इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
भावार्थ: देह धारण करने का दंड–भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए, दुखी मन से सब कुछ झेलता है।”
भाव - यह है कि अज्ञानी दुःख की वेदना से व्यथित होता है और ज्ञानी (आत्मज्ञानी जिन्होंने इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य को सीख लिया है) उसे सहजता से स्वीकार कर लेता है ।
[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-परिच्छेद 122]
“लक्ष्मण ने कहा था, ‘हे राम, वशिष्ठदेव जैसे पुरुष को भी पुत्रों का शोक हो रहा है ।’ राम ने कहा, ‘भाई, जिसमें ज्ञान है उसमें अज्ञान भी है । जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । इसलिए ज्ञान और अज्ञान से परे हो जाओ ।’ ईश्वर को विशेष रूप से जान लेने पर [ईश्वर के नाम को गुरु-शिष्य परम्परा जान लेने पर] यह अवस्था प्राप्त हो जाती है । इसे ही विज्ञान कहते हैं ।
“पैर में काँटा चुभ जाने से, उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आना पड़ता है । निकालने के बाद फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । ज्ञानरूपी काँटे से अज्ञानरूपी काँटा निकालकर, ज्ञान और अज्ञानरूपी दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं ।
"Lakshmana said, 'O Rama, even a sage like Vasishthadeva was overcome with grief on account of the death of his sons!' 'Brother,' replied Rama, 'whoever has knowledge has ignorance also.(आत्मज्ञान -इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान मन या अहं को नहीं होता -आत्मा को ही परमात्मा के साथ एकत्व की अनुभूति होती है।) Whoever is conscious of light is also conscious of darkness. Therefore go beyond knowledge and ignorance.' One attains that state through an intimate knowledge of God. This knowledge is called vijnana.
"When a thorn enters the sole of your foot you have to get another thorn. You then remove the first thorn with the help of the second. Afterward, you throw away both. Likewise, after removing the thorn of ignorance with the help of the thorn of knowledge, you should throw away the thorns of both knowledge and ignorance."
डाक्टर - और एक बात कहूँगा, आप फिर मुझसे ऐसा क्यों कहते हैं- कि रोग अच्छा कर दो ?
DOCTOR: "Let me ask you something. Why do you ask me to cure your illness?"
श्रीरामकृष्ण - जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है । सोचो, एक महासमुद्र है, ऊपर-नीचे जल से पूर्ण है । उसके भीतर एक घट है । घट के भीतर बाहर पानी है; परन्तु उसे बिना फोड़े यथार्थ में एकाकार नहीं होता । उन्हीं ने इस ‘मैं’ – घट को रख छोड़ा है ।
MASTER: "I talk that way as long as I am conscious of the 'jar' of the 'ego'. Think of a vast ocean filled with water on all sides. A jar is immersed in it. There is water both inside and outside the jar; but the water does not become one unless the jar is broken. It is God who has kept this 'jar' of the 'ego' in me."
डाक्टर - तो यह ‘मैं’ जो आप कह रहे हैं, यह सब क्या है ? इसका भी तो अर्थ कहना होगा । क्या वे (ईश्वर) हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं ?
DOCTOR: "What is the meaning of 'ego' and all that you are talking about? You must explain it to me. Do you mean to say that God is playing tricks on us?"
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इस ‘मैं’ को उन्हीं ने रख छोड़ा है । उनकी क्रीड़ा – उनकी लीला !“एक राजा के चार लड़के थे । सब थे तो राजा के लड़के, परन्तु उन्हीं में कोई मन्त्री, कोई कोतवाल, इसी तरह बन-बनकर खेल रहे थे । राजकुमार (सिंह-शावक, राजा के लड़के) होकर कोतवाल का खेल !
MASTER (smiling): "It is God who has kept this 'ego' in us. All this is His play, His Lila. A king has four sons. They are all princes; but when they play, one becomes a minister, another a police officer, and so on. Though a prince, he plays as a police officer.
(डाक्टर से) “सुनो, यदि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार हो जाय तो यह सब तुम मानने लग जाओगे । उनके दर्शन से सब संशय दूर हो जाते हैं ।
(To the doctor) "Listen. If you realize Atman you will see the truth of all I have said. All doubts disappear after the vision of God."
[Jnanadayini Sri Sarada Devi, by Swami Shuddhidananda (in Hindi) स्वामी शुद्धिदानंद द्वारा (हिन्दी में) ]
अद्भुत शक्ति- परमेश शक्ति !
(5.06) मनुष्य- जीवन एकमात्र प्रधान उद्देश्य है- ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना ! ईश्वर -प्राप्ति , भगवत-प्राप्ति, ईश्वर लाभ आदि शब्द हमारे शास्त्रों में हैं। इन सारे शब्दों का मूल तात्पर्य एक ही है , वो है अपने स्वरुप का ज्ञान। आत्मा का ज्ञान ! मूलतः हम कौन हैं ? यही प्रश्न है। उपनिषद इस प्रश्न को हर मनुष्य के सामने रखती है। मैं स्वरूपतः कौन हूँ ? यह जिज्ञासा हमारे अंदर होनी चाहिए। इस जिज्ञासा की अंतिम परिणति है - वो होगा आत्मज्ञान ! अपने आप को जानना , अपने सत्य स्वरुप को पहचानना। हमारा सत्यस्वरूप क्या है ? उस सत्यस्वरूप का कोई अपना नाम नहीं है, न कोई रूप है , लेकिन उसे इंगित करने के लिए उपनिषद उसे ब्रह्म (सच्चिदानन्द-सत, चित -आनन्द) कहते हैं। वह एक ऐसी सत्ता है जो इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का अधिष्ठान रूप या आधार रूप (सिनेमा का पर्दा जैसा ?) है। हमारी आँखों से यहाँ जो दृश्य दिखाई दे रहा है, वो सतत परिवर्तनशील (नश्वर) प्रकार का है। अब उसमें क्या सत्य है -क्या शाश्वत या अविनाशी है , यही खोज है। इस समय मुझे ये शरीर-मन सत्य सा प्रतीत हो रहा है , लेकिन वह सत्य अपने वास्तविक रूप में क्या है ? जब हम इस विचार करते हैं तो चित्र धीरे धीरे बदलने लगता है।[सन्यासियों का मरने के पहले या गृहस्थ का मरने के बाद में जो श्राद्ध होता है वो , अहं (कच्चा मैं) का होता है, 'पक्का मैं' का नहीं होता। ईश्वर का दर्शन करने के बाद जो मैं ईश्वर रख देते हैं - उसे पक्का मैं कहते हैं।] और उपनिषद के शब्द (4 महावाक्य) हमको समझ में आने लगते हैं। वो अधिष्ठान रूपी सत्ता (ब्रह्म) क्या है ? सत्, चित् -आनंद ! एक मेवा द्वितीय ब्रह्म ! जो कि शाश्वत वस्तु है, अविनाशी है, जो मृत्यु-ग्रस्त नहीं है-जो आनंद स्वरुप है (8.26 m) ! ये हमारा स्वभाव है , यही हमारा सत्यस्वरूप है। उपनिषद कहती है -वो एक ही है , उससे भिन्न कुछ भी विद्यमान नहीं है। उपनिषद धीरे धीरे हमारे समक्ष एक बड़ा प्रश्न रख रहा है, वो कहती है उस ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी विद्यमान नहीं है। तो फिर, इतनी विविधताओं से भरी ये जो विश्वप्रपंच हमलोग अनुभव कर रहे हैं , वो कहाँ से आया ? (9.02) इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? अगर ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है , तो फिर ये विश्व-प्रपंच क्या है ? ये जो 'जीव मैं' है - BKS, या आप लोगों का जो भी नाम होगा , M/F हैं , अनेक प्रकार के प्राणी हैं , पेड़-पौधे हैं, आकाश में घूमने वाले इतने सारे गोल-गोल गोले हैं , सूर्य-चन्द्रमा हैं -ये सब क्या हैं ? इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई ? यही आज का मुख्य विषय कैसे है ? आप लोग सोचते होंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ कि यही आज का मुख्य विषय है ? हम जिस आध्यात्मिक विभूति - माँ श्री सारदा देवी की बात करने जा रहे हैं, वह इसके साथ घनिष्ट रूप से सम्बन्धित है। ये जो एकमेवा द्वितीय ब्रह्म - जिसकी हम चर्चा कर रहे थे , यहाँ उपनिषद के ऋषिगण डंके की चोट पर कहते हैं कि उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं विद्यमान नहीं है। विद्यमान सा प्रतीत हो रहा है किन्तु वास्तविक रूप में एक भी विद्यमान नहीं है। और उसका ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य जीवन का प्रधान उद्देश्य है। ये जो एकमेवा द्वितीय ब्रह्म है , वो हमको फिर कैसे इस विविधता-युक्त जगत के रूप में हमको दिखाई देने लगता है ? ये प्रश्न है। तो इसके ऊपर ऋषियों की अनुभूति है, कि वह एक अद्भुत शक्ति है, यह शक्ति ही है जोकि एकमेवा द्वितीय ब्रह्म का, जिससे भिन्न कुछ न होते हुए भी, द्वितीय सा एक चित्र (सिनेमा) हमारे सामने प्रस्तुत करती है ! यह शक्ति का खेल है (लीला -राज्य है ?) जहाँ पर द्वितीय (पीदा) न होते हुए भी हमको ये जगत रूपी द्वितीय वस्तु (रनेनदीप) की प्रतीति हमें करा करके देती है। अच्छा ये शक्ति क्या है ? अद्भुत शक्ति जो ब्रह्म में जगत प्रपंच प्रस्तुत करती है, वह शक्ति क्या है ?ये किसकी शक्ति है ? ये ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। आचार्य शंकर अपनी अद्भुत रचनाओं में कहते हैं - ये परमेश शक्ति है, ये परमात्मा की अपनी शक्ति है।
अनादी अविद्या परमेश्वर कि त्रिगुणात्मक अव्यक्त शक्ति है। (सर्व निर्माण) कार्य कि वह कारण होनेसे श्रेष्ठ है। बुद्धिमान पुरुष कार्य देखकर उसका अनुमान करते है, ऐसी है यह माया ! जिसके कारण चर-अचर जगत् निर्माण होता है।
ये जो सारा विश्व-प्रपंच है इसकी प्रसूति - इसका जन्म , जैसे कोई माता अपने गर्भ से बच्चे का प्रसव कराती है। उसी प्रकार इस विश्व -प्रपंच की प्रसूति इसका उद्गम स्थान क्या है ? वह है परमेश शक्ति -परमात्मा की शक्ति जिसके गर्भ से यह सारा विश्व प्रपंच - आप , मैं, हमसब, यहाँ पर चर-अचर जितने प्राणी हैं , पर्द-पौधे , विश्व -ब्रह्माण्ड की प्रसूति -इस शक्ति के माध्यम से होता है। परमात्मा की अपनी शक्ति -परमेश शक्ति।
परमेश शक्ति का विशेष अवतरण हैं - जगतजननी माँ श्री सारदा देवी , जो ज्ञान दायिनी हैं। सरस्वती हैं वे कौन सा ज्ञान देती हैं ? एकेडमिक नॉलेज भी अपरा विद्या है -चारों वेद, वेदांग, शिक्षा ,निरुक्त ,व्याकरण सब को मुण्डक उपनिषद में अविद्या या अपरा विद्या कहा है।
अपरा विद्या है -जो कुछ ज्ञान हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं -वो सब अपरा विद्या है - जिसको शंकर अविद्या ही कहते हैं ! ये सब निम्नस्तर का ज्ञान है। शाब्दिक ज्ञान -जो शब्दों से उत्पन्न होता है। मन के चहारदीवारी के अन्तर्गत जो ज्ञान होगा, वह सब अपरा विद्या के अन्तर्गत है। इससे भिन्न उच्च स्तर का ज्ञान वो होता है जो मन से परे है -अतीन्द्रिय या जो एक विशिष्ट स्थिति-अवस्था में पहुँचने पर इन्द्रियातीत वस्तु,आत्मा का ज्ञान होता है। आत्मा के साक्षात्कार को ही परा विद्या या उच्च स्तर का ज्ञान कहा जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि मैं माँ सारदा देवी के परमेश शक्ति का विशिष्ट अवतरण का उल्लेख करता हुए , इन्द्रियातीत ज्ञान की बात क्यों कर रहा हूँ ? बहुत महत्वपूर्ण बात है , श्रीरामकृष्ण कहते हैं माँ सारदा ज्ञान दायिनी हैं ! ज्ञान देनेवाली हैं - माँ सारदा देवीकिस प्रकार का ज्ञान देती हैं ? ये हमें परा विद्या या इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान देने वाली हैं। ये जो उच्च स्तर का ज्ञान -आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार कराने की विद्या देने वाली हैं।
इस आत्मज्ञान का मनुष्य-जीवन में महत्व क्या है ? इसको भी समझ लेना चाहिए। हम अपनी इन्द्रियों से जिस विश्व-प्रपंच को देख रहे हैं वो असत्य या मिथ्या है इसलिए हमलोगों को अपनी पढ़ाई-लिखे , बिजनेस-व्यापार सब छोड़ देना चाहिए। (30.05) इस गलत फहमी में नहीं रहना है। पढ़ना -लिखना तो है ही किन्तु मनुष्य सिर्फ इतने मात्र का ही ज्ञान प्राप्त करके जीवन की पूर्णता या अपने अंतर्निहित देवत्व (100% निःस्वार्थपरता) की अभिव्यक्ति नहीं कर सकता। आप चाहे जितने प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर लीजिये लेकिन मनुष्य अपूर्ण का अपूर्ण ही रहता है। मनुष्य मात्र के जीवन में दुःख-कष्ट चलता ही रहता है, उसके जीवन में जो कठिनाइयाँ हैं -जो हमारे मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। सभी के जीवन नदियों के प्रवाह के समान ये दुःख-कष्ट निरंतर बह रहा है। ऐसा कौन सा जीवन है जो दुःख-कष्ट से मुक्त हो ? आपके पास जितना भी धन-सम्पत्ति हो , जितना जमीन-जायदाद बढ़ाना चाहते हों , सब प्राप्त कर लीजिये। लेकिन आत्मा के ज्ञान के बिना व्यक्ति उतना ही अपूर्ण है - जितना कोई निरक्षर -मूर्ख (पशु-मनुष्य-देवत्व में उन्नत नहीं) व्यक्ति है। उसके अंदर पूर्णत्व (देवत्व-(100% निःस्वार्थपरता का भाव) तब आएगा जब वो अपने -आप को जानेगा। अपने सत्यस्वरुप को पहचान लेगा। वह आत्मज्ञान ही मनुष्य को दुःख-कष्ट से मुक्त कराती हैं। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या है ? (चार पुरुषार्थ वाली मुक्ति या मोक्ष, या भेंड़त्व के सम्मोहन से मुक्ति !)
