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मंगलवार, 11 जून 2024

🔱🕊🏹6.साधना के विभिन्न प्रकार 🔱🕊🏹 [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -6 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🔱Different types of Sadhana 🔱

 6.

🕊🏹साधना के विभिन्न प्रकार 🔱🕊🏹

 1. साधक दो प्रकार के देखे जाते हैं - बन्दर का बच्चा और बिल्ली का बच्चा जैसे। बंदर का बच्चा पहले अपनी मां को पकड़ता है, बाद में उसकी माँ उसको अपने साथ इधर-उधर घुमाती रहती है। बिल्ली का बच्चा बस एक ही स्थान पर बैठ कर म्याऊं-म्याऊं करता रहता है, उसके मां की इच्छा जहाँ ले जाने की होती है, उसके गर्दन को मुख में रखकर ले जाती है। उसी तरह ज्ञानी और कर्मी श्रेणी का साधक बन्दर के बच्चे की तरह अपने पुरुषार्थ से ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। किन्तु भक्त श्रेणी के साधक  ईश्वर को (अवतार वरिष्ठ को) ही सभी कर्मों का कर्ता रूप से जानते हुए, बिल्ली के बच्चे की तरह उनके चरणों की छाया में निर्भर होकर शांति से बैठा रहता है।     

১। দুই রকমের সাধক দেখা যায় - যেমন, বাঁদরের ছানা এবং বিল্লীর ছানা। বাঁদরের ছানা আগে তার মাকে ধরে, পরে তার মা তাকে সঙ্গে ক'রে যেখানে সেখানে নিয়ে বেড়ায়। বেড়ালের ছানা কেবল এক জায়গায় বসে মিউ মিউ করতে থাকে, তার মা যখন যেখানে ইচ্ছা হয় ঘাড়ে ধরে নিয়ে যায়। তেমনি জ্ঞানী বা কর্মী সাধক বাঁদরের ছানার ন্যায় পুরুষকার দ্বারা ঈশ্বরলাভ করতে চেষ্টা ক'রে থাকে। আর ভক্ত সাধকেরা ঈশ্বরকে সকলের কর্তা জ্ঞান করে, তাঁর চরণে বিড়াল-ছানার ন্যায় নির্ভর ক'রে নিশ্চিন্ত হয়ে বসে থাকে।

2. एक ही व्यक्ति जैसे किसी का पिता, किसी का बड़का बाबू, किसी का चाचा, किसी का मौसा, किसी का जीजा , किसी का ससुर इत्यादि लगता है। यहां व्यक्ति एक होने से भी, लोगों के साथ उसके रिश्ते कई प्रकार के रहते हैं, उसी प्रकार भक्त उस एक 'सच्चिदानंद' (अवतार वरिष्ठ) की शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर आदि विभिन्न प्रकार से पूजा करता हैं।

২। এক ব্যক্তি যেমন কারও পিতা, কারও জ্যাঠা, কারো খুড়া, কারো মেসো, কারো ভগ্নীপতি, কারো শ্বশুর ইত্যাদি ইত্যাদি। এস্থলে ব্যক্তি এক হলেও কিন্তু সম্বন্ধভেদে অনেক প্রকার প্রভেদ রয়েছে, তেমনি সেই এক সচ্চিদানন্দকে ভক্তেরা শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য, মধুর প্রভৃতি নানাভাবে উপাসনা করে।

3.जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू : "जिसका जैसा विचार, उसको वैसा लाभ" #अर्थात जो जिस वस्तु को जी-जान से चाहता है, उसे वह वस्तु अवश्य मिलती है। जो जी-जान से 'उनको' चाहता है, वह 'उन्हें' (परम सत्य को) ही पाता है ! और जो उनके ऐश्वर्य की (कामिनी -कांचन की ) कामना करता है, उसको वही मिलता है। 

৩। যার যেমন ভাব, তার তেমনি লাভ হয় অর্থাৎ যে তাঁকেই চায়, সে তাঁকেই পায়। আর যে তাঁর ঐশ্বর্য্য কামনা করে, সে তাই পেয়ে থাকে। 

 ["# जेहि कें जेहि पर सत्‍य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।" अर्थात् जिसको जिस चीज से सच्चा प्रेम होता है उसे वह चीज अवश्य मिल जाती है। यानी सच्चे मन से चाही गई वस्तु अवश्य प्राप्त होती है।  उत्तम स्वास्थ्य अथवा प्रसन्नता भी इसका अपवाद नहीं। यदि हम अच्छे स्वास्थ्य व प्रसन्नता की कामना करेंगे तो परिस्थितियां अच्छे स्वास्थ्य व प्रसन्नता के अनुकूल होकर हमारी इच्छापूर्ति में सहायक हो जाएंगी।जिस प्रकार अच्छी फसल पाने के लिए उत्तम किस्म का बीज बोना अनिवार्य शर्त है, उसी तरह अन्य कुछ भी पाने के लिए उस चीज की मजबूत चाहत, यानी मन में दृढ़ इच्छा का बीजारोपण भी अनिवार्य है। जब हम कोई बीज बो देते हैं तो उससे पेड़ उगना स्वाभाविक है। बीज बो देने के बाद उसे उगने से रोकना असंभव है। बिल्कुल इसी तरह से विचार रूपी बीज को वास्तविकता में परिवर्तित होने से रोकना भी असंभव है। यदि किसी भी तरह से अच्छे विचार रूपी बीजों का मन में रोपण कर दें तो उसके परिणाम को कोई नहीं रोक पाएगा। स्पष्ट है कि जैसी चाहत होगी वैसी ही उपलब्धि होगी। जीवन को संवारना है तो अच्छी सोच अथवा शुभ संकल्प अनिवार्य हैं। तभी तो कामना की गई है कि मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो। 

यह रामचरितमानस के बालकाण्ड का प्रसंग है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि सीताराम वाटिका में एक दूसरे को देख चुके हैं। दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हैं। स्वयंवर में सीता माता घबरा रही हैं कि कहीं रामजी धनुष उठाने में चुके ना। तभी वो भगवान का ध्यान करके कहती हैं कि उनको रघुवीर की दासी बना दें अर्थात उनका मन पूर्ण समर्पित पत्नी होने का है । आगे वह सोचती हैं कि जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह तो उसे मिलता ही है इसमें क्या संदेह।यदि उनका स्नेह सत्य है तो रघुवीर उन्हें ही प्राप्त होंगे। और आगे ऐसा ही होता है। रामजी शिवधनुष ना केवल उठा लेते हैं बल्कि प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो टूट भी जाती है। इस प्रकार सीता स्वयंवर जीत कर श्रीराम जानकी के और जानकी श्रीराम की हो जाती हैं।यह सत्य भी सिद्ध हो जाता है कि सच्चा प्रेम अवश्य अपने प्रेमी को प्राप्त कर लेता है।]  

4.कोई व्यक्ति यदि राज महल में पहुँचकर  राजा से कद्दू-कोहड़ा जैसी छोटी-छोटी चीजें मांगता है, वह अत्यंत मूर्ख है। उसीतरह राजाधिराज भगवान श्रीरामकृष्ण के द्वार पर पहुँचकर भी ज्ञान-भक्ति, विवेक-वैराग्य इत्यादि रत्न की प्रार्थना न करके, अष्टसिद्धि जैसी तुच्छ वस्तु को पाने की प्रार्थना करे तो उसे अत्यन्त मूर्ख कहा जायेगा।   

৪। রাজবাড়িতে ভিক্ষা করতে গিয়ে যে লাউ, কুমড়ো ইত্যাদি সামান্য বস্তু প্রার্থনা করে, সে অতি নির্বোধ। রাজাধিরাজ ভগবানের দ্বারস্থ হয়ে জ্ঞান ভক্তি ইত্যাদি রত্ন প্রার্থনা না ক'রে অষ্টসিদ্ধাই প্রভৃতি তুচ্ছ বস্তুর নিমিত্ত যে প্রার্থনা করে সে বড়ই নির্বোধ।

5. कोई व्यक्ति भक्त है या ज्ञानी, इसे बाहर से समझना बहुत कठिन होता है। जैसे हाथी के दाँत दो प्रकार के होते हैं - जो दाँत बाहर निकला होता है, वह केवल देखने के लिए है, उससे खाया नहीं जाता। और खाने के दाँत हाथी भीतर होते हैं, जिससे वह खाता है। उसी तरह कई बार साधक अपनी असली भावना को छिपाकर, अन्य भाव प्रदर्शित करते हैं।      

৫। ভক্ত কিংবা জ্ঞানীর ভাব বাইরে থেকে বোঝা বড় কঠিন হয়ে থাকে। যেমন হাতীর দুরকম দাঁত দেখা যায় - বাইরের দাঁত কেবল দেখাবার, তার দ্বারা খাওয়া চলে না; আর এক রকম দাঁত মুখের ভেতরে আছে, তার দ্বারা খেয়ে থাকে। তেমনি অনেক সময় সাধকেরা আপনার ভাব গোপন রেখে অন্য রকম দেখান।

6. योगी दो प्रकार के होते हैं - गुप्त योगी और व्यक्त (त्रिदण्डि) योगी। जो छिपे योगी होते हैं, वे भगवान का जप-ध्यान गुप्त रूप से करते हैं, लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगने देते। और जो व्यक्त  योगी होते हैं, वे योगी होने का बाह्य चिन्ह - योगदण्ड (त्रिदण्डि) आदि धारण करते हैं और लोगों के साथ उसी प्रकार की चर्चा करते हैं। 

৬। যোগী দুই প্রকার - গুপ্ত যোগী ও ব্যক্ত যোগী। গুপ্ত যোগী যাঁরা, তাঁরা গোপনে গোপনে ভগবানের সাধন ভজন ক'রে থাকেন, লোককে আদপেও জানতে দেন না। আর ব্যক্ত যোগী যাঁরা, তাঁরা বাহ্যিক যোগদণ্ড ইত্যাদি ধারণ ক'রে লোকের সঙ্গে ঐ সব প্রসঙ্গই করে থাকেন।

[(21 सितंबर,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-92] 

श्रीरामकृष्ण - (संसारी भक्तों को देखकर) - योगी दो तरह के होते हैं । एक व्यक्त योगी और दूसरे गुप्त योगी,  प्रकट और छिपे ; राजर्षि जनक छुपे योगी थे। संसार (गृहस्थ जीवन) में गुप्त योगी होते हैं ।  उन्हें कोई समझते नहीं । संसारी के लिए मन से त्याग है,  बाहर से नहीं ।"  

जो व्यक्ति अपने मन,वचन और कर्म को अपनी शक्ति और उद्देश्य के अनुकूल नियंत्रित कर लेता है, ऐसे सनातन धर्मी सन्यासी को इन तीनो पर नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप तीन दंड धारण करने होते हैं। जिन्हें धारण कर लिए जाने के उपरांत उन्हें "त्रिदंडी" स्वामी कहा जाता है। हिन्दू धर्म के शंकराचार्य जी लोगों को इन त्रिदंडों को धारण किये हुए देखा जा सकता है। गृहस्थ (संसारी-राजर्षि जनक जैसे महामण्डल कार्यकर्ता) के लिए मन से त्याग है,  बाहर से नहीं ।  योगी दो तरह के होते हैं - प्रकट और छिपे ; राजर्षि जनक छुपे योगी थे  ! योगी दो प्रकार के होते हैं, 'प्रकट' और 'छिपे हुए'। गृहस्थ एक 'छिपा हुआ' योगी हो सकता है।उसे कोई नहीं पहचानता। गृहस्थ को बाह्य रूप से (त्याग) नहीं करना चाहिए, मानसिक रूप से ऐषणाओं (भूतनी-कामिनी-कांचन और नामयश में) अनासक्त होना चाहिए ।"]

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🔱🕊🏹5. संसार और साधना 🔱🕊🏹 ["श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -5 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित] 🔱

 🔱🕊🏹 विवाहित-जीवन और साधना🔱🕊🏹 

1. जिस प्रकार लुका-छिपी के खेल में, जो बुढ़िया को छू लेता है, उसे चोर नहीं बनना पड़ता ; उसी प्रकार भगवान (सदगुरुदेव) के चरण-कमलों को छू लेने से फिर संसार (जन्म-मृत्यु चक्र) में बद्ध नहीं होना पड़ता। जिसने बूढ़ी को छू लिया है, उसे फिर चोर नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार जिसने ईश्वर की शरण ले ली है -(सद्गुरु के माध्यम से अवतार वरिष्ठ के नाम को जपना सीख लिया है), उसे फिर कोई भी ऐषणा संसार में बद्ध नहीं कर सकती।      

