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बुधवार, 3 सितंबर 2025

* जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥⚜️️घटना - 344⚜️️मनुष्य ही परमात्मा है :श्रीराम द्वारा रावण का वध ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #344||⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_87.html ⚜️️⚜️️

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 344: दोहा -103] 

श्रीराम द्वारा रावण का वध 

        रावण ने अपनी नाभि में अमृत छिपा रखा था। उसका वध करने के लिए श्रीराम ने कालसर्पों के समान 31 वाण छोड़े। एक वाण ने उसकी नाभि का अमृत सोख लिया , तथा बाकि 30 ने उसके सिर और भुजायें काट डालीं। बिना सिर भुजाओं वाले धड़ को प्रचण्ड वेग से दौड़ते देख , श्रीराम ने एक और वाण से उस रुण्ड के दो टुकड़े कर दिए। जो जाकर मन्दोदरी के सामने आ गिरे। 

चौपाई :

* सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥

लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥1॥

भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥

* धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥

गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥

भावार्थ:- धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥

* डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥

धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥

भावार्थ:- रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥

* मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥

प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥4॥

भावार्थ:- रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए॥4॥

* तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥

जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥5॥

भावार्थ:-रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥

* बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥6॥

भावार्थ:- देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥

छंद :

* जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।

खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥

सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।

संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥1॥

भावार्थ:- हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥

* सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।

जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥

भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।

जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥

भावार्थ:- सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशो‍भित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान्‌ सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥

दोहा :

* कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।

भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥103॥

भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥103॥

चौपाई :

* पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥

जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥

भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥

* पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥

भावार्थ:- पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥

* तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥

सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥

भावार्थ:- (वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥

* बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥

भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥

भावार्थ:-वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥

* जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥

राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥

भावार्थ:-तुम्हारी प्रभुता जगत्‌ भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥

* तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥

भावार्थ:-हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात्‌ उचित ही है)॥6॥

* काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥

भावार्थ:- हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥

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मंगलवार, 2 सितंबर 2025

⚜️️मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥⚜️️घटना - 343⚜️️विभीषण से रावण के मरने का भेद और श्रीराम के वाण सन्धान करने का प्रसंग⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #343||⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_23.html⚜️️⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 343: दोहा -100,101,102 ]


विभीषण से रावण के मरने का भेद और श्रीराम के वाण सन्धान करने का प्रसंग 

         सवेरा होते ही रावण एक बार फिर युद्ध के लिए आ पहुँचता है, वानर भालुओं की सेना उसपर विकराल रूप धारण कर टूट पड़ती है। विभीषण को रावण के न मरने का रहस्य मालूम है, उसकी नाभि में अमृत है , विभीषण से भेद पाकर श्रीराम ने जैसे ही वाण सन्धान करना चाहा कि चारों ओर भयावह अपशकुन होने लगे। .....   
छंद :
* धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

भावार्थ:-विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौड़े। वे अत्यंत क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥
दोहा :
* देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

भावार्थ:-वानरों को बड़ा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अंतर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥100॥
छंद :
* जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

भावार्थ:-जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥

* जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

भावार्थ:- योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं॥2॥

* धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

भावार्थ:-वे 'पक़ड़ो, मारो' आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे॥3॥

* जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

भावार्थ:-वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा॥4॥

* जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

भावार्थ:-वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए॥5॥

* हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

भावार्थ:- हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥

* प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

भावार्थ:-उसने बहुत से हनुमान्‌ प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर श्री रामचंद्रजी को जा घेरा॥7॥

* मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

भावार्थ:-वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्री रामजी हैं॥8॥

छंद :
* तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

भावार्थ:- उनके बीच में कोसलराज का सुंदर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इंद्रधनुषों की श्रेष्ठ बाढ़ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब श्री रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली॥1॥

* माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

भावार्थ:- माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। श्री रामजी ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते॥2॥

दोहा :
* ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥101 क॥

भावार्थ:-उसी चरित्र के कुछ गुणगण मंदबुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उड़ती है॥101 (क)॥

* काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥101 ख॥

भावार्थ:- सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं, परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥101 (ख)॥
चौपाई :

* काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥

भावार्थ:- काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा॥1॥

* उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥2॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषणजी ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करने वाले! हे देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए-॥2॥

* नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥3॥

भावार्थ:-इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए॥3॥

* असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥4॥

भावार्थ:- उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे। जगत्‌ के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए॥4॥

* दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥5॥

भावार्थ:-दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी) बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं॥5॥
छंद :
* प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

भावार्थ:-मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करने लगे।
दोहा :
* खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥

भावार्थ:- कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। वे श्री रामचंद्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥102॥ 
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⚜️️सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥⚜️️घटना - 342⚜️️ मूर्छित रावण को दूर ले जाने और अशोक वाटिका में त्रिजटा द्वारा सीता को युद्ध का वर्णन सुनाने का प्रसंग⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #342 ||⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_23.html

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 342: दोहा -98,99]


          मूर्छित रावण को दूर ले जाने और अशोक वाटिका में त्रिजटा द्वारा सीता को युद्ध का वर्णन सुनाने का प्रसंग --

       युद्ध में जांबवान के पद प्रहार से मूर्छित होकर रावण धरती पर आ गिरता है। रात हो गयी देख सारथि उसे रथ में डालकर युद्ध स्थल से दूर ले जाकर उसकी मूर्छा दूर करने के उपाय करता है। भयभीत राक्षस वहां आतंकित खड़े हैं। त्रिजटा अशोक वाटिका में सीता को युद्ध की गति का विवरण सुनाती है। वाणों से कटने के बाद भी रावण के सिर और भुजायें बढ़ने की बात सुनकर सीता उदास हो जाती हैं। और माता के समान स्नेह देनेवाली त्रिजटा से पूछती हैं - कि किस प्रकार रावण का वध हो पायेगा ? त्रिजटा कहती है कि ह्रदय में वाण लगने से वो मर सकता है , किन्तु श्रीरघुनाथ उसके ह्रदय को लक्ष्य इस लिए बनाते कि वहाँ उसने तुम्हारी छवि बिठा रखी है। लेकिन बार बार उसका सिर कटने से उसका ध्यान तुम्हारे ओर से हट जायेगा ,और तब श्रीराम वहाँ वाण मारेंगे। उधर मूर्छा टूटने पर रावण युद्धभूमि से अपने को दूर पाकर सारथि पर क्रुद्ध होकर उसे धिक्कारने लगता है -

छंद :

* उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।

गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥

मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥

निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

भावार्थ:-छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा॥

दोहा :

* मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।

निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥

भावार्थ:-मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया॥98॥ 

चौपाई :

* तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥

सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥

भावार्थ:-उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ॥1॥

* मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥

होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥2॥

भावार्थ:- (उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं- हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देने वाला यह किस प्रकार मरेगा?॥2॥

* रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥

मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥3॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान्‌ के चरणकमलों से अलग कर दिया है॥3॥

* जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥

जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥4॥

भावार्थ:-जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़ुवे वचन कहलाए,॥4॥

* रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥

ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥5॥

भावार्थ:-जो श्री रघुनाथजी के विरह रूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं॥5॥

* बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥

कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥6॥

भावार्थ:-कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा- हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा॥6॥

