🔱🕊🏹 विवाहित-जीवन और साधना🔱🕊🏹
1. जिस प्रकार लुका-छिपी के खेल में, जो बुढ़िया को छू लेता है, उसे चोर नहीं बनना पड़ता ; उसी प्रकार भगवान (सदगुरुदेव) के चरण-कमलों को छू लेने से फिर संसार (जन्म-मृत्यु चक्र) में बद्ध नहीं होना पड़ता। जिसने बूढ़ी को छू लिया है, उसे फिर चोर नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार जिसने ईश्वर की शरण ले ली है -(सद्गुरु के माध्यम से अवतार वरिष्ठ के नाम को जपना सीख लिया है), उसे फिर कोई भी ऐषणा संसार में बद्ध नहीं कर सकती।
১। লুকোচুরি খেলায় যেমন বুড়ী ছুঁলে চোর হয় না, সেই রকম ভগবানের পাদপদ্ম ছুঁলে আর সংসারে বদ্ধ হয় না। যে বুড়ী ছুঁয়েছে তাকে আর চোর করবার যো নেই। সংসারে সেই রকম যিনি ঈশ্বরকে আশ্রয় করেছেন, তাঁকে আর কোন বিষয়ে আবদ্ধ করতে পারে না।
2. रामप्रसाद सेन ने कहा था, संसार (गृहस्थ जीवन) छलप्रपंच का हाट है। लेकिन अगर किसीको हरिचरणों की भक्ति मिल जाए तो उसके लिए यही संसार फिर 'मजे की कुटिया' बन जाती है-
"एई संसार मजार कूटी। आमि खाई दाई आर मजा लूटी।
जनक राजा महातेजा तार किसे छीलो त्रुटि।
से येदिक- ओदिक दूदिक रेखे खेये छीलो दूधेर बाटी।।"
২। রামপ্রসাদ বলেছিলেন, এ সংসার ধোঁকার টাটি। কিন্তু হরিপাদপদ্মে ভক্তি লাভ করতে পারলে এই সংসারই আবার হয়
"- মজার কুটী। আমি খাই দাই আর মজা লুটি॥
জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি।
সে এদিক ওদিক দুদিক রেখে খেয়েছিল দুধের বাটি॥"
3. किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण देव से पूछा, " क्या गृहस्थ जीवन में रहते हुए ईश्वर की भक्ति करना (चरित्रवान मनुष्य बनना) सम्भव है ?" परमहंसदेव थोड़ा मुस्कुराए और बोले, मैंने अपने गाँव में देखा है, बढ़ई की स्त्री जब चूड़ा कूटती है, तो एक हाथ ढेकी के भीतर डालकर चूड़ा निकालती है, और एक हाथ से अपने लड़के को दूध पिलाती है। उसी के बीच ग्राहक से हिसाब-किताब भी करती जाती है -'तुम्हारे ऊपर उस दिन का इतना पैसा बाकि था, आज का इतना दाम है।' उसी प्रकार वह अपने सारे काम करती जाती है, किन्तु उसका मन सदैव ढेंकी की मूसली पर रहता है, वह जानती है कि मूसली यदि हाथ पर गिर गयी तो, हाथ का कचूमर निकल जायेगा।
৩। এক ব্যক্তি জিজ্ঞাসা করলেন, "সংসারে থেকে ঈশ্বর-উপাসনা কি সম্ভব?" পরমহংসদেব একটু হেসে বললেন, "ও দেশে দেখেছি, সব চিড়ে কোটে; একজন স্ত্রীলোক এক হাতে ঢেঁকির গড়ের ভেতর হাত দিয়ে নাড়ছে, আর এক হাতে ছেলে কোলে নিয়ে মাই খাওয়াচ্ছে, ওর ভেতর আবার খদ্দের আসছে, তার সঙ্গে হিসাব করছে - 'তোমার কাছে ওদিনের এত পাওনা আছে, আজকের এত দাম হল।' এই রকম সে সব কাজ করছে বটে, কিন্তু তার মন সর্বক্ষণ ঢেঁকির মুষলের দিকে আছে; সে জানে যে ঢেঁকিটি হাতে পড়ে গেলে হাতটি জন্মের মতো যাবে। সেইরূপ সংসারে থেকে সকল কাজ কর; কিন্তু মন রেখো তাঁর প্রতি। তাঁকে ছাড়লে সব অনর্থ ঘটবে।"
4. जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना कर सकते हैं, वही सही रूप में वीर -भाव के साधक हैं। (दादा के पितामह जैसा वीरभाव से (तंत्र) साधना कर सकते हैं)जिस प्रकार कोई मजबूत पुरुष अपने सिर पर लाईट का बोझ लेकर भी, बरात के डांस की तरफ गर्दन घुमा सकता है, उसी प्रकार एक वीर साधक, गृहस्थी का बोझ अपनी गर्दन पर लेकर ईश्वर की ओर देखता है।
(गुरु की खोज में 1986 हरिद्वार कुम्भ मेला निकल जाता है वहाँ ठाकुर-माँ -देवराहा बाबा को देखने के बाद वापस आने के बाद 27 मई, 1987 को सद्गुरु से दीक्षा के बाद चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग सीखने, बेलघड़िया कैम्प जाता है।)
৪। সংসারের মধ্যে বাস ক'রে যিনি সাধনা করতে পারেন, তিনিই ঠিক বীর সাধক। বীরপুরুষ যেমন মাথায় বোঝা নিয়ে আবার অন্য দিকে তাকাতে পারে, বীর সাধক তেমনি এ সংসারের বোঝা ঘাড়ে ক'রে ভগবানের পানে চেয়ে থাকে।
5. हिंदुस्तानी (हिन्दी भाषी) स्त्रियाँ पनघट से पानी लाते समय अपने सिर पर ४/५ पानी से भरे घड़े रखकर चलती हैं। रास्ते में सखी सहेलियों के साथ गप करती हैं, सुख-दुःख की बातें करती हैं, लेकिन उनका मन सिर पर रखे घड़ों पर ही लगा रहता है, कहीं वे गिर नहीं जायें। धर्ममार्ग के पथिक लोगों को भी हर परिस्थिति में भी, अपने मन पर ऐसी ही सतर्क -दृष्टि रखनी चाहिए, कहीं मन भूतनी -कांचन में फंस कर, अपने पथ (चरित्रवान मनुष्य बनने) से च्युत तो नहीं हो रहा है।
৫। হিন্দুস্থানী মেয়েরা মাথায় ক'রে ৪।৫ টি জলভরা কলসী নিয়ে যায়। পথে আত্মীয় লোকদের সঙ্গে গল্প করে, সুখ-দুঃখের কথা কয়, কিন্তু তাদের মন থাকে মাথার কলসীর ওপর, যেন সেটি পড়ে না যায়। ধর্মপথের পথিকদেরও সকল অবস্থার ভেতরে ঐ রকম দৃষ্টি রাখতে হবে, মন যেন তাঁর পথ থেকে পড়ে না যায়।
6. जैसे बाउल दोनों हाथों से अलग-अलग वाद्ययंत्र बजाता है और मुँह से गाता है; हे सांसारिक प्राणी! इसी तरह तुम लोग अपने हाथों से सभी कर्मों को करते रहो, लेकिन मुख से सर्वदा ईश्वर का नाम जपना मत भूलो।
৬। বাউল যেমন দুহাতে দুরকম বাজনা বাজায় ও মুখে গান করে, হে সংসারী জীব! তোমরাও তেমনি হাতে সমস্ত কাজকর্ম কর, কিন্তু মুখে সর্বদা ঈশ্বরের নাম জপ করতে ভুলো না।
7. जिस प्रकार कोई चरित्र-भ्रष्ट स्त्री अपने ससुराल वालों के बीच रहते हुए घर के सभी कार्य करती है, लेकिन उसका मन अपने प्रेमी (उप पति) में ही लगा रहता है। वह कार्य करते समय हमेशा यही सोचती है कि वह कब अपने प्रेमी से मिलेगी; तुमलोग भी गृहस्थी का काम करते समय यही देखना जिससे तुम्हारा मन हमेशा ईश्वर में लगा रहे। [कब काम समाप्त हो और माँ-ठाकुर, स्वामीजी के पास दौड़ जाऊँ ?]
