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गुरुवार, 13 जून 2024

🔱🕊🏹(7) कौपीन के वास्ते - साधना में विघ्न [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -7 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🔱(कार्यसिद्धि :-अर्थात मन-मुख एक करने में व्यवधान) 🔱दादा के तीन सेवक >🕊🏹

 (7) 

🔱🕊🏹 कौपीन के वास्ते - साधना में विघ्न🔱🕊🏹 

[कार्यसिद्धि (achievement): अर्थात मन-मुख एक करने में व्यवधान)

1. जिस प्रकार टंकी (tank, हौदा) में कहीं छोटा सा छेद होने पर सारा पानी धीरे-धीरे निकल जाता है, उसी प्रकार यदि साधक में किसी 'ऐषणा' (कामिनी -कांचन -प्रसिद्धि) में थोड़ी सी भी आसक्ति हो तो सारी साधनाएँ (3H विकास के 5 अभ्यास) विफल हो जाती हैं।

১। যেমন জালার ভেতর কোনখানে একটি ছোট ছিদ্র থাকলে ক্রমে ক্রমে সব জল বেরিয়ে যায়, তেমনি সাধকের ভেতরেও একটু সংসারাসক্তি থাকলে সব সাধনা বিফল হয়ে থাকে।

2. जैसे कच्ची मिट्टी से कोई आकृति गढ़ी जा सकती है, मिट्टी के पक जाने पर कोई आकृति नहीं गढ़ी जा सकती। उसी प्रकार जिसका हृदय इन्द्रियविषयों में (भूतनी -कामिनी-कांचन में) आसक्त होकर पूरी तरह से जल गया हो -शुष्क हो गया हो, उसमें( transcendental knowledge) पारलौकिक ज्ञान अर्थात एकत्व की अनुभूति या समानुभूति, सहानुभूति आदि भाव स्फूरित नहीं होते ! 

[भक्ति हुए बिना पारमार्थिक ज्ञान ( transcendental knowledge) अर्थात वह ज्ञान जो केवल प्रतीति या भ्रम न हो । सदा ज्यों का त्यों रहनेवाला हो । नाम -रूप से भिन्न शुद्ध सत्य (सच्चिदानन्द की अनुभूति)  इन्द्रियातीत सत्य, वास्तविक या परमसत्य का ज्ञान अर्थात "आत्मज्ञान"-  सबको सुलभ नहीं हो सकता। क्योंकि विषयाशक्त ह्रदय शुष्क हो जाता है, अनुभव करने वाला ह्रदय ही आत्मसाक्षात्कार के योग्य होता है ।] 

২। কাঁচা মাটিতে গড়ন হয়, পোড়া মাটিতে আর গড়ন চলে না। যার হৃদয় একেবারে বিষয়বুদ্ধিতে পুড়ে গেছে, তাতে আর পারমার্থিক ভাব ধরে না।

3. यदि चीनी में बालू मिला हुआ हो, तो जैसे चींटियाँ बालू छोड़कर चीनी खा लेती हैं, उसी प्रकार योगी और परमहंस इस संसार में केवल 'सच्चिदानन्द' सदवस्तु (अविनाशी, अपरिवर्तनीय आत्मा या ब्रह्म) को ही ग्रहण करते हैं, और असदवस्तु (नश्वर)- जो भूतनी -कामिनी -कांचन आदि 3 ऐषणाएँ हैं, उन सब का त्याग कर देते हैं।      

৩। চিনিতে বালিতে মিশে থাকলে পিঁপড়ে যেমন বালি ফেলে চিনি খায়, তেমনি সাধু ও পরমহংসেরা এ সংসারে সদ্বস্তু যে সচ্চিদানন্দ তাঁকেই গ্রহণ করে, আর অসদ্বস্তু যে কাম-কাঞ্চন, সে সমস্ত ত্যাগ করে।

4. यदि कागज पर तेल लगा हुआ हो, तो उसके ऊपर लिखा नहीं जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य पर यदि 'भूतनी,कामिनी -कांचन' -रूपी तेल लगा हुआ होगा तो वह साधना नहीं कर पाएगा। तेल लगे कागज को चाक से रगड़ने के बाद उस पर भी लिखा जा सकता है ; इसी प्रकार शरीर-मन  में कामिनी-कांचन रूपी तेल लगा हुआ हो, तो उस पर त्याग रूपी चौक (chalk-खड़िया), रगड़ लेने के बाद साधना की जा सकती है।

৪। কাগজে তেল লাগলে তাতে আর লেখা চলে না, তেমনি জীবে কাম-কাঞ্চনরূপ তেল লাগলে তাতে আর সাধন চলে না। সে তেলমাখা কাগজ খড়ি দিয়ে ঘষে নিলে তাতে লেখা যায়, তেমনি জীবে কাম-কাঞ্চনরূপ তেল লাগলে ত্যাগরূপ খড়ি দিয়ে ঘষে নিলে তবে সাধন চলে।

5. साधक -अवस्था ऐसे लोगों की संगति बिल्कुल नहीं करनी चाहिए - जो स्वयं कभी जप-ध्यान, सतसंग -स्वाध्याय आदि नहीं करते, लेकिन दूसरों को मंदिर में ध्यान-पूजा करते देखकर उनका मजाक उड़ाते हैं। जो लोग धर्म और धार्मिक लोगों की निंदा करते हैं, उनसे बिल्कुल दूर रहना चाहिए।

[जाके प्रिय न राम-बदैही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥ (विनय-पत्रिका) 

        जिसे श्री राम-जानकी जी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो। प्रह्लाद ने अपने पिता (हिरण्यकशिपु) को, विभीषण ने अपने भाई (रावण) को और ब्रज-गोपियों ने अपने-अपने पतियों को त्याग दिया, परंतु ये सभी आनंद और कल्याण करने वाले हुए। जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्री रघुनाथ जी के ही संबंध और प्रेम से माने जाते हैं, बस अब अधिक क्या कहूँ। जिस अंजन के लगाने से आँखें ही फूट जाएँ, वह अंजन ही किस काम का? तुलसी कहते हैं कि जिसके संग या उपदेश में श्री रामचंद्र जी के चरणों में प्रेम हो, वही सब प्रकार से अपना परम हितकारी, पूजनीय और प्राणों से भी अधिक प्यारा है। हमारा तो यही मत है।] 

৫। যে সকল লোক নিজে কখন ধর্মচর্চা করে না, অন্যকেও ধ্যান [কি] পূজা করতে দেখলে ঠাট্টা-বিদ্রূপ করে, ধর্ম ও ধার্মিকদের নিন্দা করে, সাধন-অবস্থায় কখনও এরূপ লোকদের সঙ্গ করবে না। তাদের কাছ থেকে একেবারে দূরে থাকবে।

6.  गायों के झुंड में यदि कोई दूसरा जानवर आ जाए तो सभी गायें उसे सिंघ मारकर भगा देती हैं, लेकिन जब कोई गाय आती है तो उसे चाटने लगती हैं। इस प्रकार जब कोई भक्त (श्रीराम-कृष्ण देव और माँ सारदा देवी का भक्त) किसी भक्त से मिलता है, तो वे दोनों धर्मकथा सुनाते हैं, बहुत आनंदित होते हैं और एकदूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन जब कोई दिखावटी भक्त (विषयासक्त और कामिनी -कांचन का पुजारी) आता है तो वह उससे घुलता-मिलता नहीं है। 

৬। গরুর পালে যদি অন্য কোন জন্তু এসে ঢোকে তা হলে সব গরুগুলো তাকে গুঁতিয়ে তাড়িয়ে দেয়, কিন্তু গরু এলে তার সঙ্গে গা চাটাচাটি করে। সেই রকম যখন ভক্তের সঙ্গে ভক্তের দেখা হয় তখন তারা উভয়ে ধর্মকথা কয়, বড় আনন্দ করে আর হঠাৎ সে সঙ্গ ত্যাগ করতে ইচ্ছা করে না। কিন্তু বিজাতীয় লোক এলে তার সঙ্গে মেশামেশি করে না।

7. जैसे जिस तालाब में पानी कम होता है, उसका जल यदि पीना हो, तो ऊपर से धीरे-धीरे हिलाना होता है, ज्यादा जोर से नहीं हिलाया जाता है। ज्यादा जोर से हिला देने पर उसके अंदर से पांकी ऊपर उठ जाएगी और पानी गंदला हो जाएगा। उसी तरह यदि तुम सच्चिदानंद की उपलब्धि करना चाहते हो, तो गुरुवाक्य में विश्वास रखते हुए धीरे धीरे साधना करते रहो। हर समय केवल शास्त्रार्थ और तर्क-विचार मत करो। क्षुद्र या अप्रशिक्षित मन बहुत जल्दी विषयों से सम्मोहित हो जाता है। 

৭। যে পুকুরে অল্প জল, তার যেমন জল পান করতে গেলে ওপর থেকে আস্তে আস্তে নেড়ে জল খেতে হয়, বেশী নাড়তে নেই, নাড়লে তার ভেতর হতে ময়লা উঠে জল ঘোলা হয়ে যায়, তেমনি যদি সচ্চিদানন্দলাভ করতে চাও তা হলে তুমি গুরুবাক্যে বিশ্বাস ক'রে ধীরে ধীরে সাধন কর। মিছে কেবল শাস্ত্রবিচার [আর] তর্ক করো না, ক্ষুদ্র মন অল্পতেই গুলিয়ে যায়।

8. "भूतेर मुखे राम-राम" - जिस राम मंत्र से सिद्ध सरसों के दाने छिड़कने से भूत निकल जाता हो, उसी दाने में भूत ढुक कर बैठा हुआ है। जिस मन के द्वारा अपने इष्टदेव का ध्यान करना है, वह मन ही यदि विषयों में आसक्त हो जाये, तो फिर एकाग्रता का (प्रत्याहार -धारणा का) अभ्यास कैसे होगा ?   

৮। ভূত ছাড়বে কেমন ক'রে বল? যে সরষে দিয়ে ভূত ছাড়াবে তারই মধ্যে ভূত ঢুকে বসে আছে; যে মন দিয়ে সাধন-ভজন করবে তাই যদি বিষয়াসক্ত হয়ে পড়ে, তা হলে সাধন-ভজন কি ক'রে হবে?

9.>>वास्तविक उपलब्धि (প্রকৃত সাধন या Real achievement) : मन और मुख का एक हो जाना ही कार्यसिद्धि या वास्तविक उपलब्धि है। नहीं तो मुख से कहूंगा -'हे ठाकुर देव! 'आप ही मेरा सर्वस्व धन हैं !' और मन में विषयों को ही सर्वस्व मानकर बैठा हूँ (कामिनी-कांचन में घोर रूप से आसक्त हूँ) - तो ऐसे लोगों की समस्त साधना विफल हो जाती है।  

৯। মন-মুখ এক করাই হচ্ছে প্রকৃত সাধন। নতুবা মুখে বলছি, 'হে ভগবান্! তুমি আমার সর্বস্ব ধন' এবং মনে বিষয়কেই সর্বস্ব জেনে বসে রয়েছি - এইরূপ লোকের সকল সাধনাই বিফল হয়।

10. यदि मन में थोड़ी सी भी ऐषणा (कमनी-कांचन -प्रसिद्धि में आसक्ति) बची हुई है, तो ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती। जैसे धागे में एक भी रोआँ उठा हुआ तो धागा सूई के छिद्र से पार नहीं हो सकता। उसी तरह मन जब सभी प्रकार की वासनाओं से विरक्त होकर, वासनारहित होकर शुद्ध हो जाता है, तभी सच्चिदानन्द की उपलब्धि होती है।      

১০। বাসনার লেশমাত্র থাকতে ভগবানলাভ হয় না। যেমন সূতোতে একটু ফেঁসো বেরিয়ে থাকতে ছুঁচের ভেতর যায় না। মন যখন বাসনারহিত হয়ে শুদ্ধ হয়, তখনই সচ্চিদানন্দ লাভ হয়।

11. जो लोग ईश्वर (श्री रामकृष्ण देव की भक्ति) प्राप्त करने के लिए साधना-भजन करना चाहते हैं, उन्हें किसी भी हाल में कामिनी-कांचन में आसक्त नहीं होना चाहिए। जिस व्यक्ति में किसी भी कारण से कामिनी-कंचन में मोह बना हुआ है, उसे कभी कार्यसिद्धि नहीं होगी -अर्थात उसका मन और मुख कभी एक नहीं होगा। जैसे फरही भुनते समय जो दाना छिटक कर कड़ाही के बाहर गिर जाता है उस पर कोई दाग नहीं पड़ता, लेकिन यदि वह गर्म रेत के संपर्क में आ जाए तो उस पर कुछ स्थानों पर काले दाग पड़ ही जाते हैं।

১১। যারা ঈশ্বরলাভের জন্য সাধন-ভজন করতে চায় তারা যেন কোন রকমে কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত না হয়ে পড়ে, কামিনী-কাঞ্চনের সংস্রব থাকলে কোন কালেও তাদের সিদ্ধাবস্থালাভের উপায় নেই। যেমন খই ভাজবার সময় যে খইটি খোলার উপর থেকে ঠিকরে বাইরে পড়ে, তাতে কোন দাগ লাগে না, কিন্তু গরম বালির খোলায় থাকলে কোন কোন স্থানে কাল দাগ লাগে।

12. मनुष्य को अपने मन में धन, पुत्र या सम्मान पाने की इच्छा लेकर भगवान (या परम सत्य) की खोज नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति केवल सत्य (अपरिवर्तनीय सत्य) को पाने की इच्छा से भगवान से प्रार्थना करता है, उसे अवश्य ईश्वर की उपलब्धि होती है।   

১২। বিষয়, ছেলে, কিংবা মান-সম্ভ্রমের জন্য কেহ যেন কামনা ক'রে ঈশ্বরের সাধনা না করে, যে শুধু সচ্চিদানন্দ-লাভের জন্য তাঁর নিকট প্রার্থনা করে, তার নিশ্চয়ই ঈশ্বর-লাভ হয়।

13. जिस प्रकार कठौती में हवा से हिलता पानी हो तो, तो सतह में रखे चाँदी के सिक्के का सही प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार यदि मन स्थिर नहीं है, उसमें भगवान का प्रकाट्य नहीं होता। साँस लेने-छोड़ने के साथ ही साथ मन चंचल हो जाता है। इसीलिए योगी लोग पहले कुम्भक के द्वारा मन को स्थिर करके, फिर ईश्वर का ध्यान करते हैं।   

১৩। যেমন বাতাসে জল নড়লে ঠিক প্রতিবিম্ব দেখা যায় না, তেমনি মন স্থির না হলে তাতে ভগবানের প্রকাশ হয় না। নিঃশ্বাস-প্রশ্বাসের সঙ্গে সঙ্গে মন চঞ্চল হয়। এইজন্য যোগীরা আগে কুম্ভক দ্বারা মন স্থির ক'রে ভগবানের ধ্যান-ধারণা করেন।

14. जो अपने भाव के घर में चोरी नहीं करता, उसको ही सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है। अर्थात मन-मुख एक करके सरल भाव से गुरुदेव पर विश्वास करने से ही ईश्वर (सत्य) की प्राप्ति होती है।

১৪। ভাবের ঘরে যার চুরি না থাকে, তারই সচ্চিদানন্দ লাভ হয়। অর্থাৎ কেবল সরলভাবে ও বিশ্বাসেই তাঁকে পাওয়া যায়।

15. जिस प्रकार सांप को देखने पर लोग कहते हैं, "हे माँ मनसा, मुख छिपा कर रखो, और पूंछ दिखाते रहो !" उसी प्रकार जब कोई युवती दिखे तो माँ कहकर उनको नमस्कार करना उचित है, और उनके चेहरे की ओर न देखकर पैरों की ओर देखना चाहिए। तब न तो कोई प्रलोभन रहेगा और न ही गिरने का खतरा रहेगा।

[ माँ मनसा देवी -भगवान शिव और माता पार्वती की पुत्री, विषहर मां। इनके बड़े भाई भगवान कार्तिकेय और भगवान अय्यपा हैं तथा इनकी बड़ी बहन देवी अशोकसुन्दरी, और देवी ज्योति हैं। भगवान गणेश इनके छोटे भाई हैं।

১৫। যেমন সাপ দেখলে লোকে বলে থাকে, "মা মনসা, মুখটি লুকিয়ে রেখো, আর ল্যাজটি দেখিয়ো", তেমনি যুবতী স্ত্রীলোক দেখলে মা বলে নমস্কার করা উচিত ও তাদের মুখের দিকে না চেয়ে পায়ের দিকে চাইবে। তা হলে আর প্রলোভনের আর পতনের আশঙ্কা থাকবে না।

16. चाहे कोई स्त्री विद्याशक्ति हो या अविद्या- शक्ति; सभी स्त्रियाँ योगियों, संन्यासियों, और भक्त के लिए माँ आनन्दमयी का रूप ही समझी जाएंगी। 

[“विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥” - दुर्गा सप्तशती (११/६)

