जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीर रूपी पुर में सम्पूर्ण कर्मोंका विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है। (25.33)
वेदान्त कहता है - इस स्थूल देह रूपी शहर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे की तरफ 2 द्वार हैं। और जो हमारा सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण) है , वो इन 9 द्वारों के माध्यम से बाहर निकल कर संसार के साथ व्यवहार कर रहा है। और ये सूक्ष्म शरीर (मन -अहंकार) संसार के साथ कैसे बंध जाता है ? अदृश्य राग (आसक्ति) रूपी रस्सी के द्वारा बंध जाती है। बहुत गहरा अवलोकन है। इस स्थूल शरीर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे 2 द्वार हैं। सूक्ष्म शरीर हमारी सारी ऊर्जा इन 9 द्वारों के द्वारा बाहर जाती रहती है। आज हमारी सारी शक्ति बहिर्मुखी है - और 9 द्वारों के माध्यम से बाहर ही दौड़ रही है। योग क्या है ? मन की इन शक्तियों को बाहर जाने से रोक रही है। योग के माध्यम से क्या हो रहा है ? अनंत आंतरिक शक्तियों का संग्रह हो रहा है। इन शक्तियों का संग्रह जितना अधिक होता है , उतना अधिक बलवान होता है , शक्तिशाली होता है। जितना शक्ति का ह्रास होता है -उतने हम दुर्बल होते हैं।इसलिए भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य आश्रम का बहुत बड़ा महत्व है। और ब्रह्मचर्य के हमारे आदर्श हैं - महावीर हनुमान ! पूरा शक्ति का संग्रह होगा -हम अनंत बलशाली होंगे । हमारे पूर्वज ऋषियों ने योग के द्वारा पाँचों इन्द्रियों में बिखरी हुई मन की शक्तियों को, पांचों विषयों में जाने से खींचकर बहुत बुद्धिमानी से - विवेकपूर्वक उसका सदुपयोग करने की एक पद्धति आविष्कृत की है -उसी को अष्टांगयोग या राजयोग कहा जाता है। योग मतलब अष्टांग प्रत्याहार -धारणा के अभ्यास से ध्यान-समाधि द्वारा जितना शक्ति अपने दैनंदिन जीवन में व्यवहार के लिए सदुपयोग करने के लिए खर्च करना जरुरी है , उतना करके बाकि ऊर्जा को जब आप संग्रहित करने लगते हो , अपने भीतर सत्यस्वरूप के निकट जाते रहते हो तो ये प्रक्रिया है। हमारे वेदांत में स्थूल शरीर को तो एक पुर यानि शहर कहा ही गया है। (27.51) उसी तरह सूक्ष्म शरीर को भी एक पुर कहा गया है। और ये सूक्ष्म शरीर 8 चीजों से बनी है। शंकराचार्यजी का कहते हैं - 'पूरी अष्टकं सूक्ष्मशरीरं आहुः'! कौन सी आठ चीजें है ? उसमें से पहले को हम - अन्तःकरणं कहते हैं। आठ चीजों में जो हमें शास्त्र और गुरु के द्वारा जो गिनाया जा रहा है , या बताया जा रहा है-निगद्यते अन्त:करणं। अन्तःकरण में करण का मतलब अंग्रेजी में 'Instrument' होता है। इसको हिन्दी में औजार,निमित्त या यंत्र कहते हैं ! अस्त्र या राजमिस्त्री का करनी ? किसान का औजार क्या है ? हसिया है , कुदाल है। हमलोग Instruments से काम करते हैं - डॉक्टर्स के अपने औजार हैं , इंजीनियर्स के अपने औजार हैं। तो पूरी (शहर) में रहने वाले आत्मा के भी दो प्रकार के औजार हैं, एक बाह्य औजार हैं , दूसरा अन्तः का औजार है। बाह्यः करणं और अन्तः करणं। मन आत्मा का वह भीतरी औजार है - जिसके माध्यम से उसका ये बाह्य स्थूल शरीर काम कर रहा है। लेकिन हमको लगता है कि केवल स्थूल शरीर ही काम कर रहा है , सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना ये स्थूल शरीर कुछ भी नहीं कर