১। লুকোচুরি খেলায় যেমন বুড়ী ছুঁলে চোর হয় না, সেই রকম ভগবানের পাদপদ্ম ছুঁলে আর সংসারে বদ্ধ হয় না। যে বুড়ী ছুঁয়েছে তাকে আর চোর করবার যো নেই। সংসারে সেই রকম যিনি ঈশ্বরকে আশ্রয় করেছেন, তাঁকে আর কোন বিষয়ে আবদ্ধ করতে পারে না।

2. रामप्रसाद सेन ने कहा था, संसार (गृहस्थ जीवन)  छलप्रपंच का हाट है। लेकिन अगर किसीको हरिचरणों की भक्ति  मिल जाए तो उसके लिए यही संसार फिर 'मजे की कुटिया' बन जाती है-

"एई संसार मजार कूटी।  आमि खाई दाई आर मजा लूटी। 

जनक राजा महातेजा तार किसे छीलो त्रुटि।  

से येदिक- ओदिक दूदिक रेखे खेये छीलो दूधेर बाटी।।"  

২। রামপ্রসাদ বলেছিলেন, এ সংসার ধোঁকার টাটি। কিন্তু হরিপাদপদ্মে ভক্তি লাভ করতে পারলে এই সংসারই আবার হয় 

"- মজার কুটী। আমি খাই দাই আর মজা লুটি॥

জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি।

সে এদিক ওদিক দুদিক রেখে খেয়েছিল দুধের বাটি॥"

3. किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण देव से पूछा, " क्या गृहस्थ जीवन में रहते हुए ईश्वर की भक्ति करना (चरित्रवान मनुष्य बनना) सम्भव है ?" परमहंसदेव थोड़ा मुस्कुराए और बोले, मैंने अपने गाँव में देखा है, बढ़ई की स्त्री जब चूड़ा कूटती है, तो एक हाथ ढेकी के भीतर डालकर चूड़ा निकालती है, और एक हाथ से अपने लड़के को दूध पिलाती है। उसी के बीच ग्राहक से हिसाब-किताब भी करती जाती है -'तुम्हारे ऊपर उस दिन का इतना पैसा बाकि था, आज का इतना दाम है।' उसी प्रकार वह अपने सारे काम करती जाती है, किन्तु उसका मन सदैव ढेंकी की मूसली पर रहता है, वह जानती है कि मूसली यदि हाथ पर गिर गयी तो, हाथ का कचूमर निकल जायेगा।     

৩। এক ব্যক্তি জিজ্ঞাসা করলেন, "সংসারে থেকে ঈশ্বর-উপাসনা কি সম্ভব?" পরমহংসদেব একটু হেসে বললেন, "ও দেশে দেখেছি, সব চিড়ে কোটে; একজন স্ত্রীলোক এক হাতে ঢেঁকির গড়ের ভেতর হাত দিয়ে নাড়ছে, আর এক হাতে ছেলে কোলে নিয়ে মাই খাওয়াচ্ছে, ওর ভেতর আবার খদ্দের আসছে, তার সঙ্গে হিসাব করছে - 'তোমার কাছে ওদিনের এত পাওনা আছে, আজকের এত দাম হল।' এই রকম সে সব কাজ করছে বটে, কিন্তু তার মন সর্বক্ষণ ঢেঁকির মুষলের দিকে আছে; সে জানে যে ঢেঁকিটি হাতে পড়ে গেলে হাতটি জন্মের মতো যাবে। সেইরূপ সংসারে থেকে সকল কাজ কর; কিন্তু মন রেখো তাঁর প্রতি। তাঁকে ছাড়লে সব অনর্থ ঘটবে।"

4. जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना कर सकते हैं, वही सही रूप में वीर -भाव के साधक हैं। (दादा के पितामह जैसा वीरभाव से (तंत्र) साधना कर सकते हैं)जिस प्रकार कोई मजबूत  पुरुष अपने सिर पर लाईट का बोझ लेकर भी, बरात के डांस की तरफ गर्दन घुमा सकता है, उसी प्रकार एक वीर साधक, गृहस्थी  का बोझ अपनी गर्दन पर लेकर ईश्वर की ओर देखता है। 

(गुरु की खोज में 1986 हरिद्वार कुम्भ मेला निकल जाता है वहाँ ठाकुर-माँ -देवराहा बाबा को देखने के बाद वापस आने के बाद  27 मई, 1987 को सद्गुरु से दीक्षा के बाद चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग सीखने, बेलघड़िया कैम्प जाता है।)

৪। সংসারের মধ্যে বাস ক'রে যিনি সাধনা করতে পারেন, তিনিই ঠিক বীর সাধক। বীরপুরুষ যেমন মাথায় বোঝা নিয়ে আবার অন্য দিকে তাকাতে পারে, বীর সাধক তেমনি এ সংসারের বোঝা ঘাড়ে ক'রে ভগবানের পানে চেয়ে থাকে।

5. हिंदुस्तानी (हिन्दी भाषी) स्त्रियाँ पनघट से पानी लाते समय अपने सिर पर ४/५ पानी से भरे घड़े रखकर चलती हैं। रास्ते में सखी सहेलियों के साथ गप करती हैं, सुख-दुःख की बातें करती हैं, लेकिन उनका मन सिर पर रखे घड़ों पर ही लगा रहता है, कहीं वे गिर नहीं जायें। धर्ममार्ग के पथिक लोगों को भी हर परिस्थिति में भी, अपने मन पर ऐसी ही सतर्क -दृष्टि रखनी चाहिए, कहीं  मन भूतनी -कांचन में फंस कर, अपने पथ (चरित्रवान मनुष्य बनने) से च्युत तो नहीं हो रहा है।

৫। হিন্দুস্থানী মেয়েরা মাথায় ক'রে ৪।৫ টি জলভরা কলসী নিয়ে যায়। পথে আত্মীয় লোকদের সঙ্গে গল্প করে, সুখ-দুঃখের কথা কয়, কিন্তু তাদের মন থাকে মাথার কলসীর ওপর, যেন সেটি পড়ে না যায়। ধর্মপথের পথিকদেরও সকল অবস্থার ভেতরে ঐ রকম দৃষ্টি রাখতে হবে, মন যেন তাঁর পথ থেকে পড়ে না যায়।

6. जैसे बाउल दोनों हाथों से अलग-अलग वाद्ययंत्र बजाता है और मुँह से गाता है; हे सांसारिक प्राणी! इसी तरह तुम लोग अपने हाथों से सभी कर्मों को करते रहो, लेकिन मुख से सर्वदा ईश्वर का नाम जपना मत भूलो।  

৬। বাউল যেমন দুহাতে দুরকম বাজনা বাজায় ও মুখে গান করে, হে সংসারী জীব! তোমরাও তেমনি হাতে সমস্ত কাজকর্ম কর, কিন্তু মুখে সর্বদা ঈশ্বরের নাম জপ করতে ভুলো না।

7. जिस प्रकार कोई चरित्र-भ्रष्ट स्त्री अपने ससुराल वालों के बीच रहते हुए घर के सभी कार्य करती है, लेकिन उसका मन अपने प्रेमी (उप पति) में ही लगा रहता है। वह कार्य करते समय हमेशा यही सोचती है कि वह कब अपने प्रेमी से मिलेगी; तुमलोग भी गृहस्थी का काम करते समय  यही देखना जिससे तुम्हारा मन हमेशा ईश्वर में लगा रहे। [कब काम समाप्त हो और माँ-ठाकुर, स्वामीजी के पास दौड़ जाऊँ ?]         

৭। নষ্ট স্ত্রীলোক যেমন আত্মীয়-স্বজনের মধ্যে থেকে সংসারের সব কাজ করে কিন্তু মন পড়ে থাকে উপপতির ওপর - সে কাজ করতে করতে সর্বদা ভাবে যে কখন তার সঙ্গে দেখা হবে; তোমাদেরও সংসারের কাজ করতে করতে মন সর্বদা যেন ভগবানের দিকে পড়ে থাকে।

8. निर्लिप्त होकर संसार में कैसे रहा जाता है , जानते हो ? जैसे पाँकि में रहने वाली मछली रहती है। वह पाँकि में रहती है, किन्तु उसके शरीर पर कीचड़ लग नहीं पाती।   

৮। নির্লিপ্তভাবে সংসার করা কি রকম জান? পাঁকাল মাছের মতন। পাঁকাল মাছ যেমন পাঁকের মধ্যে থাকে কিন্তু তার গায়ে পাঁক লাগে না।

9. तराजू का जो पलड़ा भारी होता है वह नीचे झुक जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। मनुष्य का मन भी एक तराजू की दो पलड़ों तरह है - एक तरफ संसार है, दूसरी तरफ भगवान है। जिस मन पर संसार के मान-बड़ाई इत्यादि पाने का भार अधिक है, उसका मन ईश्वर से हटकर संसार की ओर झुक जाता है। और जिस मन पर विवेक-वैराग्य और ईश्वर भक्ति का भार अधिक होता है उसका मन संसार से हटकर ईश्वर की ओर झुक जाता है।

৯। দাঁড়িপাল্লার যে দিক্ ভারী হয় সেই দিক্ ঝুঁকে পড়ে, আর যে দিক্ হাল্কা হয় সেই দিক্ ওপরে উঠে যায়। মানুষের মন দাঁড়িপাল্লার ন্যায় - তার এক দিকে সংসার, আর এক দিকে ভগবান্। যার সংসার, মান-সম্ভ্রম, ইত্যাদির ভার বেশী হয়, তার মন ভগবান্ থেকে উঠে গিয়ে সংসারের দিকে ঝুঁকে পড়ে; আর যার বিবেক-বৈরাগ্য ও ভগবদ্ভক্তির ভার বেশী হয়, তার মন সংসার থেকে উঠে গিয়ে ভগবানের দিকে ঝুঁকে পড়ে।

10. एक व्यक्ति दिन भर गन्ने के खेत की सिंचाई करता है, और शाम को खेत में जाकर देखता है कि खेत में एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचा है। थोड़ी ही दूरी पर क्यारी में कई छिद्र थे, जिसे होकर सारा पानी दूसरी और बह गया था। उसी प्रकार जो व्यक्ति सांसारिक वासनाओ (भूतनी और कांचन), सांसारिक मान -बड़ाई लूटने की तरफ अपना मन लगा कर, साधना करता है, अन्त में देखता है कि सारी साधना ऐषणाओं के छेद से निकल गया है।        

১০। একজন সমস্ত দিন ধরে আখের ক্ষেতে জল ছেঁচে শেষে ক্ষেতে গিয়ে দেখল যে এক ফোঁটা জলও ক্ষেতে যায়নি, দূরে কতকগুলি গর্ত ছিল তা দিয়ে সমস্ত জল অন্যদিকে বেরিয়ে গেছে। সেই রকম যিনি বিষয়বাসনা, সাংসারিক মান-সম্ভ্রম ইত্যাদির দিকে মন রেখে সাধন করেন, শেষে দেখতে পাবেন যে ঐ সকল বাসনারূপ ছেঁদা দিয়ে তাঁর সমুদয় বেরিয়ে গেছে।

11। जैसे कोई लड़का एक हाथ से खूँटा पकड़ कर दनदनाकर घूमता रहता है, उसको गिरने का थोड़ा भी भय नहीं होता। किन्तु उसका मन निरन्तर खूँटे पर ही लगा रहता है, वह जानता है कि उसने खूँटा ज्यों ही छोड़ा कि वह गिर पड़ेगा। संसार के कार्यों को करते समय ईश्वर की ओर मन लगा कर सभी कार्य करो, किन्तु मन सर्वदा ईश्वर में ही लगा रहे, तब गिरने की कोई आशंका नहीं होगी।       

১১। বালক যেমন এক হাত দিয়ে খোঁটা ধরে বন্ বন্ ক'রে ঘুরতে থাকে, একবারও ভয় করে না, কিন্তু তার মন সেই খোঁটার দিকে সর্বদা পড়ে আছে - সে মনে জানে যে, খোঁটাটি ছাড়লেই আমি পড়ে যাব; সংসারেও সেই রকম ভগবানের দিকে মন রেখে সকল কাজ কর, কিন্তু মন যেন তাঁর প্রতি সর্বদা থাকে; তা হলে নিরাপদে থাকবে।

12. बहुत से लोग संसार में सुख की प्राप्ति के लिए अनेक धर्म-कर्म करते रहते हैं, किन्तु जरा-सा कष्ट मिलने पर या मृत्यु के क्षण में सब कुछ भूल जाते हैं। जैसे तोता दिन भर 'राधाकृष्ण' (या 'सीता-राम') कहता रहता है, लेकिन जब बिल्ली उसका गर्दन  पकड़ लेती है तो राधाकृष्ण भूलकर टायं, टायं करने लगता है।  