* प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥7॥

भावार्थ:- परन्तु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकीजी (आप) बसती हैं॥7॥

छंद :

* एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।

मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥

सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।

अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

भावार्थ:-वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-

दोहा :

* काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।

तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

भावार्थ:-सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे॥99॥ 

चौपाई :

* अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥

राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई॥1॥

* निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥

करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

भावार्थ:-वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं-) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं॥2॥

* जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥

सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

भावार्थ:-जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेंगे॥3॥

* इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।

सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥4॥

भावार्थ:- यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!॥4॥ 

* तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥

सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

भावार्थ:- सारथि ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई॥5॥

*जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

भावार्थ:- वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े॥6॥

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🔱🔱स्थूल और सूक्ष्म शरीर नश्वर है, आत्मा अविनाशी है ! 🔱🔱 Session 16 | The Essence of Vivekachudamani |🔱🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/95-96.html🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/98.html🔱🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2021/01/vivekachodamani-shlokas-91-to-110.html🔱🔱

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥

(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र) 

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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः  

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         पिछले सत्र में अनात्मा के सम्बन्ध में विचार करते समय हमने देखा, कि अपने स्थूल शरीर को ही 'मैं ' समझ लेने के कारण जीव कैसे संसार की वस्तुओं -विषय में आसक्त होकर बन्ध जाता है। स्थूल शरीर को चर्म दृष्टि से देखने पर स्त्री-पुरुष शरीर का भेद दीखता है , और सतह पर देखने जीव मोहित/भ्रमित हो जाता है , आसक्त हो जाता है , और बंध जाता है। लेकिन गहराई से देखने पर हमारी दृष्टि बदल जाती है। वेदान्त में स्थूल शरीर को गहराई से देखने का एक और प्रक्रिया है , जिसको पंचकोष विवरण कहते हैं। अभी हमलोग उसके ज्यादा विस्तार में नहीं जायेंगे। संक्षेप में स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं , सभी कोषों अलग -अलग विशेषता है। अन्नमय कोष के भीतर या पीछे प्राणमय कोष है। उसकी अपनी विशेषता है। प्राणमयकोष के बिल्कुल पीछे और भीतर मनोमय कोष है। मनोमय कोष के बिल्कुल पीछे और भीतर , विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष के भी पीछे और भीतर आनन्दमय कोष है। और जो सत्य वस्तु है वह , आनन्दमय कोष के भी भीतर और पीछे है। तो देखिये ये सत्यार्थी की खोज चल रही है। कि इसमें से मैं कौन है ? आप क्या अन्नमय कोष हो ? नहीं , अन्नमय तो चला जा रहा है।ये तो सिर्फ एक बुलबुला है। हमलोग अन्नमय को सतही दृष्टि देखकर - 2mm नजर से देखकर -उसके मोह में फंसे हुए हैं। अन्य कोषों का तो हमें पता ही नहीं है। बाहरी सतह पर जो हमको स्त्री-पुरुष दिख रहा है , हमारी दृष्टि वहीं पर अटकी हुई है। विपरीत लिंग के राग में हम सब फँसे हुए हैं। हम सब भ्रमित है। अब देखिये ये जो Gender भेद है - कोई स्त्री है , तो कोई पुरुष है। ये भेद तो सिर्फ अन्नमय-कोष के स्तर पर है। अब बताइये कि 'प्राण ' स्त्रीलिंगी या पुरुषलिंगी है? (5.14