अर्थ :-  'हे देवि! सारी विद्याएं तुम्हारी अंशमात्र हैं। संसार की सारी स्त्रियां तुम्हारा ही रूप हैं। एकमात्र तुम्हीं मातृरूप में इस जगत् के बाहर-भीतर व्याप्त हो रही हो।' मां आपको बार-बार प्रणाम है

১৬। বিদ্যাশক্তিই হউক বা অবিদ্যাশক্তিই হউক, সাধু-সন্ন্যাসী ও ভক্তমাত্রেই সব স্ত্রীলোককে মা আনন্দময়ীর রূপ বলে জানবে।

17. जो व्यक्ति किसी नवयौवना को, किसी वीरान स्थान पर पाकर और उसे माँ कहकर वहाँ चला जा सकता है, वास्तव में उसीको त्यागी कहा जा सकता है। और जो व्यक्ति जन सभा में दिखावे के लिए त्यागी का वेश धारण करता है, उसे एक सच्चा त्यागी नहीं कहा जा सकता।  

১৭। খুব জনশূন্য স্থানে যুবতী স্ত্রীলোককে দেখে যে মা বলে চলে যেতে পারে, है তাকেই ঠিক ঠিক ত্যাগী বলা যায়, আর, যে লোক সভার মাঝখানে ত্যাগী সেজে থাকে, তাকে প্রকৃত ত্যাগী বলা যায় না।

18. अहंकार का शरीर मरकर भी नहीं मरता, जैसे बकरे सिर धड़ से अलग कर देने के बाद भी, उसका धड़ थोड़ी देर तक हिलता-डुलता रहता है।   

১৮। অভিমানের জড় মরেও মরে না, যেমন ছাগলটাকে কেটে ফেলে তার ধড় মুণ্ডু হতে পৃথক্ করলেও কিছুক্ষণ ধরে নড়তে থাকে।

19. अहंकार रहित हो जाना बहुत कठिन है। जिस प्रकार पीसा हुआ लहसुन किसी बर्तन में रख दिया जाए तो फिर उस बर्तन को सैकड़ों बार धोने पर भी उसकी गंध नहीं जाती, उसी प्रकार अहं के भी कुछ न कुछ निशान रह ही जाते हैं।

১৯। অভিমানশূন্য হওয়া বড় কঠিন। প্যাঁজ রসুনকে ছেঁচে কোন পাত্রে রেখে, তার পর পাত্রটিকে শতবার ধুয়ে ফেললেও তার গন্ধ যেমন কিছুতেই যায় না, সেই প্রকার অভিমানের লেশ কিছু না কিছু থেকে যায়।

20. वास्तविक योगी या संन्यासी के लक्षण क्या हैं, जानते हो ? कामिनी-कांचन से किसी प्रकार का कोई सम्पर्क न रहेगा। यहाँ तक कि सपने में भी कामिनी-सहवास हो रहा है, ऐसा अनुभव हो और इससे वीर्यस्खलन हो जाये, या स्वप्न में भी धन देखकर लालच उत्पन्न होता हो, तो इतने दिनों का साधन-भजन सब नष्ट हो जाता है।     

২০। ঠিক ঠিক সন্ন্যাসী বা ত্যাগীর লক্ষণ কিরূপ জান? তারা কামিনী-কাঞ্চনের কোনরূপ সংস্পর্শে থাকবে না। এমন কি, স্বপ্নেও যদি কামিনী-সহবাস হচ্ছে বলে জ্ঞান হয় এবং তদ্দ্বারা রেতঃস্খলন হয়, কিংবা অর্থের ওপর আসক্তি জন্মায়, তা হলে এত দিনের সাধন-ভজন সব নষ্ট হয়ে যায়।

21. भगवान कल्पतरु हैं।  कल्पतरु के नीचे बैठकर जो भी प्रार्थना किया जाये, उसे वही वस्तु प्राप्त हो जाती है। जब साधन-भजन द्वारा मन शुद्ध हो जाता है, तो बहुत सतर्क होकर इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है। जानते हो, कैसे ? 

    एक बार कोई व्यक्ति यात्रा करते करते हुए एक विशाल जंगल में पहुँच गया। रास्ते में धूप की गर्मी और यात्रा के कष्टों से अत्यधिक थक जाने और पसीने से लथपथ होकर, थकान दूर के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गया। और मन ही मन सोचने लगा यदि इस समय कोई अच्छा बिस्तर मिल जाता तो मैं बड़े आराम से उसपर सो जाता। उस यात्री को यह नहीं पता था कि वह एक कल्पतरु के नीचे बैठा है। जैसे ही यह इच्छा मन में जगी कि एक आरामदेह बिस्तर वहाँ आ गया।  यात्री को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उस बिस्तर पर सो गया और मन ही मन सोचने लगा, यदि इस समय कोई स्त्री आकर मेरा पैर दबाती तो मुझे बहुत सुख की नींद सो सकता था। जैसे ही मन में यह संकल्प उठा, कि एक युवती यात्री के चरणों में बैठकर उसका पैर दबाने लगी।  

      यह देख कर यात्री की खुशी का ठिकाना न रहा। तभी उसे बहुत जोरों की भूख लगी, वह सोचने लगा -अबतक तो मैंने जो चाहा वो मुझे मिल गया, तब क्या खाने के लिए कुछ नहीं मिल सकता ? ऐसा कहते ही उसके पास नाना प्रकार के खाद्यपदार्थ आ गए। पथिक उसे भरपेट खाकर उसी बिस्तर पर लेट गया और उस दिन की सभी घटनाओं के बारे में सोचने लगा। उसी समय उसके मन विचार आया कि यदि इसी समय अचानक कोई बाघ चला आये, तो क्या हो ? 

      जैसे ही मन में ऐसा विचार उठा, एक विशाल बाघ कहीं से छलांग लगाकर उसको पकड़ लिया और उसकी गर्दन से खून पीना शुरू कर दिया। अंततः उस पथिक की जीवन लीला समाप्त हो गई। इस संसार में प्राणियों (मनुष्यों) के साथ भी ठीक वैसा ही घटित होता है। ईश्वरप्राप्ति की साधना (या सत्य की खोज करते समय), भौतिक सुख, धनदौलत, व्यक्ति या पद या यश इत्यादि पाने की इच्छा करोगे तो कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा, लेकिन अन्त में बाघ आ जाने का भय भी बना रहेगा। अर्थात रोग, शोक, ताप-धोखा , मान, अपमान और विषय-भोगों का नाश रूपी बाघ सामान्य बाघ से लाख गुना अधिक कष्टदायक (painful) होता है। 

২১। ভগবান্ কল্পতরু। কল্পতরুর নিকট বসে যে যা-কিছু প্রার্থনা করে, তাই তার লাভ হয়। এই নিমিত্ত সাধন-ভজনের দ্বারা যখন মন শুদ্ধ হয়, তখন খুব সাবধানে কামনা ত্যাগ করতে হয়। কেমন জান? 

-এক ব্যক্তি কোন সময় ভ্রমণ করতে করতে অতি বিস্তীর্ণ প্রান্তরে গিয়ে উপস্থিত হয়। পথে রৌদ্রের তাপে এবং পথভ্রমণের ক্লেশে অতিশয় ক্লান্ত ও ঘর্মাক্তকলেবর হয়ে কোন একটি বৃক্ষের নিম্নে উপবেশন ক'রে শ্রান্তি দূর করতে করতে মনে মনে ভাবলে যে, এই সময়ে যদি একটি উত্তম শয্যা মেলে, তা হলে তাতে অতি সুখে নিদ্রা যাই।

   পথিক যে কল্পতরুর নিম্নে বসে ছিল, তা সে জানত না। মনে মনে যেমন এই বাসনা উঠল তৎক্ষণাৎ সেইখানে উত্তম শয্যা এসে পড়ল। পথিক অত্যন্ত আশ্চর্য হয়ে তাহাতেই শয়ন করলে ও মনে মনে ভাবতে লাগল, এই সময় যদি একটি স্ত্রীলোক এসে আমার পদসেবা করে, তা হলে অতি সুখে শয়ন করতে পারি। এই সঙ্কল্প হতে না হতেই তখনই এক যুবতী পথিকের পদতলে এসে উপবেশনপূর্বক তার সেবা করতে লাগল। 

     পথিকের এই দেখে আহ্লাদের আর সীমা রইল না। তারপর তার খুব ক্ষুধা পেতে লাগল ও সে মনে করলে যা ইচ্ছা করেছিলুম তা পেলুম, তবে কি খাবার কিছু জিনিস পাব না? বলতে না বলতে তার নিকট অমনি নানাপ্রকার খাদ্যদ্রব্য এসে জুটল। পথিক সেগুলি দিয়ে তখনই উদর পূর্ণ ক'রে সেই শয্যায় শয়নপূর্বক সেদিনকার সব ঘটনা ভাবছে; এমন সময় তার মনে হল যে এ সময় যদি হঠাৎ একটা বাঘ এসে পড়ে, তাহলেই বা কি করা যায়। 

     যেমন এইটি মনে হওয়া অমনি এক প্রকাণ্ড বাঘ লাফ দিয়ে এসে তাকে ধরলে এবং তার ঘাড় থেকে রক্ত পান করতে লাগল। অবশেষে পথিকের জীবন শেষ হল। এই সংসারে জীবেরও ঠিক এইরূপ দশা ঘটে থাকে। ঈশ্বরসাধন করতে গিয়ে বিষয়, ধন, জন অথবা মান, যশ ইত্যাদির কামনা করলে তা কিছু কিছু লাভ হয় বটে কিন্তু শেষে ব্যাঘ্রেরও ভয় থাকে। অর্থাৎ রোগ, শোক, তাপ, মান, অপমান ও বিষয়নাশরূপ ব্যাঘ্র স্বাভাবিক ব্যাঘ্র হতেও লক্ষগুণে যন্ত্রণাদায়ক।

22. किसी व्यक्ति के मन में अचानक वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया,उसने अपने नजदीकी रिश्तेदारों से कहा - "मुझे परिवार में रहना पसन्द नहीं है। [Double Bed के पलंग पर पत्नी के साथ सोना पसन्द नहीं है। ] इसी समय मैं किसी निर्जन स्थान में जाकर (महामण्डल शिविर में जाकर) ईश्वर की आराधना करूंगा।" उसके परिजन इस शुभ संकल्प में सहमत हो गये।

     तब उस व्यक्ति ने अपना घर छोड़कर, धीरे-धीरे किसी सुनसान स्थान में जाकर कठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। लगातार  बारह वर्षों तक तपस्या करने के बाद थोड़ी -बहुत सिद्धाई प्राप्त करके पुनः अपने घर वापस लौट आया। उसके अपने नाते-रिश्ते वाले इतने वर्षों बाद उसे देखा तो सबों ने  प्रसन्नता व्यक्त की और बातचीत के क्रम में उससे पूछा, " इतने समय तक तपस्या करने से तुम्हें क्या ज्ञान प्राप्त हुआ?"

   तभी वह आदमी हँसा और सामने से एक हाथी को गुजरते देखा, हाथी के पास गया और उसकी गर्दन को तीन बार छुआ और कहा, 'हाथी तुम मर जाओ', और उसके स्पर्श से हाथी मर गया; थोड़ी देर बाद जैसे ही उसने दोबारा हाथ से कहा, 'हाथी जीवित रहो', हाथी जीवित हो उठा।

   फिर वह घर के सामने वाले नदी के किनारे गया और मंत्र के बल से पानी पर चलते हुए इस किनारे से उस किनारे तक चला गया और उसी तरह पैदल चलकर नदी के उस पार पहुँच  गया। यह सब देखकर उसके भाईयों को बहुत आश्चर्य तो हुआ, लेकिन वे अपने तपस्वी भाई से कहने लगे - "भाई, हमने देखा कि हाथी मर गया और जीवित हो गया? लेकिन इससे तुम्हें क्या लाभ हुआ ?  तुमने अब तक केवल व्यर्थ ही तपस्या की है। " "इसी प्रकार बारह वर्ष तक घोर तपस्या करके तुमने नदी के इस पार से उस पार जाना करना सीख लिया;लेकिन हम उसके लिए केवल एक पैसा खर्च करते हैं। अतएव तुमने अबतक केवल व्यर्थ में समय बर्बाद किया है।" भाइयों के ऐसे व्यंग्यपूर्ण शब्द सुनकर, उसके होश ठिकाने आ गए, (यानि उसको चैतन्य हो गया ?) वह कहने लगा, सही में यह सब करके मुझे क्या मिला ? इतना कहकर वह उसी समय भगवान का दर्शन पाने के उद्देश्य से पुनः घोर तपस्या करने के लिए वन में चला गया।    

২২। এক ব্যক্তির মনে হঠাৎ বৈরাগ্যভাব উদয় হতে আত্মীয় ভাইদের নিকট বলল, "সংসার আমার ভাল লাগছে না। এখনি আমি কোন নির্জন স্থানে গিয়ে ঈশ্বর-আরাধনা করব।" তার আত্মীয়েরা এই শুভ সঙ্কল্পে সম্মতি দিল।

      উক্ত ব্যক্তি বাড়ি হতে বাহির হয়ে ক্রমে এক নির্জন স্থানে উপস্থিত হয়ে ঘোরতর তপস্যা করতে আরম্ভ করলে। ক্রমান্বয়ে বার বৎসর কাল তপস্যা ক'রে ও কিছু কিছু সিদ্ধাই লাভ ক'রে পুনরায় বাড়িতে ফিরল। তার আত্মীয়-স্বজনেরা অনেকদিন পরে তাকে দেখে সকলেই আনন্দ প্রকাশ করতে লাগল ও কথাবার্তা-প্রসঙ্গে জিজ্ঞাসা করলে, "এতদিন তপস্যা ক'রে কি জ্ঞানলাভ করলে?" 

তখন সেই ব্যক্তি ঈষৎ হাস্য ক'রে সম্মুখে একটি হাতী চলে যাচ্ছে দেখে, হাতীর নিকট গিয়ে তার গা তিনবার স্পর্শ ক'রে যেমন বললে, 'হাতী তুই মরে যা', অমনি হাতীটা তার স্পর্শে মৃতবৎ হয়ে গেল; কিছুক্ষণ পরে আবার গায়ে হাত দিয়ে যেমন বললে, 'হাতী বাঁচ্' অমনি হাতী বেঁচে উঠল।

   তারপর বাড়ির সম্মুখে নদীর ধারে গিয়ে মন্ত্রবলে এপার হতে পরপারে চলে গেল, আবার ঐভাবে নদী পার হয়ে এল। তার ভাইয়েরা এই সব দেখে খুব আশ্চর্য হল বটে, কিন্তু তপস্বী-ভাইকে বলতে লাগল - "ভাই, এতদিন কেবল বৃথা তপস্যা করেছ; হাতী মরল ও বাঁচল তাতে তোমার কি লাভ হল? 