৭। নষ্ট স্ত্রীলোক যেমন আত্মীয়-স্বজনের মধ্যে থেকে সংসারের সব কাজ করে কিন্তু মন পড়ে থাকে উপপতির ওপর - সে কাজ করতে করতে সর্বদা ভাবে যে কখন তার সঙ্গে দেখা হবে; তোমাদেরও সংসারের কাজ করতে করতে মন সর্বদা যেন ভগবানের দিকে পড়ে থাকে।
8. निर्लिप्त होकर संसार में कैसे रहा जाता है , जानते हो ? जैसे पाँकि में रहने वाली मछली रहती है। वह पाँकि में रहती है, किन्तु उसके शरीर पर कीचड़ लग नहीं पाती।
৮। নির্লিপ্তভাবে সংসার করা কি রকম জান? পাঁকাল মাছের মতন। পাঁকাল মাছ যেমন পাঁকের মধ্যে থাকে কিন্তু তার গায়ে পাঁক লাগে না।
9. तराजू का जो पलड़ा भारी होता है वह नीचे झुक जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। मनुष्य का मन भी एक तराजू की दो पलड़ों तरह है - एक तरफ संसार है, दूसरी तरफ भगवान है। जिस मन पर संसार के मान-बड़ाई इत्यादि पाने का भार अधिक है, उसका मन ईश्वर से हटकर संसार की ओर झुक जाता है। और जिस मन पर विवेक-वैराग्य और ईश्वर भक्ति का भार अधिक होता है उसका मन संसार से हटकर ईश्वर की ओर झुक जाता है।
৯। দাঁড়িপাল্লার যে দিক্ ভারী হয় সেই দিক্ ঝুঁকে পড়ে, আর যে দিক্ হাল্কা হয় সেই দিক্ ওপরে উঠে যায়। মানুষের মন দাঁড়িপাল্লার ন্যায় - তার এক দিকে সংসার, আর এক দিকে ভগবান্। যার সংসার, মান-সম্ভ্রম, ইত্যাদির ভার বেশী হয়, তার মন ভগবান্ থেকে উঠে গিয়ে সংসারের দিকে ঝুঁকে পড়ে; আর যার বিবেক-বৈরাগ্য ও ভগবদ্ভক্তির ভার বেশী হয়, তার মন সংসার থেকে উঠে গিয়ে ভগবানের দিকে ঝুঁকে পড়ে।
10. एक व्यक्ति दिन भर गन्ने के खेत की सिंचाई करता है, और शाम को खेत में जाकर देखता है कि खेत में एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचा है। थोड़ी ही दूरी पर क्यारी में कई छिद्र थे, जिसे होकर सारा पानी दूसरी और बह गया था। उसी प्रकार जो व्यक्ति सांसारिक वासनाओ (भूतनी और कांचन), सांसारिक मान -बड़ाई लूटने की तरफ अपना मन लगा कर, साधना करता है, अन्त में देखता है कि सारी साधना ऐषणाओं के छेद से निकल गया है।
১০। একজন সমস্ত দিন ধরে আখের ক্ষেতে জল ছেঁচে শেষে ক্ষেতে গিয়ে দেখল যে এক ফোঁটা জলও ক্ষেতে যায়নি, দূরে কতকগুলি গর্ত ছিল তা দিয়ে সমস্ত জল অন্যদিকে বেরিয়ে গেছে। সেই রকম যিনি বিষয়বাসনা, সাংসারিক মান-সম্ভ্রম ইত্যাদির দিকে মন রেখে সাধন করেন, শেষে দেখতে পাবেন যে ঐ সকল বাসনারূপ ছেঁদা দিয়ে তাঁর সমুদয় বেরিয়ে গেছে।
11। जैसे कोई लड़का एक हाथ से खूँटा पकड़ कर दनदनाकर घूमता रहता है, उसको गिरने का थोड़ा भी भय नहीं होता। किन्तु उसका मन निरन्तर खूँटे पर ही लगा रहता है, वह जानता है कि उसने खूँटा ज्यों ही छोड़ा कि वह गिर पड़ेगा। संसार के कार्यों को करते समय ईश्वर की ओर मन लगा कर सभी कार्य करो, किन्तु मन सर्वदा ईश्वर में ही लगा रहे, तब गिरने की कोई आशंका नहीं होगी।
