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बुधवार, 13 अगस्त 2025

⚜️️🔱नर देह प्राप्त करने का महत्व-Who 'I' am ? ⚜️️🔱विवेकचूडामणि सार | Session 7 |⚜️️🔱

नर देह प्राप्त करने का महत्व

 (स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।) 

       इस ग्रन्थ के शुरुआत में ही शंकराचार्य जी हमें नर देह प्राप्त करने महत्व बताते है। यह मनुष्य शरीर प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ वस्तु है। यह एक मशीन है , इसके द्वारा एक प्रयोजन सिद्ध होता है।इस मशीन का एकमात्र उद्देश्य है - सत्य का आविष्कार करना। इस मशीन को प्राप्त करके भी अगर हमने उस सत्य को नहीं जाना, तो बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। इस मनुष्य देह रूपी मशीन से अतिरिक्त जितने मशीन हैं , उनके अंदर सत्य को जानने की क्षमता ही नहीं है। उनको तब तक प्रतीक्षा करना होगा ,जब तक यह मशीन उनको नहीं मिल जाता है। इस ग्रन्थ के शुरुआत में ही शंकराचार्य जी हमें जगा रहे हैं , हम निद्रित हैं - मोहनिद्रा में सोये हुए हुए हैं। वे बता रहे हैं -इस बहुमूल्य मानव-शरीर के महत्व को समझो। नहीं तो हम इस मशीन का दुरूपयोग कर बैठेंगे और एक महान अवसर खो देंगें।  

       मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य सत्य को जानना है ! सत्य को जानेंगे तब ही हम बंधन से मुक्त होंगे। ये सब समीकरण के जैसा है। -these all are equations ! इस बंधन से मुक्त होने रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता है। उसके बिना हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएंगे। उन चार साधनों को हमलोग वेदांत में साधन चतुष्टय कहते हैं। वे इस प्रकार हैं - विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। षट्सम्पत्ति या छह असली सम्पत्ति क्या हैं - शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। अभी हमलोग एक एक योग्यता की परिभाषा देखेंगे। हमलोग यह अन्वेषण करने जा रहे हैं , कि जिसको हम मनुष्य कहते हैं , वह वास्तव है क्या ? उसी प्रकार यह जो विश्वप्रपंच हमको दिखाई दे रहा है , यह वास्तव में है क्या ? जिसको हमलोग M/F कह रहे हैं,वो वास्तव में हैं क्या ? यह अपने आप एक बहुत बड़ी Mystery है ! हमलोग आँखों से जो देख रहे हैं -वैसा है क्या ? ये बहुत बड़ा प्रश्न है। इस खोज में अग्रसर होने के लिए साधन-चतुष्टय की आवश्यकता है। इसमें पहला साधन है विवेक , इसकी परिभाषा देते हुए  शंकराचार्य जी कहते हैं - 

 ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवरूपो विनिश्चयः |
सोयं नित्यनित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः || 20 ||

20. मन की यह दृढ़ धारणा कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है, सत्य और मिथ्या के बीच विवेक कहलाती है।

 

 जितने भी अद्वैत सनातन वेदांत के अनुयायी हैं, सभी ने श्लोक अवश्य सुना होगा। इस एक पंक्ति में परम सत्य को हमारे सामने रखा गया है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। दूसरी पंक्ति और भी Important है। इन दो पंक्तियों प्रत्येक मनुष्य का सत्य है। सत्य की परिभाषा क्या है ? वेदांन्त के अनुसार - सत्य वो है जो त्रिकाल अबाधित है ! तीनों कालों में जो बाधित नहीं होता -उसको सत्य कहते हैं। जो समय की तीनों अवस्थाओं में सत्य है। जो नित्य विद्यमान है , जो कभी भी जाता नहीं है। इस परिभाषा के अनुसार अपने जन्म से लेकर अभी तक अपनी इन्द्रियों से हमने जो कुछ अनुभव किया वह इस कसौटी पर खरी उतरती है क्या ? हमने जो कुछ अनुभव किया इन्द्रियों के द्वारा ऐसा कुछ देखा जो तीनों कालों में विद्यमान है ? ऐसा कोई इन्द्रियगोचर वस्तु आप में से किसी ने देखा है , जो अतीत में भी था , वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा -ऐसा कोई वस्तु आप में से किसी ने देखा है ? हमारे इन्द्रियजगत का हर वस्तु बुलबुले की तरह है या नहीं ? अभी प्रकट हुआ , अभी नष्ट हो गया ? -Emerging and disappearing, Emerging and disappearing ..... इसकी ही शृंखला है। आप कुछ भी ले लीजिये -कल शाम को बगीचे में एक फूल दिखाई दे रहा था - अब नहीं है। आपकी अवलोकन दृष्टि बहुत तीक्ष्ण होनी चाहिए। उस फूल की उत्पत्ति के पहले वो अदृश्य था , अब उस फूल के नष्ट होने पर दुबारा अदृष्ट हो गया है। बीच कुछ समय के किये वह दिखाई दिया। हमलोग जो कुछ भी देख रहे हैं -सब बुल बुले के समान ही है। दिखे -गायब हुए , दिखे गायब हुए - कोई संदेह ? अभी एक घंटे में कितने बुलबुले उत्पन्न हुए और नष्ट भी हो गए -किसी को कोई फर्क पड़ा क्या ? अब इसी बात को अपने ऊपर लागु करके दिखिए। -You have to be very bold now अब आपको बहुत साहसी होना होगा। (विवेकानन्द की कृपा पाने के बाद -आपको साहसी तो होना ही पड़ेगा।) अभी इस बुलबुले को देखिये जिसका नाम 'B.K.S' दे दिया गया है। बड़ी मजेदार बात है , इन बुलबुलों को आपने एक नाम दे दिया है। हम सब बुलबुले हैं - थोड़ी देर पहले हम नहीं थे , अभी दिखाई दे रहे हैं , थोड़ी देर बाद ये दुबारा अदृश्य होने वाले हैं , ये दिखाई भी नहीं देंगे !! जो बीच में दिखाई दे रहा है उसका हमने एक नाम दे दिया है , जो सत्य सा दीखता है। पर ये मेरा नाम-रूप सत्य है क्या ? सत्य वह है -जो तीनों कालों में रहता है , सब समय विद्यमान रहता है। जगत की प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तनशील है। समुद्र की सतह पर एक लहर उठा , दूसरे क्षण चला गया। पानी हमेशा विद्यमान है। ये जो सूर्य हमेशा दीखता है -वो क्या है ? इस सूर्य की आधी life खत्म हो गयी है , आधी बाकि है। ये सूर्य भी पहले नहीं था। फिर ये भी डेड स्टार हो जायेगा। आप कहोगे ये हिमालय तो है। ये हिमालय एक समय में नहीं था , आगे नहीं रहेगा। पर सब परमामेंट लगता है। परमानेंट है क्या ? 500 साल बाद आप यहाँ आप आएंगे तो ये सब कुछ नहीं रहेगा। 

