इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
Volume 2/Jnana-Yoga/ खंड 2/ज्ञान-योग: The real and practical identity of man!/ The real and practical man/
🔱🕊 🏹 🙋वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य 🔱🕊 🏹 🙋
या
मनुष्य का वास्तविक और प्रतिभासिक पहचान !
(स्वामी विवेकानन्द द्वारा न्यूयॉर्क में दिया गया भाषण)
" वेदान्त दर्शन का एक विषय है - एकत्व की खोज। ' वह क्या है , जिसके जान लेने से सब कुछ सब कुछ जाना जा सकता है ? हिन्दू दार्शनिकों के मतानुसार समस्त जगत का विश्लेषण करके उसे 'आकाश ' में पर्यवसित किया जा सकता है। हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं , छूते हैं , आस्वादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। पदार्थ की तीनों अवस्थाएं - ठोस, तरल और गैस , सब प्रकार के नाम-रूप, शरीर , पृथ्वी , सूर्य , चंद्र , तारे -सब इसी आकाश से निर्मित हैं। (२/२१)
" वह कौन सी शक्ति (महामाया माँ सारदा हैं !) है जो इस आकाश पर कार्य करती है और इससे इस जगत्-प्रपंच का निर्माण करती है? आकाश के साथ-साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ हैं -आकर्षण, विकर्षण या विचारशक्ति भी सभी 'प्राण ' नामक एक महाशक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके इस इस जगत्प्रपंच की रचना की है। कल्पांत में सभी ठोस पदार्थ पिघल जायेंगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायेगा। और वह अधिक सूक्ष्म और तेज (finer and more uniform heat vibrations एकसमान तापीय कम्पन) में परिवर्तित हो जाएगा, अंत में सब कुछ जिस आकाश से उत्पन्न हुआ था , उसीमें विलीन हो जायेगा। और आकर्षण, विकर्षण और विचार-गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जायँगी। " (२/२२)
" उसके बाद जबतक फिर से कल्पारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था में रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना नाम-रूपों को प्रकाशित करेगा। और कल्पान्त में फिरसे सब का लय हो जायेगा। पर यह विश्लेषण अधूरा है। इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी पता है। लेकिन इसके परे की अवस्था - (इन्द्रियातीत सत्य स्वरुप तक) भौतिक विज्ञान की पहुँच नहीं है। पर इस अनुसन्धान का अन्त यहीं नहीं हो जाता है। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकेगा।
हमने पूरे ब्रह्मांड को दो भागों में विभाजित कर दिया है, जिन्हें पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) कहते हैं, या जिन्हें भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने आकाश (Akasha) और प्राण (Prana) कहा है। अगला कदम इस आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में ( into their origin.) पर्यवसित/ (विभाजित या रूपांतरित) करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से ही प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। आकाश या प्राण की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वब्यापी मन ही था और इसने स्वयं को व्यक्त , परिवर्तित , और विकसित करके आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना। (२/२२-२३)
>>>दर्शन-क्रिया कैसे होती है ?
' अब हम मनोविज्ञान (मनःसंयोग -psychology) पर चर्चा करेंगे। मैं आपको देख रहा हूँ। आँखें देखने के साधन नहीं हैं। वे केवल बाहरी उपकरण हैं। इस चक्षु के पीछे मस्तिष्क में यथार्थ चक्षुरन्द्रिय है। इसीप्रकार नासिका घ्राण-इन्द्रिय नहीं है , घ्राणीन्द्रिय भी उसके पीछे स्थित है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए , कि बाह्य यंत्र या उपकरण इस स्थूल शरीर में अवस्थित हैं और इनके पीछे मस्तिष्क में उनकी इन्द्रिय भी मौजूद है। किन्तु उनके साथ यदि मन नहीं जुड़ा हो -तो आप घंटे की आवाज नहीं सुन पाएंगे। बाहरी यंत्र भले ही आवाज को भीतर ले जाये। मन भी इन्द्रियों के साथ जुड़ा हो फिर भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं होगी, भीतर से भी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से ज्ञान उत्पन्न होगा। बाह्य इन्द्रियों ने मानों मेरे अन्दर संवाद -प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे लेकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया। बुद्धि ने निर्णय किया। परन्तु इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई। एक अचल वस्तु -परदे की आवश्यकता है जिसपर चित्र डाला जा सके। वह कौन सी वस्तु है जो हर पल गतिशील वस्तु की पहचान को बनाए रखता है? वह कौन सी वस्तु है जो विभिन्न गतियों के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है ? और उस वस्तु को शरीर और मन की तुलना ,में अचल होना आवश्यक है। यदि पर्दा अचल न हुआ तो उस पर चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात उस वस्तु को, उस द्रष्टा को एक व्यक्ति (Individual) होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन यह सब चित्रांकन करता है , जिस पर मन और बुद्धि द्वारा ले जाई गई संवेदनाएँ स्थापित , श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं , बस उसीको मनुष्य की आत्मा कहते हैं। (२/२४)
" तो , हमने देखा है कि समष्टि मन, महत जो है वो आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है।और मन के पीछे है आत्मा ! समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है , उसे ईश्वर (इष्टदेव) कहते है। व्यष्टि में यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन ही आकाश और प्राण के रूप परिणत हो गया है , उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। तो क्या मनुष्य का मन ही उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की स्रष्टा है? अर्थात्, मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा - ये तीन (3H) क्या तीन विभिन्न वस्तुयें हैं , अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं , अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएं हैं ? अबतक हमने देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे इन्द्रियां हैं , फिर मन , उसके बाद बुद्धि और बुद्धि के पीछे आत्मा। तो पहली बात ये हुई कि आत्मा शरीर से पृथक है, तथा वह मन से भी पृथक है ! बस यहीं से धर्म जगत में मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है , अर्थात भोग, सुख-दुःख आदि सभी वास्तव में आत्मा के धर्म हैं , पर अद्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा निर्गुण है, उसमें ये धर्म नहीं है।
यह आत्मा आकाश और प्राण से गठित न होने के कारण तथा शरीर और मन (अहंकार) से पृथक होने के कारण - निश्चित रूप से अजर , अमर, अविनाशी है !! क्यों ? मृत्यु का या शरीर-मन के नश्वर होने का क्या अर्थ है ? विघटित ( decomposed) हो जाना ; और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोजन से बनती हैं , वही विघटित भी होती है। जो अन्य पदार्थों के संयोजन से उत्तपन्न नहीं हुई है , वह कभी विघटित नहीं होती। इसलिए वह अविनाशी है। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी।
वेदान्तियों के मतानुसार जब इस नश्वर शरीर का नाश हो जाता है , तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं , मन का प्राण में लय हो जाता है , प्राण आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और तब मानव की आत्मा मानो सूक्ष्म शरीर अथवा लिंगशरीर रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है। इस सूक्ष्म शरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं - वे फिर सूक्ष्म शरीर पर कार्य करते रहते हैं। जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गए हैं , जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है , वे ही सूर्य किरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते हैं। जो मध्यम वर्ग के लोग हैं , जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते हैं , वे चंद्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते हैं , और देव शरीर प्राप्त करते हैं , पर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उन्हें पुनः मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। जो अत्यंत दुष्ट हैं वे राक्षस आदि निम्न-योनियों में जाने के बाद पशु शरीर में जन्म लेते हैं , और मुक्ति लाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ता है।
इस पृथ्वी को कर्मभूमि (the sphere of Karma) कहा जाता है, अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। वेदान्त मत से मनुष्य ही जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह कर्मभूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है , क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है। देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण (perfect)होने के लिए मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक महान केंद्र , अद्भुतस्थिति (the wonderful poise) और अद्भुत अवसर (wonderful opportunity) है।
आत्मा, मन और शरीर , ये तीनों (3H) पृथक-पृथक वस्तुएं नहीं हैं , बल्कि वे एक ही हैं , क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह , कभी मन और कभी देह और मन से परे आत्मा के रूप में प्रतीत होती है। किन्तु वह एक ही समय में यह तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं , वे मन को नहीं देख पाते ; जो मन को देखते हैं वे आत्मा को नहीं देख पाते ; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन , दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं ! जो लोग केवल गति देखते हैं [चलचित्र फिल्म शोले देखते हैं], वे सम्पूर्ण स्थिर भाव (पर्दे) को नहीं देख पाते , और जो इस सम्पूर्ण स्थिर-भाव को (पर्दे को) देख पाते हैं, उनके लिए गति (चलचित्र की कथा महाभारत या शोले)/ न जाने कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है , उसके लिए रज्जु न जाने कहाँ चली जाती है , और जब भ्रान्ति दूर हो जाने पर वह व्यक्ति रज्जु देखता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता। (2/30)
तो हमने देखा कि सर्वव्यापी सत्ता एक ही है, और वह 'एक' ही 'अनेक' रूपों में प्रतीत होती है। (and that one appears as manifold.) अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम-रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक नहीं है। फिर भी तरंग क्यों पृथक प्रतीत होती है ? नाम और रूप के कारण - तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग ' नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक किया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है। वास्तव में "मैं" अथवा "तूम" कुछ नहीं है- सब एक ही है। चाहे कह लो ' सभी मैं हूँ ", या कह लो -" सभी तूम हो "। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का फल है। जब विवेक का उदय होने पर [विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेक-श्रोत के उद्घाटित होकर विवेकज ज्ञान होने पर ] मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएं नहीं हैं , एक ही वस्तु है , तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं ही यह अनंत ब्रह्माण्ड स्वरुप है। और मैं ही अपरिणामी , निर्गुण , नित्य पूर्ण (100 % नहीं 99. 9 %? निःस्वार्थपर) , नित्यानन्दमय हूँ -सच्चिदानन्द हूँ ! (२/३१)
दो प्रश्न उठते हैं - पहला क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है ? दूसरा क्या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की उपलब्धि के बाद उनकी तुरंत मृत्यु हो जाती है ? ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय जीवित हैं , जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। ...उतनी जल्दी नहीं, जितनी जल्दी हम समझते हैं।मानलो एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ-साथ चल रहे हैं। अब यदि मैं एक पहिये को पकड़ कर बीच की लकड़ी को कुल्हाड़ी से काट दूँ , तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है , वह तो रुक जायेगा , पर दूसरा पहिया , जिसमें पहले का वेग कभी नष्ट नहीं हुआ है , कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्धस्वरुप आत्मा मानों एक पहिया है , और शरीर -मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया ; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है , जो जोड़नेवाली इस लकड़ी को काट देता है। .. जब तक पूर्व कर्मों का वेग बचा रहता है, पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता , तबतक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाती है। जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है , जिन्हें कम से एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है , उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का का लक्ष्य है। " (२/३६)
" एक दिन यह मरीचिका (जगत-प्रपंच) अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी - शरीर को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है , अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं , तबतक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। नर, नारी , पशु , उद्भिद, आसक्ति , कर्तव्य -सबकुछ आएगा , पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा , वैसे ही उसका स्वरुप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। " (२/३६)
" मनुष्य परमार्थतः मुक्त ही है , किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है , ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है , त्योंही वह बद्ध हो जाता है ? 'स्वाधीन इच्छा ' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती। होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है , तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है, उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है , वह तो सदा ही मुक्त है। " (२/३७)
" जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिहोंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ-संस्कार , शुभ-वेग ही बचा रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं ; उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। यदि वह कुछ भी न बोले, तो भी उसका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीष-स्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी संत बना देता है। " (२/३८)
" अतएव जिन्होंने परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को प्रत्यक्ष कर लिया है , उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय -युक्ति , तर्क-वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए परम् 'सत्य जीवन का जीवन या हस्तामलकवत हो गया है। आत्मानुभूति सम्पन्न लोग निःसंकोच भाव से कह सकते है - "Here is the Self" - 'यही आत्मा है !' तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो , वे तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे। वे उन्हें बकने देंगे। उन्होंने अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति कर लिया है , और पूर्ण हो गए।
मान लो कि तुम एक देश देखकर आये, और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे इस उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे , पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि वह पागलखाने में भेज देने लायक है। इसी प्रकार, जो आत्मसाक्षात्कार कर चुके हैं , वे कहते हैं - "जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाते हैं, वे सब केवल बच्चों की सी बातें हैं। आत्मसाक्षात्कार ही धर्म का सार है। धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। realization is the soul, the very essence of religion." Religion can be realised. क्या तुम तैयार हो? क्या तुम इसे चाहते हो? अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें आत्मसाक्षात्कार मिलेगा, और तब तुम सच्चे धार्मिक होगे। जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल जाता, तब तक तुममें और नास्तिकों में कोई अंतर नहीं है। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते हैं, लेकिन जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं धर्म में विश्वास करता हूँ ,पर कभी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है। (२/३९)
>>>.दूसरा प्रश्न यह कि आत्मसाक्षात्कार के बाद क्या होता है ? [The next question is to know what comes after realisation] मान लो , मैंने जान लिया कि एकमात्र आत्मा ही विद्यमान है और वही विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है। -- यह जान लेने से जगत का क्या उपकार होगा ?