১১। বালক যেমন এক হাত দিয়ে খোঁটা ধরে বন্ বন্ ক'রে ঘুরতে থাকে, একবারও ভয় করে না, কিন্তু তার মন সেই খোঁটার দিকে সর্বদা পড়ে আছে - সে মনে জানে যে, খোঁটাটি ছাড়লেই আমি পড়ে যাব; সংসারেও সেই রকম ভগবানের দিকে মন রেখে সকল কাজ কর, কিন্তু মন যেন তাঁর প্রতি সর্বদা থাকে; তা হলে নিরাপদে থাকবে।
12. बहुत से लोग संसार में सुख की प्राप्ति के लिए अनेक धर्म-कर्म करते रहते हैं, किन्तु जरा-सा कष्ट मिलने पर या मृत्यु के क्षण में सब कुछ भूल जाते हैं। जैसे तोता दिन भर 'राधाकृष्ण' (या 'सीता-राम') कहता रहता है, लेकिन जब बिल्ली उसका गर्दन पकड़ लेती है तो राधाकृष्ण भूलकर टायं, टायं करने लगता है।
১২। সংসারে সুখের লোভে অনেকে ধর্মকর্ম ক'রে থাকে, একটু দুঃখকষ্ট পেলে কিংবা মরবার সময় তারা সব ভুলে যায়; যেমন টিয়া পাখি এম্নে সমস্ত দিন রাধাকৃষ্ণ বলে, কিন্তু বেড়ালে যখন ধরে, তখন রাধাকৃষ্ণ ভুলে গিয়ে নিজের বোল 'ক্যাঁ ক্যাঁ' করতে থাকে।
13. नाव पानी में रहे तो कोई हानि नहीं है, लेकिन नाव में पानी नहीं घुसना चाहिए, नहीं तो नाव डूब जायेगी। उसी तरह साधक संसार (घर-परिवार) में रहे तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन साधु के मन में संसार (घर-परिवार के प्रति) आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए।
১৩। জলে নৌকা থাকে ক্ষতি নেই, কিন্তু নৌকার ভেতর যেন জল না ঢোকে, তা হলে ডুবে যাবে। সাধক সংসারে থাকুক ক্ষতি নেই কিন্তু সাধকের মনের ভেতর যেন সংসারভাব না থাকে।
14. परिवार में आसक्ति कैसी है? जैसे अमड़ा की चटनी, उसके छिलके के भीतर गूदा नहीं होता, केवल आठी और छिलका ही रहता है, अधिक खाने से एसिडिटी बढ़ जाती है।
১৪। সংসার কেমন? যেমন আমড়া - শাঁসের সঙ্গে খোঁজ নেই, কেবল আঁটি আর চামড়া; খেলে হয় অম্লশূল।
15. जैसे कटहल तोड़ते समय लोग पहले अपने हाथों पर अच्छीतरह से तेल मल लेते हैं, वैसा करने से कटहल की गोंद की हाथ से चिपकती नहीं है। उसी प्रकार संसार (घर-परिवार, स्त्री-पुत्र) रूपी कटहल का उपभोग यदि ज्ञान (=आत्मज्ञान) रूपी तेल लगाकर किया जाय तो कामिनी/ भूतनी -कांचन रूपी गोंद की कोई दाग मन पर (चित्त पर) नहीं छप सकेगी।
১৫। যেমন কাঁঠাল ভাঙতে গেলে লোকে আগে বেশ ক'রে হাতে তেল মেখে নেয় তা হলে আর হাতে কাঁঠালের আঠা লাগে না; তেমনি এই সংসাররূপ কাঁঠালকে যদি জ্ঞানরূপ তেল হাতে মেখে সম্ভোগ করা যায়, তা হলে কামিনীকাঞ্চনরূপ আঠার দাগ আর মনে লাগতে পারবে না।
16. यदि कोई सामान्य व्यक्ति सांप को पकड़ने की कोशिश करें तो वह तुरंत उसको काट लेगा, लेकिन जो व्यक्ति विष को झाड़ने का मंत्र जानता है, वह सात प्रकार के सांपों को गले से पकड़ कर अच्छा खेल दिखा सकता है। इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति गुरु-शिष्य परम्परा में सत-असत विवेक और वैराग्य/(भक्ति) रूपी विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण लेने के बाद विवाहित जीवन में जाए, उसको फिर विवाहित जीवन या सांसारिक मायामोह (ऐषणाओं का आकर्षण) उसको बन्धन में नहीं डाल सकता।