     शंकराचार्य जी जगत के बारे में एक बहुत सुंदर शब्द का प्रयोग करते हैं- 'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' इसको लिख लीजिये। इस पर आपको चिंतन -मनन करना है। हर वस्तु का स्वभाव रूप सबकुछ बदल रहा है , यहाँ पर कुछ भी स्थायी नहीं है। इसी 1 घंटा में 'BKS' में कितना बदलाओ हो गया है , आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते।  जो सतत बदल रहा है -वो वस्तु कहाँ है ? शंकराचार्य जी एक और सुंदर शब्द कह रहे हैं - 'दृष्ट नष्ट स्वभाव।' जिस वस्तु को मैं अभी देख रहा हूँ, वो वस्तु उसी समय नष्ट भी हो रही है। दर्शनकाल में ही वो वस्तु नष्ट हो रही है। matter तो Energy के सिवा कुछ नहीं है। भौतिकशास्त्री को जगत नहीं दिखेगा atoms ही दिखेगा। Modern Physicist - आधुनिक भौतिक विज्ञानि भी यही कहेगा की जगत कहाँ है - ये तो सिर्फ Energy है। गहराई से देखने पर दृष्टि बदल जाती है। स्वामीजी ने कहा है -आधुनिक भौतिकी भी बहुत जल्दी अद्वैत वेदांत के निष्कर्ष पर पहुंचेगी ! Modern physics will come to conclusions of advaita vedanta इन सब तथ्यों का आविष्कार हमारे ऋषियों ने तब किया था जब इन पाश्चात्यदेशों का जन्म भी नहीं हुआ था। जो कुछ दिखाई दे रहा है वो थोड़ी देर के लिए है , इसको समझ जाओ तो जीवन बदल जायेगा। विवेक पूर्वक जीना ही art ऑफ़ living है। मगरमच्छ को आप लकड़ा समझकर व्यवहार कर रहे हो। मिथ्याजगत को सत्य समझकर उसके साथ व्यवहार करना बड़ा समझदारी का काम लगता है , लोग कहते है -छोटका भैवा प्रैटिकल है , लेकिन ठीक उल्टा है। विवेक हमें बताती है कि भाई देखो सत्य क्या है - मिथ्या क्या है ? जो प्रकट होता है , फिर अदृश्य हो जाता है , वो सत्य नहीं हो सकता। 'जगत प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है।

    तो जगत क्या है ? मिथ्या ! कोई शक ? (26.40 मिनट) इसको मिथ्या क्यों कहते हैं ? ये 'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' है ! ये बुलबुलों के समान -दिख रहा है, अदृश्य हो रहा है, दिख रहा है, अदृश्य हो रहा है। यहाँ पर सबकुछ अनित्य है - कोई भी नित्य वस्तु हमको दीखता है क्या ? ये शरीर भी जगत-मिथ्या में है। ऐसा भ्रम मत पालना -ये जगत में सबकुछ मिथ्या है , केवल मेरा शरीर ही नित्य है, बाकि सब मिथ्या है ! ये शरीर अभी दिख रहा है , कल ही अदृश्य हो जायेगा। ये बुलबुला जो कल अदृश्य हो जायेगा -इससे किसी को कुछ फर्क पड़ने वाला है क्या ? किसीको कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। ईश्वर करे आप दीर्घायु हों - लेकिन आज नहीं कल सभी disappear होने वाले है। कितने आये -गए , उनके लिए अभी कोई रोता है क्या ? तो इस प्रकार विवेक आ जाने पर इसी समय जीवन-मृत्यु के प्रति देखने की दृष्टि बदल जाती है। हमलोग मृत्यु को लेकर परेशान हो जाते हैं। यही बात कृष्ण अर्जुन से कह रहे थे , अरे भाई जो जन्म है , सो मरेगा। जो प्रकट हुआ है, वो अदृश्य होगा - तू रोता क्यों है अर्जुन तस्मात् अपरिहार्ये अर्थे न त्वम् शोचितुम् अर्हसि !

"जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।"  (2.27)


इसका अर्थ है: "जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरा है, उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिए, जो अवश्यंभावी है, उस पर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।" इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र के बारे में बताते हैं, और यह समझाते हैं कि आत्मा कभी नहीं मरती, केवल शरीर बदलता है। इसलिए, शोक करना व्यर्थ है, और अर्जुन को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।  इसलिए जन्म होने पर न तो खुशियाँ मनाने की बात है , और मृत्यु होने पर  भी आँसू बहाना जरुरी है। बर्थडे पर केक काटना - एक बुलबुला आ गया सामने। जो बुलबुला आया है वो अदृश्य होने के लिए ही आया है।  कोई शक ? बुलबुले को सत्य समझकर हम जो उसकेसाथ व्यवहार कर रहे हैं - यही हमारा बंधन है। विवेक के साथ सभी को देखिये - जो जैसा उसके साथ वैसा व्यवहार कीजिये - भ्रम में मत रहिये। समस्या दृष्टिगोचर जगत में नहीं है , उसको लेकर हमारे मन में भ्रम बैठा हुआ है -उसमें है।