" लोगों को यह भय होता है कि जब उन्हें यह ज्ञान हो जायेगा कि सभी एक हैं , तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जायेगा , किन्तु जो व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता से उदासीन हो गए हैं , वे ही जगत में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हुए हैं। मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है , जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मिट्टी का ढेला नहीं , किन्तु वास्तव में स्वयं भगवान हैं। स्त्री पति और अधिक प्रेम करेगी, यदि वह यह समझेगी कि स्वामी साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। पति भी स्त्री से अधिक प्रेम करेगा , यदि वह यह जानेगा की स्त्री स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे , जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्म स्वरुप हैं। 'Such a man becomes a world-mover for whom his little self is dead and God stands in its place. ' ---जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है , वे ही लोग जगत के प्रेरक हो सकते हैं। उनके लिए समग्र विश्व दिव्यभाव में रूपांतरित हो जायेगा। ऐसे ही व्यक्ति को कहने का अधिकार है कि जगत कितना सुन्दर है।" (खंड २/४०)
" इस प्रकार की ' एकात्मकता (Oneness) तथा अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) ' की प्रत्यक्ष उपलब्धि से -या आत्मसाक्षात्कार करने से जगत का सबसे बड़ा हित यह होगा कि अविराम विवाद, द्वन्द्व , आदि सब दूर होकर जगत में शान्ति का राज्य हो जायेगा। यदि जगत के सभी मनुष्य आज इस महान सत्य (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप) के एक बिन्दु की भी उपलब्धि कर सकें , तो उनके लिए यह सारा जगत एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा [रूस -यूक्रेन, इस्राईल -हमास, हिन्दू-मुस्लिम] समाप्त होकर शान्ति का राज्य [सतयुग या रामराज्य ] आ जायेगा। एक-दूसरे से ऊँचा दिखने में यह घिनौना उतावलापन ,यह स्पर्धा , जो हमें अन्य सबों को ठेलकर, धोखे से भी आगे बढ़ निकलने के लिए बाध्य करती है , इस संसार से उठ जायेगी। इसके साथ-साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा , ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ सदा के लिए चला जायेगा। उस समय देवता लोग इस जगत में वास करेंगे। उस समय यही जगत स्वर्ग हो जायेगा। और जब जब देवता देवता से खेलेगा , देवता देवता के साथ मिलकर कार्य करेगा, देवता देवता से प्रेम करेगा ,(Be and Make का कार्य -आंदोलन करेगा), तब क्या अशुभ ठहर सकता है ? ईश्वर के प्रत्यक्ष उपलब्धि (या आत्मसाक्षात्कार) की यही एक बड़ी उपयोगिता है। तब तुम किसी भी मनुष्य को (अपने सहोदर भाई-बहन को ?) बुरा नहीं समझोगे। यही प्रथम महालाभ है। उस समय तुम अन्याय कर्म करने वाले बेचारे स्त्री-पुरुष को घृणा की दृष्टि से नहीं देखोगे। और वैश्या -वृत्ति करने को मजबूर स्त्री की ओर भी घृणा से नहीं देख सकोगे , क्योंकि वहाँ भी साक्षात् ईश्वर को ही देखोगे। तब तुममें ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा , तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्यपथ पर चलाने के लिए फिर चाबुक मारने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी । ' (२/४१)
" उस समय चारों ओर घृणा के बीज न बोकर , ईर्ष्या और असत चिंता का प्रवाह न फैलाकर , सभी देशों के लोग सोचेंगे कि सभी 'वह ' है। जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो वह सब 'वही ' है ! तुम्हारे भीतर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे ? तुम्हारे भीतर यदि -चोर, धोखेबाज न हो , तो तुम किस प्रकार चोर-धोकेबाज देखोगे ? साधु हो जाओ , तो असाधु भाव तुम्हारे अन्दर से एकदम चला जायेगा। इस प्रकार सारे जगत का परिवर्तन हो जायेगा। यही समाज का सबसे बड़ा लाभ है। " (२/४१)
[Instead of throwing tremendous bomb-shells of hatred into every corner, instead of projecting currents of jealousy and of evil thought, in every country, people will think that it is all He. He is all that you see and feel. How can you see evil until there is evil in you? How can you see the thief, unless he is there, sitting in the heart of your heart?
" ये सब विचार -भाव , प्राचीन काल में (उपनिषद युग में) अनेक ऋषियों के द्वारा आविष्कृत और कार्य-रूप में परिणत हुए थे। पर आचार्यों की संकीर्णता और देश की 1000 वर्षों की गुलामी आदि अनेक कारणों से ये सब भाव चारों ओर फ़ैल न सके। लेकिन जहाँ भी इन विचारों का (4 महावाक्यों का) प्रभाव पड़ा , वहीँ मनुष्य ने देवत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसे ही एक देवस्वभाव मनुष्य (गुरुदेव और CINC ?) के स्पर्श से मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है; आज इन सब भावों का (एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति का) जगत में प्रचार करने का समय आ गया है। इन महावाक्यों को मठों की चहार दीवारी में आबद्ध न रखकर, केवल पण्डे -पुरोहितों के पोथियों में आबद्ध न रखकर , इन भावो का प्रचार सम्पूर्ण जगत में करना होगा। जिससे ये महान विचार साधु, पापी , आबालवृद्ध-वनिता , शिक्षित , अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो जायें। तब ये महान विचार -अद्वैतवाद इस जगत के वातावरण को ओतप्रोत कर देंगे और हम श्वास-प्रश्वास द्वारा जो वायु ले रहे हैं , वह अपने प्रत्येक स्पन्दन के साथ कहने लगेगी - तत्त्वमसि ! तब असंख्य चन्द्रमा-और सूर्यों से परिपूर्ण यह समग्र ब्रह्माण्ड , बोलने की शक्ति से युक्त प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर से कह उठेगा - तत्वमसि ! " (२/४२)
Be good (and do good) , and evil will vanish for you. The whole universe will thus be changed. This is the greatest gain to society. This is the great gain to the human organism. These thoughts were thought out, worked out amongst individuals in ancient times in India. For various reasons, such as the exclusiveness of the teachers and foreign conquest, those thoughts were not allowed to spread.
Yet they are grand truths; and wherever they have been working, man has become divine. My whole life has been changed by the touch of one of these divine men, about whom I am going to speak to you next Sunday; and the time is coming when these thoughts will be cast abroad over the whole world.
Instead of living in monasteries, instead of being confined to books of philosophy to be studied only by the learned, instead of being the exclusive possession of sects and of a few of the learned, they will all be sown broadcast over the whole world, so that they may become the common property of the saint and the sinner, of men and women and children, of the learned and of the ignorant. They will then permeate the atmosphere of the world, and the very air that we breathe will say with every one of its pulsations, "Thou art That".And the whole universe with its myriads of suns and moons, through everything that speaks, with one voice will say, "Thou art That".
The Real and the Apparent Man
Everything that we see around us, feel, touch, taste, is simply a differentiated manifestation of this Akasha. It is all-pervading, fine. All that we call solids, liquids, or gases, figures, forms, or bodies, the earth, sun, moon, and stars — everything is composed of this Akasha. This Prana, acting on Akasha, is creating the whole of this universe.
" This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace.
This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace.
This indecent and brutal hurry which forces us to go ahead of every one else will then vanish from the world. With it will vanish all struggle, with it will vanish all hate, with it will vanish all jealousy, and all evil will vanish away for ever. Gods will live then upon this earth. This very earth will then become heaven, and what evil can there be when gods are playing with gods, when gods are working with gods, and gods are loving gods?That is the great utility of divine realization. Everything that you see in society will be changed and transfigured then. No more will you think of man as evil; and that is the first great gain.
No more will you stand up and sneeringly cast a glance at a poor man or woman who has made a mistake. No more, ladies, will you look down with contempt upon the poor woman who walks the street in the night, because you will see even there God Himself. No more will you think of jealousy and punishments. They will all vanish; and love, the great ideal of love, will be so powerful that no whip and cord will be necessary to guide mankind aright.
( चरितार्थ करना होगा -'तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये।')
श्रद्धये संन्यासी एवं ब्रह्मचारी वृन्द को मेरा प्रणाम, मेरे समक्ष उपस्थित भगवत स्वरुप भक्त-वृन्द आप सभी को मेरा प्रणाम। आज का मेरा विषय है - 'श्रीमद्भगवत गीता और उसका सार।' आप सभी जानते होंगे किहमारे हिन्दू सनातन धर्म का यह एक मुख्य ग्रन्थ है, तथा यह महाभारत के अन्तर्गत है। और इस ग्रन्थ के उपदेष्टा हैं - योगीश्वरभगवानश्रीकृष्ण। और वे अर्जुन के प्रति ये उपदेश करते हैं।
700 श्लोकों वाले ग्रन्थ श्रीमद्भगवत गीता में दो प्रमुख विषय पर उपदेशदिया गया है। पहला विषय है -इस जगत में जितने भी जीव या मनुष्य हैं उनका पारमार्थिक या आध्यात्मिक स्वरुप (spiritual form) क्या है ? और इस इन्द्रियगोचर जगत का, जिसे हम जगत प्रपंच कहते हैं, उसमें एक है जीव और दूसरा जगत है इन दोनों का पारमार्थिक स्वरुप (spiritual form)क्या है ?
श्रीमद्भगवत गीता में दूसरी बात भगवान श्रीकृष्ण हमारे सामने यह रखते हैं कि प्रत्येक आत्मा (जीव) अव्यक्त ब्रह्म तो है, किन्तु अपने उस आध्यात्मिक , या दिव्य स्वरुप को हम प्राप्त कैसे करें ? उस अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) को प्राप्त करने (व्यक्त करने) का उपाय भी भगवान श्री कृष्ण हमें बताते हैं। इस परिवर्तन शील जगत का अपरिवर्तनीय सत्य क्या है ? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -योग शब्द सिर्फ शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित नहीं है, योग के माध्यम हम अपने आध्यात्मिक स्वरुप के साथ जुड़ सकते हैं।भगवान शंकराचार्य जी ने अपने गीता भाष्य में योग शब्द का मूल अर्थ कहा है - योग क्या है ? योग है -' तत् प्राप्ति उपाय' ! क्या मतलब है इस ' तत् प्राप्ति उपाय' का ? अपने उस पारमार्थिक सत्ता, आध्यात्मिक स्वरुप को -(spiritual form) को प्राप्त करने या अनुभूति करने के उपाय को हम योग कहते हैं।
हममें से प्रत्येक मनुष्य, स्त्री हों या पुरुष (M/F) के दो पहचान है - एक है व्यावहारिक सत्ता या व्ययवहारिक जीव, जो दैनन्दिन जीवन में व्यवहार करता है। जो उठता है, बैठता है, सोता है , खाता है पीता है। अपने परिवार वालों के साथ रहता है , इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं। किन्तु उसका जो असली स्वरुप है (आध्यात्मिक स्वरुप) उसका तो उसे अभी पता ही नहीं है। उसी आध्यात्मिक, पारमार्थिक स्वरूप - 'spiritual form' को हम आत्मा शब्द से इंगित -या लक्षित करते हैं , We indicate and refer to it with the word soul! प्रत्येक मनुष्य का जो सत्य स्वरुप है, उसीको हमारे वेदान्त में -यानि समस्त उपनिषदों और भगवत गीता में आत्मा शब्द से रेफर या इंगित किया गया है। हम सभी अपने स्वरुप से यह देहधारी/मरणधर्मा जीव नहीं हैं- स्वरुप से हम अजर-अमर , अविनाशी नित्य शुद्ध-बुद्ध ,मुक्त स्वभाव आत्मा हैं ! जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , अग्नि नहीं जला सकती , वायु नहीं सूखा सकती। स्वरुपतः हम शरीर नहीं आत्मा हैं। इस अन्तर्निहित दिव्यता , इस Inherent Divinity, Oneness या आत्मा/रूह या Soul को प्राप्त करने करने का जो उपाय है, जो साधन है - उसको हमलोग 'योग' कहते हैं ! स्वामीजी ने मात्र 4 प्रकार के योग या उपाय द्वारा, या किसी भी एक उपाय के द्वारा अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को प्राप्त करने को ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य कहा है ! लेकिन भगवत गीता में आप देखेंगे कि भगवतगीता में 18 अध्याय हैं , और गीता के सभी 18 अध्याय एक-एक विशेष प्रकार के योग हैं, जिसे श्री कृष्ण अर्जुन के माध्यम से पूरे विश्व को बताते हैं !