सकता। सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना आप एक ऊँगली भी नहीं उठा सकते हैं। सारी शक्ति -इच्छा के रूप में कहाँ से आ रही है ? शुक्ष्म शरीर से आ रही है। आत्मा का मुख्य डायनेमो (Dynamo-बिजली उत्पादन यंत्र) ये सूक्ष्म शरीर ही है। स्थूल सिर्फ बाहर का एक मशीन है , जिसको हमारा सूक्ष्म शरीर संचालित कर रहा है। और सूक्ष्म शरीर के प्रथम घटक को हमलोग अन्तःकरणं कहते हैं। उसके चार विभिन्न कार्य हैं। मशीन एक है -लेकिन वो चार functions करती है। और उसके कार्यानुसार उसके चार विभिन्न नाम दिए गए हैं। अन्तःकरण के चार-functions के चार नाम हैं - मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार। कार्य के एक अंतःकरण को चार नाम दिया गया है। अंतःकरण का एक function है मन। और मन का कार्य क्या है ? मनः तु संकल्प विकल्पना दिभिः| अंतःकरण का जो संकल्प विकल्पात्मक कार्य है , उसको हम 'मन' - कहते हैं, मनः इत्युच्यते। संकल्प -विकल्प क्या है ? इसको हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। दूर पर कुछ है - पर स्पष्ट नहीं दीखता कि गाय है , या बदंर है ? लेकिन कुछ हलचल से वहाँ दिख रहा है। अंतःकरण की जो अनिश्चयात्मक दशा है - जिसमें वो निश्चय नहीं कर पा रहा है कि ये मगरमच्छ है या लट्ठा है ? अभी तक वो निश्चय तक नहीं पहुंचा - वो सोच रहा है - कि ये बंदर है , या गाय है ? अंतःकरण के इस अनिश्चयात्मक दशा को हमलोग मन कहते हैं। अभी भी उसके मन में दुविधा वाली स्थिति है - वोसोच रहा है -कुछ तो है -पर क्या है ? निश्चय नहीं हुआ है। मन हमारे अन्तःकरण का Undetermined state अनिश्चित, अनिर्धारित दशा है। अंतःकरण जब इस निश्चय पर पहुँच जाता है कि नहीं - ये लट्ठा नहीं मगरमच्छ ही है। तब अंतःकरण की उस दशा को बुद्धि कहते है। तो बुद्धि निश्चयात्मिका होती है , मन संकल्प-विकल्पात्मक होता है। बुद्धि क्या है ? -पदार्थ अध्यवसाय धर्मतः बुद्धि:' जब आप अध्यवसाय कर लेते हो -मतलब जब आप यह निश्चय कर लेते हो कि जो देख रहे हो वो यही है -तब उसको बुद्धि कहते हैं ( इत्युच्यते।) एक ही अंतःकरण के ये दो कार्य हैं - एक मन है और दूसरा बुद्धि है। अब अहंकार क्या है ? अत्र अभिमानात् अहम् इति अहंकृति: अभिमानात् - अध्यासात् /अहंकृति: - अहङ्कार:( इत्युच्यते)-जिसके द्वारा शरीर में अभिमान हो जाता है - उसको अहंकार कहते हैं। अहंकार अंतःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा इस स्थूल शरीर के M/F साथ हमारा अभिमान जुड़ जाता है। और हम अपने इस स्थूल शरीर को ही मैं समझने लगते है। मैं , मैं अहं -अहं का भाव सबके अंदर है। इस अहं के बिना कोई व्यवहार ही सम्भव नहीं है। हमारी सारी क्रिया मैं केंद्रित है। ये मैं क्या है ? मैं अन्तकरण की वह दशा है जिसमें हमारा शरीर के साथ अभिमान हो जाता है। ये अत्यंत सूक्ष्म है , हमारे समस्त व्यवहार के मूल में है। हर समय मैं -मैं का बोध चलता रहता है , पर प्रश्न है कि यह मैं क्या है ? या मैं कौन हूँ ? यही प्रश्न है न -Who am I? क्या यह मैं स्थूल शरीर है ? क्या यह मैं सूक्ष्म शरीर है ? ये मैं क्या है ? यही तो सत्यार्थी की खोज चल रही है। किन्तु स्थूल शरीर तो बदल रहा है , प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। क्या मैं सिर्फ इस स्थूल शरीर तक ही सीमित है ? ये हमारी खोज का विषय है। अहंकार हमारे