The Essence of Vivekachudamani | Session 16

       आप बताओ प्राण का कोई लिंग है ? तो जितना आप भीतर जाओगे , तो देखोगे कि जितना भी लिंगभेद है , उसका को अर्थ ही नहीं रहता। प्राणमय-कोष में जाओगे , तो लिंग कहाँ है ?मनोमय में जाओ, विज्ञानमय में जाओ ,आनंदमय में पहुँचो -तो ये भेद कहाँ है ? ये सिर्फ सतह पर है। और सारा विश्वप्रपंच -इसी सतही दृष्टि में अटकी हुई है ; फंसी हुई है। लेकिन सत्य कुछ और ही है। इसलिए वेदांत हमे बतलाता है , हमारे भीतर जो सत्यवस्तु छिपी हुई है , उसके बारे में तो हमें कुछ भी पता नहीं है। अब देखिये आधुनिक शिक्षापद्धति ये सब कुछ नहीं सिखाती है।
आज की जो शिक्षा है , वो केवल हमें अन्नमय कोष के बाहर जो दिखाई दे रहा है - उनकी दृष्टि बस वहीं तक सीमित है। 
  इस विश्वप्रपंच के कितने स्तर हैं - आधुनिक विज्ञान उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। तो आधुनिक शिक्षापद्धति को Scientific and rational कहने चाहिए क्या ? क्या इनको पता है कि इनके पीछे इनके भीतर क्या है ? हर व्यक्ति के पीछे और भीतर अनंत शक्ति छिपी हुई है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द ये कहते थकते नहीं थे - आप कभी अपने आपको Underestimate मत करना। आपके अंदर जो अनंतशक्ति छिपी हुई है , उसकी आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते। - " यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा कहना ही भयानक नास्तिकता है। तुम जो कुछ सोचोगे , तुम वही हो जाओगे ; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे , तो दुर्बल हो जाओगे , बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे। " इसलिए जितना अधिक आप योग का अभ्यास करोगे आपकी अंतर्निहित दिव्य शक्तियां उतनी अधिक अभिव्यक्त कर पाओगे। आपको समझ में आएगा कि कितनी अनंत संभावना आपके जीवन में छिपी हुई है ! हमें अभी इसकी कल्पना भी नहीं है कि हमारे जीवन में कितनी अनंत सम्भावनायें छिपी हुई हैं। जब तक हमारा ध्यान 2mm दृष्टि तक अटकी हुई है -हम दुर्बल हैं। तब तक हम दीन-हीन बनकर रह जाते हैं। सारी गुलामी इस चर्म दृष्टि से ही शुरू होती है। आप जितने भीतर देखोगे -सारी गुलामी पराधीनता खत्म हो जाती है। सारी गुलामी का खत्म होना -ये योग का वरदान है। भोग हमें क्या देती है ? गुलाम बना देती है। बिल्कुल पराधीन बना देती है। योग आपको आत्मनिर्भर बनाती है, स्वावलम्बी बनाती है। योग आपको सारी गुलामी और कमजोरियों से मुक्त कराती है - यही मोक्ष है। जबतक हम सतह पर ही अटके हैं , स्थूल शरीर की आसक्ति में ही अटके हैं , तबतक हमारी मुक्ति सम्भव नहीं है। स्थूल शरीर को ही हम अपना मैं समझकर जब तक हम अटके हुए हैं , हम तब तक मगरमच्छ को ही लट्ठा समझकर नदी पर करने की आशा कर रहे हैं। इन्द्रिय-भोगों में डूबे रहकर ये सोचते हों , कि आप सुखी हो जाओगे , तो यह असम्भव है। इन्द्रियों में एक बून्द भी सुख नहीं है। लेकिन इसको समझने में सारा जीवन खर्च हो जाता है। एक छल हमारे साथ हो रहा है। तो देखिये असली आनंदमय कोष कहाँ है ? और ये अन्नमय कोष कहाँ है ?(9.28) अन्नमय कोष में सिर्फ आनंद का आभास है , असली आनंद जो भीतर छिपा हुआ है - उसका सिर्फ एक आभास -उसकी सिर्फ एक परछाई हमको ऊपरी सतह पर दिखाई देती है। इन्द्रियों में रस का केवल आभास मात्र है , उसके छल से हम सभी धोखा खा रहे हैं। यही हमरा बंधन है हम उसी डूबना चाहते हैं। पर तृप्ति कभी होती नहीं है। और भोग करते करते ये अन्नमय कोष एकदिन बूढ़ा हो जायेगा। सुख जायेगा , मुरझा जायेगा , सिकुड़ जायेगा -गिर जायेगा। जैसे टहनी से फूल गिर जाता है , वैसे ये अन्नमय कोष भी गिर जायेगा। ये मनुष्य जीवन की कहानी है -जो स्थूल शरीर को ही मैं मानकर चलने से होती है। तो वेदांत में पंचकोश की दृष्टि में सत्य कहाँ है ? इसको समझना होगा। ये अन्नमयकोष ही मोह का आस्पद है -मोह का स्थान है। अन्नमय कोष के पीछे क्या है ? इसको हमे पता ही नहीं है , क्योंकि हम को इस विषय कभी कुछ बताया ही नहीं गया। आज वेदांत हमें बतलाता है , शास्त्र और गुरु हमें बताते हैं कि बच्चों जान लो - आप सिर्फ सतह पर ही अटके मत रहो। आपके भीतर अनंत शक्ति छिपी हुई है , आप जितना भीतर प्रवेश करोगे, उतनी व्यक्त होंगी। उस अंतर्निहित दिव्यता को प्रकट करने का साधन है-योग। योग का यही अर्थ है भीतर प्रवेश करना।  
         स्थूल शरीर की जब अन्वेषणा करते हैं , तब यह समझ में आता है कि स्थूल-शरीर ही अन्नमय कोष है। यही मोह का आस्पद है। इसी शरीर को हमारी बुद्धि ' मैं' समझती है। और फिर ये 'मेरा ' है। सारे -नाते रिश्ते इसी मेरा से शुरू हो जाते हैं। मेरी पत्नी , मेरा पति , मेरे बच्चे -सब स्थूल शरीर को ही लेकर है। एक बुलबुला- जिसका खुद अपना ठिकाना नहीं, दूसरे बुलबले से संबंध बना लेता है कि मैं इसके माध्यम से परिपूर्ण हो जाऊंगा , सुखी हो जाऊँगा - आज तक कोई सुखी हुआ है क्या ? दोनों बुलबुले उतने ही भयग्रस्त हैं , उतने ही असुरक्षित हैं। यह स्थूल शरीर मैं और मेरा रूपी मोह का आस्पद है। मनुष्य जब किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोहग्रस्त हो जाता है , तब वह अँधा हो जाता है। फिर कामिनी हो या कांचन उसके अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं है। पुरुष स्त्री से मोहित , स्त्री पुरुष से मोहित -मातापिता बच्चों से मोहित हो जाते हैं। वो भीतरी चीज को नहीं देख पाता , सत्य को नहीं देख पाता। हम उसमें आसक्त हो जाते हैं। राग रूपी अदृश्य रस्सी स्थूल रस्सी से भी मजबूत है। स्थूल रस्सी को आप काट सकते हो , आसक्ति रूपी रस्सी को काटना बहुत कठिन है। पाँच पशुओं का उदाहरण - मनुष्य पांचो से बंधा है है।
          (15.20) फिर हमने देखा था राग और प्रेम में अन्तर क्या है ? ये बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। राग/आसक्ति के मूल में स्वार्थ है। और प्रेम सब समय निःस्वार्थ ही होता है। प्रेम सीमाहीन है -ये कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहती। प्रेम का शरीर के साथ , लिंग के साथ कोई सम्पर्क है ही नहीं। समाज जिस पारस्परिक आकर्षण को प्रेम समझता है , वो प्रेम है ही नहीं। ये सब अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरे बुलबुले को पकड़ रहे हैं। M-F एक संबंध बनाते क्यों हैं ? अपने अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए। ये प्रेम की तरह दीखता है , उसके मूल में स्वार्थ है। प्रेम का शारीरिक आकर्षण या स्वार्थ के साथ कोई संबंध है ही नहीं। प्रेम में सब समान है। आपको हमेशा विवेक पूर्वक देखना है - आसक्ति को प्रेम नहीं समझना है। वेदांत की घोषणा यह है कि आप स्थूल शरीर नहीं हो। स्थूल शरीर जन्म लेता है मरता है -लेकिन आप तो अविनाशी हो
 
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
       न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
  
 यह आत्मा (शरीरी ) किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,  शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश।
     लेकिन देखिये अपने विषय में हम क्या -क्या समझकर बैठे हैं ? हमारा तो एक जन्मदिन होता है ! जिसको हमलोग बड़े धूमधाम से मनाते हैं। शरीर का जन्मदिन मनाइये , इसमें कोई हर्ज नहीं है , लकिन सच्चाई को जान लीजिये। हम तो साल भर जन्मदिन की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं -घर में खीर बनेगा , केक कटेगा।  दोस्त आएंगे। लेकिन सच्चाई ये है कि आपका कभी जन्म हुआ ही नहीं है। जन्म-मरण स्थूल शरीर होता है , थोड़ा भीतर जाओ वहाँ अमरत्व है। इससे एक नई दृष्टि प्राप्त होती है -अद्भुत साहस प्राप्त होता है। मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो जाता है। अपने स्वरूप को जान लेने से अद्भुत निर्भयता प्राप्त होती है। सारी इन्द्रिय गुलामी और कमजोरी दूर हो जाती है - जितना आप सतह पर अटके हो , उतना जन्म-मरण चलेगा। लेकिन- 'न जायते म्रियते वा कदाचि' आपका कभी नाश नहीं होगा। आप अजन्मे हो , आपका कभी जन्म हुआ ही नहीं -आप शाश्वत हो। ये भगवान कृष्ण की वाणी है -उपनिषदों की वाणी है। 
         अब स्थूल शरीर के पीछे और भीतर और एक दूसरा शरीर है , जिसको हमलोग सूक्ष्म शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर तो हम समझते हैं कि हम पुरुष हैं या स्त्री हैं। लेकिन सूक्ष्म शरीर का भी अनुभव हम कर रहे हैं - लेकिन उसके विषय में हम बहुत कम जानते हैं। मन कैसे काम करता है - ये हम समझ ही नहीं रहे है। तो हमलोग मोह का आस्पद स्थूल शरीर के विषय में जान लिया है , पर सूक्ष्म शरीर क्या है ? अब शंकराचार्यजी पहले अन्तःकरण चतुष्टय को परिभाषित करते हैं  (23.48)
निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्‌कृतिः स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

निगद्यते अन्त:करणं मन: धी: /
अहंकृति: चित्तम् इति   स्ववृत्तिभि:/
 मन: तु संकल्पविकल्पनादिभि:/
 बुद्धि: पदार्थाध्यवसायधर्मत: /
अत्र अभिमानात् अहम् इति अहंकृति:/ 
स्वार्थानुसंधानगुणेन चित्तम्।]