मोक्ष किससे ? ये जो अनात्मा का बंधन है , सांसारिक बंधन है - तीनों ऐषणाओं में मन अटका पड़ा है। हम अपने आप को जो एक छोटे से शरीर (M/F) से बंधे हुए पाते हैं। और 3K (कामिनी-कांचन -कीर्ति )-या मोह निद्रा से जाग नहीं पाते हैं। प्रश्न है कि क्या हम सिर्फ अपने छोटे शरीर तक ही सीमित हैं क्या ? इस बारे में कभी सोचा है आपने ? आत्मनिरीक्षण या आत्मचिंतन कभी करते हैं क्या ? जिस दिन आप इस विषय पर सोचना शुरू कर देंगे , आपका मुक्ति -मार्ग जो प्रस्थान करना है , उसी दिन से वह शुरू हो गया। प्रश्न ये है कि यह जो देह-मन-इन्द्रियों का एक जो छोटा सा संघात - (M/F) शरीर है , हमारी वास्तविक पहचान क्या इस स्त्री- या पुरुष शरीर तक ही केंद्रित है ? हमारी गिद्ध-दृष्टि केवल स्त्री-पुरुष शरीर की विशेषताओं को ही क्यों देखना चाहती है ? क्या मनुष्य सिर्फ छोटे शरीर तक ही सीमित है ? इस संकीर्ण-क्षुद्र दृष्टि से मुक्ति पाकर इसे ज्ञानमयी दृष्टि बनाकर -जगत को राममय देखना नहीं शुरू नहीं करते , रामायण पढ़ते हैं , किन्तु रामचरित को अपनाते नहीं हैं तब तक मनुष्य दुःख कष्ट से मुक्त नहीं हो सकता।
इसीलिए - (32.24) आपलोग आरती में गाते हैंउसके प्रथम तीन शब्द पर कभी ध्यान दिया है? अगर इसी तीन शब्द--'खण्डन भव बन्धन' को समझ लिया जाय तो, आपको पूरी आरती गाने की जरूरत नहीं होगी। प्रथम तीन शब्द में सारी कहानी छिपी हुई है। इस भव-बन्धन का खण्डन करना ही मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है ! लेकिन इस बन्धन का खण्डन होगा कैसे ? सोच के देखिये क्या कह रहे हैं ? पहले तो यह समझना होगा कि यह भव-बंधन क्या है ? हम किस बंधन में बँधे हुए हैं ? इस बन्धन को काटकर जाल से निकल जाना ही मनुष्य जीवन का प्राथमिक या प्रथम कर्तव्य है। लेकिन इस बन्धन का खण्डन होगा कैसे ?इस भव-बंधन का खण्डन तब होगा जब आत्मा का ज्ञान हमें प्राप्त होगा ! (हमें ? अर्थात मिथ्या अहं को या आत्मा -पक्का मैं ?को प्राप्त होगा?) मनुष्य को आत्मा का ज्ञान प्रदान करने वाली वो शक्ति कौन हैं ? वही जो परमेश-शक्ति हैं , परमात्मा की शक्ति हैं - वही इस बार इस माँ सारदा देवी के नाम-रूप में इस बार बंगाल की पुण्य धरती जयरामवाटी में अवतरित हुई हैं। इसलिए अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव कहते हैं -अरे वो तो माँ सारदा हैं - सरस्वती हैं ! देखिये सारदा का मतलब ही सरस्वती है। जो विद्या के सार को प्रदान करने वाली हैं , वही माँ सारदा हैं। संस्कृत में 'दा' का मतलब देने वाला -वाली होता है। जो सार देती है , सार क्या है ? इस जीवन-प्रपंच में - विश्व-प्रपंच में सार -स्वरुप वस्तु क्या है ? कभी सोचा है इसके बारे में ? आपके इन्द्रियों से जो दिखाई देता है , रूप-रस-शब्द -गंध और स्पर्श उसमें सार वस्तु क्या है ? वह सबकुछ तो नश्वर है , परिवर्तनशील और क्षणभंगुर है। सबकुछ नष्ट हो रहा है , सबकुछ मृत्यु ग्रस्त है। सार कहाँ हैं ? आप इस M/F शरीर का जितना अधिक आलिंगन करते रहेंगे , उतना ही अधिक दुःख और कष्ट होगा ! दृष्टिगोचर जगत -प्रपंच का सारभूत वस्तु तो ब्रह्म (अधिष्ठान) ही है। ईश्वर ही एकम मात्र सारभूत वस्तु है। इसलिए उपनिषद और आचार्य शंकर कहते हैं - ब्रह्म सत्यं ! सत्य क्या है ? आत्मा , ब्रह्म , ईश्वर आपको जिस शब्द की धारणा हो आप उस शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। शब्द में कुछ नहीं है -एक वस्तु है जो शाश्वत वस्तु है। श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'भगवान ही एकमात्र वस्तु हैं ! यह आत्मा ही एकमात्र वस्तु है ! बाकि सब अवस्तु है !' वचनामृत में आप इस बात को बार बार देखेंगे। आत्मा ही एकमात्र वस्तु है , जो वास्तव में विद्यमान है। बाकि सब चलचित्र के जैसा पर्दे पर विद्यमान तो दिखाई दे रहा है , पर मैं आपसे पूछता हूँ -क्या विद्यमान है यहाँ पर ? सबकुछ बीत रहा है , चला जा रहा है। 'कालो न जातः वयमेव जातः ! ' विद्यमान क्या है ? आपका यह शरीर क्या विद्यमान है ? विद्यमान तो एक ब्रह्म या आत्मा ही है , उस विद्यमान शाश्वत वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना यही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। और उस ज्ञान को प्रदान करने के लिए -विशेष रूप से वह परमेश-शक्ति ही आज इस माँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं। इसलिए वे सारदा हैं। सार देने वाली-सरस्वती हैं ! वह ज्ञानदायिनी हैं ! (36.24)
ज्ञान प्रदान करने की दो प्रक्रियाएं हैं। धीरे धीरे हम इस विषय की गहराई प्रवेश कर रहे हैं। आपलोग जानते हैं कि आत्मा का ज्ञान अगर प्राप्त करना हो तो कुछ शर्तों का पालन करना पड़ता है। उन शर्तों को पूरा किये बिना ये ज्ञान प्राप्ति - या उस आत्मज्ञान में उसमें स्थिति ! सम्भव नहीं है। उन शर्तों को पूरा करना ही आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवन सिर्फ मंदिरों में जाना या -कर्मकांडी अनुष्ठान करना ही नहीं है। एक ऐसी जीवनशैली है जिसमें पूरा जीवन सम्मिलित है। एक विशिष्ट्प्रकार का जीवन जो आत्म केंद्रित हो, ईश्वर केंद्रित हो। जिसमें यह संसार नश्वर है , क्षणभंगुर है , यह दुःख दायी है।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।महात्मालोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय और अशाश्वत पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते; क्योंकि वे परमसिद्धि को प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेम की प्राप्ति हो गयी है।
अतः जीवन का लक्ष्य पुनर्जन्म का अभाव होना चाहिए। पुनर्जन्म का स्वप्न और उसके अपरिहार्य कष्ट मिथ्या अहंकार आदि जीव को ही होते हैं। अजन्मा आत्मा ही जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से जीवभाव को प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्तःकरण की उपाधि से विशिष्ट अथवा परिच्छिन्न आत्मा ही जीव कहलाता है उसको ही जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मृत्यु के सम्पूर्ण दुःख और कष्ट सहने होते हैं। उपाधि के लय होने पर अर्थात् उससे हुए तादात्म्य के निवृत्त होने पर जीव अनुभव करता है कि वह स्वयं ही चैतन्य स्वरूप आत्मा है।
आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसका मन और बुद्धि से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। जैसै जाग्रत् पुरुष का स्वप्न में देखे हुए पत्नी और पुत्रों से कोई सम्बन्ध नहीं होता ठीक वैसे हीआत्मस्वरूप के प्रति जाग्रत् होने पर अहंकार (जीव) अपने दुःखपूर्ण परिच्छिन्न जीवन के साथ ही समाप्त हो जाता है। तत्पश्चात् वह पुनः किसी देह विशेष में जन्म लेकर परिच्छिन्न विषयों में अनन्त सुख की व्यर्थ खोज नहीं करता।]
कितने ही प्रकार से श्रीकृष्ण गीता में बताते रहते हैं - इस संसार में आसक्ति का त्याग कर दो , इसमें सिर्फ दुःख है। इस संसार में सुख का एक बूँद भी नहीं है। सुनने में थोड़ा कठिन लगेगा , और इसको मानने या इसका पालन करने में और भी कठिन लगेगा। यहाँ पर जितने भी लोग हैं सभी सुख के पीछे दौड़ रहे हैं। लेकिन हम जानते नहीं कि वास्तविक सुख कहाँ है ? यदि हम जान जाएँ की इस संसार में सुख का एक बूँद भी नहीं है , तब हमारा दृष्टिकोण , हमरे दृष्टि की जो दिशा है - पूर्णतः बदल जाती है।
सुख कहाँ है ? जहाँ एक बूँद पानी नहीं है - वहाँ पर (मृगमरीचिका में) हमलोग पानी खोज रहे हैं। और हमलोग प्यासे के प्यासे ही रह जाते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है , तब प्यास में ही जन्म लेता है , और प्यास से ही उसकी मृत्यु भी होती है। ये प्यास बुझेगी कैसे ? 'करतल भिक्षा तरुतल वास:। तदपि न मुंचति आशा पाश:।।' मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा-बन्ध नहीं त्याग पाता है। बाल उड जाते है,दन्त पन्क्तिया उखड जाती है,डन्डे के सहारे चलने लगता है,फिर भी इंसान आशाओ के पाश से नही निकलता। भज गोविदं , भज गोविन्दं मूढ़ मते। भज गोविन्दं का मतलब और कुछ नहीं - केवल आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो ! आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो। समय बीत रहा है - मृत्यु दहलीज पर खड़ी हुई है। कब मृत्यु आएगी यह कोई नहीं जानता। अंतिम घड़ी आने से पहले अपने जीवन का सदुपयोग कर लीजिये। आत्मज्ञान की प्राप्ति और स्थिति में इसको लगाइये। इस आत्मज्ञान की प्राप्ति (स्थिति) में सबसे बड़ा शर्त क्या है ? हमारे मन की जो अशुद्धियाँ है - उसको दूर किये बगैर इस आत्मा के ज्ञान में स्थित रहना सम्भव नहीं है। जगत के इन्द्रिय-भोगवस्तुओं के प्रति हमारी जितनी भी कामनाएं हैं , वासनाएं हैं - ऐषणाओं में जो आसक्ति है , हम इस भौतिक जगत से जो चिपके हुए हैं। आसक्ति का मतलब कुछ और नहीं है - जगत से चिपकना मना है। मैं अक्सर कहता हूँ - गीता का मूल सार है - चिपकना मना है ! The essence of the Gita is - clinging is prohibited ! इस नश्वर, अशाश्वत विश्व-प्रपंच से चिपकिये मत। (40.25) अगर चिपकिये गा तो फिर दुःख ही पाइयेगा। अनासक्त होकरके इसको बहुत ही बुद्धि पूर्वक -जीवन यापन करना -यही भगवत गीता हमें सिखाती है। मन शुद्ध और पवित्र हुए बगैर आत्मज्ञान की प्राप्ति या उसमें स्थिति सम्भव नहीं है। तो ये ज्ञानदायिनी जो माँ सारदा है - उनके जीवनी को देखिये। हमने पहले वेदान्त के कुछ मुख्य सिद्धांतों को समझा , अब उसी दृष्टि से माँ सारदा की जीवनी पढ़ने/देखने से समझ में आएगा कि वे जिस प्रकार ज्ञानदायिनी हैं , उसी प्रकार पापनाशिनी भी हैं। वे ऐसी आध्यात्मिक विभूति हैं कि उनके सम्पर्क में जो भी आए, वे उसके अंदर के दोषों को , उसके जो पाप हैं , उसको पहले खत्म करती है। और फिर उसके माध्यम से वे ज्ञान को प्रदान करती हैं ! ज्ञान प्रदान करने की उनकी यह अद्भुत प्रक्रिया है। यह अद्भुत प्रक्रिया हम माँ सारदा देवी के जीवन में देख पाते हैं।
कुछ घटनाओं को देखें -माँ जब जयराम बाटी में हुआ करती थीं। या कलकत्ते के बागबजार मायेर बाड़ी में हुआ करती थीं। तब लोगों की वहाँ लम्बी कतार लगती थी। उनको प्रणाम करने के लिए भक्तों की लम्बी कतार लगती थी। संसार में सब प्रकार के लोगों का प्रणाम माँ स्वीकार करती थीं। अच्छे लोग , धार्मिक लोग भी होते हैं , किन्तु कई प्रकार के दुराचरण करने वाले लोग भी उनको प्रणाम करने जाते थे। शास्त्र-निषिद्ध कर्म करने के बाद भी जो कोई माँ को प्रणाम करने आता था , वे माँ के चरण को स्पर्श करके प्रणाम करने आते थे। एक दिन जब माँ लोगों का प्रणाम स्वीकार कर रही थीं , तब वे बीच -बीच में उठकर के अपने पैरों को गंगाजल से धो रही थीं। तो उनके पास उनकी जो शिष्या थीं , उन्होंने पूछा कि आप बार बार अपने पैरों को गंगाजल से क्यों धो रही हैं ? क्या करूँ बेटी कितने ही प्रकार के लोग आते हैं - और मुझे स्पर्श करते हैं। और उनके स्पर्श से मेरे पुरे शरीर में आग सी लग जाती है , मेरा शरीर जलने लगता है। इसीलिए कि हम उन्हें माँ कहते हैं , उनके माँ के रूप को देख रहे हैं। ये केवल इसी रूप की बात नहीं है - वास्तव में ही परमेश शक्ति हैं। यह ब्रह्म की अपनी शक्ति है , जो एक विशेष उद्देश्य से उसका जब अवतरण होता है , मनुष्य के कल्याण के लिए इसी प्रकार वो काम करती हैं। वो परमेश शक्ति क्या कर रही हैं ? सब लोगों के पाप को ले रही हैं। और उनको पापमुक्त कर रही हैं ! पापमुक्त करके उसको ज्ञान के लिए प्रस्तुत कर रही हैं। आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य बना रही हैं। यह है माँ सारदा देवी के ज्ञान देने की अद्भुत प्रक्रिया। हमें ठाकुर , माँ स्वामीजी को बेलपत्र की तरह ही एक में तीन मानना चाहिए। स्वामीजी या ठाकुर कोई माँ से अलग नहीं हैं -किन्तु परमेश शक्ति को समझने में सुविधा हो इसलिए कहते हैं। (44. 48) हम कहानियाँ गढ़ते हैं , लेकिन तत्व तो तत्व ही होता है। कहानी -कहानी होती है। लेकिन हम कह सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण भी इस प्रकार अपने चरण स्पर्श करने की अनुमति नहीं देते थे। ठाकुर बड़े सल्केटिव थे -चूजी थे। कुछ लोग ही उनके चरणों का स्पर्श कर सकते थे। लेकिन श्रीमाँ कभी भी किसी को नकारती नहीं थीं। चाहे वो कितना भी गिरा व्यक्ति क्यों न हो , कितना भी पापी हो उसको स्वीकार करती थी। यह उनका अनोखा स्नेह था अपने संतानों के प्रति , ठाकुर भी नहीं करते थे। लेकिन कोई कितना भी पापी हो कितना भी गलत काम किया हो , माँ सबको स्वीकार करती थीं , किसीको नहीं नहीं कहती थीं। ऐसी अद्भुत शक्ति माँ में थी। क्योंकि तात्विक दृष्टि से देखने पर वे वही परमेश शक्ति हैं- जिनसे यह समस्त जगत उत्पन्न हुआ है -यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति जहाँ से होती है , वही शक्ति माँ सारदा देवी के रूप में अवतरित हुई हैं। केवल वही यह काम कर सकती हैं , कोई साधारण व्यक्ति यह नहीं कर सकता।
दूसरा उदाहरण देखें कलकत्ते की एक महिला थी (46.27) तरुण अवस्था में उसकी मति भ्रष्ट हो गयी थी। वह महिलाओं के लिए जो अनुचित है -वैसे काम करने में लग गयी थी। जिसको हमलोग व्यभिचार कहते हैं -वैसा काम करने लगी थी। कई वर्षों के बाद वह जब अत्यंत दुःख और पश्चाताप से माँ के पास गयी थी। आज हमलोग मॉडर्न होने के नाम पर बहुत कुछ गलत करते हैं , खास कर युवा -युवती को इस पर ध्यान देना चाइये। आधुनिक बनने से बहुत सावधान रहिये। आधुनिक होने का मतलब यह नहीं है कि पशु जैसा स्वछन्द होकर जीवन यापन करने लगें। लज्जशीलता और विनम्रता , शिष्टाचार हर मनुष्य का सौंदर्य उसके लज्जाशीलता और विनम्रता में है। शारीरिक सौंदर्य नहीं , व्यक्ति का जो वास्तविक सौंदर्य है -उसके लज्जाशीलता और उसके शिष्टाचार में। आज हम पाश्चात्य विचार धारा और जीवनशैली से इतने प्रभावित हो गए हैं कि मोह में पड़कर उन्हीं की विचारधारा में - लिविंग रिलेशन में बहने लग गए हैं। उसीका परिणाम आज भारतवर्ष में दिखाई पड़ता है। ठाकुर कहते थे माँ सारदा देवी का एक और उद्देश्य था पूरे विश्व के सामने एक आदर्श नारी-जीवन का मॉडल प्रस्तुत करना। स्त्रियों का जीवन कैसा होना चाहिए इसको दिखाने के लिए भी श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा देवी का आविर्भाव हुआ था। एक आदर्श महिला के लिए लज्जाशीलता उसका गहना होता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - माँ सारदा की तुलना एक मात्र माँ जानकी की लज्जाशीलता से की जा सकती है। सीता इतिहास में एक ही हैं , उनके जैसी कोई दूसरी तो हुई ही नहीं। उसी सीता का द्वितीय रूप है माँ सारदा देवी। सीता , सारदा देवी या सावित्री देवी में हमें क्या देखने को मिलता है ?(49. 00) आज हमारा समाज इस आदर्श से कितना दूर निकल गया है -यह हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह है , खासकर युवा -युवतियों के लिए। हम लोग अभी उसी प्रकार एक महिला जो सतपथ से भटक गयी थी , और पशाताप की अग्नि में जल रही थी। क्योंकि उसको समझ में आया कि उसका जीवन व्यर्थ हो गया। वो माँ के दरवाजे पर खड़ी रहती है , अंदर नहीं आती। वह कहती है - हे माँ तुम बस एक बार अपने दरवाजे पर खड़ी हो जाओ , मुझे दर्शन दो ! मैं अंदर नहीं आ सकती , मेरी योग्यता नहीं है की कमरे के अंदर पैर भी रखूं। क्योंकि मैंने कुछ अनुचित काम कर दिया है। पश्चाताप के भाव से जब वो महिला दरवाजे के पास खड़ी थी , तो माँ सिर्फ दरवाजे पर ही नहीं आती , सीधे सीढ़ियों से उतरकर नीचे आती है जहाँ वह महिला खड़ी थी। उसके कंधे पर हाँथ रखकर उसको अपने कमरे के अंदर ले आती हैं। और सीधा कहती हैं - बेटी क्या तुम दीक्षा लोगी मुझसे ? देखिये माँ ज्ञानदायिनी हैं ! हम ज्ञानदायिनी माँ सारदा की बात कर रहे हैं। वह पापकर्म की अग्नि से प्रज्ज्वलित महिला के बारे माँ सबकुछ जानती हैं , बेटी आज तक जो गलती की है -अब दुबारा मत करना। मुझसे दीक्षा लो और इस मंत्र को जपो - ध्यान रखना कि अब तुम एक शिक्षक हो -पशु नहीं हो ! यह थी माँ सारदा के ज्ञान देने की प्रक्रिया। व्यक्ति के अन्तःकरण में पाप के जो संस्कार हैं, उसको पहले धोने की व्यवस्था करती थी। फिर उसको ज्ञान प्रदान करती थीं। इसीलिए माँ यदि ज्ञानदायिनी हैं , तो वे पाप नाशिनी भी हैं। क्योंकि पापों का विनाश कर हमारे अंदर स्वयं को M/F शरीर मानने का जो कुसंस्कार है , उन संस्कारों का नाश किये बगैर कोई भी व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थित होकर शिक्षक की भूमिका नहीं निभा सकता।
अतएव हमें भी यह सीखना है कि आज से हम भी बहुत सावधान रहें कि दुबारा कोई भूल न हो जाये ! हमेशा सतर्क हो कर देखें की हम क्या कर रहे हैं , और किस प्रकार के विचारों को सोंच रहे हैं। मन में यदि अशुद्ध विचार हो तो कोई भी व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थित शिक्षक नहीं बन सकता। इसलिए माँ सारदा देवी को पवित्रता स्वरूपिणी कहा गया है। ऐसी थी माँ सारदा कि उनको छूने से गंगा स्नान करने का प्रयोजन नहीं होता था।
(52.26) इसी प्रकार हम माँ के जीवन की एक और घटना देखते हैं। माँ रात -रात भर बैठकर जप किया करती थीं। माँ को जप करने की क्या जरूरत है ? आप -हम जप करेंगे , लेकिन जो स्वयं परमेश शक्ति हैं , इस माँ सारदा रूप में आयी हुई हैं , वह नींद को छोड़कर रात भर जप क्यों करती थीं ? उनके शिष्य ने पूछा आप क्यों जप कर रही है ? उनको जाप से क्या प्राप्त करना है ? क्या करूँ बेटे -जितने भी मुझसे दीक्षा लेने आते हैं , किन्तु दीक्षा के बाद जो कमसेकम जप करना है , वह भी नहीं करती हैं। उनका अमंगल न हो , इसीलिए मैं बैठकर जप करती हूँ। उनके जीवनमे अध्यात्म विकास में जो भी बाधाएँ हैं वो दूर हो जाएँ। सचमुच ज्ञान दायिनी सरस्वती हैं - कितने ही प्रकार से वह मुझ जैसे आप जैसे - जो साधारण दुर्बलता से युक्त मनुष्य हैं ! हमारे जीवन में एक परिवर्तन घटे ! क्या परिवर्तन ? हमारा मन और भी शुद्ध हो , और हम आत्मज्ञान के लिए योग्य होकर शिक्षक बने -इसके लिए माँ सतत प्रयत्नशील रहती थी। इस प्रकार से वो ज्ञान को प्रदान करती थीं। माँ के जीवन में तो घटनाओं का एक बाढ़ ही है।