     जब आप सभी रिश्तों-नातों को विवेक के साथ देखना शुरू कर देते है -तब ही Real life शुरू होता है। तब आप सभी परिस्थितियों को बहुत बुद्दिमत्ता पूर्वक सँभालने के योग्य बन जाते हैं। बगैर कहीं 'दादा-दादीयों ' के मोह में फंसे हम सारे 'कालनेमियों' के साथ यथा-योग्य व्यवहार करने में सक्षम हो जाते हैं। शंकराचार्यजी हमें बतायेंगे कि हमलोग बंधन में क्यों पड़ जाते हैं -हमलोग विवेकी होकर भी, सिंह होकर भी भेंड़त्व के Trap में या जाल में कैसे फंस जाते है ? हमारी दृष्टि ही गलत है, जो मिथ्या है , उसको सत्य समझकर हम उसके साथ व्यवहार कर रहे हैं। कालनेमि को ही यदि  मुनि समझकर जो उसके साथ व्यवहार करोगे - तो पहुँचोगे कहाँ ? मगरमच्छ के पेट में ही पहुँचोगे। बिल्कुल यही हो रहा है। जीवन में जो भी दुःख है वो इसी अज्ञान के कारण  है -इसी अविद्या के कारण है -अर्थात अविवेक के कारण है। शंकराचार्य जी कोई नई बात नहीं कह रहे हैं -हमारे उपनिषदों की बातें ही बता रहे हैं। तो विवेक क्या है ? यह जगत मिथ्या है - यह समझलेना ही विवेक है। लेकिन वो सत्य वस्तु क्या है ? [ब्रह्म है या शक्ति है ? matter है या Energy है ?] इसका ज्ञान आज हमको नहीं है !! लेकिन अभी सुन लीजिये, श्रवण कर लीजिये - एक वस्तु है , जो कि नित्य है ! जो तीनों कालों में विद्यमान है , एकदम हमारे ह्रदय के अंदर ही है -लेकिन आज हमको वो अनुभव नहीं हो रहा है। उस सत्य वस्तु को एक नाम दे दिया गया है - ब्रह्म ! आप उसको ब्रह्म कहो, आप उसको आत्मा कहो , परमात्मा कहो , ईश्वर कहो , भगवान कहो , इन सारे शब्दों का मतलब वही है। अभी हम जिसको राम कह रहे हैं , कृष्ण कह रहे हैं , शक्ति या माँ काली या माँ सारदा कह रहे हैं ? हम उसी एक नित्य वस्तु की पूजा कर रहे हैं। अच्छा किसी अनित्य-या नश्वर वस्तु की हम पूजा कर सकते हैं क्या ? किसी नश्वर या अनित्यवस्तु की पूजा तो कोई भी नहीं कर सकता। हम पूजा सिर्फ उस वस्तु की कर सकते हैं , जो सब समय विद्यमान है। अंत में वेदांत हमें सिखाता है कि तुम जो अपने को बुलबुला समझ रहे थे , तुम वो नहीं हो - तुम स्वयं ही ब्रह्म हो ! तुम अविनाशी आत्मा हो -नश्वर अब शरीर नहीं हो ! अभी ये खोज का विषय है - आज हमको उसकी अनुभूति नहीं है। जैसे शास्त्र और गुरु ने बताया -अगर उस पथपर हम चलना शुरू कर देते हैं , तो एक दिन यह अनुभूति हम सबको होने वाली है। 