उदाहरण के लिए गीता के प्रथम अध्याय की जो भूमिका है, वो बहुत सुन्दर है। वो बिल्कुल हमारे ही जीवन की कहानी है। हमारे जीवन में जो घटित होता है, उसको प्रथम अध्याय में बताया गया है। प्रथम अध्याय में हम देखते हैं - अर्जुन विषाद ग्रस्त हो जाता है। हम सब इस जीवन में कभी न कभी विषाद ग्रस्त हो जाते हैं। ये जीवन की सच्चाई है। हमारे जीवन का प्रवाह -हमेशा एक दिशा में -सुखद दिशा में ही नहीं चलता। इसमें अगर सुख की दो घड़ियाँ हैं , तो दुःख के दस घड़ियाँ होती हैं।The flow of our life does not always move in one direction - the pleasant direction. If there are two moments of happiness in it, then there are ten moments of sadness. हमारा जीवन सुख-दुःख का मिश्रण है। इस सुख-दुःख के प्रवाह में हमलोग अभी बँधे हुए हैं। और जब हम विषण्ण होते हैं, विषाद ग्रस्त होते हैं -तब हमें समझ में नहीं आता कि इससे बाहर कैसे निकलें ?जीवन में कई ऐसे पड़ाव आते हैं -जहाँ हम विषादग्रस्त हो जाते हैं,प्रत्येक जीव की समस्या भी यही है। तो इस प्रथम अध्याय में ही इस विषाद को ही कैसे योग बना दिया जाये ? क्या विषाद भी अपने सत्यस्वरूप को पहचानने का , अपने पारमार्थिक स्वरुप (अविनाशी आध्यात्मिक स्वरुप) को पहचानने का एक मार्ग बन सकता है ? एक कारण बन सकता है।
कोई व्यक्ति (individual) जब दुःखी होता है , तब वह क्यों दुःखी होता है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अर्जुन क्यों विषादग्रस्त हो गया था ? अगर इस प्रश्न का हम उत्तर ढूँढे, तो उसका एकमात्र उत्तर होगा -मनुष्य तभी विषादग्रस्त होता है , जब वह अपनी वास्तविक पहचान को भूल जाता है। जब तक हम ठीक से यह नहीं जानलेते कि वास्तव में हम कौन है ? ... नहीं हम क्या हैं ? मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? हम अपने यथार्थ स्वरुप को जैसे नहीं समझ पा रहे हैं -वैसे जगत को भी नहीं समझ पा रहे हैं। वास्तव 'एक' ही 'अनेक' रूपों में भास रहा है। ब्रह्म ही जगत बन गया है किन्तु ज्ञानमयी दृष्टि से देखने में समर्थ नहीं होने के कारण -हम जगत को ब्रह्ममय नहीं देख पा रहे हैं। The One has become Many इन्द्रियगोचर जगत को भी हम ठीक से नहीं समझ पा रहें हैं। हमारा दर्शन ही जब गलत हो जाता है तभी हम विषाद ग्रस्त हो जाते हैं। और उस विषण्णता से बाहर निकलने में असमर्थ हो जाते हैं।
तो दर्शन भी दो प्रकार के होते हैं - एक है सम्यक दर्शन और एक है असम्यक दर्शन ! जगत के पीछे के सत्य को देखना। (इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति करना ! विवेक-दर्शन अभ्यासेन विवेक-स्रोत उद्घाटयते !) अपने बारे में भी जब सम्यक दर्शन हो जाता है, तब हम अपने सत्य स्वरुप से जुड़ जाते हैं।सम्यक दर्शन ही जीवन की सभी समस्यायों का समाधान है। असम्यक दर्शन ही हमारे सभी समस्यायों का जड़ है , मूल है ,बीज है। भगवान श्रीकृष्ण जब अर्जुन को यह सम्यक दर्शन प्रदान करते हैं -तब वह युद्ध करने के लिए प्रस्तुत होता है।
अपने समय का सबसे शक्तिशाली अर्जुन योद्धा था और क्षत्रीय था वह कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए ही आया था। लेकिन युद्ध भूमि में उसने देखा -सामने कौन खड़े हैं ? गुरु-बाबा -भाई नाते -रिश्ते खड़े हैं। हमारा दर्शन जब रिश्तों -नातों तक ही सीमित हो जाता है , तब हम मोह में पड़ जाते हैं और मोहित हुआ व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। मोहित हुआ व्यक्ति जो करना चाहता है वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिए वह कर बैठता है। अर्जुन की यही दुविधा थी, जो उसको करना चाहिए था वह नहीं कर रहा था। और जो नहीं करना था , वही करने जा रहा था।
श्रीकृष्ण ने जब सम्यक दर्शन प्रदान कर अर्जुन मोह दूर कर दिया तब वह युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुआ। ये विषाद ही एक योग का मार्ग बन सकता है। हमारे जीवन में जब दुःख आ जाता है, तब हम मोहित हो जाते हैं। तब हमें स्वयं से एक प्रश्न करना है। इस दुःख के मूल में क्या है? मैं दुखी क्यों हूँ और ये दुःखी जीव कौन है ? जब हम यह प्रश्न कर दें - तब यही दुःख हमारे पारमार्थिक स्वरुप के साथ जुड़ने का उपाय बन जाता है। वही दुःख योग बन जाता है। इसीलिए गीता के प्रथम अध्याय का नाम - " अर्जुन विषाद योग" है। हमारा दुःख हमारे पारमार्थिक स्वरुप के साथ जुड़ने का मार्ग बन जाता है।
हमारे जीवन में जब दुःख आता है, तब हमें उसके चपेट या grip में दबे रहने की जरूरत नहीं है। उस वक्त विवेक का उदय होना चाहिए। [विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेकस्रोत उद्घाटित होना चाहिए !] हमे यह प्रश्न करना चाहिए कि इस दुःख का मूल कारण क्या है ? हम क्यों दुःखी हैं ? और यह दुःखी व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरुप में कौन है ? प्रश्न उठेगा -मैं कौन हूँ ? मेरा असली सत्यस्वरूप क्या है ? और जिस दिन इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा। आप इस सुख-दुःख के चपेट -grip से ऊपर उठ जायेंगे। इस विद्या को भगवान श्रीकृष्ण 18 अध्याय में अजर- अमर अविनाशी अध्यात्म-विद्या आत्मविद्या कहते हैं - पूरे मानव समाज के सामने रखते हैं। समस्त मानवजाति के समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान। यह आत्मविद्या ही है !
मैंने अब तक संक्षेप में जो कहा कि इस भगवत गीता में दो चीजें हैं -आत्मविद्या है, हमारा जो सत्यस्वरुप है उसका प्रस्तुतिकरण। और अपने उस पारमार्थिक स्वरुप को प्राप्त कैसे करें - उसका उपाय , जिसको हमलोग 'योग' कहते हैं। इसलिए प्रथम अध्याय को ही अर्जुन विषादयोग नाम दे दिया। गीता के 18 अध्याय को हमलोग चार प्रमुख 'योग' के रूप में बाँट सकते हैं। सरल भाषा में कहें तो एक है -कर्मयोग ! दूसरा है ज्ञानयोग, तीसरा है भक्तियोग, चतुर्थ है मनःसंयोग या राजयोग। गीता के 18 अध्याय में ईश्वर से जुड़ने के जो पथ बताये गए हैं। हमलोग जिस अजर -अमर अविनाशी आत्मा की बात कर रहे हैं , वह आत्मा ही तो ईश्वर है। ईश्वर कोई आप से भिन्न नहीं है।
उपनिषदों (वेदान्त) का मूल सिद्धान्त क्या है ? - सृष्टिकर्ता और सृष्टजीव ये दोनों अलग-अलग नहीं है। यह हमें हमेशा याद रहना चाहिए।मैं फिर कहता हूँ , दुबारा कहता हूँ ; जीव जो सृष्ट हुआ है और जो सृष्टिकर्ता है -वे दोनों अलग -अलग हैं क्या ? हमलोग इस बात को मानकर चलते हैं कि जगत का कोई सृष्टिकर्ता अवश्य है। और सृष्ट कौन हुआ है -जीव सृष्ट हुआ है। ये दोनों अलग हैं क्या ? ये भिन्न हैं क्या ?जिस दिन (सर्वश्रेष्ठ जीव) मनुष्य सृष्टिकर्ता के साथ उसका जो अभिन्न सम्बन्ध है -उसकी अनुभूति करेगातब वह सभी समस्यायों से मुक्त हो जायेगा। यही बात भगवान श्रीकृष्ण गीता में तरह- तरह से रखते हैं। अपने वास्तविक स्वरुप में सृष्ट जीव सृष्टिकर्ता से भिन्न नहीं है। जीव ईश्वर से विभिन्न नहीं हैं अभिन्न है -अद्वैत है !
आज हमें लगता होगा कि मैं अलग हूँ और भगवान हमसे अलग हैं। हम ईश्वर को कहीं मंदिर में इधर-उधर खोजते रहते हैं। आप जिसको ढूँढ रहे हैं -वो आपके ह्रदय में पहले से ही बैठा हुआ है। श्री कृष्ण हमारा ध्यान अंतर्निहित ईश्वरत्व पर-InherentDivinity पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कह रहे हैं। ईश्वर के सम्बन्ध बनाना -यही गीता का मुख्य सन्देश है। ईश्वर के सम्बन्ध बनाने का जो मार्ग है -उसीको योग कहते हैं।
भगवान शंकराचार्यजी के गीता भाष्य में योग के लिए जो शब्द है-' तत् प्राप्ति उपाय', यह अति सुन्दर शब्द हैं। ईश्वर के साथ जुड़ जाने या सम्बन्ध स्थापित करने के चार मार्ग हैं - एक है भक्तिमार्ग जिसको भारत में सभी लोग जानते हैं। अभी यहाँ जो भजन हो रहा था। इस भजन के द्वारा क्या हुआ ? आप बताइये। भजन और संगीत के द्वारा आप थोड़ी देर के लिए ईश्वर से जुड़ रहे थे , सम्बन्ध बना रहे थे।
भक्ति के अलावा जो दूसरा मार्ग है वो है -ज्ञानमार्ग। अतिसुन्दर मार्ग -ज्ञानमार्ग तो सीधा अपने लक्ष्य की ओर भगवान की ओर जाने का मार्ग है। जिसके अन्दर नेति-नेति विश्लेषण की योग्यता हो, और साथ -साथ यदि आप थोड़ा वैराग्य का पालन भी कर रहे हों तो आप ज्ञानमार्ग का अभ्यास कर सकते हैं। और आप अभी, इसी वक्त अपने सत्य (दिव्य) स्वरुप की अनुभूति कर सकते हैं। उसकी उपस्थिति को आप पहचान पायेंगे। बहुत दूर नहीं हैं -ईश्वर वे तो हमारे ह्रदय में ही हैं, दुरी की बात करना ही गलत है। जैसे दो चीजें यदि भिन्न हों तब तो हम distance बना लेते हैं; दो चीजें यदि बिल्कुल भिन्न-भिन्न हों तो उनके बीच फिर दूरी हो जाती है। पर ये दूरी यहाँ है ही कहाँ ? सृष्टिकर्ता ईश्वर और सृष्टजीव में ये दूरी सिर्फ अज्ञान सृष्ट है -अविद्या-सृष्ट है ! अज्ञान के ही कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर मुझसे भिन्न है और मैं उससे अलग हूँ। जब विवेकदर्शन के अभ्यास के साथ वैराग्य का भी अनुशीलन होगा तब ज्ञानमार्ग के द्वारा हम देखेंगे जीव अपने सत्यस्वरूप के साथ अपनेआप को अभिन्न पहचानेगा; अभिन्न जानेगा , अनुभव करेगा। उसको स्पष्ट दिखने लगेगा , और उसका जीवन का आमूल परिवर्तित हो जायेगा। वो सारे दुःख कष्ट से ऊपर उठ जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में भले कुछ भी हो जाये -कोई भी घटना उसको टस से मस नहीं कर सकता। उसको विचलित नहीं कर सकती , उसको हिला नहीं सकता। वह किसी भी स्वप्न को देखकर कभी विचलित नहीं होता। श्रीकृष्ण गीता 6.22 मेंकहते हैं -
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।
।।6.22।। जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।। ये आत्मविद्या ऐसी विद्या है -ऐसी प्राप्ति है , जिसको प्राप्त करने के बाद इससे बढ़कर और कोई प्राप्ति नहीं है। मनुष्यजीवन का एकमात्र लक्ष्य है -अपने सत्यस्वरूप अपने आध्यात्मिक स्वरुप को पहचानना। अगर हम उसके लिए यदिवैराग्यपूर्वक विवेकदर्शन का अभ्यास नहीं करते हों तो बहुत बड़ा एक अवसर हम खो रहे हैं। यह हमें जान लेना चाहिए।
शंकरायचार्य का अद्भुत ग्रन्थ है - विवेक-चूड़ामणि , उसमें वे कहते हैं- देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन काएक ही परम उद्देश्य है , अपने सत्यस्वरूप को जान लेना। गौण उद्देश्य तो कई हो सकते हैं। और यह होना भी चाहिए।हम डॉक्टर, इंजीनियर बनना चाहते है - ये हमारे जीवन का गौण लक्ष्य है। और इन लक्ष्यों प्राप्ति होनी भी चाहिए , लेकिन हमारे जीवनका जो परम लक्ष्य है वो है अपने सत्यस्वरूप को पहचानना। यदि यह लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ तो इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं है। यही बात भगवान शंकराचार्यजी अपने ग्रंथों में बारबार कहते हैं। सभी सन्त महात्मा यही कहते हैं।
भगवान श्रीरामकृष्ण बंगला भाषा में कहते हैं - 'मनुष्य जीवनेर एकमात्र उद्देश्य -ईश्वरलाभ !' हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा - 'मनुष्य-जीवन का सिर्फ एक ही उद्देश्य है -वो है ईश्वर लाभ!' अब इस ईश्वरलाभ शब्द से हम बहुत कुछ अनुमान लगाना शुरू कर देते हैं। (4 हाथ , या 8 हाथ ?) ईश्वर-लाभ का केवल इतना ही अर्थ है -हमारे सत्यस्वरूप को पहचानना। वही लाभ है - और कुछ नहीं !! इस प्रकार से हम देखते हैं की ईश्वर से जुड़ने के -भक्तिमार्ग है , ज्ञानमार्ग है।