और एक घटना बताकर अपने वक्तव्य को समाप्त करूँगा। (54.30) तीन ऐसे व्यक्ति राजा महाराज के पास गए थे। स्वामी ब्रह्मानंद जी से उन्होंने दीक्षा की प्रार्थना की। राजा महाराज उनको देखते ही पहचान गए कि तीनो अत्यंत ही गलत रास्ते पर चलने वाले लोग थे , जिनका जीवन सतपथ पर नहीं था। राजा महाराज ने उन्हें नकार दिया और दीक्षा देने से मना कर दिया। दीक्षा देने की हिम्मत नहीं थी ऐसा हम कह सकते हैं। क्योंकि दीक्षा अगर देना हो तो सारा पाप का भार भी लेना पड़ता है। ये मूल सिद्धांत है , इसके लिए बहुत बड़ी क्षमता की जरूरत होती है। उन्होंने उन तीनो को माँ के पास जयराम बाटी भेज दिया। इनको सिर्फ माँ ही स्वीकार कर सकती है। पहले माँ भी नकार देती हैं , बहुत दुखी होकर वे तीनों लोग कमरे से बाहर निकल जाते हैं। दुबारा माँ के पास रोकर याचना करते हैं। दुबारा माँ नकार देती हैं। तीसरे बार जब आकर वे लोग माँ से प्रार्थना करते हैं -तब माँ दीक्षा देने तैयार हो जाती हैं। वे अपने से बात क्र रही थी , देखो बच्चे विदेश से अपनी माँ के लिए सबसे अच्छी अच्छी चीजें भेजते हैं। और देखो मेरा राखाल क्या भेजता है। माँ उन तीनों को दीक्षा दे देती हैं। वापस लौटकर ये तीनों राजा महाराज से कहते हैं - वो जानते थे इनको दीक्षा देने का मतलब क्या है ? तब वहां बाबूराम महाराज जो खड़े थे। कहते हैं इन लोगों को दीक्षा देने का मतलब जहर पीने के सामान है। माँ ऐसे जहर पीती रहती हैं -जिसका एक बूँद भी अगर हमें पीना पड़े तो हम जल कर राख हो जाएँ। लेकिन माँ सबकुछ पचा लेती है। इस प्रकार माँ सारदा देवी पापनाशिनी हैं। पाप को नाशकरके ज्ञान प्रदान करती हैं। ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता , ज्ञान में स्थित रहने की योग्यता प्रदान करती हैं। माँ के जीवनी की जितने भी लेखक हैं - उन्होंने माँ के ऐसे विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने रखा है। वे भक्तों की जननी हैं -माँ हैं ! वे गुरु हैं और वे देवी जगदम्बा हैं ! ये जो तीन भिन्न पहलु हैं , किसी एक को देखने से दूसरे सभी पहलु भी चले आते हैं। देखिये गुरु (शिक्षक -नेता) कौन हो सकता है ? गुरु का मतलब क्या है ? जो हमें ज्ञान प्रदान करते हैं , हमारे अंदर जो अज्ञान रूपी अंधकार है , उस अंधकार को दूर करते हैं। और आत्मा का ज्ञान प्रदान करती हैं। और इस ज्ञान को प्रदान करने के पीछे एक माँ का ह्रदय काम कर रहा होता है। गुरु ही हमारी माता हैं , गुरु ही हमारे पिता भी हैं ! माँ अपने संतान को क्या देती हैं ? सबसे अच्छी चीज देती है या नहीं ? हर माँ अपने बच्चे को सबसे उत्तम चीज ही प्रदान करती हैं। गुरु विवेकानंद जो हमें प्रदान करते हैं - उस आत्मज्ञान से बढ़कर उत्तम चीज कोई है क्या ? तो वे जो माँ हैं वही गुरु हैं ! माँ शब्द से मेरा तात्पर्य उस परमेश शक्ति से है - माँ सारदा देवी से है ! वे माँ भी हैं और गुरु भी हैं और माँ और गुरु के पीछे वो एक परमेश शक्ति देवी भी हैं। वही परमेश शक्ति ज्ञान प्रदान करके माँ की तरह पूरे जगत का कल्याण करने में सतत लगी हुई हैं। और वे आज भी लगी हुई हैं ! आज भले ही माँ अपने स्थूल रूप में भले जी न हो , परन्तु वह परमेश शक्ति सदैव काम कर रही है। उनका अनुग्रह , उनकी जो कृपा है - उनकी कृपा से ही हम इस संसार सागर को पार कर सकेंगे। मोक्ष का द्वारा ये त्रिदेव ही खोल सकते हैं। भगवान शंकराचार्य कहते हैं -क्या है ये परमेश शक्ति ? ' मोक्षद्वार-कपाट-पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी. भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी।। हे माता अन्नुपूर्णेश्वरी - माता हैं , अन्नपूर्णा हैं ! सर्वश्रेष्ठ अन्न हम क्या प्रदान कर सकते हैं ? ज्ञान रूपी अन्न ही सर्वश्रेष्ठ अन्नदान है। आचार्य शंकर कहते है , आप ज्ञान रूपि अन्न प्रदान करके मोक्ष द्वार खोलने का काम यही परमेश शक्ति माँ सारदा ही कर सकती हैं , तो माँ सारदा से हमारी एक ही प्रार्थना है कि हे ,माँ ! इस मोक्ष के द्वारा को केवल तुम्हीं खोल सकती हो। इस मृत्युग्रस्त संसार में जो हमलोग बंधे हुए हैं , इस बंधन से हमें मुक्त कर दो।
शब्दार्थः----(नक्तम्) रात्रि, (उत) और, (उषसः) उषा काल, (मधु) मधुरता-युक्त हो, (पार्थिवं रजः) यह पार्थिव लोक या पृथिवी की मिट्टी के लिए, (मधुमत) मधुरता या आनन्द से युक्त, (पिता) पितृतुल्य, (द्यौः) द्युलोक, (नः) हमारे लिए, (मधु) मधुरता-युक्त, श्(अस्तु) होवे।।
भावार्थः---रात्रि और उषःकाल मधुरता-युक्त हों। माता पृथिवी और पृथिवी की धूल सब मधुरता-युक्त हों। पितातुल्य द्युलोक हमारे लिए मधुर हो।
व्याख्याः---मधुरता अपने कर्मों का फल है। व्यक्ति के जीवन में यदि माधुर्य (मिठास) है, स्नेह है, प्रेम है, अनुराग है और उदारता है तो उसे सभी ओर माधुर्य और स्नेह मिलेगा। सबसे प्यार मिलेगा, छिडकी या ठोकर नहीं मिलेगी। अपनी सोच, वाणी, व्यवहार और कर्मों से चारों ओर माधुर्य (मिठास) फैलाये बदले में आपको कितना प्रेमरूपी सुख मिलेगा। वाणी में जिह्वा का व्यवहार मुख्य है। यह जिह्वा ही है जो हमें सम्मान और असम्मान भी दिलाती है। शरीर का घाव तो शीघ्र ही ठीक हो जाता है, किन्तु वाणी या जिह्वा से मिला घाव कभी ठीक नहीं होता, जीवनपर्यन्त चलता है। इसलिए वाणी का ठीक-ठीक प्रयोग करें। सोचकर बोलें, बोलने से पहले कई बार सोचे। क्रोध आ रहा हो तो थोडा रुककर बोले। वाणी हमारे व्यक्तित्व, परिवार, कुल और समाज की परिचायिका है। इसका ठीक-ठीक प्रयोग करें। यह आपका भविष्य है।
प्रसन्नचित्त, सहृदय एवं परोपकारी व्यक्ति के लिए चाहे दिन हो या रात, प्रातः हो या सायं, पृथिवी हो या द्युलोक, धूप हो या वर्षा, गर्मी हो या सर्दी, सर्वत्र मधुरता एवं आनन्द का वातावरण मिलेगा। इसलिए वेदवाणी हमें परामर्श देती है कि चारों ओर मधुरता का वातावरण उत्पन्न करो, जिससे सबमें प्रेम, परस्पर सौहार्द का प्रसार हो।
-गर्भ को धारण करने और पालन पोषण करने के कारणमाता का स्थान पिता से भी बढ कर है! अत: तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं अर्थात् (भारत) माता परं गुरु है!
परिव्राजिका अतन्द्राप्राणा माताजी
[श्री सारदा मठ की महासचिव]
[Inspiring Speech by Pravrajika Atandraprana Mataji, General Secretary of Sri Sarada Math] :
ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये,
सच्चिद सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिणे !
🔱1.मकर संक्रांति की तारीख में बदलाव क्यों होता है ? (Why does the date of Makar Sankranti change?) :
12 जनवरी को हमलोग स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। किन्तु वह अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार मनाया जाता है। जबकि उनकी जन्मतिथि के अनुसार इस महीने के 21 तारीख को उनकी तिथिपूजा आयोजित की जाएगी। तुम लोगों में कोई जानता है कि 1863 ई० के 12 तारीख के दिन कौन सा विशेष दिन या त्यौहार था ? उस दिन मकरसंक्रान्ति थी तुमलोगों को मालूम होगा। इस साल मकर संक्रांति किस दिन पड़ेगा , बता सकते हो ? स्वामी जी का जन्म दिन 12 जनवरी को होता था। इस बार मकरसंक्रांति 14 जनवरी को मनाया जायेगा। बहुत वर्षों से 14 जनवरी को मकरसंक्रान्ति को मनाया जाता है। इस तिथि में परिवर्तन का का कारण क्या है ?
हमारी पृथ्वी का जो 'Orbit' ग्रहपथ या परिक्रमा पथ है वह कुछ वर्षों में परिवर्तित हो जाता है। 75 बर्षों में पृथ्वी की कक्षा या ग्रहपथ 1° झुक जाती है। इसलिए संक्रांति का दिन भी 1 दिन बढ़ जाता है। अब बताओ कि स्वामीजी का जन्म कितने वर्षों पहले हुआ था ? ऑलरेडी कितने साल हो गए ? 1863 में जन्म हुआ था अभी 2025 हो गया तो, 162 वर्ष हो गए। ये 163 वां जन्मदिन है। (समय के एक लम्बे अन्तराल के बाद, हमारे सौरमंडल के अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन पथ, झुकाव और कक्षा को बदल देता है।)
हमारे जो प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञानी या 'astronomers'थे वे हजारों वर्ष पहले से जानते थे कि पृथ्वी गोल है। इसीलिए हमलोग Geography को भूगोल शास्त्र कहते हैं। वे यह जानते थे की पृथ्वी सूर्य के चारो और घूमती है, सूर्य नहीं घूमता। और यह भी जानते थे की पृथ्वी का यह जो ग्रहपथ है ,वह बदलता रहता है। यह भी जानते थे कि पृथ्वी के धुरी Axis या अक्षरेखा है, जिसके चारों ओर पृथ्वी घूमती है वह दाईं ओर (पूर्व दिशा में-23.4° के कोण पर) झुकी हुई है, और यह झुकाव ही पृथ्वी के ऋतू परिवर्तन का कारण है। ये सभी बातें हमारे प्राचीन ग्रन्थ सूर्य -सिद्धान्त में लिखी हुई हैं।
अभी कहा जाता है कि निकोलस कोपरनिकसने सबसे पहले बताया था कि पृथ्वी सूरज के चक्कर लगाती है। (जिसके कारण नई दिल्ली में एक सड़क निकोलस कोपरनिकस के नाम पर है।) लेकिन उन्होंने इस बात को सिर्फ कहा था, लिखा नहीं था। लिखा क्यों नहीं ? इसलिए नहीं लिखा कि उन्हें चर्च का डर था। कॉपर्निकस के निधन के बाद गैलीलियो गैलिली ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया कि --'The earth revolves around the sun.'पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इसी घोषणा के कारण चर्च नाराज हो गया और उनको सजा दिया , जेल में डाल दिया और आदेश दिया कि तुम शपथ लेकर कहो कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है 'Sun is going round the Earth' नहीं तो तुम्हें विष पीना पड़ेगा। इसलिए डर के मारे उसने बाइबिल पर हाथ रखकर बोल दिया कि हाँ मैंने गलत कहा था -सूर्य ही पृथ्वी का चक्कर काटता है। बाद में उसने सोचा मेरे कह देने से क्या होगा ? मेरे कहने के बावजूद सच तो सच ही रहेगा। गैलीलियो के मौत के लगभग 350 साल बाद - 1992 में पोप जॉन पॉल ने यह माना किगैलीलियो सही थे और चर्च गलत था।
लेकिन तुम लोग यह सुनकर आश्चर्य चकित हो जाओगे कि हमारे खगोल विज्ञानी वराहमिहिर ने छठी शताब्दी में ही सूर्य सिद्धान्त लिख दिया था। पर उन्होंने लेखक के रूप में अपना नाम नहीं लिखा कि मैं यह सिद्धांत दे रहा हूँ। उन्होंने लिखा कि हमारे ऋषियों ने सूर्य सिद्धांत की रचना 10 हजार साल पहले ही की थी। किंतु समय के साथ-साथ इसके अधिकांश भाग विलुप्त हो गए थे इसलिए इस पुस्तक को पूर्ण करने के लिए मुझे फिर से लिखना पड़ रहा है। तब समझ लो कि प्राचीन समय हमारे देश के खगोल वैज्ञानिकों का ज्ञान कितना उन्नत रहा होगा ! (4.5 मिनट)
🔱2. भारतवर्ष का meaninglessनाम इण्डिया कैसे हुआ ? प्राचीन समय से हमारे देश का नाम भारतवर्ष ही था इण्डियानहीं। बताओ तो हमारे देश का नाम इण्डिया किसने दिया ? अरबियन लोग 'स' अक्षर का उच्चारण 'ह' कहकर करते हैं, सिन्धु नदी के उस पार के देश को सिन्धु पार का देश उच्चारण नहीं कह पा रहे थे,उन लोगों ने सिंधु नदी के उस पार के देश को हिन्दू कहा। कालान्तर में सिन्धु से हिन्दू हुआ, फिर हिन्दू से इण्डस वैली कहा, इण्डस से इण्डिया हो गया। अंग्रेज लोग भी भारतवर्ष नाम pronounce नहीं कर पा रहे थे , इसलिए हमारे देश का नाम उन्होंने इण्डिया कर दिया। इण्डिया शब्द का कोई मीनिंग नहीं है, इण्डिया एक meaningless शब्द है। किन्तु हमलोगों के देश का वास्तविक नाम भारत है , इंडिया नहीं। भारत शब्द का अर्थ तुमलोग जानते हो। 'भा' माने ज्ञान का आलोक , 'रत' माने कौन लोग ? जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं। अर्थात जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं, वे भारतीय हैं। हमारे पुराणों में ही लिखा हुआ है कि भारतवर्ष कितना विशाल देश है। लिखा है -'आ समुद्रं हिमालय प्रयन्त' अर्थातकन्या कुमारी से लेकर हिमालय पर्यन्त जो भूखण्ड फैला है उसका नाम भारत वर्ष है। विष्णु पुराण में लिखा है-
" उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥"
समुद्र के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण के भू खंड को 'भारत' कहते हैं और उसकी सन्तानों को, यानि उसके पुत्र-पुत्रियों को भारतीय कहते हैं.....!!! माने यहाँ रहने वाले सभी नागरिक भारत की सन्ततिति हैं। ये बात हमारे पुराणों में लिखी हुई हैं। इसलिए तुमलोग समझो कि हमारी विरासत -Heritage, कितनी महान थी । लेकिन विगत हजार वर्षों तक हमलोग पहले मुगलों के गुलाम हुए फिर अंग्रेजों के गुलाम हुए। गुलामी के इन हजार वर्षों तक भारत पर ज्ञानलोक नहीं अज्ञान का गहरा अन्धकार छाया रहा।इस अन्धकार के टाईम में कोई भी मुगल या ब्रिटिश Ruler अपने नौकर (गुलाम प्रजा) से ऐसा तो नहीं कहते थे कि तुम बड़े ज्ञानी-गुणी लोग हो । वे लोग यही सिद्ध करने की चेष्टा करते थे कि ये नौकर लोग , गुलाम लोग कुछ नहीं जानते, एकदम बर्बर, असभ्य लोग हो । बहुत दुःख -कष्ट सहकर भी हमारे पूर्वजों ने हमारे ऋषियों द्वारा संचित ज्ञान के भण्डार को अभी तक बचा कर रखा है।(6.11 मिनट)
🔱3. प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्भीकता से बखान :
लेकिन उस गुलामी के युग में, स्वामी विवेकानन्द उस प्रकार के पाश्चात्यशासक देश में जाकर, उनके सामने मंच पर खड़े होकर- क्या कहा था ? '2500 वर्ष पहले तक तुम सभी लोग एकदम बर्बर थे, एकदम असभ्य थे। उस समय तुम अपने शरीर को नीले रंग से रंगते थे। जब कि 2500 वर्ष पहले हमारा देश 'Pinnacle of Glory' अपनी महिमा के शिखरपर था।' ये बात उन्होंने ने ब्रिटिश लोगों के सामने खड़े होकर उन्होंने कहा था, बताओ तो वे कितने साहसी थे! आजकल जिस प्रकार हमलोग O ! Made in U.S.A.? Made in China ? देख कर माल ख़रीदते हैं। खाद्य पदार्थ , मसाले, बर्तन यहाँ से जाते थे ,सिल्क यहाँ से निर्यात होता था, जितनी भी सुंदर -सुंदर वस्तुएं थीं , सब कुछ यहीं से निर्यात होता था। उन दिनों दुनिया भर के लोग हमलोग के उत्पादों पर 'Made in India' लिखा है या नहीं देखकर ही माल खरीदा करते थे हमारे देश की महिमा इतनी महान थी कि। हमारे भारतीयबिजनेसमैन -exporter लोग इतने प्रसिद्द थे कि,अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपने जहाज द्वारा हजारों मिल दूर तक समुद्री यात्रा करते थे। (7.19 मिनट)
🔱4. प्राचीन भारतीय बिजनेसमैन exporter थे और पुर्तगाली वास्कोडिगामा से लेकर ब्रिटिश, डच, फ़्रांस के नाविक लोग व्यापारी नहीं डकैत थे। :
और ये जो पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा (1460-1524) यहाँ आया था, उसको यह मालूम ही नहीं था कि पृथ्वी गोल है। वह इतना डरपोक था, समुद्र के किनारे -किनारे अफ्रीका के दक्षिणी कोने से होते हुए वह 1498 में भारत में केरल के समुद्री तट तक पहुंचा। बीच समुद्र से होकर जाने की हिम्मत नहीं थी। इन सब डकैत नाविकों को भारत जाने की इतनी बेचैनी क्यों थी ? ब्रिटिश से लेकर मुगल, पुर्तगीज , डच ये सभी डाकू थे। सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि भारत वर्ष अपने culture (संस्कृति) के शिखर पर था, उस समय वह अस्तित्व के साथ एकत्व के ध्यान में निमग्न था। उसकी सोंच इतनी ऊँची थी कि, वे जानते नहीं थे कोई देश ही डकैत बन सकता है , किसी दूसरे देश को लूटने के लिए इतना बर्बर आक्रमण कर सकता है ? फिर हमारी संस्कृति थी - अतिथि देवो भव ! हमने (कालीकट के राजा ने) यह कहकर उसका स्वागत किया कि आओ भाई आओ हमलोग सभी मनुष्य का सत्कार करते हैं। लेकिन उन लोगों ने क्या किया ? बन्दुक लेकर शाब्बास -शाब्बास करके मार दिया। और डकैती किया। डकैती करके उनलोग बड़ा बन गया। जो भी देश भारत पर आक्रमण किया सब चीटिंग किया , डकैती करके बड़ा देश हो गया। हमलोगों के देश का सारा धन साइफन करके अपने देश में ले गया। 17 वीं शताब्दी तक हमलोगों का देश सम्पूर्ण विश्व में सबसे - Richest देश था। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, और भारत को लूटने के लिये, मुगल, पुर्तगाली, ब्रिटिश, डच अभी डकैत देश पूरे जी-जान से लगे हुए थे।
🔱5.[(8.54 मिनटppt :स्वामी जी के बगल में Tesla बैठे है ![1893 में आयोजित शिकागो विश्व मेला (World's Columbian Exposition) क्रिस्टोफ़र कोलंबस के अमेरिका आगमन की 400वीं वर्षगांठ मनाने के लिए 5 मई से 31 अक्टूबर, 1893 तक शिकागो, में विश्व कोलंबियाई प्रदर्शनी' आयोजित किया गया था। इसे शिकागो विश्व मेला के नाम से भी जाना जाता है।इस मेले में निकोला टेस्ला द्वारा आविष्कृत ए.सी. बिजली और फ़्लोरोसेंट लाइटिंग को प्रदर्शित किया गया था।इस मेले में 'फ़ेरिस व्हील ' जैसे कई आविष्कारों को पहली बार पेश किया गया था। (इंजीनियर गेल फ़ेरिस द्वारा आविष्कृत - फ़ेरिस व्हील एक मनोरंजन सवारी है जिसमें कई सीटें या कारें एक बड़ी धुरी के चारों ओर घूमती हैं। इसे आम तौर पर मेलों, कार्निवल, और थीम पार्कों में देखा जाता है। फ़ेरिस व्हील को शिकागो व्हील के नाम से भी जाना जाता है।) इस मेले में 46 देशों ने भाग लिया था। इस मेले में बिजली से जगमगाने वाली व्हाइट सिटी बहुत प्रभावशाली थी। यह मेला बहुत सफल रहा था। ]
अवतरवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण लीला में विश्व-धर्म संसद के माध्यम से साइंस (Tesla) और वेदान्त (SV) के समन्वय द्वारा सतयुग का प्रचार करने के लिएठाकुर -जगतजननी माँ सारदा और स्वामीजी को आविर्भूत होना पड़ा !