১৬। সাপকে ধরতে গেলে তখনই তাকে দংশন ক'রে দেবে, কিন্তু যে ব্যক্তি ধুলোপড়া জানে, সে সাতটা সাপকে ধরে গলায় জড়িয়ে বেশ খেলা দেখাতে পারে; তেমনি বিবেকবৈরাগ্যরূপ ধুলোপড়া শিখে কেউ যদি সংসার করে, তাকে আর সাংসারিক মায়া-মমতায় আবদ্ধ করতে পারে না।
17. जिसकी जैसी भावना अंदर होती है, वह उनकी वाणी में बाहर आ जाती है; जैसे जब कोई मूली खाता है, तो उसकी डकार से भी मूली की गन्ध निकलती है। इसी प्रकार जब सामान्य गृही लोग सन्यासियों से सत्संग करने जाते हैं, तब अपने सांसारिक विषयों की चर्चा करने में ही अधिक रूचि दिखाते हैं।
১৭। ভেতরে যার যে ভাব থাকে, তার কথাবার্তায় তা বেরিয়ে পড়ে; যেমন মূলো খেলে তার ঢেকুরে মূলোর গন্ধ বেরোয়। তেমনি সংসারী লোকেরা সাধুসঙ্গ করতে এসে বিষয়ের কথাই বেশী কয়ে থাকে।
18. सब कुछ जानने वाला मन ही है। ज्ञान कहो या अज्ञान कहो, सब मन की अवस्थाएँ हैं। मनुष्य मन से बंधा हुआ और मन से ही मुक्त है। मनुष्य मन से ही संत है और मन (ह्रदय) से ही बेईमान है, मन से पापी है और मन से ही पुण्यात्मा है। यदि सांसारिक प्राणी (विवाहित स्त्री पुरुष) अपने मन में सदैव ईश्वर का स्मरण (अर्थात अवतार वरिष्ठ का स्मरण) कर सकें, तो उन्हें किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं है।
১৮. মনই সব জানবে। জ্ঞানই বলো আর অজ্ঞানই বলো, সবই মনের অবস্থা। মানুষ মনেই বদ্ধ ও মনেই মুক্ত, মনেই সাধু এবং মনেই অসাধু, মনেই পাপী ও মনেই পুণ্যবান। সংসারী জীব মনেতে সর্বদা ভগবানকে স্মরণ-মনন করতে পারলে তাদের আর অন্য কোন সাধনের দরকার হয় না।
19. जिनको ज्ञान (डिग्री नहीं आत्मज्ञान) प्राप्त हो जाता है, वे दुनिया में किस प्रकार रहते हैं, जानते हो ? जैसे शीशे के कमरे में बैठने से भीतर और बाहर दोनों तरफ देख सकते हैं।
क्या आप जानते हैं कि जब वे ज्ञान प्राप्त करते हैं तो वे दुनिया में कैसे रहते हैं? उदाहरण के लिए, यदि आप सेर्सी के कमरे में बैठते हैं, तो आप अंदर और बाहर दोनों देख सकते हैं।
১৯। জ্ঞানলাভ হলে তারা সংসারে কি রকম ভাবে থাকে জান? যেমন সার্সির ঘরে বসে থাকলে ভেতরের ও বাহিরের - দুই দেখতে পায়।
20. गीता पढ़ने से जो होता है, वही बारह बार लगातार 'गीता' शब्द का उच्चारण करने-'गी तागी तागी तागी' से उसका अर्थ समझ में आता है या नहीं ? हे जीव, समस्त ऐषणाओं का त्याग करके भगवान के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करो !(अर्थात अवतार वरिष्ठ का नाम बताने वाले सद्गुरु के पदपद्मों का आश्रय ग्रहण करो !)