১২। সংসারে সুখের লোভে অনেকে ধর্মকর্ম ক'রে থাকে, একটু দুঃখকষ্ট পেলে কিংবা মরবার সময় তারা সব ভুলে যায়; যেমন টিয়া পাখি এম্নে সমস্ত দিন রাধাকৃষ্ণ বলে, কিন্তু বেড়ালে যখন ধরে, তখন রাধাকৃষ্ণ ভুলে গিয়ে নিজের বোল 'ক্যাঁ ক্যাঁ' করতে থাকে।

13. नाव पानी में रहे तो कोई हानि नहीं है, लेकिन नाव में पानी नहीं घुसना चाहिए, नहीं तो नाव डूब जायेगी। उसी तरह साधक संसार (घर-परिवार) में रहे तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन साधु के मन में संसार (घर-परिवार के प्रति) आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए।

১৩। জলে নৌকা থাকে ক্ষতি নেই, কিন্তু নৌকার ভেতর যেন জল না ঢোকে, তা হলে ডুবে যাবে। সাধক সংসারে থাকুক ক্ষতি নেই কিন্তু সাধকের মনের ভেতর যেন সংসারভাব না থাকে।

14. परिवार में आसक्ति कैसी है? जैसे अमड़ा की चटनी, उसके छिलके के भीतर गूदा नहीं होता, केवल आठी और छिलका ही रहता है, अधिक खाने से एसिडिटी बढ़ जाती है।    

১৪। সংসার কেমন? যেমন আমড়া - শাঁসের সঙ্গে খোঁজ নেই, কেবল আঁটি আর চামড়া; খেলে হয় অম্লশূল।

15. जैसे कटहल तोड़ते समय लोग पहले अपने हाथों पर अच्छीतरह से तेल मल लेते हैं, वैसा करने से कटहल की गोंद की हाथ से चिपकती नहीं है। उसी प्रकार संसार (घर-परिवार, स्त्री-पुत्र) रूपी कटहल का उपभोग यदि ज्ञान (=आत्मज्ञान) रूपी तेल लगाकर किया जाय तो  कामिनी/ भूतनी -कांचन रूपी गोंद की कोई दाग मन पर (चित्त पर) नहीं छप सकेगी।       

১৫। যেমন কাঁঠাল ভাঙতে গেলে লোকে আগে বেশ ক'রে হাতে তেল মেখে নেয় তা হলে আর হাতে কাঁঠালের আঠা লাগে না; তেমনি এই সংসাররূপ কাঁঠালকে যদি জ্ঞানরূপ তেল হাতে মেখে সম্ভোগ করা যায়, তা হলে কামিনীকাঞ্চনরূপ আঠার দাগ আর মনে লাগতে পারবে না।

16. यदि कोई सामान्य व्यक्ति सांप को पकड़ने की कोशिश करें तो वह तुरंत उसको काट लेगा, लेकिन जो व्यक्ति विष को झाड़ने का मंत्र जानता है, वह सात प्रकार के सांपों को गले से पकड़ कर अच्छा खेल दिखा सकता है।  इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति गुरु-शिष्य परम्परा में सत-असत विवेक और वैराग्य/(भक्ति) रूपी विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण  लेने के बाद विवाहित जीवन में जाए, उसको फिर विवाहित जीवन या सांसारिक मायामोह (ऐषणाओं का आकर्षण) उसको बन्धन में नहीं डाल सकता।   

১৬। সাপকে ধরতে গেলে তখনই তাকে দংশন ক'রে দেবে, কিন্তু যে ব্যক্তি ধুলোপড়া জানে, সে সাতটা সাপকে ধরে গলায় জড়িয়ে বেশ খেলা দেখাতে পারে; তেমনি বিবেকবৈরাগ্যরূপ ধুলোপড়া শিখে কেউ যদি সংসার করে, তাকে আর সাংসারিক মায়া-মমতায় আবদ্ধ করতে পারে না।

17. जिसकी जैसी भावना अंदर होती है, वह उनकी वाणी में बाहर आ जाती है; जैसे जब कोई मूली खाता है, तो उसकी डकार से भी मूली की गन्ध निकलती है। इसी प्रकार जब सामान्य गृही लोग सन्यासियों से सत्संग करने जाते हैं, तब अपने सांसारिक विषयों की चर्चा करने में ही अधिक रूचि दिखाते हैं।   

১৭। ভেতরে যার যে ভাব থাকে, তার কথাবার্তায় তা বেরিয়ে পড়ে; যেমন মূলো খেলে তার ঢেকুরে মূলোর গন্ধ বেরোয়। তেমনি সংসারী লোকেরা সাধুসঙ্গ করতে এসে বিষয়ের কথাই বেশী কয়ে থাকে।

18सब कुछ जानने वाला मन ही है। ज्ञान कहो या अज्ञान कहो, सब मन की अवस्थाएँ हैं। मनुष्य मन से बंधा हुआ और मन से  ही मुक्त है। मनुष्य मन से ही संत है और मन (ह्रदय) से ही बेईमान है, मन से पापी है और मन से ही पुण्यात्मा है। यदि सांसारिक प्राणी (विवाहित स्त्री पुरुष) अपने मन में सदैव ईश्वर का स्मरण (अर्थात अवतार वरिष्ठ का स्मरण) कर सकें, तो उन्हें किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं है।

১৮. মনই সব জানবে। জ্ঞানই বলো আর অজ্ঞানই বলো, সবই মনের অবস্থা। মানুষ মনেই বদ্ধ ও মনেই মুক্ত, মনেই সাধু এবং মনেই অসাধু, মনেই পাপী ও মনেই পুণ্যবান। সংসারী জীব মনেতে সর্বদা ভগবানকে স্মরণ-মনন করতে পারলে তাদের আর অন্য কোন সাধনের দরকার হয় না।

19. जिनको ज्ञान (डिग्री नहीं आत्मज्ञान) प्राप्त हो जाता है, वे दुनिया में किस प्रकार रहते हैं, जानते हो ? जैसे शीशे के कमरे में बैठने से भीतर और बाहर दोनों तरफ देख सकते हैं।   

क्या आप जानते हैं कि जब वे ज्ञान प्राप्त करते हैं तो वे दुनिया में कैसे रहते हैं? उदाहरण के लिए, यदि आप सेर्सी के कमरे में बैठते हैं, तो आप अंदर और बाहर दोनों देख सकते हैं।

১৯। জ্ঞানলাভ হলে তারা সংসারে কি রকম ভাবে থাকে জান? যেমন সার্সির ঘরে বসে থাকলে ভেতরের ও বাহিরের - দুই দেখতে পায়।

20. गीता पढ़ने से जो होता है, वही बारह बार लगातार 'गीता' शब्द का उच्चारण करने-'गी तागी तागी तागी' से उसका अर्थ समझ में आता है या नहीं ? हे जीव, समस्त ऐषणाओं का त्याग करके भगवान के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करो !(अर्थात अवतार वरिष्ठ का नाम बताने वाले सद्गुरु के पदपद्मों का आश्रय ग्रहण करो !)     

২০। গীতা পড়লে যা হয় আর দ্বাদশবার 'গীতা' শব্দ উচ্চারণ করলে তাই বোঝায়, যেমন - 'গী তাগী তাগী তাগী'। কি না হে জীব! সব ত্যাগ ক'রে ভগবানের পাদপদ্ম আশ্রয় কর।

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स्वामी ब्रह्मानन्द (21 जनवरी 1863 - 10 अप्रैल 1922) :

 रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के प्रथम अध्यक्ष, स्वामी ब्रह्मानन्द का संन्यासी जीवन से पहले का नाम 'राखाल चंद्र घोष' था। उनका  जन्म 24 परगना जिले के बशीरहाट से कुछ ही दूर एक गांव में एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता आनंद मोहन घोष एक जमींदार थे। उनकी माँ एक धर्मपरायण महिला और श्री कृष्ण की भक्त थीं। इसीलिए जब  21 जनवरी 1863 को उनका जन्म हुआ तब अपने बेटे का नाम राखाल (जिसका अर्थ है चरवाहे श्री कृष्ण का साथी ) रखा था। दुर्भाग्य से, जब वे केवल पाँच वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। इसके तुरंत बाद, उनके पिता ने दूसरी पत्नी से विवाह कर लिया, जिसने राखाल का पालन-पोषण किया।

      विद्यार्थी के रूप में  राखाल अपनी प्रखर बुद्धि के लिए प्रसिद्द थे। लेकिन बचपन से ही वे जीवन के विविध विषयों को जानने में रूचि रखते थे। शारीरिक दृष्टि से वे अपनी उम्र के औसत बालकों से बहुत अधिक बलिष्ठ थे। कुश्ती या खेल में उनके साथियों को उनसे मुकाबला करना बहुत कठिन प्रतीत होता था। वे गाँव के अनेक खेलों में भाग लेते थे और उनमें अद्वितीय कौशल दिखाते थे। 

      लेकिन केवल खेल-कूद करने में ही उनका पूरा समय व्यतीत नहीं होता था। उनके घर के  पास ही माँ काली का एक मंदिर था। राखाल अक्सर मंदिर के प्रांगण में देखे जाते थे। कभी-कभी वे अपने साथियों के साथ माँ काली की पूजा करने का खेल भी खेलते थे। कभी-कभी वे स्वयं माता की मिट्टी की सुन्दर प्रतिमा बनाकर, उनकी पूजा में लीन रहते थे। छोटी उम्र से ही राखाल को देवी-देवताओं में बड़ी श्रद्धा थी। पारिवारिक दुर्गा पूजा के समय वे  शांत और स्थिर बैठा पूजा समारोह देखते रहते थे। या अँधेरे के समय जब संध्या-आरती हो रही होती तो राखाल बड़ी भक्ति से माँ की प्रतिमा के सामने खड़ा दिखाई देते थे।

       अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद राखाल को 1875 में कलकत्ता के अंग्रेजी हाई स्कूल में भर्ती कराया गया। कलकत्ता में, वे नरेंद्रनाथ के संपर्क में आये,जो उस इलाके के लड़कों के नेता थे, जिन्हें बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से जाना गया। नरेंद्र ने अपनी प्रखर बुद्धि और जन्मजात नेतृत्व क्षमता के द्वारा उनके ऊपर अपना प्रभाव डाला और उन्हें उस मार्ग पर ले गए जो उन्हें सही लगता था। विनम्र, शांत और कोमल स्वभाव के होने के कारण, राखाल आसानी से उनके प्रभाव में आ गए और दोनों के बीच ऐसी घनिष्ठ मित्रता विकसित हुई, जो दक्षिणेश्वर में एक ही गुरु के शिष्यत्व में परिणत हुई, और जिसके दूरगामी परिणाम सामने आए। राखाल और नरेंद्र अपने अन्य साथियों के साथ एक ही व्यायामशाला में शारीरिक व्यायाम करते थे। और यह नरेंद्र ही थे जो राखाल को ब्रह्म समाज में ले गए, जहाँ उन्होंने किसी भी मूर्ति की पूजा न करने का शपथ लिया।  इस अवस्था में राखाल की जन्मजात धार्मिक प्रवृत्तियाँ और अधिक स्पष्ट रूप से सामने आने लगीं। वे अक्सर जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करते हुए पाये जाते थे। और उनका मन किशोरावस्था से ही 'शाश्वत सत्य ' (परम सत्य ) को जानने के लिए एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलीश के जैसा लालायित रहता था।  

संन्यासी  जीवन की शुरुआत

        स्वामी रामकृष्णानंद जी के अनुसार गुरुदेव  (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के जीवनकाल में ही एक दिन स्वामी विवेकानंद, या जैसा कि उन्हें तब नरेंद्रनाथ कहा जाता था, श्री रामकृष्ण के पास आए और कहा,  हमने राखाल राज को ही अपना राजा बनाया है। फिर उपस्थित अपने गुरुभाइयों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, वे हमारे राजा हैं, हम सभी लोग उनकी प्रजा हैं - जिस पर श्री रामकृष्ण ने बहुत संतोष व्यक्त किया। उस समय से स्वामी ब्रह्मानंद को उनके गुरुभाई राजा, और बाद में राजा महाराज के नाम से पुकारते हैं, और रामकृष्ण संघ में उन्हें इस विशिष्ट उपाधि से जाना जाता है। और सम्मान के कारण कभी भी उनके नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है। 

