका कल्याण ही होगा, कोई अनिष्ट नहीं होगा। ' परन्तु अभी तक यह संस्कार कि उपनिषदों में वन, जंगल अथवा एकान्तवास का ही वर्णन है, मनुष्यों के मन से नहीं हटा...वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा पहाड़ो की कन्दराओं में ही आबद्ध नहीं रहेंगे; वकीलों और न्याधिशों में, प्रार्थना-मन्दिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रों के अध्यन-स्थानों में- सर्वत्र ही इन तत्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जायेंगे।" 

31. swami vivekananda  Apply Vedanta on the Practical plane 

यदि वह व्यावहारिक न हो, वेदान्ती सिद्धान्तों का भी कोई मूल्य नहीं !  

विवेकानन्द के ये सभी विचार बहुत सुन्दर हो सकते हैं, परन्तु जब तक किसी सिद्धान्त को व्यावहारिक धरातल पर प्रत्येक मनुष्य के द्वारा नहीं उतारना सम्भव न हो उस सिद्धान्त का कोई मूल्य नहीं है।  उनके जीवन का यह ध्येय था कि इन महान सत्यों को ब्राह्मण विद्वानों के चंगुल से निकाल कर, सारे संसार में फैला दिया जाये।  इन्हें बुद्धिवादियों की अनुपयोगी तर्क-वितर्क, चमत्कार, और मिथ्या भय के जाल से बहार निकाल कर इतना सरल बना दिया जाय कि इसे एक बच्चा भी समझ सके। उन्होंने इन विचारों को आधुनिक संसार के समक्ष सरल अंग्रेजी में प्रमाणिक युक्ति-विचार के साथ प्रकट कर दिया।  अपने गुरुदेव की भाँती, उन्होंने भी इन सत्यों को अपने जीवन में उतार कर दिखा दिया, और इस प्रकार अपने भीतर भी विवेकानन्द ने भी अपने भीतर एक ऐसी जीवन्त शक्ति उत्पन्न की जो पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित कर देने में समर्थ है।  आज भी वे सर्वत्र मनुष्य जाती को देवमानव में रूपान्तरित होने के लिए पुकार रहे है-" उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको ! " उनका यह आह्वान आम पंडितों की तरह कोरा भाषण नहीं है. उन्होंने ऐसा कोई उपदेश किसी को नहीं दिया है, जिसको उन्होंने स्वयं अपने जीवन में अनुभूत एवं आत्मसात नहीं कर लिया था।  तथा उनके उपदेशों में बहुजन हिताय सम्पूर्ण विचार को बीज रूप से सार-संक्षेप बड़े सुन्दर ढंग से कहा है- " एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४)  

 यदि कहो कि, उपनिषदों के सिद्धान्तों को मछुए आदि साधारण जन किस प्रकार काम में लायेंगे ? इसका उपाय शास्त्रों में बताया गया है- तुम अपने को महान समझो तो तुम सचमुच महान बन जाओगे ! मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक उत्तम मछुआ होगा।  विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा।  वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा. औरों के विषय में भी यही समझो।  " (५/१३९-४० )  


समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।

निश्चय ही, वह पुरुष सर्वत्र सम भाव से स्थित परमेश्वर को समान हुआ आत्मा (स्वयं) के द्वारा आत्मा (स्वयं) का नाश नहीं करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।।
The living entity, by accepting his material existence, has become situated differently than in his spiritual existence. But if one understands that the Supreme is situated in His Paramātmā manifestation everywhere, that is, if one can see the presence of the Supreme Personality of Godhead in every living thing, he does not degrade himself by a destructive mentality, and he therefore gradually advances to the spiritual world. The mind is generally addicted to sense gratifying processes; but when the mind turns to the Supersoul, one becomes advanced in spiritual understanding. ) (५/२३९-४०) 

32. swami vivekananda -Be you likewise Aryans , you Brahmins of Bengal.