इसीलिए जब भारत वासियों को हजार वर्षों तक दुःख भोगना पड़ा, तब अपनी प्रतिज्ञा -'सम्भवामि युगे -युगे ' के अनुसार ठाकुर-माँ -स्वामीजी को फिर से यहाँ आना पड़ा। [' अवतार लेना पड़ा !'] क्योंकि उस समय हमलोग भारतीय होकर भी अपने को एकदम दीनहीन मानने लगे थे। हमलोग यही सोचते थे कि -हम बड़े अकिंचन हैं। हमारे पास कुछ भी नहीं है - केशव सेन भी महारानी विक्टोरियासे मिलने ब्रिटेन गए थे। किन्तु क्या उन्होंने उनसे भारत की गरिमा के विषय में कुछ कहा था ? नहीं , ये अंग्रेजों को सलाम करके बोले आप ही हमारे देश की रानी हैं , आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकती हैं। स्वामीजी से पहले भारत के जितने भी बड़े नामी-गिरामी लोग इंग्लैण्ड गए थे सभी ने ऐसा ही कहा था। लेकिन एक मात्र स्वामीजी ने ही 11 सितंबर, 1893 के शिकागो में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में सिर उठाकर करके कहा था -" I am proud to belong to a nation which has sheltered to all persecuted......मुझे ऐसे देश का निवासी होने पर गर्व है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रयदिया है। " देखो कितनी सुन्दर बात कह रहे हैं, वह भी सबके सामने कह रहे हैं -" I am proud !" किन्तु हमलोग आज भी यह नहीं कह पा रहे हैं कि " I am proud to be an Indian ?)."(9.56 मिनट) उन्होंने कहा था - "It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in the name of the most ancient order of monks in the world " स्वामी जी अच्छी तरह से जानते थे कि हमलोग सबसे प्राचीन त्यागी परम्परा के अनुयायी हैं। "I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. " आज भी हमलोग हर देश के रिफुजी को अपने यहाँ पनाह दे रहे हैं। क्योंकि हमारे यहाँ -अतिथि देवो भव ' कहा गया है। इसलिए हमलोग उसी को निभाये जा रहे हैं। सभी को शरण दिए जा रहे हैं। फिर हम किस बात में विश्वास करके सबको शरण देते हैं ? वह भी स्वामी जी ने स्वयं बता दिया था - " जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं , उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रूचि (प्रवृत्ति) के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझ में ही आकर मिल जाते हैं। " [ ‘As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee.’]
🔱 6. (11.10 मिनट) शिकागो धर्म संसद में दो प्रकार के श्रोता !
विश्व धर्म संसद में स्वामीजी ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय शिकागो मेला में दो श्रेणी के श्रोता उपस्थित थे, एक ग्रुप था - 'Parliament of Religion ' में भाग लेने आये पादरी और सामान्य जनों का और दूसरा ग्रुप था 'Parliament of Science' में भाग लेने आये बहुत नामी -गिरामी साइंटिस्ट लोगों का। सभी को उनका भाषण बहुत अच्छा लगा था। किन्तु उनके भाषण को सबसे अधिक पसन्द साइंटिस्ट लोगों ने किया था। हम सभी लोग जानते हैं कि 1893 में Parliament of Religion ' शिकागो में हुआ था, स्वामीजी वहाँ गए थे। लेकिन 1893 के सितम्बर महीने में 'World's Columbian Exposition'शिकागो मेले में11 से 27 सितम्बर तकजिस प्रकार धर्म के क्षेत्र मेंविश्व-धर्म संसद (World Parliament of Religion) का आयोजन हुआ था उसी प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में साइंटिस्ट लोगों के लिए21 से 25 अगस्त, 1893 तक 'IEC' -अंतर्राष्ट्रीय विद्युत कांग्रेस (International Electrical Congress) के रूप में 'Electric Congress' या Parliament of Science' भीआयोजित किया गया था। (11. 43 मिनट)
शिकागो विश्व मेला में साइंटिस्ट लोगों का समूह स्वामी जी मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे। जब भी स्वामी जी थोड़ा फुरसत में होते , वे लोग कहते क्या स्वामीजी आप हमारे' IEC-(International Electrical Congress)के मण्डप (pavilion) में थोड़ी देर के लिए आयेंगे? हमारे लिए भी थोड़ा समय निकालेंगे ?Elisha Gray उनलोगों के प्रेसिडेन्ट थे, वे समीजी से मिलने के लिए खड़े रहते थे। थोड़ा भी फुर्सत मिलता तो स्वामीजी से अनुरोध करते क्या आप हमलोगों के मण्डप में आकर कुछ कहना चाहेंगे ? उन प्रसिद्द साइंटिस्ट लोगों के मन में स्वामी जी के लिए इतना प्रेम क्यों उत्पन्न हुआ ? उन लोगों के धर्म में 'original Sin' की बहुत चर्चा होती थी। ईसाई में धर्म यही बात- बार-बार सिखाई जाती है- 'Yeare the sinners' और हमलोग पापी हैं' सुन-सुन कर उन वैज्ञानिकों के कान भी पक गए थे! जबकि स्वामीजी ने मंच पर खड़े होकर कहा -“Ye are the children of Immortal Bliss !अर्थात तुम तो अमृत के संतान हो, तुम भला पापी ? अभी अभी तो तुमलोग यही गा रहे थे ?-"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!" [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."
" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं, जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]
अर्थात मनुष्य को कोई यदि पापी कहकर पुकारे तो वह पाप करता है। यह सुनकर सबसे ज्यादा खुश कौन हुए थे ? वेदांत की इस वाणी को सुनकर सबसे अधिक खुश साइंटिस्ट लोग हुए थे , हां पादरी लोग यह सुनकर दुखी जरूर हो गए थे। क्योंकि उनको लगा कि यह तो हमलोगों के धर्म के विरुद्ध बोल रहा है , हमलोग जो जो सीखा रहे हैं सब पोलपट्टी ही खोल दे रहा है !! लेकिन साइंटिस्ट लोग बहुत खुश हुए थे। वाह ! आज पहली बार एक ऐसा आदमी उन्होंने देखा जो कहता है, तुम पापी नहीं अमृत की संतान हो। तुम पापी नहीं हो। जबकि पापी हो , पापी हो सुन-सुनकर उनके कान पक गए थे। इसलिए साइंटिस्ट लोग स्वामीजी वेदान्त के सन्देश को विस्तार से सुनने के लिए अपने मण्डप में आने का अनुरोध करते रहते थे- स्वामीजी आप वेदान्त के सिद्धान्तों (महावाक्यों) को हमें समझाइये।
🔱7.(13.31 मिनटPPt: चित्र में दिखाया गया है कि साइंटिस्ट लोगों को वेदान्त समझाने के लिए -स्वामीजी ने 'Science and Vedanta'दो भिन्न-भिन्न विधा को कैसे एक कर दिया ?
हमलोगों के लिये वेदान्त के (महावाक्य)Spiritual Light है; उसके बाद स्वामीजी को एक Prizm के रूप में दिखाया गया है। सूर्य के प्रकाश की तरह वेदान्त का Spiritual Light (आध्यात्मिक प्रकाश ) जब स्वामीजी रूपी प्रिज्म से होकर जब बाहर निकलता है तो इंद्रधनुष के अलग -अलग रंगों 'VIBGYOR' की तरह Science, Arts, Commerce, Physiology, या अध्यात्म जितने भी प्रकार की विद्या है, उस पर रौशनी पड़ सकती है। क्योंकि स्वामी जी हर विषय में पारंगत थे।(13.43 से -14.09 मिनट तक)
"Science and Swami Vivekananda"/ Vedanta
'Towards Wholeness '
If SV as Prizm
Spiritual Light of Vedanta is 'VIBGYOR' of Knowledge
तुमलोग यह सुनकर आवाक हो जाओगे कि स्वामी जी को हमलोग महान दार्शनिक कहते हैं,संत कहते हैं , महान देशभक्त कहते हैं , किन्तु वे एक बहुत बड़े 'ज्ञान पिपासु' (Knowledge Thirsty) भी थे। वे Higher Mathematics सीखने भी गए थे। अधिकांश लोग कहते हैं , स्वामीजी गणित को पसंद नहीं करते थे। यह सही नहीं है। वे यह नहीं जानते कि स्वामीजी प्रेसीडेन्सी कॉलेज में जाकर Higher Mathematics का क्लास भी अटेंड किया था। फिर Physiology सीखने के लिए मेडिकल कॉलेज भी गए थे। और Energy के विषय में जानने के लिए Physics का क्लास भी अटेंड किये थे। इस लिए वे Science और Vedanta को पूर्णता की ओर ले जाकर एक कर देने में समर्थ थे।देखो हमलोग सोचते हैं की एक बिन्दु पर आकर'Science and Religion' कैसे मिल सकते हैं ? किन्तु स्वामीजी ने दिखला दिया था कि विज्ञान और धर्म अपनी पूर्णता में कैसे परस्पर मिल जाते हैं। Science में में हमलोग कहते है How ? और वेदान्त कहता है Why ? इन दोनों को उन्होंने एक कर दिया। क्योंकि स्वामीजी में सदैव सत्य को जानने की प्रबल लालसा थी। और स्वामीजी को ठाकुर सबसे प्रिय क्यों लगते थे? ठाकुर कहते थे तुम लोग हमेशा प्रश्न पूछोगे। प्रश्न पूछे बिना मेरे उपदेशों (सत्य या ईश्वर को) को स्वीकार मत करना। तुमलोग मेरी परीक्षा करके देखो , प्रश्न करो -सब कुछ जाँच-परख करने के बाद मेरी बातों को स्वीकार करो। ठाकुर की यही बात स्वामीजी को सबसे अच्छी लगी थी। (15.36 मिनट)
🔱8.[15.47 मिनटPPt Electric Congress] : IEC, Electric Congressया Parliament ofScience ' में जो प्रमुख साइंटिस्ट भाग लिए थे उनके चित्र देखो। इनमें से कितने लोगों को तुम पहचानते हो ? थॉमस ऐल्वा एडीसन का नाम सुने हो ? वाह ! बहुतों ने सुना है ! थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -(current that runs continually in a single direction, like in a battery.) थॉमस ऐल्वा एडीसनको तो तुम सभी पहचानते हो , वो भी किन्तु स्वामीजी का भक्त बन गए थे।केल्विन का नाम सुने हो ? क्या किया था केल्विन ने ? हाँ , बिल्कुल सही - उन्होंने Absolute Zero (परम शून्य) का अविष्कार किया था। परम शून्य या -273 डिग्री सेन्टीग्रेड वह 'temperature' है जिससे कम कोई भी ताप संभव ही नही है। क्वाण्टम यांत्रिकी (quantum mechanics) की भाषा में कहें तो न्यूनतम ऊर्जा का अवस्था (the state of minimum energy) को परम शून्य कहते है। इस ताप पर पदार्थ के अणुओं की गति शून्य हो जाती है।[ Absolute Zero या 'परम शून्य' वह lowest possible temperature ' (न्यूनतम सम्भव ताप) है, जिससे कम कोई 'temperature' या ताप संभव ही नही है। At this temperature, the motion of the molecules of matter becomes zero. ' इसका मान -273 डिग्री सेन्टीग्रेड होता हैं। परम शून्य ताप पर पदार्थ अपने 'ग्राउण्ड स्टेट' में होता है ]
हाँ टेस्ला और किसलिए इतना प्रसिद्द थे ? Alternating Current (ऐसी करेंट) के विषय में हमलोग सुने हैं, निकोला टेस्ला ने अल्टरनेटिंग करंट (एसी) का आविष्कार किया था, और थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -डीसी करंट का आविष्कार किया था। आज हमलोग जितने तरह के विद्युत् पा रहे हैं , जेनरेटर आदि पा रहे हैं , विद्युत् से चलने वाले उपकरण पा रहे हैं, सब टेस्ला की ही देन है। टेस्ला यदि नहीं आते तो हमलोग विद्युत् ऊर्जा से बिल्कुल अनजाने ही रह जाते। इस समय इलेक्ट्रिसिटी को लेकर जो कुछ भी अनुसन्धान हो रहा है , सब टेस्ला के चलते है। किन्तु टेस्ला खुद स्वामीजी के परम् भक्त हो गए थे, उनसे बहुत अधिक प्रेम करते थे।
वे उस समय के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों में से एक थे।थॉमस ऐल्वा एडीसन ने डीसी करंट का आविष्कार किया था , लेकिन इसमें एक समस्या थी। DC current को आसानी से उच्च या निम्न वोल्टेज में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। टेस्ला का मानना था कि प्रत्यावर्ती धारा (या AC) इस समस्या का समाधान है। Direct current is not easily converted to higher or lower voltages. Tesla believed that alternating current (or AC) was the solution to this problem. । उन्होंने 'विद्युत्-चुंबकीय इंडक्शन मशीन (Electromagnetic Induction Machine ) का प्रथम अविष्कार किया था।
बिजली हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है, यह हर समय हमारे साथ है। हम अपने मोबाईल , आदि उपकरणों को बिजली से चार्ज करते हैं, अपने घरों को रोशन करते हैं, और अपनी दुनिया को इससे ऊर्जा देते हैं। हम में से ज़्यादातर लोग थॉमस एडिसन को बिजली बल्ब के आविष्कारक के रूप में जानते हैं। किन्तु बिजली को वास्तविक रूप से मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने का काम निकोला टेस्ला ने किया था।
टेस्ला सिर्फ़ एक आविष्कारक ही नहीं थे; वे एक दूरदर्शी साइंटिस्ट थे - (APJ अब्दुल कलाम की तरह भविष्य द्रष्टा या खुली आँखों से स्वप्न देखने वाले) व्यक्ति थे, वे एक ऐसे व्यक्ति जिनके विचार अपने समय से दशकों आगे थे। प्रत्यावर्ती धारा (एसी), वायरलेस संचार और अनगिनत अन्य प्रमुख उपकरणों के निर्माण में उनके योगदान ने आज की अधिकांश तकनीक की नींव रखी जिसे हम सामान्य मानते हैं। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई, किन्तु आज 80 साल बाद 2025 में भी साइंटिस्ट और इंजीनियर लोग एक समय उनके द्वारा भविष्य द्रष्टा के रूप देखे गए विचारों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानंद ने शिकागो मेले के विश्व धर्म संसद में दिए अपने प्रसिद्ध भाषण के माध्यम से, उन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष पूर्व के वेदान्त को पहले से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर उजागर किया। उन्होंने न केवल भारतीय अध्यात्म और दर्शन के बारे में बात की, बल्कि उन्होंने Science और Vedanta पर भी चर्चा की और प्रमाणित कि कैसे दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
जब स्वामी विवेकानंद ने निकोला टेस्ला से मुलाकात की और उन्हें वेदांत समझने के लिए प्रेरित किया: 1893 में, स्वामी विवेकानंद से मुलाकात के दौरान निकोला टेस्ला को वेदान्त में Energy (ऊर्जा) और पदार्थ (Matter) की अवधारणा को समझने की प्रेरणा मिली। बाद में, स्वामीजी जब भारत लौट आये तब उनका उल्लेख करते हुए एक पत्र में लिखा है कि कैसे इस महान साइन्टिस्ट ने वेदांत के संस्कृत महावाक्यों को विज्ञान सम्मत पाया था और कैसे वेदांत और विज्ञान के बीच का संबंध सम्पूर्ण मानवजाति को बदलने की क्षमता के साथ प्रतिध्वनित हुआ। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई। आज, 80 साल बाद, साइंटिस्ट और इंजीनियर अभी भी उनके सपनों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
🔱11. (22.09 मिनट) इस PPt चित्र में 'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव): Tesla coil (टेस्ला कॉइल) एक इलेक्ट्रिकल ट्रांसफ़ॉर्मर है जो वोल्टेज बढ़ाने के लिए AC Current का उपयोग करता है, और बहुत ज़्यादा वोल्टेज पैदा करता है। अपने अत्यधिक उच्च वोल्टेज के कारण, टेस्ला कॉइल में बिजली (electricity) हवा के माध्यम से यात्रा कर सकती है। इसका इस्तेमाल electric lighting, एक्स-रे उत्पादन, और वायरलेस टेलीग्राफ़ी जैसे कई कामों के लिए किया जाता है।
Nikola Tesla को देखो ! टेस्ला Lightning machine लेकर खड़े हैं। टेस्ला Artificial Lightning produce करना जानते थे। Laboratory में Lightning produce करके एक जगह से दूसरे जगह jump मारता था। उस मशीन के पास इतने confidence से खड़े हैं , क्योंकि वे जानते थे High-frequency current skin त्वचा के ऊपर से गुजर जाता है, शरीर पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। वे जानते थे। कि यह high-frequency current मेरी कोई क्षति नहीं कर सकता। या उनका शरीर बिजली के झटके को सह लेगा, इस बारे में वे Confident (निधड़क) थे।'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव)के विषय में शायद तुमलोग सुने हो ?[उपरिस्तर प्रभाव (या Skin Effect) एक विद्युतचुंबकीय घटना है जो एक कंडक्टर के माध्यम से प्रत्यावर्ती धारा (AC current) के प्रवाह से जुड़ी है।
पदार्थविज्ञान (Physics) से दर्शनशास्त्र (Philosophy) तक
निकोला टेस्ला की मुलाक़ात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा) और आकाश (पदार्थ-पिण्ड ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया। उस मुलाकात के दौरान विवेकानंद ने वेदांत के सिद्धांत या महावाक्यों के प्रति टेस्ला के उत्साह पर ध्यान दिया। उसका उल्लेख 13 फरवरी, 1896 को लिखित एक पत्र मेंकरते हुए स्वामी विवेकानन्द अपने मित्र E. T. Sturdy को न्यूयार्क से कहते हैं- "श्री टेस्ला वेदान्तिक प्राण और आकाश तथा कल्पों (ब्रह्मांडीय चक्र या सृष्टि-प्रलय) के बारे में (Vedantic cosmology के बारे में हमारे सिद्धांत-महावाक्य- 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे') सुनकर बिल्कुल बिल्कुल मुग्ध हो गए, जो उनके अनुसार आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से ग्रहण के योग्य एकमात्र सिद्धांत हैं"। अब उनका विश्वास था कि पूरे आकाश (Space) में ऊर्जा (energy- प्राण) भरा हुआ है, क्योंकि आकाश और प्राण (Time) दोनों समष्टि मन (the Universal Mind), ब्रह्माण्डीय महत (cosmic Mahat), जगत्स्रष्टा ब्रह्मा या ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।
निकोला टेस्ला समझते हैं कि वे गणितीय रूप से यह प्रमाणित कर सकते हैं कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही 'potential energy' में रूपांतरित हो सकते हैं। (Mr. Tesla thinks he can demonstrate mathematically thatEnergy and Matter are reducible to potential energy.) गणित के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जानेवाला हूँ।
[Vivekananda noted Tesla's enthusiasm: "Mr. Tesla was charmed to hear about the Vedantic Prana and Akasa and the Kalpas (cosmic cycles), which according to him are the only theories modern science can entertain".]