   আর তুমি বার বছর ধরে কঠোর তপস্যা ক'রে নদী পারাপার করতে শিখেছ; আমরা এক পয়সা খরচ করে থাকি। অতএব তুমি কেবল বৃথা সময় নষ্ট করেছ।" ভাইদের নিকট এইরূপ শ্লেষপূর্ণ কথা শুনে তার যথার্থই হুঁশ হল ও সে বলতে লাগল, "যথার্থই আমার নিজের কি হল?" এই বলে তৎক্ষণাৎ ভগবানের দর্শনলাভের জন্য পুনরায় ঘোরতর তপস্যা করতে চলে গেল।

23. मनुष्य को स्वयं को चतुर नहीं समझना चाहिए - जिस प्रकार कौआ बहुत चतुर होता है, लेकिन गंदगी खाकर मर जाता है।  उसी प्रकार दुनियादारी के मामले में जो लोग बहुत अधिक चालाकी दिखाने जाते हैं, वे ही अधिक धोखा खाते हैं।

২৩. নিজেকে বেশী চতুর মনে করা উচিত নয় - যেমন কাক খুব চতুর, কিন্তু বিষ্ঠা খেয়ে মরে, তেমনি সংসারক্ষেত্রে যারা বেশী চালাকি করতে যায়, তারাই কেবল ঠকে থাকে।

24 एक दिन मैंने गंगा के किनारे खड़े होकर, एक हाथ में रुपया  और दूसरे हाथ में मिट्टी लेकर, 'मिट्टी ही रुपया है, रुपया ही मिट्टी है' कहते हुए उन दोनों को गंगा के पानी में फेंक दिया। उसके बाद मेरे मन में थोड़ा भय हुआ और सोचने लगा - माँ लक्ष्मी यदि इससे अप्रसन्न हो जायें और मुझे भोजन न दें ? उसके बाद मैंने मन ही मन में कहा, "माँ लक्ष्मी, आप ही मेरे हृदय में रहिये, मुझे आपका ऐश्वर्य नहीं चाहिए।"

২৪। একদিন গঙ্গার ধারে দাঁড়িয়ে এক হাতে একটা টাকা নিয়ে আর এক হাতে মাটি নিয়ে 'মাটিই টাকা, টাকাই মাটি', এইরূপ বিচার ক'রে উভয়কে যখন গঙ্গার জলে ফেলে দিলুম, তখন মনে একটু ভয় ও ভাবনা এল। ভাবলুম - মা লক্ষ্মী যদি রাগ করেন ও তিনি যদি খেতে না দেন। তার পরে মনে বললুম, "মা লক্ষ্মী, তুমিই আমার হৃদয়ে থাক, তোমার ঐশ্বর্য আমি চাই না।"

25. भगवान दो बार हंसते हैं। जब भाई-भाई रस्सी पकड़ कर ज़मीन का बँटवारा करते हैं और कहते हैं, " इस तरफ की जमीन मेरी है, और उस तरफ की जमीन तुम्हारी।" उस समय एक बार हँसते हैं। और दूसरी बार तब हँसते हैं , जब किसी व्यक्ति की बीमारी अच्छा होना मुश्किल है, उसके नाते -रिश्तेदार रो रहे होते हैं; लेकिन वैद्य आकर कहते हैं - "डर किस बात का है? मैं इसे ठीक कर दूंगा।" वैद्य को यह नहीं मालूम कि यदि ईश्वर मारना चाहें, तो किसकी शक्ति है कि उसकी रक्षा कर सके।

২৫। ঈশ্বর দুবার হাসেন। যখন ভায়ে ভায়ে দড়ি ধরে জমি বখরা করে নেয় আর বলে, "এ দিকটা আমার, ও ঐ দিকটা তোমার", তখন একবার হাসেন। আর একবার হাসেন যখন লোকের অসুখ কঠিন হয়ে পড়েছে, আত্মীয়স্বজনেরা সকলে কান্নাকাটি কচ্ছে, বৈদ্য এসে বলছে, "ভয় কি? আমি ভাল করে দেব।" বৈদ্য জানে না যে, ঈশ্বর যদি মারেন, তবে কার সাধ্য তাকে রক্ষা করে।

26. भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन, अष्ट-सिद्धियों में से एक भी सिद्धि रहने से तुम मेरे परम् भाव को प्राप्त नहीं कर पाओगे ।" अत: जो सच्चे भक्त और ज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी प्रकार की सिद्धि की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

২৬। শ্রীকৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, "হে অর্জুন, অষ্ট সিদ্ধির মধ্যে একটি সিদ্ধিও থাকলে পরে আমার যে সেই পরম ভাব, তা তুমি লাভ করতে পারবে না।" অতএব যারা  ঠিক ঠিক ভক্ত ও জ্ঞানী, তারা যেন কোনরূপ সিদ্ধি কামনা না করে।

27. लक्ष्मीनारायण नाम का एक मारवाड़ी सतसंगी और धनाड्य व्यक्ति ठाकुरदेव का दर्शन करने दक्षिणेश्वर आया। ठाकुर के साथ वेदांत पर लंबी चर्चा हुई। ठाकुर के साथ धार्मिक चर्चा करके और वेदांत पर उनके उपदेशों को सुनकर उन्हें बहुत आनन्द हुआ। अंत में ठाकुर से विदा लेते  समय उन्होंने कहा, ''मैं आपकी सेवा के लिए दस हजार रुपये देना चाहता हूं। ''

       जैसे ही ठाकुर ने यह सुना, उन्हें ऐसा लगा मानों उनके सिर पर जोरदार झटका लगा हो, वह लगभग बेहोश हो गए जैसे हो गए। थोड़ा सम्भल जाने पर,  अपनी घोर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए,किसी बच्चे के समान उसको सम्बोधित करते हुए कहा, "शाला, तुम हियाँसे अभी उठ जाओ। तुम हामको माया का प्रलोभन देखाता है !" उक्त माड़वाड़ी भक्त थोड़ा शर्मिन्दा हो गए और ठाकुर से बोले - " आप अभी थोड़ा कच्चा है। " इस पर ठाकुरदेव ने पूछा - कैसे हाय ?" मारवाड़ी भक्त ने कहा, "महापुरुष लोगों को खूब उच्च अवस्था प्राप्त होने से -त्याज्य और ग्राह्य एक समान हो जाता है, कोई उन्हें कुछ देता है या लेता है उससे उनके चित्तमे सन्तोष या  क्रोध कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।"

     उसकी बातों को सुनकर ठाकुर थोड़ा हँसे और उसे समझाने लगे, 'देखो, अगर शीशे पर कुछ मैले दाग लगे हों तो चेहरा ठीक से नहीं देखा जा सकता, उसी तरह जिसका मन शुद्ध हो चुका है, उस पवित्र मन पर कामिनी-कांचन का दाग लगना ठीक नहीं है।" तब उस माड़वाड़ी भक्त ने कहा, " ठीक है, आप मत लीजिये। किन्तु ये ह्रदय जो आपकी सेवा करता है, उसके नाम से ये पैसे रहेंगे, जिसे वह आपकी सेवा के लिए खर्च करेगा। " 

        तब ठाकुर ने कहा, "नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता। क्योंकि, अगर यह पैसा उसके पास जमा रहेगा, तो कभी मैं उससे कह सकता हूँ कि मैं फलां व्यक्ति को कुछ देना चाहता हूँ, या किसी अन्य वस्तु पर खर्च करने की मेरी इच्छा है। लेकिन यदि वह पैसे देना नहीं चाहे तो, उसके मन में यह अहंकार आसानी से आ सकता है कि, यह पैसा तो आपका नहीं है, उसने मेरे लिए दिया था। तो ऐसा होना भी ठीक नहीं होगा। ठाकुर की ये बातें सुनकर मारवाड़ी भक्त आश्चर्यचकित रह गए, और उनके इस अभूतपूर्व त्याग भाव को देखकर, गदगद मन से अपने  घर की ओर प्रस्थान कर गए।       

[दादा के तीन सेवक > शुभाशीष =ह्रदय ने दादा के लिए फल लेने से मन किया ? केदारदा दादा के लिए केसरी जीवन ले जाने से , मिठाई ले जाने से मना नहीं करता था , प्रसाद के रूप में बाँटना होता है। बासुदेवबाघ घर में दादा की सेवा के लिए भाभीजी के काम में सेवा करने चाहता था। ]       

২৭। লক্ষ্মীনারায়ণ নামক একজন মাড়োয়ারী সৎসঙ্গী ও ধনাঢ্য ব্যক্তি দক্ষিণেশ্বরে একদিন ঠাকুরকে দর্শন করতে আসেন। ঠাকুরের সঙ্গে অনেকক্ষণ ধরে বেদান্ত বিষয়ে আলোচনা হয়। ঠাকুরের সহিত ধর্মপ্রসঙ্গ ক'রে ও তাঁর বেদান্ত সম্বন্ধে আলোচনা শুনে তিনি বড়ই প্রীত হন। পরিশেষে ঠাকুরের নিকট হতে বিদায় নেবার সময় বলেন, "আমি দশ হাজার টাকা আপনার সেবার নিমিত্ত দিতে চাই।" 

ঠাকুর এই কথা শোনবামাত্র, মাথায় দারুণ আঘাত লাগলে যেরূপ হয়, মূর্ছাগতপ্রায় হলেন। কিছুক্ষণ পরে মহাবিরক্তি প্রকাশ ক'রে বালকের ন্যায় তাকে সম্বোধন ক'রে বললেন, "শালা, তুম্ হিঁয়াসে আভি উঠ্ যাও। তুম্ হামকো মায়াকা প্রলোভন দেখাতা হ্যায়।" উক্ত মাড়োয়ারী ভক্ত একটু অপ্রতিভ হয়ে ঠাকুরকে বললেন, "আপ্ আভি থোড়া কাঁচা হ্যায়।" ইহার উত্তরে ঠাকুর জিজ্ঞাসা করলেন, "ক্যায়সা হ্যায়।" মাড়োয়ারী ভক্ত বললেন, "মহাপুরুষ লোগোকোঁ খুব উচ্চ অবস্থা হোনেসে ত্যাজ্য গ্রাহ্য এক সমান বরাবর হো যাতা হ্যায়, কোই কুছ্ দিয়া অথবা লিয়া উসমে উনকা চিত্তমে সন্তোষ বা ক্ষোভ কুছ্ নেহি হোতা।" 

   ঠাকুর ঐ কথা শুনে ঈষৎ হেসে তাকে বুঝাতে লাগলেন, "দেখ, আর্শিতে কিছু অপরিষ্কার দাগ থাকলে যেমন ঠিক ঠিক মুখ দেখা যায় না, তেমনি যার মন নির্মল হয়েছে, সেই নির্মল মনে কামিনী-কাঞ্চন-দাগ পড়া ঠিক নয়।" ভক্ত মাড়োয়ারী বললেন, "বেশ কথা, তবে হৃদয়, যে আপনার সেবা করে, না হয় তার নামে আপনার সেবার জন্য টাকা থাক।" 

তদুত্তরে ঠাকুর বললেন, "না, তাও হবে না। কারণ, তার নিকট থাকলে যদি কোন সময় আমি বলি যে অমুককে কিছু দাও বা অন্য কোন বিষয়ে আমার খরচ করতে ইচ্ছা হয়, তাতে যদি সে দিতে না চায় তার মনে সহজেই এই অভিমান আসতে পারে যে, ও টাকা তো তোর নয়, ও আমার জন্য দিয়েছে। এও ভাল নয়।" মাড়োয়ারী ভক্ত ঠাকুরের এই কথা শুনে আশ্চর্য হলেন এবং ঠাকুরের এই অদৃষ্টপূর্ব ত্যাগভাব দেখে নিরতিশয় প্রীত হয়ে স্বস্থানে প্রস্থান করলেন।

28. पैसे का अहंकार/घमंड नहीं दिखाना चाहिये। यदि तुम कहते हैं कि मैं धनवान हूँ, तुमसे बढ़कर एक से एक अन्य कई पैसेवाले हैं। शाम ढलने के बाद जब 'जुगनू' उड़ता है तो सोचता है, मैं इस जगत को प्रकाशित कर रहा हूँ; लेकिन जैसे ही सितारे चमकते हैं, वैसे ही उसका सारा अहंकार चला जाता है। तब सितारे सोचते हैं, हम जगत को प्रकश दे रहे हैं; परन्तु बाद में जब चाँद निकला तो तारे शर्म के मारे धुँधले हो जाते हैं। कुछ देर बाद तो सितारे दिखाई भी नहीं देते। धनवान लोग यदि इस प्रकार से चिंतन करें, तो उन्हें अपने धन पर कभी घमंड नहीं होगा।

২৮। টাকার অহঙ্কার করতে নেই। যদি বল আমি ধনী, ধনীর আবার তারে বাড়া তারে বাড়া আছে। সন্ধ্যার পর যখন জোনাকী পোকা ওঠে, সে মনে করে, আমি এই জগৎকে আলো দিচ্ছি; কিন্তু যেই নক্ষত্র উঠল, অমনি তার অভিমান চলে গেল। তখন নক্ষত্রেরা মনে করে, আমরা জগৎকে আলো দিচ্ছি; কিন্তু পরে যখন চন্দ্র উঠল, তখন নক্ষত্রেরা লজ্জায় মলিন হয়ে গেল। চন্দ্র মনে করলে, আমার আলোয় জগৎ হাসছে। দেখতে দেখতে অরুণোদয় হল, তখন চন্দ্র মলিন হয়ে গেল। খানিক পরে আর দেখা গেল না। ধনীরা যদি এগুলি ভাবে, তাহলে আর তাদের ধনের অহঙ্কার থাকে না।

29. "एक कौपीन के वास्ते।" 

अपने गुरु से उपदेश लेने के बाद, किसी संत ने भगवान की आराधना करने के उद्देश्य से एक गांव के पास सुनसान जंगल में एक छोटी सी कुटिया बनाई , और उसमें रहकर पूजा-पाठ करने लगे। वे सुबह जल्दी उठ जाते थे और स्नान आदि करने के बाद अपने गीले कपड़े और कौपीन कुटिया के पास एक पेड़ पर सूखने के लिए छोड़ देते थे। जब संत भिक्षा माँगने के लिए बाहर जाते थे तो चूहे आकर उनकी कौपीन कुतर देते थे। सन्त दूसरे दिन गाँव जाकर फिर से एक नई कौपीन माँग लाते थे। 

       कुछ दिनों के बाद संत ने फिर स्नान किया और गीली कौपीन को कुटिया पर सूखने के लिए छोड़ कर भिक्षा माँगने के लिए गांव में चले गए। भिक्षा लेकर कुटिया में जब वापस आये तो देखे कि चूहों ने उनके कौपीन को कुतर कर टुकड़े -टुकड़े कर दिया है। यह देख कर वे बहुत व्याकुल हुए और सोचने लगे, “इस बार किससे कौपीन के लिए भिक्षा माँगूँ?” अगले दिन जब वे फिर भिक्षा के लिए गाँव पहुँचे तो गांव वालों को चूहों के उपद्रव के बारे में बताया। ग्रामवासियों ने पूरा विवरण सुनने के बाद कहा, "आपको हर दिन एक कौपीन कौन देगा ? आप एक काम कीजिये, एक बिल्ली पाल लीजिये, तब बिल्ली के डर से चूहे नहीं आएंगे। " संत उसी समय गाँव से एक बिल्ली का बच्चा ले आये। उस दिन से बिल्लियों के डर से चूहों का उत्पात बंद हो गया। यह देखकर संत की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

    धीरे-धीरे संत उस बिल्ली को बहुत प्यार से पालने-पोसने लगे, और गाँव में जाकर बिल्ली के  लिए भिक्षा में दूध माँगकर उसे पिलाने लगे। कुछ दिनों बाद एक व्यक्ति ने उनसे कहा, "महात्माजी, आपको तो हर दिन दूध की जरूरत होती है; आप दो-चार दिन भीख मांग कर बिल्ली को दूध पीला सकते हैं। लेकिन बारहो महीने आपको दूध कौन देगा?" आप एक काम कीजिये, एक गाय पाल लीजिये। तो उसका दूध पीकर आप भी तंदरुस्त रहिएगा , और बिल्ली को भी दूध पीला सकियेगा। कुछ ही दिनों के भीतर साधुजी के पास एक दुधारू गाय आ गई, तब  साधुजी को अब दूध के लिए भीख नहीं मांगनी पड़ती थी ।

     धीरे-धीरे साधुजी उस गाय को भूसा -बिचाली आदि खिलाने के लिए गांव में भीख मांगने लगे। तब गाँव के लोग उससे कहने लगे, “अपनी कुटिया के पास जो परती ज़मीन है, उस पर यदि खेती-बारी कीजियेगा , तो आपको फिर भूसा-बिचाली के लिए भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।”तब साधुजी सभी की सलाह पर पास की परती जमीन पर खेती करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे खेती करने -पटाने के लिए उनको मजदूर आदि को नियुक्त करना पड़ा। जब अनाज आदि इकट्ठा होने लगा, तो उसे रखने के लिए खलिहान और भण्डार घर बनाना पड़ा, फिर तो वे किसी गृहस्थ की तरह पूरी तरह व्यस्त रहकर अपना दिन बिताने लगे। 

      कुछ दिनों के बाद उस संत के गुरुजी वहाँ उपस्थित हुए। उन्होंने यह सब खेत-खलिहान देखा तो एक नौकर से पूछा, "यहाँ एक कुटिया में एक वैरागी साधु रहते थे, क्या तुम मुझे बता सकते हो कि वे अभी कहाँ मिलेंगे ?नौकर कोई उत्तर न दे सका। तब वे स्वयं उस साधु के घर में प्रविष्ट होगये, और अपने शिष्य को सामने देखकर पूछा, "बेटा, ये सब क्या है?" शिष्य शर्मिन्दा होकर गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला, "प्रभुजी, ये सब कुछ एक कौपीन के वास्ते हो गया !