" आजकल भोजन और शिक्षा की वर्णाश्रम-व्यवस्था को लेकर बड़ा शोरगुल उठ रहा है , और बंगाली तो इन्हें लेकर और भी गला फाड़ रहे हैं। मैं तो बंगाल वर्ण-चतुष्टय नहीं देखता ! बंगाल में अभी चार जातियों का वास नहीं है। मैं यहाँ केवल ब्राह्मण और शूद्र देखता हूँ। यदि क्षत्रिय और वैश्य हैं तो वे कहाँ हैं ? हे बंगाली ब्राह्मणों - क्यों तुम उन्हें हिन्दूधर्म के नियमानुसार यज्ञोपवीत धारण करने की आज्ञा नहीं देते ?-क्यों तुम उन्हें वेद नहीं पढ़ाते , जो हर हिन्दू पढ़ना चाहता है ? ---और यदि वैश्य और क्षत्रिय न रहें , जहाँ केवल मुट्ठीभर ब्राह्मणों के सिवा केवल शूद्र ही रहें, तो शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणो को उस स्थान से बोरिया-बिस्तर बांधकर कूच करना चाहिए। अगर तुम समझते हो कि इस जमाने में तुम वैसा नहीं कर सकते , तो... तुम अपनी दुर्बलता स्वीकार करके दूसरों की भी दुर्बलता क्षमा करो , दूसरी जातियों को उन्नत करो , उनकी सहायता करो, उन्हें वेद-उपनिषद पढ़ने दो, संसार के अन्य किसी भी आर्य की तरह उन्हें भी आर्य बनने दो , और हे बंगाल के ब्राह्मणों, तुम भी वैसे ही सदाशय आर्य बनो ! (५/२३१ ) 
[There is a cry nowadays about this and that food and about Varnâshrama, and the Bengalis are the most vociferous in these cries..... Where are the four castes today in this country? Answer me; I do not see the four castes.  If there are the Kshatriyas and the Vaishyas, where are they ?  and why do not you Brahmins order them to take the Yajnopavita and study the Vedas, as every Hindu ought to do?And if the Vaishyas and the Kshatriyas do not exist, but only the Brahmins and the Shudras, the Shastras say that the Brahmin must not live in a country where there are only Shudras; so depart bag and baggage! ...If you think you are not able to do that in this age, admit your weakness and excuse the weakness of others, take the other castes up, give them a helping hand, let them study the Vedas and become just as good Aryans as any other Aryans in the world, and be you likewise Aryans, you Brahmins of Bengal.
स्वामी विवेकानन्द द्वारा बंगाल के युवाओं को जाग्रत करने की इसी चेष्टा से अनुप्रेरित होकर कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक कविता लिखी थी, जिसका शीर्षक था-

"हे बंगमाता !" 

पुण्ये पापे, दुःखे सूखे, पतने उत्थाने।
मानुष होइते दाओ, तोमार सन्ताने।।

हे स्नेहार्त बंगभूमि, तव गृहक्रोड़े। 
चिरशिशु करे ,आर राखियो ना धोरे।

देश-देशान्तर माझे , जार येथा स्थान।
खुँजिया लोइते दाओ कोरिया सन्धान।।

पदे- पदे, छोटो -छोटो निषेधेर डोरे। 
बेंधे बेंधे राखियो ना, भालोछेले कोरे।।

प्राण दिये, दुःख स' ये , आपनार हाते। 
संग्राम कोरिते दाओ, भालोमन्दो -साथे।। 

शीर्ण शान्त साधु तव पुत्रदेर धोरे।
दाओ सबे गृह-छाड़ा, लक्ष्मी-छाड़ा क'रे।। 

सात कोटि सन्तानेर , हे मुग्ध जननी। 
रेखेछो बांगाली कोरे, मानुष कोरो नि।।
              

বঙ্গমাতা -রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর
পূণ্যে পাপে দুঃখে সুখে পতনে উত্থানে
মানুষ হইতে দাও তোমার সন্তানে।

হে স্নেহার্ত বঙ্গভূমি, তব গৃহক্রোড়ে
চিরশিশু করে আর রাখিয়ো না ধরে।

দেশদেশান্তর-মাঝে যার যেথা স্থান
খুঁজিয়া লইতে দাও করিয়া সন্ধান।

পদে পদে ছোটো ছোটো নিষেধের ডোরে
বেঁধে বেঁধে রাখিয়ো না ভালোছেলে করে।

প্রাণ দিয়ে, দুঃখ স’য়ে, আপনার হাতে
সংগ্রাম করিতে দাও ভালোমন্দ-সাথে।

শীর্ণ শান্ত সাধু তব পুত্রদের ধরে
দাও সবে গৃহছাড়া লক্ষ্মীছাড়া ক’রে।

সাত কোটি সন্তানেরে, হে মুগ্ধ জননী,
রেখেছ বাঙালী করে, মানুষ কর নি। 

आचार्य स्वामी विवेकानन्द ने प्रस्थानत्रय के सम्मिलित नव वेदान्त को कार्यरूप में परिणत करने का उपाय बतलाते हुए कहा था -Be and Make !  " 