लेकिन उनकी चर्चाओं के बावजूद, टेस्ला यह गणितीय प्रमाण देने में असमर्थ रहे कि बल और पदार्थ को संभावित ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। इस अवधारणा को बाद में 1905 में अल्बर्ट आइंस्टीन केद्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता सूत्र, the theory of relativity : सापेक्षता के सिद्धांत E=mc² में समाहित किया गया। [ This concept would later be encapsulated in 1905 in Albert Einstein's mass-energy equivalence formula, the theory of relativity, E=mc²] टेस्ला ने ब्रिटिश गणितज्ञ लॉर्ड केल्विन के साथ भी विचारों का आदान-प्रदान किया, जिन्होंने वायरलेस पावर के उनके दृष्टिकोण का समर्थन किया और वैदिक विश्वदृष्टिकोण में रुचि दिखाई।
टेस्ला का संस्कृत- ज्ञान : टेस्ला के जीवनीकारों ने इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, लेकिन 1907 में लिखे गए "Man’s Greatest Achievement" या 'मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि' नामक एक अप्रकाशित लेख में वैदिक शब्दों के उनके उपयोग का पता चलता है। He described the cycle of matter emerging from and returning to a primary substance -- a vision aligning with the Vedic idea of creation and dissolution.] उन्होंने पदार्थ (व्यक्त-वृक्ष) के एक प्राथमिक पदार्थ (primary substance) से निकलने और उसमें वापस लौटने के चक्र का वर्णन किया है। (अर्थात अव्यक्त या छोटे से बरगद के बीज से विशाल बरगद का वृक्ष निकलने का वर्णन किया है। जो (creation) दृष्टि और प्रलय (dissolution) के वैदिक विचार के साथ संरेखित होती है।
वर्ष 1893 में टेस्ला ने वर्ल्ड इलेक्ट्रिक साइंटिस्ट पार्लियामेंट (अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर्स) के समक्ष एक भाषण के दौरान निम्नलिखित टिप्पणी की थी;"इससे पहले कि कई पीढ़ियाँ गुजर जाएँ; हमारी मशीनें ब्रह्माण्ड के किसी भी बिंदु पर उपलब्ध शक्ति द्वारा संचालित होगी।("Ere many generations pass, our machinery will be driven by a power obtainable at any point in the universe.") यह विचार नया नहीं है... हम इसे अंतायोस (Antaeus या एंथियस ) के रमणीय मिथक में पाते हैं, जो पृथ्वी से शक्ति प्राप्त करता था।
'Throughout space there is energy' यानि पूरे अंतरिक्ष (आकाश) में ऊर्जा (energy-प्राण व्याप्त) है। क्या यह शक्ति (ऊर्जा) स्थिर (static) है या गतिज (kinetic)? यदि स्थिर है तो हमारी आशाएँ व्यर्थ हैं; यदि गतिज है - और यह हम निश्चित रूप से जानते हैं कि वह गतिज ऊर्जा ही है- तो यह केवल समय का प्रश्न है, कि मनुष्य अपनी मशीनरी को प्रकृति के चक्र से जोड़ने में कब सफल होगा"।
[Throughout space there is energy. Is this energy static or kinetic? If static our hopes are in vain; if kinetic - and this we know it is, for certain-then it is a mere question of time when men will succeed in attaching their machinery to the very wheelwork of nature".]
सैन फ्रांसिस्को के साइडवॉक एस्ट्रोनॉमर्स जॉन डॉब्सन जैसे कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि विवेकानंद की शिक्षाएं टेस्ला और वेदान्त (संस्कृत के महावाक्य) की इन अवधारणाओं के बीच सेतु का काम कर सकती हैं।जो भी हो, टेस्ला के लेखन में विज्ञान और प्राचीन दर्शन का उल्लेखनीय संश्लेषण प्रतिबिंबित होता है, जो ब्रह्मांड के बारे में उनके दृष्टिकोण को समझने के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है, और यह जानना दिलचस्प है कि भारतीय विद्वान, दार्शनिक और संत स्वामी विवेकानंद ने इस परिवर्तन को प्रेरित किया। टेस्ला का हिंदू धर्म और वैदिक दर्शन के प्रति आकर्षण उनके जीवन भर, यहां तक कि उनकी मृत्यु तक भी बना रहा।
(With inputs from a study by Toby Grotz in 'The Influence of Vedic Philosophy on Nikola Tesla')
Published By: Rishab Chauhan,Published On:Jan 8, 2025
[ प्रलय -विज्ञान (परलोक गमन -सिद्धांत, ईसाई धर्म के Last Judgement आदि) की व्याख्या केवल अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से होगी।]
मैं आजकल Vedantic cosmology और प्रलय -विज्ञान (cataclysm या Eschatology) में शोध कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य देखता हूँ , एक व्याख्या हो जाये तो दूसरे की भी हो जाएगी। आगे चलकर मैं एक पुस्तक प्रश्नोत्तरी के रूप लिखने पर विचार कर रहा हूँ। पहला अध्याय Vedantic cosmology ही होगा, जिसमेंVedanta और Science का सामंजस्यदिखाया जायेगा।
[Diagram by Swami Vivekananda explaining the relationship between cosmology and Vedanta.]
(Vedantic cosmology)
द्वैतवादी कहते हैं - मृत्यु के बाद जीवात्मा सूर्यलोक में जाती है, वहाँ से चन्द्रलोक में और वहाँ से विद्युत्-लोक में। वहां से किसी पुरुष के साथ वह ब्रह्मलोक जाती है। (अद्वैतवादी कहता है कि वहाँ से वह निर्वाण प्राप्त करती है।
अद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव (प्राणी-जीवात्मा) न कहीं आता है , न जाता है और ये सब लोक (spheres) या जगत के स्तर (layers of the universe) आकाश और प्राण के रूपांतरित परिमाण मात्र हैं। प्राण और आकाश से बना हुआ सबसे नीचा और सबसे घनीभूत सूर्यलोक है , जो दृश्य जगत ही है, और जिसमें प्राण भौतिक शक्ति या ऊर्जा के रूप में और आकाश इन्द्रियग्राह्य भौतिक पदार्थ [नाम-रूप] में प्रकट होता है। इसकेबाद चंद्रलोक है , जो सूर्यलोक को चारों ओर से घेरे है। यह चन्द्रमा नहीं है , बल्कि देवताओं का निवास स्थान है। अर्थात प्राण यहाँ मानसिक शक्तियों के रूप में और आकाश तन्मात्रा या सूक्ष्म भूत के रूप में प्रकट होता है।
इसके परे विद्युत्-लोक है अर्थात वह अवस्था, जहाँ प्राण आकाश से प्रायः अभिन्न है , और यह बताना कठिन हो जाता है कि विद्युत् (matter) है या शक्ति (Energy) ? इसके बाद ब्रह्मलोक है , जहाँ न प्राण (Time) है , न आकाश (Space) दोनों है चित्-शक्ति अर्थात आदिशक्ति में विलीन हैं। और यहाँ प्राण और आकाश के न रहने से जीब को सम्पूर्ण विश्व समष्टि- महत या समष्टि मन के रूप में प्रतीत होता है।
"This appears as a Purusha, an abstract universal soul, yet not the Absolute, for still there is multiplicity.From this the Jiva finds at last that Unity which is the end. Advaitism says that these are the visions which rise in succession before the Jiva, who himself neither goes nor comes, and that in the same way this present vision has been projected. The projection (Srishti) and dissolution must take place in the same order, only one means going backward, and the other coming out."
"यह भी पुरुष या सगुण विश्वात्मा (ईश्वर) की ही अभिव्यक्ति है, न कि निर्गुण अद्वितीय ब्रह्म की , क्योंकि उसमें अनेकता (multiplicity) अब भी विद्यमान है। [लेकिन इस समझ के बाद कि 'एक' (अवतार वरिष्ठ) ही अनेक (M/F) बन गया है] जीव (प्राणी -जीवात्मा) को अस्तित्व के साथ एकत्व Oneness की अनुभूति होती है, जो मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अद्वैत के अनुसार जीवात्मा के सम्मुख इन सब अनुभूतियों का प्राकाट्य[ पृथ्वी, सूर्य, ग्रह, तारे -देश-काल का सातत्य, रूपी प्रलय का अनुभव एक के बाद एक बहुत तीव्रता से ] क्रमशः होता है ; परन्तु जीव स्वयं न कहीं आता है , न जाता है; और ठीक इसी क्रम में वर्तमान जगत-ब्रह्माण्ड भी प्रक्षेपित (projected) हुआ है। इसी क्रम से सृष्टि (projection ) और प्रलय (dissolution ) होते हैं - इस चक्र का केवल एक अर्थ है 'पीछे जाना' और दूसरे का 'बाहर निकलना। "
प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके मोहबंधन के साथ ही होती है, और उसके मोबंधन से मुक्त होते ही यह विश्व (उसके लिए?) विनष्ट हो जाता है, तथापि औरों के लिए, जो अब भी मोहबंधन में हैं (तीनों ऐषणाओं के मोहबंधन में हैं, उनके लिए माया रूपी जगत का आकर्षण) अवशिष्ट रहता है। नाम और रूप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, तभी तक तरंग है जब तक कि वह 'नाम' और 'रूप' से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये, तो वह समुद्र ही है ; परन्तु उसके वे नाम और रूप (M/F में आसक्ति) तत्काल ही [आत्मसाक्षात्कार होते ही ] सदा के लिए नष्ट हो गए।
So though the name and form of wave could never be without water that was fashioned into the wave by them, yet the name and form themselves were not the wave. They die as soon as ever it returns to water. But other names and forms live in relation to other waves. This name-and-form is called Mâyâ, and the water is Brahman.
इसलिए उस तरंग के नाम और रूप जल के बिना नहीं हो सकते , जिससे नाम और रूप ने तरंग का [स्थूल शरीर ? का ] निर्माण किया , परन्तु फिर भी वे स्वयं तरंग नहीं हैं। जैसे ही तरंग (बूँद) पानी (समुद्र) बन जाती है, वैसे ही उसके नाम और रूप का लोप हो जाता है। परन्तु दूसरे नाम और रूप , जिनका दूसरी तरंगों से सम्बन्ध हैं , वर्तमान रहते हैं। यह नाम और रूप माया कहलाता है , और पानी ब्रह्म है। "
The wave was nothing but water all the time, yet as a wave it had the name and form. Again this name and form cannot remain for one moment separated from the wave, although the wave as water can remain eternally separate from name and form. But because the name and form can never he separated, they can never be said to exist. Yet they are not zero. This is called Maya.