      सत्य क्या है ? ब्रह्म है ! जगत क्या है ? मिथ्या है ! इति एवं रूपो विनिश्चयः ! सोयं नित्यनित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः || 20 ||  आचार्य शंकर कहते हैं -ऐसा जो निश्चय है -यही 'नित्य-अनित्य वस्तु -विवेक' कहलाता है। इस प्रकार यह जो हमारी 'निश्चयात्मिका-बुद्धि' है- हम जो भी देख रहे हैं -उसके प्रति एकदम स्पष्ट रूप से मिथ्यत्व बुद्धि होनी चाहिए। जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि कभी नहीं आनी चाहिए। इन्द्रियों से हम जो कुछ भी देख रहे हैं - सब मिथ्या है। ये जगत सत्य है - ऐसी बुद्धि विवेकी मनुष्य में होनी ही नहीं चाहिए। मिथ्या क्यों है ? क्योंकि सबकुछ यहाँ बुलबलों के समान प्रकट हो था है , अदृश्य हो रहा है। कोई शक ? हमने जितने भी स्त्री-पुरुष नाते-रिश्ते मित्र आदि के अनुभव किये थे -वे सब इसी प्रकार हैं। अभी हैं , अगले क्षण वे नहीं हैं। समुद्र सत्य है -लहरें मिथ्या हैं। ब्रह्म वो समुद्र रूपी एक सत्यवस्तु है , जिसकी सतह पर यह जगत रूपी लहर उठ रही है। हमलोग मिथ्या को सत्य समझ लिए हैं , यही हमारी समस्या है। बुलबुला नाम का कोई चीज है क्या ? -ये तो पानी ही है। उसी प्रकार जब आप मनुष्य के तह की खोज करते हैं - तो मनुष्य गायब हो जाता है भगवान की अनुभूति हो जाती है। उसी प्रकार जगत को खोजने पर जगत चला जायेगा ब्रह्म ही दिखाई देगा। जबतक Investigation नहीं होता है , हम सतह पर जो दिखाई देता है , उसीको सत्य मान कर व्यवहार कर रहे हैं। समझ रहे हैं -क्या विडंबना है? ईश्वर-रूपी समुद्र में मनुष्य रूपी बुलबले प्रकट हो रहे हैं -अदृश्य हो रहे हैं। मनुष्य मिथ्या है , ईश्वर ही सत्य है। इस स्पष्ट-दृष्टि को विवेक कहते हैं। जब आपको जगत-मिथ्या और ब्रह्म सत्य इतने स्पष्ट रूप में दिखेगा तब आपका जगतव्यवहार बुद्धिमत्ता पूर्वक होगा - कोई कालनेमि का जाल आपको बाँध नहीं सकेगा। यह समझ हमारे जीवन में एक क्रांति उत्पन्न कर देगी। आप समस्त समस्याओं का बहुत बुद्धिमानी से समाधान खोज लेंगे। विवेक वह दृष्टि है -जिसमें कोई दो चीजें घुलमिल गयी हों -गोल-माल कहते हैं ; माल को ले लेना है -गोल को छोड़ देना हैमगरमच्छ को आपने लकड़ा समझ लिया , गोलमाल हो गया। राक्षस कालनेमि को मुनि समझ लिया -गोलमाल हो गया। कालनेमि में भी ब्रह्म है - पर वो अभी नाम-यश रूपी रावण का गुलाम बना हुआ है। यह विवेक सिर्फ मनुष्य मात्र ही कर सकता है - गाय को तो अपना घाँस ही सत्य दिखाई देगा। चलते समय भी गाय की दृष्टि केवल घाँस की तरफ है , हम मनुष्यों की दृष्टि भी बिल्कुल उसी प्रकार है। हमलोग भी पशुओं के समान केवल विषयों के पीछे ही भागते जा रहे हैं। जब तक हमारा विवेक-जागृत नहीं होता हम बिल्कुल गाय और भैस  की तरह ही हैं। गाय -बैल घांस के पीछे जाता है , हम विषयों के पीछे जाते हैं। क्योंकि उन विषयों के पीछे -हमारी सत्यत्व बुद्धि है। रुप-रस, गंध-शब्द -स्पर्श ये सारे विषय बुलबुलों के समान हैं कि नहीं ? ये विचार का विषय है, ये मंथन करना है। मिथ्या विषयों के पीछे पीछे दौड़ना , उस गड्ढे में गिरने के समान है -जिसका तल है ही नहीं। बाहर के स्थूल रूप तक ही हमारी दृष्टि अभी सीमित है। और यही बंधन है। M/F स्थूल रूप है ही नहीं - अस्ति, भाति, प्रिय है। नाम-रूप मिथ्या है। उसी मिथ्या में हम अपने को डुबो रहे हैं -इसीलिए जगत से कोई भी व्यक्ति तृप्त नहीं हो सकता। श्रवण-मनन करने से दृष्टि हमारी बदल रही है। गुरु और शास्त्रों के अनुसार चलने से जो विवेक-दृष्टि हमें प्राप्त होती है , वह दृष्टि क्या फिजिक्स क्लास में मिल सकती है ? आपके माता-पिता भी वो दृष्टि नहीं दे सकते -क्योंकि वे सभी भ्रमित हैं। आपके माता-पिता बहुत अच्छे लोग हो सकते हैं , किन्तु सत्य का निर्देशन नहीं कर सकते। जो सत्य को जानता है , वही हमें सत्य का निर्देशन कर सकता है। जब तक आप मिथ्या जगत को सत्य समझ रहे हो , तबतक आपके दिमाग में भूँसा ही भरा है न ?  मिथ्या जगत को जो सत्य समझ रहे हो -वो भूँसा है या नहीं ? अब तक हमारे व्यवहार का जो आधार था वो क्या था ? मिथ्या जगत को सत्य समझकर हम व्यवहार कर रहे हैं। और हम समझ रहे थे कि हम बहुत समझदार हैं। समझदार है क्या ? ये सब विचारणीय प्रश्न है। ये जो स्पष्ट देखने वाली दृष्टि है - 'इति एवं रूपो विनिश्चयः' हम में आएगी। ज्ञानमयी दृष्टि -सत्य क्या है ? और जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है -वह क्या है ? गोल-माल में स्पष्ट दृष्टि। मिथ्या क्या है ? सत्य क्या है ? इसको हम विवेक कहते हैं। इसीलिए विवेक को चूड़ामणि कहा गया है , इस विवेक से बढ़के कुछ है क्या ? वेदांत कोई किताबी जानकारी नहीं है - It's Not a theory ! It's life transforming ! जीवन ही परिवर्तित हो जाता है। जादू है। विवेक आने पर क्या होता है ? अब आप सतर्क हो जाओगे। विषयों के पीछे दौड़ने का वो पुराना संस्कार तो है , इसलिए विवेक हो जाने के बाद भी विषयों के पीछे दौड़ोगे ; लेकिन अब पहले से थोड़ा सतर्क हो जाओगे। दौड़ने का स्पीड कम होने लगेगा। विवेक हो जाने पर आपका आचरण बदल जायेगा। वो व्यक्ति जबतक मगरमच्छ को लकड़ा समझ रहा था उसका आचरण कैसा था ? जैसे ही जान गया कि ये कालनेमि है , उसका आचरण बदल गया - अब वो उसके प्रभाव से मुक्त होगया। गुरुदक्षिणा  पहले ले लो -देने लगे हनुमानजी। जैसे ही सही समझदारी आएगी , उसका प्रभाव हमारे आचरण पर दिखाई देगा। बुलबुलों में फंसना समझदारी है या मूर्खता है ? एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को पकड़ कर ये समझता है कि मैं सुरक्षित हूँ ! लेकिन जब तक सत्य नहीं जानिएगा , अपने को असुरक्षित ही समझियेगा। M पुरुष -F स्त्री को पकड़ता है , स्त्री पुरुष को पकड़ती है - पर सत्य को नहीं जान लेने तक दोनों असुरक्षित हैं। दोनों अदृश्य होने वाले हैं। ये बुलबुला तो समुद्र ही है - जैसे ही यह विवेक जागा, उसकी असुरक्षा का भय चला गया। सभी प्रकार का सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष, या भाई-भाई , भाई -बहन सम्बन्ध सभी में व्यक्ति सुरक्षित होने के लिए प्रयत्नशील है। अपने को विषयों में डुबोदेते है स्वयं को सुरक्षित महसूस करने के लिए। कोई बुलबुला कितना भी धनी हो , है तो बुलबुला ही न ? विश्व का सबसे धनी व्यक्ति -है तो एक बुलबुला ही न -उसका नाम चाहे जो कुछ हो ? वह भी उतना ही असुरक्षित है , जितना यह बुलबुला असुरक्षित है। बुलबुला जब यह जान लेगा कि समुद्र के साथ वो अभिन्न है -उसका भय सदा के लिए चला जायेगा। जीव अपने सत्य स्वरुप में ब्रह्म, समुद्र या ईश्वर ही है , यह अनुभूति प्रत्येक को करना होगा। यह आत्मज्ञान ही मनुष्य के सभी समस्यायों का समाधान है। इसलिए शंकराचार्य जी कह रहे हैं -जीव भी ब्रह्म ही है ! 'ब्रह्म सत्यं जीव मिथ्या ' ऐसे समझ लो। बुलबुला समुद्र ही है -वो जानता नहीं है। ज्ञान होने पर आप जानोगे कि -कालनेमि भी ब्रह्म ही है , किन्तु उसको यह अनुभूति नहीं है , इसलिए उससे आपको सतर्क रहना होगा। आगे जो कुछ खोज करना है - या अन्वेषण करना है वह इस विवेक के आधार पर ही करना है। what is actually Real and what is appearing to be Real ? इन दोनों के बीच में स्पष्टता को विवेक कहते हैं। 

