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शुक्रवार, 14 जून 2024

🔱🕊🏹(10) खान-पान और साधना 🔱🕊🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -10 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी (1841 - 1899)

 (10) 

🔱🕊🏹खान-पान और साधना 🔱🕊🏹

(Food and meditation) 

সাধন ও আহার

1. जो चाहे सिर्फ हविष्यान्न ही क्यों न खाता हो, परंतु ईश्वर (सत्य) को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं  करता, उसका हविष्यान्न खाना भी गोमांस के समान है। और जो व्यक्ति गोमांस खाता हो परन्तु प्रभु को पाने का प्रयास करता है, उसके लिए गोमांस भी हविष्यान्न के समान हो जाता है। 

2. महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी (1841 - 1899), की सास एक दिन परमहंसदेव के दर्शन के लिए आईं। ठाकुर ने उनसे कहा था, "तुमलोग ही ठीक हो, तुमने अपना मन संसार से खींच कर ईश्वर (सत्य ) में लगा लिया है।" उन्होंने कहा, “कहाँ, हमें तो कुछ लाभ नहीं हुआ, आज भी मैं जिसके-तिसके जूठे अन्न का एक दाना भी नहीं खा सकती ।” ठाकुर ने कहा, "ये क्या बात हुई? क्या जिसका -तिसका जूठा खा लेने से ही सब कुछ हो गया?" कुत्ता, सियार आदि तो सबों का उच्छिष्ट (pickings-जूठा) खा जाते हैं, तो क्या उन्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है ?”

২। স্বর্গীয় মহাত্মা বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী মহাশয়ের শাশুড়ি একদিন পরমহংসদেবকে দর্শন করতে এসেছিলেন। ঠাকুর তাঁকে বলেছিলেন, "তোমরা বেশ আছ, সংসারে থেকে ভগবানেতে মন রেখেছ।" তিনি বললেন, "কই, আমাদের আর কিছুই হল না; এখনও আমি যার-তার এঁটো খেতে পারি না।" ঠাকুর বললেন, "সে কি গো? যার তার এঁটো খেলেই কি সব হল? কুকুর, শেয়াল সবারই এঁটো খায়, তা বলেই কি তাদের ব্রহ্মজ্ঞান লাভ হয়েছে?"

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सिद्ध (सत्यार्थी) संत विजय कृष्ण गोस्वामी जी

माता-पिता की धर्म परायणता का प्रभाव बाल्यावस्था से विजय कृष्ण पर पड़ा। श्री विजय कृष्ण की शिक्षा दिव्य एवं समयानुकूल थी।  इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी लेकिन इन्हें होम्योपैथी की प्रेक्टिस के लिए लाइसेंस मिल गया और फिर शांतिपुर वापस आने के बाद प्रैक्टिस शुरु कर दी। विद्यार्थी जीवन में ही एक दिन उन्होंने अकाशवाणी सुनी - 'परलोक की चिन्ता करो।' इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए अत्यधिक व्यग्र हो गये।

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                 एक जमाना था जब गोस्वामी जी  ब्रह्म समाजी [कम्युनिस्ट ?] थे। उस समय बंगाल में ब्रह्म समाज का जोर शोर था आप भी इसी समाज से जुड़ गये। एक दिन उन्हें पुन:दैवी निर्देश मिला (अंतरात्मा की आवाज सुनाई दी ?) - "किसी प्रकार के बंधन में रहने से धर्म लाभ नहीं होगा" ।

     इसके बाद से उन्हें ब्रह्म समाज में रहते हुए  'मन, कर्म और बचन' एक करके सत्य का अनुसन्धान और अनुसरण करना असंभव प्रतीत हुआ और इसके पश्चात् उन्होंने महान सिद्ध संतों, महात्माओं के साथ सत्संग लाभ किया। उन दिनों गोस्वामी जी के मन में आध्यात्मिक उन्नति व सन्तों के दर्शन की इच्छा उत्पन्न हो रही थी। आप इसकी पूर्ति हेतु काशी आए। प्रथम दर्शन में तैलंग स्वामी ने इनके ऊपर कीचड़ व मेला फेंक दिया ताकि घृणावश वो उनके पास न जाएँ। परन्तु बाद में इनमें आपस में पर्याप्त प्रेम हो गया था।

     एक दिन गोस्वामी जी ने तैलंग स्वामी से पूछा-‘‘मैं अपने गुरु की तलाश में निकला हु। ब्रह्म समाजी होने के कारण कोई मुझे शिष्य नहीं बनाता एवं बिना गुरु के पूर्ण ज्ञान होना सम्भव नहीं है।’’  इसके उत्तर में तैलंग स्वामी जी ने कहा  -‘‘गोस्वामी तुममें वो लक्षण प्रस्फुटित हो रहे हैं जो ईश्वर (अपरिवर्तनीय सत्य) प्राप्ति के लिए आवश्यक है। परन्तु इस तरह गुरु की तलाश करना व्यर्थ है। मैं जानता हूं तुम्हारे वास्तविक गुरु कौन है। समय आने पर वे तुम्हें अपने पास बुला लेगें। उससे पहले तुम्हें स्वयं को उस लायक बनाना होगा। सर्वप्रथम तुम 'गुरु' की महत्ता जानो।  इतना कहने के पश्चात् उन्होंने अपने सेवक मंगल को दरवाजा बन्द करने के लिए कहा जिसमें कोई भीतर न आने पाए। तैलंग स्वामी ने कहा  -‘‘गुरु शब्द का अर्थ है-'ग' से गतिदाता, 'र' शब्द सेे सिद्धिदाता ओर 'उ' शब्द से मुक्तिदाता। अर्थात् जिसके सम्पर्क से साधना में गति मिले, जो साधना के सिद्धि की ओर ले जाए ओर मुक्तिदाता बन अज्ञान (अविद्या) रूपी अन्धकार के जीवन से नष्ट कर सके। शिष्य को भवसागर से पार कराने की पूरी जिम्मेदारी गुरु की हो जाती है।

     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘ऐसे सद्गुरु की पहचान हम कैसे कर सकेंगे? शिष्य तो अज्ञानी होता है सद्गुरु की पहचान कैसे कर सकते है?’’  तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘भगवान के लिए (परम सत्य को जानने के लिए) अगर तुम्हारा हृदय व्याकुल होगा तब निश्चित है कि भगवान (श्रीरामकृष्ण देव) तुम्हारा सहायक बनकर सद्गुरु से मुलाकात करा देंगे। सद्गुरु राह चलते नहीं मिलते। प्राचीन काल में सद्गुरुओं का अभाव नही था। सतशिष्य (true disciple-एथेंस का सत्यार्थी) बिना बने सद्गुरु नहीं मिलते। उपयुक्त गुरु न होने के कारण ही मानव की यह दुर्दशा है। 'सड़े गले बीज से पौधे जन्म’  नहीं लेते, इसलिए बीज (मंत्र-Be and Make) का चुनाव ठीक से करके ही दीक्षा लेनी चाहिए। दीक्षा देना व दीक्षा लेना दोनों ही सहज कार्य नहीं है।’’

 गोस्वामी जी ने कहा- ‘‘फिर तो जैसे सद्गुरु के बारे में आपने बताया है, ऐसे गुरु का मिलना ही असंभव प्रतीत होता है।

     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘बाबा यह बताइये कि मेरे वास्तविक गुरु कहाँ मिलेंगे?’’ 

‘‘यह जानने से कोई लाभ नहीं। समय आने पर वे (नवनीदा) स्वयं तुम्हें बुला लेंगे या तुम्हारे पास चले आयेंगे। अपनी इच्छा से कोशिश करने पर तुम उनके पास नहीं पहुँच सकते। उनसे बीज मन्त्र (Be and Make) पाने के बाद ही तुम्हारा साधक जीवन प्रारम्भ होगा। 

गोस्वामी जी ने कहा-‘‘अर्थात् जब तक मेरे वास्तविक गुरु नहीं मिलेंगे तब तक मुझे इधर उधर भटकते रहना पडेगा।’’

     तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘प्रतीक्षा तो करनी ही पडेगी। लेकिन इस बीच मेरे द्वारा दिए मन्त्र का जप करते रहेगें तो समय की दूरी कम हो जाएगी। सुबह ओर शाम दोनों समय शान्त भाव से बीज मन्त्र का जप करें। अधा घण्टा से प्रारम्भ कर तीन घण्टा तक बढ़ाते जाएँ अथवा तब तक समय बढ़ाएँ जब तक आलोक दर्शन न हो जाए।  मुझसे यह नही हो सकेगा यह कहने से काम नही चल सकेगा। योग साधना सामान्य प्रक्रिया नही है। मुझे जितना करना था उसे पूरा कर दिया।’’ 

 तैलंग स्वामी ने ही विजय कृष्ण गोस्वामी को योग साधना के मार्ग पर लगाया था।  आगे चलकर उन्होंने ब्रह्म समाज छोड़ पूर्ण योगी का जीवन जिया। इसके पश्चात् गोस्वामी जी ब्रह्म समाज के किसी हेतु कार्यक्रम हेतु ' गया ' गए। उनका अतृप्त हृदय बराबर उस गुरु की तलाश में लगा रहा ।

 यहाँ ' गया ' में उनको पता चला कि समीप आकाश गंगा पर्वत पर अनेक सिद्ध योगी रहते है। यहाँ उनकी भेंट एक अद्भुत संन्यासी से हुयी। वो अपने आसन पर ध्यानस्थ है उनके मस्तिष्क से ज्योति निकलकर चारों ओर प्रकाशमान है। यह दृश्य देख वो विस्माभिभूत हो उठे। काफी देर तक वे एकटक दृष्टि से उस योगी को देखते रहे। कुछ देर बाद जब योगी उठे तो उन्हें प्रणाम करने के बाद गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘आपके मस्तिष्क से अद्भुत ज्योति निकल रही थी। इस वक्त वह गायब हो गयी। ऐसा कैसे हुआ?’’

     योगी ने कहा- ‘‘साधना के माध्यम से जब कुण्डलिनी शक्ति षटचक्र भेदन करती हुई मस्तिष्क के सहस्त्रदल कमल में पहुँचती है तब वह ज्योति निकलती है।’’ 

यह सुनने पर गोस्वामी जी समझ गए कि योगी उच्चकोटि के सिद्ध साधक है व इनसे दीक्षा लेनी चाहिए। वो बोले- ‘‘जाने क्यो मुझे शान्ति नहीं मिलती, बार बार बैचेन रहता हूं । 

योगी जी बोले- ‘‘यह बात अपने गुरु से कहो। वे इसका उपाय बतायेंगे।’’

     गोस्वामी जी बोले-‘‘ मेरा कोई गुरु नहीं है मैं गुरु बनाना चाहता हू, कृपया मुझे गुरु दीक्षा दें।’’

     उनका मतव्य सुनकर योगी ने कहा- ‘‘मुझे अभी दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है।

इस प्रकार भटकते-भटकते एक दिन उनके हृदय की तृष्णा शान्त हुई। रामशिला पर्वत पर उन्हें अपने गुरु के दर्शन हुए। आँखे चार होते ही उनके हृदय में भक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा। फूट-फूट कर रोने लगे। गोस्वामी जी का हाथ पकड़कर वो बोले- ‘‘मेरे लिए इतना व्याकुल होने की जरूरत नहीं है। वक्त आने पर सब मिल जाएगा। साधना में मन लगाओं कठोर साधना से ही ईश्वर लाभ होता है।’’

     गोस्वामी जी के गुरु का नाम ब्रह्मानंद परमहंस स्वामी था।  अधिकतर वे मान सरोवर में रहते है कभी-कभी शिष्यों से मिलने चले आते है।

     गुरु की आज्ञा से गोस्वामी जी आकाशगंगा पहाड पर कठोर साधना करने लगे। आहार निद्रा त्यागकर साधना में जुट गए। 

दीक्षा के संबंध में इनका कहना था-'यह संपूर्ण भगवान् का दान है, जिन्हें भगवत् निर्देश प्राप्त हो केवल वे ही दीक्षा दे सकते है।' 

सद्गुरु प्रत्यक्ष निर्देश देकर जिन्हें आदेश दें वही शक्ति संचार(शक्तिपात) से यह साधन दे सकता है। आप भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के दादा गुरु थे।

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(जैसा कि एम द्वारा दर्ज किया गया है, तथा दिनांक 25 अक्टूबर, 1885)  विजय कृष्ण गोस्वामी ने रामकृष्ण से कहाः मैंने सारे देश में भ्रमण किया है तथा अनेक आध्यात्मिक व्यक्तियों से मिला हूँ; परन्तु मुझे आपके जैसा कोई नहीं मिला। यहाँ सोलह आने की पूरी राशि है, जबकि अन्य स्थानों पर मुझे अधिकतम दो, तीन या चार आने ही मिले हैं। मैंने आपको ढाका में एक स्वप्न में देखा था, तथा मुझे आपके बारे में कोई संदेह नहीं है। लोग आपको समझ नहीं पाते, क्योंकि आप इतने सुलभ हैं। आप कलकत्ता के बहुत निकट रहते हैं। केवल इच्छा मात्र से हम आपके पास पहुँच जाते हैं; आवागमन में कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए हम आपके मूल्य का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा सकते। परन्तु यदि आप किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर बैठे होते, जहाँ तक पहुँचने में बहुत कष्ट और कठिनाई होती, तो हम आपको दूसरी दृष्टि से देखते। अब हम सोचते हैं कि यदि ऐसा आध्यात्मिक व्यक्ति हमारे निकट रहता है, तो दूर रहने वालों की आध्यात्मिकता कितनी अधिक होगी! इसलिए हम आपके दर्शन करने के बजाय आध्यात्मिकता की खोज में इधर-उधर भटकते रहते हैं।