अर्थ:-अपनी वृत्तियों के कारण अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार [ इन चार नामों से ] कहा जाता है। संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, 'अहम्-अहम्' (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट-चिन्तन के कारण यह चित्त कहलाता है।
[आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इन श्लोकों में अन्तःकरण की सूक्ष्म व्याख्या की गई है। सामान्यतः हम मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को अलग-अलग इकाइयाँ मानते हैं, परन्तु वास्तव में ये सब एक ही अन्तःकरण की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ हैं। जिस प्रकार एक ही जल अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार नदी, झील, वर्षा या समुद्र कहलाता है, उसी प्रकार अन्तःकरण भी अपनी क्रियाओं के आधार पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यह मनुष्य की आन्तरिक शक्ति है, जो बाह्य जगत् और आत्मा के बीच सेतु का कार्य करती है। जीव के अनुभव, ज्ञान, निर्णय और अहंकार—आदि इसी के द्वारा सम्पन्न होते हैं।

मन की पहली अवस्था संकल्प-विकल्प है। जब भी कोई विषय सामने आता है, तब अन्तःकरण विचार करता है कि इसे ग्रहण करना है या त्यागना है। यह द्वन्द्वात्मक स्थिति मन की विशेषता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को फल दिखे, तो उसका मन यह सोचता है कि इसे खाऊँ या न खाऊँ। यह हाँ-ना, उचित-अनुचित, करना-न-करना का द्वन्द्व ही मन का धर्म है। इसीलिए इसे मन कहा गया है। मन स्थायी निर्णय नहीं लेता, बल्कि केवल विचार और विकल्प प्रस्तुत करता है।

इसके बाद बुद्धि का स्थान आता है। बुद्धि वह शक्ति है, जो पदार्थ का निश्चय करती है। जो कार्य उचित है, क्या सत्य है, क्या असत्य है—यह विवेक बुद्धि का कार्य है। बुद्धि अन्तःकरण की वह अवस्था है, जो निर्णय लेकर जीव को आगे बढ़ाती है। यदि मन यह सोचता है कि फल खाऊँ या न खाऊँ, तो बुद्धि यह निर्णय करेगी कि यह फल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, अतः इसे खाना उचित है। इस प्रकार बुद्धि निश्चयात्मक शक्ति है, जो सत्य-असत्य, हित-अहित और वास्तविक-अवास्तविक का विवेक कराती है।

अहंकार अन्तःकरण का तीसरा रूप है। यह वह वृत्ति है, जिसमें ‘मैं’ का भाव प्रकट होता है। ‘मैं करता हूँ’, ‘मेरा है’, ‘मुझे चाहिए’—ये सब अभिमान और ‘अहम्-अहम्’ की धारणाएँ अहंकार की अभिव्यक्ति हैं। जीव का व्यक्तित्व और उसकी व्यक्तिगत पहचान अहंकार के कारण ही प्रकट होती है। अहंकार के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं होता, क्योंकि वही ‘कर्तृत्व’ और ‘भोक्तृत्व’ का अनुभव कराता है। परन्तु जब यह अहंकार आत्मज्ञान से रहित होता है, तब यही बन्धन का कारण बनता है।

चित्त अन्तःकरण की चौथी अवस्था है। यह स्मरण और मनन का क्षेत्र है। चित्त का मुख्य धर्म है—स्मृति और मनन। मनुष्य जो भी अनुभव करता है, उसका संस्कार चित्त में संचित हो जाता है। यही चित्त समय-समय पर उन अनुभवों को स्मृति के रूप में बाहर लाता है और जीव को पुनः उसी विषय की ओर प्रवृत्त करता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी को अपने बचपन का कोई प्रसंग याद आता है, तो वह स्मरण चित्त का कार्य है। इसी प्रकार अपने इष्ट का चिन्तन, भक्ति और ध्यान भी चित्त के द्वारा ही सम्भव होते हैं।

इस प्रकार शंकराचार्य ने बताया कि मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त कोई अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि अन्तःकरण की ही भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ हैं। जीव का सम्पूर्ण आन्तरिक जीवन इन्हीं चारों के आधार पर चलता है। मनुष्य का व्यवहार, निर्णय, स्मरण और व्यक्तित्व—सबका मूल यही अन्तःकरण है। अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अन्तःकरण को शुद्ध करे, मन को स्थिर बनाए, बुद्धि को सत्य के मार्ग में दृढ़ रखे, अहंकार को त्यागकर आत्मस्वरूप में स्थिर हो और चित्त को भगवद्-चिन्तन में लगाकर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर हो। यही विवेकचूडामणि का गूढ़ संदेश है।
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प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः । 
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥

अर्थ:-अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदि के समान स्वयं प्राण ही वृत्ति भेद से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-इन पाँच नामों वाला होता है

यहाँ आचार्य शंकराचार्य प्राण के स्वरूप और उसकी विभिन्न वृत्तियों का विवेचन कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार एक ही सुवर्ण से अनेक प्रकार के आभूषण बन जाते हैं या एक ही जल अलग-अलग परिस्थितियों में नाना रूप धारण कर लेता है, वैसे ही एक ही प्राण तत्त्व अपनी-अपनी क्रियाओं और कार्य-क्षेत्रों के कारण पाँच प्रकारों में विभाजित माना जाता है। वस्तुतः प्राण एक ही है, परंतु उसकी गतिविधियों और कार्यों के आधार पर उसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम से जाना जाता है। यह पंच-प्राण ही शरीर और मन के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और जीवन को टिकाए रखते हैं।
      ‘प्राण’ का विशेष कार्य श्वास-प्रश्वास को संचालित करना है। यह हृदय और फेफड़ों के क्षेत्र में मुख्यतः कार्य करता है और जीव के जीवन-संचालन का आधार है। यदि प्राण न हो तो जीवित रहना असंभव है। प्राण के द्वारा ही हम श्वास लेते हैं और जीवन-ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। इसीलिए वेद और उपनिषदों में प्राण को जीवन का आधार कहा गया है।

‘अपान’ की गति नीचे की ओर मानी जाती है। यह मल, मूत्र, पसीना आदि के निष्कासन का कार्य करता है। मनुष्य के शरीर में जो भी अपशिष्ट पदार्थ हैं, उन्हें बाहर निकालने की जिम्मेदारी अपान प्राण की है। इसके कारण शरीर शुद्ध और संतुलित बना रहता है। यदि अपान का कार्य व्यवस्थित न हो तो शरीर में रोग और विषमता उत्पन्न हो जाती है।

        ‘व्यान’ प्राण की गतिविधि पूरे शरीर में फैली रहती है। यह रक्त संचार, स्नायु-संचालन तथा शरीर के प्रत्येक अंग में ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। व्यान के बिना शरीर में समन्वय और शक्ति का प्रवाह संभव नहीं है। यह प्राण की वह वृत्ति है जो पूरे शरीर को एक तंत्र की भाँति जीवंत और सक्रिय बनाए रखती है।