       अब जो विवेक हो गया तो उसका प्रभाव आपके आचरण पर पड़ेगा , अब उसके फलस्वरूप नश्वर वस्तुओं से वैराग्य स्वतः होगा। वैराग्य मतलब व्यक्ति जंगल नहीं भागेगा - बल्कि मगरमच्छ की ओर बढ़ रहा था , कालनेमि की और बढ़ रहा था ? उससे कदम पीछे हटाएगा। अब वो उसके पीछे पीछे नहीं दौड़ेगा। अब पहले आप रुक जाओगे , उसके बाद पीछे हटोगे। इसीको वैराग्य कहते है ,विवेक होने से आपके जीवन पर उसका जो प्रभाव वो ऐसा होगा कि आप विषयों के पीछे नहीं दौड़ोगे , किसी भी ऐषणा के पीछे नहीं भगोगे। विषयों से पीछे हटोगे - इसको वैराग्य कहते हैं। अब देखिये वैराग्य की परिभाषा में आचार्य शंकर क्या कहते हैं -

      तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवनादिभिः |
देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यानित्ये भोगवस्तुनि || 21 ||

21. दर्शन और श्रवण (Audio Visual-श्रव्य और दृश्य) आदि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त सम्पूर्ण क्षणभंगुर या अनित्य भोगों, या भोग्यपदार्थों में जो घृणाबुद्धि है वही 'वैराग्य' है।  

        जितने भी इन्द्रियों से दिखने वाले भोग की वस्तुयें हैं , हमें इन्द्रियाँ जो दिखा रही हैं -हम उसी को देख रहे हैं। यदि हमारी इन्द्रियां नहीं हों तो देखो ये जगत ही नहीं रहेगा। मतलब मानलो मेरी घ्राणेन्द्रिय नष्ट हो गयी , तो नाक तो है -पर गुलाब या बेला के फूल की खुशबु का अंतर हम नहीं कर पाएंगे। श्रवण या दर्शनेन्द्रिय नष्ट होने से भी यही होगा। कल्पना कर के देखो -आप हो ये शरीर भी है , पर इन्द्रियाँ नहीं हैं -तो जगत रहेगा क्या ? जगत सिर्फ इन्द्रियों का खेल है। इन्द्रियों से जो भी भोग वस्तुऐं दिखाई दे रही हैं , अज्ञान में हम जिसके पीछे दौड़ रहे थे। जब विवेक नहीं था ,जब  विवेक का अभाव होता है , तब हम इन्द्रिय -भोग वस्तुओं के पीछे पीछे दौड़ते रहते हैं। जब जान गए कि ये मिथ्या है , अनित्य है - अब क्या होगा ? आपको उन विषयों में आसक्ति नहीं होगी। वैराग्य की भावना होगी -रूप, रस आदि भोग में आपकी रूचि नहीं होगी। पहले तो आप उसमें खूब रूचि ले रहे थे , कात्यायनी के रहते हुए मैत्रेयि की खोज में लगे हुए थे ? सोचरहे थे उसका भोग करके मैं तृप्त हो जाऊँगा। जब विवेक जग तो ये समझ में आ गया कि इसमें रूचि लेना तो मूर्खता है। क्योंकि ये अनित्य भोगवस्तु है - कौन कौन से भोग वस्तु है ? देहादिब्रह्मपर्यन्ते - अर्थात इस स्थूल शरीर से लेकर के ब्रह्मा तक - माने पूरे विश्वब्रह्माण्ड में जो हमको इन्द्रियों से भोग वस्तु दिखाई दे रहा है , वो अनित्य है। दर्शनश्रवणादिभिः - मतलब पाँचो इन्द्रियों से जो हमको दिखाई देता है। जब हमको ये स्पष्ट समझ में आ जाता है कि - स्पर्श इन्द्रिय , घ्राण इन्द्रिय से अनुभव में आने वाले सभी विषय सुख अनित्य ही नहीं हैं -विष के समान हैं। तब क्या होगा ? आपके अंदर अपने आप एक त्याग की भावना आती है। इसीको वैराग्य कहते हैं। -जिहासा या जुगुप्सा ? माने त्याग करने की इच्छा जग जाती है। इसका मतलब कहीं भागना नहीं है -It's a very intelligent way of handling, इन्द्रियों की लोलुपता से निपटने का, यह एक बहुत ही बुद्धिमानी वाला  तरीका है। टेंडेंसी उधर जाने को कहेगी , तो भी आप नहीं जायेगे। इसके उदारण है स्वामी विवेकानन्द - वे हमारे युवा आदर्श हैं ! मार्ग में भटकने से भी हाथ बढ़ाकर संभाल लेते हैं । गड्ढे में और गिरने नहीं देते। कोई भी भोगवस्तु विवेकानन्द को प्रलोभित कर सकती है क्या ? सुंदर से सुंदर भोग वस्तु जिसके लिए मनुष्य पागल हो जाते हैं। श्रीरामकृष्ण अपने उपदेशों में वे दो उपदेश हमेशा बोलते हैं - काम और कांचन , 'Lust and lucre ' काम यानि लैंगिक जो आकर्षण है या 'कामिनी -कांचन' में आसक्ति जो रहती है ,सारा विश्व तो इस लैंगिक आकर्षण के पीछे पागल है। क्यों अविवेक ! ये लैंगिक आकर्षण है क्या ? हम सतह पर कुछ देख रहे हैं , अंदर झाँककरके देखिये आत्मा में न कोई लिंगभेद है , न कोई स्त्री है , न कोई पुरुष है। एक मात्र परब्रह्म परमेश्वर ही है। जिसको ये ब्रह्म नहीं दीखता उसको तो स्थूल स्त्री-पुरुष का शरीर ही दिखाई देता है। वहीँ पर उसकी बुद्धि सीमित है , वहीं पर वो अटका हुआ है। लेकिन विवेकानन्द की बुद्धि तो वहाँ सीमित नहीं है न ? उनको कोई भी लैंगिक वस्तु आकर्षित कर सकता है क्या ? रमण महर्षि को , रामकृष्ण परमहंस को इस ब्रह्माण्ड की कोई भी वस्तु उनको आकर्षित कर सकती है ? कहीं भागना नहीं है - दृष्टि स्पष्ट हो गयी तो आप, आगे से और किसी प्रलोभन के चपेट में आप नहीं आओगे. This  is Freedom, जबतक आप विपरीत लिंग के शरीर से प्रभावित हो रहे हो , आप बंधन में हो कि मुक्त हो ? जब तक दूसरा वस्तु मुख्य प्रभावित कर रहा है।  हम भयंकर बंधन में हैं। जब तक ये कामिनी -कांचन आपको प्रभावित कर रहा है , प्रलोभित कर रहा है - क्या आप आजाद हो ? वो वस्तु आपको नियंत्रित कर रही है। आज हमारी दशा तो यही है। हम कामिनी-कांचन में आसक्ति को control नहीं कर रहे हैं , वे हमें control कर रही हैं। इस सृष्टि में कामिनी-कांचन की आसक्ति से कौन आजाद है ? मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य इसी Freedom को पाना है। इस विवेक के द्वारा आपका व्यक्तित्व ऐसा निखरेगा कि आप इस ब्रह्माण्ड की आसक्तियों से ऊपर उठ जाते हैं। उसका स्वामी बन जाता है , ये ब्रह्माण्ड उसको प्रलोभित नहीं कर सकता। क्योंकि ये ब्रह्माण्ड तो मिथ्या है -तीनों काल में नहीं है ! यह ब्रह्माण्ड उस अनंत रूपी समुद्र में एक छोटा सा लहर है। ये विवेकी को दिखाई देता है , अविवेकी को समझ में नहीं आता। जब हम वेदांत पढ़ना चाहें तो हमें अपने सामने श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन को आदर्श के रूप में रख लेना चाहिए। Lust and greed तब तक काम करेगा , जब तक हम अविवेकी हैं। हमको तो सिर्फ M/F स्त्री-पुरुष,  स्त्री-पुरुष, भाँति -भाँति के शरीर ही दीखते हैं। लेकिन विवेकानन्द के लिए न तो कोई स्त्री है न पुरुष एक परब्रह्म -सच्चिदानन्द ही है ! दृष्टि जिसकी बदल गयी वो मुक्त पुरुष है , वो स्वच्छंद घूमता है - कहीं भी उसके लिए बंधन नहीं है। हमारे अन्तःकरण में स्त्री-पुरुष रूपी भेद ऐसे ठूँस -ठूँस कर भरा है कि हम लोग freely - मुक्त होकर सड़क पर भी नहीं चल सकते हैं - हर समय Gender Idea, Gender Ideas, ये Gender Idea सत्य है क्या ? ये सब विचारणीय प्रश्न हैं , इन पर हमको मनन करना है। आपको सोचना होगा मैं कौन हूँ ? Who I am ? तो ये वैरग्या है -जितने भी भोग्य वस्तुएं हैं - दर्शन-श्रवण आदि इस स्थूल शरीर से लेकर ब्रह्मा जी तक - ब्रह्माण्ड में जितने भी भोग वस्तु हैं , ये सब बुलबुलों के समान हैं। ऐसा जनकरके कामिनी -कांचन के प्रति त्याग की भावना। त्याग करने की इच्छा को ही वैराग्य कहते हैं। मूर्ख व्यक्ति ही इन्द्रिय भोगों के पीछे पीछे जायेगा। तो विवेक होगा तो अपने आप ही वैराग्य आ जाता है। अविवेकी में कभी वैराग्य हो सकता है क्या ? संसार के सभी लोग अविवेक में डूबे हुए हैं , वे उसमें डूबे ही रहेंगे। पर जब विवेक होता है , अपनेआप ही अपनी दृष्टि बदल जाती है। उसका आचरण बदल जाता है। उसका आचरण अब त्यागमूलक होगा; भोगमूलक नहीं होगा। आज हमने जो चर्चा की है वो विवेक-वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण चीज है , इसपर हमें खूब मंथन करना होगा। अनंत काल में 1000  या 500 साल भी क्षण मात्र हैं। ॐ शांति !        