बंगदेश के युवकों ! अपने अन्तस्थ ब्रह्म को जगाओ , जो तुम्हें क्षुधा -तृष्णा , शीत -उष्ण सहन करने में समर्थ बना देगा। आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है , विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने पर ही होने से मनुष्य का ईश्वर बन जाता है। पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे --Be and Make ! मनुष्य बनो और बनाओ , यही हमारा मूलमंत्र रहे !  ९/३७९) " 

विलासपूर्ण भवनों में बैठे बैठे जीवन की सभी सुख-सामग्री से घिरे रहना और धर्म पर थोड़ी सी चर्चा कर लेना, अन्य देशों में भले ही शोभा दे , पर भारत को तो स्वभावतः सत्य की इससे कहीं अधिक पहचान है। तुम लोग त्याग करो, (यदि गृहस्थ हो कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग करो !) महान बनो। 

कोई भी बड़ा कार्य बिना त्याग के नहीं किया जा सकता। स्वयं 'परुष ' ने भी सृष्टि की रचना करने के लिए स्वार्थ त्याग किया , अपने को बलिदान किया। यदि कोई सामाजिक बंधन तुम्हारे ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में बाधक है , तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही वह टूट जायेगा। .... मैं अपने सामने वह एक सजीव दृश्य तो अवश्य देख रहा हूँ कि हमारी यह प्राचीन माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवन पूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महा महिमान्वित होकर विराजी है ! शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो। " ९/३८१)  

33 . swami vivekananda - The Mahamandal had to emerge for the flower of life to bloom.

'जीवनपुष्प का प्रस्फुटन और महामण्डल गठन की अनिवार्यता ' 


"पञ्चभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे !"  

जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है , उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे अवतार के द्वारा हो या चाहे जैसे भी हो , एक विशिष्ट भाव मूर्तमान होता अवश्य है। इस युग में श्री रामकृष्णदेव के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। हमारी दृष्टि में श्रीरामकृष्ण ही प्रथम युवा नेता हैं , जननेता हैं , मानवप्रेमी हैं - जो मानवमात्र को ह्रदय से प्रेम  करते हैं, समस्त पृथ्वी के मनुष्यों ह्रदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। क्योंकि श्री रामकृष्ण के जीवन में पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। सम्पूर्ण मानवजाति , समस्त जीवों तथा यहांतक कि जड़ वस्तुओं - हरी घांस के साथ भी जिन्होंने अभिन्नता का साक्षात्कार किया है ! उनके जीवन में प्रतिष्ठित पूर्णसाम्य 'अर्बन नक्सल' द्वारा मंच पर खड़े होकर भाषण दिए जाने वाला साम्य नहीं है , अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतारकर दिखा दिया है। उन्होंने इन्हीं जनसाधारण दीन-दुःखियों के दारुण -दुःख से द्रवित होकर जनसाधारण की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, उन्हें संगठित करने की चेष्टा की है। साम्य भाव में प्रतिष्ठित श्रीरामकृष्ण देव को सर्वप्रथम पंचेन्द्रियों में फँसा हुआ जीव को देखकर बहुत कष्ट हुआ था, इसीलिए उन्होंने कहा -"पञ्चभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे !" और उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सम्पूर्ण मानवजाति को दुःख से मुक्त करने में अर्पित कर दिया।  इस तथ्य को ठीक से समझने  के लिए हमें श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के उदगारों का विशेष रूप से अध्यन करना आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं , " श्रीरामकृष्ण युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं , सभी लोगों को अनुप्रेरित कर रहे हैं , किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। उनका लक्ष्य विशेषकर युवाओं को आकर्षित करना था। स्वयं स्वामी विवेकानन्द ही इसके प्रमाण हैं , और इस बात को वे स्वीकार भी करते हैं। .......('एक युवा आन्दोलन' पृष्ठ 19 -20) 
   