২০। গীতা পড়লে যা হয় আর দ্বাদশবার 'গীতা' শব্দ উচ্চারণ করলে তাই বোঝায়, যেমন - 'গী তাগী তাগী তাগী'। কি না হে জীব! সব ত্যাগ ক'রে ভগবানের পাদপদ্ম আশ্রয় কর।
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स्वामी ब्रह्मानन्द (21 जनवरी 1863 - 10 अप्रैल 1922) :
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के प्रथम अध्यक्ष, स्वामी ब्रह्मानन्द का संन्यासी जीवन से पहले का नाम 'राखाल चंद्र घोष' था। उनका जन्म 24 परगना जिले के बशीरहाट से कुछ ही दूर एक गांव में एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता आनंद मोहन घोष एक जमींदार थे। उनकी माँ एक धर्मपरायण महिला और श्री कृष्ण की भक्त थीं। इसीलिए जब 21 जनवरी 1863 को उनका जन्म हुआ तब अपने बेटे का नाम राखाल (जिसका अर्थ है चरवाहे श्री कृष्ण का साथी ) रखा था। दुर्भाग्य से, जब वे केवल पाँच वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। इसके तुरंत बाद, उनके पिता ने दूसरी पत्नी से विवाह कर लिया, जिसने राखाल का पालन-पोषण किया।
विद्यार्थी के रूप में राखाल अपनी प्रखर बुद्धि के लिए प्रसिद्द थे। लेकिन बचपन से ही वे जीवन के विविध विषयों को जानने में रूचि रखते थे। शारीरिक दृष्टि से वे अपनी उम्र के औसत बालकों से बहुत अधिक बलिष्ठ थे। कुश्ती या खेल में उनके साथियों को उनसे मुकाबला करना बहुत कठिन प्रतीत होता था। वे गाँव के अनेक खेलों में भाग लेते थे और उनमें अद्वितीय कौशल दिखाते थे।
लेकिन केवल खेल-कूद करने में ही उनका पूरा समय व्यतीत नहीं होता था। उनके घर के पास ही माँ काली का एक मंदिर था। राखाल अक्सर मंदिर के प्रांगण में देखे जाते थे। कभी-कभी वे अपने साथियों के साथ माँ काली की पूजा करने का खेल भी खेलते थे। कभी-कभी वे स्वयं माता की मिट्टी की सुन्दर प्रतिमा बनाकर, उनकी पूजा में लीन रहते थे। छोटी उम्र से ही राखाल को देवी-देवताओं में बड़ी श्रद्धा थी। पारिवारिक दुर्गा पूजा के समय वे शांत और स्थिर बैठा पूजा समारोह देखते रहते थे। या अँधेरे के समय जब संध्या-आरती हो रही होती तो राखाल बड़ी भक्ति से माँ की प्रतिमा के सामने खड़ा दिखाई देते थे।
अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद राखाल को 1875 में कलकत्ता के अंग्रेजी हाई स्कूल में भर्ती कराया गया। कलकत्ता में, वे नरेंद्रनाथ के संपर्क में आये,जो उस इलाके के लड़कों के नेता थे, जिन्हें बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से जाना गया। नरेंद्र ने अपनी प्रखर बुद्धि और जन्मजात नेतृत्व क्षमता के द्वारा उनके ऊपर अपना प्रभाव डाला और उन्हें उस मार्ग पर ले गए जो उन्हें सही लगता था। विनम्र, शांत और कोमल स्वभाव के होने के कारण, राखाल आसानी से उनके प्रभाव में आ गए और दोनों के बीच ऐसी घनिष्ठ मित्रता विकसित हुई, जो दक्षिणेश्वर में एक ही गुरु के