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मंगलवार, 12 अगस्त 2025

⚜️️🔱व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥⚜️️🔱घटना - 322⚜️️🔱लक्ष्मणजी और मेघनाद के बीच भीषण युद्ध का प्रसंग⚜️️🔱 Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #322 || ⚜️️🔱

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 322: दोहा -52,53,54] 

>>>लक्ष्मणजी और मेघनाद के बीच भीषण युद्ध का प्रसंग 

 

    आसुरी माया और भाँति -भाँति के शस्त्रों से अकेले मेघनाद ने युद्धभूमि में प्रलय सा मचा दिया।रावण के अन्य योद्धा भी युद्धभूमि में आ डटे हैं। इधर अपने दलबल सहित , विशाल भुजायें, चौड़ा वक्षस्थल और रक्ताभ नेत्रों वाले लक्ष्मण ने मोर्चा सम्भाला है। भयानक मारकाट मची है , जहाँ तहाँ रुण्ड -मुण्ड उड़ रहे हैं। भयानक विनाश से वातावरण प्रकम्पित है। रक्त से गड्ढे भर गए हैं , जिनपर जमी धूल ऐसी दिखाई देती है , जैसे अंगारों पर राख की परत बैठ गयी हो। ऐसा लगता है कि कोई किसी को जीत नहीं सकता। तभी लक्ष्मण के वाणों से मेघनाद का रथ सारथि समेत टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाता है। प्राणो पर संकट आया देख मेघनाद शक्तिवाण चलाता है , जिसके छाती में लगते ही , लक्ष्मण मूर्छित होकर धरती पर लुढ़क जाते हैं। योद्धाओं की सहायता से मेघनाद उन्हें उठा ले जाना चाहता है , किन्तु धरती का भार अपने फन पर वहन करने वाले शेषनाग के अवतार लक्ष्मण को भला कौन उठा सकता है ? अनेक योद्धा लक्ष्मण का अचेत पड़ा शरीर उठा लेना चाहते हैं किन्तु ऐसा करने में असफल हो लज्जित हो वापस चले जाते हैं। संध्या हो आयी सभी वीर अपने अपने शिविरों में लौट आये , किन्तु लक्ष्मण कहाँ है ? श्रीराम का ये प्रश्न अभी उद्धृत भी नहीं हुआ था कि हनुमान उन्हें ले आये। अनुज का ये हाल देखकर श्रीराम अत्यंत व्यथित हो गए ---- 