फिर अतिसुन्दरध्यानमार्ग है। ध्यान के माध्यम से भी हम अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति कर सकते हैं। उसकी पद्धति छठे अध्याय में आता है -जिसको हमलोग ध्यानयोग कहते हैं। कुछ लोग छठवें अध्याय को आत्मसंयमयोग [मनःसंयोग] भी कहते हैं। मनःसंयोग -या ध्यानयोग हमारे जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए। हमारे दिनचर्या की शुरुआत ध्यान से होनी चाहिए। और दिन की जो अंतिम घड़ी है, वह भी ध्यान से ही समाप्त होना चाहिए। यदि हमने ईश्वर के साथ जुड़ने का प्रयास नहीं किया तो उसका परिणाम भी हमीं को भुगतना पड़ता है। तो इस प्रकार से हम देखते हैं कि ईश्वर से जुड़ने का , अपने सत्य स्वरुप को प्राप्त करने और पहचानने का पहले भक्ति मार्ग है। फिर ज्ञान मार्ग है, फिर अतिसुन्दर ध्यान मार्ग है। ध्यान के माध्यम से भी हम अपने सत्यस्वरूप (Spiritual Form) तक पहुँच सकते हैं। गीता के छठवें अध्याय मेंउसका विस्तार से प्रस्तुतिकरण देखने को मिलता है। इसे आत्मसंयम योग (मनः संयोग या राजयोग) भी कहते हैं।
अब अंतिम जो मार्ग है वो है कर्मयोग। (25. 38 मिनट) अब बचे समय में कर्मयोग की चर्चा करना आवश्यक है। क्योंकि जीवन में हमें कर्म तो करना ही पड़ता है। कोई भी व्यक्ति एक क्षण भी कर्म विहीन होकर नहीं रह सकता। प्रकृति का यही नियम है -भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं
न हि कश्चित्- जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
[न-नहीं; हि-निश्चय ही; कश्चित्-कोई; क्षणम्-क्षण के लिए; अपि-भी; जातु-सदैव; तिष्ठति-रह सकता है; अकर्म-कृत बिना कर्म; कार्यते कर्म करने के लिए; हि निश्चय ही; अवशः बाध्य होकर; कर्म-कर्म; सर्वः-समस्त; प्रकृति-जैः-प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणैः-गुणों के द्वारा।]
***कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (जीवों) से कर्म करवा लिया जाता है।। मनुष्य सदैव सत्त्व , रज और तम प्रकृति के इन तीन गुणों के प्रभाव में रहता है। इसलिए वह पूर्ण रूप से निष्क्रिय होकरक्षणमात्र भी नहीं रह सकता। शरीर से कोई कर्म न करने पर भी हम मन और बुद्धि से क्रियाशील रहते ही हैं। निष्क्रियता जड़ पदार्थ का धर्म है। विचार-क्रिया (Thinking activity) केवल निद्रावस्था में ही लीन होती है।जब तक हम इन गुणों के प्रभाव में रहते हैं तब तक कर्म करने के लिए हम विवश होते हैं।इसलिए कर्म का सर्वथा त्याग करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण असम्भव है।शारीरिक कर्म न करने पर भी मनुष्य व्यर्थ के विचारों में मन की शक्ति को गँवाता रहता है।
कोई भी मनुष्य सुषुप्ति के सिवा क्षण मात्र के लिए भी चुप होकर नहीं बैठ सकता। ये दिखिए हाथ चल रहा , सांसे चल रही हैं ! हममें से कौन यहाँ पर चुप होकर बैठ सकता है ? कोई चुप होकर नहीं बैठ सकता -प्रकृति अपना काम कर रही है। कर्म तो हमें करना ही पड़ेगा। और जब अपने दैनिक गतिविधियों या विचारण -क्रिया का यदि आधार ही यदि गलत हो, यदि हम अपने को देहधारी आत्मा के रूप में नहीं पहचान लेते ? तो ये कर्म हमारे लिए बन्धन का कारण बन जाता है। और इसी कर्म का अगर मूल आधार सही हो तो यही कर्म (तीनो ऐषणाओं से रहित पूर्णतः निष्काम भाव से किया गया Be and Make का प्रयास) हमें मुक्ति के द्वार तक ले जाता है। तो इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म एक प्रकार के'दोधारी तलवार' के समान है, जिसके दोनों तरफ तीक्ष्ण धार है। कर्म हमें बाँध भी सकती है , और यही कर्म हमें मुक्त भी कर सकती है। यही कर्म हमें संसार के दुःख से ऊपर भी उठा सकती है !
अर्थात कर्म करने का एक विज्ञान है, कर्म करने की एक विद्या है। यदि इस कर्म के विज्ञान को कर्म करने की विद्या को हम सीख लें तो कर्म के माध्यम से ही हम अपने जीवन को अतिसुन्दर ढंग से गठित कर सकेंगे। और भगवान श्रीकृष्ण यहाँ परउसी जीवन-गठन की विद्या को (Life-Building Education : Be and Make)कोकर्मयोग के नाम से प्रस्तुत करते हैं।
तो जैसा हमने पहले भी सुना था कि योग क्या है ? योग विद्या का अर्थ है हमारे सत्यस्वरुप हमारे परमार्थस्वरूप (Spiritual Form) को प्राप्त करने का उपाय ! और कर्म (यानि 'Be and Make' की दृष्टि से किया गया कर्म) अपने आप में एक उपाय बन सकता है। और जैसा हमने पहले सुना -हमारे दो पहचान हैं ; एक है व्यवहारिक पहचान, शारीरिक (M/F व्यावहारिक जीव ) या सामाजिक पहचान (Physiological Identification or Behavioral identification) जिसको हमलोग व्यावहारिक जीव कहते हैं ! और एक हमारा असली पहचान है -वो है, हम मरणधर्मा शरीर नहीं है , हमलोग अजर, अमर , अविनाशी आत्मा हैं ! जिसको शस्त्र नहीं काट सकता, वायु सूखा नहीं सकता ........this identity that we have associated with the body is only temporary, यह शरीर के साथ जुड़ा हुआ हमारा जो व्यावहारिक पहचान है, वह सिर्फ तात्कालिक है, थोड़े समय के लिए है। मैं दुबारा कहता हूँ,इस स्थूल शरीर के साथ जुड़ा हुआ हमारा जो पहचान है, अंग्रेजी में कहें तो हमारी जो identity है-उसे 'fictional identity' या काल्पनिक पहचान कह सकते हैं। यह 'मैं'-पन (मिथ्या अहं) है, जो मेरे शरीर, मन और बुद्धि से जुड़ा हुआ है, जिसको हम यही मानकर चल रहे हैं कि यही - हमारा M/F Body ही मेरा सत्य स्वरुप है। यही हमारी सबसे बड़ी भूल है।
जब तक आप खुद से यह प्रश्न नहीं करोगे कि -क्या आप सिर्फ अपने शरीर तक ही सीमित हो क्या ? जिस दिन आप इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना शरू कर देंगे तो उस दिन से अपने पारमार्थिक सत्ता तक या अपने सत्यस्वरुप तक पहुँचने का सफर शुरू हो गया। (यदि मैं अजर अमर , अविनाशी आत्मा हूँ तो अभी देखूँगा की अभी accident में मरता कौन है ?) जिस दिन हम स्वयं से यह प्रश्न करना शुरू कर देंगे मेरा जो यह स्थूल शरीर है - जो हड्डी -मांस का बना हुआ है , क्या इस शरीर तक ही मेरी पहचान सीमित है ? जिस दिन हम यह प्रश्न करना शुरू कर देंगे तब देखेंगे आपके सत्यस्वरुप का अनुभव करने और वहाँ तक पहुँचने का जो सफर है -वह शुरू हो गया है। जितनी कम उम्र में ही हमारा यह सफर शुरू हो जाये उतनी जल्दी ही हमारा जीवन धन्य हो जाता है - सार्थक हो जाता है।
तो जैसे मैंने कहा -We have two Identities' हमारी दो पहचान हैं, एक हमारी काल्पनिक पहचान -'Fictional Identity' और दूसरा हमारी वास्तविक पहचान 'Real identity' स्वामी विवेकानन्द इसके लिए दो पारिभाषिक शब्द का व्यवहार करते थे -'The Real Man' and 'The Apparent Man' यानि 'वास्तविक मनुष्य और व्यावहारिक मनुष्य।" शंकराचार्य कहेंगे एक है 'व्यावहारिक जीव' और एक है पारमार्थिक सत्य ! हमारा जो पारमार्थिक सत्य स्वरुप है, हमारा जो आध्यात्मिक रूप है -वही वास्तविक मनुष्य है ! हम सब 'वही' हैं - आज हम इसको जान नहीं पा रहे हैं ये अलग बात है।
लेकिन अपने सत्य स्वरूप को अभी क्यों नहीं जान पा रहे हैं ? यही प्रश्न है ! और यदि हम जानने का प्रयास शुरू कर दें तो हमारे सामने एक अतिसुन्दर एक नये चित्र का, नए दृश्य का उद्घाटन होता है- खुल जाता है। (उभयतोवहिनी चित्तनदी पाप वहा और कल्याण वहा, के संसार-वहा प्रवाह पर वैराग्य का फाटक लगा कर विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है।) तो यह होना चाहिए।
हमारी दो पहचान है -एक है व्यावहारिक पहचान , दूसरी है पारमार्थिक पहचान। हमारी वे समस्त क्रिया-कलाप, वे सारी गतिविधियाँ जो हमारे काल्पनिक पहचान पर आधारित हैं, All our activities which are based upon our fictional identity, इस बात को ध्यान से सुन लीजिये। गीता में कर्मयोग का ये रहस्य है जो भगवान श्री कृष्ण बहुत सुन्दर शब्दों में हमारे सामने रखते हैं। जो कुछ भी क्रियाकलाप इस व्यावहारिक जीव से हो रही हैं -जीव के माध्यम से निकलने वाली जो क्रियायें हैं, गतिविधियाँ हैं -इस व्यावहारिक जीव को ही आधार बनाकर जो क्रियायें हो रही हैं -उसीको हमलोग कर्म कहते हैं।
और हम जब कोई भी कर्म हम करते हैं , तब कर्म का आधार होता है - इस जीव (M/F) के प्रति सत्यत्वबुद्धि ! अर्थात मैं एक 'व्यावहारिक जीव' हूँ और मैं कर्ता हूँ !-I am a practical being and I am a doer ! यह बोध बना ही रहता है। हम सभी लोग अक्सर ये शब्द use करते हैं - " अहं कर्ता ! " -मैं करता हूँ ! मैंने यह किया , मैंने वह किया। मैं ये कर रहा हूँ , वो नहीं कर रहा हूँ। मैं यह नहीं करूँगा ! या मैं कल वो करने वाला हूँ। ये सब करने की बात जो 'मैं ' से उत्पन्न होती है। जिसमें 'मैं ' का अर्थ गलत लगा दिया गया है; उस 'मैं' से होने वाली सभी क्रियायें (काचा आमी से होने वाली गतिविधियाँ) - ये हमें बाँध देती हैं! ऐसा कर्म -मैं कर्ता हूँ , के भाव से किया हुआ कर्म हमें बन्धन में बाँध देती है। बन्धन का कारण बनती हैं। इसीको कर्म कहते हैं। हम सभी लोग अपने जीवन में कर्म कर रहे हैं, किन्तु कोई कर्म-योग नहीं कर रहा है। मैं धीरे -धीरे कर्मयोग की तरफ आ रहा हूँ। हम सभी लोग जीवन में सबेरे से लेकर रात तक , जब नींद से उठ जाते हैं, तबसे लेकर रात तक हमारे कर्म शुरू हो जाते हैं। मैं आज ये करूँगा , मैं आज वो करूँगा - अहं कर्ता ! इसलिए ये शब्द बना - "अहंकार ", इस शब्द का अर्थ ही है - 'अहं कर्ता' -मैं कर्ता हूँ ! और उसमें 'मैं ' का मतलब क्या है ? मैं ' यानि यह जो मेरा शरीर मांस -हड्डी से बना हुआ मेरा शरीर है -इससे जुड़ा हुआ ये जो व्यक्ति है (M/F) है- वह कर्ता है।
(33 . 18) अब प्रश्न ये क्या यह स्थूल शरीर जो जड़ है -स्वयं कुछ कर सकता है क्या ? मांस और हड्डी से बना ये जो संघात है - ये कुछ कर सकता है क्या ? ये क्या तुम हो ? जो कुछ कर रहे हो ? इसके अन्दर जो पाचनक्रिया हो रही है - वो क्या तुम जानबूझकर कर रहे हो ? आप जो साँसे ले रहे हो , क्या उन साँसों का नियंत्रण आपके हाँथ में है ? इसके अन्दर जो कुछ भी गतिविधियां हो रही है - उसमें कुछ हमारा वश चलता है ? नहीं , किन्तु हम कहते तो हैं -मैं ही कर्ता हूँ। ये जो मैं कर्ता हूँ ' का भाव है , इसमें से उत्पन्न सारी क्रियायें , वो हमें बाँध देती हैं। कर्म हमें बाँध देता है।
अब इसके विपरीत एक विधि है ,एक ऐसी विद्या है, एक ऐसा विज्ञान है जिसे हमलोग कर्मयोग कहते हैं। अब जब शरीर-मनबुद्धि है -तबतक क्रियायें तो होंगी , कोई क्षणभर भी चुप होकर नहीं बैठ सकता। लेकिन उन क्रियाओं को हमें एक दूसरी दिशा प्रदान करनी है। वही विद्या भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में हमें बताते हैं। जिस प्रकार इन सारी क्रियाओं का आधार यह व्यावहारिक जीव हो सकता है , उसको निकाल करके अगर हम प्रभु -परमेश्वर को कर्ता मान लेते हैं ; जब हम जान करके कर्म करते हैं कि ये सब ईश्वर ही कर रहे हैं। ईश्वर इस पूरे विश्व-प्रपंच को चलाने वाले हैं। सबके मूल में वही हैं। सबके अन्दर जो क्रिया करने की शक्ति है , वह उन्हीं से आ रही हैं , इसमें हमारा कुछ नहीं है।मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ अपने इष्टदेव को समर्पित करते हुए कर रहा हूँ। तो वही क्रियायें हमारे लिए कर्मयोग बन जाती हैं। (35.08 मिनट )
भगवत गीता का संदेश:
🙋'चरितार्थ करना होगा -'तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये।' 🙋
(35.08 मिनट ) विष्णुपुराण में कहा गया है –
तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्याऽन्या शिल्पनैपुणम्॥
कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो (जो कर्मफल में आसक्त ना करे), इसके अतिरिक्त बाकी कर्म तो आयास (वृथा प्रयास) मात्र ही हैं। विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो (जो बन्धन से मुक्त करे)। इसके अतिरिक्त अन्य विद्या तो कला (Skill) में निपुणता ही हैं।
[That is ‘work’, which is not for bondage (which does not promote attachment), any other work is mere (pointless) effort. That is ‘knowledge’, which is for the liberation (from bondage), any other knowledge is a skill in any manual art or craft.]