    साधु ने अपने गुरुदेव को एक-एक करके प्रारम्भ से सारी कहानि सुना दी। गुरुदेव के दर्शन मात्र से उस साधु की सारी आसक्ति दूर हो गई और उन्होंने तुरंत अपनी सारी संपत्ति त्याग दी और गुरु का अनुसरण करते हुए चल दिए। 

২৯। "এক কৌপীন কা ওয়াস্তে।" একজন সাধু গুরূপদেশ নিয়ে ভগবানের সাধন-ভজন করবার উদ্দেশ্যে কোন গ্রামের কাছে একটি নির্জন প্রান্তরের মধ্যে সামান্য একটি পর্ণকুটীর ক'রে তার মধ্যে বাস করতে লাগলেন ও সাধন-ভজন করতে লাগলেন। তিনি প্রত্যহ প্রত্যূষে উঠে স্নান ইত্যাদি ক'রে তাঁর ভিজে কাপড় ও কৌপীন কুটীরের কাছে একটি গাছে শুকোবার জন্য রেখে দিতেন। সাধু যখন ভিক্ষার জন্য বেরিয়ে যেতেন, সেই সময় ইঁদুর এসে তাঁর সেই কৌপীন কেটে দিত। সাধু পরদিন গ্রামে গিয়ে আবার নূতন কৌপীন ভিক্ষা ক'রে আনতেন। অল্পদিন পরে সাধু স্নানান্তে আবার ঐ ভিজে কৌপীন কুটীরের ওপর শুকোবার জন্য রেখে দিলেন এবং ভিক্ষান্নের জন্য গ্রামে গেলেন। ভিক্ষান্তে কুটীরে ফিরে এসে দেখলেন, ইঁদুর আবার তাঁর কৌপীন টুকরো টুকরো ক'রে কেটে ফেলেছে। তিনি তাই দেখে মনে মনে বড় বিরক্ত হলেন এবং ভাবতে লাগলেন, "আবার কোথায় কার কাছে কৌপীন ভিক্ষা করব?" পরদিন আবার ভিক্ষায় বেরিয়ে গ্রামবাসীদের কাছে ইঁদুরের উপদ্রবের কথা জানালেন। গ্রামবাসীরা সমস্ত বৃত্তান্ত শুনে বল্লে, "আপনাকে রোজ রোজ কে কৌপীন দেবে? আপনি এক কাজ করুন - একটা বেড়াল পুষুন, তাহলে আর বেড়ালের ভয়ে ইঁদুর আসবে না।" সাধু তৎক্ষণাৎ গ্রাম থেকে একটা বেড়ালের বাচ্চা নিয়ে এলেন। সেই দিন থেকেই বেড়ালের ভয়ে ইঁদুরের উপদ্রব বন্ধ হল। তা দেখে সাধুর আনন্দের সীমা রইল না। ক্রমে সাধু সেই বেড়ালটাকে বেশ আদর-যত্নে লালন-পালন করতে লাগলেন এবং গ্রামে গিয়ে বেড়ালের জন্য দুধ ভিক্ষা ক'রে এনে খাওয়াতে লাগলেন। কিছুদিন পর কোন ব্যক্তি তাঁকে বললে, "সাধুজী, আপনার রোজ দুধের দরকার; দু-চার দিন ভিক্ষা ক'রে চলতে পারে। বার মাস কে আপনাকে দুধ দেবে? আপনি এক কাজ করুন, একটি গরু পুষুন, তা হলে তার দুধ খেয়ে আপনি নিজেও পরিতৃপ্ত হবেন, বেড়ালকেও খাওয়াতে পারবেন।" অল্পদিনের মধ্যেই সাধু একটি দুগ্ধবতী গাভী সংগ্রহ ক'রে নিয়ে এলেন, সাধুকে আর দুধের জন্য ভিক্ষা করতে হল না।

         ক্রমে সাধু সেই গরুর খড়-বিচিলী ইত্যাদির জন্য গ্রামে ভিক্ষা করতে লাগলেন। তখন গ্রামের লোকেরা তাঁকে বলতে লাগল, "আপনার কুটীরের নিকট পতিত জমিতে চাষ বাস করুন, তা হলে আর খড়-বিচিলীর জন্য ভিক্ষা করতে হবে না।" তখন সাধু সকলের পরামর্শে নিকটস্থ পতিত জমিতে চাষ আরম্ভ করলেন। চাষের জন্য তাঁকে ক্রমে লোক ইত্যাদি নিযুক্ত করতে হল। যখন শস্যাদি সঞ্চিত হতে লাগল, তা রাখবার জন্য গোলাবাড়ি ইত্যাদি প্রস্তুত ক'রে তিনি ঠিক গৃহস্থের মতো মহাব্যস্ত হয়ে দিন কাটাতে লাগলেন। কিছুদিন পরে সাধুটির গুরু এসে সেখানে উপস্থিত হলেন। তিনি ঐ সকল বিষয়-বৈভব দেখে একটি চাকরকে জিজ্ঞাসা করলেন, "এইখানে একটি ত্যাগী কুটীরমধ্যে থাকতেন, তিনি কোথায় গেছেন বলতে পার?" চাকরটি কোন উত্তর দিতে পারলে না। পরে তিনিই ঐ সাধুর বাড়ির মধ্যে ঢুকে সামনে তাঁর শিষ্যকে দেখতে পেয়ে জিজ্ঞাসা করলেন, "বৎস, এসব কি?" শিষ্য অপ্রতিভ হয়ে অমনি গুরুর পায়ে পড়ল এবং বলতে লাগল, "প্রভুজী, এসব এক কৌপীনকা ওয়াস্তে।" সাধুটি একে একে সব বৃত্তান্ত গুরুর নিকট বলতে লাগলেন। গুরুর দর্শনে তাঁর সকল আসক্তি কেটে গেল ও তিনি তৎক্ষণাৎ সেই সব বিষয়-সম্পত্তি পরিত্যাগ ক'রে গুরুর পশ্চাদ্গামী হলেন।

30. ठाकुर के भाँजे हृदय मुखर्जी ने एक दिन ठाकुर से कहा, "मामा जी, जब माँ काली आप पर इतनी प्रसन्न हैं, तो आप माँ से कुछ सिद्धि क्यों नहीं माँगते?" ठाकुर की अवस्था उस समय किसी बालक की तरह थी। ह्रदय की बात सुनकर वे चंपातला पुष्करिणी घाट (चम्पा तालाब?) के किनारे बैठकर किसी बालक की तरह अपनी माँ से कहने लगे, “माँ, हृदु कहता है, तू माँ से सिद्धई (occult powers-तांत्रिक शक्तियाँ)  क्यों नहीं मांगते ?” यह कहकर वे माँ काली का ध्यान करने लगे। थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने सामने देखा कि , काला कपड़ा पहने कोई मोटी स्त्री शौच करने के लिए बैठी हुई है। उसके अगले ही क्षण वे वहां से उठकर ह्रदय के पास चले गए और कहे - " शाले, तुमने मुझे कैसी बुद्धि दी है ? मैं तुम्हारी अब कोई सलाह नहीं सुनुँगा। तुम्हारी बात मानकर मैंने माँ से जैसे ही कहा कि- " माँ, हृदु मुझसे कहता है कि तुम माँ से सिद्धई क्यों नहीं माँगते ? तो माँ ने मुझे उसी क्षण ये रूप (उपरोक्त) दिखा दिया।" (अर्थात सिद्धियाँ विष्ठा के जैसी हैं। )  

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 (दादा का Best पत्र -26 November 1994)  

[विवेक-जीवन ब्लॉग :श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (49 -50) मंगलवार, 3 मार्च 2020/ / "Common Logic (बकलमा) : Family work first to do Swamiji's work." "कौपीन के वास्ते " तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा -अपना भविष्य मेरे हाथ में सौंप दो!

      "केवल गृहस्थ ही क्यों संन्यास में भी त्यागी होना बहुत ही कठिन है। श्री रामकृष्ण देव कहते थे - 'एक कौपीन के वास्ते क्या -क्या हो जाता है !' गृहस्थ के लिए यह और कठिन है, पर धीरे धीरे सम्भव हो जाता है ---मैंने अपने जीवन में खुद देखा है। " 

"शरीर ही धर्म का पहला साधन है। शरीर से ही सब कुछ मिलता है। इसीलिये शरीर को झट से न छोड़ना। दुष्ट अहम् काल में चला जायेगा। किन्तु कल्याणकारी कार्यों को करने के लिए जितने अहम् की जरूरत होती है, वह तो रहना चाहिये। "

                      फुलवरिया, बरही, हजारीबाग, बसरिया आदि से जो लड़के आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि कुछ खास काम बनने वाला है। उनको हर प्रकार से मदद देते रहना उचित होगा। 

                   "आत्मा किसी का दास नहीं है, न प्रारब्ध का न संचित का ! जब ज्ञान आ जाता है, तब कर्मबन्धन टूट जाता है। कर्मफल के बारे में कभी न सोचना। इतना मान लो कि जो अपने को ठाकुर और माँ की सन्तान समझता है, उसके लिये कर्मफल बेकार है। मैं तो उसे बिल्कुल भी नहीं मानता हूँ।

      Letter:1 March, 1995,   

        You need not try to convince everybody or look for cooperation from all. It will never come. It does not come from the world.  If you study Swamiji, you will know this

भोगे रोगभयं, कुले च्युतिभयं, वित्ते नृपालाद् भयं,

      माने दैन्यभयं, बले रिपुभयं, रूपे जराया भयम्।

      शास्त्रे वादिभयं, गुणे खलभयं, काये कृतान्ताद्भयं,

      सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

(भर्तृहरिकृत- वैराग्यशतक, श्लोक ३१)

अन्वयः

भोगे रोगभयं, कुले च्युतिभयं, वित्ते नृपालात् भयं, माने दैन्यभयं, बले रिपुभयं, रूपे जराया भयम्, शास्त्रे वादिभयं, गुणे खलभयं, काये कृतान्तात् भयम् । सर्वं वस्तु भयान्वितम् भुवि नृणां । वैराग्यं एव अभयम् ।

शब्दार्थ :

 भोगे = आनंद में (in enjoyment) ; रोगभयं = रोग का भय ( fear of disease) कुले = वंश में ( in lineage) ; च्युतिभयं = पतन का भय (fear of down-fall) ; वित्ते  = धन में ( in wealth); नृपालात् भयं = राजाओं का भय (fear of kings) ; माने  = प्रतिष्ठा में ( in prestige); दैन्यभयं = अपमान का भय (fear of humiliation); बले  = सत्ता में (in power) ; रिपुभयं = शत्रु/विरोधी का भय (fear of enemy/adversary) ; रूपे = सुन्दरता में (in beauty) ; जराया भयं  = बुढ़ापे का डर (fear of old age) ; शास्त्रे = शास्त्रीय पाण्डित्य में (in scriptural erudition) ; वादिभयं  = विद्वान विरोधियों का भय ( fear of learned opponents ); गुणे  = पुण्य में (in virtue) ; खलभयं  = दुष्ट निन्दा करने वाले व्यक्ति का भय ( fear of wicked vilifying person) ; काये = शरीर में (in body);  कृतान्तात् भयं  = यम का भय (fear of death-कृतांत = पूर्व जन्म में किए हुए शुभ और अशुभ कमों का फल । यम या  धर्मराज।  मृत्यु या शनिग्रह।) ; सर्वम्  = सभी (all) ; वस्तु =  चीज़ें (things) ; भयान्वितं = भय से भरा हुआ (filled with fear) ; भुवि = संसार में (in the world) ; नृणाम्  = मानव जाति का (of mankind) ; वैराग्यं  = अनासक्ति (detachment) या किसी से कोई अपेक्षा न रखना (non-expectation) ; एव = अकेला (alone) ; अभयम् (abhayam) = निर्भयता (fearlessness);

भावार्थ– विषय भोगों में रोगों का भय है, राठौर वंश में आचार भ्रष्टता का भय है, धन में राजा का भय है, मान मिलने में अपमान का भय है, बल प्राप्त करने पर शत्रुओं का भय है, रूप-सौन्दर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्र पढ़ने पर पराजित होने का भय है, गुण प्राप्त करने में दुष्टों द्वारा व्यर्थ की निन्दा का भय है, शरीर में मृत्यु का भय है, इस प्रकार पृथ्वी पर सारी वस्तुएं भय से युक्त हैं, केवल एक वैराग्य ही निर्भय बनाने वाला है।

( अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मान रहने पर अपमान  का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।)

"आत्मा किसी का दास नहीं है, न प्रारब्ध का न संचित का ! जब ज्ञान आ जाता है, तब कर्मबन्धन टूट जाता है। कर्मफल के बारे में कभी न सोचना। इतना मान लो कि जो अपने को ठाकुर और माँ की सन्तान समझता है, उसके लिये कर्मफल बेकार है। मैं तो उसे बिल्कुल भी नहीं मानता हूँ। 

No doubt without 'Vairagya' one can not be completely fearless . Bhartriharihari has said -वैराग्यमेवाभयम्‌॥ But even Sanyasins often are not found to have real Vairagya. So don't hurry for it. Swamiji said, 'First Bhog and then Yoga or Vairagya'. If you try Vairagya when you are not fit for it, you will lose both. That is not a good idea.

                    As you will not be allowed to do Swamiji's work without doing service to family, common logic will ask you to do family work first, so that you  can do some work for Swamiji. Self-restraint does not mean keep aloof from wife , children, parents. Who has taught you such wrong things ? Even Thakur did not say so. Lead a normal life of a householder and do Swamiji's work.

Time will come when you can detach yourself from this . I take the responsibility to guide you suitably at all times. Give me your destiny in my hands. Don't think about it again

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मंगलवार, 11 जून 2024

🔱🕊🏹6.साधना के विभिन्न प्रकार 🔱🕊🏹 [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -6 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🔱Different types of Sadhana 🔱

 6.

🕊🏹साधना के विभिन्न प्रकार 🔱🕊🏹

 1. साधक दो प्रकार के देखे जाते हैं - बन्दर का बच्चा और बिल्ली का बच्चा जैसे। बंदर का बच्चा पहले अपनी मां को पकड़ता है, बाद में उसकी माँ उसको अपने साथ इधर-उधर घुमाती रहती है। बिल्ली का बच्चा बस एक ही स्थान पर बैठ कर म्याऊं-म्याऊं करता रहता है, उसके मां की इच्छा जहाँ ले जाने की होती है, उसके गर्दन को मुख में रखकर ले जाती है। उसी तरह ज्ञानी और कर्मी श्रेणी का साधक बन्दर के बच्चे की तरह अपने पुरुषार्थ से ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। किन्तु भक्त श्रेणी के साधक  ईश्वर को (अवतार वरिष्ठ को) ही सभी कर्मों का कर्ता रूप से जानते हुए, बिल्ली के बच्चे की तरह उनके चरणों की छाया में निर्भर होकर शांति से बैठा रहता है।     

১। দুই রকমের সাধক দেখা যায় - যেমন, বাঁদরের ছানা এবং বিল্লীর ছানা। বাঁদরের ছানা আগে তার মাকে ধরে, পরে তার মা তাকে সঙ্গে ক'রে যেখানে সেখানে নিয়ে বেড়ায়। বেড়ালের ছানা কেবল এক জায়গায় বসে মিউ মিউ করতে থাকে, তার মা যখন যেখানে ইচ্ছা হয় ঘাড়ে ধরে নিয়ে যায়। তেমনি জ্ঞানী বা কর্মী সাধক বাঁদরের ছানার ন্যায় পুরুষকার দ্বারা ঈশ্বরলাভ করতে চেষ্টা ক'রে থাকে। আর ভক্ত সাধকেরা ঈশ্বরকে সকলের কর্তা জ্ঞান করে, তাঁর চরণে বিড়াল-ছানার ন্যায় নির্ভর ক'রে নিশ্চিন্ত হয়ে বসে থাকে।

2. एक ही व्यक्ति जैसे किसी का पिता, किसी का बड़का बाबू, किसी का चाचा, किसी का मौसा, किसी का जीजा , किसी का ससुर इत्यादि लगता है। यहां व्यक्ति एक होने से भी, लोगों के साथ उसके रिश्ते कई प्रकार के रहते हैं, उसी प्रकार भक्त उस एक 'सच्चिदानंद' (अवतार वरिष्ठ) की शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर आदि विभिन्न प्रकार से पूजा करता हैं।

২। এক ব্যক্তি যেমন কারও পিতা, কারও জ্যাঠা, কারো খুড়া, কারো মেসো, কারো ভগ্নীপতি, কারো শ্বশুর ইত্যাদি ইত্যাদি। এস্থলে ব্যক্তি এক হলেও কিন্তু সম্বন্ধভেদে অনেক প্রকার প্রভেদ রয়েছে, তেমনি সেই এক সচ্চিদানন্দকে ভক্তেরা শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য, মধুর প্রভৃতি নানাভাবে উপাসনা করে।

3.जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू : "जिसका जैसा विचार, उसको वैसा लाभ" #अर्थात जो जिस वस्तु को जी-जान से चाहता है, उसे वह वस्तु अवश्य मिलती है। जो जी-जान से 'उनको' चाहता है, वह 'उन्हें' (परम सत्य को) ही पाता है ! और जो उनके ऐश्वर्य की (कामिनी -कांचन की ) कामना करता है, उसको वही मिलता है। 

৩। যার যেমন ভাব, তার তেমনি লাভ হয় অর্থাৎ যে তাঁকেই চায়, সে তাঁকেই পায়। আর যে তাঁর ঐশ্বর্য্য কামনা করে, সে তাই পেয়ে থাকে। 