शिष्यत्व में परिणत हुई, और जिसके दूरगामी परिणाम सामने आए। राखाल और नरेंद्र अपने अन्य साथियों के साथ एक ही व्यायामशाला में शारीरिक व्यायाम करते थे। और यह नरेंद्र ही थे जो राखाल को ब्रह्म समाज में ले गए, जहाँ उन्होंने किसी भी मूर्ति की पूजा न करने का शपथ लिया। इस अवस्था में राखाल की जन्मजात धार्मिक प्रवृत्तियाँ और अधिक स्पष्ट रूप से सामने आने लगीं। वे अक्सर जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करते हुए पाये जाते थे। और उनका मन किशोरावस्था से ही 'शाश्वत सत्य ' (परम सत्य ) को जानने के लिए एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलीश के जैसा लालायित रहता था।
संन्यासी जीवन की शुरुआत
स्वामी रामकृष्णानंद जी के अनुसार गुरुदेव (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के जीवनकाल में ही एक दिन स्वामी विवेकानंद, या जैसा कि उन्हें तब नरेंद्रनाथ कहा जाता था, श्री रामकृष्ण के पास आए और कहा, हमने राखाल राज को ही अपना राजा बनाया है। फिर उपस्थित अपने गुरुभाइयों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, वे हमारे राजा हैं, हम सभी लोग उनकी प्रजा हैं - जिस पर श्री रामकृष्ण ने बहुत संतोष व्यक्त किया। उस समय से स्वामी ब्रह्मानंद को उनके गुरुभाई राजा, और बाद में राजा महाराज के नाम से पुकारते हैं, और रामकृष्ण संघ में उन्हें इस विशिष्ट उपाधि से जाना जाता है। और सम्मान के कारण कभी भी उनके नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है।
स्वामी रामकृष्णानंद ने यह भी कहा है कि हममें से कोई भी श्री रामकृष्ण के साथ उतनी आत्मीयता से नहीं घुला-मिला, जितना वे थे। गुरुदेव ने हमेशा स्वामी ब्रह्मानंद को अपने आध्यात्मिक पुत्र के रूप में देखा, जिन्हें माँ काली ने विशेष रूप से उनके शरीर की देखभाल करने के लिए भेजा था। इस अंतरंग संगति के दौरान श्री रामकृष्ण ने अपने प्रिय बालक को उस महान् उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित किया जिसे वे भविष्य में पूरा करने वाले थे।
अपने प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में राखाल से विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यास करवाने के अलावा, उसे दुर्लभ मात्रा में सांसारिक ज्ञान भी प्रदान किया, जिसने बाद में स्वामी को किसी भी अवसर पर समर्थ होने में सक्षम बनाया, तथा उसकी प्रतिभा को वह असाधारण बहुमुखी प्रतिभा प्रदान की। उदाहरण के लिए, गुरुदेव ने राखाल को भी यह सिखा दिया था कि, 'उनकी' दृष्टि से किसी व्यक्ति के चरित्र को कैसे परखा जाता है ? तथा सभी जानते हैं कि इस अंतर्दृष्टि के माध्यम से वे अपने संन्यासी भाइयो के व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण के संबंध में उत्पन्न होने वाली विविध समस्याओं का किस प्रकार से पूर्ण कौशल के साथ समाधान कर सकते थे। जिसके वे प्रमुख थे तथा असंख्य भक्तगण जो उनसे लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सलाह और मार्गदर्शन चाहते थे।