यह जो कर्मयोग है आपको बन्धन से मुक्त कर देगा। यह जो कर्मयोग है -आपको अपने सत्यस्वरूप के साथ जोड़ देगी। इसीलिए इसी प्रकार की क्रिया को 'योग ' कहते हैं। इसलिए जीवन में हमें केवल कर्म नहीं करना है -कर्मयोग करना है। जब हम सिर्फ अहंकार आधारित कर्म करते हैं , तो याद रख लीजिये -उसका फल हमें भोगना ही पड़ता है ! उससे आपको मुक्ति नहीं है। अच्छा कर्म करते हैं तो अच्छा फल मिलता है , बुरा कर्म करते हैं तो बुरा फल मिलता है।
हमारे उपनिषदों का सिद्धान्त है :
पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन।
( बृहदारण्यकोपनिषद् , ३।२।१३ )
इसका मतलब है कि सत्कर्म करने से सत्फल मिलता है और पापकर्म करने से अनिष्ट फल मिलता है। कर्मों के फल नियत होते हैं और कर्मों के अनुसार ही फल मिलते हैं। जब हम पुण्य कर्म करते हैं, तो अहंकार से कर रहे हैं - दीनदरिद्र को नारायण बुद्धि से अहंकार कम्बल, भोजन, दवा या ज्ञान दे रहे हैं ? अहंकार से ही किया हुआ जो बुरा कर्म है , उसका बुरा फल मिलता है।फल निश्चित है , उससे आप बच नहीं सकते हो ! समाज के कोर्ट की विधि से आप बच जाओगे , लेकिन कर्म और कर्म के फल से आप बच नहीं सकते हो। अगर मैंने कोई बुरा कर्म किया है , तो वो तो मेरे पास आएगा ही। उससे कोई छुटकारा नहीं हो सकता - ये सिद्धान्त है। अर्थात् निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता। पुण्य-योनि में जन्म पाता है और पाप कर्म से पाप शील होता- पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।
तो कर्म कैसे करें ? दो प्रकार से हम कर सकते हैं , एक तो हम ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करें। यह जानें कि इस पूरे सृष्टि के मूल में एक सृष्टिकर्ता ईश्वर है। जो मेरा ही सत्यस्वरुप है -उसी को समर्पित कर दें।शंकाराचार्य जी जिसे " ईश्वर सपर्मण बुध्या कृतं कर्म ' कहते हैं- ईश्वर समर्पित बुद्धि से होने वाले कर्म, अब हमारे जो इष्टदेव हैं - वे भगवान श्री रामकृष्ण देव !हम अभी जो कुछ भी कर रहे हैं उसे 'श्री रामकृष्णा अर्पणं अस्तु' कहते हुए कर रहे हैं कि नहीं? जो कुछ भी हम श्री रामकृष्ण अर्पणं अस्तु के भाव में करते हैं -मतलब ईश्वर अर्पण बुद्धि और कुछ नहीं। श्रीरामकृष्ण क्या हैं ? भगवान श्रीरामकृष्ण उसी ईश्वर का एक नाम और रूप ।उस ईश्वर को हम किसी भी रूप में देख सकते हैं। हमलोग यहाँ ईश्वर को श्रीरामकृष्णदेव के रूप में देखते हैं। जो शिव के भक्त होंगे वे ईश्वर को शिव के रूप में देखेंगे।जो कृष्ण के भक्त होंगे , वे उसी ईश्वर को कृष्ण के रूप में देखेंगे। वे कहेंगे -कृष्णार्पणमस्तु ! ईश्वरा अर्पणमस्तु !ईश्वरार्पण बुद्धि से जब हम कर्म करते हैं -तो हमारी जो क्रियायें हैं , वे मुक्ति का साधन बन जाती हैं। हमारे दुखों से छुटकारा पाने का एक मार्ग बन जाता है। तो इस प्रकार कर्म करने का एक तरीका बताते हैं।
भगवान गीता में जो दूसरा तरीका हमें बताते हैं वो है , उस ज्ञानयोग वाली प्रक्रिया। ये थोड़ा कठिन है। ईश्वरा अर्पण बुद्धि से कर्म करना ये थोड़ा सहज है। लेकिन ज्ञानयोग वाला कठिन और सहज मार्ग का चयन ये व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। हम ऐसा नहीं कह सकते कि ये कठिन है, बहुतों को ये सहज लगता है। जिसको जो सहज लगता है , उसको उस मार्ग का अनुशीलन कर लेना चाहिए। ज्ञानयोग की दृष्टि सेभगवान श्रीकृष्ण हमें यहाँ गीता (५-८,९) में यह बताते हैं -
[।।5.8 -- 5.9।। तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं' -- ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' -- ऐसा माने।]
मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ , मैं इन सारे गतिविधियों का मैं द्रष्टा हूँ, साक्षी आत्मा हूँ-I am the witness ! and this is true position of the man . हमारे सत्यस्वरूप में हमलोग सिर्फ द्रष्टा मात्र ही हैं ! सच्चाई में हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आपने कभी कुछ किया ही नहीं। आप हँसेंगे -ऐसा कैसे सम्भव है ? मैं तो दिनरात कर्म करता ही रहता हूँ। लेकिन सच्चाई ये है कि हमारा जो सत्य स्वरूप है, उस दृष्टि से हम देखें, तो हमलोगों ने कभी कुछ किया ही नहीं है। आप कुछ कर सकते ही नहीं हो। तो यह सब क्या चल रहा है ?यही तो एक अद्भुत अनिर्वचनीय खेल यहाँ पर चल रहा है। भगवान श्री शंकराचार्य जी की भाषा में - ये बड़ा अद्भुत है ! कुछ भी न करते हुए भी - हमारे अंदर जो एक कर्ता भाव है , वह हमेशा बना ही रहता है !!
सच्चाई यह है कि अगर आप इस position को लें - कि मैं कुछ नहीं करता हूँ , मैं सिर्फ द्रष्टामात्र हूँ। आप स्वयं अपने शरीर और मन का द्रष्टा बन सकते हैं !!! थोड़ी देर के लिए आप अपनी आँखों को मूँद कर, अपने-आप को देखिये - तो आपको दिखाई देगा कि ,आप मन नहीं हो, मन के द्रष्टा हो। You are the witness of the mind, you are the witness of the intellect, आप मन नहीं हो , मन के साक्षी हो, आप बुद्धि के भी साक्षी हो ,You are the witness of the Ego itself!आप अहँकार के भी साक्षी हो ! This is the great practice according to Vedanta ,वेदांत के अनुसार यह एक महान साधना है। वेदान्त के मूल सिद्धान्त के अनुसार हमलोग देखें तो हमलोग -स्वभाव से ही अकर्ता हैं। इस प्रकार से अगर हम आत्मा को इन क्रियाओं का आधार बना देते हैं - तब वही कर्म' ---'योग' हो जाता है।
अतः कर्म की दिशा को हम दो प्रकार से मोड़ दे सकते हैं। एक है भक्ति के द्वारा। जब हम कहते हैं ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करो। ये बहुतों के लिए बहुत सहज है। और वही हमें करना भी चाहिए। और दूसरा है - इस प्रकार के पोजीशन को लो कि मैं कुछ भी नहीं -करता , मैं सिर्फ द्रष्टा मात्र हूँ। अब इसमेंसे दो चीजें हमें समझ लेनी चाहिए। कहने को तो मैंने कह दिया कि मैं कुछ भी नहीं करता , लेकिन मेरे द्वारा सम्पादित कर्मों से यदि मुझे जब ठीक फल नहीं मिलेगा, या वैसा फल यदि मुझे नहीं मिला तो मुझे गुस्सा आ जाता है।या मेरे किये हुए अच्छे कर्म का कोई अच्छा फल मिला तो, मैं उस फल से ही चिपक जाता हूँ। ये दोनों भी परस्पर विरोधी हैं। अगर आप कहते हो कि मैंने कुछ नहीं किया तो आपको फल की चिंता भी नहीं होगी। ये उसका (निःस्वार्थ कर्म का) मापदण्ड है। अगर आप कहते हो कि मैं अकर्ता आत्मा हूँ , और यह सब प्रकृति (तीनो गुण) ही ये सब कर रही है , अगर इस पोजीशन को ले रहे हो तब फिर आपको फल की चिंता नहीं होगी , अच्छा फल हो , बुरा फल हो दोनों में आप सम रहोगे। आपका मन एक समत्वभूमि में प्रतिष्ठित हो जायेगा। ये उसका लक्षण है।
ईश्वरार्पणम बुद्धि में भी यही होता है। आपने जब अपने सारे कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर दिया तो आपका उस कर्म के फल के ऊपर कोई अधिकार नहीं है। आप यह नहीं कह सकते हो कि मुझे इस प्रकार का ही फल चाहिए। मुझे अच्छा ही फल चाहिए , बुरा फल नहीं चाहिए। और यदि अच्छा फल मिल गया तो उसके प्रति आपकी आसक्ति हो। यह सब सम्भव नहीं है। जिसने ठीक-ठीक ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म किया हो - ये उसका लक्षण है। ईश्वरार्पण बुद्धि से किया हुआ कर्म हो या आत्मबुद्धि से किया हुआ कर्म हो , दोनों का जो प्रतिफलन है वो इस प्रकार होगा कि - आपका मन सब समय समत्व-भूमि में रहेगा। जीवन में अच्छा हो या बुरा हो आप दोनों ही परिस्थ्तियों में आप समदृष्टि में प्रतिष्ठित रहेंगे, आप अटल रहोगे , आप अविचलित रहोगे , आप अनासक्त रहोगे। यह उसका लक्षण है। इस प्रकार जब आप कर्म करते हों , तब वह कर्म कर्मयोग हो जाता है। इस प्रकार जब हम दीर्घकाल तक कर्म करते हैं , करते -करते देखेंगे कि यह जो सत्यस्वरूप आत्मा का जो यहाँ पर प्रस्तितुतीकरण भगवतगीता में मिलता है , वो हमारे लिए एक अनुभव की बात हो जाती है। उस सत्यस्वरूप का हम अनुभव कर पाएंगे।
भगवतगीता में जो योग की परिभाषा है , वो अतिसुन्दर है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं -
।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।
सोंचकर देखिये अर्जुन को युद्ध लड़ना है , इससे भयंकर परिस्थिति जीवन की क्या हो सकती है? आप रणभूमि में हो। आपको युद्ध करना है , आपके सामने आपके जो दुश्मन खड़े हैं उसका सामना करना है। शस्त्र से उसका जवाब देना है। इससे बड़ी कठिन परिस्थिति क्या हो सकती है ? look at the kind of involvement it demands , इसमें 100 % भागीदारी की अपेक्षा है। रणभूमि खड़ा सैनिक का मन-बुद्धि शरीर युद्ध में कितना तत्पर रहता है। कृष्ण कहते है पूरे भागीदारी के साथ-involvement के साथ युद्ध कर अर्जुन। लेकिन इस युद्ध क्रिया के पीछे युद्ध करने का एक तरीका है। क्या तरीका है ?