 ["# जेहि कें जेहि पर सत्‍य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।" अर्थात् जिसको जिस चीज से सच्चा प्रेम होता है उसे वह चीज अवश्य मिल जाती है। यानी सच्चे मन से चाही गई वस्तु अवश्य प्राप्त होती है।  उत्तम स्वास्थ्य अथवा प्रसन्नता भी इसका अपवाद नहीं। यदि हम अच्छे स्वास्थ्य व प्रसन्नता की कामना करेंगे तो परिस्थितियां अच्छे स्वास्थ्य व प्रसन्नता के अनुकूल होकर हमारी इच्छापूर्ति में सहायक हो जाएंगी।जिस प्रकार अच्छी फसल पाने के लिए उत्तम किस्म का बीज बोना अनिवार्य शर्त है, उसी तरह अन्य कुछ भी पाने के लिए उस चीज की मजबूत चाहत, यानी मन में दृढ़ इच्छा का बीजारोपण भी अनिवार्य है। जब हम कोई बीज बो देते हैं तो उससे पेड़ उगना स्वाभाविक है। बीज बो देने के बाद उसे उगने से रोकना असंभव है। बिल्कुल इसी तरह से विचार रूपी बीज को वास्तविकता में परिवर्तित होने से रोकना भी असंभव है। यदि किसी भी तरह से अच्छे विचार रूपी बीजों का मन में रोपण कर दें तो उसके परिणाम को कोई नहीं रोक पाएगा। स्पष्ट है कि जैसी चाहत होगी वैसी ही उपलब्धि होगी। जीवन को संवारना है तो अच्छी सोच अथवा शुभ संकल्प अनिवार्य हैं। तभी तो कामना की गई है कि मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो। 

यह रामचरितमानस के बालकाण्ड का प्रसंग है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि सीताराम वाटिका में एक दूसरे को देख चुके हैं। दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हैं। स्वयंवर में सीता माता घबरा रही हैं कि कहीं रामजी धनुष उठाने में चुके ना। तभी वो भगवान का ध्यान करके कहती हैं कि उनको रघुवीर की दासी बना दें अर्थात उनका मन पूर्ण समर्पित पत्नी होने का है । आगे वह सोचती हैं कि जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह तो उसे मिलता ही है इसमें क्या संदेह।यदि उनका स्नेह सत्य है तो रघुवीर उन्हें ही प्राप्त होंगे। और आगे ऐसा ही होता है। रामजी शिवधनुष ना केवल उठा लेते हैं बल्कि प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो टूट भी जाती है। इस प्रकार सीता स्वयंवर जीत कर श्रीराम जानकी के और जानकी श्रीराम की हो जाती हैं।यह सत्य भी सिद्ध हो जाता है कि सच्चा प्रेम अवश्य अपने प्रेमी को प्राप्त कर लेता है।]  

4.कोई व्यक्ति यदि राज महल में पहुँचकर  राजा से कद्दू-कोहड़ा जैसी छोटी-छोटी चीजें मांगता है, वह अत्यंत मूर्ख है। उसीतरह राजाधिराज भगवान श्रीरामकृष्ण के द्वार पर पहुँचकर भी ज्ञान-भक्ति, विवेक-वैराग्य इत्यादि रत्न की प्रार्थना न करके, अष्टसिद्धि जैसी तुच्छ वस्तु को पाने की प्रार्थना करे तो उसे अत्यन्त मूर्ख कहा जायेगा।   

৪। রাজবাড়িতে ভিক্ষা করতে গিয়ে যে লাউ, কুমড়ো ইত্যাদি সামান্য বস্তু প্রার্থনা করে, সে অতি নির্বোধ। রাজাধিরাজ ভগবানের দ্বারস্থ হয়ে জ্ঞান ভক্তি ইত্যাদি রত্ন প্রার্থনা না ক'রে অষ্টসিদ্ধাই প্রভৃতি তুচ্ছ বস্তুর নিমিত্ত যে প্রার্থনা করে সে বড়ই নির্বোধ।

5. कोई व्यक्ति भक्त है या ज्ञानी, इसे बाहर से समझना बहुत कठिन होता है। जैसे हाथी के दाँत दो प्रकार के होते हैं - जो दाँत बाहर निकला होता है, वह केवल देखने के लिए है, उससे खाया नहीं जाता। और खाने के दाँत हाथी भीतर होते हैं, जिससे वह खाता है। उसी तरह कई बार साधक अपनी असली भावना को छिपाकर, अन्य भाव प्रदर्शित करते हैं।      

৫। ভক্ত কিংবা জ্ঞানীর ভাব বাইরে থেকে বোঝা বড় কঠিন হয়ে থাকে। যেমন হাতীর দুরকম দাঁত দেখা যায় - বাইরের দাঁত কেবল দেখাবার, তার দ্বারা খাওয়া চলে না; আর এক রকম দাঁত মুখের ভেতরে আছে, তার দ্বারা খেয়ে থাকে। তেমনি অনেক সময় সাধকেরা আপনার ভাব গোপন রেখে অন্য রকম দেখান।

6. योगी दो प्रकार के होते हैं - गुप्त योगी और व्यक्त (त्रिदण्डि) योगी। जो छिपे योगी होते हैं, वे भगवान का जप-ध्यान गुप्त रूप से करते हैं, लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगने देते। और जो व्यक्त  योगी होते हैं, वे योगी होने का बाह्य चिन्ह - योगदण्ड (त्रिदण्डि) आदि धारण करते हैं और लोगों के साथ उसी प्रकार की चर्चा करते हैं। 

৬। যোগী দুই প্রকার - গুপ্ত যোগী ও ব্যক্ত যোগী। গুপ্ত যোগী যাঁরা, তাঁরা গোপনে গোপনে ভগবানের সাধন ভজন ক'রে থাকেন, লোককে আদপেও জানতে দেন না। আর ব্যক্ত যোগী যাঁরা, তাঁরা বাহ্যিক যোগদণ্ড ইত্যাদি ধারণ ক'রে লোকের সঙ্গে ঐ সব প্রসঙ্গই করে থাকেন।

[(21 सितंबर,1884), श्रीरामकृष्ण वचनामृत-92] 

श्रीरामकृष्ण - (संसारी भक्तों को देखकर) - योगी दो तरह के होते हैं । एक व्यक्त योगी और दूसरे गुप्त योगी,  प्रकट और छिपे ; राजर्षि जनक छुपे योगी थे। संसार (गृहस्थ जीवन) में गुप्त योगी होते हैं ।  उन्हें कोई समझते नहीं । संसारी के लिए मन से त्याग है,  बाहर से नहीं ।"  

जो व्यक्ति अपने मन,वचन और कर्म को अपनी शक्ति और उद्देश्य के अनुकूल नियंत्रित कर लेता है, ऐसे सनातन धर्मी सन्यासी को इन तीनो पर नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप तीन दंड धारण करने होते हैं। जिन्हें धारण कर लिए जाने के उपरांत उन्हें "त्रिदंडी" स्वामी कहा जाता है। हिन्दू धर्म के शंकराचार्य जी लोगों को इन त्रिदंडों को धारण किये हुए देखा जा सकता है। गृहस्थ (संसारी-राजर्षि जनक जैसे महामण्डल कार्यकर्ता) के लिए मन से त्याग है,  बाहर से नहीं ।  योगी दो तरह के होते हैं - प्रकट और छिपे ; राजर्षि जनक छुपे योगी थे  ! योगी दो प्रकार के होते हैं, 'प्रकट' और 'छिपे हुए'। गृहस्थ एक 'छिपा हुआ' योगी हो सकता है।उसे कोई नहीं पहचानता। गृहस्थ को बाह्य रूप से (त्याग) नहीं करना चाहिए, मानसिक रूप से ऐषणाओं (भूतनी-कामिनी-कांचन और नामयश में) अनासक्त होना चाहिए ।"]

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🔱🕊🏹5. संसार और साधना 🔱🕊🏹 ["श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -5 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित] 🔱

 🔱🕊🏹 विवाहित-जीवन और साधना🔱🕊🏹 

1. जिस प्रकार लुका-छिपी के खेल में, जो बुढ़िया को छू लेता है, उसे चोर नहीं बनना पड़ता ; उसी प्रकार भगवान (सदगुरुदेव) के चरण-कमलों को छू लेने से फिर संसार (जन्म-मृत्यु चक्र) में बद्ध नहीं होना पड़ता। जिसने बूढ़ी को छू लिया है, उसे फिर चोर नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार जिसने ईश्वर की शरण ले ली है -(सद्गुरु के माध्यम से अवतार वरिष्ठ के नाम को जपना सीख लिया है), उसे फिर कोई भी ऐषणा संसार में बद्ध नहीं कर सकती।      

১। লুকোচুরি খেলায় যেমন বুড়ী ছুঁলে চোর হয় না, সেই রকম ভগবানের পাদপদ্ম ছুঁলে আর সংসারে বদ্ধ হয় না। যে বুড়ী ছুঁয়েছে তাকে আর চোর করবার যো নেই। সংসারে সেই রকম যিনি ঈশ্বরকে আশ্রয় করেছেন, তাঁকে আর কোন বিষয়ে আবদ্ধ করতে পারে না।

2. रामप्रसाद सेन ने कहा था, संसार (गृहस्थ जीवन)  छलप्रपंच का हाट है। लेकिन अगर किसीको हरिचरणों की भक्ति  मिल जाए तो उसके लिए यही संसार फिर 'मजे की कुटिया' बन जाती है-

"एई संसार मजार कूटी।  आमि खाई दाई आर मजा लूटी। 

जनक राजा महातेजा तार किसे छीलो त्रुटि।  

से येदिक- ओदिक दूदिक रेखे खेये छीलो दूधेर बाटी।।"  

২। রামপ্রসাদ বলেছিলেন, এ সংসার ধোঁকার টাটি। কিন্তু হরিপাদপদ্মে ভক্তি লাভ করতে পারলে এই সংসারই আবার হয় 

"- মজার কুটী। আমি খাই দাই আর মজা লুটি॥

জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি।

সে এদিক ওদিক দুদিক রেখে খেয়েছিল দুধের বাটি॥"

3. किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण देव से पूछा, " क्या गृहस्थ जीवन में रहते हुए ईश्वर की भक्ति करना (चरित्रवान मनुष्य बनना) सम्भव है ?" परमहंसदेव थोड़ा मुस्कुराए और बोले, मैंने अपने गाँव में देखा है, बढ़ई की स्त्री जब चूड़ा कूटती है, तो एक हाथ ढेकी के भीतर डालकर चूड़ा निकालती है, और एक हाथ से अपने लड़के को दूध पिलाती है। उसी के बीच ग्राहक से हिसाब-किताब भी करती जाती है -'तुम्हारे ऊपर उस दिन का इतना पैसा बाकि था, आज का इतना दाम है।' उसी प्रकार वह अपने सारे काम करती जाती है, किन्तु उसका मन सदैव ढेंकी की मूसली पर रहता है, वह जानती है कि मूसली यदि हाथ पर गिर गयी तो, हाथ का कचूमर निकल जायेगा।     

৩। এক ব্যক্তি জিজ্ঞাসা করলেন, "সংসারে থেকে ঈশ্বর-উপাসনা কি সম্ভব?" পরমহংসদেব একটু হেসে বললেন, "ও দেশে দেখেছি, সব চিড়ে কোটে; একজন স্ত্রীলোক এক হাতে ঢেঁকির গড়ের ভেতর হাত দিয়ে নাড়ছে, আর এক হাতে ছেলে কোলে নিয়ে মাই খাওয়াচ্ছে, ওর ভেতর আবার খদ্দের আসছে, তার সঙ্গে হিসাব করছে - 'তোমার কাছে ওদিনের এত পাওনা আছে, আজকের এত দাম হল।' এই রকম সে সব কাজ করছে বটে, কিন্তু তার মন সর্বক্ষণ ঢেঁকির মুষলের দিকে আছে; সে জানে যে ঢেঁকিটি হাতে পড়ে গেলে হাতটি জন্মের মতো যাবে। সেইরূপ সংসারে থেকে সকল কাজ কর; কিন্তু মন রেখো তাঁর প্রতি। তাঁকে ছাড়লে সব অনর্থ ঘটবে।"

4. जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना कर सकते हैं, वही सही रूप में वीर -भाव के साधक हैं। (दादा के पितामह जैसा वीरभाव से (तंत्र) साधना कर सकते हैं)जिस प्रकार कोई मजबूत  पुरुष अपने सिर पर लाईट का बोझ लेकर भी, बरात के डांस की तरफ गर्दन घुमा सकता है, उसी प्रकार एक वीर साधक, गृहस्थी  का बोझ अपनी गर्दन पर लेकर ईश्वर की ओर देखता है। 

(गुरु की खोज में 1986 हरिद्वार कुम्भ मेला निकल जाता है वहाँ ठाकुर-माँ -देवराहा बाबा को देखने के बाद वापस आने के बाद  27 मई, 1987 को सद्गुरु से दीक्षा के बाद चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग सीखने, बेलघड़िया कैम्प जाता है।)

৪। সংসারের মধ্যে বাস ক'রে যিনি সাধনা করতে পারেন, তিনিই ঠিক বীর সাধক। বীরপুরুষ যেমন মাথায় বোঝা নিয়ে আবার অন্য দিকে তাকাতে পারে, বীর সাধক তেমনি এ সংসারের বোঝা ঘাড়ে ক'রে ভগবানের পানে চেয়ে থাকে।

5. हिंदुस्तानी (हिन्दी भाषी) स्त्रियाँ पनघट से पानी लाते समय अपने सिर पर ४/५ पानी से भरे घड़े रखकर चलती हैं। रास्ते में सखी सहेलियों के साथ गप करती हैं, सुख-दुःख की बातें करती हैं, लेकिन उनका मन सिर पर रखे घड़ों पर ही लगा रहता है, कहीं वे गिर नहीं जायें। धर्ममार्ग के पथिक लोगों को भी हर परिस्थिति में भी, अपने मन पर ऐसी ही सतर्क -दृष्टि रखनी चाहिए, कहीं  मन भूतनी -कांचन में फंस कर, अपने पथ (चरित्रवान मनुष्य बनने) से च्युत तो नहीं हो रहा है।

৫। হিন্দুস্থানী মেয়েরা মাথায় ক'রে ৪।৫ টি জলভরা কলসী নিয়ে যায়। পথে আত্মীয় লোকদের সঙ্গে গল্প করে, সুখ-দুঃখের কথা কয়, কিন্তু তাদের মন থাকে মাথার কলসীর ওপর, যেন সেটি পড়ে না যায়। ধর্মপথের পথিকদেরও সকল অবস্থার ভেতরে ঐ রকম দৃষ্টি রাখতে হবে, মন যেন তাঁর পথ থেকে পড়ে না যায়।

6. जैसे बाउल दोनों हाथों से अलग-अलग वाद्ययंत्र बजाता है और मुँह से गाता है; हे सांसारिक प्राणी! इसी तरह तुम लोग अपने हाथों से सभी कर्मों को करते रहो, लेकिन मुख से सर्वदा ईश्वर का नाम जपना मत भूलो।  

৬। বাউল যেমন দুহাতে দুরকম বাজনা বাজায় ও মুখে গান করে, হে সংসারী জীব! তোমরাও তেমনি হাতে সমস্ত কাজকর্ম কর, কিন্তু মুখে সর্বদা ঈশ্বরের নাম জপ করতে ভুলো না।

7. जिस प्रकार कोई चरित्र-भ्रष्ट स्त्री अपने ससुराल वालों के बीच रहते हुए घर के सभी कार्य करती है, लेकिन उसका मन अपने प्रेमी (उप पति) में ही लगा रहता है। वह कार्य करते समय हमेशा यही सोचती है कि वह कब अपने प्रेमी से मिलेगी; तुमलोग भी गृहस्थी का काम करते समय  यही देखना जिससे तुम्हारा मन हमेशा ईश्वर में लगा रहे। [कब काम समाप्त हो और माँ-ठाकुर, स्वामीजी के पास दौड़ जाऊँ ?]         