[1986 का कुम्भ मेला-देवराहा बाबा ? नहीं 'बाबा रामसुखदास' से हुई -"तुम कछु न करिहउँ सब हम करिहउँ।" श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने अपने रहने के लिये कहीं भी कोई स्थान नहीं बनवाया। आप गाँव गाँव और शहर आदि में जा- जाकर कर लोगों को सत्संग सुनाया करते थे और भिक्षान्न से ही अपना शरीर निर्वाह करते थे।  जहाँ भी रहते थे,उस स्थान को भी अपना नहीं मानते थे। अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे।  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

 मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का (परम सत्य का) अनुयायी रहा हूँ, व्यक्ति का नहीं ।  मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेष में न लगकर भगवान (श्रीरामकृष्ण) में ही लगें । 

 मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूर तक केवल पुरुष बैठें । पुरुषों की व्यवस्था पुरुष और स्त्रियों की व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बात का समर्थन करने अथवा भगवान की जय बोलने के समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

आप सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। सत्संग तो मानो आपका जीवन ही था। आप बताते थे कि सत्संग से (निर्जनवास या कैम्प से)  जितना लाभ होता है उतना एकान्त में रहकर साधन करने से भी नहीं होता। सत्संग सब की जननी है। सत्संग से जितना लाभ होता है, उस लाभ को कोई कह नहीं सकता।

अन्य साधन करके जो उन्नति की जाती है, वो तो कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना है,यह गोद चले जाना है। (किसी धनवान की) गोद जानेवाले को क्या प्रयास करना पङा? कल कँगला और आज धनी। ऐसे सत्संग करने वाले को कमाया हुआ धन मिलता है (अनुभव मिलता है, बिना साधन किये,मुफ्त में सर्वोपरि लाभ मिलता है)।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है। 

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🔱🕊🏹(9) भक्ति (Devotion ) और भावना (emotion) 🔱🕊🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -9🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

(9)

🔱भक्ति (Devotion ) और भावना (emotion-कृष्ण मोती )🔱

ভক্তি ও ভাব

1. बाजार में करोड़ों- करोड़ रुपये के हीरे-मोती मिलते हैं, लेकिन कृष्ण मोती कितने मिलते हैं।

[ब्लैक पर्ल यानी काला मोती यदा-कदा ही देखने में आता है, इसलिए अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वालों को ब्लैक पर्ल कहकर पुकारा गया। फुटबॉल की दुनिया के ब्‍लैक पर्ल हैं पेले।]  

১। হীরে মতি বাজারে লক্ষ লক্ষ টাকার পাওয়া যায়, কিন্তু কৃষ্ণে মতি কটা মেলে।

2. कैमरे के सादे फिल्म पर किसी वस्तु की छाप नहीं पड़ती है, लेकिन जब  उसमे केमिकल लगा दिया जाता है, तभी किसी वस्तु का फोटोग्राफ निकलता है। उसी प्रकार पवित्र-मन पर भक्ति रूपी केमिकल लगा हुआ हो, तो उसपर भगवान का स्वरुप नजर आने लगता है। केवल यदि मन पवित्र हो, लेकिन भक्ति रूपी केमिकल उसपर नहीं चढ़ा हो,तो ईश्वर के रूप का दर्शन नहीं होता। 

[भक्ति अर्थात गुरुवाक्य में श्रद्धा और विश्वास से रहित होने पर, पवित्र मन में भी ईश्वर के रूप का दर्शन नहीं होता। रामचरितमानस के आरंभ में ही कहा गया है -"भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।।"इस श्रद्धा और विश्वास के बिना अपने ही अंतर्मन में छिपे परम तत्व का बोध नहीं किया जा सकता। श्रद्धा उसी पर जिस पर विश्वास।विश्वास उसी पर जिस पर श्रद्धा। दोनों  में अनोखा सम्बन्ध है। एक के बिना दूजा सम्भव नहीं। श्रध्दा मूलतः मन की भावना पर आधारित है।यह भाव आधृत है emotional है। जबकि विश्वास में बुद्धि का थोड़ा हो या बहुत तर्क वितर्क जरूर होता है।विश्वास और श्रद्धा में क्या अंतर है? (साभार -https://hi.quora.com/)

★ विश्वास जो बुद्धि आधारित है इसके पीछे यदि गहरा मनोबल भी हो तो हिमालय भी जीता जा सकता है, तपस्वी परम तत्व से इसी विश्वास के बल पर आत्म  साक्षात्कार करता है। वैज्ञानिक अपनी परिकल्पना hypothesis को सिद्धान्त या नियम के रूप में स्थापित करने में कामयाब होता है। इस विश्वास को सफल साकार करने के लिए बौद्धिक तर्क वितर्क के अलावा श्रद्धा की गहराई के साथ -साथ संकल्प की ढृढ़ता भी होना चाहिए। यदि जिस-किसी के केवल सुनी सुनाई बात पर भरोसा कर विश्वास कर लिया और बस ऐसे ही बिना विचारे मान लिया तो ऐसा विश्वास अंध विश्वास बन जाता है ; ऐसे ही तब श्रद्धा भी अन्ध श्रद्धा बन जाती है। 

>>>विज्ञान का अंधविश्वास (Superstition of Science)  

1.ऐटम:—  डाल्टन ने पदार्थ की सूक्षतम इकाई को एटम कहा जिसका प्राचीन ग्रीक अर्थ था कि अविभाज्य इकाई अर्थात अब पदार्थ के इस एटम से आगे टुकड़े नहीं होते,नहीं हो सकते। परन्तु अब परमअणु या परमाणु के बाद सब जानते हैं कि परमाणु के भीतर अब असंख्य फंडामेंटल पार्टिकल खोजे जा रहे हैं और नई फिजिक्स पार्टिकल फिजिक्स का जन्म हो गया है।

2. बिग बैंग -   विज्ञान का बहु चर्चित सिद्धान्त यह "बिग बैंग" अभी केवल विश्वास मात्र ही तो है क्योंकि यह पूरी तरह प्रमाणित नहीं है । 

     लेकिन गुरुवाक्य और वेदों के महावाक्य ~ 'ॐ' में अटल -श्रद्धा हो, तो सच्ची श्रद्धा असंभव को सम्भव बना देने वाले विश्वास में परिणत हो जाता है । इसीलिए तो कहा गया है,— श्रद्धावान लभते ज्ञानम। इसी विश्वास से कई मनोभाव सृजित होते हैं: आत्मबल, सकारात्मक सोच सदैव बना रहता है। 

पुराणों में मां भगवती को योगमाया के नाम से भी संबोधित किया गया है। इस संसार में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब योगमाया की ही माया है। गर्ग संहिता के अनुसार, योगमाया ने ही भगवान श्री कृष्ण की माता देवकी के सातवें गर्भ को संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुंचाया, जिनसे बलराम का जन्म हुआ। भगवान श्री कृष्ण स्वयं अपनी माया के संबंध में कहते हैं: 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते।। 

(गीता -7. 14)   

यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत मेरी त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है परंतु परन्तु जो साधक  मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। यहाँ शरण में जाने से तात्पर्य भगवान् के स्वरुप को (यानि गुरु-शिष्य Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव के सच्चिदानन्द स्वरूप को पहचान कर) तत्स्वरूप बन जाना है।

ऋषि मार्कंडेय द्वारा रचित दुर्गा सप्तशती 11 /5 में अद्भुत मंत्रों से उनकी उपासना की गई है:

‘त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया’।

सम्मोहितं देवी समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्ति हेतु:।।

[त्वं= तुम;वैष्णवीशक्ति: अनन्तवीर्या= अत्यंत बलशाली वैष्णवी शक्ति हो;विश्वस्य = संसार की;बीजं = बीज (उत्पत्ति का कारण );परमा = परम;असि = हो;माया = माया;सम्मोहितं = सम्मोहित किया है;देवि = देवी;समस्तम = सब को , सारे, एतत् = इस (जगत को );त्वं = तुम; वै = वास्तव में;प्रसन्ना = प्रसन्न होने पर; भुवि = पृथ्वी पर; मुक्तिहेतुः = मुक्ति का कारण हो। दुर्गा सप्तशती अध्याय 11/5  

 तुम अनंत बल सम्पन्न, वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्व की कारण, भूता, परा माया हो। देवि! तुमने इस समस्त जगत को, मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर, इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो।

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। 

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥६॥ 

सारे संसार में सभी विद्याएं, सभी स्त्रियां तुम्हारे ही रूप हैं । हे अम्बा! ये संसार एकमात्र तुम्ही से व्याप्त है, तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है, तुम स्तवन से परे,वाणी से परे हो । 

भक्त को यह श्रद्धा—मातृ रूप में सृष्टि का स्रोत (विवेक-स्रोत) मानने की भावना देती है: 

‘‘सृष्टि स्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातनि। 

गुणाश्रये गुणमये नारायणी नमोस्तुते।

तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणोंका आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

कवि को कलाकार को यह श्रद्धा — अनोखा सौंदर्य बोध sense of aesthetics देती है जो उसकी कृतियों में अद्भुत आकर्षण पैदा कर देता है। ]

২। সাদা কাঁচের ওপর কোন বস্তুর দাগ পড়ে না, কিন্তু তাতে যদি মশলা মাখান থাকে তবেই দাগ পড়ে, যেমন ফটোগ্রাফ; তেমনি শুদ্ধ মনে যদি ভক্তি-মশলা লাগান থাকে, তা হলে ভগবানের রূপ প্রত্যক্ষ হয়। কেবলমাত্র শুদ্ধ মনে ভক্তি ব্যতীত রূপ দেখা যায় না।

3. जानते हो प्रेम किसे कहते हैं? जब 'हरि' [ठाकुरदेव] कहते ही संसार तो मिथ्या हो ही जाएगा, इतना ही नहीं अपना यह शरीर जो मनुष्य को इतना प्रिय है, उसका भी होश नहीं रहेगा। 

৩। প্রেম কাকে বলে জান? যখন হরি বলতে বলতে জগৎ তো ভুল হয়ে যাবেই, এমন যে নিজের দেহ এত প্রিয় জিনিস, তার ওপর পর্যন্ত সংজ্ঞা থাকবে না।

4. पहले भावना (अर्थात श्रद्धा और विश्वास), फिर प्रेम, सबसे अन्त में भाव-समाधि; जैसे कीर्तन  करते समय कीर्तनिया पहले कहता है -" निताई मेरा मतवाला हाथी - निताई मेरा मतवाला हाथी " फिर क्रमशः कीर्तन की मस्ती आकर केवल - 'हाथी, हाथी' कहने लगता है ! उसके बाद केवल 'हाथि' -यही शब्द उसके मुख में रह जाता है। अंत में 'हा' कहने मात्र से ही भाव-समाधि में लीन हो जाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति इतनी देर से कीर्तन कर रहा था, उसका वाह्य ज्ञान (होश) खो जाता है, और वह चुप हो जाता है। 

৪। আগে ভাব তারপর প্রেম, শেষে ভাব-সমাধি; যেমন সঙ্কীর্তন করতে করতে প্রথমে বলে, "নিতাই আমার মাতা হাতী - নিতাই আমার মাতা হাতী"; ক্রমে ভাবে মগ্ন হয়ে শুধু বলে, "হাতী, হাতী"। তারপর কেবল "হাতী" এই কথাটি মুখে থাকে। শেষে কেবল "হা" বলতে বলতে ভাব-সমাধিতে মগ্ন হয়ে যায়। এইরূপে যে ব্যক্তি এতক্ষণ কীর্তন কচ্ছিল, সে বাহ্যজ্ঞানশূন্য হয়ে চুপ হয়ে যায়।

5. जैसे कोई हाथी झोपड़ी में घुसकर घर को तहस-नहस कर देता है, वैसे ही भावावेश (emotion -आवेग) रूपी हाथि  शरीर-गृह में घुस जाने पर शरीर में हंगामा कर देता है।      

৫। যেমন কুঁড়ে ঘরে হাতী প্রবেশ করলে ঘরকে তোলপাড় ক'রে ফেলে, সেই রকম ভাব-রূপ হস্তী দেহ-ঘরে প্রবেশ করলে দেহকে তোলপাড় করে ফেলে।

6. जिसको ईश्वर की भक्ति प्राप्त हो गई हैईश्वर (माँ काली, अवतार वरिष्ठ,नेता या गुरु) के प्रति उसकी भावना  कैसी होती है जानते हो? मैं मशीन हूँ, आप ऑपरेटर हैं ; मैं घर हूँ, आप घर को सम्भालने वाले हैं; मैं रथ हूँ, आप इस रथ के सारथी हैं; जैसे बोलवाते हैं, वैसा कहता हूँ; जैसा कर्म करवाते हैं, वैसा करता हूं; आप जैसा चलाते हैं, वैसा चलता हूँ।  

৬। যার ভগবানে ভক্তিলাভ হয়েছে, তার কিরূপ ভাব হয় জান? আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি ঘর, তুমি ঘরণী; আমি রথ, তুমি রথী; যেমন বলাও তেমনি বলি, যেমন করাও তেমনি করি, যেমন চালাও তেমনি চলি।