'योगस्थ कुरु कर्माणि' -योग में प्रतिष्ठित होकरके तू अपना कर्म कर। दो बातें भगवान कहते हैं - समत्वं योग उच्यते ! योग क्या है -समता। अच्छा समता का मतलब क्या है ? सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा ' सिद्धि हो या असिद्धि हो , दोनों परिस्थिति को सामान रूप से देखने की क्षमता। आपको अपने किये हुए कर्म में सफलता मिले , या विफलता मिले - दोनों ही परिस्थिति में आप अगर सम रह पाते हो। तब आप योगस्थ हो। योग का मापदण्ड क्या है ? आप सम हो जाते हो। सफलता में और विफलता में भी आप सम हो जाते हो। ये योग का एक मापदण्ड है।
ये सब केवल Theory नहीं है , आप उसको अपने जीवन में उतार कर देख सकते हो। दैनंदिन जीवन में अपने परिवार में आप देखोगे। अच्छी चीज भी आएगी और बुरी चीज भी आपके पास आएगी दोनों में जो सम रहने का अभ्यास है -वही आपको योगी बना देता है। (46.40 ) भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
तस्मात् योगी भव अर्जुन ' (गीता 6.46)
।।6.46।। क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो।। जीवन में हमें योगी बनना है , योगी बनने का मतलब कहीं जंगल में नहीं भागना है। जब हम योगी बनने की बात सुनते हैं तो डर लगता है कि, तब क्या हमें गेरुआ पहनना है ? नहीं, गेरुआ नहीं पहनना है , कहीं जंगल-वंगल में नहीं भागना है , गेरुआ नहीं पहनना है। दाढ़ी और जटाजूट नहीं बढ़ाना है। ये सब कुछ ऐसी गलत धारणा मन में पाल लेते हैं। नहीं, योगी बनने का मतलब है -समत्व का अभ्यास। जीवन के उतार-चढाव में , हर परिस्थिति में सम रहने की जो योग्यता हम यदि प्राप्त कर लें , तो वैसा व्यक्ति ही योगी है। ये हुआ योगी होने का एक मापदण्ड।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। समत्वं का अर्थ हमने समझ लिया , सिद्धि और असिद्धि में, सफलता और विफलता में सम रहना इसको योग कहते हैं। दूसरा मापदण्ड है , बहुत सुंदर और बहुत Important; वो क्या है ? 'योगस्थ कुरु कर्माणि -सङ्गम त्यक्त्वा धनंजय'- और इसका दूसरा पक्ष है अनासक्त होना। सङ्ग वर्जित कर्म करना है। अनासक्त होकरके कर्म करना है। यह अनासक्ति ही है योग का दूसरा मापदण्ड। तो आप योगी हो या नहीं ? मैं योगी हूँ या नहीं ? इसको जाँच-परखकर स्वयं ही देखना है। और जब आप देखोगे कि आप योगी बन रहे हो। जितना ही आप योग में रहने में सफल होओगे , उतना ही आप ईश्वर के साथ जुड़ने या सम्बन्ध बनाने में सफल हो जाओगे। ईश्वर के साथ सम्बन्ध योग से बनता है। या हमारे परमार्थ स्वरुप के साथ जो सम्बन्ध है , वो योग से बनता है। और योग क्या है ? --योग है समत्व का अभ्यास ! समत्व का अभ्यास उसका एक पक्ष है , उसका दूसरा पक्ष है अनासक्ति। -सङ्गम त्यक्त्वा करोति ! भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण दर्जनों बार अर्जुन से कहते हैं - कि अर्जुन तुझे कर्म करना है। लेकिन करोगे कैसे ? सङ्गम त्यक्त्वा-सङ्गम त्यक्त्वा-सङ्गम त्यक्त्वा' कितनी बार भगवान श्रीकृष्ण यही बात दोहराते रहते हैं। इसलिए भगवत गीता को अनासक्ति योग भी कहते हैं।
भगवतगीता का मूल सन्देश ही अनासक्ति योग है। आसक्ति नहीं होनी चाहिए। आसक्ति नहीं होने का क्या मतलब है ? ये सब कोई theory नहीं है, ये सब हमें जीवन में उतारना है। This is what going to make our life beautiful and sublime ! यही वह चीज़ है जो हमारे जीवन को सचमुच सुन्दर और उत्कृष्ट बना देगी। जीवन को सुंदर रूप में गठित कर देगी। जीवन मूल्य इस योग के अभ्यास से आएगा। अनासक्ति को अंग्रेजी में 'detachment' कहते हैं। Not to be attached' Non Attachment or detachment ., अनासक्ति या विरक्ति ये बड़ा ही खतरनाक शब्द है। क्योंकि इसका 99 % अर्थ लोग गलत ही लगाते हैं। हम इसका मतलब लगा लेते हैं कि किसी भी काम में involved नहीं होना। मैं detached हूँ , मैं अनासक्त हूँ दरवाजा बन्दकरके अपने कमरे में बैठा रहूँगा।लेकिन ये अनासक्ति है ही नहीं। यह तो एक मानसिक बीमारी है। ये न तो योग है , न अनासक्ति है , न अध्यात्म है। सरल शब्दों में कहें तो ये सिर्फ एक मानसिक रोग है। ये अनासक्ति नहीं है। अनासक्ति का अर्थ जनता के बीच से निकल जाना नहीं है। अनासक्ति के नाम पर हम किसी भी चीज के साथ संलग्न ही नहीं होना चाहते। ये अनासक्ति नहीं है। involved तो होना ही है। लेकिन involved होने का मतलब ये भी नहीं है कि तुम आसक्त हो जाओ !
मैं दुबारा कहता हूँ - detachment का मतलब ये नहीं है कि तुम किसी चीज में involved ही नहीं होंगे। और involved होने का मतलब ये नहीं है कि तुम attached हो जाओ। आपको पूरी तरह से involved रहना है , इसके साथ ही detached भी रहना है। जिसने इसको जान लिया , उसने जीने की कला सीख ली। यही जीने की कला है कि हम सबमें involved हैं लेकिन कहीं भी attached नहीं हैं। This is the great art of living which Bhagavan Sri Krishna teaching to the whole of humanity. अर्जुन के माध्यम से -सब के साथ रहना है , सबकी देखभाल करनी है। पति हो पत्नी हो , भाई-बहन हो , बच्चे हों , सब के साथ मिलजुल करके पुरे involvement के साथ , पूरी ईमानदारी से हमें अपने कर्तव्यों का पालन तो करना है। लेकिन कहीं भी attached नहीं होनाहै। (52.09) यही है जीवन जीने की कला। आप इसका उदाहरण देख लीजिये। स्वामी विवेकानन्द जी आसक्त थे या अनासक्त थे ? आपके पास इसका क्या उत्तर है ? इस पूरे जगत में स्वामी विवेकानन्द से सम्पूर्ण मानवजाति के लिए अधिक attached कौन थे ? शंकराचार्य जी जिनकी हम बात करते हैं -वे attached थे या detached है। लेकिन क्या involved नहीं थे ? पुरे involved थे कहीं भी थोड़ा attached थे क्या ?
जिन भगवान योगीश्वर श्रीकृष्ण की बात हम कर रहे हैं , वे क्या involved नहीं थे ? पूरे संसार के हर काम में involved थे। श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के समूचे पॉलटिक्स में वे involved थे। लेकिन कहीं भी attached नहीं थे। ये जीने की कला है। ऐसा रहना है हमें जीवन में कि हम सबके साथ हैं , लेकिन कहीं भी हम attached नहीं हैं। भगवान श्रीकृष्ण इसका एक सुन्दर उदाहरण हमारे सामने रखते हैं।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।
।।5.10।। जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते की तरह पापसे लिप्त नहीं होता।
तुम कर्म किस प्रकार करोगे ? इसका एक सुन्दर दृष्टान्त रखते हैं। कर्म किस प्रकार करना है ? ब्रह्मण्याधाय कर्माणि - सारे कर्म का आधार ब्रह्म (आत्मा ) को बनाओ। मैं ' अहंकार से करने वाला कर्म नहीं। मैं वही अकर्ता आत्मा हूँ , ये सब प्रकृति ही कर रही है। इस भाव से करो। या तो सबकुछ ईश्वर को समर्पित करके करो। अनासक्त होकर के पूरे involvement के साथ कर्म करो। तो इसका परिणाम क्या होगा ? लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।। आप किसी भी पाप से लिप्त नहीं होंगे। मतलब दुःख आपको स्पर्श नहीं कर सकता। कोई भी कष्ट इस व्यक्ति को स्पर्श नहीं कर सकता। इसका उदाहरण क्या है ? पद्मपत्रमिवाम्भसा। कमल के पत्ते जिस प्रकार पानी में रहते हैं , पानी में डूबा हुआ है। पूरा involved है कि नहीं ? लेकिन उन पत्तों को अगर आप ऊपर उठाओ तो उस पानी का एक बून्द भी पत्ते से चिपका नहीं मिलेगा। अनासक्त का कैसा सुंदर दृष्टान्त है। कमल का पत्ता पूरीतरह से पानी में संलग्न है। किन्तु पानी का एक बून्द भी पत्ते के साथ चिपका हुआ नहीं है।
इसी प्रकार हमको जीवन जीना है -सबके साथ रहते हुए। यही जीने की कला है , लेकिन कहीं भी चिपकना नहीं है। अक्सर मैं कहता हूँ। हमारा अंतिम दर्शन - वेदान्त क्या है ? आप इस बात को लिख कर रख लीजिये - चिपकना मना है ! -हँसी और ताली की ध्वनि ! चिपकना मना है -इतना ही नहीं , चिपकना सख्त मना है।Sticking is strictly prohibited ! चिपकना सख्त मना है ! इस सम्पूर्ण संसार के साथ रहो - सभी प्रकार की गतिविधियों में संलग्न रहो , लेकिन कहीं भी चिपको मत - लेकिन क्यों ?आप जिससे चिपक रहे हो वो सब अनित्य है , ये सब चला जायेगा। आप जिसको पकड़ रहे हो ये सब चला जायेगा। इसको आप लिखकर रख लीजिये। कोई भी आपके साथ में नहीं रहेगा।
ये सब सिर्फ 2 मिनट का ड्रामा चल रहा है , यहाँ पर। देखते देखते सब चला जायेगा। आप जिस चीज को जितना पकड़ने की प्रयास करोगे , उतना ही वह चीज आपके दुःख का कारण बनेगी। इसलिए इसको Intelligently handle' करना, बुद्धिमानी से संभाल लेना , यही जीने की कला है। यही कला भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के माध्यम से हमसबको भगवत गीता में सिखाते है। उसमें कर्मयोग प्रधान है ! मैं इसको प्रधान इसलिए कहता हूँ क्योंकि कर्म हमारे जीवन का मुख्य अंग है। कोई भी व्यक्ति चुप नहीं बैठ सकता। अगर हम चुप नहीं बैठ सकते तो हम जो भी कर रहे हैं -उसे करेंगे कैसे ? इसको इस प्रकार करना है की हम कर्म तो करते रहें लेकिन कहीं भी हम चिपके नहीं। ऐसे व्यक्ति ने जीवन जीने की कला को सीख लिया है। यही सन्देश भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के माध्यम से पूरे मानवसमाज के सामने रखते हैं। यही कहकर मैं अपने वक्तव्य को यहाँ विराम देता हूँ। और भगवान श्री कृष्ण जो योगीश्वर हैं -उनसे यही प्रार्थना करता हूँ कि यह जो जीने की कला है वो हमारे जीवन में प्रतिफलित हो और हमसबका जीवन सुखमय हो। वह सुख जो पारमार्थिक सत्त्ता या आत्मा से सम्बन्ध बनाने से आता है। ईश्वर सम्बन्ध बनाने से आता है। तो अंतिम बात -ईश्वर सम्बन्ध बनाना है। -ईश्वर सम्बन्ध बनाना है। ईश्वर सम्बन्ध के बिना हमारा जीवन व्यर्थ हो जाता है। दुःखमय हो जाता है। और ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाने का जो उपाय है उसीको योग कहते हैं। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - तस्मात् योगी भव अर्जुन ! सभी को योगी होना है , हमसभी को योगी होना है ! ॐ शांति शांति शांति हरि ओम तत्सत !