     स्वामी रामकृष्णानंद ने यह भी कहा है कि हममें से कोई भी श्री रामकृष्ण के साथ उतनी आत्मीयता से नहीं घुला-मिला, जितना वे थे। गुरुदेव ने हमेशा स्वामी ब्रह्मानंद को अपने आध्यात्मिक पुत्र के रूप में देखा, जिन्हें माँ काली ने विशेष रूप से उनके शरीर की देखभाल करने के लिए भेजा था।  इस अंतरंग संगति के दौरान श्री रामकृष्ण ने अपने प्रिय बालक को उस महान् उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित किया जिसे वे भविष्य में पूरा करने वाले थे। 

       अपने प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में राखाल से विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यास करवाने के अलावा, उसे दुर्लभ मात्रा में सांसारिक ज्ञान भी प्रदान किया, जिसने बाद में स्वामी को किसी भी अवसर पर समर्थ होने में सक्षम बनाया, तथा उसकी प्रतिभा को वह असाधारण बहुमुखी प्रतिभा प्रदान की। उदाहरण के लिए, गुरुदेव ने राखाल को भी यह सिखा दिया था कि,  'उनकी' दृष्टि से किसी व्यक्ति के चरित्र को कैसे परखा जाता है ? तथा सभी जानते हैं कि इस अंतर्दृष्टि के माध्यम से वे अपने संन्यासी भाइयो के व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण के संबंध में उत्पन्न होने वाली विविध समस्याओं का किस प्रकार से पूर्ण कौशल के साथ समाधान कर सकते थे।  जिसके वे प्रमुख थे तथा असंख्य भक्तगण जो उनसे लौकिक  और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सलाह और मार्गदर्शन चाहते थे। 

        प्रकृति ने उनके चरित्र में एक और आकर्षक तत्व प्रदान किया था, और वह थी उनकी बालसुलभ सरलता। एक बार श्री रामकृष्ण उनके इस गुण से इतने प्रभावित हुए कि वे ' ओह तुम कितने सरल हो! अरे, मेरे जाने के बाद तुम्हारी देखभाल कौन करेगा!" यह कहते हुए रो पड़े।  जैसा कि पहले उल्लेखित प्रमाण से हमें ज्ञात है कि यह देखकर बहुत खुशी हुई कि श्री रामकृष्ण की इस स्नेहपूर्ण चिंता का सभी गुरुभाइयों  ने किस तरह से जवाब दिया और उनका जीवन भर बहुत ख्याल रखा। 

     स्वामी विवेकानंद ने  कहा था - माँ जगदम्बा  ऐसे आध्यात्मिक व्यक्तित्व वाले लोगों के माथे पर अपने हाथ से लिख देती हैं कि समस्त प्रकृति को उनका सम्मान करना चाहिए, और प्रकृति सहज रूप से उनका पालन करती है!

      1886 में श्री रामकृष्ण के निधन के बाद, स्वामी ब्रह्मानंद ने मठ के बाहर छह साल से अधिक समय बिताया, साधना की और एक घुमक्कड़ साधु का जीवन व्यतीत किया, जिसमें अधिकांश समय उनके साथ एक शिष्य भाई भी था। इस अवधि के दौरान उन्होंने उत्तर भारत के कई पवित्र स्थानों का दौरा किया और काठियावाड़ में द्वारका तक गए। इस प्रकार उन्हें देश की स्थिति और इस छोटे से महाद्वीप में व्याप्त विश्वासों और मतों की अनंत विविधता का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिला। 

      यद्यपि वे जन्म से ही एक शानदार जीवन के आदी थे, क्योंकि वे 24-परगना जिले के बशीरहाट के एक जमींदार के पुत्र थे, उन्होंने त्याग के नए जीवन के प्रति अद्भुत अनुकूलनशीलता दिखाई, जिसे उन्होंने श्री रामकृष्ण के आह्वान पर सहर्ष अपनाया था, और भौतिक आवश्यकताओं के बारे में नहीं सोचा, पूरे समय धर्म के सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे उन्होंने हमेशा मानवीय आकांक्षाओं का सर्वोच्च लक्ष्य माना था। श्री रामकृष्ण ने अपने शिष्य के मन के उत्कृष्ट गुणों को पहचान लिया था और उनका वर्णन निम्नलिखित शानदार शब्दों में किया था।

   वे नित्य-सिद्ध हैं, ईश्वर-कोटि हैं। वे उन असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने अपनी साधना पूरी कर ली है और किसी पिछले जन्म में लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है, और जिनकी इस जीवन में आध्यात्मिक साधनाएँ अनावश्यक हैं, क्योंकि वे केवल अपनी पिछली उपलब्धियों को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं। उनका पृथ्वी पर आगमन मानव जाति को शिक्षा देने के लिए है। ये शुद्ध आत्माएँ भगवान के अवतार में उनके अनुचर हैं।

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शनिवार, 8 जून 2024

🔱🕊🏹🔱3. अवतार और सिद्ध पुरुष 🏹4. सदगुरु-🏹 🔱(श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -3, 4 :स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹

  3.

🔱🕊🏹 अवतार और सिद्ध पुरुष 🔱 🕊🏹 

  1. जब मोटी लकड़ी का कुन्दा नदी की पानी में तैरता है तो कितने ही लोग उस पर सवार होकर पार हो सकते हैं। वह इससे डूबता नहीं है। किन्तु हल्की सी लकड़ी पर यदि कौआ भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है। उसी तरह जब अवतार आदि आते हैं, तो सैकड़ों लोग उसके सहारे भवसागर से तर जाते हैं। जबकि सिद्ध व्यक्ति केवल अपने कष्टों को ही दूर कर पाता है।     

১। বড় বড় বাহাদুরী কাঠ যখন ভেসে আসে, তখন কত লোক তার ওপরে চড়ে চলে যায়। তাতে সে ডোবে না। সামান্য একখানা কাঠে একটা কাক বসলে অমনি ডুবে যায়। তেমনি যখন অবতারাদি আসেন কত শত লোক তাঁকে আশ্রয় ক'রে তরে যায়। সিদ্ধ লোক নিজে কষ্টেসৃষ্টে যায় মাত্র।

2. मालगाड़ी का इंजन स्वयं तो चलता ही है और अपने साथ कितनी मालगाड़ि के डिब्बों को भी  खींचता है; उसी प्रकार अवतार अपने साथ हजारों हजार लोगों को ईश्वर के निकट ले जाते हैं।  

২। রেলের ইঞ্জিন আপনি চলে যায় ও কত মালবোঝাই গাড়ি টেনে নিয়ে যায়; অবতারেরাও সেই রকম সহস্র সহস্র লোকদের ঈশ্বরের নিকট নিয়ে যান।

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4.

🏹सदगुरु🏹

[मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक]

1. गुरु (नेता) एक है लेकिन उपगुरु अनेक हो सकते हैं। जिस किसी से भी कुछ शिक्षा पायी जा सकती हो , उन्हें उपगुरु कहा जा सकता है। भागवत में कहा गया है एक अवधूत ने 24 उपगुरुओं को वरण किया था।

১। গুরু এক কিন্তু উপগুরু অনেক হতে পারে। যাঁর কাছে কিছু শিক্ষা পাওয়া যায়, তাঁকেই উপগুরু বলা যেতে পারে। ভাগবতে আছে, অবধূত এইরূপ ২৪টি উপগুরু করেছিল।
2. एक दिन मैदान से गुजरते समय अवधूत ने देखा कि एक दूल्हा बड़ी शान से ढोल -बाजों के साथ सामने से चला आ रहा था। और दूसरी तरफ एक व्याध एक टक होकर अपने लक्ष्य पर निशाना लगाए हुए है, बाराती और दूल्हे की ओर उसका ध्यान थोड़ा भी नहीं भटका। अवधूत ने ब्याध को प्रणाम किया और कहा, "आप मेरे गुरु हैं। जिस समय मैं भगवान के ध्यान में बैठूँ, तो उनके प्रति ऐसा ही लक्ष्य सधा रहे।"

২। একদিন মাঠের ওপর দিয়ে যেতে যেতে অবধূত দেখতে পেলে সামনে ঢাক ঢোল বাজাতে বাজাতে খুব জাঁকজমক ক'রে একটি বর আসছে, আর এক দিকে এক ব্যাধ একমনে আপনার লক্ষ্যের দিকে চেয়ে আছে, এত জাঁক ক'রে যে বর আসছে, সেদিকে একবারও চেয়ে দেখছে না! অবধূত সেই ব্যাধকে নমস্কার ক'রে বললে, "তুমি আমার গুরু। যখন আমি ভগবানের ধ্যানে বসব তখন যেন তাঁর প্রতি ঐরূপ লক্ষ্য থাকে।"

3. एक आदमी मछली पकड़ रहा था, तभी अवधूत ने उसके पास आकर पूछा, "भाई, मैं किस रास्ते से अमुक स्थान पर जाऊँ?" उस समय उसकी बंसी के काँटों में फँसे चारे को मछली खा रही थी, उसने उसकी बातों का उत्तर न देकर उसे घूरकर देखा। मछली जब फँस गयी तब मछली पकड़ने वाले ने सिर घुमा कर पूछा “आप क्या कह रहे थे?” अवधूत ने नतमस्तक होकर कहा, "आप मेरे गुरु हैं, जब मैं अपने इष्टदेव का दर्शन (विवेक-दर्शन) का अभ्यास करने की इच्छा से ध्यान में बैठूं, तो ऐसे ही कार्य को पूरा किए बिना -अर्थात विवेक-स्रोत को उद्घाटित किये बिना अपना मन दूसरी ओर न लगाऊं।"

৩। একজন মাছ ধরছে, অবধূত তার কাছে গিয়ে জিজ্ঞাসা করলে, "ভাই, অমুক জায়গা কোন্ পথ দিয়ে যাব?" সে ব্যক্তির ফাতনায় তখন মাছ খাচ্ছে; সে তার কথায় কোন উত্তর না দিয়ে একমনে ফাতনার দিকে তাকিয়ে রইল। মাছ গেঁথে তখন পেছন ফিরে বললে, "আপনি কি বলছেন?" অবধূত প্রণাম ক'রে বললে, "আপনি আমার গুরু, আমি যখন আপনার ইষ্টের ধ্যানে বসব, তখন যেন এরূপ কাজ শেষ না ক'রে অন্যদিকে মন না দিই।"
4. एक चील्ह अपने मुँह में मछली लेकर उड़ रहा था, इसलिए सैकड़ों कौवे उसके पीछे-पीछे उड़ने लगे। और उस चील्ह उसे धक्का और चोंच मारकर उसे तंग करके मछली खींच लेने की कोशिश करने लगे। वह जहां भी जाता, सारे कौवे काँव -काँव करते उसके पीछे-पीछे उड़ने लगे। अंत में तंग आकर उसने वह मछली गिरा दी, और जैसे ही दूसरा चील्ह आया और उसे मुख से पकड़ा, सभी कौवे पहले चील्ह को छोड़कर उसके पीछे उड़ने लगे। पहला चील्ह निश्चिन्त हो गया और एक पेड़ की शाखा पर चुपचाप बैठ गया। अवधूत ने उस चील्ह को सुरक्षित स्थिति में बैठे देखकर प्रणाम करके बोला , " इस जगत की उपाधियों से तादात्म्य को त्याग देने में ही शान्ति है, नहीं तो भारी विपत्ति का सामना करना पड़ेगा। " 
  
৪। একটা চিল একটা মাছ মুখে ক'রে আসছে, তাই দেখে শত শত কাক-চিল তার পেছনে লাগল। তাকে ঠুকরে কামড়ে বিরক্ত ক'রে কেড়ে নেবার চেষ্টা করলে। সে যেখানে যায় সব কাক-চিলগুলো চেঁচাতে চেঁচাতে তার পেছনে যেতে আরম্ভ করলে। শেষে সে বিরক্ত হয়ে মাছটা ফেলে দিলে, আর একটা চিল এসে যেমন নিলে, সব কাক-চিলগুলো প্রথম চিলটাকে ছেড়ে তার পেছনে যেতে লাগল। প্রথম চিলটি নিশ্চিন্ত হয়ে এক গাছের ডালে চুপ ক'রে বসে রইল। অবধূত সেই চিলের নিরাপদ অবস্থা দেখে প্রণাম ক'রে বললে, "এ সংসারে উপাধি ফেলে দিতে পারলেই শান্তি, নতুবা মহা বিপদ।"

5. किसी तालाब में एक बगुला किसी मछली को लक्ष्य करके धीरे -धीरे पकड़ने जा रहा था, और उस बगुले के पीछे एक व्याध उस पर तीर का निशाना लगा रहा था, लेकिन बगुला उस व्याध की और नहीं देख रहा था। अवधूत ने बगुले को प्रणाम किया और कहा, "जब मैं ध्यान करने बैठूं , तो मैं भी ऐसे ही कहीं न देखूं।"