7. भगवान (सद्गुरु, नेता) के चरण कमलों में भक्ति होने से ही सांसारिक -विषयकर्म स्वतः छूट जाते है। उसको अब व्यवसाय के अफेयर्स अच्छे नहीं लगते। जैसे ताल मिश्री का शर्बत पीने के बाद , कोई व्यक्ति रावागुड़ का शर्बत पीना नहीं चाहता।

৭। ভগবানের পাদপদ্মে ভক্তি হলেই বিষয়-কর্ম আপনা আপনি ত্যাগ হয়ে আসে। তার আর বিষয়-কর্ম ভাল লাগে না। যেমন ওলা মিছরির পানা খেলে চিটেগুড়ের পানা আর কেউ খেতে চায় না।

8. संध्या-आह्निक की आवश्यकता तब तक है, जब तक उनके [श्रीरामकृष्ण देव] के चरण-कमलों में भक्ति-प्रेम न हो जाये, उनका नाम जपते-जपते आँखों में पानी न आ जाए और शरीर रोमांचित न हो जाए।

[आह्निक का अर्थ है सुबह की संध्या (“ गुरु द्वारा दिए गए दीक्षा मंत्रों का जाप करना”) बच्चों को बचपन से ही धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए। अक्सर बच्चों के माता-पिता मुझसे यह शिकायत करते हैं कि उनके बच्चों में धर्मभाव नहीं है। वे लोग संध्या, (आह्निक) आदि पारमार्थिक कार्य नहीं करते। इन सभी विषयों पर अविश्वास करते हैं।

৮। সন্ধ্যা-আহ্নিক ততদিন দরকার যতদিন না তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিপ্রেম হয় ও তাঁর নাম করতে করতে চক্ষে জল পড়ে, আর শরীরে রোমাঞ্চ হয়।

9. जात्रा पार्टी (संगीत नाटिका) में देखते हो, जब तक बाजे खच-मच करके बजते रहते हैं, तब तक गवैये जोर -जोर से गाते रहते हैं - "हे कृष्ण, दर्शन दो; हे कृष्ण, दर्शन दो।" लेकिन तब तक 'कृष्ण' की भूमिका निभाने वाले अभिनेता का कुछ पता नहीं चलता। वह अपना मेकअप करके ड्रेस पहन कर, ग्रीन रूम में बातें करता है या धूम्रपान करता है। जब उनका शोर थम जाता है, तब नारद मुनि स्टेज पर आकर प्रेमपूर्वक मधुर स्वर में गाते है, "हे हरि, हे गोविन्द, मम प्राण हे,  मम जीवन", तब ग्रीन रूम में  कृष्ण' और अधिक रुक नहीं पाते हैं। फटा फट मेकअप ठीक करके जल्दी से नाटक के स्टेज पर उतर जाते हैं। साधक की अवस्था भी ठीक इसी तरह है। जब तक साधक, " प्रभु दर्शन दो, प्रभु दर्शन दो " बोलकर चिल्ला रहा हो, तब तक समझना चाहिये कि प्रभु अभी तक वहाँ (उसके ह्रदय मन्दिर में) नहीं आये हैं। जब प्रभु वहाँ चले आयेंगे, तब साधक भाव से (प्रेम-भक्ति से) गदगद हो जायेगा, और चिल्लाना बंद कर देगा। जब साधक भाव में गदगद होकर भगवान को (अपने इष्टदेव को) पुकारता है, तब प्रभु और आने में और देरी कर नहीं सकते !  

10. देवी अहल्या ने कहा था, "हे राम, यदि शूकर योनि में मेरा जन्म हो, तो वह भी स्वीकार्य है; लेकिन आपके चरणकमलों में निरंतर ,अविचल (unwavering) श्रद्धा -भक्ति बनी रहे तो मुझे  और कुछ भी नहीं चाहिए।"

১০। অহল্যা বলেছিলেন, "হে রাম, যদি শূকরযোনিতেও জন্ম হয়, সেও স্বীকার; কিন্তু যেন তোমার শ্রীপাদপদ্মে আমার অচলা শ্রদ্ধা-ভক্তি থাকে, আর আমি কিছুই চাই না।"

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गुरुवार, 13 जून 2024

🔱🕊🏹(8) मनःसंयोग के प्रयत्न में दृढ़ता : विवेक-स्रोत उद्घाटित होने तक अध्यवसाय [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -8🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

 (8) 

🔱खानदानी किसान🔱

🕊🏹मनःसंयोग (मानसिक प्रवृत्तियों पर संयम) के प्रयत्न में अटलता🕊🏹  

 [चित्तवृत्तियों का निरोध (विवेक-स्रोत उद्घाटित) होने तक अध्यवसाय]   

(Restraint of the mental tendencies: Perseverance in pursuit) 

(সাধনে অধ্যবসায়) 

1. समुद्र (रत्नाकर) में अनेक रत्न हैं; तुमने सिर्फ एक बार गोता लगाया और तुम्हें रत्न नहीं मिला, तो इसके लिए तुम रत्नाकर रत्नों से रहित मत समझो। उसी तरह थोड़े दिनों तक साधना करने के बाद भगवान के दर्शन न हों (कुछ वर्षों तक विवेकदर्शन का अभ्यास करने के बाद भी यदि विवेक-स्रोत उद्घाटित न हो) तो निराश न होना। धैर्यपूर्वक साधना (3H विकास के 5 अभ्यास)  करते रहो, समय आने पर ईश्वर की कृपा तुम पर अवश्य होगी। 

2. समुद्र में एक प्रकार की सीप (oysters) होती है, जो हमेशा मुँह खोल कर पानी पर तैरती रहती हैं,और जैसे ही स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूंद उनके मुंह में पड़ती है, वे अपना मुंह बंद कर लेती हैं और समुद्र की अतल गहराई में चली जाती है। फिर ऊपर नहीं आती। उसी प्रकार 'तत्व-पिपासू' साधक (एथेंस का सत्यार्थी) भी गुरुमन्त्र रूपी एक बूँद जल पाने के बाद, साधना के अगाध पानी में पूरी तरह डूब जाता है और फिर दूसरी ओर नहीं देखता।

২। সমুদ্রে একরকম ঝিনুক আছে, তারা সদা-সর্বদা হাঁ ক'রে জলের ওপর ভাসে, কিন্তু স্বাতী নক্ষত্রের এক ফোঁটা জল তাদের মুখে পড়লে তারা মুখ বন্ধ ক'রে একেবারে জলের নিচে চলে যায়। আর ওপরে আসে না। তত্ত্বপিপাসু বিশ্বাসী সাধকও সেইরকম গুরুমন্ত্ররূপ এক ফোঁটা জল পেয়ে সাধনের অগাধ জলে একেবারে ডুবে যায়, আর অন্য দিকে চেয়ে দেখে না।

3. जिस प्रकार किसी धनवान व्यक्ति के पास जाने के लिए उसके सिपाही-संतरी की बहुत चाटुकारी करनी पड़ती है, उसी प्रकार ईश्वर के पास जाने के लिए अनेक प्रकार के साधन-भजन और सत्संग से गुजरना पड़ता है।

৩। যেমন কোন ধনী লোকের কাছে যেতে হলে সেপাই-সান্ত্রীকে অনেক খোসামোদ করতে হয়, তেমনি ঈশ্বরের কাছে যেতে হলে অনেক সাধন-ভজন ও সৎসঙ্গ আদি নানা উপায়ের দ্বারা যেতে হয়।

4. एक लकड़हारा जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाता था और उसे बेचकर किसी प्रकार अपने दिन कष्ट में व्यतीत करता था। एक दिन वह जंगल से पतली-पतली लकड़ियाँ काट कर अपने सिर पर रखकर ला रहा था, तभी अचानक उधर से गुजर रहे एक आदमी ने उसे बुलाया और कहा, "भाई आगे बढ़ो।" अगले दिन उस लकड़हारे ने उस आदमी की बात मानकर और थोड़ा आगे जाकर मोटी मोटी लकड़ियों वाला जंगल देखा; उस दिन जितना हो सकता था उसने काट लिया और बाजार में बेचने पर उसको अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक पैसा मिला। अगले दिन वह फिर मन ही मन सोचने लगा, उन्होंने मुझसे आगे बढ़ने के लिया कहा था; ठीक है, क्यों नहीं आज थोड़ा और आगे बढ़कर देखा जाए। वह और थोड़ा आगे बढ़ा तो उसे चंदन की लकड़ी का जंगल दिखाई दिया। वह चन्दन की लकड़ी को सिर पर उठा लाया बाजार में बेच दिया, उस दिन उसको बहुत सारा धन प्राप्त हुआ। अगले दिन उसको फिर से स्मरण हुआ कि ब्रह्मचारी ने मुझे आगे जाने के लिए कहा था। उस दिन जब वह और आगे बढ़ा उसे तांबे की एक खदान दिखी। वह तांबे की खदान में ही अटके न रहकर, जैसे-जैसे वह दिन-ब-दिन आगे बढ़ता गया क्रमशः चांदी, सोने और हीरों की खदानों को ढूंढ़कर वह बहुत अधिक धनवान हो गया।  यही बात धर्ममार्ग पर भी लागु होती है। केवल आगे बढ़ते रहो। एक-दो रूप या रंग की ज्योति देखकर या सिद्धई प्राप्त करके मन में फूलकर कुप्पे मत हो जाओ, कि  मेरा तो सबकुछ हो गया है , (मैंने तो सारी साधना समाप्त कर ली है।) लक्ष्य (नेता) प्राप्त होने तक रुको मत ! 

৪। এক কাঠুরে বন থেকে কাঠ এনে কোন রকমে দুঃখে কষ্টে দিন কাটাত। একদিন জঙ্গল থেকে সরু সরু কাঠ কেটে মাথায় ক'রে আনছে, হঠাৎ একজন লোক সেই পথ দিয়ে যেতে যেতে তাকে ডেকে বললে, "বাপু এগিয়ে যাও।" পরদিন কাঠুরে সেই লোকের কথা শুনে কিছুদূর এগিয়ে গিয়ে মোটা মোটা কাঠের জঙ্গল দেখতে পেলে; সেদিন যতদূর পারলে কেটে এনে বাজারে বেচে অন্য দিনের চেয়ে অনেক বেশী পয়সা পেলে। পরদিন আবার সে মনে মনে ভাবতে লাগল, তিনি আমায় এগিয়ে যেতে বলেছেন; ভাল, আজ আর একটু এগিয়ে দেখি না কেন। সে এগিয়ে গিয়ে চন্দন কাঠের বন দেখতে পেলে। সেই চন্দন কাঠ মাথায় ক'রে নিয়ে বাজারে বেচে অনেক বেশী টাকা পেলে। পরদিন আবার মনে করলে, আমায় এগিয়ে যেতে বলেছেন। সে সেদিন আরও খানিক দূর এগিয়ে গিয়ে তামার খনি দেখতে পেলে। সে তাতেও না ভুলে দিন দিন আরও যত এগিয়ে যেতে লাগল - ক্রমে ক্রমে রূপা, সোনা, হীরার খনি পেয়ে মহা ধনী হয়ে পড়ল। ধর্মপথেরও ঐরূপ। কেবল এগিয়ে যাও। একটু আধটু রূপ, জ্যোতি দেখে বা সিদ্ধাই লাভ ক'রে আহ্লাদে মনে করো না যে, আমার সব হয়ে গেছে।

5. जिसे मछली पकड़ने का शौक है, अगर वह सुन ले कि फलाने तालाब में बड़ी मछलियां हैं तो वह क्या करता है? जिन्होंने उस तालाब में मछली पकड़ा हो , यदि वह उन लोगों के पास जाकर, पूछने लगे कि क्या सचमुच उस तालाब में बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं, या ऐसे ही हल्ला है ? यदि है, तो कौन-सा चारा फेंकना है, कौन-सा चारा खाती है - केवल इन बातों को भली-भांति जानने के बाद यदि उसे मछली पकड़ने जाना हो, तब तो वह कभी मछली पकड़ ही नहीं सकता।  उसे वहां जाकर जाल बिछाकर धैर्यपूर्वक बैठना होगा, फिर वह मछली के गलफड़ों और पैरों को देख सकेगा और फिर वह मछली पकड़ सकेगा। उसे तो वहाँ पहुंचकर बंसी फेंककर धैर्य पूर्वक बैठे रहना पड़ता है, फिर वह मछली के गलफड़ों और पूँछ को देख पाता है और उसके बाद  वह मछली पकड़ सकता है।  यही बात धर्म के बारे में भी सच है; साधक -महापुरुषों की बातों में विश्वास करके, भक्ति रूपी चारा फेंक कर, धैर्य रूपी बंसी फेंककर बैठे रहना होगा।  

৫। যে মাছ ধরতে ভালবাসে, সে যদি শোনে যে অমুক পুকুরে বড় বড় মাছ আছে, সে কি করে? যারা সেই পুকুরে মাছ ধরেছে, সে যদি তাদের নিকট গিয়ে জিজ্ঞাসা ক'রে বেড়ায় - সত্যি সত্যি সে পুকুরে বড় বড় মাছ আছে কিনা, যদি থাকে তবে কিসের চার ফেলতে হয়, কি টোপ খায় - এ-সব বিষয় ভাল ক'রে জেনে নিয়ে যদি তাকে মাছ ধরতে যেতে হয়, তাহলে তার মাছ তো একেবারেই ধরা হয় না। সেখানে গিয়ে ছিপ ফেলে ধৈর্য ধরে বসে থাকতে হয়, তারপর সে মাছের ঘাই ও ফুট দেখতে পায় এবং তারপর সে মাছ ধরতে পারে। ধর্মরাজ্যেরও সেইরূপ; সাধক ও মহাজনদের কথায় বিশ্বাস ক'রে, ভক্তি-চার ছড়িয়ে, ধৈর্যরূপ ছিপ ফেলে বসে থাকতে হয়।