सब काल में तरंग [बूँद] पानी के सिवा और कुछ नहीं है, परन्तु फिरभी तरंग (बूँद) के आकार में उसका नाम और रूप है।पुनः, ये नाम और रूप एक क्षण के लिए भी पानी से पृथक होकर नहीं रह सकते , यद्यपि तरंग [बूँद] जल रूप में अनन्त काल तक नाम और रूप से पृथक रह सकती है। किन्तु नाम और रूप कभी पृथक नहीं किये जा सकते , इसीलिए उनका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। तथापि वे शून्य (असत) नहीं हैं। और यही माया है।
मैं यह सब सावधानी से करना चाहता हूँ, लेकिन आप एक नज़र में ही देख लेंगे कि मैं सही रास्ते पर हूँ। शुषुम्ना नाड़ी से जुड़े ऊँचे और नीचे के केंद्रों के (सहस्रार और मूलाधार) के बीच परस्पर सम्बन्ध को जानने के लिए, मुझे शरीर विज्ञान (physiology)को अधिक गहराई से अध्यन करने की आवश्यकता है ,ताकि चित्त (mind-stuff,मन-वस्तु),मन, बुद्धि (intellect) और अहंकारआदि सम्बन्धी psychology (मनोविज्ञान या अध्यात्म विद्या) को पूर्णता प्रदान की जा सके। परन्तु अब मेरे मन पर पास स्पष्ट प्रकाश पड़ रहा है, धुँधलापन (कर्मकाण्डी जादूमन्त्र) से मुक्त।
मैं उन्हें वेदान्त के शुष्क और कठोर तर्क (महावाक्यों) को इस प्रकार देना चाहता हूँ, जिसे प्रेम की मधुरतम चाशनी से कोमल किया गया हो, प्रचण्ड कर्म से चटपटा (spicy -रोचक) बना हो, और योग की रसोई में पकाया गया हो, जिसे कोई बालक भी उसे आसानी से पचा सके। (खंड ४/३८५)
(निकोला टेस्ला की मुलाकात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा-Energy) और आकाश (Matter -पदार्थ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया था।
[विवेकानंद को उम्मीद थी कि टेस्ला का शोध इस बात की पुष्टि करेगा कि पदार्थ केवल अव्यक्त शक्ति (potential energy) है, (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है,पदार्थ केवल संभावित ऊर्जा है), क्योंकि इससे वेदों की शिक्षाओं और आधुनिक विज्ञान के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। उनका मानना था कि टेस्ला का यह शोध कार्य वेदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान को वैज्ञानिक बुनियाद (scientific foundation) पर मजबूती से स्थापित करेगा।
टेस्ला के पास फालतू समय एकदम नहीं होता था, वे हर समय लाइब्रेरी में बैठे रहते थे। लोग टेस्ला से मिलने के लिए आतुर रहते थे। वे एक ख्याति-प्राप्त व्यक्ति थे He was a Celebrity, सबलोग सोचते थे वे यदि हमारे घर पर खाने आ जाएँ तो हमारा परम् सौभाग्य होगा। किन्तु टेस्ला कभी किसी के यहाँ नहीं जाते थे। उनके पास समय ही नहीं था हर समय लाइब्रेरी में रहते थे। उनकी बुद्धि इतनी तेज थी की ब्रेन में सोचकर ही मशीन का नक्शा बना लेते थे , और हिसाब जोड़ने में उनको पेन-कागज की जरूरत नहीं थी। वे Mental Mathematics, मानसिक गणित कर लेते थे। इतने बुद्धिमान थे। स्वामीजी के साथ वेदांत और विज्ञान पर खूब आर्गुमेंट हुआ। लेकिन स्वामीजी का लेक्चर सुनने के लिए वे जल्दी लाइब्रेरी -प्रयोगशाला बंद करके पहुंच जाते थे। देर हो जाने से बैठने की जगह नहीं मिलती तो दरवाजे के बाहर खड़े हो कर वे स्वामीजी को सुनते थे। किसी भी तरह स्वामीजी को सुनूंगा , इतना पसंद करते थे।
🔱9(18.29 मिनट ).-"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' Energy and Mass are Interconvertible. या E=mc² ]
उन्होंने स्वामीजी को अपनी लाइब्रेरी देखने के लिए आमंत्रित किया। स्वामीजी ने कहा मैं तुमको वेदांत की कुछ जानकारी दूँगा, वेदांत के कुछ सिद्धांत (महावाक्य) बताऊँगा क्या तुम उसे Mathematics के आधार पर प्रमाणित कर सकोगे ? स्वामी जी ने कहा देखो मैं- सत्यापन योग्य वेदान्त के verifiable Truth सिद्धान्तों को ही उद्धृत करूँगा , किन्तु क्या तुम उसको उसको Mathematically Verify कर सकोगे ? वे सभी verifiable Truth हैं, Swami ji said look they are all Verifiable Truths! हां , हाँ , कर सकूंगा आप आइये मेरी लाइब्रेरी में। तब स्वामी जी ने क्या कहा ? स्वामीजी ने कहा - "Energy and Mass are Interconvertible " (एनर्जी एंड मास आर इंटरकन्वर्टिबल) अर्थात 'ऊर्जा और पिण्ड (द्रव्यमान) परस्पर परिवर्तनीय हैं'। उन्होंने कहा इस सिद्धान्त-'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे'को मैंने वेदान्त से (यजुर्वेद चरक संहिता) उद्धरित किय है -वैज्ञानिक भाषा में कहा है। क्या तुम इसको Mathematically प्रमाणित कर सकोगे?टेस्ला ने कहा, हाँ कर दूंगा, आप मेरी लाइब्रेरी में आइये। वहाँ उनके सामने बोर्ड पर कई equation लिखते हैं लेकिन प्रमाणित नहीं कर पाते हैं। तब कहते हैं स्वामीजी यह प्रमाणित नहीं हो पा रहा है , आपका जो यह वेदान्त का सिद्धांत या महावाक्य है -वह 'Theory' ही गलत लगता है। स्वामीजी कहते हैं -''मेरा वेदान्तिक सिद्धांत ग़लत नहीं है, तुम्हारा गणितीय उपकरण अभी इसके लिए तैयार नहीं है। ''My Vedantic Theory is not wrong your Mathematical Tool is not ready." स्वामीजी ने कह दिया तुम्हारे गणितीय उपकरण अभी उतनी प्रगति नहीं कर सके हैं। बिल्कुल सही कहा था स्वामीजी ने। क्योंकि 1905 ई ० में अल्बर्ट आइंस्टीन ने 'theory of relativity' सापेक्षता के सिद्धांत 'mass-energy equivalence' formula को E=mc²-को आविष्कृत किया । E=mc²' इस सूत्र को कितने लोग जानते हैं ? हाथ उठाओ। वाह -thank you ! लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस सिद्धान्त को 1905 में आविष्कृत किया , किन्तु उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि इस सिद्धान्त को स्वामी विवेकानन्द ने पहले ही घोषित कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जितने भी भी top साइंटिस्ट हुए हैं, सभी साइंटिस्ट विवेकानन्द को पहचानते थे। ' मैंने इस बात पर इतना जोर क्यों दिया है ? उसका चित्र अंत में दिखाउंगी।
मैं उस समय Theoretical Physics पढ़ रही थी। M.Sc. उस समय हमलोग इन Californian Scientists कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों को देवता जैसा महान समझते थे। कितना अद्भुत अविष्कार किये -ऐसा समझते थे। एक दिन वहाँ स्वामी रंगनाथानंद जी महाराज आये थे। उन्होंने पूछा तुम इस समय क्या पढ़ रही हो ? मैंने कहा महाराज मैं Theoretical Physics पढ़ रही हूँ। उन्होंने कहा - तुम जानती हो , मैं तुम्हारे Californian Scientists के साथ अभी अभी 'Roundtable conference' गोलमेज सम्मेलन करके लौटा हूँ ? वहाँ 12 Scientists बैठे थे, उनलोगों स्वीकार किया कि वेदान्त उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है। एक साइंटिस्ट David mom प्रसिद्द नास्तिक वैज्ञानिक Hopkins को समझाने गया कि वेदान्त के पास विज्ञान के हर प्रश्न का उत्तर है। Hopkins ने कहा-हेः एक दम Rubbish! क्या बेकार की बात कर रहे हो ? If you believe Vedanta ? Maya ? then in physics we are sand!' अर्थात यदि तुम एक वैज्ञानिक होकर भी वेदांत के माया पर विश्वास कर लेते हो, तो Physics ही समाप्त हो जायेगा।
🔱10. (21.50 मिनट) 'जगत माया (illusion) है' इस सिद्धान्त को2022 में साइंटिस्ट ने प्रमाणित किया नॉबल पुरस्कार मिला था।physics ने जगत माया है (अर्थात मिथ्या है) इसको proof किया है!! जानते हो ? 2022 में जिन तीन वैज्ञानिकों को नॉबल पुरस्कार दिया गया था, उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि -जगत माया (illusion) है ! The Universe Is Not Locally Real! अर्थातस्थानीय रूप से यह ब्रह्माण्ड वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?[एलेन एस्पेक्ट (Alain Aspect), जॉन क्लॉसर ( John Clauser) और एंटोन ज़िलिंगर (Anton Zeilinger) को उनके प्रयोगों के लिए 2022 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया। उनके प्रयोगों से पता चला कि ब्रह्माण्ड का स्थानीय यथार्थवाद दृष्टिकोण गलत है।जिससे यह साबित हुआ कि-The Universe Is Not Locally Real ! ब्रह्मांड स्थानीय रूप से वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?। उनके प्रयोगों ने वास्तविकता की विचित्र क्वांटम प्रकृति को सिद्ध कर दिया।Their experiments showed that the local realism view of the universe is likely to be false. Their experiments proved the strange quantum nature of reality. ]
🔱12. (22.40 मिनट)ppt 'space-time continuum' (T०E -Theory of Everything-अर्थात 'प्राण और आकाश से सृष्टि का प्रारम्भ।)में अल्बर्ट आइंस्टीन का चित्र है। उन्होंने Special Relativity theory' विशेष सापेक्षता सिद्धांत भी दिया था, तुम सुने हो। विशेष सापेक्षता सिद्धांत देश (space -अंतरिक्ष) और काल (time समय) के बीच संबंध का एक वैज्ञानिक सिद्धांत है।[Special Relativity theory is a scientific theory of the relationship between space and time.] इसके बाद उन्होंने आगे बढ़कर एक और सिद्धांत दिया था General field theory सामान्य क्षेत्र या एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified field theory)। इसी सिद्धांत को (T०E -Theory of Everything) भी कहा जाता है। उसमें उन्होंने प्रमाणित किया कि -देश (अंतरिक्ष ,आकाश या space) अलग नहीं है और समय (time -प्राण) भी अलग नहीं है, दोनों को एक साथ मिला देने से इसको ही 'space-time continuum'या अंतरिक्ष-समय सातत्य कहा जाता है।(Space is not separate, and time (life) is not separate, together it is called a space-time continuum.) आइंस्टीन के पहले तक विज्ञान जगत में ऐसी कोई अवधारणा नहीं थी। जबकि स्वामी जी ने वैज्ञानिकों से 1893 में ही कह दिया था कि देश (आकाश) और काल (प्राण) अलग -अलग चीजें नहीं हैं। साइंटिस्ट लोगों ने स्वामीजी से पूछा आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? स्वामीजी बोले- देखो 'दो Infinity (अनन्त)' नहीं हो सकते। अनन्त Infinity एक ही रह सकता है। इसलिए (आकाश और प्राण) दोनों को एक साथ मिलाकर 'देश-काल सातत्य या कन्टिन्युम्' कहना होगा। यह बात स्वामीजी ने 1893 में ही कह दिया था, जिसे आइंस्टीन ने 1915 में प्रमाणित किया।
ppt 'Time and Space' में लिखा है -[Vedanta recognizes Time and Space as relative, and not absolute. आइंस्टीन' Einstein's theory of relativity demonstrated that space and time are relative and dependent on the observer's frame of reference. This scientific insight echoes the Vedantic understanding of the non-absolute nature of Time and Space.While grounded in empirical science, Einstein acknowledged the mystical elements of understanding the universe. His sense of awe and wonder at the cosmos aligns with the Vedantic realization of an interconnected singular reality. ]
" वेदांत देश (आकाश) और काल (प्राण) को सापेक्षिक सत्य मानता है, निरपेक्ष सत्य नहीं।आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने यह प्रमाणित किया कि देश (Space) और काल (Time)अनुभवजन्य विज्ञान (Empirical Science) पर आधारित होने के बावजूद, सापेक्षिक सत्य हैं तथा द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर हैं। [जैसे कामिनी-कांचन में आसक्ति द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है।] यह वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि समय और स्थान की परिवर्तनीय प्रकृति की वेदान्तिक समझ को प्रतिध्वनित करती है।अनुभवजन्य विज्ञान(Empirical Science)पर आधारित होने के बावजूद, आइंस्टीन ने ब्रह्मांड -सृष्टि को समझने के रहस्यमय तत्वों को भी स्वीकार किया। ब्रह्मांड के प्रति उनकी विस्मय और आश्चर्य की भावना, अंतर-सम्बंधित विलक्षण परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की वेदान्तिक अनुभूति के अनुरूप है।"
हमलोग लिखते हैं - E=mc²', किन्तु इसका अर्थ क्या है ? नहीं समझते। एक वैज्ञानिक जिन्होंने बम बनाया कहते हैं इसे केवल मैंने समझा है, और आइंस्टीन ने समझा था। पूरा विश्व इस सूत्र से परिचित कब हुआ ? जब पहला Atom Bomb ब्लास्ट हुआ ! पहला बम ब्लास्ट कहाँ हुआ था ? हाँ , पहला परमाणु बम बिस्फोट हिरोशिमा नागाशाकी (जापान) में हुआ था। तब लोगों ने समझा यह E=mc² कितना बिध्वंशक हो सकता है। यदि पदार्थ (Matter) का एक छोटा सा 'कण', भी Energy में चेंज हो रूपांतरित हो जाये तो कितना विशाल Energy उत्पन्न होगा ! यदि इस टेबल के Matter को पूरी तरह से Energy में कनवर्ट कर सकें , पूरी पृथ्वी विनष्ट हो जाएगी। अब physics भी Matter और Energy को अलग अलग वस्तु नहीं मानाता है। जैसे समुद्र और तरंग अलग -अलग नहीं हैं। पानी को ही हम कभी तरंग (matter) कहते हैं और कभी समुद्र (Energy) कहते हैं।
🔱13.(25.05 मिनटppt नटराज की मूर्ति: [ इस बात का प्रतीक है कि "योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ही ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। The inner perception of a Yogi is the biggest argument for achieving God.]
सामने नटराज की मूर्ति लगीहै; उसको भगवान शिव कीनटराज मुद्रा कहते हैं। यह नटराज मुद्रा मूर्ति कहाँ लगी है जानते हो ? यह मूर्ति भारत में नहीं है , कहाँ लगी है ? यह मूर्ति यूरोप (स्विट्जरलैंड) में लगी है ,अभी उनलोगों की अवधारणा हुई है कि 'Cosmic Dance of Shiva ' शिव के द्वारा ब्रह्माण्डीय नृत्य करने से ही सृष्टि हुई है। और प्रलय या विनाश भी उनके ताण्डव नृत्य से हुई है। एक ही मूर्ति में सृष्टि और ताण्डव नृत्य से प्रलय को कैसे दर्शाया जा सकता है ? इसलिए उनलोगों परमाणु भट्टी (Nuclear reactor) के सामने नटराज की मूर्ति को लगा रखा है। चित्र में दो भारतीय वैज्ञानिक भी हैं, उसमें जो सिग्नेचर कर रहे हैं वे नोबल पुरस्कार विजेता चन्द्रशेखर हैं।
हमलोग शिव या काली की मूर्ति बनाते हैं, तो उसके पीछे की अवधारणा क्या है ?साइन्टिस्ट अभी हमारे शिवजी और माँ काली की मूर्ति के पीछे की अवधारणा को समझने लगे हैं। सामान्य विदेशी लोग हमलोग के माँ काली की मूर्ति देखकर कहते हैं - ये क्या है ? इसका तात्पर्य क्या है ? वे नहीं समझ पाते कि किस चीज के प्रतीक हैं ? लेकिन ये विदेशी साइन्टिस्ट लोग इसके अर्थ को समझ रहे हैं। वे वैज्ञानिक नटराज की मूर्ति को सृष्टि और विनाश या प्रलय लीला के प्रतीक को 'Cosmic Dance of Shiva' के रूप में देखते हैं। और Modern Physics भी प्रलय को कहता है- 'subatomic particles' are performing an Energy Dance !This is similar to energy dance of Shiva performing creation and destruction.
🔱17. (36.03 मिनट ppt Evolution Theory of Vedanta)वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त-Expansion and contraction of a Spring:
[स्वामी विवेकानंद द्वारा 1895. में ई. टी. स्टर्डी को लिखा पत्र,.... यहाँ काम बहुत बढ़िया चल रहा है।
" Ramanuja's theory is that the bound soul or Jiva has its perfections involved, entered, into itself. When this perfection again evolves, it becomes free. The Advaitin declares both these to take place only in show; there was neither involution nor evolution. Both processes were Maya, or apparent only.
In the first place,the soul is not essentially a knowing being. Sachchidânanda is only an approximate definition, and Neti Neti is the essential definition. We have it also in Vâsanâ or Trishnâ, Pali tanhâ. We also admit that it is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects. But, being a cause, it must be a combination of the Absolute and Maya.
" रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता (Divinity) उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से समाहित (Inherent) हैं। जब यह पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) पुनः विकसित होती है, तो जीव (बद्ध आत्मा या मोहग्रस्त आत्मा) मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें (बंधन-मुक्ति ) केवल भासित होती हैं। न क्रमसंकोच (involution) न क्रमविकास (evolution)| दोनों क्रियायें माया थीं, वास्तविक नहीं थीं , केवल भासमान - परिदृश्यमान अवस्था मात्र , भासित हो रही थीं।
पहली बात यह कि आत्मा तत्वतः ज्ञाता नहीं है। 'सच्चिदानन्द' आत्मा (ब्रह्म ) की केवल अनुमानित परिभाषा (approximate definition) है, जबकि 'नेति, नेति ' उसकी वास्तविक परिभाषा (essential definition) है। हमलोग भी पाली भाषा के 'तनहा'शब्द का अर्थ वासना,तृष्णा, तीव्र इच्छा या ऐषणा ही समझते हैं। हम भी यह स्वीकार करते हैं कि वासना (यानि तीनों ऐषणा) ही -" is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects." सब प्रकार की अभिव्यक्तियों का (स्थूल -सूक्ष्म शरीरों 2H का या नाम-रूप का) मूल कारण है,और प्रत्येक अभिव्यक्तिउसका (ऐषणाओं का ही ) विशिष्ट परिणाम हैं। ' But, being a cause, it must be acombination of the Absolute and Maya. ' -- परन्तु प्रत्येक अभिव्यक्ति (नाम-रूप - बूँद, बुदबुदा, तरंग या लहर) ऐषणा के कारण हैं , अतः वह कारण (शरीर) ब्रह्म और माया के सम्मिश्रण से उत्पन्न होता है। ...The Absolute first becomes the mixture of knowledge, then, in the second degree, that of will. वह अद्वैत तत्व पहले ज्ञान , उसके बाद इच्छा [ऐषणा] की समष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है।
[If it be said that plants have no consciousness, that they are at best only unconscious wills, the answer is that even the unconscious plant-will is a manifestation of the consciousness, not of the plant, but of the cosmos, the Mahat of the Sankhya Philosophy. ]
यदि यह कहा जाय कि-'पौधों में जान नहीं होती'(अर्थात plants में प्राण-consciousness या चेतना नहीं होती) या अधिक से अधिक वह 'निर्जीव इच्छाशक्ति' से युक्त है, ( चैतन्यरहित इच्छा-शक्ति से युक्त है), तो उसका उत्तर यह होगा कि यह 'अचेतन बीज से पौधाप्रस्फुटन-क्रिया' भी चैतन्य -(consciousness ,शाश्वत स्पंदन -या प्राण) की ही अभिव्यक्ति है। यह चैतन्य उस वनस्पति (जैसे छुई-मुई पौधे के बीज) का भले ही न हो, किन्तु यह उसी विश्व्यापी चेतन बुद्धि-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं। "The Buddhist analysis of everything into will is imperfect,.... बौद्धों का यह सिद्धान्त पहले तो अधूरा है कि - " दृष्टिगोचर जगत का सभी कुछ उस 'तनहा' --ऐषणा, या संकल्प आदि अभिव्यक्त हुए हैं "; क्योंकि, प्रथमतः 'इच्छा' स्वयं ही एक 'compound'- यौगिक या मिश्र पदार्थ है, और दूसरे रूप से चेतना (प्राण, होश या ज्ञान) सर्वश्रेष्ठ यौगिक वस्तु है (compound of the first degree), जो (छुईमुई के पौधे के बीज में) इच्छा के भी पहले से विद्यमान है।
" Knowledge is action. First action, then reaction. When the mind perceives, then, as the reaction, it wills." होश (ज्ञान, प्राण या चेतना) ही अपने आप में एक क्रिया है। प्रथम क्रिया , फिर प्रतिक्रिया। मन (छुईमुई का पौधा) पहले अनुभव करता है, उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें इच्छा (मुड़जाने का संकल्प) का उदय होता है। इच्छा (तृष्णा -ऐषणा -वासना-संकल्प-पौधे के) मन में रहता है, अतः यह कहना असंगत है कि - इच्छा (ऐषणा -संकल्प) अंतिम निष्कर्ष (last analysis) है। 'Deussen is playing into the hands of the Darwinists.' पॉल डायसन तो डार्विन-मतावलम्बियों के हाथ की कठपुतली मात्र हैं।
परन्तु क्रमविकासवाद (evolution) के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक परम्परा के पीछे (बीज से वृक्ष बनने पीछे) क्रमसंकोच (involution) की क्रिया निहित है। इसलिए इच्छा, वासना या संकल्प के क्रम-अभिव्यक्त (evolution) होने से पहले 'महत्' या ब्रह्मांडीय चेतना (वैश्विक होश cosmic consciousness) ही क्रमसंकुचित (involution) अथवा सूक्ष्म भाव से विद्यमान रहती है। बिना चैतन्य (होश, प्राण या ज्ञान) के इच्छा (ऐषणा या संकल्प) होना असम्भव है। क्योंकि इच्छित वस्तु के सम्बन्ध में यदि पहले से किसी प्रकार का ज्ञान (होश) न हो तो, तो उसको पाने की इच्छा या संकल्प का उदय होगा ही कैसे ? " (४/३४१-४२ )
[This being so, the evolution of the Vasana or will must be preceded by the involution of the Mahat or cosmic consciousness. (See also Vol VIII [6]Sayings and Utterances & Vol V [7]Letter to Mr. Sturdy.) There is no willing without knowing. How can we desire unless we know the object of desire? (खंड VIII [6] कथन और कथन और खंड V [7] श्री स्टर्डी को पत्र भी देखें।) बिना ज्ञान के कोई इच्छा नहीं होती। जब तक हम इच्छा की वस्तु को नहीं जानते, तब तक हम इच्छा कैसे कर सकते हैं?
[One of the insights Swamiji gives, is the distinction he makes between intelligence and consciousness. He says that Mahat, the first change of Prakriti, is intelligence, not self-consciousness because consciousness is only a part of this intelligence. Mahat or the cosmic mind, being universal, covers all grounds of sub-consciousness, consciousness, and super-consciousness. Swamiji further explains these three states. The sub-conscious state is what we call instinct, which we find in animals and humans. The instinct, according to Swamiji, rarely fails but has a very limited scope. It works like a machine in animals. The conscious state is a higher state of knowledge, which is also fallible but has a larger scope. Though of larger scope than instinct, reason fails more often than instinct. There is still a higher state of consciousness called superconsciousness, experienced only by the Yogis.]