अन्तःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा हम इस M/F दिखने वाले शरीर में अभिमान कर लेते हैं। इसके बाद है - चित्त ! तो मन क्या है ? बुद्धि क्या है ? अहंकार क्या है ? इतना समझ में आ गया फिर समझना है - चित्त क्या है ? (37.05) स्वार्थ अनुसंधान -स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् - स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् -इत्युच्यते। सरल भाषा में कहें तो -चित्त अन्तःकरण का वह कार्य है, जिसके द्वारा अतीत में हुए कुछ घटनाओं या चीजों का हम स्मरण करते हैं - अन्तःकरण के उस कार्य को हमलोग चित्त कहते हैं। इसके पिछले सत्र में हमने क्या पढ़ा था ? इसका स्मरण हमलोग अंतःकरण के जिस function के द्वारा करते हैं , उसको चित्त कहते हैं। सूक्ष्म शरीर में रहने वाली स्मरण-शक्ति बड़ी अद्भुत शक्ति है - इसका उपयोग हमलोग बंगला भाषा का दूसरे भाषा में-हिन्दी में तुरंत अनुवाद करते समय भी करते हैं। सोच के देखिये -स्मरण शक्ति पैर में तो नहीं होती है , हाथों से भी नहीं होता। आपका हाथ-पैर स्मरण शक्ति के बिना क्या है ? आप अगर सबकुछ भूल जाओ , तो इस बीमारी को क्या कहते हैं ? Alzheimer's -भूलने की बीमारी। आपकी स्मरण शक्ति अगर चली जाये तो आपका स्थूल शरीर क्या करेगा ? स्थूल शरीर -तो केवल बाहर का ढाँचा है , असली चीज -सत्यस्वरूप तो आप जितना भीतर जाओगे , वहाँ पर है। स्मरण करने की क्षमता कहाँ है ? हमारे अन्तःकरण में है। अन्तःकरण की वह क्षमता जो अतीत हुए चीजों को स्मरण कर लेता है- यह अन्तःकरण का एक कार्य है , जिसको हमलोग चित्त कहते हैं। तो अन्तःकरण एक है - इसके चार कार्य हैं। कार्यों के अनुसार उसको चार नाम हैं। एक कार्य है - अंतःकरण की अनिश्चय की दशा जिसमें संकल्प-विकल्प करना उसको मन कहते हैं, वही अन्तःकरण जब किसी विषय के बारे में निश्चय कर लेता है , तो उसको बुद्धि कहते हैं , अन्तःकरण का तीसरा कार्य है -'अहंकृति' जिसके द्वारा वह M/F शरीर में अभिमान कर लेता है। अन्तःकरण का चतुर्थ कार्य है अतीत की बातों का स्मरण करता है -उसको चित्त कहते हैं। अन्तःकरण सूक्ष्म शरीर का एक घटक है। हमलोग जो निर्वाण षट्कम गाते हैं - उसमें यही बात है- (39.56) निर्वाण षट्कम् या जिसे आत्म षट्कम् भी कहा जाता है, एक अद्वैत रचना है जिसमें 6 श्लोक हैं। इसे आदिशंकराचार्य ने लिखा है और यह अद्वैत वेदांत की मूल शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह रचना आत्मा के नॉन-डुअलिज़्म पर आधारित है और इसे साधक की आत्म-ज्ञान की यात्रा में मदद करने के लिए माना जाता है। निर्वाण षटकम् आत्मा की वास्तविकता और ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति पर आधारित है।
निर्वाण का अर्थ “निराकार” या “शांति की अवस्था” है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त होता है। निर्वाण का अनुभव करने पर आत्मा शाश्वत सुख और शांति का अनुभव करती है। यह अवधारणा अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण है और आत्मज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है। षट्कम का अर्थ है छह या छह से मिलकर बना हुआ। निर्वाणषट्कम् का मुख्य उद्देश्य मानव को उसके सच्चे स्वरूप से अवगत कराना है। यह जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में सहायता करता है और आत्मा और परमात्मा की एकता और आत्मा की अमरता का अनुभव कराता है।
आदिशंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईस्वी में दक्षिण भारत (केरल) के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने चारों वेदों, भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और अद्वैत वेदांत की स्थापना की। शंकराचार्य ने भारत में वेदांत के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और विभिन्न क्षेत्रों में अद्वैत के विचारों का प्रचार किया। उन्होंने भारत के चार कोनों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की एक विस्तृत और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है।उनका जीवन साधना, ज्ञान और ब्रह्म की खोज में व्यतीत हुआ।
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं। मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदो पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यो चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव। मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूप विभुर्व्याप्यसर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
सदा मे समर्थ्वम् न मुक्तिर् न बन्धः चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं। न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
इसकी शुरुआत यहाँ से होती है, मैं मन भी नहीं हूँ, मैं बुद्धि भी नहीं हूँ , मैं अहंकार भी नहीं हूँ , मैं चित्त भी नहीं हूँ। आप इनमें से कुछ भी नहीं हो। हम लोग रोज शाम-सुबह को ध्यान करते हैं, उस समय आप इन सभी चीजों का साक्षी बन जाइये। ये सारी चीजें बस आपकी आँखों के सामने चल रही होती हैं। हम इनमें से कुछ भी नहीं हैं। तो जितना आप साक्षी भाव से इन सबका अनुभव करोगे , तो आप देखोगे। अद्भुत बदलाव आपके व्यक्तित्व में आने लगता है।
तो ये हुआ अन्तःकरण जो हमारे सूक्ष्मशरीर का सिर्फ एक घटक है। सूक्ष्म शरीर के बाकी घटक कौन -कौन से हैं ? वागादिपंच श्रवणादिपंच प्राणादिपंच अभ्रमुखाणि पंच बुद्ध्यादि अविद्या अपि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरम् आहुः। वागादि पंच - पंचकर्मेण्द्रियाणि, वाग यानि वाणी, दो हाथ , दो पैर, फिर हमारे उपस्थ (sexual organ) एक है और मल त्याग करने स्थान ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। फिर श्रवणादि-पंच ज्ञानेन्द्रियाँ है - आँख , नाक , कान, जिह्वा और स्पर्श। प्राणादि-पंच, फिर प्राण एक अद्भुत चीज है। ये सारा animation - सजीवता जो चल रहा है।ये सब प्राण के रहने से ही चल रही है। पुतलों में जो जान दिख रहा है ? ये सब प्राण के रहने से ही चल रहा है। हम बोल रहे हैं , हिलडुल करते हैं - ये सब प्राण की शक्ति है। प्राण के बिना पलक भी नहीं झपक सकता है। लेकिन हम अपने आप को स्थूल शरीर और उसके सम्बन्धों के सिवा और कुछ भी नहीं जानते हैं। हम जितना भी बाह्य विषयों में फंसे रहेंगे -कभी समझ नहीं पाएंगे कि सत्य क्या है ? इसलिए वैराग्य का इतना महत्व है। वैराग्य के बिना हम कभी भी सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। जब तक हम बाहर के विषयों में- M/F क्लास मेट्स की यादों में डूबे हुए हैं -हम कभी भी सत्य तक नहीं पहुँच सकते। पंच -प्राण मने पांच प्राण नहीं है , प्राण तो एक ही है - लेकिन प्राण के पाँच कार्य हैं। जिस