6. एक व्यक्ति परमहंसदेव के पास आया और बोला, " महाशय, मैंने तो बहुत दिनों तक साधना-भजन किया- (अर्थात मनःसंयोग का अभ्यास किया) है, किन्तु मुझे कुछ समझ नहीं आया, मेरा साधन-भजन व्यर्थ चला गया है।" परम हंसदेव ने थोड़ा हँसते हुए कहा, “देखो, जो लोग खानदानी किसान होते हैं, यदि बारह वर्षों तक भी वर्षा नहीं हो, तो भी वे खेती करना नहीं छोड़ते। और जो लोग खानदानी किसान नहीं हैं, परन्तु खेती के काम में बड़ा लाभ है, सुन कर खेती को व्यापार समझकर खेती करने आते हैं, वे ही लोग ऐसे हैं जो एक वर्ष तक वर्षा न होने पर खेती छोड़ कर भाग जाते हैं। इसी प्रकार, जो लोग भगवान (अवतार वरिष्ठ) के सच्चे भक्त और आस्तिक हैं, भले ही वे जीवन भर उन्हें न देखें, लेकिन उनके नाम का जप और गुणों का कीर्तन करना कभी बंद नहीं करते ।"

৬। একটি লোক পরমহংসদেবের নিকট এসে বললে, "মহাশয়, অনেকদিন সাধন-ভজন করলুম, কিছুই তো বুঝতে সুঝতে পারলুম না, আমাদের সাধন-ভজন করা মিছে।" পরমহংসদেব ঈষৎ হাস্য ক'রে বললেন, "দেখ, যারা খানদানী চাষা, তারা বার বৎসর অনাবৃষ্টি হলেও চাষ দিতে ছাড়ে না; আর যারা ঠিক চাষা নয়, চাষের কাজে বড় লাভ শুনে কারবার করতে আসে, তারাই এক বৎসর বৃষ্টি না হলে চাষ ছেড়ে দিয়ে পালায়; তেমনি যারা ঠিক ঠিক ভক্ত ও বিশ্বাসী, তারা সমস্ত জীবন তাঁর দর্শন না পেলেও তাঁর নাম-গুণকীর্তন করতে ছাড়ে না।"

7. जैसे यदि तुम तैरना चाहते हो तो तुम्हें कई दिनों तक अपने हाथ-पैर पानी में फेंकने पड़ते हैं, पहले ही दिन तुम तैर नहीं सकते। उसी प्रकार किसी व्यक्ति को यदि ब्रह्म रूपी समुद्र में तैरना हो, तो उसे कई बार उठना -गिरना पड़ता है, एक ही बार में ब्रह्मज्ञान नहीं होता। 

৭। যেমন সাঁতার দিতে হলে আগে অনেক দিন ধরে জলে হাত-পা ছুঁড়তে হয়, একবারেই সাঁতার দেওয়া যায় না; সেইরূপ ব্রহ্মরূপ সমুদ্রে সাঁতার দিতে গেলে অনেকবার উঠতে পড়তে হয়, একবারে হয় না।

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🔱🕊🏹(7) कौपीन के वास्ते - साधना में विघ्न [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -7 : स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🔱(कार्यसिद्धि :-अर्थात मन-मुख एक करने में व्यवधान) 🔱दादा के तीन सेवक >🕊🏹

 (7) 

🔱🕊🏹 कौपीन के वास्ते - साधना में विघ्न🔱🕊🏹 

[कार्यसिद्धि (achievement): अर्थात मन-मुख एक करने में व्यवधान)

1. जिस प्रकार टंकी (tank, हौदा) में कहीं छोटा सा छेद होने पर सारा पानी धीरे-धीरे निकल जाता है, उसी प्रकार यदि साधक में किसी 'ऐषणा' (कामिनी -कांचन -प्रसिद्धि) में थोड़ी सी भी आसक्ति हो तो सारी साधनाएँ (3H विकास के 5 अभ्यास) विफल हो जाती हैं।

১। যেমন জালার ভেতর কোনখানে একটি ছোট ছিদ্র থাকলে ক্রমে ক্রমে সব জল বেরিয়ে যায়, তেমনি সাধকের ভেতরেও একটু সংসারাসক্তি থাকলে সব সাধনা বিফল হয়ে থাকে।

2. जैसे कच्ची मिट्टी से कोई आकृति गढ़ी जा सकती है, मिट्टी के पक जाने पर कोई आकृति नहीं गढ़ी जा सकती। उसी प्रकार जिसका हृदय इन्द्रियविषयों में (भूतनी -कामिनी-कांचन में) आसक्त होकर पूरी तरह से जल गया हो -शुष्क हो गया हो, उसमें( transcendental knowledge) पारलौकिक ज्ञान अर्थात एकत्व की अनुभूति या समानुभूति, सहानुभूति आदि भाव स्फूरित नहीं होते ! 

[भक्ति हुए बिना पारमार्थिक ज्ञान ( transcendental knowledge) अर्थात वह ज्ञान जो केवल प्रतीति या भ्रम न हो । सदा ज्यों का त्यों रहनेवाला हो । नाम -रूप से भिन्न शुद्ध सत्य (सच्चिदानन्द की अनुभूति)  इन्द्रियातीत सत्य, वास्तविक या परमसत्य का ज्ञान अर्थात "आत्मज्ञान"-  सबको सुलभ नहीं हो सकता। क्योंकि विषयाशक्त ह्रदय शुष्क हो जाता है, अनुभव करने वाला ह्रदय ही आत्मसाक्षात्कार के योग्य होता है ।] 

২। কাঁচা মাটিতে গড়ন হয়, পোড়া মাটিতে আর গড়ন চলে না। যার হৃদয় একেবারে বিষয়বুদ্ধিতে পুড়ে গেছে, তাতে আর পারমার্থিক ভাব ধরে না।

3. यदि चीनी में बालू मिला हुआ हो, तो जैसे चींटियाँ बालू छोड़कर चीनी खा लेती हैं, उसी प्रकार योगी और परमहंस इस संसार में केवल 'सच्चिदानन्द' सदवस्तु (अविनाशी, अपरिवर्तनीय आत्मा या ब्रह्म) को ही ग्रहण करते हैं, और असदवस्तु (नश्वर)- जो भूतनी -कामिनी -कांचन आदि 3 ऐषणाएँ हैं, उन सब का त्याग कर देते हैं।      

৩। চিনিতে বালিতে মিশে থাকলে পিঁপড়ে যেমন বালি ফেলে চিনি খায়, তেমনি সাধু ও পরমহংসেরা এ সংসারে সদ্বস্তু যে সচ্চিদানন্দ তাঁকেই গ্রহণ করে, আর অসদ্বস্তু যে কাম-কাঞ্চন, সে সমস্ত ত্যাগ করে।

4. यदि कागज पर तेल लगा हुआ हो, तो उसके ऊपर लिखा नहीं जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य पर यदि 'भूतनी,कामिनी -कांचन' -रूपी तेल लगा हुआ होगा तो वह साधना नहीं कर पाएगा। तेल लगे कागज को चाक से रगड़ने के बाद उस पर भी लिखा जा सकता है ; इसी प्रकार शरीर-मन  में कामिनी-कांचन रूपी तेल लगा हुआ हो, तो उस पर त्याग रूपी चौक (chalk-खड़िया), रगड़ लेने के बाद साधना की जा सकती है।

৪। কাগজে তেল লাগলে তাতে আর লেখা চলে না, তেমনি জীবে কাম-কাঞ্চনরূপ তেল লাগলে তাতে আর সাধন চলে না। সে তেলমাখা কাগজ খড়ি দিয়ে ঘষে নিলে তাতে লেখা যায়, তেমনি জীবে কাম-কাঞ্চনরূপ তেল লাগলে ত্যাগরূপ খড়ি দিয়ে ঘষে নিলে তবে সাধন চলে।

5. साधक -अवस्था ऐसे लोगों की संगति बिल्कुल नहीं करनी चाहिए - जो स्वयं कभी जप-ध्यान, सतसंग -स्वाध्याय आदि नहीं करते, लेकिन दूसरों को मंदिर में ध्यान-पूजा करते देखकर उनका मजाक उड़ाते हैं। जो लोग धर्म और धार्मिक लोगों की निंदा करते हैं, उनसे बिल्कुल दूर रहना चाहिए।

[जाके प्रिय न राम-बदैही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥ (विनय-पत्रिका) 

        जिसे श्री राम-जानकी जी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो। प्रह्लाद ने अपने पिता (हिरण्यकशिपु) को, विभीषण ने अपने भाई (रावण) को और ब्रज-गोपियों ने अपने-अपने पतियों को त्याग दिया, परंतु ये सभी आनंद और कल्याण करने वाले हुए। जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्री रघुनाथ जी के ही संबंध और प्रेम से माने जाते हैं, बस अब अधिक क्या कहूँ। जिस अंजन के लगाने से आँखें ही फूट जाएँ, वह अंजन ही किस काम का? तुलसी कहते हैं कि जिसके संग या उपदेश में श्री रामचंद्र जी के चरणों में प्रेम हो, वही सब प्रकार से अपना परम हितकारी, पूजनीय और प्राणों से भी अधिक प्यारा है। हमारा तो यही मत है।] 

৫। যে সকল লোক নিজে কখন ধর্মচর্চা করে না, অন্যকেও ধ্যান [কি] পূজা করতে দেখলে ঠাট্টা-বিদ্রূপ করে, ধর্ম ও ধার্মিকদের নিন্দা করে, সাধন-অবস্থায় কখনও এরূপ লোকদের সঙ্গ করবে না। তাদের কাছ থেকে একেবারে দূরে থাকবে।

6.  गायों के झुंड में यदि कोई दूसरा जानवर आ जाए तो सभी गायें उसे सिंघ मारकर भगा देती हैं, लेकिन जब कोई गाय आती है तो उसे चाटने लगती हैं। इस प्रकार जब कोई भक्त (श्रीराम-कृष्ण देव और माँ सारदा देवी का भक्त) किसी भक्त से मिलता है, तो वे दोनों धर्मकथा सुनाते हैं, बहुत आनंदित होते हैं और एकदूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन जब कोई दिखावटी भक्त (विषयासक्त और कामिनी -कांचन का पुजारी) आता है तो वह उससे घुलता-मिलता नहीं है। 

৬। গরুর পালে যদি অন্য কোন জন্তু এসে ঢোকে তা হলে সব গরুগুলো তাকে গুঁতিয়ে তাড়িয়ে দেয়, কিন্তু গরু এলে তার সঙ্গে গা চাটাচাটি করে। সেই রকম যখন ভক্তের সঙ্গে ভক্তের দেখা হয় তখন তারা উভয়ে ধর্মকথা কয়, বড় আনন্দ করে আর হঠাৎ সে সঙ্গ ত্যাগ করতে ইচ্ছা করে না। কিন্তু বিজাতীয় লোক এলে তার সঙ্গে মেশামেশি করে না।

7. जैसे जिस तालाब में पानी कम होता है, उसका जल यदि पीना हो, तो ऊपर से धीरे-धीरे हिलाना होता है, ज्यादा जोर से नहीं हिलाया जाता है। ज्यादा जोर से हिला देने पर उसके अंदर से पांकी ऊपर उठ जाएगी और पानी गंदला हो जाएगा। उसी तरह यदि तुम सच्चिदानंद की उपलब्धि करना चाहते हो, तो गुरुवाक्य में विश्वास रखते हुए धीरे धीरे साधना करते रहो। हर समय केवल शास्त्रार्थ और तर्क-विचार मत करो। क्षुद्र या अप्रशिक्षित मन बहुत जल्दी विषयों से सम्मोहित हो जाता है। 

৭। যে পুকুরে অল্প জল, তার যেমন জল পান করতে গেলে ওপর থেকে আস্তে আস্তে নেড়ে জল খেতে হয়, বেশী নাড়তে নেই, নাড়লে তার ভেতর হতে ময়লা উঠে জল ঘোলা হয়ে যায়, তেমনি যদি সচ্চিদানন্দলাভ করতে চাও তা হলে তুমি গুরুবাক্যে বিশ্বাস ক'রে ধীরে ধীরে সাধন কর। মিছে কেবল শাস্ত্রবিচার [আর] তর্ক করো না, ক্ষুদ্র মন অল্পতেই গুলিয়ে যায়।

8. "भूतेर मुखे राम-राम" - जिस राम मंत्र से सिद्ध सरसों के दाने छिड़कने से भूत निकल जाता हो, उसी दाने में भूत ढुक कर बैठा हुआ है। जिस मन के द्वारा अपने इष्टदेव का ध्यान करना है, वह मन ही यदि विषयों में आसक्त हो जाये, तो फिर एकाग्रता का (प्रत्याहार -धारणा का) अभ्यास कैसे होगा ?   