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देखो -The ultimate thing in science is the search for unity'- अर्थात विज्ञान की अंतिम बात एकता की खोज है ! हमलोग अस्तित्व के साथ एकत्व की अनुभूति कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? किस वस्तु में वह एकत्व अंतर्निहित है ? वेदांत में उस एक को कहा गया है -'प्राणाः !'
[सर्वाणि भूतानि, सर्वे देवाः, सर्वे लोकाः,
सर्वे प्राणाः, सर्व एत आत्मनः समर्पिताः ॥
बृ०उप० ॥
all worlds, all organs and all these सर्वे प्राणाः (individual selves) fixed in this Self.] प्राण ( ह्रदय में विद्यमान निःस्वार्थपरता या आनन्दमय कोष, कारण शरीर) ही हर वस्तु में सब जगह अभिव्यक्त -manifest हो रहा है। और अमीबा से लेकर मनुष्य, और मनुष्य से लेकर 'देवता' तक में यह 'प्राण' ही विकसित होता रहता है। यही है वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त है।
[as per Vedanta the Evolution and Involution is Expansion and contraction of a Spring : Manifestation of the Inherent Divinity according to Vedanta : #Vedanta holds that the Evolution is something innate in every being from amoeba to human beings. # As if a compressed spring is kept in each one of us which tries to expand continuously.वेदांत के अनुसार अंतर्निहित दिव्यता की अभिव्यक्तिको क्रमविकास का सिद्धांत कहा जा सकता है !]
जबकि डार्विन के क्रमविकास का सिद्धान्त क्या है ? 'Evolution Involution theory' में डार्विन क्या कहता है ? डार्विन कहता है survival of the fittest' --योग्यतम की उत्तरजीविता । जो प्राणी बलवान है युद्ध में वही जीतेगा, वही रहेगा और बाकी मरेगा। यही है डार्विन थ्योरी। लेकिन हमारा वेदांत ऐसा नहीं कहता। हमारा वेदान्त कहता है कि देखो एक छोटा से बीज बोया , वह विकसित होकर छोटा सा पौधा एक दिन विशाल वृक्ष बन जाता है , तो क्या वो किसी अन्य के साथ युद्ध करता है ? नहीं, Naturally-सहज रूप में स्वयं वृक्ष बन जाता है। एक बीज को बोया गया , प्राकृतिक रूप से बड़ा हो जाता है। किसी बीज को बोने के बाद जब वह sprouting करता है अंकुरित होता है , तो क्या वह विस्फोट जैसा आवाज करता है ? नहीं,एकदम spontaneous- स्वतःस्फूर्त भाव से, सुंदर रूप में, शांत भाव से बड़ा हो जाता है। उसी प्रकार आम का बीज , बड़ा वृक्ष बन जाता है , उसी प्रकार अमीबा से प्राणी; और प्राणी से मनुष्य हो जाता है।
क्यों होता है ? वेदांत के अनुसार क्रम विकास (Evolution)और क्रमसंकुचन (Involution) मानो एक दबाकर रखे गए किसी स्प्रिंग (कमानी-Spring) का विस्तार और संकुचन है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे -Christ, Buddha or sinners में कोई अन्तर नहीं है, sinners क्या है ? माने एक Involved Christ है , या क्रमसंकुचित (कुण्डलीकृत) ईसा! sinners माने -देवत्व का Contraction, या Involution है। एवं -Christ या बुद्ध माने वह Expanded Sinner -क्रमविकसित पापी ! अर्थात किसी समय , जीवन के किसी पड़ाव पर वो (रत्नाकर) sinner रहा होगा, अभी वो सन्त बन गया है -बाल्मीकि ऋषि बन गया है ! हमलोगों के भीतर मानो एक spring को हमलोगों ने ही pressed करके या चिपटा करके रख छोड़ा है। उस अंतर्निहित spring का नाम है सच्चिदानन्द, जो हमारा यथार्थ स्वरुप है! (38.3)उस फैले spring को एक ही जगह पर (रीढ़ की हड्डी के मूलाधार पर ?) चिपकाकर (इस्तरी -करके) रख छोड़ा है। अब बताओ स्प्रिंग क्या करता है ? क्रमागत बड़ा होने (फैलने या विकसित होने) की चेष्टा करता है। ठीक है न ? उसी तरह स्वामी जी कहते हैं - Evolution माने और कुछ नहीं , क्रमविकास-वाद वही स्प्रिंग क्रमागत बड़ा होने या फैलने की चेष्टा करता है, यही Evolution है।
इसका तात्पर्य यही है कि हमारा जो spring' -अर्थात सूक्ष्म या कारण शरीर भीतर में कुण्डलीकृत है, वह हमें बैठने ही नहीं देगा ! तुम स्वयं को लेकर ही विचार करो - मैं क्या पूर्ण सन्तुष्ट हो गया हूँ ? Am I fully satisfied? (38.26) तुमलोग में हर व्यक्ति खुद से यह प्रश्न करो। Am I very Happy? क्या मैं बहुत खुश हूँ? ठीक है इस moment मैं first हुआ मैं बहुत खुश हूँ ! या इस क्षण मैं रसगुल्ला खाया, बहुत खुश हुआ ! लेकिन क्या अगले क्षण भी वही ख़ुशी बरकरार रहेगी ? और कुछ काम करूँगा , ऐसा विचार मन में उठता ही रहता है न ? Never we are satisfied ! हम कभी (BDO-DC होकर भी) संतुष्ट नहीं होते ! जिसको अच्छी तनख्वाह मिलती है वो सोचता है , इस साल और कितना बढ़ेगा ? और कितना कमा लूंगा। कोई यदि ऊँचा ओहदा भी पा लिया है , तो वो भी संतुष्ट नहीं होगा। कोई इससे भी बड़ी नौकरी करूँगा , ज्यादा पैसा मिलेगा। कोई Foreign में नौकरी करने गया , वो सोचेगा अभी और कुछ करना है। ऐसे ही स्वप्न हमलोग देखते ही रहते हैं - लगातार नए नए मनपसंद स्वप्न देखते रहना चाहते हैं। यही 'Law of Evolution'- क्रमविकास का नियम ! भीतर से एक अदम्य इच्छा तुमको press करती ही रहती है- Expand , Expand ,Expand ! वह अंतर्निहित शक्ति हमें देवता बन जाने तक (100 % निःस्वार्थी बन जानेतक) छोड़ेगी ही नहीं ! हमलोग चाहे संन्यासी हो जाएँ या गृहस्थ रहें - कोई छोटा बनके रहना पसंद नहीं करता , छोटा बने रहना नहीं चाहता। मैं छोटा मनुष्य बनकर रहूँगा -कोई ऐसा नहीं कहेगा। क्यों ? (39.30 मिनट) हम सभी लोग Freedom को पसंद करते हैं। मुक्ति हमारा स्वभाव है। Our Goal is freedom ! हमारा लक्ष्य मुक्ति है। हमारा स्वरुप ही सच्चिदानन्द है ! यही वेदान्त का नियम है। यहीं स्वामीजी ने सब कुछ लिया है।
यही बात अब Biology में भी बहुत सुंदर ढंग से कहा जा रहा है। अणु -परमाणु हर वस्तु में चैतन्य ही तो अंतर्निहित है। अपने शरीर को ही देखो न , इसमें billion billion cells - लाखों -अरबों कोषाणु हैं ! यदि एक कोशाणु में भी कुछ गड़बड़ हो जाये -तो हम कहते हैं , कैंसर हो गया। सभी cells आपस में Coordinate करके चलें, परस्पर समन्वित होकर चलें , तभी हमारा शरीर अच्छा रहेगा। सभी कोषाणु में Life -है , जीवन है। जीवन क्या है ??/(40.20) उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों -अरबों जीव -प्राणी हैं। हम सभी एक साथ Coordinate करते हैं , इसको हमलोग 'समष्टिगत प्राण ' कहते हैं। पुरे जगत को ही वैज्ञानिक लोग -एक cell के रूप धारणा कर रहे हैं। यह अवधारणा भी वेदांत से आया है।
इसको हमलोग समष्टिगत प्राण कहते हैं। इसको हमलोग वैदिक मंत्र में कहते हैं - "यत्र विश्वम् भवति एक नीडम्। "अर्थात् जहां संपूर्ण विश्व एक ही नीड में निवास करता है, सारा विश्व एक परिवार है ! यह विश्व एक cell की तरह कार्य करता है। यह हमारा अद्वैत मत है।
[योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है।वेद ने इस युक्ति (method) का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि- यत्र विश्वं भवति एक नीडम्:
वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्।
[Yogi's inner direct perception of God -(आत्मसाक्षात्कार) is the biggest argument in achieving it. The Vedas have mentioned this method in the following manner:
[मन्त्र का भावार्थ : - परमात्मा हर स्थान (देश) में छिपा हुआ है, गुह्य है। वह प्रभु सबका आवास-स्थान और आश्रय-स्थान है। हर मनुष्य, मनुष्य ही क्यों, जगत् का प्रत्येक जड़-चेतन उस पर मानो अपना-अपना घोंसला बनाकर बैठा हुआ है। वृक्ष पर घोंसले में बैठा पक्षी भले ही समझता रहे कि मेरा आश्रय तो घोंसला है, पर असल में उसका आश्रय वृक्ष होता है।जो मेधावान् है, जिसके अन्दर ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय हो गया है, जिसे प्रभुदर्शन की उत्कट लालसा लगी हुई है, जो कर्मण्य है, जो अर्चनाशील है मन से उसे पाने के लिए प्रवृत्त होता है, जो श्रवणशील और चिन्तनशील है, वही उसके दर्शन कर पाता है।
मेघावान् योगी उसे देखता है। जो हर स्थान (देश) में छिपा है। जिस ईश्वर में समस्त विश्व एक घौंसला के रूप में विद्यमान है। उसी ईश्वरीय सत्ता में उसके आधार पर ही यह जगत् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को धारण करता है। वह ईश्वर जात मात्र वस्तु में विभू और सर्वत: ओत-प्रोत है।
आत्म प्रत्यक्ष (self-realization) में मूलभूत कारण पुरुषार्थ है। जिसे महर्षि कपिल ने मनुष्य का चरम लक्ष्य बताकर सांख्य शास्त्र की रचना की है।
ईश्वर के स्वरूप वर्णन के साथ ईश्वर दर्शन से तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति ही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।
[The basic reason for self-realization is effort. Maharishi Kapil has created Sankhya Shastra by describing it as the ultimate goal of man. The ultimate effort of man is to attain salvation through the description of God's form and the complete removal of three types of sorrows from God's darshan. (विवेकदर्शन का अभ्यास से विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर तीनों दुःख से निवृत्ति है।)]
[ईश्वर अनन्त गुणोंवाला है। मनुष्य ईश्वर/ब्रह्म की अनुभूति तो कर सकता है लेकिन उसके समस्त गुणों को लेखनीबद्ध करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है। ईश्वर के स्वरूप को लेखनीबद्ध करना सागर से जल को खाली करने के तुल्य है। हमारा शरीर बिना आत्म सत्ता के संचालित नहीं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के संचालनार्थ विश्वात्मा की सत्ता का भान होता है। परमाणु किसी तत्व की सबसे छोटी इकाई होती है, जबकि अणु परमाणुओं का समूह होता है। प्रकृति (पदार्थ) का सबसे छोटा कण अपनी सूक्ष्मता के कारण परमाणु कहलाता हैं। जीवात्मा उससे सूक्ष्मतर और परमात्मा सूक्ष्मतम है। उपनिषत्कार ने इस सिद्धान्त का विवाद वर्णन करते हुए कहा है कि-
इन्द्रियेभ्य: परह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:।।
कठ० १/३/१०
'इन्द्रियों से अर्थ यानि उनके विषय सूक्ष्मतर हैं, उन इन्द्रिय-विषयों से सूक्ष्मतर है 'मन'; 'मन' से सूक्ष्मतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) भी सूक्ष्मतर है 'महान् आत्मा' (परमात्मा)।
शरीर रूपी पुरी (ह्रदय) में शयन करने से जीव (प्राणी) पुरुष है किन्तु ब्रह्माण्ड पुरी में व्याप्त होने से ईश्वर पुरुष है। इसीलिए इनको जीवात्मा और परमात्मा कहा जाता है।
दोनों पुरुष हैं। किन्तु परमात्मा महान् और उत्तम है।
यान्त्रिक गति से चलने वाले यन्त्र भी स्वयं गतिमान् नहीं। वह भी किसी किसी मनुष्य के द्वारा बनाए जा कर गति करते हैं। इसी प्रकार सृष्टि प्रलय का चक्र भी किसी चेतन नियामक के आधीन है।महर्षि व्यास जी का वचन है कि-अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। जन्माद्यस्य यत:। -वेदान्त १/१/१,२/ब्रह्म वह है जिसके द्वारा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है।
राज योग की अवतरणिका [Introductory(Raja Yoga)] में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं - "मनुष्य चाहता है सत्य , वह सत्य का अनुभव स्वयं करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है [अपने ह्रदय के भीतर ही उस इन्द्रियातीत सत्य 'परतत्त्व' का अनुभव कर लेता है] तब वेद कहते हैं-
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥
हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो- मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का मार्ग (नेता-अवतार वरिष्ठ को) खोज लिया है जो अजस्त्रज्योति है, उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । उसको जान करके ही मनुष्य मृत्यु के दुःख का अतिक्रमण (transcend) कर सकता है। मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा कोई पथ नहीं है।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥
[“Ye children of immortality, even those who live in the highest sphere,the way is found; there is a way out of all this darkness, and that is by perceiving Him who is beyond all darkness; there is no other way.”[Source]
'तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा अंधकार समाप्त हो जाता है , और हृदय की सारी वक्रता (मिथ्या अहंकार) सीधी हो जाती है। - भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ८ ॥ जब, उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' [अपरा और परा विद्या] है, तब, हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है। ॐ
[इस स्थिति में जो पहुँच जाते हैं, वे सच्चे संत कहलाते हैं। जब वे अपना अर्जित आत्मज्ञान दूसरे को देने लग जाते हैं तो उन्हें सद्गुरु कहते हैं। ज्ञान के स्तर पर सच्चे संत और सद्गुरु में कोई अंतर नहीं होता है। सच्चाई यही है कि जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वे सच्चे संत नहीं है और इसीलिए वे सद्गुरु भी नहीं हो सकते हैं। हाँ, यदि वे अध्यात्म पथ के साधक हैं तो हम उन्हें साधु, महात्मा, त्यागी, वैरागी, योगी, संन्यासी आदि नामों से अभिहित कर सकते हैं।
सद्गुरु नहीं होने के बावजूद इनमें से कोई गुरु हो सकते हैं। वह कैसे, इसको समझें। जब कोई सच्चे सद्गुरु देखते हैं कि अमुक शिष्य, साधु या साधक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु वह सदाचार समन्वित होकर नियमित साधना करता है, और उसकी आंतरिक चढ़ाई हो गई है तो वे उसे आवश्यकतानुसार इस ज्ञान को बताने यानि दीक्षा देने का अधिकार दे देते हैं। इस स्थिति में वह साधु या साधक (जो गृहस्थ या वैरागी दोनों हो सकता है।) गुरु या दीक्षागुरु कहलाता है, पर सद्गुरु नहीं कहलाता।]
"इस सत्य को प्राप्त करने के लिए (नेता बनने और बनाने के लिए) , राजयोग -विद्या आप सभी मनुष्यों के समक्ष (जाति-धर्म का भेदभाव किये बिना) यथार्थ व्यावहारिक और वैज्ञानिक पद्धति -[अष्टांग योग ] रखने का प्रस्ताव करती है।" (अवतरणिका, खंड 1 /38) ["The science of Râja-Yoga proposes to put before humanity a practical and scientifically worked out method of reaching this truth."]