‘उदान’ का कार्य शरीर की उर्ध्वगामी क्रियाओं में है। यह बोलने, डकारने, उल्टी करने तथा अंततः शरीर त्यागने (मृत्यु के समय प्राण के बाहर निकलने) में सहायक होता है। यही कारण है कि उपनिषदों में कहा गया है कि मृत्यु के समय जीवात्मा का शरीर से प्रस्थान उदान प्राण के द्वारा होता है। यह प्राण की वृत्ति आत्मा को अगले लोक में ले जाने का माध्यम है।
‘समान’ का कार्य शरीर में आहार के पाचन और रस के समान वितरण में होता है। यह पेट की अग्नि को प्रज्वलित रखता है और आहार को रस, रक्त, मांस, मेद आदि धातुओं में परिवर्तित करता है। इसके बिना शरीर का पोषण और विकास संभव नहीं। समान प्राण ही सब कुछ संतुलित करके जीवन-ऊर्जा को स्थिर बनाए रखता है।
अतः शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि प्राण कोई पाँच अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि एक ही प्राण अपनी-अपनी गतिविधियों से पाँच रूपों में प्रकट होता हैजैसे एक ही सोना कभी कंगन, कभी हार, कभी अंगूठी बन जाता है, वैसे ही एक ही प्राण शरीर में भिन्न-भिन्न कार्य करता है। 
      यह शिक्षा हमें यह समझाती है कि शरीर और जीवन की सभी क्रियाएँ प्राण पर आश्रित हैं, परंतु यह प्राण भी आत्मा से अलग नहीं है। आत्मा के बिना प्राण की कोई सत्ता नहीं, और आत्मा के साथ प्राण केवल उपाधि की भाँति जुड़ा है। इस विवेचन से साधक को यह ज्ञान होता है कि वास्तविक तत्त्व आत्मा है, प्राण नहीं प्राण तो केवल आत्मा से जुड़ी देह के संचालन का साधन मात्र है।
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वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाश्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥ 

[वागादिपंच श्रवणादिपंच प्राणादिपंच/ अभ्रमुखाणि पंच बुद्ध्यादि अविद्या अपि च कामकर्मणी/ पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरम् आहुः। ]  
अर्थ:-वागादि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, श्रवणादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणादि पाँच प्राण, आकाशादि पाँच भूत, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म इसको ' पुर्यष्टकं अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं। 
वेदान्त में इस शरीर को 'पुर' कहा गया है - पुर यानि शहर ! जयपुर, भरतपुर, सोनपुर, ये शरीर ही अपने आप में एक शहर है। 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
             नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।    
  
       जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीर रूपी पुर में सम्पूर्ण कर्मोंका विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है। (25.33)
वेदान्त कहता है - इस स्थूल देह रूपी शहर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे की तरफ 2 द्वार हैं। और जो हमारा सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण) है , वो इन 9 द्वारों के माध्यम से बाहर निकल कर संसार के साथ व्यवहार कर रहा है। और ये सूक्ष्म शरीर (मन -अहंकार) संसार के साथ कैसे बंध जाता है ? अदृश्य राग (आसक्ति) रूपी रस्सी के द्वारा बंध जाती है। बहुत गहरा अवलोकन है। इस स्थूल शरीर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे 2 द्वार हैं। सूक्ष्म शरीर हमारी सारी ऊर्जा इन 9 द्वारों के द्वारा बाहर जाती रहती है। आज हमारी सारी शक्ति बहिर्मुखी है - और 9 द्वारों के माध्यम से बाहर ही दौड़ रही है। योग क्या है ? मन की इन शक्तियों को बाहर जाने से रोक रही है। योग के माध्यम से क्या हो रहा है ? अनंत आंतरिक शक्तियों का संग्रह हो रहा है। इन शक्तियों का संग्रह जितना अधिक होता है , उतना अधिक बलवान होता है , शक्तिशाली होता है। जितना शक्ति का ह्रास होता है -उतने हम दुर्बल होते हैं।इसलिए भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य आश्रम का बहुत बड़ा महत्व है। और ब्रह्मचर्य के हमारे आदर्श हैं - महावीर हनुमान ! पूरा शक्ति का संग्रह होगा -हम अनंत बलशाली होंगे । हमारे पूर्वज ऋषियों ने  योग के द्वारा पाँचों इन्द्रियों में बिखरी हुई मन की शक्तियों को, पांचों विषयों में जाने से खींचकर बहुत बुद्धिमानी से - विवेकपूर्वक उसका सदुपयोग करने की एक पद्धति आविष्कृत की है -उसी को अष्टांगयोग या राजयोग कहा जाता है।  योग मतलब अष्टांग प्रत्याहार -धारणा के अभ्यास से ध्यान-समाधि द्वारा जितना शक्ति अपने दैनंदिन जीवन में व्यवहार के लिए सदुपयोग करने के लिए खर्च करना जरुरी है , उतना करके बाकि ऊर्जा को जब आप संग्रहित करने लगते हो , अपने भीतर सत्यस्वरूप के निकट जाते रहते हो तो ये प्रक्रिया है। हमारे वेदांत में स्थूल शरीर को तो एक पुर यानि शहर कहा ही गया है। (27.51) उसी तरह सूक्ष्म शरीर को भी एक पुर कहा गया है। और ये सूक्ष्म शरीर 8 चीजों से बनी है। शंकराचार्यजी का कहते हैं - 'पूरी अष्टकं सूक्ष्मशरीरं आहुः'! कौन सी आठ चीजें है ? उसमें से पहले को हम - अन्तःकरणं कहते हैं।  आठ चीजों में जो हमें शास्त्र और गुरु के द्वारा जो गिनाया जा रहा है , या बताया जा रहा है-निगद्यते  अन्त:करणं। अन्तःकरण में करण का मतलब अंग्रेजी में 'Instrument' होता है। इसको हिन्दी में औजार,निमित्त या यंत्र कहते हैं ! अस्त्र या राजमिस्त्री का करनी ? किसान का औजार क्या है ? हसिया है , कुदाल है। हमलोग Instruments से काम करते हैं - डॉक्टर्स के अपने औजार हैं , इंजीनियर्स के अपने औजार हैं। तो पूरी (शहर) में रहने वाले आत्मा के भी दो प्रकार के औजार हैं, एक बाह्य औजार हैं , दूसरा अन्तः का औजार है। बाह्यः करणं और अन्तः करणं। मन आत्मा का वह भीतरी औजार है - जिसके माध्यम से उसका ये बाह्य स्थूल शरीर काम कर रहा है। लेकिन हमको लगता है कि केवल स्थूल शरीर ही काम कर रहा है , सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना ये स्थूल शरीर कुछ भी नहीं कर सकता। सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना आप एक ऊँगली भी नहीं उठा सकते हैं। सारी शक्ति -इच्छा के रूप में कहाँ से आ रही है ? शुक्ष्म शरीर से आ रही है। आत्मा का मुख्य डायनेमो (Dynamo-बिजली उत्पादन यंत्र) ये सूक्ष्म शरीर ही है। स्थूल सिर्फ बाहर का एक मशीन है , जिसको हमारा सूक्ष्म शरीर संचालित कर रहा है। और सूक्ष्म शरीर के प्रथम घटक को हमलोग अन्तःकरणं कहते हैं। उसके चार विभिन्न कार्य हैं। मशीन एक है -लेकिन वो चार functions करती है। और उसके कार्यानुसार उसके चार विभिन्न नाम दिए गए हैं। अन्तःकरण के चार-functions के चार नाम हैं - मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार। कार्य के एक अंतःकरण को चार नाम दिया गया है। अंतःकरण का एक function है मन। और मन का कार्य क्या है ? मनः तु संकल्प विकल्पना दिभिः| अंतःकरण का जो संकल्प विकल्पात्मक कार्य है , उसको हम 'मन' - कहते हैं, मनः इत्युच्यते। संकल्प -विकल्प क्या है ? इसको हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। दूर पर कुछ है - पर स्पष्ट नहीं दीखता कि गाय है , या बदंर है ? लेकिन कुछ हलचल से वहाँ दिख रहा है। अंतःकरण की जो अनिश्चयात्मक दशा है - जिसमें वो निश्चय नहीं कर पा रहा है कि ये मगरमच्छ है या लट्ठा है ? अभी तक वो निश्चय तक नहीं पहुंचा - वो सोच रहा है - कि ये बंदर है , या गाय है ? अंतःकरण के इस अनिश्चयात्मक दशा को हमलोग मन कहते हैं। अभी भी उसके मन में दुविधा वाली स्थिति है - वोसोच रहा है -कुछ तो है -पर क्या है ? निश्चय नहीं हुआ है। मन हमारे अन्तःकरण का Undetermined state अनिश्चित, अनिर्धारित दशा है। अंतःकरण जब इस निश्चय पर पहुँच जाता है कि नहीं - ये लट्ठा नहीं मगरमच्छ ही है। तब अंतःकरण की उस दशा को बुद्धि कहते है। तो बुद्धि निश्चयात्मिका होती है , मन संकल्प-विकल्पात्मक होता है। बुद्धि क्या है ?  -पदार्थ अध्यवसाय धर्मतः बुद्धि:' जब आप अध्यवसाय कर लेते हो -मतलब जब आप यह निश्चय कर लेते हो कि जो देख रहे हो वो यही है -तब उसको बुद्धि कहते हैं ( इत्युच्यते।) एक ही अंतःकरण के ये दो कार्य हैं - एक मन है और दूसरा बुद्धि है। अब अहंकार क्या है ? अत्र अभिमानात् अहम् इति अहंकृति: अभिमानात् - अध्यासात् /अहंकृति: - अहङ्कार:( इत्युच्यते)-जिसके द्वारा शरीर में अभिमान हो जाता है - उसको अहंकार कहते हैं। अहंकार अंतःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा इस स्थूल शरीर के M/F साथ हमारा अभिमान जुड़ जाता है। और हम अपने इस स्थूल शरीर को ही मैं समझने लगते है। मैं , मैं अहं -अहं का भाव सबके अंदर है। इस अहं के बिना कोई व्यवहार ही सम्भव नहीं है। हमारी सारी क्रिया मैं केंद्रित है। ये मैं क्या है ? मैं अन्तकरण की वह दशा है जिसमें हमारा शरीर के साथ अभिमान हो जाता है। ये अत्यंत सूक्ष्म है , हमारे समस्त व्यवहार के मूल में है। हर समय मैं -मैं का बोध चलता रहता है , पर प्रश्न है कि यह मैं क्या है ? या मैं कौन हूँ ? यही प्रश्न है न -Who am I? क्या यह मैं स्थूल शरीर है ? क्या यह मैं सूक्ष्म शरीर है ? ये मैं क्या है ? यही तो सत्यार्थी की खोज चल रही है। किन्तु स्थूल शरीर तो बदल रहा है , प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। क्या मैं सिर्फ इस स्थूल शरीर तक ही सीमित है ? ये हमारी खोज का विषय है। अहंकार हमारे अन्तःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा हम इस M/F दिखने वाले शरीर में अभिमान कर लेते हैं। इसके बाद है - चित्त ! तो मन क्या है ? बुद्धि क्या है ? अहंकार क्या है ? इतना समझ में आ गया फिर समझना है - चित्त क्या है ? (37.05स्वार्थ अनुसंधान -स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् - स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् -इत्युच्यते। सरल भाषा में कहें तो -चित्त अन्तःकरण का वह कार्य है, जिसके द्वारा अतीत में हुए कुछ घटनाओं या चीजों का हम स्मरण करते हैं - अन्तःकरण के उस कार्य को हमलोग चित्त कहते हैं। इसके पिछले सत्र में हमने क्या पढ़ा था ? इसका स्मरण हमलोग अंतःकरण के जिस function के द्वारा करते हैं , उसको चित्त कहते हैं। सूक्ष्म शरीर में रहने वाली स्मरण-शक्ति बड़ी अद्भुत शक्ति है - इसका उपयोग हमलोग बंगला भाषा का दूसरे भाषा में-हिन्दी में तुरंत अनुवाद करते समय भी करते हैं। सोच के देखिये -स्मरण शक्ति पैर में तो नहीं होती है , हाथों से भी नहीं होता। आपका हाथ-पैर स्मरण शक्ति के बिना क्या है ? आप अगर सबकुछ भूल जाओ , तो इस बीमारी को क्या कहते हैं ? Alzheimer's -भूलने की बीमारी। आपकी स्मरण शक्ति अगर चली जाये तो आपका स्थूल शरीर क्या करेगा ? स्थूल शरीर -तो केवल बाहर का ढाँचा है , असली चीज -सत्यस्वरूप तो आप जितना भीतर जाओगे , वहाँ पर है। स्मरण करने की क्षमता कहाँ है ? हमारे अन्तःकरण में है। अन्तःकरण की वह क्षमता जो अतीत हुए चीजों को स्मरण कर लेता है- यह अन्तःकरण का एक कार्य है , जिसको हमलोग चित्त कहते हैं। तो अन्तःकरण एक है - इसके चार कार्य हैं। कार्यों के अनुसार उसको चार नाम हैं। एक कार्य है - अंतःकरण की अनिश्चय की दशा जिसमें संकल्प-विकल्प करना उसको मन कहते हैं, वही अन्तःकरण जब किसी विषय के बारे में निश्चय कर लेता है , तो उसको बुद्धि कहते हैं , अन्तःकरण का तीसरा कार्य है -'अहंकृति' जिसके द्वारा वह M/F शरीर में अभिमान कर लेता है। अन्तःकरण का चतुर्थ कार्य है अतीत की बातों का स्मरण करता है -उसको चित्त कहते हैं। अन्तःकरण सूक्ष्म शरीर का एक घटक है। हमलोग जो निर्वाण षट्कम गाते हैं - उसमें यही बात है- (39.56)  निर्वाण षट्कम्  या जिसे आत्म षट्कम् भी कहा जाता है, एक अद्वैत रचना है जिसमें 6 श्लोक हैं। इसे आदिशंकराचार्य ने लिखा है और यह अद्वैत वेदांत की मूल शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह रचना आत्मा के नॉन-डुअलिज़्म पर आधारित है और इसे साधक की आत्म-ज्ञान की यात्रा में मदद करने के लिए माना जाता है। निर्वाण षटकम् आत्मा की वास्तविकता और ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति पर आधारित है।
निर्वाण का अर्थ “निराकार” या “शांति की अवस्था” है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त होता है। निर्वाण का अनुभव करने पर आत्मा शाश्वत सुख और शांति का अनुभव करती है। यह अवधारणा अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण है और आत्मज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है। षट्कम का अर्थ है छह या छह से मिलकर बना हुआ। निर्वाणषट्कम् का मुख्य उद्देश्य मानव को उसके सच्चे स्वरूप से अवगत कराना है। यह जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में सहायता करता है और आत्मा और परमात्मा की एकता और आत्मा की अमरता का अनुभव कराता है।
आदिशंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईस्वी में दक्षिण भारत (केरल) के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने चारों वेदों, भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और अद्वैत वेदांत की स्थापना की। शंकराचार्य ने भारत में वेदांत के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और विभिन्न क्षेत्रों में अद्वैत के विचारों का प्रचार किया। उन्होंने भारत के चार कोनों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की एक विस्तृत और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है।उनका जीवन साधना, ज्ञान और ब्रह्म की खोज में व्यतीत हुआ।