৮। ভূত ছাড়বে কেমন ক'রে বল? যে সরষে দিয়ে ভূত ছাড়াবে তারই মধ্যে ভূত ঢুকে বসে আছে; যে মন দিয়ে সাধন-ভজন করবে তাই যদি বিষয়াসক্ত হয়ে পড়ে, তা হলে সাধন-ভজন কি ক'রে হবে?

9.>>वास्तविक उपलब्धि (প্রকৃত সাধন या Real achievement) : मन और मुख का एक हो जाना ही कार्यसिद्धि या वास्तविक उपलब्धि है। नहीं तो मुख से कहूंगा -'हे ठाकुर देव! 'आप ही मेरा सर्वस्व धन हैं !' और मन में विषयों को ही सर्वस्व मानकर बैठा हूँ (कामिनी-कांचन में घोर रूप से आसक्त हूँ) - तो ऐसे लोगों की समस्त साधना विफल हो जाती है।  

৯। মন-মুখ এক করাই হচ্ছে প্রকৃত সাধন। নতুবা মুখে বলছি, 'হে ভগবান্! তুমি আমার সর্বস্ব ধন' এবং মনে বিষয়কেই সর্বস্ব জেনে বসে রয়েছি - এইরূপ লোকের সকল সাধনাই বিফল হয়।

10. यदि मन में थोड़ी सी भी ऐषणा (कमनी-कांचन -प्रसिद्धि में आसक्ति) बची हुई है, तो ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती। जैसे धागे में एक भी रोआँ उठा हुआ तो धागा सूई के छिद्र से पार नहीं हो सकता। उसी तरह मन जब सभी प्रकार की वासनाओं से विरक्त होकर, वासनारहित होकर शुद्ध हो जाता है, तभी सच्चिदानन्द की उपलब्धि होती है।      

১০। বাসনার লেশমাত্র থাকতে ভগবানলাভ হয় না। যেমন সূতোতে একটু ফেঁসো বেরিয়ে থাকতে ছুঁচের ভেতর যায় না। মন যখন বাসনারহিত হয়ে শুদ্ধ হয়, তখনই সচ্চিদানন্দ লাভ হয়।

11. जो लोग ईश्वर (श्री रामकृष्ण देव की भक्ति) प्राप्त करने के लिए साधना-भजन करना चाहते हैं, उन्हें किसी भी हाल में कामिनी-कांचन में आसक्त नहीं होना चाहिए। जिस व्यक्ति में किसी भी कारण से कामिनी-कंचन में मोह बना हुआ है, उसे कभी कार्यसिद्धि नहीं होगी -अर्थात उसका मन और मुख कभी एक नहीं होगा। जैसे फरही भुनते समय जो दाना छिटक कर कड़ाही के बाहर गिर जाता है उस पर कोई दाग नहीं पड़ता, लेकिन यदि वह गर्म रेत के संपर्क में आ जाए तो उस पर कुछ स्थानों पर काले दाग पड़ ही जाते हैं।

১১। যারা ঈশ্বরলাভের জন্য সাধন-ভজন করতে চায় তারা যেন কোন রকমে কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত না হয়ে পড়ে, কামিনী-কাঞ্চনের সংস্রব থাকলে কোন কালেও তাদের সিদ্ধাবস্থালাভের উপায় নেই। যেমন খই ভাজবার সময় যে খইটি খোলার উপর থেকে ঠিকরে বাইরে পড়ে, তাতে কোন দাগ লাগে না, কিন্তু গরম বালির খোলায় থাকলে কোন কোন স্থানে কাল দাগ লাগে।

12. मनुष्य को अपने मन में धन, पुत्र या सम्मान पाने की इच्छा लेकर भगवान (या परम सत्य) की खोज नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति केवल सत्य (अपरिवर्तनीय सत्य) को पाने की इच्छा से भगवान से प्रार्थना करता है, उसे अवश्य ईश्वर की उपलब्धि होती है।   

১২। বিষয়, ছেলে, কিংবা মান-সম্ভ্রমের জন্য কেহ যেন কামনা ক'রে ঈশ্বরের সাধনা না করে, যে শুধু সচ্চিদানন্দ-লাভের জন্য তাঁর নিকট প্রার্থনা করে, তার নিশ্চয়ই ঈশ্বর-লাভ হয়।

13. जिस प्रकार कठौती में हवा से हिलता पानी हो तो, तो सतह में रखे चाँदी के सिक्के का सही प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार यदि मन स्थिर नहीं है, उसमें भगवान का प्रकाट्य नहीं होता। साँस लेने-छोड़ने के साथ ही साथ मन चंचल हो जाता है। इसीलिए योगी लोग पहले कुम्भक के द्वारा मन को स्थिर करके, फिर ईश्वर का ध्यान करते हैं।   

১৩। যেমন বাতাসে জল নড়লে ঠিক প্রতিবিম্ব দেখা যায় না, তেমনি মন স্থির না হলে তাতে ভগবানের প্রকাশ হয় না। নিঃশ্বাস-প্রশ্বাসের সঙ্গে সঙ্গে মন চঞ্চল হয়। এইজন্য যোগীরা আগে কুম্ভক দ্বারা মন স্থির ক'রে ভগবানের ধ্যান-ধারণা করেন।

14. जो अपने भाव के घर में चोरी नहीं करता, उसको ही सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है। अर्थात मन-मुख एक करके सरल भाव से गुरुदेव पर विश्वास करने से ही ईश्वर (सत्य) की प्राप्ति होती है।

১৪। ভাবের ঘরে যার চুরি না থাকে, তারই সচ্চিদানন্দ লাভ হয়। অর্থাৎ কেবল সরলভাবে ও বিশ্বাসেই তাঁকে পাওয়া যায়।

15. जिस प्रकार सांप को देखने पर लोग कहते हैं, "हे माँ मनसा, मुख छिपा कर रखो, और पूंछ दिखाते रहो !" उसी प्रकार जब कोई युवती दिखे तो माँ कहकर उनको नमस्कार करना उचित है, और उनके चेहरे की ओर न देखकर पैरों की ओर देखना चाहिए। तब न तो कोई प्रलोभन रहेगा और न ही गिरने का खतरा रहेगा।

[ माँ मनसा देवी -भगवान शिव और माता पार्वती की पुत्री, विषहर मां। इनके बड़े भाई भगवान कार्तिकेय और भगवान अय्यपा हैं तथा इनकी बड़ी बहन देवी अशोकसुन्दरी, और देवी ज्योति हैं। भगवान गणेश इनके छोटे भाई हैं।

১৫। যেমন সাপ দেখলে লোকে বলে থাকে, "মা মনসা, মুখটি লুকিয়ে রেখো, আর ল্যাজটি দেখিয়ো", তেমনি যুবতী স্ত্রীলোক দেখলে মা বলে নমস্কার করা উচিত ও তাদের মুখের দিকে না চেয়ে পায়ের দিকে চাইবে। তা হলে আর প্রলোভনের আর পতনের আশঙ্কা থাকবে না।

16. चाहे कोई स्त्री विद्याशक्ति हो या अविद्या- शक्ति; सभी स्त्रियाँ योगियों, संन्यासियों, और भक्त के लिए माँ आनन्दमयी का रूप ही समझी जाएंगी। 

[“विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥” - दुर्गा सप्तशती (११/६)

अर्थ :-  'हे देवि! सारी विद्याएं तुम्हारी अंशमात्र हैं। संसार की सारी स्त्रियां तुम्हारा ही रूप हैं। एकमात्र तुम्हीं मातृरूप में इस जगत् के बाहर-भीतर व्याप्त हो रही हो।' मां आपको बार-बार प्रणाम है

১৬। বিদ্যাশক্তিই হউক বা অবিদ্যাশক্তিই হউক, সাধু-সন্ন্যাসী ও ভক্তমাত্রেই সব স্ত্রীলোককে মা আনন্দময়ীর রূপ বলে জানবে।

17. जो व्यक्ति किसी नवयौवना को, किसी वीरान स्थान पर पाकर और उसे माँ कहकर वहाँ चला जा सकता है, वास्तव में उसीको त्यागी कहा जा सकता है। और जो व्यक्ति जन सभा में दिखावे के लिए त्यागी का वेश धारण करता है, उसे एक सच्चा त्यागी नहीं कहा जा सकता।  

১৭। খুব জনশূন্য স্থানে যুবতী স্ত্রীলোককে দেখে যে মা বলে চলে যেতে পারে, है তাকেই ঠিক ঠিক ত্যাগী বলা যায়, আর, যে লোক সভার মাঝখানে ত্যাগী সেজে থাকে, তাকে প্রকৃত ত্যাগী বলা যায় না।

18. अहंकार का शरीर मरकर भी नहीं मरता, जैसे बकरे सिर धड़ से अलग कर देने के बाद भी, उसका धड़ थोड़ी देर तक हिलता-डुलता रहता है।   

১৮। অভিমানের জড় মরেও মরে না, যেমন ছাগলটাকে কেটে ফেলে তার ধড় মুণ্ডু হতে পৃথক্ করলেও কিছুক্ষণ ধরে নড়তে থাকে।

19. अहंकार रहित हो जाना बहुत कठिन है। जिस प्रकार पीसा हुआ लहसुन किसी बर्तन में रख दिया जाए तो फिर उस बर्तन को सैकड़ों बार धोने पर भी उसकी गंध नहीं जाती, उसी प्रकार अहं के भी कुछ न कुछ निशान रह ही जाते हैं।

১৯। অভিমানশূন্য হওয়া বড় কঠিন। প্যাঁজ রসুনকে ছেঁচে কোন পাত্রে রেখে, তার পর পাত্রটিকে শতবার ধুয়ে ফেললেও তার গন্ধ যেমন কিছুতেই যায় না, সেই প্রকার অভিমানের লেশ কিছু না কিছু থেকে যায়।

20. वास्तविक योगी या संन्यासी के लक्षण क्या हैं, जानते हो ? कामिनी-कांचन से किसी प्रकार का कोई सम्पर्क न रहेगा। यहाँ तक कि सपने में भी कामिनी-सहवास हो रहा है, ऐसा अनुभव हो और इससे वीर्यस्खलन हो जाये, या स्वप्न में भी धन देखकर लालच उत्पन्न होता हो, तो इतने दिनों का साधन-भजन सब नष्ट हो जाता है।     

২০। ঠিক ঠিক সন্ন্যাসী বা ত্যাগীর লক্ষণ কিরূপ জান? তারা কামিনী-কাঞ্চনের কোনরূপ সংস্পর্শে থাকবে না। এমন কি, স্বপ্নেও যদি কামিনী-সহবাস হচ্ছে বলে জ্ঞান হয় এবং তদ্দ্বারা রেতঃস্খলন হয়, কিংবা অর্থের ওপর আসক্তি জন্মায়, তা হলে এত দিনের সাধন-ভজন সব নষ্ট হয়ে যায়।

21. भगवान कल्पतरु हैं।  कल्पतरु के नीचे बैठकर जो भी प्रार्थना किया जाये, उसे वही वस्तु प्राप्त हो जाती है। जब साधन-भजन द्वारा मन शुद्ध हो जाता है, तो बहुत सतर्क होकर इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है। जानते हो, कैसे ? 

    एक बार कोई व्यक्ति यात्रा करते करते हुए एक विशाल जंगल में पहुँच गया। रास्ते में धूप की गर्मी और यात्रा के कष्टों से अत्यधिक थक जाने और पसीने से लथपथ होकर, थकान दूर के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गया। और मन ही मन सोचने लगा यदि इस समय कोई अच्छा बिस्तर मिल जाता तो मैं बड़े आराम से उसपर सो जाता। उस यात्री को यह नहीं पता था कि वह एक कल्पतरु के नीचे बैठा है। जैसे ही यह इच्छा मन में जगी कि एक आरामदेह बिस्तर वहाँ आ गया।  यात्री को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उस बिस्तर पर सो गया और मन ही मन सोचने लगा, यदि इस समय कोई स्त्री आकर मेरा पैर दबाती तो मुझे बहुत सुख की नींद सो सकता था। जैसे ही मन में यह संकल्प उठा, कि एक युवती यात्री के चरणों में बैठकर उसका पैर दबाने लगी।  

      यह देख कर यात्री की खुशी का ठिकाना न रहा। तभी उसे बहुत जोरों की भूख लगी, वह सोचने लगा -अबतक तो मैंने जो चाहा वो मुझे मिल गया, तब क्या खाने के लिए कुछ नहीं मिल सकता ? ऐसा कहते ही उसके पास नाना प्रकार के खाद्यपदार्थ आ गए। पथिक उसे भरपेट खाकर उसी बिस्तर पर लेट गया और उस दिन की सभी घटनाओं के बारे में सोचने लगा। उसी समय उसके मन विचार आया कि यदि इसी समय अचानक कोई बाघ चला आये, तो क्या हो ? 

      जैसे ही मन में ऐसा विचार उठा, एक विशाल बाघ कहीं से छलांग लगाकर उसको पकड़ लिया और उसकी गर्दन से खून पीना शुरू कर दिया। अंततः उस पथिक की जीवन लीला समाप्त हो गई। इस संसार में प्राणियों (मनुष्यों) के साथ भी ठीक वैसा ही घटित होता है। ईश्वरप्राप्ति की साधना (या सत्य की खोज करते समय), भौतिक सुख, धनदौलत, व्यक्ति या पद या यश इत्यादि पाने की इच्छा करोगे तो कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा, लेकिन अन्त में बाघ आ जाने का भय भी बना रहेगा। अर्थात रोग, शोक, ताप-धोखा , मान, अपमान और विषय-भोगों का नाश रूपी बाघ सामान्य बाघ से लाख गुना अधिक कष्टदायक (painful) होता है। 

২১। ভগবান্ কল্পতরু। কল্পতরুর নিকট বসে যে যা-কিছু প্রার্থনা করে, তাই তার লাভ হয়। এই নিমিত্ত সাধন-ভজনের দ্বারা যখন মন শুদ্ধ হয়, তখন খুব সাবধানে কামনা ত্যাগ করতে হয়। কেমন জান? 