नटराज मुद्रा के बारे में कुछ खास बातें: यह मुद्रा, भगवान शिव को ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में दर्शाती है। नटराज मुद्रा में शिव एक पैर को उठाए हुए खड़े होते हैं और दूसरे पैर को मोड़कर रखते हैं। नटराज मुद्रा में शिव के हाथों में डमरू और ज्वाला होती है। डमरू सृष्टि की लय को बजाता है, जबकि ज्वाला अज्ञानता को जलाने का प्रतीक है। शिव के उठाए हुए पैर के नीचे अक्सर एक राक्षस होता है, जिसे अप्समार कहा जाता है। यह राक्षस अज्ञानता और अराजकता का प्रतीक है। शिव के उठाए हुए पैर का मतलब है कि वे मुक्ति और भौतिक दुनिया से परे जाने की ओर बढ़ रहे हैं। शिव के नटराज स्वरूप की उत्पत्ति विषयक धारणा “आनंदम तांडवम” से जुड़ी है। नटराज मुद्रा, भारतीय कला में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त और पूजनीय छवियों में से एक है।
इसके आलावा हमलोगों के साइंटिस्ट इस समय विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़े -बड़े अनुसन्धान कर रहे हैं। किन्तु पाश्चात्य लोग भारतीय वैज्ञानिको को कोई महत्व नहीं देते थे। जगदीश चंद्र बोस को उसी समय नोबल प्राइज मिलने की बात थी , किन्तु नहीं दिया। क्योंकि उनके शोध की चोरी हो गयी थी। जिस साइंटिस्ट ने चोरी किया उसका नाम क्या था ? हाँ - उसका नाम था Guglielmo Marconi ! पर सबुत नहीं था। सुब्रह्मणियम चन्द्रशेखर ने 1920 में ही बता दिया था कि Black Matter का अस्तित्व है। उनकी बुद्धिंमत्ता देखो -कितना पहले -1920 में ही बता दिया पर यूरोपीय लोग तब नहीं माना। उन्होंने 1920 में जो शोध किया था उसका पुरस्कार 1984 में उनको नोबल प्राइज़ मिला।
अब पूरे विश्व में भारतीय ब्रेन को असाधारण माना जाता है। किसी वैज्ञानिक ने कहा था - "If the Indians are proud to be Indian then nobody can stop India from being Top of the world.' हमारा ब्रेन इतना शक्तिशाली है। किन्तु उसका उपयोग हम खराब दिशा में कर रहे हैं। हमलोग अब भी अपनेको दीनहीन समझ रहे हैं। और एक-दूसरे को नीचे दिखाने में यूज़ कर रहे हैं। स्वामीजी ने कहा था न - "ईर्ष्या -द्वेष आदि दास सुलभ दुर्बलता" हमलोग जिस दिन पीठ-पीछे बुराई करना जिस दिन त्याग देंगे , जिस दिन देश द्रोह करना छोड़ देंगे,उस दिन हम लोगों का देश सबसे महान बन जायेगा।' स्वामीजी ने पहले कहा था, अब वैज्ञानिक लोग भी वही कह रहे हैं।
🔱14. (29.01 मिनट) ppt वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के चित्र को देखो , ये सभी वैज्ञानिक विदेशी और भारतीय स्वामीजी द्वारा अनुप्रेरित थे। हमारे देश के और बिदेश के जितने भी इंटेलिजेंट, टॉप लेवल साइंटिस्ट हैं,सभी स्वामीजी से अनुप्रेरित हैं।
[सत्येंद्र नाथ बोस भौतिक विज्ञानी थे जिनके नाम पर बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी और बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट (बीईसी) का नाम रखा गया था, वे स्वामी विवेकानंद के वेदांत के आधुनिक भौतिकी के साथ संगत दर्शन के दृष्टिकोण से प्रेरित थे। बोस का आध्यात्मिक दृष्टिकोण उनके वैज्ञानिक अन्वेषणों का पूरक था। /In honor of Bose, a class of subatomic particles was named "Boson".भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक सत्येंद्रनाथ बोस को दुनियाभर में गॉड पार्टिकल के जनक के रूप में जाना जाता है। बोस के सम्मान में उपपरमाण्विक कणों के एक वर्ग का नाम "बोसोन" रखा गया। बोस को कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, लेकिन उन्हें कभी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट: बोस और आइंस्टीन ने पदार्थ की एक नई अवस्था, 'BEC' की भविष्यवाणी की थी, जो बोसोन का एक अतिशीतित संग्रह है। ठोस, द्रव, गैस और प्लाज़्मा के बाद'BEC' पदार्थ की पाँचवीं अवस्था है। [Satyendra Nath Bose the physicist after whom the Bose-Einstein statistics and the Bose-Einstein condensate (BEC) was named, was inspired by Swami Vivekananda's vision of Vedanta as a philosophy compatible with Modern Physics. Bose's spiritual outlook complemented his scientific explorations. Bose-Einstein condensate: Bose and Einstein predicted a new state of matter, BEC, which is a supercooled collection of bosons. BEC is the fifth state of matter, after solid, liquid, gas, and plasma. ]
🔱15. (29.30 मिनट -विश्वरूपदर्शन योग)ppt में लिखा है -ओपेनहाइमर (J Robert Oppenheimer), इन्होने क्या किया था ? उन्हें परमाणु बम का “जनक” कहा जाता है। आइंस्टीन जो सूत्र दिया था - E=mc² लेकिन उस सूत्र के आधार पर जिसने Atom Bomb बना दिया वे थे ओपेनहाइमर। उस समय स्पेन-जर्मनी में बम बनाने की होड़ लगी थी। All these people आइन्स्टीन, ओपेनहाइमर आदि वैज्ञानिक जर्मन यहूदी थे; ये सभी लोग जर्मन यहूदी थे German Jews थे, वहाँ से भागकर अमेरिका आ गए थे। उनलोगों ने सोचा हमलोगों को पहले बम बना लेना होगा, नहीं तो जर्मनी हमलोगों के सिर पर ही फोड़ देगा। इसलिए बम बनाकर जब टेस्टिंग का समय आया, लेकिन बम का टेस्टिंग कैसे होता है? जमीन को कुछ किलोमीटर गहराई तक खोद कर भूगर्भ में explode टेस्टिंग किया जाता है। जिस समय बम को explode किया जायेगा, तो छोटा बम रहने से भी एक tremor जैसे भूकंप के समय कम्पन होता है, वैसा आएगा। वे बड़े बुद्धिमान थे, वे एक सूत्री भीतर लटका दिए और 1.5 मीटर के बाद वह जल गया तो नाप कर बतला दिए कि कितना मेगावाट energy, release हुआ है ? 21 किलोटन टीएनटी की ताक़त वाला ये विस्फोट इंसान का किया अब तक का सबसे बड़ा धमाका है। इतने बुद्धिमान थे ? इस धमाके से इतना तेज़ कम्पन पैदा हुआ, जो 160 किलोमीटर दूर तक महसूस किया गया। उस धमाका ने सूरज की चमक को भी धुंधला कर दिया था। एटम बम के धमाके के बाद उन्होंने भगवतगीता के 11वें अध्याय (विश्वरूपदर्शन योग) के 32वें श्लोक कहा था -
दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥12॥
इसका अर्थ हमलोग नहीं बता सकते , किन्तु ओपेनहाइमर को याद था। यदि आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो Brightness (दमक-द्युति)- उत्पन्न होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।।
[अर्जुन ने कृष्ण से प्रश्न किया था ‘कि वे कौन हैं?' की प्रतिक्रिया में श्रीकृष्ण ने कहा ' मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। वे यहां सर्वशक्तिशाली काल और ब्रह्माण्ड के विनाशक के रूप में अपनी प्रकृति प्रकट करते हैं। "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।]
'ओपन हाइमर' ने यह उपमा बम के लिए कही थी। फिर भी गीता से उल्लेख करने का अर्थ यह हुआ कि पूरी गीता उन्हें कंठस्थ थी। इससे समझ लो कि हमारी संस्कृति का प्रभाव कहाँ तक फैला हुआ है ! इतना ही नहीं हमारे संस्कृत से ही दुनिया की सभी भाषाएँ बनी हैं। उनलोग जर्मन, रूसी, इतालवी, अंग्रेजी, फ्रेंच आदि भाषाओँ को - 'Indo -European Language' -'इंडो-यूरोपियन भाषा', कहते हैं लेकिन यदि इंडो को निकाल दें तो यूरोपियन कुछ नहीं बचेगा। उनलोगों ने देखा उनके सभी शब्द संस्कृत से निकले हैं , मदर , मातृ से निकला, ब्रदर (32.29 मिनट) -आया भ्रातृ से डॉटर आया दुहिता से। New, नया से निकला। कोई भी शब्द लो सब संस्कृत से आया है। यहाँ स्कूलों से संस्कृत को हटा दिया है , लेकिन ब्रिटेन के स्कूलों में संस्कृत सिखाया जाता है। और एक कारण है कम्प्यूटर भी संस्कृत भाषा को आसानी से पकड़ लेता है।
🔱16. (33.02 मिनट) ppt 'प्राण और आकाश से सृष्टि का प्रारम्भ: इरविन श्रोडिंगर को बहुत कम लोग जानते हैं। Quantum Mechanics का नाम जरूर सुने होंगे।(Erwin Schrodinger-Vedantic Influence on Quantum Physics - क्वांटम भौतिकी पर वेदान्त का प्रभाव) : उनको क्वांटम यांत्रिकी के जनक 'Father of Quantum Mechanics' कहा जाता है ! वे हमलोगों के वेदान्त से बहुत प्रेम करते थे। उनके लाइब्रेरी के दीवाल पर महावाक्य लिखा रहता था - 'अहं ब्रह्मास्मि !' 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' ये सब लिखा रहता था। कोई भारतीय आता तो बहुत स्वागत करते -You are coming from a noble country !! तुमसे यदि इन महावाक्यों की - 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' व्याख्या करने के लिए कहा जाये तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि हमने अपनी संस्कृति छोड़ दिया है और वे लोग संग्रह कर रहे हैं pickup कर रहे हैं। स्वामीजी बोलते थे जब गोरे लोग आकर कहेंगे कि तुम्हारी संस्कृति महान है, तब तुम लोग भी सीखोगे ।
- स्पेसटाइम सातत्य (Spacetime continuum) के ऊपर यूरोप के वैज्ञानिकों का एक रिसर्च आया है कि - स्पेस- टाइम सातत्य पर कार्य करने वाले इकाई बल को हल करने से सृष्टि का प्रारम्भ होता है।- 'Resolve unit force acting on Spacetime continuum result in creation ! पाश्चात्य के साइंटिस्ट ने खोज किया है।इसी बात को संस्कृत में कहा गया है - 'प्राण का आकाश के ऊपर कार्य करने से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है।' यह पढ़कर श्रोडिंगर अवाक् हो गया वैदिक ऋषि लोग इतने पहले मेडिटेशन करके कैसे जाना ? हमलोग अभी जो रिजल्ट पा रहे हैं , वे कैसे इतना पहले समझ लिए ?
यह पढ़कर मुझे गणेश और कार्तिक की कहानी याद आती है। शिव-पार्वती ने दोनों को बोले तुम में से कौन ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके जल्दी लौट सकता है ? कार्तिक की सवारी मयूर उड़ता है,उसने सोचा हमसे तेज गणेश कैसे आएगा ? वे उड़कर परिक्रमा करने चल पड़े। तेजी से लौट कर देखते हैं -गणेश को माला पहनकर पहले ही प्राइज दिया जा चूका है। वे सिर्फ अपने माता-पिता की परिक्रमा करके बैठ गए थे। क्यों ??-हिन्दू ऋषि लोग सबकुछ अपने भीतर ही खोजते हैं। (अपने भीतर कारण शरीर को खोज लेते हैं !) और सत्य को पा लेते हैं , पश्चमी लोग ब्रह्माण्ड की खोज करते हैं। अभी वाह्य जगत से भीतर की तरफ खोज करना शुरू किये हैं।
🔱18.(ppt 41.43 मिनट) One Rama = Ten Dollar/ स्वामीजी के लिए जैसे विदेश में विश्वधर्म सभा अपना हो गया था, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी Indian Science, Indian Industry का विकास स्वामीजी के कारण ही हुआ। जमशेद जी टाटा को उन्होंने ही Inspired किया जमीन -पानी का चयन किया। निवेदिता ने British Parliament में Signature campaign चलायी तभी Tata Institute बना नहीं तो नहीं होता। आज जो Tata Institute of Fundamental Research' से Barc, Isro , Drdo, फिर मंगल यान , फिर चंद्र यान हुआ। आदि जो प्रगति दिखाई देती है उसके पीछे स्वामीजी।ये सभी लोग Nuclear Scientist हैं। एक चित्र है ये लोग वेदान्त को ही धर्म समझते हैं। भगवान राम को उनलोग अपना आदर्श समझता है। राम के चित्र को लगाकर उनलोगों ने अपना Currency' चालू किया है। One Rama = Ten Dollar/ उनलोगों यूरोप के एक द्वीप पर अपना एक छोटा सा देश बसा लिया है। यहाँ हमलोग केवल वेदांत का ही अभ्यास करते हैं। उस द्वीप का नाम उनलोगों ने रखा है - 'Global Country of World Peace !'विश्व शांति का वैश्विक देश' ! देखो हमारे देश को बाहर के Scientist लोग किस श्रद्धा से देख रहे हैं ! मैंने एक घटना सुनी है , हमारे देश के कोई वैज्ञानिक वे आइंस्टीन से पढ़ने गए थे। वे उनको Indian Boys कहकर सबसे ज्यादा आदर देते थे।
हमको यह देखकर अफ़सोस होता है कि गुलामी की मानसिकता से हमलोग अभी तक ग्रस्त हैं। वो देश अच्छा , वह देश तो बहुत अमीर है , और अपने देश को गरीब -बुरा तथा दूसरे देशों को भला समझते हैं।जिस दिन तुम सभी लोग भारतवर्ष से प्रेम करने लगोगे ,आज से ही अपने- आप पर विश्वास , अपने स्वरुप पर गर्व और स्वरुप से प्रेम करोगे , परस्पर का सम्मान करोगे , हमारा देश Will rise to the Top of the world ! हमलोगों को अपने देश से प्रेम करना ही होगा - इसीलिए ठाकुर , माँ और स्वामीजी आये हैं।मैं प्रार्थना करती हूँ की प्रत्येक का जीवन हीरे जैसा बनेगा। तुमलोग देश के भविष्य हो देश को ऐसी वस्तु दोगे कि देशवासी सदा तुमको सदा याद रखेंगे -स्वामीजी से मेरी यही मेरी प्रार्थना है !
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['यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' -चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें समझाता है कि जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है।
यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।
इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ विद्यमान हैं- आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और आनन्दित होता है।
इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात (non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण(covering) है। हमारे शरीर के छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है।
वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। इधर-उधर आता-जाता है।
अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कूच कर जाता है।
जल का गुण द्रवत्व (fluidity) है। जल के समान ही मनुष्य में आर्द्रता होती है। तभी दया, ममता, करुणाआदि गुणों के कारण वह दूसरों के दुख को सुनकर द्रवित हो जाता है।
पृथ्वी का गुण ठोसपन (solidification) है। पृथ्वी की तरह मनुष्य भी ठोस है अन्यथा वह टिक नहीं सकता हवा में झूलता रहेगा। पृथ्वी की तरह शरीर में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एवं लवण कैलशियम, पोटाशियम, फासफोरस, सोडियम, लोहा, तांबा, सल्फर आदि विद्यमान हैं।
ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अंतर केवल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृति तथा पुरुष में समानता है। चरक संहिता इसी कथन को हमारे लिए कहती है-
यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषा:।
तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके॥
जो भाव पुरुष मै मुर्तिमान है वो इस लोक में भी विद्यमान है, और जो इस लोक में है वो पुरुष में विद्यमान है!अत: स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति को प्रकृति से वैध प्रेम (दोहन की भावना नहीं ) रखना चाहिए! जो भी कुछ मनुष्य के पिण्ड यानी शरीर में है, बिल्कुल वैसा ही सब कुछ इस ब्राह्मांड में है। संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है वह द्रव्यमान एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है।
ब्रह्माण्ड में चेतनता है तो मनुष्य भी चेतन है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलता फिरता रहता है। परन्तु जब यह किसी कारण से रोगी हो जाता है और चलने-फिरने में अक्षम हो जाता है तो इसमें जड़ता आने लगती है। ईश्वर ने बुद्धि के रूप में सबसे अच्छा उपहार इसे दिया है। इस बुद्धि से वह चमत्कार करता है।
इस प्रकार पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो इस ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी है।
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[साभार Shrinwantu Vishwe Amritasya Putra — Hear Ye Children Of Immortal Bliss (https://vivekavani.com/shrinwantu-vishwe-amritasya-putra/]
शृण्वन्तु बिश्वे अमृतस्य पुत्राआ ये धामानि दिब्यानि तस्थुः, “Hear, ye children of immortality, all those that reside in this plane and all those that reside in the heavens above, I have found the secret”, says the great sage. “I have found Him who is beyond all darkness. Through His mercy alone we cross this ocean of life.” (Source- Vol. IV. /Delivered in San Francisco area, April 9, 1900)]
“ Ye are the Children of Immortal Bliss ”. In the Vedic (actually Vedantic) tradition, it was believed, it is not man but it is his body that dies, man never dies.He is immortal, he is the “son of immortality”. We find the same idea in Bhagavad Gita too.☞ On one hand the entire world claims that a man has no place in this universe. He is a helpless, powerless creature. He has miseries, diseases, he has anxieties and finally he has death. He is nothing — he is simply nothing.☞ On the other hand the Upanishads of ancient India glorifies human being as “children of immortality”.
[“Children of immortal bliss” — what a sweet, what a hopeful name! Allow me to call you, brethren, by that sweet name — heirs of immortal bliss — yea, the Hindu refuses to call you sinners. Ye are the Children of God, the sharers of immortal bliss, holy and perfect beings. Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.]
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[2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था। 2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था। 1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।]
3400 वर्ष पहले यानी लगभग 125 पीढ़ी पहले एक भी यहूदी नहीं था।
2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था।
2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था।
1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।
500 वर्ष पहले यानी लगभग 20 पीढ़ी पहले एक भी सिख नहीं था।
आज हम हैं और इस तथ्य के जीते जागते प्रमाण हैं कि 125 पीढ़ी पहले भी हमारे पूर्वज थे। और उन पूर्वजों का धर्म सनातन धर्म अनंत काल से मौजूद था।
GCWP >Global Country of World Peace :
Have you ever heard of the Global Country of World Peace? It's a really interesting and a unique country that was founded by Maharishi Mahesh Yogi on October 7, 2000. Their goal is to bring together peaceful and harmonious individuals from all over the world, regardless of borders or differences. Tony Nader, a neurologist, is currently leading the country.
The Global Country of World Peace has its own currency called Raam, which is a local currency and bearer bond. It's used in Iowa and the Netherlands and one Raam equivalent to 10 dollarsin the US and 10 Euros in Europe. The Raam comes in different denominations of 1, 5, and 10, and it's not meant to replace any existing currencies. Rather, it's used for specific transactions within the community. The organization also promotes the use of gold to back up the Raam, so it's more stable and reliable than other currencies.
One of the coolest things about the GCWP is the "peace palaces" they've built in different US cities. These buildings look like temples and offer classes on things like ayurvedic treatments, herbal supplements, and transcendental meditation. You can find peace palaces in cities like Bethesda, Maryland, Houston and Austin, Texas, Fairfield, Iowa, St. Paul, Minnesota, and Lexington, Kentucky.
The ultimate goal of the GCWP is to create a world without violence or conflict. They believe that promoting inner peace and harmony through their teachings and practices can help achieve this. Some people might think this is a utopian dream, but it's still admirable that they're working towards a more peaceful world.]
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Special relativity: Einstein's 1905 special theory of relativity established that space and time are connected, but didn't consider gravity.
General relativity: Einstein's 1915 general theory of relativity expanded on special relativity to include gravity.
Space-time continuum: Einstein's theory describes space and time as a 4-dimensional continuum that's curved by gravity.
Space-time interactions:
Einstein's theory describes how space-time acts on matter and is acted upon by matter.
Some consequences of general relativity include:
1.Gravitational time dilation: Clocks run slower near massive objects
2.Light deflection: Light bends in gravitational fields
3.Frame-dragging: Rotating masses "drag along" the spacetime around them
4. Expansion of the universe: The universe is expanding
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[The International Electrical Congress (IEC) was held in Chicago in 1893 to discuss electrical units, telegraphy, and electricity applications. The Congress took place from August 21–25, 1893, as part of the World's Columbian Exposition.Elisha Gray was the Congress president. The Congress discussed various applications of electricity. Nikola Tesla gave a lecture on mechanical and electrical oscillators. The Congress established the International System of Electrical and Magnetic Units (ISEMU)]
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['ओपन हाइमर' जो प्रथम अणु बम बनाने की योजना के सदस्य थे और हिरोशिमा और नागासाकी के विनाश के साक्षी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के इस श्लोक को निम्न प्रकार से उद्धृत किया है-'काल'-मैं समस्त जगत का विनाशक हूँ। काल, कृष्ण या -माँ काली ही सभी जीवों के जीवन यानि उम्र की गणना करते है और उसे नियंत्रित करते हैं । माँ काली या ठाकुर ही यह निश्चित करेंगे कि भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महानुभावों के जीवन का अन्त कब होगा ? यह अर्जुन के युद्ध में भाग न लेने के पश्चात भी युद्ध भूमि की व्यूह रचना में खड़ी शत्रु सेना का विनाश कर देगा ; क्योंकि भगवान की संसार निर्माण की विशाल योजना के अनुसार ऐसा होना भगवान की इच्छा है। “मैं प्रलय का मूलकारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए आता है। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएंगे।"
भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। भगवान् का यह लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभी कभी विनाश करने में दया ही होती है। किसी टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि अर्जुन। तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा। भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है। और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है। इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे। ]