৫। একটি জলাশয়ে এক বক আস্তে আস্তে একটা মাছের দিকে লক্ষ্য ক'রে ধরতে যাচ্ছে, পেছনে এক ব্যাধ সেই বকটিকে লক্ষ্য করছে, কিন্তু বক সে দিকে ভ্রূক্ষেপ করছে না। অবধূত সেই বককে নমস্কার ক'রে বললে, "আমি যখন ধ্যান করতে বসব, তখন যেন ঐরকম চেয়ে না দেখি।"

6. अवधूत का एक और गुरु मधुमक्खी थी। मधुमक्खियों ने कई दिनों तक मेहनत करके शहद को संचय करना शुरू कर दिया। कहीं से एक आदमी आया और उसने मधुमक्खी के छत्ते को  तोड़ दिया और शहद खा लिया। मधुमक्खी बहुत मिहनत से संचय किये हुए धन का उपभोग नहीं का सकीं। यह देखा कर अवधूत ने मधुकर को प्रणाम किया और कहा, " भगवन, आप मेरे गुरु हैं, मैंने आपसे यह सीखा कि संचय करने का परिणाम क्या होता है। "

৬। অবধূতের আর একটি [গুরু] ছিল মৌমাছি। মৌমাছি অনেক দিন ধরে কষ্ট ক'রে মধু সঞ্চয় করতে লাগল। কোথা থেকে একজন মানুষ এসে চাক ভেঙ্গে মধু খেয়ে গেল। তার অনেক দিন ধরে সঞ্চয়ের ধন সে উপভোগ করতে পারলে না। অবধূত তা দেখে মধুকরকে নমস্কার ক'রে বললে, "ঠাকুর, তুমি আমার গুরু, সঞ্চয় করলে পরিণামে কি হয় আমি তা তোমার নিকট হতে শিখলাম।"

7. "गुरु मिले लाखों-लाख, चेला मिले नहीं एक।" लेक्चर देने वाले तो बहुत मिलते हैं, लेकिन अपने उपदेश के अनुसार कार्य करने वाले  लोग बहुत कम मिलते हैं।

৭। "গুরু মিলে লাখ লাখ, চেলা না মিলে এক।" উপদেষ্টা অনেক পাওয়া যায়, কিন্তু উপদেশমত কার্য করে, এইরূপ লোক অতি অল্প মেলে।

8. यदि किसी में सच्ची लगन है और उसे साधना-भजन की आवश्यकता महसूस होती हो, तो ईश्वर उसको निश्चित ही उसके सद्गुरु से मिलवा देते हैं; सच्चे साधक (सत्यार्थी) को गुरु की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

৮। যদি কারও ঠিক ঠিক অনুরাগ আসে ও সে সাধন-ভজনের প্রয়োজন মনে করে তা হলে নিশ্চয়ই তিনি তার সদ্গুরু জুটিয়ে দেন; গুরুর জন্য সাধকের চিন্তা করবার দরকার নেই।

9. वैद्य तीन प्रकार के होते हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। जो वैद्य आता है और बिना यह पूछे कि मरीज ने दवा ली है या नहीं, सिर्फ नाड़ी दबाकर कहता है 'दवा खा लेना ', वह अधम श्रेणी का है। और जो वैद्य रोगी को औषधि लेते हुए नहीं देखता, तब बहुत मीठे शब्दों से समझाता है और 'दवा लेना अच्छा रहेगा' आदि कहता है, वह औसत दर्जे का वैद्य होता है। और जो वैद्य यह देखता है कि रोगी किसी प्रकार दवा खा ही नहीं रहा है, यह देखकर उसकी छाती पर घुटने को रखकर जबरन मुख में दवाई उड़ेल देता है , वही उत्तम श्रेणी का वैद्य है।    

৯। বৈদ্য তিন প্রকার - উত্তম, মধ্যম ও অধম। যে বৈদ্য এসে কেবল নাড়ী টিপে 'ঔষধ খেও' বলে চলে যায়, রোগী ঔষধ খেলে কি না খেলে তার কোন খোঁজ-খবর না নেয়, সে অধম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য রোগী ঔষধ খাচ্ছে না দেখে অনেক মিষ্টি কথায় বুঝায় ও 'ঔষধ খেলে ভাল হবে' ইত্যাদি বলে, সে মধ্যম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য রোগী কিছুতেই খাচ্ছে না দেখে বুকে হাঁটু দিয়ে জোর ক'রে ঔষধ খাওয়ায়, সে-ই উত্তম বৈদ্য। সেইরূপ যে গুরু বা আচার্য ধর্মশিক্ষা দিয়ে শিষ্যের কোন খোঁজ-খবর না নেন সে গুরু বা আচার্য অধম; আর যিনি শিষ্যদের মঙ্গলের জন্য বারবার বুঝাতে থাকেন যাতে তাঁর উপদেশ সব ধারণা করতে পারে এবং ভালবাসা দেখান, তিনি মধ্যম গুরু। আর শিষ্যেরা ঠিক ঠিক শুনছে না বা পালন করছে না দেখে যে আচার্য খুব জোর-জবরদস্তি পর্যন্ত করেন, তিনি উত্তম আচার্য।
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🔱🕊🏹2. " ईश्वर " 🔱🕊🏹 (श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -2, स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹"Be and make." Let this be our motto.

 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित "श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -2 

🔱🕊🏹" ईश्वर "🔱🕊🏹

"Be and make." 

Let this be our motto.

1.  क्या तुम यह जानते हो कि ईश्वर हर वस्तु में कैसे विद्यमान रहते हैं ? जैसे बड़े लोगों की लड़कियाँ चिक पर्दे के भीतर होती हैं। वे सब को देख सकती हैं, परन्तु कोई उन्हें नहीं देख सकता। ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी सर्वत्र विद्यमान हैं। (मुझमें, तुझमें, खड़क-खंभ में। ... माँ जगदम्बा विद्यमान हैं!)

১। ভগবান সকলকার ভেতর কিরূপে বিরাজ করেন জান? যেমন চিকের ভেতর বড়লোকের মেয়েরা থাকে। তারা সকলকে দেখতে পায়, কিন্তু তাদের কেউ দেখতে পায় না; ভগবান্ ঠিক সেইরূপে বিরাজ করছেন।

[ "या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता- मुझमें, तुझमें, खड़क-खंभ में -माँ जगदम्बा विद्यमान हैं ! सब में है भगवान"...  नरसिंह अथवा नृसिंह (मानव रूपी सिंह) को पुराणों में भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना गया है। ये अवतार बताता है कि जब पाप बढ़ता है तो उसको खत्म करने के लिए शक्ति के साथ ज्ञान भी जरूर होता है। आत्मज्ञान और शक्ति पाने के लिए भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है। ये भगवान विष्णु के रौद्र रूप का अवतार है। इसलिए इनका गुस्सा शांत करने के लिए चंदन चढ़ाया जाता है। जो कि शीतलता देता है। दूध, पंचामृत और पानी से किया गया अभिषेक भी इस रौद्र रूप को शांत करने के लिए किया जाता है। पूजा के बाद भगवान नरसिंह को ठंडी चीजों का नैवेद्य लगाया जाता है। इनके भोग में ऐसी चीजें ज्यादा होती हैं जो शरीर को ठंडक पहुंचाती हैं। जैसे दही, मक्खन, तरबूज, सत्तू और ग्रीष्म ऋतुफल चढ़ाने से इनको ठंडक मिलती है और इनका गुस्सा शांत रहता है। भगवान विष्णु अपने भक्त प्रहलाद को दैत्य हिरण्यकश्यप से बचाने के लिए इस रूप में प्रकट हुए। ये अवतार प्रदोष काल में हुआ था, इसलिए शाम को भगवान नरसिंह की विशेष पूजा होती है।  वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि पर भगवान नरसिंह के प्रकट होने से इसीदिन चौथे अवतार (नवनीदा ?) की जयन्ती मनाई जाती है। - इस दिन जल और अन्न का दान दिया जाता है।  जो भी दान दिया जाता है वो, चांदी या मिट्‌टी के बर्तन में रखकर ही दिया जाता है। क्योंकि मिट्‌टी में शीतलता का गुण रहता है। (2024 में नरसिंह जयंती शुभ मुहूर्त वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि का प्रारंभ 21 मई, 2024 को शाम 05 बजकर 39 मिनट पर हुआ था।)

इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - - "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को भी ईश्वर बनने में सहायता देंगे। बनो और बनाओ - 'Be and Make' यही हमारा आदर्श वाक्य रहे।" (विवेकानन्द साहित्य' खण्ड-9, पृष्ठ 379)First, let us be Gods (अर्थात हमें घोर स्वार्थी पशु से 100 % निःस्वार्थपर मनुष्य बन लेने दो।), and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. "

नारद का माया दर्शन: 25 जून, 1895 की देववाणी में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमें ईश्वर होना होगा ! हृदय को समुद्र के समान अनन्त तक विस्तृत बना लो, संसार के क्षुद्र भावों के (ऐषणाओं के) परे चले जाओ, [कैसे ? ईश्वर (ब्रह्म) को जानकर हमें ईश्वर (ब्रह्म साक्षी द्रष्टा से माँ के जैसा100 %निःस्वार्थी) होना होगा !] इतना ही नहीं , अशुभ (रोग-शोक ?) आने पर भी आनन्द से उन्मत्त हो जाओ ; जगत को एक तस्वीर/फिल्म के समान देखो; और यह जानकर कि जगत की कोई वस्तु / घटना तुम्हें विचलित नहीं कर सकती , जगत के सौंदर्य का उपभोग करो ! ( मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर है।) जगत के सुख इस प्रकार हैं, जैसे छोटे -छोटे लड़के खेल करते करते कीचड़ में से काँच के मोती पा जाते हैं। जगत के सुख-दुःख के ऊपर साक्षी भाव से दृष्टि पात करो (मेरा -तेरा नहीं ईश्वर का जगत), शुभ (जन्म) और अशुभ (मृत्यु) दोनों को एक दृष्टि से देखो - दोनों ही भगवान के खेल हैं , इसलिए सभी में आनन्द का अनुभव करो। " ७/२०)         

 " Let us be God ! Make the heart like an ocean, go beyond all the trifles of the world, be mad with joy even at evil; see the world as a picture and then enjoy its beauty, knowing that nothing affects you. Children finding glass beads in a mud puddle, that is the good of the world. Look at it with calm complacency; see good and evil as the same — both are merely "God's play"; enjoy all." TUESDAY, June 25, 1895.]

2. दीपक का स्वभाव है प्रकाश देना; कोई उस प्रकाश में चावल पका रहा है, कोई जालसाजी  कर रहा है, कोई उसमें भागवत पढ़ रहा है; क्या यह प्रकाश का दोष है? अर्थात कोई भगवान के नाम का जप करके खुद को मुक्त करने की कोशिश कर रहा है, कोई उनका नाम लेकर चोरी/डकैती करने की कोशिश कर रहा है; क्या यह भगवान की गलती है?

২। প্রদীপের স্বভাব আলো দেয়া; কেউ বা তাতে ভাত রাঁধছে, কেউ জাল করছে, কেউ তাতে ভাগবতপাঠ করছে; সে কি আলোর দোষ? অর্থাৎ কেউ ভগবানের নামে মুক্তিচেষ্টা করছে, কেউ চুরি করতে চেষ্টা করছে; সে কি ভগবানের দোষ?

3. कोई व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही उसका लाभ होता है; भगवान कल्पतरु हैं। उनसे वह जो चाहता है उसे मिल जाता है। एक गरीब आदमी का बेटा पढ़-लिखकर हाई कोर्ट का जज बन जाता है और सोचता है, ''मैं बहुत सुखी -संपन्न हूं।'' भगवान भी कहते हैं, "तुम अच्छे से रहो।" फिर जब वह पेंशन लेकर घर में बैठ जाता है, तब उसे एहसास होता है कि पूरे जीवन भर मैंने किया ही क्या ? भगवान भी उस समय कहते हैं, " ठीक तो, तुमने किया ही क्या है?"

৩। যার যেমন ভাব তার তেমনি লাভ; ভগবান্ কল্পতরু। তাঁর কাছে যে যা চায়, সে তাই পায়। গরীবের ছেলে লেখাপড়া শিখে হাইকোর্টের জজ হয়ে মনে করে, "আমি বেশ আছি।" ভগবানও তখন বলেন, "তুমি বেশ থাক।" তারপর যখন সে পেনশন নিয়ে ঘরে বসে, তখন সে বুঝতে পারে এ জীবনে কল্লুম কি? ভগবানও তখন বলেন, "তাই তো, তুমি কল্লে কি?"

4. ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं; जब ब्रह्म निष्क्रिय अवस्था में (साक्षी भाव में) रहते हैं, तो उसे शुद्ध ब्रह्म कहा जाता है; और जब वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि करता है तो यह उसकी शक्ति का कार्य कहलाता है।

৪। ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ; ব্রহ্ম যখন নিষ্ক্রিয় অবস্থায় থাকেন, তখন তাঁকে শুদ্ধ ব্রহ্ম বলে; আর যখন সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় ইত্যাদি করেন, তখন তাঁর শক্তির কাজ বলে।

5. एक दिन ईश्वरीय-सत्संग में, मथुर बाबू ने ठाकुरदेव से कहा था, " भगवान को भी जगत के नियमों का पालन करना पड़ता है; अपनी इच्छा से तो वे भी सब कुछ नहीं कर सकते।" ठाकुर ने कहा - " ऐसा क्यों होने लगा ? वे तो इच्छामय हैं, इच्छा होने से वे सब कुछ कर सकते हैं। मथुर बाबू ने कहा, "अगर वह चाहे तो क्या वह इस लाल उड़हुल के पेड़ पर सफेद उड़हुल उगा सकते हैं?" ठाकुर ने कहा, " यह कौन सी बड़ी बात है, जो वे नहीं कर सकते ? अगर वे चाहें तो इसी  लाल उड़हुल के पेड़ पर सफेद फूल खिल सकते हैं।" लेकिन मथुरबाबू को उन शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद यह पाया गया कि, दक्षिणेश्वर के बगीचे में उड़हुल पेड़ की एक डाल की एक टहनी पर सफ़ेद और दूसरी टहनी पर लाल उड़हुल के फूल खिले हुए थे। ठाकुर देव ने उस जुड़ी हुई टहनी पर उड़हुल फूल के जोड़ी को लेकर मथुर बाबू को दिखाया।  मथुर बाबू को बहुत आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा "महाराज, मैं अब आपसे तर्क नहीं करूंगा।"

৫। একদিন ঈশ্বরীয় কথাপ্রসঙ্গে মথুরবাবু ঠাকুরকে বলেছিলেন, "ভগবানকেও জগতের নিয়ম মেনে চলতে হয়; তিনি ইচ্ছা করলেই সব করতে পারেন না।" ঠাকুর বললেন, "তা কেন হবে গো? তিনি ইচ্ছাময়, তিনি ইচ্ছা করলে সব করতে পারেন।" মথুরবাবু বললেন, "তিনি ইচ্ছা করলে এই লাল জবাফুলের গাছে কি সাদা জবা করতে পারেন?" ঠাকুর বললেন, "তা পারেন বই কি? তাঁর ইচ্ছা হলে এই লাল জবার গাছেই সাদা ফুল ফুটতে পারে।" কিন্তু মথুরবাবু সে কথায় ততটা যেন বিশ্বাস স্থাপন করতে পারেননি। বাস্তবিকই কয়েকদিন পরে দেখা গেল, দক্ষিণেশ্বরের বাগানে একটা জবাফুলের গাছে এক ডালে সাদা ও অপর ডালে লাল জবা ফুটে আছে। ঠাকুর ডালের গোড়াসুদ্ধ ফুল দুটো এনে মথুরবাবুকে দেখালেন। মথুরবাবু মহা আশ্চর্যান্বিত হয়ে বললেন, "বাবা, আর তোমার সঙ্গে তর্ক করব না।"

6. साकार और निराकार कैसा है -जानते हो ? जैसे पानी और बर्फ ! जब भक्ति की ठंढक से जल जम जाता है, तब वह साकार बन जाता है। और जब बर्फ पिघल कर पानी बन जाता है, तब वह निराकार हो जाता है।     

৬। সাকার এবং নিরাকার কিরূপ জান? যেমন জল আর বরফ। যখন জল জমাট বেঁধে থাকে তখনই সাকার; আর যখন গলে জল হয় তখনই নিরাকার।

7. देहत्याग करने के समय भीष्मदेव शरशय्या पर लेटे हुए थे, और उनकी आँखों से आँसू गिर रहे थे। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, "भाई, यह कैसा आश्चर्य है! पितामह, तो सत्यवादी, जितेंद्रिय, ज्ञानी और अष्टवसु में से एक बसु हैं, भी देहत्याग के समय माया वश रो रहे हैं!" यह सुनकर भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा,"कृष्ण, आप अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं उस डर से नहीं रो रहा हूं; बल्कि मैं तो इसलिए रो रहा हूं कि मैं भगवान की लीला कुछ नहीं समझ सका। जिस मधुसूदन -नाम का जाप करने से लोगों को विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है, वही मधुसूदन जब स्वयं पाण्डवों के सारथि और सखा बने हैं , फिरभी पाण्डवों के विपत्तियों का अंत नहीं है।    

৭। ভীষ্মদেব দেহত্যাগ করবার সময় শরশয্যায় শয়ন করেছিলেন, তাঁর চক্ষু হতে জল পড়েছিল। অর্জুন তা দেখে শ্রীকৃষ্ণকে বললেন, "ভাই, কি আশ্চর্য! পিতামহ, যিনি সত্যবাদী, জিতেন্দ্রিয়, জ্ঞানী ও অষ্টবসুর এক বসু, তিনিও দেহত্যাগের সময় মায়াতে কাঁদছেন!"শ্রীকৃষ্ণ ভীষ্মদেবকে একথা বলাতে তিনি বললেন, "কৃষ্ণ, তুমি বেশ জান আমি সেজন্য কাঁদছি না; এইজন্য কাঁদছি যে, ভগবানের লীলা কিছুই বুঝতে পারি না। যে মধুসূদন-নাম জপ ক'রে লোকে বিপদ থেকে উদ্ধার পায়, সেই মধুসূদন স্বয়ং পাণ্ডবদের সারথি [ও] সখারূপে রয়েছেন, তবুও পাণ্ডবদের বিপদের শেষ নেই।"

8. मथुर बाबू के साथ काशीधाम तीर्थ भ्रमण के दौरान एक दिन परमहंसदेव त्रैलंगस्वामी का दर्शन करने गये। ठाकुर ने त्रैलंग स्वामी से पूछा, "ईश्वर एक हैं, लेकिन लोग अनेक क्यों कहते हैं?" तब  त्रैलंगस्वामी मौनव्रत धारण किये हुए थे,उन्होंने ध्यानमग्न तरीके से अपनी उंगली उठाकर समझा  दिया कि यदि कोई उनका ध्यान करेगा, तो उसे समाधि में यह अनुभूति होगी कि वह एक ही है- और समाधि से वियुत्थान होने से ही अनेकता में एकता का ज्ञान होता है।  

৮। মথুরবাবুর সহিত ৺কাশীধাম দর্শনকালে পরমহংসদেব একদিন ত্রৈলঙ্গস্বামীকে দর্শন করতে যান। ঠাকুর স্বামীজীকে জিজ্ঞাসা করেন, "ঈশ্বর তো এক, তবে লোকে বহু বলে কেন?" ত্রৈলঙ্গস্বামী মৌনাবলম্বী ছিলেন, তিনি একটি অঙ্গুলি উপরে তুলে একটু ধ্যানস্থ ভাবের মতো হয়ে ইঙ্গিতে বুঝিয়ে দিলেন যে, তাঁকে ধ্যান ক'রে দেখলে বুঝতে পারা যায় যে, তিনি একই - আর বিচার করতে গেলেই বহু বুদ্ধি এসে পড়ে।

9. जो साकार (अवतार वरिष्ठ) हुए हैं, वे ही निराकार हैं ! भक्तों के लिए (नरेन्द्र के लिए-चुतर्भुजा माँ काली के) साकार रूप से अवतरित होकर वे ही दर्शन देते हैं।  (जो 'राम'  राम-लला रूप से दसरथ का बेटा, वही राम घट घट में लेटा।) जैसे महा समुद्र में सिर्फ अनन्त-अपार पानी ही पानी है, कहीं कोई कोर-किनारा नहीं दीखता, लेकिन कहीं- कहीं जहाँ अत्यधिक ठंढ से पानी जम कर बर्फ हो गया है, वही दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार भक्त की भक्तिरूपी ठंढक से अवतार वरिष्ठ के साकार रूप का दर्शन होता है। पुनः, जैसे सूर्य के उदय होने पर बर्फ पिघल जाती है और बर्फ पहले जैसा पानी बन जाता है; उसी प्रकार जब ज्ञान का सूर्य उगता है (अर्थात जब समाधि या योग में आत्म-साक्षात्कार होता है ) तब अवतार वरिष्ठ का वही साकार रूप पिघल कर पानी बन जाती है और सब कुछ निराकार [सच्चिदानन्द -Existence-Consciousness-Bliss] हो जाता है।

৯। যিনিই হয়েছেন সাকার, তিনিই নিরাকার। ভক্তের কাছে তিনিই সাকাররূপে আবির্ভূত হয়ে দর্শন দেন। যেমন মহাসমুদ্র - কেবল অনন্ত জলরাশি, কূলকিনারা কিছুই নেই, কেবল কোথাও কোথাও বেশী ঠাণ্ডায় জমে গিয়ে বরফ হয়েছে দেখা যায়। সেইরূপ ভক্তের ভক্তিহিমে সাকাররূপ দর্শন হয়। আবার সূর্য উঠলে যেমন বরফ গেলে যায় ও পূর্বের ন্যায় যেমন জল তেমনি হয়ে থাকে, তেমনি জ্ঞানসূর্য উদিত হলে সেই সাকাররূপ বরফ গলে জল হয়ে যায় ও সব নিরাকার হয়।

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शुक्रवार, 7 जून 2024

🔱🕊🏹1. "आत्म-ज्ञान " 🕊🏹 (श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -1, स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना की भूमिका 🕊🏹


🔱🕊🏹आत्म-ज्ञान🔱🕊🏹 

['Who am I'] 

(स्वरूप के विषय में जागरूकता)

1. एक संत सदैव परमानंद की अवस्था में रहते थे, किसी से बातचीत नहीं करते थे, लोग उन्हें पागल समझते थे। एक दिन एक भिखारी मोहल्ले में आया और भिक्षान्न लेकर एक कुत्ते पर बैठ कर खुद खाने लगा और कुत्ते को भी खिलाने लगा। यह देखकर बहुत से लोग वहां आ गये और उनमें से कुछ लोग उसे पागल कहकर उसका मजाक उड़ाने लगे। यह देखकर संत ने लोगों से कहा -“तुम लोग क्यों हंस रहे हो?

विष्णुपरि स्थिता विष्णुः,  

विष्णुः खादति विष्णवे। 

कथं हससि रे विष्णो ,

 सर्वं विष्णुमयं जगत्।। 

 একজন সাধু সর্বদা জ্ঞানোন্মাদ-অবস্থায় থাকতেন, কারও সহিত বাক্যালাপ করতেন না, লোকেরা তাঁকে পাগল বলে জানত। একদিন লোকালয়ে এসে ভিক্ষা করে এনে একটা কুকুরের উপর বসে সেই ভিক্ষান্ন নিজে খেতে লাগলেন ও কুকুরকে খাওয়াতে লাগলেন। তাই দেখে অনেক লোক সেখানে এসে উপস্থিত হল এবং তাদের মধ্যে কেউ কেউ তাঁকে পাগল বলে উপহাস করতে লাগল। এই দেখে সেই সাধু লোকদিগকে বলতে লাগলেন, "তোমরা হাসছ কেন?