-এক ব্যক্তি কোন সময় ভ্রমণ করতে করতে অতি বিস্তীর্ণ প্রান্তরে গিয়ে উপস্থিত হয়। পথে রৌদ্রের তাপে এবং পথভ্রমণের ক্লেশে অতিশয় ক্লান্ত ও ঘর্মাক্তকলেবর হয়ে কোন একটি বৃক্ষের নিম্নে উপবেশন ক'রে শ্রান্তি দূর করতে করতে মনে মনে ভাবলে যে, এই সময়ে যদি একটি উত্তম শয্যা মেলে, তা হলে তাতে অতি সুখে নিদ্রা যাই।

   পথিক যে কল্পতরুর নিম্নে বসে ছিল, তা সে জানত না। মনে মনে যেমন এই বাসনা উঠল তৎক্ষণাৎ সেইখানে উত্তম শয্যা এসে পড়ল। পথিক অত্যন্ত আশ্চর্য হয়ে তাহাতেই শয়ন করলে ও মনে মনে ভাবতে লাগল, এই সময় যদি একটি স্ত্রীলোক এসে আমার পদসেবা করে, তা হলে অতি সুখে শয়ন করতে পারি। এই সঙ্কল্প হতে না হতেই তখনই এক যুবতী পথিকের পদতলে এসে উপবেশনপূর্বক তার সেবা করতে লাগল। 

     পথিকের এই দেখে আহ্লাদের আর সীমা রইল না। তারপর তার খুব ক্ষুধা পেতে লাগল ও সে মনে করলে যা ইচ্ছা করেছিলুম তা পেলুম, তবে কি খাবার কিছু জিনিস পাব না? বলতে না বলতে তার নিকট অমনি নানাপ্রকার খাদ্যদ্রব্য এসে জুটল। পথিক সেগুলি দিয়ে তখনই উদর পূর্ণ ক'রে সেই শয্যায় শয়নপূর্বক সেদিনকার সব ঘটনা ভাবছে; এমন সময় তার মনে হল যে এ সময় যদি হঠাৎ একটা বাঘ এসে পড়ে, তাহলেই বা কি করা যায়। 

     যেমন এইটি মনে হওয়া অমনি এক প্রকাণ্ড বাঘ লাফ দিয়ে এসে তাকে ধরলে এবং তার ঘাড় থেকে রক্ত পান করতে লাগল। অবশেষে পথিকের জীবন শেষ হল। এই সংসারে জীবেরও ঠিক এইরূপ দশা ঘটে থাকে। ঈশ্বরসাধন করতে গিয়ে বিষয়, ধন, জন অথবা মান, যশ ইত্যাদির কামনা করলে তা কিছু কিছু লাভ হয় বটে কিন্তু শেষে ব্যাঘ্রেরও ভয় থাকে। অর্থাৎ রোগ, শোক, তাপ, মান, অপমান ও বিষয়নাশরূপ ব্যাঘ্র স্বাভাবিক ব্যাঘ্র হতেও লক্ষগুণে যন্ত্রণাদায়ক।

22. किसी व्यक्ति के मन में अचानक वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया,उसने अपने नजदीकी रिश्तेदारों से कहा - "मुझे परिवार में रहना पसन्द नहीं है। [Double Bed के पलंग पर पत्नी के साथ सोना पसन्द नहीं है। ] इसी समय मैं किसी निर्जन स्थान में जाकर (महामण्डल शिविर में जाकर) ईश्वर की आराधना करूंगा।" उसके परिजन इस शुभ संकल्प में सहमत हो गये।

     तब उस व्यक्ति ने अपना घर छोड़कर, धीरे-धीरे किसी सुनसान स्थान में जाकर कठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। लगातार  बारह वर्षों तक तपस्या करने के बाद थोड़ी -बहुत सिद्धाई प्राप्त करके पुनः अपने घर वापस लौट आया। उसके अपने नाते-रिश्ते वाले इतने वर्षों बाद उसे देखा तो सबों ने  प्रसन्नता व्यक्त की और बातचीत के क्रम में उससे पूछा, " इतने समय तक तपस्या करने से तुम्हें क्या ज्ञान प्राप्त हुआ?"

   तभी वह आदमी हँसा और सामने से एक हाथी को गुजरते देखा, हाथी के पास गया और उसकी गर्दन को तीन बार छुआ और कहा, 'हाथी तुम मर जाओ', और उसके स्पर्श से हाथी मर गया; थोड़ी देर बाद जैसे ही उसने दोबारा हाथ से कहा, 'हाथी जीवित रहो', हाथी जीवित हो उठा।

   फिर वह घर के सामने वाले नदी के किनारे गया और मंत्र के बल से पानी पर चलते हुए इस किनारे से उस किनारे तक चला गया और उसी तरह पैदल चलकर नदी के उस पार पहुँच  गया। यह सब देखकर उसके भाईयों को बहुत आश्चर्य तो हुआ, लेकिन वे अपने तपस्वी भाई से कहने लगे - "भाई, हमने देखा कि हाथी मर गया और जीवित हो गया? लेकिन इससे तुम्हें क्या लाभ हुआ ?  तुमने अब तक केवल व्यर्थ ही तपस्या की है। " "इसी प्रकार बारह वर्ष तक घोर तपस्या करके तुमने नदी के इस पार से उस पार जाना करना सीख लिया;लेकिन हम उसके लिए केवल एक पैसा खर्च करते हैं। अतएव तुमने अबतक केवल व्यर्थ में समय बर्बाद किया है।" भाइयों के ऐसे व्यंग्यपूर्ण शब्द सुनकर, उसके होश ठिकाने आ गए, (यानि उसको चैतन्य हो गया ?) वह कहने लगा, सही में यह सब करके मुझे क्या मिला ? इतना कहकर वह उसी समय भगवान का दर्शन पाने के उद्देश्य से पुनः घोर तपस्या करने के लिए वन में चला गया।    

২২। এক ব্যক্তির মনে হঠাৎ বৈরাগ্যভাব উদয় হতে আত্মীয় ভাইদের নিকট বলল, "সংসার আমার ভাল লাগছে না। এখনি আমি কোন নির্জন স্থানে গিয়ে ঈশ্বর-আরাধনা করব।" তার আত্মীয়েরা এই শুভ সঙ্কল্পে সম্মতি দিল।

      উক্ত ব্যক্তি বাড়ি হতে বাহির হয়ে ক্রমে এক নির্জন স্থানে উপস্থিত হয়ে ঘোরতর তপস্যা করতে আরম্ভ করলে। ক্রমান্বয়ে বার বৎসর কাল তপস্যা ক'রে ও কিছু কিছু সিদ্ধাই লাভ ক'রে পুনরায় বাড়িতে ফিরল। তার আত্মীয়-স্বজনেরা অনেকদিন পরে তাকে দেখে সকলেই আনন্দ প্রকাশ করতে লাগল ও কথাবার্তা-প্রসঙ্গে জিজ্ঞাসা করলে, "এতদিন তপস্যা ক'রে কি জ্ঞানলাভ করলে?" 

তখন সেই ব্যক্তি ঈষৎ হাস্য ক'রে সম্মুখে একটি হাতী চলে যাচ্ছে দেখে, হাতীর নিকট গিয়ে তার গা তিনবার স্পর্শ ক'রে যেমন বললে, 'হাতী তুই মরে যা', অমনি হাতীটা তার স্পর্শে মৃতবৎ হয়ে গেল; কিছুক্ষণ পরে আবার গায়ে হাত দিয়ে যেমন বললে, 'হাতী বাঁচ্' অমনি হাতী বেঁচে উঠল।

   তারপর বাড়ির সম্মুখে নদীর ধারে গিয়ে মন্ত্রবলে এপার হতে পরপারে চলে গেল, আবার ঐভাবে নদী পার হয়ে এল। তার ভাইয়েরা এই সব দেখে খুব আশ্চর্য হল বটে, কিন্তু তপস্বী-ভাইকে বলতে লাগল - "ভাই, এতদিন কেবল বৃথা তপস্যা করেছ; হাতী মরল ও বাঁচল তাতে তোমার কি লাভ হল? 

   আর তুমি বার বছর ধরে কঠোর তপস্যা ক'রে নদী পারাপার করতে শিখেছ; আমরা এক পয়সা খরচ করে থাকি। অতএব তুমি কেবল বৃথা সময় নষ্ট করেছ।" ভাইদের নিকট এইরূপ শ্লেষপূর্ণ কথা শুনে তার যথার্থই হুঁশ হল ও সে বলতে লাগল, "যথার্থই আমার নিজের কি হল?" এই বলে তৎক্ষণাৎ ভগবানের দর্শনলাভের জন্য পুনরায় ঘোরতর তপস্যা করতে চলে গেল।

23. मनुष्य को स्वयं को चतुर नहीं समझना चाहिए - जिस प्रकार कौआ बहुत चतुर होता है, लेकिन गंदगी खाकर मर जाता है।  उसी प्रकार दुनियादारी के मामले में जो लोग बहुत अधिक चालाकी दिखाने जाते हैं, वे ही अधिक धोखा खाते हैं।

২৩. নিজেকে বেশী চতুর মনে করা উচিত নয় - যেমন কাক খুব চতুর, কিন্তু বিষ্ঠা খেয়ে মরে, তেমনি সংসারক্ষেত্রে যারা বেশী চালাকি করতে যায়, তারাই কেবল ঠকে থাকে।

24 एक दिन मैंने गंगा के किनारे खड़े होकर, एक हाथ में रुपया  और दूसरे हाथ में मिट्टी लेकर, 'मिट्टी ही रुपया है, रुपया ही मिट्टी है' कहते हुए उन दोनों को गंगा के पानी में फेंक दिया। उसके बाद मेरे मन में थोड़ा भय हुआ और सोचने लगा - माँ लक्ष्मी यदि इससे अप्रसन्न हो जायें और मुझे भोजन न दें ? उसके बाद मैंने मन ही मन में कहा, "माँ लक्ष्मी, आप ही मेरे हृदय में रहिये, मुझे आपका ऐश्वर्य नहीं चाहिए।"

২৪। একদিন গঙ্গার ধারে দাঁড়িয়ে এক হাতে একটা টাকা নিয়ে আর এক হাতে মাটি নিয়ে 'মাটিই টাকা, টাকাই মাটি', এইরূপ বিচার ক'রে উভয়কে যখন গঙ্গার জলে ফেলে দিলুম, তখন মনে একটু ভয় ও ভাবনা এল। ভাবলুম - মা লক্ষ্মী যদি রাগ করেন ও তিনি যদি খেতে না দেন। তার পরে মনে বললুম, "মা লক্ষ্মী, তুমিই আমার হৃদয়ে থাক, তোমার ঐশ্বর্য আমি চাই না।"

25. भगवान दो बार हंसते हैं। जब भाई-भाई रस्सी पकड़ कर ज़मीन का बँटवारा करते हैं और कहते हैं, " इस तरफ की जमीन मेरी है, और उस तरफ की जमीन तुम्हारी।" उस समय एक बार हँसते हैं। और दूसरी बार तब हँसते हैं , जब किसी व्यक्ति की बीमारी अच्छा होना मुश्किल है, उसके नाते -रिश्तेदार रो रहे होते हैं; लेकिन वैद्य आकर कहते हैं - "डर किस बात का है? मैं इसे ठीक कर दूंगा।" वैद्य को यह नहीं मालूम कि यदि ईश्वर मारना चाहें, तो किसकी शक्ति है कि उसकी रक्षा कर सके।

২৫। ঈশ্বর দুবার হাসেন। যখন ভায়ে ভায়ে দড়ি ধরে জমি বখরা করে নেয় আর বলে, "এ দিকটা আমার, ও ঐ দিকটা তোমার", তখন একবার হাসেন। আর একবার হাসেন যখন লোকের অসুখ কঠিন হয়ে পড়েছে, আত্মীয়স্বজনেরা সকলে কান্নাকাটি কচ্ছে, বৈদ্য এসে বলছে, "ভয় কি? আমি ভাল করে দেব।" বৈদ্য জানে না যে, ঈশ্বর যদি মারেন, তবে কার সাধ্য তাকে রক্ষা করে।

26. भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन, अष्ट-सिद्धियों में से एक भी सिद्धि रहने से तुम मेरे परम् भाव को प्राप्त नहीं कर पाओगे ।" अत: जो सच्चे भक्त और ज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी प्रकार की सिद्धि की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

২৬। শ্রীকৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, "হে অর্জুন, অষ্ট সিদ্ধির মধ্যে একটি সিদ্ধিও থাকলে পরে আমার যে সেই পরম ভাব, তা তুমি লাভ করতে পারবে না।" অতএব যারা  ঠিক ঠিক ভক্ত ও জ্ঞানী, তারা যেন কোনরূপ সিদ্ধি কামনা না করে।