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं।  मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं।  मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्‍सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या।  मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्‍तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदो पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यो चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव।  मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूप विभुर्व्याप्यसर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
सदा मे समर्थ्वम् न मुक्तिर् न बन्धः चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
    
अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्‍य के रूप में सब जगह व्‍याप्‍त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं।  न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि‍, अनंत शिव हूं।
   
       इसकी शुरुआत यहाँ से होती है, मैं मन भी नहीं हूँ, मैं बुद्धि भी नहीं हूँ , मैं अहंकार भी नहीं हूँ , मैं चित्त भी नहीं हूँ। आप इनमें से कुछ भी नहीं हो। हम लोग रोज शाम-सुबह को ध्यान करते हैं, उस समय आप इन सभी चीजों का साक्षी बन जाइये। ये सारी चीजें बस आपकी आँखों के सामने चल रही होती हैं। हम इनमें से कुछ भी नहीं हैं। तो जितना आप साक्षी भाव से इन सबका अनुभव करोगे , तो आप देखोगे। अद्भुत बदलाव आपके व्यक्तित्व में आने लगता है। 
      तो ये हुआ अन्तःकरण जो हमारे सूक्ष्मशरीर का सिर्फ एक घटक है। सूक्ष्म शरीर के बाकी घटक कौन -कौन से हैं ? वागादिपंच श्रवणादिपंच प्राणादिपंच अभ्रमुखाणि पंच बुद्ध्यादि अविद्या अपि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरम् आहुः। वागादि पंच - पंचकर्मेण्द्रियाणि, वाग यानि वाणी, दो हाथ , दो पैर, फिर हमारे उपस्थ (sexual organ) एक है और मल त्याग करने स्थान ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। फिर श्रवणादि-पंच ज्ञानेन्द्रियाँ है - आँख , नाक , कान, जिह्वा और स्पर्श। प्राणादि-पंच, फिर प्राण एक अद्भुत चीज है। ये सारा animation - सजीवता जो चल रहा है।ये सब प्राण के रहने से ही चल रही है। पुतलों में जो जान दिख रहा है ? ये सब प्राण के रहने से ही चल रहा है। हम बोल रहे हैं , हिलडुल करते हैं - ये सब प्राण की शक्ति है। प्राण के बिना पलक भी नहीं झपक सकता है। लेकिन हम अपने आप को स्थूल शरीर और उसके सम्बन्धों के सिवा और कुछ भी नहीं जानते हैं। हम जितना भी बाह्य विषयों में फंसे रहेंगे -कभी समझ नहीं पाएंगे कि सत्य क्या है ? इसलिए वैराग्य का इतना महत्व है। वैराग्य के बिना हम कभी भी सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। जब तक हम बाहर के विषयों में- M/F क्लास मेट्स की यादों में डूबे हुए हैं -हम कभी भी सत्य तक नहीं पहुँच सकते। पंच -प्राण मने पांच प्राण नहीं है , प्राण तो एक ही है - लेकिन प्राण के पाँच कार्य हैं। जिस प्रकार अन्तःकरण (Inner Instrument)  एक ही है , उसके चार कार्य हैं ; उसी प्रकार प्राण एक ही है उसके पाँच कार्य हैं। प्राण, अपान, व्यान , उदान, समान ये उसके पांच कार्य हैं। बाह्य उपकरण और अन्तः उपकरण के माध्यम से ही हम जगत के साथ व्यवहार करते हैं। सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के भीतर है और पीछे है , और आठ चीजों से बनी हुई है। आठ उपकरणों में एक उपकरण है - अन्तःकरण। एक ही औजार है लेकिन उसके चार कार्य हैं। उसके अनुरूप उसके चार नाम हैं। Mind, Intellect , 3rd ahnkar or I'-sense or Ego,  और चौथा है कार्य है - Memory, जिसको chitta कहते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान सबकुछ को mind ही कहता है। जब मन अंतःकरण का एक कार्य है। इस मुद्दा को ठीक से समझ लेना चाहिए। मन क्या है - अंतःकरण की अनिश्चय वाली दशा है। निर्णय पर पहुँचने को बुद्धि कहते हैं। तीसरा कार्य है अहंकृति - अहं इसके द्वारा हम अपने M/F शरीर में अभिमान कर लेते हैं। जब यह अंतःकरण विगत कार्यों का स्मरण करता है - तो चित्त कहलाता है। प्राण को अंग्रेजी में अनुवाद ही नहीं किया जा सकता। आपकी नासिका में जो साँस चल रहा है -ये भी प्राण की अभिव्यक्ति है , प्राण नहीं है। इसलिए जब आप सांसों को नियंत्रित करते हैं - तो अर्थ है आप प्राणों  नियंत्रित करते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी गति शक्ति दिखाई दे रही है , वो प्राण ही है। सूर्य-चंद्र -तारे एक दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं - ब्रह्माण्ड की सारी 'animation ' सजीवता या जीवन्तता जो दृष्टिगोचर हो रही है , वो सब प्राण की शक्ति से ही संचालित हो रहे हैं। इसलिए योगी कहते हैं कि यदि आप प्राण को नियंत्रित कर लेते हो तो जगत की हर वस्तु को नियंत्रित कर सकते हो। Prana is the animating force ! इस लिए स्वाँस -प्रश्वांस को आप नियमित करके प्राण को नियंत्रित कर सकते हो। उसको प्राणायाम कहते हैं। नाड़ी -शुद्धि प्राणायाम आप बिना गुरु  के भी कर सकते हो। शरीर के ऊपर भाग में जो वायु चलती है , उसको प्राण कहते हैं। नीचे के भाग में जो वायु चलती है -उसको अपान वायु कहते हैं। मृत्युकाल में एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करने की जो क्रिया है -वह उदान वायु से होती है। इस प्रकार प्राण एक ही है , उसके पाँच कार्य के अनुसार पाँच प्राण हैं। तो पाँच कर्मेन्द्रिय , पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच प्राण और उसके बाद अभ्रमुखाणि पंच -पाँच जो तन्मात्राएँ हैं -आकाशादु भूतपंचकम्
 आकाश, वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। बुद्ध्यादि - का मतलब है अन्त:करणचतुष्टयम्। फिर है अविद्या , काम और कर्म। इस प्रकार इन घटकों से बना हुआ है ये सूक्ष्म शरीर। 1 -पाँच कर्मेन्द्रिय 2- पाँच ज्ञानेन्द्रिय , 3 -पाँच प्राण, 4 - पांच तन्मात्रयें, 5 - अंतःकरण चतुष्टय, 6 -अविद्या (Ignorance) , 7 -काम (All types of desires) , 8 -कर्म (Action) । इन्हीं आठ घटकों से हमारा सूक्ष्म शरीर बना हुआ है। इसीको पूरी अष्टकम सूक्ष्मशरीरम् - आहुः। तो सूक्ष्म शरीर इन्हीं आठ से बना हुआ है।       
[विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी सूक्ष्म शरीर का विवेचन करते हुए उसे ‘पुर्यष्टक’ नाम से संबोधित करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के विपरीत है, जो पंचमहाभूतों से निर्मित होता है और दृष्टिगोचर है। सूक्ष्म शरीर अदृष्टिगोचर होने पर भी जीवात्मा के अनुभव और संसार-यात्रा का कारण बनता है। जब तक आत्मा का अज्ञान बना रहता है, तब तक यही सूक्ष्म शरीर जीव को जन्म–मरण के चक्र में बांधे रखता है। इसीलिए इसका स्वरूप समझना वेदांत साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है।   

शंकराचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म शरीर आठ अंगों से मिलकर बना है, जिन्हें ‘पुर्यष्टक’ कहा जाता है। इनमें प्रथम हैं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ—श्रवण (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (आंख), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक)। इनका कार्य है ज्ञान प्राप्त करना अर्थात् बाहरी विषयों को ग्रहण करना। दूसरा अंग है पाँच कर्मेन्द्रियाँ—वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पाँव), पायु (गुदा) और उपस्थ (जननेंद्रिय)। इनका कार्य है कर्म करना, जैसे बोलना, पकड़ना, चलना, मल–विसर्जन और प्रजनन। ये दोनों इन्द्रियों के समूह सूक्ष्म शरीर के कार्यकलाप का मुख्य आधार हैं।

तीसरा है प्राण पंचक, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। ये शरीर के भीतर जीवन–शक्ति को गतिशील रखते हैं। प्राण श्वास–प्रश्वास का, अपान नीचे की गति का, व्यान संपूर्ण शरीर में ऊर्जा वितरण का, उदान ऊपर की गति और मृत्यु के समय प्राण को बाहर ले जाने का, तथा समान भोजन पचाने और शरीर का संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है। प्राण पंचक के बिना न तो इन्द्रियाँ कार्य कर सकती हैं और न ही शरीर जीवित रह सकता है।

चौथा अंग है पंच महाभूतों का सूक्ष्म स्वरूप। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये स्थूल रूप में दिखते हैं, परन्तु सूक्ष्म स्तर पर ही ये इन्द्रियों को विषयों का अनुभव कराते हैं। उदाहरण के लिए, कान ध्वनि को आकाश के कारण सुनता है, त्वचा स्पर्श को वायु के कारण अनुभव करती है, आंखें रूप को अग्नि के कारण देखती हैं, जीभ रस को जल के कारण चखती है और नाक गंध को पृथ्वी के कारण ग्रहण करती है। इस प्रकार इन्द्रियों और भूतों का आपसी संबंध भी सूक्ष्म शरीर की रचना में शामिल है।

पाँचवां है अन्तःकरण चतुष्टय—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन संकल्प–विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय लेती है, चित्त स्मरण और संस्कारों को धारण करता है और अहंकार ‘मैं–पना’ का भाव उत्पन्न करता है। यह अन्तःकरण ही जीव के अनुभव, विचार और भावनाओं का केन्द्र है। इसके बिना न तो ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों की व्याख्या संभव है और न ही कोई कर्म संपन्न हो सकता है।

इसके अतिरिक्त अविद्या, काम और कर्म—ये तीन भी सूक्ष्म शरीर का अंग माने गए हैं। अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है। काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है।

अतः शंकराचार्य जी के अनुसार, जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी मिथ्या है और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह और अन्तःकरण के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में
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रविवार, 31 अगस्त 2025

⚜️️रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥⚜️️घटना - 341⚜️️रावण के साथ वानर सेना और वृद्ध जाम्बवान के बीच युद्ध का वर्णन ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #341 || ⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_9.html⚜️️⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 341: दोहा -96,97]

रावण के साथ वानर सेना और वृद्ध जाम्बवान के बीच युद्ध का वर्णन -

     रावण का हनुमान से युद्ध हो रहा है , इसी समय वानरों को माया के प्रभाव से युद्धभूमि में असंख्य रावण दीखने लगते हैं। ये देख वानर भालू त्राहि त्राहि करते हुए रक्षा के लिए प्रभु की शरण लेने भागते हैं। उनका भ्रम दूर करने के लिए श्रीराम एक ही वाण से मायाजाल छिन्न-भिन्न कर देते हैं। फिर वहाँ एक ही रावण को देखकर सारा वानर समूह उस पर टूट पड़ता है। रावण अब हनुमान , अंगद , नल और निल से युद्ध कर रहा है। इसी समय वो आकाश में एकत्रित देवताओं को देखता है , जो श्रीराम का जयघोष कर रहे हैं। वो उन्हें लक्ष्यकर वाण चलाने लगता है। उधर श्रीराम के वाणों से कटकटकर उसके सिर और भुजायें , इधर-उधर उड़ रही हैं , लेकिन कटने के साथ ही वे फिर उग आते हैं। वो अपने विशाल भुजाओं से वानरों के समूह के समूह उठाकर मसल देना चाहता है; कि तभी वृद्ध जाम्बवान के पद प्रहार से मूर्छित होकर एकबार फिर धरती पर गिर जाता है -..... 

छंद :

* जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।

चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥

हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।

मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥

भावार्थ:-जो प्रभु का प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरों ने शत्रुओं (बहुत से रावणों) को सच्चा ही मान लिया। (इससे) सब वानर-भालू विचलित होकर 'हे कृपालु! रक्षा कीजिए' (यों पुकारते हुए) भय से व्याकुल होकर भाग चले। अत्यंत बलवान्‌ रणबाँकुरे हनुमान्‌जी, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपट रूपी भूमि से अंकुर की भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणों को मसलते हैं।

दोहा :

* सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।

सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस॥96॥

भावार्थ:-देवताओं और वानरों को विकल देखकर कोसलपति श्री रामजी हँसे और शार्गं धनुष पर एक बाण चढ़ाकर (माया के बने हुए) सब रावणों को मार डाला॥96॥

चौपाई :

* प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥

रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥

भावार्थ:-प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होंने लौटकर प्रभु पर बहुत से पुष्प बरसाए॥1॥

* भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥

प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए॥2॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी ने भुजा उठाकर सब वानरों को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट आए। प्रभु का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े। जल्दी से कूदकर वे रणभूमि में आ गए॥2॥

* अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥

सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥3॥

भावार्थ:-देवताओं को श्री रामजी की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया, (परन्तु इन्हें यह पता नहीं कि इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा- अरे मूर्खों! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल (मेरी मार खाने वाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौड़ा॥3॥ 

चौपाई :

* हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥

देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥4॥

भावार्थ:-देवता हाहाकार करते हुए भागे। (रावण ने कहा-) दुष्टों! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर (उन्होंने) उसको पृथ्वी पर गिरा दिया॥4॥

छंद :

* गहि भूमि पार्‌यो लात मार्‌यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।

संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥

करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई।

किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥

भावार्थ:- उसे पकड़कर पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभु के पास चले गए। रावण संभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर बहुत से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा।

दोहा :

* तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।

काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥97॥

भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ़ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥97॥

चौपाई :

* सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥

मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥

भावार्थ:-शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े॥1॥

* बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥

बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥2॥

भावार्थ:-बालिपुत्र अंगद, मारुति हनुमान्‌जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान्‌ उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को मारता है॥2॥

* एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।

तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥3॥

भावार्थ:-कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाड़कर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ़ गए और नखों से उसके ललाट को फाड़ने लगे॥3॥

* रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥

गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥4॥

भावार्थ:- खून देखकर उसे हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उसने उनको पकड़ने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड़ में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों॥4॥

* कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥

पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥5॥

भावार्थ:-तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड़ लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोड़कर भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया॥5॥

* हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर॥

मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥6॥

भावार्थ:-हनुमान्‌जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत्‌ दौड़े॥6॥

* संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥

भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥7॥

भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान्‌ रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा॥7॥

* देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥8॥

भावार्थ:-जाम्बवान्‌ ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी॥8॥

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