৭। নষ্ট স্ত্রীলোক যেমন আত্মীয়-স্বজনের মধ্যে থেকে সংসারের সব কাজ করে কিন্তু মন পড়ে থাকে উপপতির ওপর - সে কাজ করতে করতে সর্বদা ভাবে যে কখন তার সঙ্গে দেখা হবে; তোমাদেরও সংসারের কাজ করতে করতে মন সর্বদা যেন ভগবানের দিকে পড়ে থাকে।

8. निर्लिप्त होकर संसार में कैसे रहा जाता है , जानते हो ? जैसे पाँकि में रहने वाली मछली रहती है। वह पाँकि में रहती है, किन्तु उसके शरीर पर कीचड़ लग नहीं पाती।   

৮। নির্লিপ্তভাবে সংসার করা কি রকম জান? পাঁকাল মাছের মতন। পাঁকাল মাছ যেমন পাঁকের মধ্যে থাকে কিন্তু তার গায়ে পাঁক লাগে না।

9. तराजू का जो पलड़ा भारी होता है वह नीचे झुक जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। मनुष्य का मन भी एक तराजू की दो पलड़ों तरह है - एक तरफ संसार है, दूसरी तरफ भगवान है। जिस मन पर संसार के मान-बड़ाई इत्यादि पाने का भार अधिक है, उसका मन ईश्वर से हटकर संसार की ओर झुक जाता है। और जिस मन पर विवेक-वैराग्य और ईश्वर भक्ति का भार अधिक होता है उसका मन संसार से हटकर ईश्वर की ओर झुक जाता है।

৯। দাঁড়িপাল্লার যে দিক্ ভারী হয় সেই দিক্ ঝুঁকে পড়ে, আর যে দিক্ হাল্কা হয় সেই দিক্ ওপরে উঠে যায়। মানুষের মন দাঁড়িপাল্লার ন্যায় - তার এক দিকে সংসার, আর এক দিকে ভগবান্। যার সংসার, মান-সম্ভ্রম, ইত্যাদির ভার বেশী হয়, তার মন ভগবান্ থেকে উঠে গিয়ে সংসারের দিকে ঝুঁকে পড়ে; আর যার বিবেক-বৈরাগ্য ও ভগবদ্ভক্তির ভার বেশী হয়, তার মন সংসার থেকে উঠে গিয়ে ভগবানের দিকে ঝুঁকে পড়ে।

10. एक व्यक्ति दिन भर गन्ने के खेत की सिंचाई करता है, और शाम को खेत में जाकर देखता है कि खेत में एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचा है। थोड़ी ही दूरी पर क्यारी में कई छिद्र थे, जिसे होकर सारा पानी दूसरी और बह गया था। उसी प्रकार जो व्यक्ति सांसारिक वासनाओ (भूतनी और कांचन), सांसारिक मान -बड़ाई लूटने की तरफ अपना मन लगा कर, साधना करता है, अन्त में देखता है कि सारी साधना ऐषणाओं के छेद से निकल गया है।        

১০। একজন সমস্ত দিন ধরে আখের ক্ষেতে জল ছেঁচে শেষে ক্ষেতে গিয়ে দেখল যে এক ফোঁটা জলও ক্ষেতে যায়নি, দূরে কতকগুলি গর্ত ছিল তা দিয়ে সমস্ত জল অন্যদিকে বেরিয়ে গেছে। সেই রকম যিনি বিষয়বাসনা, সাংসারিক মান-সম্ভ্রম ইত্যাদির দিকে মন রেখে সাধন করেন, শেষে দেখতে পাবেন যে ঐ সকল বাসনারূপ ছেঁদা দিয়ে তাঁর সমুদয় বেরিয়ে গেছে।

11। जैसे कोई लड़का एक हाथ से खूँटा पकड़ कर दनदनाकर घूमता रहता है, उसको गिरने का थोड़ा भी भय नहीं होता। किन्तु उसका मन निरन्तर खूँटे पर ही लगा रहता है, वह जानता है कि उसने खूँटा ज्यों ही छोड़ा कि वह गिर पड़ेगा। संसार के कार्यों को करते समय ईश्वर की ओर मन लगा कर सभी कार्य करो, किन्तु मन सर्वदा ईश्वर में ही लगा रहे, तब गिरने की कोई आशंका नहीं होगी।       

১১। বালক যেমন এক হাত দিয়ে খোঁটা ধরে বন্ বন্ ক'রে ঘুরতে থাকে, একবারও ভয় করে না, কিন্তু তার মন সেই খোঁটার দিকে সর্বদা পড়ে আছে - সে মনে জানে যে, খোঁটাটি ছাড়লেই আমি পড়ে যাব; সংসারেও সেই রকম ভগবানের দিকে মন রেখে সকল কাজ কর, কিন্তু মন যেন তাঁর প্রতি সর্বদা থাকে; তা হলে নিরাপদে থাকবে।

12. बहुत से लोग संसार में सुख की प्राप्ति के लिए अनेक धर्म-कर्म करते रहते हैं, किन्तु जरा-सा कष्ट मिलने पर या मृत्यु के क्षण में सब कुछ भूल जाते हैं। जैसे तोता दिन भर 'राधाकृष्ण' (या 'सीता-राम') कहता रहता है, लेकिन जब बिल्ली उसका गर्दन  पकड़ लेती है तो राधाकृष्ण भूलकर टायं, टायं करने लगता है।  

১২। সংসারে সুখের লোভে অনেকে ধর্মকর্ম ক'রে থাকে, একটু দুঃখকষ্ট পেলে কিংবা মরবার সময় তারা সব ভুলে যায়; যেমন টিয়া পাখি এম্নে সমস্ত দিন রাধাকৃষ্ণ বলে, কিন্তু বেড়ালে যখন ধরে, তখন রাধাকৃষ্ণ ভুলে গিয়ে নিজের বোল 'ক্যাঁ ক্যাঁ' করতে থাকে।

13. नाव पानी में रहे तो कोई हानि नहीं है, लेकिन नाव में पानी नहीं घुसना चाहिए, नहीं तो नाव डूब जायेगी। उसी तरह साधक संसार (घर-परिवार) में रहे तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन साधु के मन में संसार (घर-परिवार के प्रति) आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए।

১৩। জলে নৌকা থাকে ক্ষতি নেই, কিন্তু নৌকার ভেতর যেন জল না ঢোকে, তা হলে ডুবে যাবে। সাধক সংসারে থাকুক ক্ষতি নেই কিন্তু সাধকের মনের ভেতর যেন সংসারভাব না থাকে।

14. परिवार में आसक्ति कैसी है? जैसे अमड़ा की चटनी, उसके छिलके के भीतर गूदा नहीं होता, केवल आठी और छिलका ही रहता है, अधिक खाने से एसिडिटी बढ़ जाती है।    

১৪। সংসার কেমন? যেমন আমড়া - শাঁসের সঙ্গে খোঁজ নেই, কেবল আঁটি আর চামড়া; খেলে হয় অম্লশূল।

15. जैसे कटहल तोड़ते समय लोग पहले अपने हाथों पर अच्छीतरह से तेल मल लेते हैं, वैसा करने से कटहल की गोंद की हाथ से चिपकती नहीं है। उसी प्रकार संसार (घर-परिवार, स्त्री-पुत्र) रूपी कटहल का उपभोग यदि ज्ञान (=आत्मज्ञान) रूपी तेल लगाकर किया जाय तो  कामिनी/ भूतनी -कांचन रूपी गोंद की कोई दाग मन पर (चित्त पर) नहीं छप सकेगी।       

১৫। যেমন কাঁঠাল ভাঙতে গেলে লোকে আগে বেশ ক'রে হাতে তেল মেখে নেয় তা হলে আর হাতে কাঁঠালের আঠা লাগে না; তেমনি এই সংসাররূপ কাঁঠালকে যদি জ্ঞানরূপ তেল হাতে মেখে সম্ভোগ করা যায়, তা হলে কামিনীকাঞ্চনরূপ আঠার দাগ আর মনে লাগতে পারবে না।

16. यदि कोई सामान्य व्यक्ति सांप को पकड़ने की कोशिश करें तो वह तुरंत उसको काट लेगा, लेकिन जो व्यक्ति विष को झाड़ने का मंत्र जानता है, वह सात प्रकार के सांपों को गले से पकड़ कर अच्छा खेल दिखा सकता है।  इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति गुरु-शिष्य परम्परा में सत-असत विवेक और वैराग्य/(भक्ति) रूपी विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण  लेने के बाद विवाहित जीवन में जाए, उसको फिर विवाहित जीवन या सांसारिक मायामोह (ऐषणाओं का आकर्षण) उसको बन्धन में नहीं डाल सकता।   

১৬। সাপকে ধরতে গেলে তখনই তাকে দংশন ক'রে দেবে, কিন্তু যে ব্যক্তি ধুলোপড়া জানে, সে সাতটা সাপকে ধরে গলায় জড়িয়ে বেশ খেলা দেখাতে পারে; তেমনি বিবেকবৈরাগ্যরূপ ধুলোপড়া শিখে কেউ যদি সংসার করে, তাকে আর সাংসারিক মায়া-মমতায় আবদ্ধ করতে পারে না।

17. जिसकी जैसी भावना अंदर होती है, वह उनकी वाणी में बाहर आ जाती है; जैसे जब कोई मूली खाता है, तो उसकी डकार से भी मूली की गन्ध निकलती है। इसी प्रकार जब सामान्य गृही लोग सन्यासियों से सत्संग करने जाते हैं, तब अपने सांसारिक विषयों की चर्चा करने में ही अधिक रूचि दिखाते हैं।   

১৭। ভেতরে যার যে ভাব থাকে, তার কথাবার্তায় তা বেরিয়ে পড়ে; যেমন মূলো খেলে তার ঢেকুরে মূলোর গন্ধ বেরোয়। তেমনি সংসারী লোকেরা সাধুসঙ্গ করতে এসে বিষয়ের কথাই বেশী কয়ে থাকে।

18सब कुछ जानने वाला मन ही है। ज्ञान कहो या अज्ञान कहो, सब मन की अवस्थाएँ हैं। मनुष्य मन से बंधा हुआ और मन से  ही मुक्त है। मनुष्य मन से ही संत है और मन (ह्रदय) से ही बेईमान है, मन से पापी है और मन से ही पुण्यात्मा है। यदि सांसारिक प्राणी (विवाहित स्त्री पुरुष) अपने मन में सदैव ईश्वर का स्मरण (अर्थात अवतार वरिष्ठ का स्मरण) कर सकें, तो उन्हें किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं है।

১৮. মনই সব জানবে। জ্ঞানই বলো আর অজ্ঞানই বলো, সবই মনের অবস্থা। মানুষ মনেই বদ্ধ ও মনেই মুক্ত, মনেই সাধু এবং মনেই অসাধু, মনেই পাপী ও মনেই পুণ্যবান। সংসারী জীব মনেতে সর্বদা ভগবানকে স্মরণ-মনন করতে পারলে তাদের আর অন্য কোন সাধনের দরকার হয় না।

19. जिनको ज्ञान (डिग्री नहीं आत्मज्ञान) प्राप्त हो जाता है, वे दुनिया में किस प्रकार रहते हैं, जानते हो ? जैसे शीशे के कमरे में बैठने से भीतर और बाहर दोनों तरफ देख सकते हैं।   

क्या आप जानते हैं कि जब वे ज्ञान प्राप्त करते हैं तो वे दुनिया में कैसे रहते हैं? उदाहरण के लिए, यदि आप सेर्सी के कमरे में बैठते हैं, तो आप अंदर और बाहर दोनों देख सकते हैं।

১৯। জ্ঞানলাভ হলে তারা সংসারে কি রকম ভাবে থাকে জান? যেমন সার্সির ঘরে বসে থাকলে ভেতরের ও বাহিরের - দুই দেখতে পায়।

20. गीता पढ़ने से जो होता है, वही बारह बार लगातार 'गीता' शब्द का उच्चारण करने-'गी तागी तागी तागी' से उसका अर्थ समझ में आता है या नहीं ? हे जीव, समस्त ऐषणाओं का त्याग करके भगवान के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करो !(अर्थात अवतार वरिष्ठ का नाम बताने वाले सद्गुरु के पदपद्मों का आश्रय ग्रहण करो !)     

২০। গীতা পড়লে যা হয় আর দ্বাদশবার 'গীতা' শব্দ উচ্চারণ করলে তাই বোঝায়, যেমন - 'গী তাগী তাগী তাগী'। কি না হে জীব! সব ত্যাগ ক'রে ভগবানের পাদপদ্ম আশ্রয় কর।

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स्वामी ब्रह्मानन्द (21 जनवरी 1863 - 10 अप्रैल 1922) :

 रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के प्रथम अध्यक्ष, स्वामी ब्रह्मानन्द का संन्यासी जीवन से पहले का नाम 'राखाल चंद्र घोष' था। उनका  जन्म 24 परगना जिले के बशीरहाट से कुछ ही दूर एक गांव में एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता आनंद मोहन घोष एक जमींदार थे। उनकी माँ एक धर्मपरायण महिला और श्री कृष्ण की भक्त थीं। इसीलिए जब  21 जनवरी 1863 को उनका जन्म हुआ तब अपने बेटे का नाम राखाल (जिसका अर्थ है चरवाहे श्री कृष्ण का साथी ) रखा था। दुर्भाग्य से, जब वे केवल पाँच वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। इसके तुरंत बाद, उनके पिता ने दूसरी पत्नी से विवाह कर लिया, जिसने राखाल का पालन-पोषण किया।

      विद्यार्थी के रूप में  राखाल अपनी प्रखर बुद्धि के लिए प्रसिद्द थे। लेकिन बचपन से ही वे जीवन के विविध विषयों को जानने में रूचि रखते थे। शारीरिक दृष्टि से वे अपनी उम्र के औसत बालकों से बहुत अधिक बलिष्ठ थे। कुश्ती या खेल में उनके साथियों को उनसे मुकाबला करना बहुत कठिन प्रतीत होता था। वे गाँव के अनेक खेलों में भाग लेते थे और उनमें अद्वितीय कौशल दिखाते थे। 

      लेकिन केवल खेल-कूद करने में ही उनका पूरा समय व्यतीत नहीं होता था। उनके घर के  पास ही माँ काली का एक मंदिर था। राखाल अक्सर मंदिर के प्रांगण में देखे जाते थे। कभी-कभी वे अपने साथियों के साथ माँ काली की पूजा करने का खेल भी खेलते थे। कभी-कभी वे स्वयं माता की मिट्टी की सुन्दर प्रतिमा बनाकर, उनकी पूजा में लीन रहते थे। छोटी उम्र से ही राखाल को देवी-देवताओं में बड़ी श्रद्धा थी। पारिवारिक दुर्गा पूजा के समय वे  शांत और स्थिर बैठा पूजा समारोह देखते रहते थे। या अँधेरे के समय जब संध्या-आरती हो रही होती तो राखाल बड़ी भक्ति से माँ की प्रतिमा के सामने खड़ा दिखाई देते थे।

       अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद राखाल को 1875 में कलकत्ता के अंग्रेजी हाई स्कूल में भर्ती कराया गया। कलकत्ता में, वे नरेंद्रनाथ के संपर्क में आये,जो उस इलाके के लड़कों के नेता थे, जिन्हें बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से जाना गया। नरेंद्र ने अपनी प्रखर बुद्धि और जन्मजात नेतृत्व क्षमता के द्वारा उनके ऊपर अपना प्रभाव डाला और उन्हें उस मार्ग पर ले गए जो उन्हें सही लगता था। विनम्र, शांत और कोमल स्वभाव के होने के कारण, राखाल आसानी से उनके प्रभाव में आ गए और दोनों के बीच ऐसी घनिष्ठ मित्रता विकसित हुई, जो दक्षिणेश्वर में एक ही गुरु के शिष्यत्व में परिणत हुई, और जिसके दूरगामी परिणाम सामने आए। राखाल और नरेंद्र अपने अन्य साथियों के साथ एक ही व्यायामशाला में शारीरिक व्यायाम करते थे। और यह नरेंद्र ही थे जो राखाल को ब्रह्म समाज में ले गए, जहाँ उन्होंने किसी भी मूर्ति की पूजा न करने का शपथ लिया।  इस अवस्था में राखाल की जन्मजात धार्मिक प्रवृत्तियाँ और अधिक स्पष्ट रूप से सामने आने लगीं। वे अक्सर जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करते हुए पाये जाते थे। और उनका मन किशोरावस्था से ही 'शाश्वत सत्य ' (परम सत्य ) को जानने के लिए एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलीश के जैसा लालायित रहता था।  

संन्यासी  जीवन की शुरुआत

        स्वामी रामकृष्णानंद जी के अनुसार गुरुदेव  (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के जीवनकाल में ही एक दिन स्वामी विवेकानंद, या जैसा कि उन्हें तब नरेंद्रनाथ कहा जाता था, श्री रामकृष्ण के पास आए और कहा,  हमने राखाल राज को ही अपना राजा बनाया है। फिर उपस्थित अपने गुरुभाइयों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, वे हमारे राजा हैं, हम सभी लोग उनकी प्रजा हैं - जिस पर श्री रामकृष्ण ने बहुत संतोष व्यक्त किया। उस समय से स्वामी ब्रह्मानंद को उनके गुरुभाई राजा, और बाद में राजा महाराज के नाम से पुकारते हैं, और रामकृष्ण संघ में उन्हें इस विशिष्ट उपाधि से जाना जाता है। और सम्मान के कारण कभी भी उनके नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है। 

     स्वामी रामकृष्णानंद ने यह भी कहा है कि हममें से कोई भी श्री रामकृष्ण के साथ उतनी आत्मीयता से नहीं घुला-मिला, जितना वे थे। गुरुदेव ने हमेशा स्वामी ब्रह्मानंद को अपने आध्यात्मिक पुत्र के रूप में देखा, जिन्हें माँ काली ने विशेष रूप से उनके शरीर की देखभाल करने के लिए भेजा था।  इस अंतरंग संगति के दौरान श्री रामकृष्ण ने अपने प्रिय बालक को उस महान् उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित किया जिसे वे भविष्य में पूरा करने वाले थे। 

       अपने प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में राखाल से विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यास करवाने के अलावा, उसे दुर्लभ मात्रा में सांसारिक ज्ञान भी प्रदान किया, जिसने बाद में स्वामी को किसी भी अवसर पर समर्थ होने में सक्षम बनाया, तथा उसकी प्रतिभा को वह असाधारण बहुमुखी प्रतिभा प्रदान की। उदाहरण के लिए, गुरुदेव ने राखाल को भी यह सिखा दिया था कि,  'उनकी' दृष्टि से किसी व्यक्ति के चरित्र को कैसे परखा जाता है ? तथा सभी जानते हैं कि इस अंतर्दृष्टि के माध्यम से वे अपने संन्यासी भाइयो के व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण के संबंध में उत्पन्न होने वाली विविध समस्याओं का किस प्रकार से पूर्ण कौशल के साथ समाधान कर सकते थे।  जिसके वे प्रमुख थे तथा असंख्य भक्तगण जो उनसे लौकिक  और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सलाह और मार्गदर्शन चाहते थे। 

        प्रकृति ने उनके चरित्र में एक और आकर्षक तत्व प्रदान किया था, और वह थी उनकी बालसुलभ सरलता। एक बार श्री रामकृष्ण उनके इस गुण से इतने प्रभावित हुए कि वे ' ओह तुम कितने सरल हो! अरे, मेरे जाने के बाद तुम्हारी देखभाल कौन करेगा!" यह कहते हुए रो पड़े।  जैसा कि पहले उल्लेखित प्रमाण से हमें ज्ञात है कि यह देखकर बहुत खुशी हुई कि श्री रामकृष्ण की इस स्नेहपूर्ण चिंता का सभी गुरुभाइयों  ने किस तरह से जवाब दिया और उनका जीवन भर बहुत ख्याल रखा। 

     स्वामी विवेकानंद ने  कहा था - माँ जगदम्बा  ऐसे आध्यात्मिक व्यक्तित्व वाले लोगों के माथे पर अपने हाथ से लिख देती हैं कि समस्त प्रकृति को उनका सम्मान करना चाहिए, और प्रकृति सहज रूप से उनका पालन करती है!