27. लक्ष्मीनारायण नाम का एक मारवाड़ी सतसंगी और धनाड्य व्यक्ति ठाकुरदेव का दर्शन करने दक्षिणेश्वर आया। ठाकुर के साथ वेदांत पर लंबी चर्चा हुई। ठाकुर के साथ धार्मिक चर्चा करके और वेदांत पर उनके उपदेशों को सुनकर उन्हें बहुत आनन्द हुआ। अंत में ठाकुर से विदा लेते  समय उन्होंने कहा, ''मैं आपकी सेवा के लिए दस हजार रुपये देना चाहता हूं। ''

       जैसे ही ठाकुर ने यह सुना, उन्हें ऐसा लगा मानों उनके सिर पर जोरदार झटका लगा हो, वह लगभग बेहोश हो गए जैसे हो गए। थोड़ा सम्भल जाने पर,  अपनी घोर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए,किसी बच्चे के समान उसको सम्बोधित करते हुए कहा, "शाला, तुम हियाँसे अभी उठ जाओ। तुम हामको माया का प्रलोभन देखाता है !" उक्त माड़वाड़ी भक्त थोड़ा शर्मिन्दा हो गए और ठाकुर से बोले - " आप अभी थोड़ा कच्चा है। " इस पर ठाकुरदेव ने पूछा - कैसे हाय ?" मारवाड़ी भक्त ने कहा, "महापुरुष लोगों को खूब उच्च अवस्था प्राप्त होने से -त्याज्य और ग्राह्य एक समान हो जाता है, कोई उन्हें कुछ देता है या लेता है उससे उनके चित्तमे सन्तोष या  क्रोध कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।"

     उसकी बातों को सुनकर ठाकुर थोड़ा हँसे और उसे समझाने लगे, 'देखो, अगर शीशे पर कुछ मैले दाग लगे हों तो चेहरा ठीक से नहीं देखा जा सकता, उसी तरह जिसका मन शुद्ध हो चुका है, उस पवित्र मन पर कामिनी-कांचन का दाग लगना ठीक नहीं है।" तब उस माड़वाड़ी भक्त ने कहा, " ठीक है, आप मत लीजिये। किन्तु ये ह्रदय जो आपकी सेवा करता है, उसके नाम से ये पैसे रहेंगे, जिसे वह आपकी सेवा के लिए खर्च करेगा। " 

        तब ठाकुर ने कहा, "नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता। क्योंकि, अगर यह पैसा उसके पास जमा रहेगा, तो कभी मैं उससे कह सकता हूँ कि मैं फलां व्यक्ति को कुछ देना चाहता हूँ, या किसी अन्य वस्तु पर खर्च करने की मेरी इच्छा है। लेकिन यदि वह पैसे देना नहीं चाहे तो, उसके मन में यह अहंकार आसानी से आ सकता है कि, यह पैसा तो आपका नहीं है, उसने मेरे लिए दिया था। तो ऐसा होना भी ठीक नहीं होगा। ठाकुर की ये बातें सुनकर मारवाड़ी भक्त आश्चर्यचकित रह गए, और उनके इस अभूतपूर्व त्याग भाव को देखकर, गदगद मन से अपने  घर की ओर प्रस्थान कर गए।       

[दादा के तीन सेवक > शुभाशीष =ह्रदय ने दादा के लिए फल लेने से मन किया ? केदारदा दादा के लिए केसरी जीवन ले जाने से , मिठाई ले जाने से मना नहीं करता था , प्रसाद के रूप में बाँटना होता है। बासुदेवबाघ घर में दादा की सेवा के लिए भाभीजी के काम में सेवा करने चाहता था। ]       

২৭। লক্ষ্মীনারায়ণ নামক একজন মাড়োয়ারী সৎসঙ্গী ও ধনাঢ্য ব্যক্তি দক্ষিণেশ্বরে একদিন ঠাকুরকে দর্শন করতে আসেন। ঠাকুরের সঙ্গে অনেকক্ষণ ধরে বেদান্ত বিষয়ে আলোচনা হয়। ঠাকুরের সহিত ধর্মপ্রসঙ্গ ক'রে ও তাঁর বেদান্ত সম্বন্ধে আলোচনা শুনে তিনি বড়ই প্রীত হন। পরিশেষে ঠাকুরের নিকট হতে বিদায় নেবার সময় বলেন, "আমি দশ হাজার টাকা আপনার সেবার নিমিত্ত দিতে চাই।" 

ঠাকুর এই কথা শোনবামাত্র, মাথায় দারুণ আঘাত লাগলে যেরূপ হয়, মূর্ছাগতপ্রায় হলেন। কিছুক্ষণ পরে মহাবিরক্তি প্রকাশ ক'রে বালকের ন্যায় তাকে সম্বোধন ক'রে বললেন, "শালা, তুম্ হিঁয়াসে আভি উঠ্ যাও। তুম্ হামকো মায়াকা প্রলোভন দেখাতা হ্যায়।" উক্ত মাড়োয়ারী ভক্ত একটু অপ্রতিভ হয়ে ঠাকুরকে বললেন, "আপ্ আভি থোড়া কাঁচা হ্যায়।" ইহার উত্তরে ঠাকুর জিজ্ঞাসা করলেন, "ক্যায়সা হ্যায়।" মাড়োয়ারী ভক্ত বললেন, "মহাপুরুষ লোগোকোঁ খুব উচ্চ অবস্থা হোনেসে ত্যাজ্য গ্রাহ্য এক সমান বরাবর হো যাতা হ্যায়, কোই কুছ্ দিয়া অথবা লিয়া উসমে উনকা চিত্তমে সন্তোষ বা ক্ষোভ কুছ্ নেহি হোতা।" 

   ঠাকুর ঐ কথা শুনে ঈষৎ হেসে তাকে বুঝাতে লাগলেন, "দেখ, আর্শিতে কিছু অপরিষ্কার দাগ থাকলে যেমন ঠিক ঠিক মুখ দেখা যায় না, তেমনি যার মন নির্মল হয়েছে, সেই নির্মল মনে কামিনী-কাঞ্চন-দাগ পড়া ঠিক নয়।" ভক্ত মাড়োয়ারী বললেন, "বেশ কথা, তবে হৃদয়, যে আপনার সেবা করে, না হয় তার নামে আপনার সেবার জন্য টাকা থাক।" 

তদুত্তরে ঠাকুর বললেন, "না, তাও হবে না। কারণ, তার নিকট থাকলে যদি কোন সময় আমি বলি যে অমুককে কিছু দাও বা অন্য কোন বিষয়ে আমার খরচ করতে ইচ্ছা হয়, তাতে যদি সে দিতে না চায় তার মনে সহজেই এই অভিমান আসতে পারে যে, ও টাকা তো তোর নয়, ও আমার জন্য দিয়েছে। এও ভাল নয়।" মাড়োয়ারী ভক্ত ঠাকুরের এই কথা শুনে আশ্চর্য হলেন এবং ঠাকুরের এই অদৃষ্টপূর্ব ত্যাগভাব দেখে নিরতিশয় প্রীত হয়ে স্বস্থানে প্রস্থান করলেন।

28. पैसे का अहंकार/घमंड नहीं दिखाना चाहिये। यदि तुम कहते हैं कि मैं धनवान हूँ, तुमसे बढ़कर एक से एक अन्य कई पैसेवाले हैं। शाम ढलने के बाद जब 'जुगनू' उड़ता है तो सोचता है, मैं इस जगत को प्रकाशित कर रहा हूँ; लेकिन जैसे ही सितारे चमकते हैं, वैसे ही उसका सारा अहंकार चला जाता है। तब सितारे सोचते हैं, हम जगत को प्रकश दे रहे हैं; परन्तु बाद में जब चाँद निकला तो तारे शर्म के मारे धुँधले हो जाते हैं। कुछ देर बाद तो सितारे दिखाई भी नहीं देते। धनवान लोग यदि इस प्रकार से चिंतन करें, तो उन्हें अपने धन पर कभी घमंड नहीं होगा।

২৮। টাকার অহঙ্কার করতে নেই। যদি বল আমি ধনী, ধনীর আবার তারে বাড়া তারে বাড়া আছে। সন্ধ্যার পর যখন জোনাকী পোকা ওঠে, সে মনে করে, আমি এই জগৎকে আলো দিচ্ছি; কিন্তু যেই নক্ষত্র উঠল, অমনি তার অভিমান চলে গেল। তখন নক্ষত্রেরা মনে করে, আমরা জগৎকে আলো দিচ্ছি; কিন্তু পরে যখন চন্দ্র উঠল, তখন নক্ষত্রেরা লজ্জায় মলিন হয়ে গেল। চন্দ্র মনে করলে, আমার আলোয় জগৎ হাসছে। দেখতে দেখতে অরুণোদয় হল, তখন চন্দ্র মলিন হয়ে গেল। খানিক পরে আর দেখা গেল না। ধনীরা যদি এগুলি ভাবে, তাহলে আর তাদের ধনের অহঙ্কার থাকে না।

29. "एक कौपीन के वास्ते।" 

अपने गुरु से उपदेश लेने के बाद, किसी संत ने भगवान की आराधना करने के उद्देश्य से एक गांव के पास सुनसान जंगल में एक छोटी सी कुटिया बनाई , और उसमें रहकर पूजा-पाठ करने लगे। वे सुबह जल्दी उठ जाते थे और स्नान आदि करने के बाद अपने गीले कपड़े और कौपीन कुटिया के पास एक पेड़ पर सूखने के लिए छोड़ देते थे। जब संत भिक्षा माँगने के लिए बाहर जाते थे तो चूहे आकर उनकी कौपीन कुतर देते थे। सन्त दूसरे दिन गाँव जाकर फिर से एक नई कौपीन माँग लाते थे। 

       कुछ दिनों के बाद संत ने फिर स्नान किया और गीली कौपीन को कुटिया पर सूखने के लिए छोड़ कर भिक्षा माँगने के लिए गांव में चले गए। भिक्षा लेकर कुटिया में जब वापस आये तो देखे कि चूहों ने उनके कौपीन को कुतर कर टुकड़े -टुकड़े कर दिया है। यह देख कर वे बहुत व्याकुल हुए और सोचने लगे, “इस बार किससे कौपीन के लिए भिक्षा माँगूँ?” अगले दिन जब वे फिर भिक्षा के लिए गाँव पहुँचे तो गांव वालों को चूहों के उपद्रव के बारे में बताया। ग्रामवासियों ने पूरा विवरण सुनने के बाद कहा, "आपको हर दिन एक कौपीन कौन देगा ? आप एक काम कीजिये, एक बिल्ली पाल लीजिये, तब बिल्ली के डर से चूहे नहीं आएंगे। " संत उसी समय गाँव से एक बिल्ली का बच्चा ले आये। उस दिन से बिल्लियों के डर से चूहों का उत्पात बंद हो गया। यह देखकर संत की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

    धीरे-धीरे संत उस बिल्ली को बहुत प्यार से पालने-पोसने लगे, और गाँव में जाकर बिल्ली के  लिए भिक्षा में दूध माँगकर उसे पिलाने लगे। कुछ दिनों बाद एक व्यक्ति ने उनसे कहा, "महात्माजी, आपको तो हर दिन दूध की जरूरत होती है; आप दो-चार दिन भीख मांग कर बिल्ली को दूध पीला सकते हैं। लेकिन बारहो महीने आपको दूध कौन देगा?" आप एक काम कीजिये, एक गाय पाल लीजिये। तो उसका दूध पीकर आप भी तंदरुस्त रहिएगा , और बिल्ली को भी दूध पीला सकियेगा। कुछ ही दिनों के भीतर साधुजी के पास एक दुधारू गाय आ गई, तब  साधुजी को अब दूध के लिए भीख नहीं मांगनी पड़ती थी ।

     धीरे-धीरे साधुजी उस गाय को भूसा -बिचाली आदि खिलाने के लिए गांव में भीख मांगने लगे। तब गाँव के लोग उससे कहने लगे, “अपनी कुटिया के पास जो परती ज़मीन है, उस पर यदि खेती-बारी कीजियेगा , तो आपको फिर भूसा-बिचाली के लिए भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।”तब साधुजी सभी की सलाह पर पास की परती जमीन पर खेती करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे खेती करने -पटाने के लिए उनको मजदूर आदि को नियुक्त करना पड़ा। जब अनाज आदि इकट्ठा होने लगा, तो उसे रखने के लिए खलिहान और भण्डार घर बनाना पड़ा, फिर तो वे किसी गृहस्थ की तरह पूरी तरह व्यस्त रहकर अपना दिन बिताने लगे। 

      कुछ दिनों के बाद उस संत के गुरुजी वहाँ उपस्थित हुए। उन्होंने यह सब खेत-खलिहान देखा तो एक नौकर से पूछा, "यहाँ एक कुटिया में एक वैरागी साधु रहते थे, क्या तुम मुझे बता सकते हो कि वे अभी कहाँ मिलेंगे ?नौकर कोई उत्तर न दे सका। तब वे स्वयं उस साधु के घर में प्रविष्ट होगये, और अपने शिष्य को सामने देखकर पूछा, "बेटा, ये सब क्या है?" शिष्य शर्मिन्दा होकर गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला, "प्रभुजी, ये सब कुछ एक कौपीन के वास्ते हो गया !