प्रश्नोत्तरी : आप सांख्य और कर्म में से कौन सा योग श्रेष्ठ है ? आप इन दोनों में से किसी एक निष्ठा को पकड़ लीजिये आप अपने गंतव्यस्थान तक पहुँच जाओगे। पांचवे अध्याय में भगवान कृष्ण से अर्जुन यही प्रश्न करते हैं। हे भगवान कृष्ण तुमने तो दो निष्ठाओं की बात की है। एक है सांख्य निष्ठा ,दूसरा है योगनिष्ठा। तो मुझे कौन सा करना चाहिए ? भगवान कहते हैं -इन दोनों में से कोई भी एक निष्ठा को पकड़ लो। तुम अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाओगे !
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🙋चरितार्थ करना होगा -'तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये।'🙋
'तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरम् कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्।’'
श्री विष्णु पुराण में उल्लेखित इस श्लोक- का अर्थ है कि कर्म वही है, जो बंधन में ना बांधे, विद्या वही है जो मुक्त करे। अन्य सभी कर्म केवल निरर्थक क्रिया व अन्य सभी अध्ययन केवल कारीगरी (craftsmanship) मात्र हैं।
इसी श्लोक को केन्द्र में रखते हुए वैदिक काल से विदेशी आक्रांताओं के आगमन तक प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुरूप 'विद्या' अर्थात 'परा ('शी'क्षा -तैतरीय उप० )और अपरा ('शि'क्षा ) दोनों प्रकार की विद्याकेअनुसार दी जाती रही थी। और इसी गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के बल पर भारत विश्वगुरु कहलाया था। किन्तु 1000 वर्षों की गुलामी के दौरान, विदेशी आक्रांताओं ने हमारे अमूल्य वैदिक साहित्य व शिक्षा संस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। मुख्य रूप से अंग्रेजी शासनकाल में लार्ड मेकाले की शिक्षा व्यवस्था में भारतीय गुरु-शिष्य शिक्षा परम्परा में आमूल-चूल परिवर्तन कर इसे 'शिक्षित दास' (अंग्रेजों के अंग्रेजी पढ़े गुलाम) उपलब्ध कराने की फैक्ट्री बना दिया गया। आज की शिक्षा प्रणाली तो मात्र व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ नहीं।
आज तो " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा -' Be and Make' की शिक्षा के अनुरूप चरित्रवान मनुष्य बनने -बनाने के बजाय एक होड़ मची हुई हैं,डॉक्टर, इंजीनियर, आइ.ए.एस बनने-बनाने की। अभिभावक और शिक्षक विद्यार्थी की योग्यता को समझे बिना बस एक भेड़-चाल का अनुसरण करने में लगे हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली से बेरोजगारी पनप रही है।
आज हम नई और तेजी से बदलती संभावनाओं के युग में जी रहे हैं। नई तकनीक अर्थ-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगी। कोई भी अर्थव्यवस्था, कोई भी क्षेत्र, इस परिवर्तन से अलग नहीं रहेगा। लेकिन नए भारत के निर्माण के लिए आर्थिक स्थिरता और आध्यात्मिकता दोनों की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि आध्यात्मिक और आर्थिक रूप से विकसित भारत दुनिया का नेतृत्व करे। हमें जगतगुरु श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं और उनके शिष्य और उनके संदेशवाहक पूज्य स्वामी विवेकानंद द्वारा दी गई मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा पद्धति में मनुष्य बनने -बनाने ( Man-making and Character building Education : "Be and Make" अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और उसके साथ-साथ दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो पर आधारित श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा की "Be and Make" पद्धति को पहले आत्मसात करना होगा।
आगामी लगभग चार दशकों तक हमारी जनसंख्या का बड़ा भाग युवा होंगे। हम इस शक्ति का लाभ तभी उठा सकते हैं, जब हमारे युवा अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रशिक्षित हों। युवाओं को इनोवेशन और स्व उद्यम के लिए प्रेरित करें, हमारी नई पीढ़ी के विद्यार्थी रोजगार खोजने वाले नहीं, बल्कि रोजगार देने वाले बनें। नव उद्यमियों को समाज में आदर दें, उन्हें प्रोत्साहित करें, उद्यमिता के लिए सामाजिक परिवेश बनाएं। ऐसी आशा की जा सकती है कि नई शिक्षा नीति के तहत मातृ भाषा में शिक्षा से शिक्षा की नींव मजबूत होगी तथा अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी मातृ भाषा में पढऩे से विषय को रटने की बजाय विषय की समझ बढ़ेगी। इससे उच्च शिक्षा में विद्यार्थी अपनी रुचि से सही विषय का चयन कर पाएंगे। लेकिन इसके साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी वेदान्त शिक्षा पद्धति - "Be and Make" का प्रचार -प्रसार भारत के गाँव -गाँव तक फैला देना होगा।
सही मार्ग- चरित्रवान मनुष्य बनने-बनाने के योग-मार्ग पर चलकर संघर्ष कर रहा विद्यार्थी अपने आपको ठगा महसूस कर रहा है। यह बात ध्यान रखना आवश्यक है कि किसी व्यक्ति की योग्यता का प्रमाण विश्वविद्यालय प्रदत्त प्रमाण-पत्र नहीं, अपितु जीवन संग्राम में सत्य के पथ पर चलते हुए किए गए गीता , उपनिषदों आदि के साप्ताहिक पाठचक्र, प्रशिक्षण -शिविर या शास्त्रार्थ से प्राप्त ज्ञान (Oneness या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व से जुड़ने का ज्ञान -4 प्रकार का योगमार्ग) है। यह ज्ञान ही व्यक्ति को जीवन-चक्र के प्रति , Inherent Divinity या अन्तर्निहित दिव्यत्व या ब्रह्मत्व को विकसित करने, या 3H विकास के 5 अभ्यास के माध्यम से जीवनगठन के प्रति सचेत अंतर्दृष्टि- देकर मनुष्य को सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध ( या नरेन्द्रनाथ दत्त से विवेकानन्द) बनाने में सक्षम है।
Economical Sustainability and Spirituality both are required for new India . Swami Vivekananda wanted to see - Spiritually and Economically developed India to lead the world. We have to assimilate teachings of Jagatguru Sri Ramakrishna and the Man-makung and charecter building education method - " Be and Make "given by his decipel and His salected Massenger swami vivekananda .
'दादा' कहते थे (अर्थात महामण्डल के संस्थापक सचिव परमपूज्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय कहते थे) इस इस 'Be and Make ' महामण्डल आन्दोलन' के साथ निःस्वार्थ भाव से जुड़े रहो तो कोई साधना किये बिना ही तुम जीवनमुक्त हो जाओगे। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे विद्यारूपी जिस स्वर्णिम वृक्ष को खोद दिया है, उसी वृक्ष की जड़ों को पुन: भारतीय संस्कृति एवं मूल्यों से पोषित करना होगा। अतएव आइये हम विष्णु पुराण के श्लोक 'तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये' की शिक्षा में आधारित 'Be and Make ' महामण्डल आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बना देने की प्रचेष्टा को चरितार्थ कर भारत को हम पुन: विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का संकल्प लें।
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गीता ध्यान – Gita Meditation
ये 9 श्लोक भगवद गीता से नहीं हैं, बल्कि बहुत बाद में एक विद्वान व्यक्ति मधुसूदन सरस्वतीद्वारा जोड़े गए थे जब उन्होंने गीता पर टिप्पणी लिखी थी, एक स्मारकीय कार्य जिसे गूढ़ार्थ दीपिका कहा जाता है , जिसका शाब्दिक अर्थ भगवद गीता के श्लोकों के गहन अर्थ को प्रकाशित करना है। इसके बाद इसी टिप्पणी पर कई टिप्पणियां की गईं, सबसे लोकप्रिय स्वामी गंभीरानंद द्वारा की गई। बस यह दर्शाता है कि एक गहन अध्ययन की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, हम सभी को इस उदात्त ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से सतर्क और फिट रहने की आवश्यकता हैऔर इसलिए अध्ययन शुरू करने से पहले एक विनम्र प्रार्थना की आवश्यकता है। यह भगवान से एक तरह से प्रार्थना है कि वे हमें 700 से ज़्यादा श्लोकों वाली पूरी गीता का अध्ययन सफलतापूर्वक पूरा करने में हर तरह से मदद करें।
ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्येमहाभारतम्।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीं अष्टादशाध्यायिनीं
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्॥ १॥
ॐ यह श्लोक गीता के अध्ययन के लक्ष्य, उद्देश्य, अपने भीतर स्थित दिव्य आत्मा की खोज की स्पष्ट याद दिलाने के साथ आरंभ होता है।
हे माँ भगवद गीता ! भगवद गीता को 'माँ' कहकर संबोधित करना एक दिलचस्प दृष्टिकोण है। माँ बच्चे के साथ सबसे अधिक धैर्यवान होती है। वह एकमात्र व्यक्ति है जो अपने बच्चे की निंदा नहीं करती, भले ही बच्चा बार-बार वही गलतियाँ करता हो। वह हमेशा अपने बच्चे को सांत्वना और आराम देती है। उसी तरह गीता हमें, आध्यात्मिक बच्चों को सांत्वना देती है। बच्चों की तरह हम भी बार-बार ठोकर खाते हैं, स्वार्थी व्यवहार करते हैं, अहंकारी हो जाते हैं और मुसीबत में पड़ जाते हैं। फिर भी गीता प्रेरणा और राहत का एक निरंतर स्रोत है।
यह गौरवशाली -"भगवती" है क्योंकि इसमें 6 "भग" या गुण हैं। वे हैं:1. ऐश्वर्य (शक्ति)2. धर्म 3. यशा (वैभव)4. श्री (सौंदर्य)5. ज्ञान 6. वैराग्य/ भगवद् गीता में वे सभी छह गुण हैं जो मिलकर उत्कृष्टता का निर्माण करते हैं। जो कोई भी गीता में बताए गए सिद्धांतों का ईमानदारी से अध्ययन करता है और उन्हें अपनाता है, उसमें ये गुण विकसित होते हैं। गीता सांसारिक सफलता प्रदान करती है और हमें सही मूल्य प्रदान करती है ताकि हम अपने आध्यात्मिक लक्ष्य पर केंद्रित रह सकें। ऐसा व्यक्ति दुर्लभ है जिसने दुनिया की सभी उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हों और फिर भी संतुलन, संतुलन, शालीनता और आकर्षण बनाए रखा हो। यह संयोजन तभी संभव है जब हम गीता द्वारा बताए गए सिद्धांतों पर चलें।
मैं आपका ध्यान करता हूँ/ इस संदर्भ में ध्यान का अर्थ है गीता में बताए गए मूल्यों का निरंतर सुदृढ़ीकरण। अपनी कमियों को दूर करने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए। इसलिए, अपनी कमियों के बारे में जागरूकता महत्वपूर्ण है। आध्यात्मिक पथ पर आत्मसंतुष्टि के लिए कोई जगह नहीं है। इस वाक्य के माध्यम से हमें आध्यात्मिक विकास के उच्च स्तरों तक पहुँचने के लिए निरंतर प्रयास करने का आग्रह किया जाता है। जीवन का अर्थ है परिवर्तन। और मज़ेदार बात यह है कि अगर हम बेहतर के लिए नहीं बदल रहे हैं, तो हम बुरे के लिए बदल रहे हैं। इसलिए हमें अपने आध्यात्मिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और इसे प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए।
पुनर्जन्म का नाश करने वाला/ वेदान्त में मृत्यु कोई समस्या नहीं है। हम पुनर्जन्म से छुटकारा पाना चाहते हैं, क्योंकि हम उस दर्द, आघात और पीड़ा को समझते हैं जो दुनिया में होने का एक अंतर्निहित हिस्सा है। मृत्यु वह नहीं है जो हमें परेशान करती है। लेकिन आम बोलचाल में हम मृत्यु का शोक मनाते हैं और जन्म का जश्न मनाते हैं। अगर हम इसे वस्तुनिष्ठ रूप से देखें, तो यह जन्म ही है जो हमें सभी प्रकार की समस्याओं, दुख, तनाव और अवसाद के संपर्क में लाता है। हमें नहीं पता कि नवजात शिशु के जीवन में क्या खतरे छिपे हैं।
श्लोक में 'अमृत' शब्द का शाब्दिक अर्थ है बिना मृत्यु या मृत्यु के। मृत्युहीनता का अर्थ है जन्महीनता। दूसरे शब्दों में हम परिवर्तन से ऊपर उठते हैं, जो कि दुनिया का अभिन्न अंग है, ताकि हम बोध की उस अपरिवर्तनीय अवस्था को प्राप्त कर सकें। इसलिए 'अमृत' शब्द का प्रयोग किया गया है।
जब हम समझते हैं कि दुःख जीवन का एक अंतर्निहित पहलू है तो हम इससे मुक्ति चाहते हैं। जन्म और मृत्यु के इस अंतहीन चक्र से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका दोनों से परे जाना है। यह केवल आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर और अपनी इच्छाओं को मिटाकर ही किया जा सकता है। एक वेदांती मृत्यु से नहीं डरता, बल्कि पुनर्जन्म से बचने का प्रयास करता है, जन्म, विकास, रोग, क्षय और मृत्यु के चक्र में वापस जाने से। हमें मृत्यु पर विजय पाने का प्रयास करना चाहिए, इससे पहले कि मृत्यु हमें जीत ले। गीता हमें जन्म और मृत्यु के इस दुष्चक्र को नष्ट करने में मदद करती है।