दोहा :
* आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥

भावार्थ:- श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥।52॥

चौपाई :


* छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥

भावार्थ:- उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े॥1॥

* भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥

भावार्थ:- पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर 'श्री रामचंद्रजी की जय' पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात्‌ प्रबल थी)॥2॥

* मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥

भावार्थ:- वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो'॥3॥

* असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥4॥

भावार्थ:-नवों खंडों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद॥4॥

दोहा :
* रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥

भावार्थ:- खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥53॥

चौपाई :
* घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥

भावार्थ:- घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं॥1॥

* एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥2॥

भावार्थ:- एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान्‌ अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया!॥2॥

* नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥

भावार्थ:- शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे॥3॥

* बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेजपुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥

भावार्थ:-तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया॥4॥

दोहा :
* मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥

भावार्थ:- मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परन्तु जगत्‌ के आधार श्री शेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥54॥ 

चौपाई :
* सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है?॥1॥

* यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥
संध्या भय फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥2॥

भावार्थ:-इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो। संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ संभालने लगे॥2॥

* व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

भावार्थ:- व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥

* जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥

भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥  
दोहा :

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सोमवार, 11 अगस्त 2025

⚜️️🔱ब्रह्मजिज्ञासा योग्यता ⚜️️🔱विवेकचूडामणि सार | Session 6 | ⚜️️🔱स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।⚜️️🔱 The Essence of Vivekachudamani | Session 6 | ⚜️️🔱

ब्रह्मजिज्ञासा योग्यता  

(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।) 

छठवें श्लोक में आचार्य शंकर कह रहे हैं - आप चाहे कुछ भी कर लो आत्मज्ञान के बिना कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। 



 तो कहते हैं -

 वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान,  कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।  

आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिः, न सिध्यति ब्रह्मशान्तरेऽपि।। (6)

    6. आप चाहे कुछ भी कर लो ,  चाहे शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन 'जीव' का (अहं-आधारकार्ड वाली पहचान) और आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति हुए बिना, मतलब आत्मज्ञान हुए बिना मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल में भी नहीं।[ जीवनकाल - अर्थात, समय की अनिश्चित अवधि। ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का एक दिन मानव गणना के 432 मिलियन वर्षों के बराबर है, जो कि संसार की अवधि मानी जाती है। ] 

       आप यह नश्वर देह-इन्द्रिय संघात नहीं हो, आप इस देह-इन्द्रिय संघात से पृथक नित्य-शुद्ध-बुद्ध आत्मा हो। इस ज्ञान के बगैर कोई भी भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। आप चाहे कुछ भी कर लो - इसमें सबकुछ आ गया। तो कहते हैं - वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान' -कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। कहने का मतलब है आप चाहे कुछ भी कर लो, लेकिन आत्मज्ञान के बगैर व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता।  यही बात भजगोविन्दं स्त्रोत्र में आचार्य बहुत सुन्दर ढंग से एक श्लोक में कहते हैं - 

कुरुते गंगासागर गमनम्,
व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहीन: सर्वमतेन,
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥

( चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम्-१८ )

   चाहे गंगा-सागर को जाय, चाहे भाँति-भाँति के व्रतोपवासों का पालन अथवा दान करें तथापि बिना आत्मज्ञान के, अर्थात जीव (सिद्धार्थ वाला अहं) और आत्मा (गौतम बुद्ध) के एकत्व की अनुभूति किये बिना, इन सबसे सौ जन्म में भी मुक्ति नहीं हो सकती। अर्थात् आत्मज्ञान के बीना मुक्ति संभव नहीं । 16 वर्ष से भी कम आयु के बालक आचार्य शंकर की रचनायें अतुलनीय हैं। इतिहास में कोई तुलना है ही नहीं - ऐसी अद्भुत रचना है। 

       कुरुते गंगासागर गमनम्,- गंगासागर चले जाइये मतलब तीर्थाटन के लिए चले जाइये , व्रतपरिपालनम अथवा दानं - आप कितने प्रकार के व्रत पालन कीजिये , गरीबों को अन्न-वस्त्र का दान भी कीजिये ,दानधर्म करना बुरा नहीं है , ये सब ठीक है। इनका अपना स्थान है , इनका महत्व भी है , पर इतना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। असलीचीज क्या है ? आत्मज्ञान ! जब तक मैं कौन हूँ? इसका ज्ञान नहीं हुआ; हम सैंकड़ों -सैंकड़ों जन्मों में मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। इसका मतलब ये नहीं है कि आप व्रत का पालन नहीं करेंगे, तीर्थाटन नहीं करेंगे ; वो तो हमारे आध्यात्मिक जीवन का एक अंग है। वो सब हम क्यों कर रहे हैं ? आत्मज्ञान तक पहुँचने के लिए ही कर रहे हैं। वो आत्मज्ञान के सहायक हैं। मुख्य चीज क्या है ? आत्मज्ञान !       

     जब आत्मज्ञान की हम बात करते हैं तो कौन इसके योग्य है ? आत्मज्ञान पाने का अधिकारी कौन हैं ? इस पूरे विश्व में कितने लोग हैं जो आत्मज्ञान पाने की इच्छा रखते हैं ? आपके आसपास , आपके मित्रमण्डली में ऐसा है कोई जो कहता हो मैं आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ ? कभी देखा है आपने ? आपके पड़ोस में एक भी नहीं मिलेगा। आप लोग यहाँ आकर ये सब जो सुन रहे हैं -यही ईश्वर का अनुग्रह है। मुक्ति की इच्छा या आत्मज्ञान पाने की इच्छा किसके अंदर जगती है ? कौन व्यक्ति इसके योग्य है ? मोक्ष रूप इस लक्ष्य को प्राप्त करने की योग्यता क्या है ? किन चीजों के रहने से हम आत्मज्ञान पाने के अधिकारी बन सकते हैं ? ये प्रश्न है। वो क्या चीज है -जिसके नहीं रहने से हम आत्मज्ञान पाने के योग्य नहीं होते ?