    साधु ने अपने गुरुदेव को एक-एक करके प्रारम्भ से सारी कहानि सुना दी। गुरुदेव के दर्शन मात्र से उस साधु की सारी आसक्ति दूर हो गई और उन्होंने तुरंत अपनी सारी संपत्ति त्याग दी और गुरु का अनुसरण करते हुए चल दिए। 

২৯। "এক কৌপীন কা ওয়াস্তে।" একজন সাধু গুরূপদেশ নিয়ে ভগবানের সাধন-ভজন করবার উদ্দেশ্যে কোন গ্রামের কাছে একটি নির্জন প্রান্তরের মধ্যে সামান্য একটি পর্ণকুটীর ক'রে তার মধ্যে বাস করতে লাগলেন ও সাধন-ভজন করতে লাগলেন। তিনি প্রত্যহ প্রত্যূষে উঠে স্নান ইত্যাদি ক'রে তাঁর ভিজে কাপড় ও কৌপীন কুটীরের কাছে একটি গাছে শুকোবার জন্য রেখে দিতেন। সাধু যখন ভিক্ষার জন্য বেরিয়ে যেতেন, সেই সময় ইঁদুর এসে তাঁর সেই কৌপীন কেটে দিত। সাধু পরদিন গ্রামে গিয়ে আবার নূতন কৌপীন ভিক্ষা ক'রে আনতেন। অল্পদিন পরে সাধু স্নানান্তে আবার ঐ ভিজে কৌপীন কুটীরের ওপর শুকোবার জন্য রেখে দিলেন এবং ভিক্ষান্নের জন্য গ্রামে গেলেন। ভিক্ষান্তে কুটীরে ফিরে এসে দেখলেন, ইঁদুর আবার তাঁর কৌপীন টুকরো টুকরো ক'রে কেটে ফেলেছে। তিনি তাই দেখে মনে মনে বড় বিরক্ত হলেন এবং ভাবতে লাগলেন, "আবার কোথায় কার কাছে কৌপীন ভিক্ষা করব?" পরদিন আবার ভিক্ষায় বেরিয়ে গ্রামবাসীদের কাছে ইঁদুরের উপদ্রবের কথা জানালেন। গ্রামবাসীরা সমস্ত বৃত্তান্ত শুনে বল্লে, "আপনাকে রোজ রোজ কে কৌপীন দেবে? আপনি এক কাজ করুন - একটা বেড়াল পুষুন, তাহলে আর বেড়ালের ভয়ে ইঁদুর আসবে না।" সাধু তৎক্ষণাৎ গ্রাম থেকে একটা বেড়ালের বাচ্চা নিয়ে এলেন। সেই দিন থেকেই বেড়ালের ভয়ে ইঁদুরের উপদ্রব বন্ধ হল। তা দেখে সাধুর আনন্দের সীমা রইল না। ক্রমে সাধু সেই বেড়ালটাকে বেশ আদর-যত্নে লালন-পালন করতে লাগলেন এবং গ্রামে গিয়ে বেড়ালের জন্য দুধ ভিক্ষা ক'রে এনে খাওয়াতে লাগলেন। কিছুদিন পর কোন ব্যক্তি তাঁকে বললে, "সাধুজী, আপনার রোজ দুধের দরকার; দু-চার দিন ভিক্ষা ক'রে চলতে পারে। বার মাস কে আপনাকে দুধ দেবে? আপনি এক কাজ করুন, একটি গরু পুষুন, তা হলে তার দুধ খেয়ে আপনি নিজেও পরিতৃপ্ত হবেন, বেড়ালকেও খাওয়াতে পারবেন।" অল্পদিনের মধ্যেই সাধু একটি দুগ্ধবতী গাভী সংগ্রহ ক'রে নিয়ে এলেন, সাধুকে আর দুধের জন্য ভিক্ষা করতে হল না।

         ক্রমে সাধু সেই গরুর খড়-বিচিলী ইত্যাদির জন্য গ্রামে ভিক্ষা করতে লাগলেন। তখন গ্রামের লোকেরা তাঁকে বলতে লাগল, "আপনার কুটীরের নিকট পতিত জমিতে চাষ বাস করুন, তা হলে আর খড়-বিচিলীর জন্য ভিক্ষা করতে হবে না।" তখন সাধু সকলের পরামর্শে নিকটস্থ পতিত জমিতে চাষ আরম্ভ করলেন। চাষের জন্য তাঁকে ক্রমে লোক ইত্যাদি নিযুক্ত করতে হল। যখন শস্যাদি সঞ্চিত হতে লাগল, তা রাখবার জন্য গোলাবাড়ি ইত্যাদি প্রস্তুত ক'রে তিনি ঠিক গৃহস্থের মতো মহাব্যস্ত হয়ে দিন কাটাতে লাগলেন। কিছুদিন পরে সাধুটির গুরু এসে সেখানে উপস্থিত হলেন। তিনি ঐ সকল বিষয়-বৈভব দেখে একটি চাকরকে জিজ্ঞাসা করলেন, "এইখানে একটি ত্যাগী কুটীরমধ্যে থাকতেন, তিনি কোথায় গেছেন বলতে পার?" চাকরটি কোন উত্তর দিতে পারলে না। পরে তিনিই ঐ সাধুর বাড়ির মধ্যে ঢুকে সামনে তাঁর শিষ্যকে দেখতে পেয়ে জিজ্ঞাসা করলেন, "বৎস, এসব কি?" শিষ্য অপ্রতিভ হয়ে অমনি গুরুর পায়ে পড়ল এবং বলতে লাগল, "প্রভুজী, এসব এক কৌপীনকা ওয়াস্তে।" সাধুটি একে একে সব বৃত্তান্ত গুরুর নিকট বলতে লাগলেন। গুরুর দর্শনে তাঁর সকল আসক্তি কেটে গেল ও তিনি তৎক্ষণাৎ সেই সব বিষয়-সম্পত্তি পরিত্যাগ ক'রে গুরুর পশ্চাদ্গামী হলেন।

30. ठाकुर के भाँजे हृदय मुखर्जी ने एक दिन ठाकुर से कहा, "मामा जी, जब माँ काली आप पर इतनी प्रसन्न हैं, तो आप माँ से कुछ सिद्धि क्यों नहीं माँगते?" ठाकुर की अवस्था उस समय किसी बालक की तरह थी। ह्रदय की बात सुनकर वे चंपातला पुष्करिणी घाट (चम्पा तालाब?) के किनारे बैठकर किसी बालक की तरह अपनी माँ से कहने लगे, “माँ, हृदु कहता है, तू माँ से सिद्धई (occult powers-तांत्रिक शक्तियाँ)  क्यों नहीं मांगते ?” यह कहकर वे माँ काली का ध्यान करने लगे। थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने सामने देखा कि , काला कपड़ा पहने कोई मोटी स्त्री शौच करने के लिए बैठी हुई है। उसके अगले ही क्षण वे वहां से उठकर ह्रदय के पास चले गए और कहे - " शाले, तुमने मुझे कैसी बुद्धि दी है ? मैं तुम्हारी अब कोई सलाह नहीं सुनुँगा। तुम्हारी बात मानकर मैंने माँ से जैसे ही कहा कि- " माँ, हृदु मुझसे कहता है कि तुम माँ से सिद्धई क्यों नहीं माँगते ? तो माँ ने मुझे उसी क्षण ये रूप (उपरोक्त) दिखा दिया।" (अर्थात सिद्धियाँ विष्ठा के जैसी हैं। )  

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 (दादा का Best पत्र -26 November 1994)  

[विवेक-जीवन ब्लॉग :श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (49 -50) मंगलवार, 3 मार्च 2020/ / "Common Logic (बकलमा) : Family work first to do Swamiji's work." "कौपीन के वास्ते " तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा -अपना भविष्य मेरे हाथ में सौंप दो!

      "केवल गृहस्थ ही क्यों संन्यास में भी त्यागी होना बहुत ही कठिन है। श्री रामकृष्ण देव कहते थे - 'एक कौपीन के वास्ते क्या -क्या हो जाता है !' गृहस्थ के लिए यह और कठिन है, पर धीरे धीरे सम्भव हो जाता है ---मैंने अपने जीवन में खुद देखा है। " 

"शरीर ही धर्म का पहला साधन है। शरीर से ही सब कुछ मिलता है। इसीलिये शरीर को झट से न छोड़ना। दुष्ट अहम् काल में चला जायेगा। किन्तु कल्याणकारी कार्यों को करने के लिए जितने अहम् की जरूरत होती है, वह तो रहना चाहिये। "

                      फुलवरिया, बरही, हजारीबाग, बसरिया आदि से जो लड़के आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि कुछ खास काम बनने वाला है। उनको हर प्रकार से मदद देते रहना उचित होगा। 

                   "आत्मा किसी का दास नहीं है, न प्रारब्ध का न संचित का ! जब ज्ञान आ जाता है, तब कर्मबन्धन टूट जाता है। कर्मफल के बारे में कभी न सोचना। इतना मान लो कि जो अपने को ठाकुर और माँ की सन्तान समझता है, उसके लिये कर्मफल बेकार है। मैं तो उसे बिल्कुल भी नहीं मानता हूँ।

      Letter:1 March, 1995,   

        You need not try to convince everybody or look for cooperation from all. It will never come. It does not come from the world.  If you study Swamiji, you will know this

भोगे रोगभयं, कुले च्युतिभयं, वित्ते नृपालाद् भयं,

      माने दैन्यभयं, बले रिपुभयं, रूपे जराया भयम्।

      शास्त्रे वादिभयं, गुणे खलभयं, काये कृतान्ताद्भयं,

      सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

(भर्तृहरिकृत- वैराग्यशतक, श्लोक ३१)

अन्वयः

भोगे रोगभयं, कुले च्युतिभयं, वित्ते नृपालात् भयं, माने दैन्यभयं, बले रिपुभयं, रूपे जराया भयम्, शास्त्रे वादिभयं, गुणे खलभयं, काये कृतान्तात् भयम् । सर्वं वस्तु भयान्वितम् भुवि नृणां । वैराग्यं एव अभयम् ।

शब्दार्थ :

 भोगे = आनंद में (in enjoyment) ; रोगभयं = रोग का भय ( fear of disease) कुले = वंश में ( in lineage) ; च्युतिभयं = पतन का भय (fear of down-fall) ; वित्ते  = धन में ( in wealth); नृपालात् भयं = राजाओं का भय (fear of kings) ; माने  = प्रतिष्ठा में ( in prestige); दैन्यभयं = अपमान का भय (fear of humiliation); बले  = सत्ता में (in power) ; रिपुभयं = शत्रु/विरोधी का भय (fear of enemy/adversary) ; रूपे = सुन्दरता में (in beauty) ; जराया भयं  = बुढ़ापे का डर (fear of old age) ; शास्त्रे = शास्त्रीय पाण्डित्य में (in scriptural erudition) ; वादिभयं  = विद्वान विरोधियों का भय ( fear of learned opponents ); गुणे  = पुण्य में (in virtue) ; खलभयं  = दुष्ट निन्दा करने वाले व्यक्ति का भय ( fear of wicked vilifying person) ; काये = शरीर में (in body);  कृतान्तात् भयं  = यम का भय (fear of death-कृतांत = पूर्व जन्म में किए हुए शुभ और अशुभ कमों का फल । यम या  धर्मराज।  मृत्यु या शनिग्रह।) ; सर्वम्  = सभी (all) ; वस्तु =  चीज़ें (things) ; भयान्वितं = भय से भरा हुआ (filled with fear) ; भुवि = संसार में (in the world) ; नृणाम्  = मानव जाति का (of mankind) ; वैराग्यं  = अनासक्ति (detachment) या किसी से कोई अपेक्षा न रखना (non-expectation) ; एव = अकेला (alone) ; अभयम् (abhayam) = निर्भयता (fearlessness);

भावार्थ– विषय भोगों में रोगों का भय है, राठौर वंश में आचार भ्रष्टता का भय है, धन में राजा का भय है, मान मिलने में अपमान का भय है, बल प्राप्त करने पर शत्रुओं का भय है, रूप-सौन्दर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्र पढ़ने पर पराजित होने का भय है, गुण प्राप्त करने में दुष्टों द्वारा व्यर्थ की निन्दा का भय है, शरीर में मृत्यु का भय है, इस प्रकार पृथ्वी पर सारी वस्तुएं भय से युक्त हैं, केवल एक वैराग्य ही निर्भय बनाने वाला है।

( अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मान रहने पर अपमान  का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।)

"आत्मा किसी का दास नहीं है, न प्रारब्ध का न संचित का ! जब ज्ञान आ जाता है, तब कर्मबन्धन टूट जाता है। कर्मफल के बारे में कभी न सोचना। इतना मान लो कि जो अपने को ठाकुर और माँ की सन्तान समझता है, उसके लिये कर्मफल बेकार है। मैं तो उसे बिल्कुल भी नहीं मानता हूँ। 

No doubt without 'Vairagya' one can not be completely fearless . Bhartriharihari has said -वैराग्यमेवाभयम्‌॥ But even Sanyasins often are not found to have real Vairagya. So don't hurry for it. Swamiji said, 'First Bhog and then Yoga or Vairagya'. If you try Vairagya when you are not fit for it, you will lose both. That is not a good idea.

                    As you will not be allowed to do Swamiji's work without doing service to family, common logic will ask you to do family work first, so that you  can do some work for Swamiji. Self-restraint does not mean keep aloof from wife , children, parents. Who has taught you such wrong things ? Even Thakur did not say so. Lead a normal life of a householder and do Swamiji's work.

Time will come when you can detach yourself from this . I take the responsibility to guide you suitably at all times. Give me your destiny in my hands. Don't think about it again

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