             " ऋग्वेद में बहुत सारे देवताओं की कथा का विवरण है । अग्नि ,वायु , वरुण , इन्द्रादि देवताओं तक की स्तुतियाँ भी हैं। एक -एक ऋचाओं को सूक्त कहा जाता है।  उन समस्त सूक्तों को भिन्न -भिन्न देवताओं को समर्पित किया गया है। 
                 ॐ इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान।
 एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ १-१६४-४६॥ 

[ इन्द्रं मित्रं वरुणम् अग्निम् आहु: | अथ उ स: दिव्य: सुपर्ण: गरुत्मान् | एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति, अग्निं यमं मातरिश्वानम् आहु: ||Truth is one; sages call it by various names (Rig Veda) :एक ही 'सत्' (सत्ता) को जिस सत्ता की ओर साधारण लोगों का ध्यान नहीं है, उसी 'सत्' (परमात्मा) को जानने वाले ज्ञानी जन (विप्रा:) -इन्द्र (‘परमैश्वर्यशाली’), मित्र (सबके प्रति स्नेहमय), वरुण (श्रेष्ठ), अग्नि [सबसे उग्र स्थान में स्थित (अग्रणी)]गुरुत्मान (ब्रह्माण्ड शकट का महान् भार उठाने वाले), सुपर्ण (सुंदर पंख वाले गरुड़), यम तथा मातरिश्वा के नाम से पुकारते हैं।

 इस ऋचा पर मनन से स्पष्ट है कि वेदों में उपरोक्त नामों से परमात्मा को संबोधित किया गया है । यह ऋचा ही साकार निराकार आदि विवाद का निराकरण  करता है!  किन्तु अन्तिम सूक्त में जिस देवता की स्तुति की गयी है , उस देवता का नाम है - 'मतैक्य' (Unanimity)। हमें इस ऐक्य को प्राप्त करना ही होगा। इतने प्राचीन काल के वे ऋषि हमें क्या उपदेश दे रहे हैं ? वे कहते हैं - " संगच्छध्वं संवदध्वं" - (The song of Unanimity and equality)  हे मनुष्यों ! तुम सभी लोग एक मन हो जाओ , राष्ट्रहित (या संघटन) हित के मुद्दे पर सभी एक मत हो जाओ। हम सभी प्रेम से मिलकर चलें, मिलकर बोलें और सभी ज्ञानी बनें। प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है । अर्थात देवता लोग मनुष्यों के द्वारा इसीलिए पूजे गए कि वे एक मत थे ,  एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। अपने पूर्वजों की भांति हम सभी कर्तव्यों का पालन करें। संगठन को आगे बढ़ाने में बातचीत का माध्‍यम ही वह सर्वश्रेष्‍ठ माध्‍यम है, जो विचार-विमर्श को विवाद में परिणत नहीं होने देता। क्योंकि एकमत होने के कारण ही देवताओं को 'हवि' प्राप्त होती थी। अग्नि में जिस 'हवि ' की आहुति दी जाती है , उसे सभी देवगण आपस में और आवश्यकता के अनुसार समान भाग में बाँटकर ही ग्रहण करते थे। हमलोग भी उन्हीं के समान , इस जगत के धन -ऐश्वर्य आदि प्राप्त होने पर उसे समान रूप से बाँटकर ही ग्रहण करेंगे। इसीलिए हमलोग यह प्रार्थना करते हैं कि हमारा ऐक्य बना रहे, ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों को समान भाग में बाँटकर ही भोग करें। इसी विराट साम्य  (colossal equality) और बृहत मतैक्य (broad consensus या Unanimity) को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना ही भारतवर्ष की अतिप्राचीन विरासत  (शिक्षा की प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था) का लक्ष्य है। उस प्राचीन विरासत से हमें यही शिक्षा मिलती है, अतः हमलोग उसी बृहत् मतैक्य की ओर,उसी विराट साम्य की ओर अग्रसर होंगे।" ['एक युवा आन्दोलन' पृष्ठ 52 /'जीवनपुष्प का प्रस्फुटन '  

ध्याम मूलं गुरुर मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मन्त्र मूलं गुरुर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥ 

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