प्रकार अन्तःकरण (Inner Instrument) एक ही है , उसके चार कार्य हैं ; उसी प्रकार प्राण एक ही है उसके पाँच कार्य हैं। प्राण, अपान, व्यान , उदान, समान ये उसके पांच कार्य हैं। बाह्य उपकरण और अन्तः उपकरण के माध्यम से ही हम जगत के साथ व्यवहार करते हैं। सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के भीतर है और पीछे है , और आठ चीजों से बनी हुई है। आठ उपकरणों में एक उपकरण है - अन्तःकरण। एक ही औजार है लेकिन उसके चार कार्य हैं। उसके अनुरूप उसके चार नाम हैं। Mind, Intellect , 3rd ahnkar or I'-sense or Ego, और चौथा है कार्य है - Memory, जिसको chitta कहते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान सबकुछ को mind ही कहता है। जब मन अंतःकरण का एक कार्य है। इस मुद्दा को ठीक से समझ लेना चाहिए। मन क्या है - अंतःकरण की अनिश्चय वाली दशा है। निर्णय पर पहुँचने को बुद्धि कहते हैं। तीसरा कार्य है अहंकृति - अहं इसके द्वारा हम अपने M/F शरीर में अभिमान कर लेते हैं। जब यह अंतःकरण विगत कार्यों का स्मरण करता है - तो चित्त कहलाता है। प्राण को अंग्रेजी में अनुवाद ही नहीं किया जा सकता। आपकी नासिका में जो साँस चल रहा है -ये भी प्राण की अभिव्यक्ति है , प्राण नहीं है। इसलिए जब आप सांसों को नियंत्रित करते हैं - तो अर्थ है आप प्राणों नियंत्रित करते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी गति शक्ति दिखाई दे रही है , वो प्राण ही है। सूर्य-चंद्र -तारे एक दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं - ब्रह्माण्ड की सारी 'animation ' सजीवता या जीवन्तता जो दृष्टिगोचर हो रही है , वो सब प्राण की शक्ति से ही संचालित हो रहे हैं। इसलिए योगी कहते हैं कि यदि आप प्राण को नियंत्रित कर लेते हो तो जगत की हर वस्तु को नियंत्रित कर सकते हो। Prana is the animating force ! इस लिए स्वाँस -प्रश्वांस को आप नियमित करके प्राण को नियंत्रित कर सकते हो। उसको प्राणायाम कहते हैं। नाड़ी -शुद्धि प्राणायाम आप बिना गुरु के भी कर सकते हो। शरीर के ऊपर भाग में जो वायु चलती है , उसको प्राण कहते हैं। नीचे के भाग में जो वायु चलती है -उसको अपान वायु कहते हैं। मृत्युकाल में एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करने की जो क्रिया है -वह उदान वायु से होती है। इस प्रकार प्राण एक ही है , उसके पाँच कार्य के अनुसार पाँच प्राण हैं। तो पाँच कर्मेन्द्रिय , पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच प्राण और उसके बाद अभ्रमुखाणि पंच -पाँच जो तन्मात्राएँ हैं -आकाशादु भूतपंचकम्
आकाश, वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। बुद्ध्यादि - का मतलब है अन्त:करणचतुष्टयम्। फिर है अविद्या , काम और कर्म। इस प्रकार इन घटकों से बना हुआ है ये सूक्ष्म शरीर। 1 -पाँच कर्मेन्द्रिय 2- पाँच ज्ञानेन्द्रिय , 3 -पाँच प्राण, 4 - पांच तन्मात्रयें, 5 - अंतःकरण चतुष्टय, 6 -अविद्या (Ignorance) , 7 -काम (All types of desires) , 8 -कर्म (Action) । इन्हीं आठ घटकों से हमारा सूक्ष्म शरीर बना हुआ है। इसीको पूरी अष्टकम सूक्ष्मशरीरम् - आहुः। तो सूक्ष्म शरीर इन्हीं आठ से बना हुआ है।
[विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी सूक्ष्म शरीर का विवेचन करते हुए उसे ‘पुर्यष्टक’ नाम से संबोधित करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के विपरीत है, जो पंचमहाभूतों से निर्मित होता है और दृष्टिगोचर है। सूक्ष्म शरीर अदृष्टिगोचर होने पर भी जीवात्मा के अनुभव और संसार-यात्रा का कारण बनता है। जब तक आत्मा का अज्ञान बना रहता है, तब तक यही सूक्ष्म शरीर जीव को जन्म–मरण के चक्र में बांधे रखता है। इसीलिए इसका स्वरूप समझना वेदांत साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है।
शंकराचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म शरीर आठ अंगों से मिलकर बना है, जिन्हें ‘पुर्यष्टक’ कहा जाता है। इनमें प्रथम हैं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ—श्रवण (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (आंख), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक)। इनका कार्य है ज्ञान प्राप्त करना अर्थात् बाहरी विषयों को ग्रहण करना। दूसरा अंग है पाँच कर्मेन्द्रियाँ—वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पाँव), पायु (गुदा) और उपस्थ (जननेंद्रिय)। इनका कार्य है कर्म करना, जैसे बोलना, पकड़ना, चलना, मल–विसर्जन और प्रजनन। ये दोनों इन्द्रियों के समूह सूक्ष्म शरीर के कार्यकलाप का मुख्य आधार हैं।
तीसरा है प्राण पंचक, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। ये शरीर के भीतर जीवन–शक्ति को गतिशील रखते हैं। प्राण श्वास–प्रश्वास का, अपान नीचे की गति का, व्यान संपूर्ण शरीर में ऊर्जा वितरण का, उदान ऊपर की गति और मृत्यु के समय प्राण को बाहर ले जाने का, तथा समान भोजन पचाने और शरीर का संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है। प्राण पंचक के बिना न तो इन्द्रियाँ कार्य कर सकती हैं और न ही शरीर जीवित रह सकता है।
चौथा अंग है पंच महाभूतों का सूक्ष्म स्वरूप। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये स्थूल रूप में दिखते हैं, परन्तु सूक्ष्म स्तर पर ही ये इन्द्रियों को विषयों का अनुभव कराते हैं। उदाहरण के लिए, कान ध्वनि को आकाश के कारण सुनता है, त्वचा स्पर्श को वायु के कारण अनुभव करती है, आंखें रूप को अग्नि के कारण देखती हैं, जीभ रस को जल के कारण चखती है और नाक गंध को पृथ्वी के कारण ग्रहण करती है। इस प्रकार इन्द्रियों और भूतों का आपसी संबंध भी सूक्ष्म शरीर की रचना में शामिल है।
पाँचवां है अन्तःकरण चतुष्टय—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन संकल्प–विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय लेती है, चित्त स्मरण और संस्कारों को धारण करता है और अहंकार ‘मैं–पना’ का भाव उत्पन्न करता है। यह अन्तःकरण ही जीव के अनुभव, विचार और भावनाओं का केन्द्र है। इसके बिना न तो ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों की व्याख्या संभव है और न ही कोई कर्म संपन्न हो सकता है।
इसके अतिरिक्त अविद्या, काम और कर्म—ये तीन भी सूक्ष्म शरीर का अंग माने गए हैं। अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है। काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है।
अतः शंकराचार्य जी के अनुसार, जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी मिथ्या है और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह और अन्तःकरण के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में।