      1886 में श्री रामकृष्ण के निधन के बाद, स्वामी ब्रह्मानंद ने मठ के बाहर छह साल से अधिक समय बिताया, साधना की और एक घुमक्कड़ साधु का जीवन व्यतीत किया, जिसमें अधिकांश समय उनके साथ एक शिष्य भाई भी था। इस अवधि के दौरान उन्होंने उत्तर भारत के कई पवित्र स्थानों का दौरा किया और काठियावाड़ में द्वारका तक गए। इस प्रकार उन्हें देश की स्थिति और इस छोटे से महाद्वीप में व्याप्त विश्वासों और मतों की अनंत विविधता का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिला। 

      यद्यपि वे जन्म से ही एक शानदार जीवन के आदी थे, क्योंकि वे 24-परगना जिले के बशीरहाट के एक जमींदार के पुत्र थे, उन्होंने त्याग के नए जीवन के प्रति अद्भुत अनुकूलनशीलता दिखाई, जिसे उन्होंने श्री रामकृष्ण के आह्वान पर सहर्ष अपनाया था, और भौतिक आवश्यकताओं के बारे में नहीं सोचा, पूरे समय धर्म के सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे उन्होंने हमेशा मानवीय आकांक्षाओं का सर्वोच्च लक्ष्य माना था। श्री रामकृष्ण ने अपने शिष्य के मन के उत्कृष्ट गुणों को पहचान लिया था और उनका वर्णन निम्नलिखित शानदार शब्दों में किया था।

   वे नित्य-सिद्ध हैं, ईश्वर-कोटि हैं। वे उन असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने अपनी साधना पूरी कर ली है और किसी पिछले जन्म में लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है, और जिनकी इस जीवन में आध्यात्मिक साधनाएँ अनावश्यक हैं, क्योंकि वे केवल अपनी पिछली उपलब्धियों को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं। उनका पृथ्वी पर आगमन मानव जाति को शिक्षा देने के लिए है। ये शुद्ध आत्माएँ भगवान के अवतार में उनके अनुचर हैं।

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शनिवार, 8 जून 2024

🔱🕊🏹🔱3. अवतार और सिद्ध पुरुष 🏹4. सदगुरु-🏹 🔱(श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -3, 4 :स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹

  3.

🔱🕊🏹 अवतार और सिद्ध पुरुष 🔱 🕊🏹 

  1. जब मोटी लकड़ी का कुन्दा नदी की पानी में तैरता है तो कितने ही लोग उस पर सवार होकर पार हो सकते हैं। वह इससे डूबता नहीं है। किन्तु हल्की सी लकड़ी पर यदि कौआ भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है। उसी तरह जब अवतार आदि आते हैं, तो सैकड़ों लोग उसके सहारे भवसागर से तर जाते हैं। जबकि सिद्ध व्यक्ति केवल अपने कष्टों को ही दूर कर पाता है।     

১। বড় বড় বাহাদুরী কাঠ যখন ভেসে আসে, তখন কত লোক তার ওপরে চড়ে চলে যায়। তাতে সে ডোবে না। সামান্য একখানা কাঠে একটা কাক বসলে অমনি ডুবে যায়। তেমনি যখন অবতারাদি আসেন কত শত লোক তাঁকে আশ্রয় ক'রে তরে যায়। সিদ্ধ লোক নিজে কষ্টেসৃষ্টে যায় মাত্র।

2. मालगाड़ी का इंजन स्वयं तो चलता ही है और अपने साथ कितनी मालगाड़ि के डिब्बों को भी  खींचता है; उसी प्रकार अवतार अपने साथ हजारों हजार लोगों को ईश्वर के निकट ले जाते हैं।  

২। রেলের ইঞ্জিন আপনি চলে যায় ও কত মালবোঝাই গাড়ি টেনে নিয়ে যায়; অবতারেরাও সেই রকম সহস্র সহস্র লোকদের ঈশ্বরের নিকট নিয়ে যান।

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4.

🏹सदगुरु🏹

[मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक]

1. गुरु (नेता) एक है लेकिन उपगुरु अनेक हो सकते हैं। जिस किसी से भी कुछ शिक्षा पायी जा सकती हो , उन्हें उपगुरु कहा जा सकता है। भागवत में कहा गया है एक अवधूत ने 24 उपगुरुओं को वरण किया था।

১। গুরু এক কিন্তু উপগুরু অনেক হতে পারে। যাঁর কাছে কিছু শিক্ষা পাওয়া যায়, তাঁকেই উপগুরু বলা যেতে পারে। ভাগবতে আছে, অবধূত এইরূপ ২৪টি উপগুরু করেছিল।
2. एक दिन मैदान से गुजरते समय अवधूत ने देखा कि एक दूल्हा बड़ी शान से ढोल -बाजों के साथ सामने से चला आ रहा था। और दूसरी तरफ एक व्याध एक टक होकर अपने लक्ष्य पर निशाना लगाए हुए है, बाराती और दूल्हे की ओर उसका ध्यान थोड़ा भी नहीं भटका। अवधूत ने ब्याध को प्रणाम किया और कहा, "आप मेरे गुरु हैं। जिस समय मैं भगवान के ध्यान में बैठूँ, तो उनके प्रति ऐसा ही लक्ष्य सधा रहे।"

২। একদিন মাঠের ওপর দিয়ে যেতে যেতে অবধূত দেখতে পেলে সামনে ঢাক ঢোল বাজাতে বাজাতে খুব জাঁকজমক ক'রে একটি বর আসছে, আর এক দিকে এক ব্যাধ একমনে আপনার লক্ষ্যের দিকে চেয়ে আছে, এত জাঁক ক'রে যে বর আসছে, সেদিকে একবারও চেয়ে দেখছে না! অবধূত সেই ব্যাধকে নমস্কার ক'রে বললে, "তুমি আমার গুরু। যখন আমি ভগবানের ধ্যানে বসব তখন যেন তাঁর প্রতি ঐরূপ লক্ষ্য থাকে।"

3. एक आदमी मछली पकड़ रहा था, तभी अवधूत ने उसके पास आकर पूछा, "भाई, मैं किस रास्ते से अमुक स्थान पर जाऊँ?" उस समय उसकी बंसी के काँटों में फँसे चारे को मछली खा रही थी, उसने उसकी बातों का उत्तर न देकर उसे घूरकर देखा। मछली जब फँस गयी तब मछली पकड़ने वाले ने सिर घुमा कर पूछा “आप क्या कह रहे थे?” अवधूत ने नतमस्तक होकर कहा, "आप मेरे गुरु हैं, जब मैं अपने इष्टदेव का दर्शन (विवेक-दर्शन) का अभ्यास करने की इच्छा से ध्यान में बैठूं, तो ऐसे ही कार्य को पूरा किए बिना -अर्थात विवेक-स्रोत को उद्घाटित किये बिना अपना मन दूसरी ओर न लगाऊं।"

৩। একজন মাছ ধরছে, অবধূত তার কাছে গিয়ে জিজ্ঞাসা করলে, "ভাই, অমুক জায়গা কোন্ পথ দিয়ে যাব?" সে ব্যক্তির ফাতনায় তখন মাছ খাচ্ছে; সে তার কথায় কোন উত্তর না দিয়ে একমনে ফাতনার দিকে তাকিয়ে রইল। মাছ গেঁথে তখন পেছন ফিরে বললে, "আপনি কি বলছেন?" অবধূত প্রণাম ক'রে বললে, "আপনি আমার গুরু, আমি যখন আপনার ইষ্টের ধ্যানে বসব, তখন যেন এরূপ কাজ শেষ না ক'রে অন্যদিকে মন না দিই।"
4. एक चील्ह अपने मुँह में मछली लेकर उड़ रहा था, इसलिए सैकड़ों कौवे उसके पीछे-पीछे उड़ने लगे। और उस चील्ह उसे धक्का और चोंच मारकर उसे तंग करके मछली खींच लेने की कोशिश करने लगे। वह जहां भी जाता, सारे कौवे काँव -काँव करते उसके पीछे-पीछे उड़ने लगे। अंत में तंग आकर उसने वह मछली गिरा दी, और जैसे ही दूसरा चील्ह आया और उसे मुख से पकड़ा, सभी कौवे पहले चील्ह को छोड़कर उसके पीछे उड़ने लगे। पहला चील्ह निश्चिन्त हो गया और एक पेड़ की शाखा पर चुपचाप बैठ गया। अवधूत ने उस चील्ह को सुरक्षित स्थिति में बैठे देखकर प्रणाम करके बोला , " इस जगत की उपाधियों से तादात्म्य को त्याग देने में ही शान्ति है, नहीं तो भारी विपत्ति का सामना करना पड़ेगा। " 
  
৪। একটা চিল একটা মাছ মুখে ক'রে আসছে, তাই দেখে শত শত কাক-চিল তার পেছনে লাগল। তাকে ঠুকরে কামড়ে বিরক্ত ক'রে কেড়ে নেবার চেষ্টা করলে। সে যেখানে যায় সব কাক-চিলগুলো চেঁচাতে চেঁচাতে তার পেছনে যেতে আরম্ভ করলে। শেষে সে বিরক্ত হয়ে মাছটা ফেলে দিলে, আর একটা চিল এসে যেমন নিলে, সব কাক-চিলগুলো প্রথম চিলটাকে ছেড়ে তার পেছনে যেতে লাগল। প্রথম চিলটি নিশ্চিন্ত হয়ে এক গাছের ডালে চুপ ক'রে বসে রইল। অবধূত সেই চিলের নিরাপদ অবস্থা দেখে প্রণাম ক'রে বললে, "এ সংসারে উপাধি ফেলে দিতে পারলেই শান্তি, নতুবা মহা বিপদ।"

5. किसी तालाब में एक बगुला किसी मछली को लक्ष्य करके धीरे -धीरे पकड़ने जा रहा था, और उस बगुले के पीछे एक व्याध उस पर तीर का निशाना लगा रहा था, लेकिन बगुला उस व्याध की और नहीं देख रहा था। अवधूत ने बगुले को प्रणाम किया और कहा, "जब मैं ध्यान करने बैठूं , तो मैं भी ऐसे ही कहीं न देखूं।"

৫। একটি জলাশয়ে এক বক আস্তে আস্তে একটা মাছের দিকে লক্ষ্য ক'রে ধরতে যাচ্ছে, পেছনে এক ব্যাধ সেই বকটিকে লক্ষ্য করছে, কিন্তু বক সে দিকে ভ্রূক্ষেপ করছে না। অবধূত সেই বককে নমস্কার ক'রে বললে, "আমি যখন ধ্যান করতে বসব, তখন যেন ঐরকম চেয়ে না দেখি।"

6. अवधूत का एक और गुरु मधुमक्खी थी। मधुमक्खियों ने कई दिनों तक मेहनत करके शहद को संचय करना शुरू कर दिया। कहीं से एक आदमी आया और उसने मधुमक्खी के छत्ते को  तोड़ दिया और शहद खा लिया। मधुमक्खी बहुत मिहनत से संचय किये हुए धन का उपभोग नहीं का सकीं। यह देखा कर अवधूत ने मधुकर को प्रणाम किया और कहा, " भगवन, आप मेरे गुरु हैं, मैंने आपसे यह सीखा कि संचय करने का परिणाम क्या होता है। "

৬। অবধূতের আর একটি [গুরু] ছিল মৌমাছি। মৌমাছি অনেক দিন ধরে কষ্ট ক'রে মধু সঞ্চয় করতে লাগল। কোথা থেকে একজন মানুষ এসে চাক ভেঙ্গে মধু খেয়ে গেল। তার অনেক দিন ধরে সঞ্চয়ের ধন সে উপভোগ করতে পারলে না। অবধূত তা দেখে মধুকরকে নমস্কার ক'রে বললে, "ঠাকুর, তুমি আমার গুরু, সঞ্চয় করলে পরিণামে কি হয় আমি তা তোমার নিকট হতে শিখলাম।"

7. "गुरु मिले लाखों-लाख, चेला मिले नहीं एक।" लेक्चर देने वाले तो बहुत मिलते हैं, लेकिन अपने उपदेश के अनुसार कार्य करने वाले  लोग बहुत कम मिलते हैं।

৭। "গুরু মিলে লাখ লাখ, চেলা না মিলে এক।" উপদেষ্টা অনেক পাওয়া যায়, কিন্তু উপদেশমত কার্য করে, এইরূপ লোক অতি অল্প মেলে।

8. यदि किसी में सच्ची लगन है और उसे साधना-भजन की आवश्यकता महसूस होती हो, तो ईश्वर उसको निश्चित ही उसके सद्गुरु से मिलवा देते हैं; सच्चे साधक (सत्यार्थी) को गुरु की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

৮। যদি কারও ঠিক ঠিক অনুরাগ আসে ও সে সাধন-ভজনের প্রয়োজন মনে করে তা হলে নিশ্চয়ই তিনি তার সদ্গুরু জুটিয়ে দেন; গুরুর জন্য সাধকের চিন্তা করবার দরকার নেই।

9. वैद्य तीन प्रकार के होते हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। जो वैद्य आता है और बिना यह पूछे कि मरीज ने दवा ली है या नहीं, सिर्फ नाड़ी दबाकर कहता है 'दवा खा लेना ', वह अधम श्रेणी का है। और जो वैद्य रोगी को औषधि लेते हुए नहीं देखता, तब बहुत मीठे शब्दों से समझाता है और 'दवा लेना अच्छा रहेगा' आदि कहता है, वह औसत दर्जे का वैद्य होता है। और जो वैद्य यह देखता है कि रोगी किसी प्रकार दवा खा ही नहीं रहा है, यह देखकर उसकी छाती पर घुटने को रखकर जबरन मुख में दवाई उड़ेल देता है , वही उत्तम श्रेणी का वैद्य है।    

৯। বৈদ্য তিন প্রকার - উত্তম, মধ্যম ও অধম। যে বৈদ্য এসে কেবল নাড়ী টিপে 'ঔষধ খেও' বলে চলে যায়, রোগী ঔষধ খেলে কি না খেলে তার কোন খোঁজ-খবর না নেয়, সে অধম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য রোগী ঔষধ খাচ্ছে না দেখে অনেক মিষ্টি কথায় বুঝায় ও 'ঔষধ খেলে ভাল হবে' ইত্যাদি বলে, সে মধ্যম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য রোগী কিছুতেই খাচ্ছে না দেখে বুকে হাঁটু দিয়ে জোর ক'রে ঔষধ খাওয়ায়, সে-ই উত্তম বৈদ্য। সেইরূপ যে গুরু বা আচার্য ধর্মশিক্ষা দিয়ে শিষ্যের কোন খোঁজ-খবর না নেন সে গুরু বা আচার্য অধম; আর যিনি শিষ্যদের মঙ্গলের জন্য বারবার বুঝাতে থাকেন যাতে তাঁর উপদেশ সব ধারণা করতে পারে এবং ভালবাসা দেখান, তিনি মধ্যম গুরু। আর শিষ্যেরা ঠিক ঠিক শুনছে না বা পালন করছে না দেখে যে আচার্য খুব জোর-জবরদস্তি পর্যন্ত করেন, তিনি উত্তম আচার্য।
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🔱🕊🏹2. " ईश्वर " 🔱🕊🏹 (श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -2, स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹"Be and make." Let this be our motto.