বিষ্ণূপরি স্থিতো বিষ্ণুঃ, 

বিষ্ণুঃ খাদতি বিষ্ণবে।

কথং হসসি রে বিষ্ণো,

                                          সর্বং বিষ্ণুময়ং জগৎ।"

2.  मनुष्य  यदि स्वयं को जान ले तो वह ईश्वर को भी जान सकता है। 'मैं कौन हूं' ('Who am 'I'= 3H's) की सावधानीपूर्वक जांच करने पर पता चलता है कि 'मैं' जैसी कोई चीज नहीं है।  हाथ पैर, रक्त, मांस आदि - इनमें से 'मैं' क्या है? जैसे प्याज को छीलने पर केवल छिलका ही निकलता है, कोई सार वस्तु नहीं होता; उसी प्रकार 'नेति-नेति' विचार करने पर 'मैं' नाम की कोई चीज़ नहीं होती! अंत में जो बचता है, आत्मा-चैतन्य (Consciousness) है। जैसे ही 'मैं' और 'मेरा' का भाव (अहं बोध) लुप्त हो जाता है, तो भगवान (सच्चिदानन्द) प्रकट हो जाते हैं।

2। মানুষ আপনাকে চিনতে পারলে ভগবানকে চিনতে পারে। 'আমি কে' ভালরূপ বিচার করলে দেখতে পাওয়া যায়, 'আমি' বলে কোন জিনিস নেই। হাত, পা, রক্ত, মাংস ইত্যাদি - এর কোনটা 'আমি'? যেমন প্যাঁজের খোসা ছাড়াতে ছাড়াতে কেবল খোসাই বেরোয়, সার কিছু থাকে না, সেইরূপ বিচার কল্লে 'আমি' বলে কিছুই পাইনে! শেষে যা থাকে, তাই আত্মা - চৈতন্য। 'আমার' 'আমিত্ব' দূর হলে ভগবান্ দেখা দেন।

3. 'मैं' (अहं) दो प्रकार का होता है - एक है पका हुआ 'मैं' ( ripe ego ) और दूसरा है कच्चा (raw ego) 'मैं'मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा बेटा - ये कच्चा 'मैं' (raw-अप्रशिक्षित, बिना उबाला हुआ) हैं। और पका हुआ (ripe ego- परिपक्व,सिद्ध या उबाला हुआ) 'मैं' है - मैं उनका सेवक हूं, मैं उनकी संतान हूं, और मैं 'वही' नित्य-मुक्त-ज्ञानस्वरूप (ब्रह्म -माँ जगदम्बा) हूं।

[चार महावाक्य में से पहला है -ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि  ! इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म (ध्येय) और जीव (ध्याता) की एकता का बोध होता है। जब जीव (ध्याता) परमात्मा (ध्येय -ब्रह्म या माँ काली) का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।" (साभार -महावाक्य, विकिपीडिया)]

3. দুই রকম 'আমি' আছে - একটা পাকা 'আমি' আর একটা কাঁচা। আমার বাড়ি, আমার ঘর, আমার ছেলে - এগুলো কাঁচা 'আমি'; আর পাকা 'আমি' হচ্ছে - আমি তাঁর দাস, আমি তাঁর সন্তান, আর আমি সেই নিত্য-মুক্ত-জ্ঞানস্বরূপ।

4. किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण से पूछा, " मुझे एक शब्द से ज्ञान हो जाये, ऐसा कोई उपदेश दीजिये। " उन्होंने कहा - " ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" - इसकी धारणा करो। " इतना कहकर वे चुप हो गए।   

4। এক ব্যক্তি তাঁকে বলেছিলেন, "আমার এক কথায় জ্ঞান হয়, এমত উপদেশ দিন।" তিনি বললেন, "'ব্রহ্ম সত্য জগৎ মিথ্যা' - এইটি ধারণা কর।" ইহা বলিয়া চুপ করিয়া রহিলেন।

5. शरीर रहने तक 'मैं-पन' या मेरापन का भाव बिल्कुल समाप्त नहीं होता, कुछ-न-कुछ बचा ही रहता है। जैसे नारियल के पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं, लेकिन दाग रह जाते हैं। किन्तु यह छोटा सा 'मैं-पन' (समाधि से लौटा हुए अद्वैत बोधजन्य अहिंसा में प्रतिष्ठित मैंपन) मुक्त पुरुष (dehypnotized-सिंहशावक या साक्षी आत्मा) को मन की गुलामी (M/F शरीर भाव मैं और मेरा की आसक्ति) में बाँध नहीं सकता।     

5। শরীর থাকতে আমার 'আমিত্ব' একেবারে যায় না, একটু-না-একটু থাকেই; যেমন নারিকেল গাছের বালতো খসে যায়, কিন্তু দাগ থাকে। কিন্তু এই সামান্য 'আমিত্ব' মুক্ত পুরুষকে আবদ্ধ করতে পারে না।

6. परमहंसदेव ने नागा संन्यासी तोतापुरी से पूछा, "आपके मन की जो अवस्था है , उस सिद्धा-वस्था में में दैनिक ध्यान करना क्या आवश्यक है?" तोतापुरी ने उत्तर दिया, " यदि लोटे को प्रतिदिन माँजा नहीं जाये तो वह मलीन हो जाता है, उसी तरह नियमित ध्यान नहीं करने से चित्त (मन-अहं-बुद्धि) अपवित्र हो जाता है। इसके उत्तर में परमहंसदेव ने कहा, " यदि लोटा सोना का हो, तो वह मलीन नहीं होता।" अर्थात यदि आपको सच्चिदानंद स्वरुप की अनुभूति हो जाए तो आगे की साधना (यम-नियम 24 X 7 और आसन-पत्याहार -धारणा दो बार करने) की कोई आवश्यकता नहीं है।

6. নেংটা তোতাপুরীকে পরমহংসদেব জিজ্ঞাসা করেছিলেন, "তোমার যে অবস্থা তাতে রোজ ধ্যান করার আবশ্যক কি?" তোতাপুরী উত্তরে বলেছিলেন, "ঘটি যদি রোজ রোজ না মাজা যায়, তা হলে কলঙ্ক পড়ে। নিত্য ধ্যান না করলে চিত্ত অশুদ্ধ হয়।" পরমহংসদেব উত্তরে বল্লেন, "যদি সোনার ঘটি হয়, তা হলে পড়ে না।" অর্থাৎ সচ্চিদানন্দ লাভ করলে আর সাধনের দরকার নেই।

7. वेदान्त सार -"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" या इस अंतिम निष्कर्ष (conclusion) " जो कुछ है, सो तूँ ही है" पर दो प्रकार से पहुँचना होगा - अनुलोम और बिलोम। "जेमन खोलारई माझा ओ माझेरई खोल।"   

7. বিচার দুই প্রকার জানবে - অনুলোম ও বিলোম। যেমন খোলেরই মাঝ ও মাঝেরই খোল। 

[ ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥ [Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.

      ब्रह्म सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है (क्योंकि नित्य परिवर्तनशील होने के कारण इसे सत्य  या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।) जीव ही ब्रह्म है, उससे अलग नहीं है। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए।  इस घोषित निष्कर्ष ~ "जो कुछ है, सो तूँ ही है" पर [या वेदान्त सार -"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" या अंतिम निर्णय (conclusion] - इस निष्कर्ष पर ] दो प्रकार से पहुँचा जाता है - अनुलोम और विलोम।  छत पर चढ़ते समय "नेति-नेति " और बाद में उतरते समय "इति -इति"।  जिस  'बालू और सीमेंट' से छत बनी है, उसीकी सीढ़ियाँ भी बनी हुई हैं !  ] 

8. जब तक (शरीर रहने तक?) 'मैं-पन' (अहं) का भाव है, तब तक 'तूँ' भाव भी रहेगा। जैसे जिसको प्रकाश का ज्ञान है, उसको अन्धकार का ज्ञान भी रहता है, जिसे पाप का ज्ञान है, उसे पुण्य का भी ज्ञान है; जिसके पास अच्छी समझ (good sense) है उसके पास बुरी समझ (bad sense) भी है।

8। 'আমি'-বোধ থাকলে 'তুমি'-বোধও থাকবে। যেমন যার আলো জ্ঞান আছে, তার অন্ধকার জ্ঞানও আছে; যার পাপ জ্ঞান আছে, তার পুণ্য জ্ঞানও আছে; যার ভাল বোধ আছে, তার মন্দ বোধও আছে।

9. जिस प्रकार अपने पैरों में जूते पहनकर  कोई व्यक्ति  आसानी से कांटों पर चल सकता है, उसी प्रकार हमारा मन तत्वज्ञान का आवरण (दासोऽहं) पहनकर इस कांटों भरी दुनिया में घूम सकता है।

9. যেমন পায়ে জুতা পরা থাকলে লোকে স্বচ্ছন্দে কাঁটার ওপর দিয়ে চলে যায়, তেমনি তত্ত্বজ্ঞানরূপ আবরণ পরে মন এই কণ্টকময় সংসারে বিচরণ করতে পারে।

 http://srisriramakrishnaupadesh.blogspot.com/2018/]

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[स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित "श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" ~ आत्म-ज्ञान, ईश्वर, माया, अवतार, जीवों की विभिन्न अवस्थाएँ, गुरु-नेता -जीवनमुक्त शिक्षक, धर्म धारणा करने (उपलब्धि करने) की वस्तु है, अध्ययन या सत्य-मिथ्या निर्णय की वस्तु नहीं, संसार और साधना, साधना के अधिकारी, विभिन्न प्रकार की साधना, उत्तम -अधम भक्त, साधना में बाधक तत्व, साधना में सहायक तत्व, साधना में अध्यवसाय /दृढ़ता, व्याकुलता -सिर्फ सत्य को चुनने की व्याकुलता, भक्ति और भाव(विचार), ध्यान, 3H -अभ्यास और आहार, भगवान की कृपा, सिद्ध अवस्था, सर्वधर्म-समन्वय, कर्मफल का नियम, युगधर्म, धर्मप्रचारक का जीवन, विविध।

[सूर्य ने अँधेरा देखा ही नहीं है। आत्मा ने मृत्यु देखा ही नहीं है ! 

ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये। 

सत्चित् - सुख स्वरूपाय, स्वामिने तापहारिने !!

अर्थ:1: ॐ, संन्यासियों के राजा, स्वामी विवेकानन्द  (जो) सूर्य की तरह चमकते हैं। 2: जो सच्चिदानन्द (ब्रह्म) के आनंद की प्रकृति वाले हैं; (उन सुख स्वरूप स्वामी विवेकानन्द को) नमस्कार है, जो सांसारिक जीवन के दुखों को दूर करते हैं।]

 मिलजुल कर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता,

 उद्देश्य हमारा देश की सेवा, विवेकानन्द हमारे नेता -3 !!!  

[🔱🙏अल्मोड़ा का आकर्षण - महामण्डल ब्लॉग बुधवार, 13 मई 2020/ 

"जिनके ओजस्वी वचनों से, गूँज उठा था विश्व गगन !

वही प्रेरणा पुंज हमारे, स्वामी पूज्य विवेकानन्द - 3 !!! साभार - Amit Agrawal/]

🕊🏹श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के प्रेरक जीवन-प्रसंग 🕊🏹

 1. जो सिर्फ सत्य को चुनेगा, सत्य उसे ही चुनेगा।

 ज्ञातुं द्रष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टुं : "निवृत्ति अस्तु महाफला" को समझकर बुरी आदतों को त्याग देना महाफलदायी होता है को समझ कर जो व्यक्ति जगत की तीनों ऐषणाओं (कामिनी- कांचन और नाम-यश) में आसक्ति को पूर्णतः त्याग देगा या अनासक्त हो जायेगा, और सिर्फ सत्य (ईश्वर) को चुनेगा, सत्य उसी को चुनेगा। 
 
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥

(–मुण्डकोपनिषद् ,तृतीयो मुण्डकः,द्वितीयः खण्डः,मन्त्र-3) 

अन्वय: - अयम् आत्मा प्रवचनेन न लभ्यः। न मेधया न बहुधा श्रुतेन। एषः यं एव वॄणुते तेन लभ्यः। तस्य एषः आत्मा त्वां तनूं विवृणुते ॥
अर्थात् यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही मेधा (बुद्धि)-शक्ति और न शास्त्रों को बहुत अधिक जानने-सुनने से प्राप्य है। केवल वही 'उसे' प्राप्त कर सकता है जिसका 'यह वरण करता है; केवल उसके प्रति ही यह 'आत्मा' अपने स्वरूप का उद्घाटन करता है।
न अयम आत्मा, "प्रवचनेन लभ्यो", प्रवचन से नहीं मिलती। “न मेधया”- दूसरे से प्रवचन सुन कर नहीं मिलेगी, और अपनी मेधा से नहीं मिलेगी, अपनी बुद्धि से नहीं मिलेगी। “न बहुना श्रुतेन”- सुनलो कितना सुन सकते हो, नहीं मिलेगी। सारी श्रुतियाँ पढ़ डालो तो भी नहीं मिलेगी। किसको मिलती है? उसको जिसको ये चुनती है।

 तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं (ऐषणाओं) से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को (इन्द्रियातीत सत्य को)  जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, और नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह आत्मज्ञान (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।
स्वामी रामानुज अपने भाष्य में कहते हैं - स्मरण किया जाने वाला विषय अत्यन्त प्रिय होने से जो स्वयं भी अत्यन्त प्रियरूप है, ऐसे चिन्तन के प्रवाह को ही उपासना कहा गया है। उसी को ‘भक्ति’ कहते हैं। ‘उसी को इस प्रकार जानने वाला- विद्वान् यहाँ अर्मत हो जाता है।’ 
" भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। 
 ज्ञातुं द्रष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।’ (गीता, 11/53-54) 
।।11.54।। परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुज-रूप वाला) मैं अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जानने में, सगुणरूप से देखने में और प्राप्त करने में शक्य हूँ।
जिन तीन क्रमिक सोपानों में सत्य का साक्षात्कार होता है उसका निर्देश भगवान् इन तीन शब्दों से करते हैं जानना, देखना और प्रवेश करना
      जिसे यहां जानना शब्द से सूचित किया गया है और इसका साधन है श्रवण। इस प्रकार कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन में सन्देह उत्पन्न होते हैं, इन सन्देहों की निवृत्ति के लिए प्राप्त ज्ञान पर युक्तिपूर्वक मनन करना अत्यावश्यक होता है । सन्देहों की निवृत्ति होने पर तत्त्व का दर्शन होता है। तत्पश्चात् निदिध्यासन के अभ्यास से (विवेक-दर्शन का अभ्यास से) मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य को सर्वथा त्यागकर आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाना ही उसमें प्रवेश करना है। आत्मा का यह अनुभव स्वयं से भिन्न किसी वस्तु का नहीं वरन् अपने स्वस्वरूप का है। प्रवेश (प्रवेष्टुं) शब्द से साधक और साध्य के एकत्व का बोध कराया गया है। स्वप्नद्रष्टा के स्वाप्निक दुखों का अन्त, तब हो जाता है, जब वह जाग्रत पुरुष में प्रवेश करके स्वयं जाग्रत पुरुष बन जाता है। 
*ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का समन्वय*
कुछ अध्यात्मवाद के साधक (बौद्ध लोग?-अवतार ?) आत्मज्ञान को ही चरम लक्ष्य मानते हैं। जिस प्रकार जल की बूंद महासागर का लघु अंश होती है ठीक इसी प्रकार से आत्म ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान का छोटा सा अंश है। वे जिन्हें बूंद का ज्ञान होता है, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे महासागर की गहराई चौड़ाई और शक्ति  को जान सकें। समान रूप से जो आत्मा को समझ लेते हैं, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) को  भी जान सकते हैं। वे जिन्हें भगवान का ज्ञान  हो जाता है उन्हें स्वतः वह सब ज्ञान हो जाता है जो भगवान से संबंधित हैं। 

प्रिय के साथ तादात्म्य ही प्रेम का वास्तविक मापदण्ड है। भक्त अपने व्यक्तिगत जीवभाव (M/F)  के अस्तित्व को विस्मृत कर, जब प्रेम में अपने प्रिय भगवान् के साथ तादात्म्य को प्राप्त हो जाता है, तब उस प्रेम की परिसमाप्ति परा-भक्ति या अनन्य भक्ति कहलाती है। 
      "भगवान (अर्थात विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ) को न तो आध्यात्मिक उपदेशों, बुद्धि और न ही विभिन्न प्रकार की शिक्षाओं को सुनकर जाना जा सकता है। भगवान (ठाकुर , माँ और स्वामीजी)जब किसी पर अपनी कृपा करते हैं , तब केवल वही भाग्यशाली आत्मा उन्हें जान पाती है। " जब कोई भगवान का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह भगवान  के संबंध में सब कुछ जान लेता है। वेदों में भी उल्लेख किया गया है- “एकस्मिन् विजन्नाते सर्वमिदं विजन्नातं भवति" अर्थात “यदि तुम भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण)  को जान जाते हो तब तुम सब कुछ जान जाओगे।" 

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 🕊🏹 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🕊🏹

(Swami Vivekananda and our Potential)

(স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা) 

प्रकाशक का निवेदन : 

महामंडल के संस्थापक सचिव, श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय द्वारा  मूल रूप से बंगाली और अंग्रेजी में लिखित महामंडल की पुस्तकों और पुस्तिकाओं तथा  इसकी द्विभाषी मासिक पत्रिका - 'विवेक-जीवन' को हिंदी में अनुवाद और प्रकाशित करने का काम  झुमरीतिलैया विवेकानंद युवा महामंडल के स्थायी प्रतिनिधि (पीआर) श्री विजय कुमार सिंह  को वर्ष 1988 में सौंपा गया था। 

श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा मूल बंगला और अंग्रेजी में लिखित महामण्डल की समस्त पुस्तक -पुस्तिकाओं का हिन्दी में अनुवाद करने के फलस्वरूप इसके अनुवादक को यह अनुभव हुआ कि  "मनुष्य बनो और बनाओ " ( Be and Make)  सर्वोत्तम समाज सेवा है। तथा  'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' (স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা ) पुस्तक में इस सर्वोत्तम समाज सेवा करने की पात्रता अर्जित करने के उपाय को बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है। 

       वास्तव में यह एक अद्भुत प्रेरणादायक पुस्तक है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। क्योंकि महामण्डल के आविर्भूत होने से पहले यह कोई नहीं जानता था कि स्वामी विवेकानन्द ने संन्यासियों के लिए जैसे रामकृष्ण मठ और मिशन का आदर्शवाक्य - Motto " आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च " दिया था।  

      उसी प्रकार उन्होंने सुदूर भविष्य में  गृहस्थों के लिए गठित होने वाले (25 अक्टूबर, 1967 को गठित होने वाले) युवा महामण्डल के आदर्शवाक्य को भी बहुत पहले ही इस प्रकार लिख दिया था-"पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। ततपश्चात दूसरों को (मनुष्य- 100 % निःस्वार्थपर) बनाने में सहायता देंगे।  बनो और बनाओ - 'Be and Make' यही हमारा मूलमंत्र रहे।"('विवेकानन्द साहित्य' खण्ड-9, पृष्ठ 379)  

       इन दो छोटे-छोटे शब्दों को ही 10 खण्डों में संचित स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण कार्य  (Complete Works of Swami Vivekananda) का सारांश क्यों कहा जा सकता है। इसी बात को महामण्डल के संस्थापक सचिव पूज्य नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " (স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা) में बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है। गहराई से देखा जाये तो यह पुस्तक सभी युवाओं के लिए गीता -उपनिषद, कुरान या बाइबिल जैसी पवित्र पुस्तक प्रतीत होती है। 

 महामण्डल के समस्त हिन्दी पुस्तिकाओं के अनुवादक जब इस पुस्तक में छपे विभिन्न लेखों का अनुवाद कर रहे थे,  तब इसमें समाहित लेखों को पढ़ने के बाद यह महसूस किये कि इस पुस्तक में,  मानवजाति और पूरे समाज की उन्नति के लिए- " विशेष रूप से हिन्दी भाषी क्षेत्र की अधिकांश जनता जो अभी तक स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस,  स्वामीजी की गुरुमाता श्रीश्री माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के बाकी गुरुभाइयों से अभी तक परिचित नहीं हो सके हैं ' उन सबों की उन्नति के लिए - इस पुस्तक में ऐसी अमूल्य जीवन-दायिनी सामग्री है जिसे शीघ्रातिशीघ्र प्रकाशित करने की आवश्यकता है। इस महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल' ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया है ।  किन्तु पुस्तक की मोटाई और आर्थिक अभाव को देखते हुए इसे प्रकाशित करना सम्भव नहीं हो पा रहा था , अतएव महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से अनुमति लेकर इसे खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया ताकि यह आसानी से छपता रहे और छात्र-छात्राओं को भी कम मूल्य पर प्राप्त होता रहे। 

इस पुस्तक में दस अध्याय और एक परिशिष्ट में कुल 75 निबन्ध समाहित हैं -  

1. स्वामी विवेकानन्द - प्रेरणास्पद व्यक्तित्व एवं एकाग्र मन ( Swami Vivekananda – Inspirational personality and concentrated mind.)

2. समस्या और समाधान ( Problem and solution )

3.स्वामी विवेकानन्द एवं युवा समाज (Swami Vivekananda and youth) 

4.शिक्षा ही सभी रोगों का इलाज है (Education is the cure for all diseases)

5.धर्म और समाज (Religion and Society)

6. जीवन गठन की सामग्री (Ingredients of life building) 

7. व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म (Spirituality in practical life) 

8. मानव मस्तिष्क (Human mind/ brain) 

9. समाज और सेवा (Society and Service) 

10. विश्व मानव जाति के कल्याण के लिए भारत का कल्याण (The welfare of India for the welfare of  world mankind) 

11. परिशिष्ट (Appendix)  - एक नया युवा आन्दोलन (A New Youth Movement)

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"जनगणेर अधिकार " (सामन्य जनता के अधिकार) प्रथम संस्करण -जनवरी 1971, सप्तम पुनर्मुद्रण -जून 2011: पुस्तक प्राप्ति स्थान : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल , 6/1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, कोलकाता, उद्बोधन, अद्वैत आश्रम, बेलुड़ मठ इत्यादि। 

प्रकाशक का निवेदन - 

इस संकलन का उद्देश्य आम जनता को स्वामी विवेकानन्द के समाजवादी विचारधारा से परिचित कराना है। (कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में) स्वतंत्र भारतवर्ष ने समाजवाद को अपने राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में अपनाया है। भारत भूमि पर यदि समाजवाद को सचमुच सफल करना चाहते हों तो,हमें  भारत -आत्मा की प्रतिमूर्ति स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का अनुसरण करना होगा। 'সমাজতান্ত্রিক চিন্তার ক্ষেত্রে স্বামীজী ভারতে পথিকৃৎ।' भारत में समाजवादी विचारधारा के अग्रदूत (pioneer) थे - स्वामी विवेकानन्द। 

     यह संचयन (collection,संग्रह) सबसे पहले श्री लक्ष्मीकांत बराल, श्री बिमल घोष, श्री विश्वनाथ बोस और श्री शंकरीप्रसाद बोस द्वारा संकलित और प्रकाशित किया गया था। दूसरा संस्करण भी उनके द्वारा ही किया गया है।

इस पुस्तिका के कवर पृष्ठ पर भगिनी निवेदिता द्वारा परिकल्पित (designed) और 'वज्र निशान अंकित' जो राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया है, उसकी चित्रकारी श्री नित्यानन्द भकत द्वारा की गयी है। निवेदिता वज्र को पूर्ण आत्म-बलिदान का (100 % निःस्वार्थपरता का) प्रतीक-चिन्ह मानती थीं। 

      क्योंकि इस संचयन का उद्देश्य स्वामीजी के शक्तिदायी विचारों का प्रचार-प्रसार करना था इसीलिए प्रथम संस्करण की कीमत बहुत कम रखी गयी थी। इसलिए प्रथम संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बहुत कम समय में समाप्त हो गईं। [दीपक दा ने स्वामी स्मरणानन्द की स्मरण सभा में इस बात का उल्लेख करते हुए बताया कि -बेलुड़ मठ द्वारा प्रकाशित संचयन - "स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान" का मूल्य 25 पैसा रखा गया था और चीन के चेयर मैन की 'लाल किताब' के जवाब में महामण्डल द्वारा प्रकाशित 'जनगणेर अधिकार' का मूल्य आठ आना रखा गया था।] इसी उद्देश्य से, दूसरे संस्करण की कीमत भी कम कर दी गई है, हालांकि आकार बढ़ा दिया गया है और पुस्तक की पंक्तियों को सुन्दर अक्षरों में मुद्रित किया गया है। 

      दूसरे संस्करण की दस हजार प्रतियां समाप्त होने के बाद, द इंडियन प्रेस प्राइवेट लिमिटेड के श्री निर्मल मित्र महाशय के सौजन्य से, तीसरे संस्करण की पंद्रह हजार प्रतियां भी सरकार द्वारा आपूर्ति किए गए सस्ते कागज पर बहुत कम कीमत में उपलब्ध करवायी जा रही हैं। 

     चतुर्थ और पंचम मुद्रण के समय सस्ते दर पर कागज उपलब्ध नहीं हो सकने से अनिवार्य रूप से पुस्तक की कीमत कुछ अधिक करनी पड़ी थी। किन्तु अभी कागज का मूल्य बहुत अधिक बढ़ जाने और मुद्रण खर्च में वृद्धि होने से अनिच्छापूर्वक विगत मुद्रण की तुलना में पुस्तिका का मूल्य थोड़ा बढ़ाकर दस रुपया कर दिया गया है, इसके लिए हम खेद व्यक्त करते हैं।  

भूमिका 

1. स्वामी विवेकानन्द ने तत्कालीन भारत को उसके उत्थान के दौरान दो आवश्यक बातें दीं थी - राष्ट्रवाद और समाजवाद। भारत में राष्ट्रवाद का जन्म स्वामी जी के आगमन से पहले ही हो गया था। लेकिन वह राष्ट्रीयता आंशिक, विशेष श्रेणी में बद्ध और अत्यंत हताश थी। वह राष्ट्रवाद विचारों तक ही सीमित थी, आत्म-बलिदान तक नहीं पहुँची थी। पराधीन भारतवर्ष में आम लोगों का मन हीनता की भावना से भरा, और भविष्य की आशा - भरोसा से रहित था।  

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