प्राचीन ऋषि व्यास द्वारा व्यवस्थित/भारत में प्राचीन काल में, अधिकांश लोग बचपन से ही वेदांत के माध्यम से जीवन के इन मौलिक सत्यों से परिचित होने के कारण बुद्धिमान हो गए थे। और युवा पीढ़ी वरिष्ठों को रोल मॉडल के रूप में देखती थी।महान ऋषि व्यास को सप्त ऋषियों में से एक माना जाता है, जो भारत के सात प्राचीन महान ऋषि हैं। यह एक और कारण है कि उन्हें प्राचीन ऋषि कहा जाता है।
18 अध्यायों में अद्वैत दर्शन का अमृत बरसाया गया है, जिसे स्वयं भगवान नारायण ने पार्थ को सिखाया था। इसमें स्वयं नारायण पर जोर दिया गया है - स्वयं भगवान। भगवान का पुत्र या भगवान का दूत नहीं, बल्कि स्वयं भगवान! कृष्ण एक अवतार थे, जन्मजात आत्मज्ञानी। उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, इसलिए स्वयं नारायण कहा जाता है। यह इस बात का संकेत है कि उन्होंने अपने अनुभव से दिव्यता की बात कही, न कि अकादमिक प्रतिभा से। जब कोई अपने अनुभव और दृढ़ विश्वास से बोलता है, तो उसके शब्द का अधिक महत्व होता है।
वेदांत या अद्वैत दर्शन को अमृत के समान माना जाता है क्योंकि वेदांत के सिद्धांतों का अध्ययन मोहक है। इतना ही नहीं, इन सिद्धांतों को जीने से मिलने वाले परिणाम और भी मधुर और अधिक उत्साहजनक होते हैं। यही कारण है कि गुरुओं ने अनादि काल से कहा है कि वेदांत एक ऐसा दर्शन है जिसे हमारे दैनिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए। यह हमारे जीवन में वह मिठास जोड़ता है जिसकी हम इतनी उत्सुकता से तलाश करते हैं और इसकी खोज हमें अनंत की स्थिति तक ले जाती है।
Om! O Bhagavad-Gita – with which Partha (Arjuna) was enlightened by the Lord Narayana Himself and which was incorporated in the Mahabharata by the ancient sage Vyasa – the blessed Mother, the Destroyer of rebirth, showering down the nectar Advaita, and consisting of eighteen chapters – upon Thee O Bhagavad-Gita! O loving Mother! I meditate.
ॐ! हे जननी भगवद्गीते - जिससे पार्थ (अर्जुन) को स्वयं भगवान नारायण ने ज्ञान दिया था और जिसे प्राचीन ऋषि व्यास ने महाभारत में सम्मिलित किया था - वह धन्य माता, पुनर्जन्म का नाश करने वाली, अद्वैत अमृत की वर्षा करने वाली, तथा अठारह अध्यायों वाली - हे भगवती ! हे प्रेममयी माता! मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ।
ॐ ! हे भगवद गीता - जिससे पार्थ (अर्जुन) स्वयं भगवान नारायण द्वारा प्रबुद्ध हुए थे और प्राचीन ऋषि व्यास द्वारा महाभारत में प्रतिष्ठापित किए गए थे - धन्य माँ, पुनर्जन्म का नाश करने वाली, अमृत अद्वैत की वर्षा करने वाली, और अठारह अध्यायों से युक्त - हे भगवद-गीता! हे प्यारी माँ! मैं आपका ध्यान करता हूं.
नमः सुतेव्यस विषालबुद्धे
फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।
येन त्वया भारततैलपूर्णः
प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः॥ २॥
Salutation to Thee, O Vyasa, of mighty intellect and with eyes large like the petals of a full-blown lotus by whom was lighted the lamp of wisdom, full of the Mahabharata-oil.
हे महान बुद्धि वाले और पूर्णतः खिले हुए कमल की पंखुड़ियों के समान विशाल नेत्रों वाले गुरु व्यासदेव जी महाराज , आपको नमस्कार है, क्योंकि आपके द्वारा महाभारत रूपी तेल से यह ज्ञानमय प्रदीप प्रज्ज्वलित हुआ है। २।
प्रपन्न पारिजाताय तोत्रवेत्रैकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः॥ ३॥
Salutation to Krishna! The Holder of Gyanamudra, granter of desires of those who take refuge in Him, the milker of the Gita-nectar, in whose hand is the cane for driving cows.
जो जगतगुरु भगवान श्रीकृष्ण जी / (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव जी / शरणागतों के लिए गुरु-शिष्य परम्परा का पालन करने वालों के लिए) पारिजात-वृक्ष /कल्प-वृक्ष के समान हैं, अर्जुन के रथ के घोड़ों को हाँकने के लिए जिनके हाथ में वेत्र-दण्ड है और जो ज्ञान-मुद्रा से युक्त हैं , गीतारूपी अमृत का दोहन करने वाले उन्हीं भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार है।
All the Upanishads are the cows, the Son of the cowherd is the milker, Partha is the calf, man of purified intellect are the drinkers and the supreme nectar Gita is the milk.
समस्त उपनिषद् गाय के समान हैं, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दूध दुहने वाले ग्वाले हैं, पार्थ बछड़े के समान है, और गीता की अमृतरूप उपदेश [या भगवान के वचनामृत] उत्तम दूध [टोन्ड अमूल मोती दूध] के समान है , जिसका पान सुधिजन ही कर पाते हैं।४।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ५॥
I salute Krishna, the Guru of the Universe, God, the son of Vasudeva, the Destroyer of Kamsa and Chanura, the supreme bliss of Devaki.
वसुदेव के पुत्र, कंस और चाणूर दैत्यों के विनाशक, माता देवकी को परम-आनन्द देने वाले , जगतगुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं चरण-वंदना करता हूँ।
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गांधारनीलोत्पला
शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला।
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशवः॥ ६॥
The battle-river – with Bhishma and Drona as its banks, and Jayadratha as the water, with the king of Gandhara as the blue water-lily, and Shalya as the shark, with Kripa as the current and Karna as the breakers, with Ashwatthama and Vikarna as terrible Makaras and Duryodhana as the whirlpool in it – was indeed crossed over by the Pandavas, with Keshava as the ferryman.
युद्ध रूप नदी के भीष्म और द्रोण दो तीर (किनारे) हैं, और जयद्रथ जिसका जल है, गांधारी के पुत्र जिसमें नीलकमल के समान हैं , और शल्य जिसमें घड़ियाल है, जिसमें कृपाचार्य प्रबल प्रवाह , कर्ण रेतीली भूमि तथा अश्वत्थामा और विकर्ण भयंकर अतिभयंकर मगर हैं, दुर्योधन जिसके जल में भँवर हैं- उस भयंकर नदी में अपनी नौका के कर्णधार (माँझी-केवट ) के रूप में केशव को पाकर पाण्डव लोग उस पार जा सके थे। ६।
पाराशर्यवचः सरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं
नानाख्यानककेसरं हरिकथासम्बोधनाबोधितम्।
लोके सज्जनषट्पदैरहरहः पेपीयमानं मुदा
भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमलप्रध्वंसि नः श्रेयसे॥ ७॥
May the taintless lotus of the Mahabharata – growing on the waters of the words of Parashara’s son, having the Gita as its strong sweet fragrance, with many a narrative on Hari and drunk joyously day after day by the Bhramara of the good and the pure in the world – be productive of the supreme good to him who is eager to destroy the taint of Kali (Kaliyug)!
कलियुग के कलुष का विनाशक है - गीता के उपदेश रूप सुगन्धि से युक्त , अनेक प्रकार के उपाख्यान रूप केशर वाले, श्रीकृष्ण की वाणी के द्वारा खिला हुआ, संसार के सत्पुरुषों और पवित्र पुरुषों रूप भ्रमरों के द्वारा सदा आनंदपूर्वक मधुपान किये जाने वाले , ऋषि पराशर के पुत्र भगवान वेदव्यास के वाणी रूप सरोवर में उत्पन्न महाभारत रूप कमल हमारे कल्याण का कारण बने। ७।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥ ८॥
I salute that All-bliss Madhava whose compassion makes the mute eloquent and the cripple cross mountains.
जिनकी कृपा से गूँगा बोलने लगता है , और अपंग भी पर्वत लाँघ जाता है , उन परमानंदमय माधव की मैं वन्दना करता हूँ ।
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ॥ ९॥
Salutations to that God whom the Creator Brahma, Varuna, Indra, Rudra, and the Maruts praise with divine hymns; Whom the singers of Sama sing, by the Vedas, with their full complement of parts, consecutive sections, and Upanishads; Whom the Yogis see with their minds absorbed in Him through perfection in meditation, and Whose limit the hosts of Devas and Asuras know not.
ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुतगण दिव्य स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं; सामवेद -गायक लोग वेदांग, पदक्रम और उपनिषदों के साथ जिनकी महिमा का गान करते हैं , योगी लोग ध्यान में तल्लीन होकर जिनका दर्शन करते हैं तथा देव और असुरगण भी जिनका अन्त नहीं जानते , उन परम देवता (100 % निःस्वार्थपर) भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।
श्रीमद्भगवत्गीता का ध्यान समाप्त हुआ।
गीता ध्यान श्लोक – श्लोक 1 का 9 —– श्रीमती जया रो द्वारा
हे शिव आप जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैं, पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं, गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैं, जिनकी जटाजूट में गंगा जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ ।।1।।
हे महेश्वर, सुरेश्वर, देवों के भी दु:खों का नाश करने वाले विभुं विश्वनाथ आप विभुति धारण करने वाले हैं, सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन नेत्र के सामान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ ।।2।।
हे शिव आप जो कैलाशपति हैं, गणों के स्वामी, नीलकंठ हैं, धर्म स्वरूप वृष बैल की सवारी करते हैं, अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं, प्रकाश पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत हैं, जो भवानिपति हैं, उन पञ्चमुख प्रभु को मैं भजता हूँ ।।3।।
हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं। हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ।।4।।
हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप इक्षारहित, निराकार एवं ॐकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जान जा सकता है। आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति होती है, आपही उसका पालन करते हैं तथा अंतत: उसका आप में ही लय हो जाता है। हे प्रभू मैं आपको भजता हूँ ।।5।।
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीड।6।
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायु,
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा ।
न चोष्णं न शीतं न देशो न वेषो,
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ॥ 6
जो न भुमि हैं, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश, – अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, गृष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे निराकार त्रिमुर्ति मैं आपकी स्तुति करता हूँ ।।6।।
हे अजन्मे (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनो अवस्ताओं से परे हैं। हे आनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है ।।7।।
हे विभो, हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार है ।।8।।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्य:।9।
हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ ! हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे ! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है ।।9।।
हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय ! हे शूलपाणे ! हे गौरीपति! हे पशुपति ! हे काशीपति ! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय आप ही इस जगत के उत्तपत्ति, पालन एवं संहार के कारण हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं ।।10।।
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन।11।
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे,
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्र्वनाथ ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश,
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्र्वरूपिन् ॥11.
हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंगस्वरूप से ही सम्पुर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्तपत्ती होती है), हे शंकर ! हे विश्वनाथ अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है – अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पुर्ण श्रृष्टी आप में ही लय हो जाती है ।।11।।