 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित "श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -2 

🔱🕊🏹" ईश्वर "🔱🕊🏹

"Be and make." 

Let this be our motto.

1.  क्या तुम यह जानते हो कि ईश्वर हर वस्तु में कैसे विद्यमान रहते हैं ? जैसे बड़े लोगों की लड़कियाँ चिक पर्दे के भीतर होती हैं। वे सब को देख सकती हैं, परन्तु कोई उन्हें नहीं देख सकता। ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी सर्वत्र विद्यमान हैं। (मुझमें, तुझमें, खड़क-खंभ में। ... माँ जगदम्बा विद्यमान हैं!)

১। ভগবান সকলকার ভেতর কিরূপে বিরাজ করেন জান? যেমন চিকের ভেতর বড়লোকের মেয়েরা থাকে। তারা সকলকে দেখতে পায়, কিন্তু তাদের কেউ দেখতে পায় না; ভগবান্ ঠিক সেইরূপে বিরাজ করছেন।

[ "या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता- मुझमें, तुझमें, खड़क-खंभ में -माँ जगदम्बा विद्यमान हैं ! सब में है भगवान"...  नरसिंह अथवा नृसिंह (मानव रूपी सिंह) को पुराणों में भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना गया है। ये अवतार बताता है कि जब पाप बढ़ता है तो उसको खत्म करने के लिए शक्ति के साथ ज्ञान भी जरूर होता है। आत्मज्ञान और शक्ति पाने के लिए भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है। ये भगवान विष्णु के रौद्र रूप का अवतार है। इसलिए इनका गुस्सा शांत करने के लिए चंदन चढ़ाया जाता है। जो कि शीतलता देता है। दूध, पंचामृत और पानी से किया गया अभिषेक भी इस रौद्र रूप को शांत करने के लिए किया जाता है। पूजा के बाद भगवान नरसिंह को ठंडी चीजों का नैवेद्य लगाया जाता है। इनके भोग में ऐसी चीजें ज्यादा होती हैं जो शरीर को ठंडक पहुंचाती हैं। जैसे दही, मक्खन, तरबूज, सत्तू और ग्रीष्म ऋतुफल चढ़ाने से इनको ठंडक मिलती है और इनका गुस्सा शांत रहता है। भगवान विष्णु अपने भक्त प्रहलाद को दैत्य हिरण्यकश्यप से बचाने के लिए इस रूप में प्रकट हुए। ये अवतार प्रदोष काल में हुआ था, इसलिए शाम को भगवान नरसिंह की विशेष पूजा होती है।  वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि पर भगवान नरसिंह के प्रकट होने से इसीदिन चौथे अवतार (नवनीदा ?) की जयन्ती मनाई जाती है। - इस दिन जल और अन्न का दान दिया जाता है।  जो भी दान दिया जाता है वो, चांदी या मिट्‌टी के बर्तन में रखकर ही दिया जाता है। क्योंकि मिट्‌टी में शीतलता का गुण रहता है। (2024 में नरसिंह जयंती शुभ मुहूर्त वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि का प्रारंभ 21 मई, 2024 को शाम 05 बजकर 39 मिनट पर हुआ था।)

इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - - "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को भी ईश्वर बनने में सहायता देंगे। बनो और बनाओ - 'Be and Make' यही हमारा आदर्श वाक्य रहे।" (विवेकानन्द साहित्य' खण्ड-9, पृष्ठ 379)First, let us be Gods (अर्थात हमें घोर स्वार्थी पशु से 100 % निःस्वार्थपर मनुष्य बन लेने दो।), and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. "

नारद का माया दर्शन: 25 जून, 1895 की देववाणी में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमें ईश्वर होना होगा ! हृदय को समुद्र के समान अनन्त तक विस्तृत बना लो, संसार के क्षुद्र भावों के (ऐषणाओं के) परे चले जाओ, [कैसे ? ईश्वर (ब्रह्म) को जानकर हमें ईश्वर (ब्रह्म साक्षी द्रष्टा से माँ के जैसा100 %निःस्वार्थी) होना होगा !] इतना ही नहीं , अशुभ (रोग-शोक ?) आने पर भी आनन्द से उन्मत्त हो जाओ ; जगत को एक तस्वीर/फिल्म के समान देखो; और यह जानकर कि जगत की कोई वस्तु / घटना तुम्हें विचलित नहीं कर सकती , जगत के सौंदर्य का उपभोग करो ! ( मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर है।) जगत के सुख इस प्रकार हैं, जैसे छोटे -छोटे लड़के खेल करते करते कीचड़ में से काँच के मोती पा जाते हैं। जगत के सुख-दुःख के ऊपर साक्षी भाव से दृष्टि पात करो (मेरा -तेरा नहीं ईश्वर का जगत), शुभ (जन्म) और अशुभ (मृत्यु) दोनों को एक दृष्टि से देखो - दोनों ही भगवान के खेल हैं , इसलिए सभी में आनन्द का अनुभव करो। " ७/२०)         

 " Let us be God ! Make the heart like an ocean, go beyond all the trifles of the world, be mad with joy even at evil; see the world as a picture and then enjoy its beauty, knowing that nothing affects you. Children finding glass beads in a mud puddle, that is the good of the world. Look at it with calm complacency; see good and evil as the same — both are merely "God's play"; enjoy all." TUESDAY, June 25, 1895.]

2. दीपक का स्वभाव है प्रकाश देना; कोई उस प्रकाश में चावल पका रहा है, कोई जालसाजी  कर रहा है, कोई उसमें भागवत पढ़ रहा है; क्या यह प्रकाश का दोष है? अर्थात कोई भगवान के नाम का जप करके खुद को मुक्त करने की कोशिश कर रहा है, कोई उनका नाम लेकर चोरी/डकैती करने की कोशिश कर रहा है; क्या यह भगवान की गलती है?

২। প্রদীপের স্বভাব আলো দেয়া; কেউ বা তাতে ভাত রাঁধছে, কেউ জাল করছে, কেউ তাতে ভাগবতপাঠ করছে; সে কি আলোর দোষ? অর্থাৎ কেউ ভগবানের নামে মুক্তিচেষ্টা করছে, কেউ চুরি করতে চেষ্টা করছে; সে কি ভগবানের দোষ?

3. कोई व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही उसका लाभ होता है; भगवान कल्पतरु हैं। उनसे वह जो चाहता है उसे मिल जाता है। एक गरीब आदमी का बेटा पढ़-लिखकर हाई कोर्ट का जज बन जाता है और सोचता है, ''मैं बहुत सुखी -संपन्न हूं।'' भगवान भी कहते हैं, "तुम अच्छे से रहो।" फिर जब वह पेंशन लेकर घर में बैठ जाता है, तब उसे एहसास होता है कि पूरे जीवन भर मैंने किया ही क्या ? भगवान भी उस समय कहते हैं, " ठीक तो, तुमने किया ही क्या है?"

৩। যার যেমন ভাব তার তেমনি লাভ; ভগবান্ কল্পতরু। তাঁর কাছে যে যা চায়, সে তাই পায়। গরীবের ছেলে লেখাপড়া শিখে হাইকোর্টের জজ হয়ে মনে করে, "আমি বেশ আছি।" ভগবানও তখন বলেন, "তুমি বেশ থাক।" তারপর যখন সে পেনশন নিয়ে ঘরে বসে, তখন সে বুঝতে পারে এ জীবনে কল্লুম কি? ভগবানও তখন বলেন, "তাই তো, তুমি কল্লে কি?"

4. ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं; जब ब्रह्म निष्क्रिय अवस्था में (साक्षी भाव में) रहते हैं, तो उसे शुद्ध ब्रह्म कहा जाता है; और जब वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि करता है तो यह उसकी शक्ति का कार्य कहलाता है।

৪। ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ; ব্রহ্ম যখন নিষ্ক্রিয় অবস্থায় থাকেন, তখন তাঁকে শুদ্ধ ব্রহ্ম বলে; আর যখন সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় ইত্যাদি করেন, তখন তাঁর শক্তির কাজ বলে।

5. एक दिन ईश्वरीय-सत्संग में, मथुर बाबू ने ठाकुरदेव से कहा था, " भगवान को भी जगत के नियमों का पालन करना पड़ता है; अपनी इच्छा से तो वे भी सब कुछ नहीं कर सकते।" ठाकुर ने कहा - " ऐसा क्यों होने लगा ? वे तो इच्छामय हैं, इच्छा होने से वे सब कुछ कर सकते हैं। मथुर बाबू ने कहा, "अगर वह चाहे तो क्या वह इस लाल उड़हुल के पेड़ पर सफेद उड़हुल उगा सकते हैं?" ठाकुर ने कहा, " यह कौन सी बड़ी बात है, जो वे नहीं कर सकते ? अगर वे चाहें तो इसी  लाल उड़हुल के पेड़ पर सफेद फूल खिल सकते हैं।" लेकिन मथुरबाबू को उन शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद यह पाया गया कि, दक्षिणेश्वर के बगीचे में उड़हुल पेड़ की एक डाल की एक टहनी पर सफ़ेद और दूसरी टहनी पर लाल उड़हुल के फूल खिले हुए थे। ठाकुर देव ने उस जुड़ी हुई टहनी पर उड़हुल फूल के जोड़ी को लेकर मथुर बाबू को दिखाया।  मथुर बाबू को बहुत आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा "महाराज, मैं अब आपसे तर्क नहीं करूंगा।"

৫। একদিন ঈশ্বরীয় কথাপ্রসঙ্গে মথুরবাবু ঠাকুরকে বলেছিলেন, "ভগবানকেও জগতের নিয়ম মেনে চলতে হয়; তিনি ইচ্ছা করলেই সব করতে পারেন না।" ঠাকুর বললেন, "তা কেন হবে গো? তিনি ইচ্ছাময়, তিনি ইচ্ছা করলে সব করতে পারেন।" মথুরবাবু বললেন, "তিনি ইচ্ছা করলে এই লাল জবাফুলের গাছে কি সাদা জবা করতে পারেন?" ঠাকুর বললেন, "তা পারেন বই কি? তাঁর ইচ্ছা হলে এই লাল জবার গাছেই সাদা ফুল ফুটতে পারে।" কিন্তু মথুরবাবু সে কথায় ততটা যেন বিশ্বাস স্থাপন করতে পারেননি। বাস্তবিকই কয়েকদিন পরে দেখা গেল, দক্ষিণেশ্বরের বাগানে একটা জবাফুলের গাছে এক ডালে সাদা ও অপর ডালে লাল জবা ফুটে আছে। ঠাকুর ডালের গোড়াসুদ্ধ ফুল দুটো এনে মথুরবাবুকে দেখালেন। মথুরবাবু মহা আশ্চর্যান্বিত হয়ে বললেন, "বাবা, আর তোমার সঙ্গে তর্ক করব না।"

6. साकार और निराकार कैसा है -जानते हो ? जैसे पानी और बर्फ ! जब भक्ति की ठंढक से जल जम जाता है, तब वह साकार बन जाता है। और जब बर्फ पिघल कर पानी बन जाता है, तब वह निराकार हो जाता है।     

৬। সাকার এবং নিরাকার কিরূপ জান? যেমন জল আর বরফ। যখন জল জমাট বেঁধে থাকে তখনই সাকার; আর যখন গলে জল হয় তখনই নিরাকার।

7. देहत्याग करने के समय भीष्मदेव शरशय्या पर लेटे हुए थे, और उनकी आँखों से आँसू गिर रहे थे। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, "भाई, यह कैसा आश्चर्य है! पितामह, तो सत्यवादी, जितेंद्रिय, ज्ञानी और अष्टवसु में से एक बसु हैं, भी देहत्याग के समय माया वश रो रहे हैं!" यह सुनकर भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा,"कृष्ण, आप अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं उस डर से नहीं रो रहा हूं; बल्कि मैं तो इसलिए रो रहा हूं कि मैं भगवान की लीला कुछ नहीं समझ सका। जिस मधुसूदन -नाम का जाप करने से लोगों को विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है, वही मधुसूदन जब स्वयं पाण्डवों के सारथि और सखा बने हैं , फिरभी पाण्डवों के विपत्तियों का अंत नहीं है।    

৭। ভীষ্মদেব দেহত্যাগ করবার সময় শরশয্যায় শয়ন করেছিলেন, তাঁর চক্ষু হতে জল পড়েছিল। অর্জুন তা দেখে শ্রীকৃষ্ণকে বললেন, "ভাই, কি আশ্চর্য! পিতামহ, যিনি সত্যবাদী, জিতেন্দ্রিয়, জ্ঞানী ও অষ্টবসুর এক বসু, তিনিও দেহত্যাগের সময় মায়াতে কাঁদছেন!"শ্রীকৃষ্ণ ভীষ্মদেবকে একথা বলাতে তিনি বললেন, "কৃষ্ণ, তুমি বেশ জান আমি সেজন্য কাঁদছি না; এইজন্য কাঁদছি যে, ভগবানের লীলা কিছুই বুঝতে পারি না। যে মধুসূদন-নাম জপ ক'রে লোকে বিপদ থেকে উদ্ধার পায়, সেই মধুসূদন স্বয়ং পাণ্ডবদের সারথি [ও] সখারূপে রয়েছেন, তবুও পাণ্ডবদের বিপদের শেষ নেই।"

8. मथुर बाबू के साथ काशीधाम तीर्थ भ्रमण के दौरान एक दिन परमहंसदेव त्रैलंगस्वामी का दर्शन करने गये। ठाकुर ने त्रैलंग स्वामी से पूछा, "ईश्वर एक हैं, लेकिन लोग अनेक क्यों कहते हैं?" तब  त्रैलंगस्वामी मौनव्रत धारण किये हुए थे,उन्होंने ध्यानमग्न तरीके से अपनी उंगली उठाकर समझा  दिया कि यदि कोई उनका ध्यान करेगा, तो उसे समाधि में यह अनुभूति होगी कि वह एक ही है- और समाधि से वियुत्थान होने से ही अनेकता में एकता का ज्ञान होता है।  

৮। মথুরবাবুর সহিত ৺কাশীধাম দর্শনকালে পরমহংসদেব একদিন ত্রৈলঙ্গস্বামীকে দর্শন করতে যান। ঠাকুর স্বামীজীকে জিজ্ঞাসা করেন, "ঈশ্বর তো এক, তবে লোকে বহু বলে কেন?" ত্রৈলঙ্গস্বামী মৌনাবলম্বী ছিলেন, তিনি একটি অঙ্গুলি উপরে তুলে একটু ধ্যানস্থ ভাবের মতো হয়ে ইঙ্গিতে বুঝিয়ে দিলেন যে, তাঁকে ধ্যান ক'রে দেখলে বুঝতে পারা যায় যে, তিনি একই - আর বিচার করতে গেলেই বহু বুদ্ধি এসে পড়ে।

9. जो साकार (अवतार वरिष्ठ) हुए हैं, वे ही निराकार हैं ! भक्तों के लिए (नरेन्द्र के लिए-चुतर्भुजा माँ काली के) साकार रूप से अवतरित होकर वे ही दर्शन देते हैं।  (जो 'राम'  राम-लला रूप से दसरथ का बेटा, वही राम घट घट में लेटा।) जैसे महा समुद्र में सिर्फ अनन्त-अपार पानी ही पानी है, कहीं कोई कोर-किनारा नहीं दीखता, लेकिन कहीं- कहीं जहाँ अत्यधिक ठंढ से पानी जम कर बर्फ हो गया है, वही दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार भक्त की भक्तिरूपी ठंढक से अवतार वरिष्ठ के साकार रूप का दर्शन होता है। पुनः, जैसे सूर्य के उदय होने पर बर्फ पिघल जाती है और बर्फ पहले जैसा पानी बन जाता है; उसी प्रकार जब ज्ञान का सूर्य उगता है (अर्थात जब समाधि या योग में आत्म-साक्षात्कार होता है ) तब अवतार वरिष्ठ का वही साकार रूप पिघल कर पानी बन जाती है और सब कुछ निराकार [सच्चिदानन्द -Existence-Consciousness-Bliss] हो जाता है।

৯। যিনিই হয়েছেন সাকার, তিনিই নিরাকার। ভক্তের কাছে তিনিই সাকাররূপে আবির্ভূত হয়ে দর্শন দেন। যেমন মহাসমুদ্র - কেবল অনন্ত জলরাশি, কূলকিনারা কিছুই নেই, কেবল কোথাও কোথাও বেশী ঠাণ্ডায় জমে গিয়ে বরফ হয়েছে দেখা যায়। সেইরূপ ভক্তের ভক্তিহিমে সাকাররূপ দর্শন হয়। আবার সূর্য উঠলে যেমন বরফ গেলে যায় ও পূর্বের ন্যায় যেমন জল তেমনি হয়ে থাকে, তেমনি জ্ঞানসূর্য উদিত হলে সেই সাকাররূপ বরফ গলে জল হয়ে যায় ও সব নিরাকার হয়।

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