प्रकृति ने उनके चरित्र में एक और आकर्षक तत्व प्रदान किया था, और वह थी उनकी बालसुलभ सरलता। एक बार श्री रामकृष्ण उनके इस गुण से इतने प्रभावित हुए कि वे ' ओह तुम कितने सरल हो! अरे, मेरे जाने के बाद तुम्हारी देखभाल कौन करेगा!" यह कहते हुए रो पड़े। जैसा कि पहले उल्लेखित प्रमाण से हमें ज्ञात है कि यह देखकर बहुत खुशी हुई कि श्री रामकृष्ण की इस स्नेहपूर्ण चिंता का सभी गुरुभाइयों ने किस तरह से जवाब दिया और उनका जीवन भर बहुत ख्याल रखा।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था - माँ जगदम्बा ऐसे आध्यात्मिक व्यक्तित्व वाले लोगों के माथे पर अपने हाथ से लिख देती हैं कि समस्त प्रकृति को उनका सम्मान करना चाहिए, और प्रकृति सहज रूप से उनका पालन करती है!
1886 में श्री रामकृष्ण के निधन के बाद, स्वामी ब्रह्मानंद ने मठ के बाहर छह साल से अधिक समय बिताया, साधना की और एक घुमक्कड़ साधु का जीवन व्यतीत किया, जिसमें अधिकांश समय उनके साथ एक शिष्य भाई भी था। इस अवधि के दौरान उन्होंने उत्तर भारत के कई पवित्र स्थानों का दौरा किया और काठियावाड़ में द्वारका तक गए। इस प्रकार उन्हें देश की स्थिति और इस छोटे से महाद्वीप में व्याप्त विश्वासों और मतों की अनंत विविधता का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिला।
यद्यपि वे जन्म से ही एक शानदार जीवन के आदी थे, क्योंकि वे 24-परगना जिले के बशीरहाट के एक जमींदार के पुत्र थे, उन्होंने त्याग के नए जीवन के प्रति अद्भुत अनुकूलनशीलता दिखाई, जिसे उन्होंने श्री रामकृष्ण के आह्वान पर सहर्ष अपनाया था, और भौतिक आवश्यकताओं के बारे में नहीं सोचा, पूरे समय धर्म के सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे उन्होंने हमेशा मानवीय आकांक्षाओं का सर्वोच्च लक्ष्य माना था। श्री रामकृष्ण ने अपने शिष्य के मन के उत्कृष्ट गुणों को पहचान लिया था और उनका वर्णन निम्नलिखित शानदार शब्दों में किया था।
वे नित्य-सिद्ध हैं, ईश्वर-कोटि हैं। वे उन असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने अपनी साधना पूरी कर ली है और किसी पिछले जन्म में लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है, और जिनकी इस जीवन में आध्यात्मिक साधनाएँ अनावश्यक हैं, क्योंकि वे केवल अपनी पिछली उपलब्धियों को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं। उनका पृथ्वी पर आगमन मानव जाति को शिक्षा देने के लिए है। ये शुद्ध आत्माएँ भगवान के अवतार में उनके अनुचर हैं।
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