     ये बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है जिस पर हमें ध्यान देना है। अगर यहाँ से दिल्ली जाना हो तो -कम से कम हमारे पास क्या होना चाहिए ? अगर आपको अपने जीवन को सही दिशा में ले जाना हो तो -इसे समझना बहुत आवश्यक है। fitness - फॉर आत्मज्ञान ? इस Minimum Qualification को हमारे वेदांत की भाषा में साधनचतुष्टय कहते हैं - 17,18, 19 इन तीन श्लोकों में आचार्य शंकर साधन बता रहे हैं। आत्मज्ञान के लक्ष्य तक या  साध्य तक पहुँचने के चार साधन हैं। अपने सत्य स्वरुप को जानना हो तो इस साधन-चतुष्टय के बिना नहीं होगा।  - ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता ? अब देख्ग्ते हैं कि ये साधन क्या -क्या हैं ?  

विवेकिनो विरक्तस्य शमदिगुणशालीनः |
मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मता || 17 ||

17. जो मनुष्य सत् और असत् में विवेक करता है, जो वैराग्यवान है या  जिसका मन असत् से विमुख है, जो शम -दमादि से सम्बन्धित गुणों या षट्सम्पत्ति से युक्त है, तथा जो मुमुक्षु है, मोक्ष की अभिलाषा रखता है, उसी को ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता वाला , आत्मज्ञान या मैं कौन हूँ ? इस प्रश्न के उत्तर को खोजने या ब्रह्म की खोज करने के योग्य माना जाता है। 

 साधनन्यात्र चत्वारि कथितानि मनीषिभिः |
येषु सत्स्वेव संनिष्ठा यदाभावे न सिध्यति || 18 ||

18. इस विषय में ऋषियों ने लक्ष्य प्राप्ति के चार साधन बताये हैं, जिनके होने पर ही सत्यस्वरूप आत्मा में अपनी स्थिति हो सकती है , उनके बिना नहीं।  अथवा साधन-चतुष्टय के रहने पर ही ब्रह्म-भक्ति सफल होती है और जिनके अभाव में वह निष्फल हो जाती है।  

 आदौ नित्यनित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते |
इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरं
शमदीशतकसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् || 19 ||

19. प्रथम साधन नित्यानित्य -वस्तु विवेक गिना जाता है,  सत् और असत् का भेद; तत्पश्चात् इहलोक और परलोक में कर्मों के फल के सुख-भोग में वैराग्य का होना है। तत्पश्चात् - शम,दम, उपरति, तितिक्षा , श्रद्धा और समाधान आदि छः गुणों का समूह ; और चौथा है मुमुक्षुता - मोक्ष की स्पष्ट इच्छा। 

      इन तीन श्लोकों में भगवान शंकराचार्यजी हमें उन साधन-चार अनिवार्य चीजों के बारे में बता रहे हैं , जिसके रहने से कोई साधक अपने साध्यवस्तु को प्राप्त कर सकता है। अगर हमें इस खोज में सफल होना है कि - मैं कौन हूँ ? इस प्रश्न के उत्तर को पाने में अगर सफल होना हो , तो एक -एक साधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसको ठीक से समझ लेना है। यहाँ Introduction में अभी केवल उन साधनों के नाम बताये जा रहे हैं। आगे चलकर उनकी परिभाषा बताई जाएगी। तो पहले बता रहे हैं - मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासा योग्यता - 'ब्रह्मजिज्ञासा' माने किसकी जिज्ञासा ? आत्मजिज्ञासा ! अपने स्वरूप के विषय में जिज्ञास है , ये अपने सत्यस्वरूप से पृथक किसी अन्य वस्तु के विषय में ये जिज्ञासा नहीं है। इसलिए ब्रह्मजिज्ञासा -माने मैं कौन हूँ ? यह जिज्ञासा, कैसे होगा -किसको होगा? जो विवेकी होगा, जो वैरागी होगा - विरक्तस्य , शमादि गुणशालीन होगा। शमदमादि षट-संम्पतियाँ जिसके पास होगी। छह समपत्ति मिलाकर एक -साधन का समूह है। जो छह सम्पत्तियों से विभूषित होगा। और चौथा है -जो मुमुक्षु होगा। जो मुक्त होने की इच्छा ही नहीं करेगा उसके अंदर आत्मज्ञान की जिज्ञासा की योग्यता भी नहीं होगी। कोई पूछता है - इस प्रशिक्षण में बाहर के लोग क्यों नहीं हैं ? क्योंकि उसमें आत्मजिज्ञासा की योग्यता ही नहीं है। 

        आपको कहीं कोई विवेकी दिखाई देता है क्या ? सभी तो मगरमच्छ की लकड़ी का कुन्दा समझकर नदी पार करना चाहते हैं। आप बताइये आप के पास-पड़ोस में कोई विवेकी है ? अर्थात जो सत्य नहीं है , उसी को सत्य समझकर बैठे हैं। अपने को स्त्री-पुरुष ही समझकर निश्चिन्त बैठे हैं। तो जो विवेकी ही नहीं हो , उसके अंदर विरीत जेंडर से वैराग्य हो सकता है क्या ? वैराग्य नहीं होगा तो 'शमदमादि षट-संम्पतियाँ' भी उसके अंदर नहीं होंगी। तो उसके अंदर मुक्ति की इच्छा भी नहीं होगी। वह तो इस तलहीन कुएँ के अंदर गिरा हुआ है , बस गिरते जा रहा है। उसको बाहर निकलने की इच्छा ही नहीं है। उसको लगता है मेरे इसी इन्द्रियों वाले जीवन से ही सुख-शांति मिलेगी, खुशियाँ मिलेंगी -जो उसको कभी मिलता नहीं है, वो हमेशा अतृप्त ही रहता है । वो व्यक्ति इस गड्ढे से निकलने के योग्य है क्या ? गड्ढे से बाहर निकलने की शुरुआत विवेक से होती है। विवेक वो स्पष्टता है -जिससे आप समझ जाते हो कि ये लक्क्ड़ नहीं है -मगरमच्छ है। विवेक वह योग्यता है -जिससे आप समझ जाते हो कि जैसा ये जगत दिखाई दे रहा वैसा वो नहीं है। आपकी धारणा स्पष्ट है कि ये जो M/F शरीर दिखाई दे रहा है , यह सत्य नहीं है - सत्य कुछ और है। -Consciousness है ? जिसके अंदर ये विवेक होगा , उसके अंदर वैराग्य भी आ जायेगा , षट्सम्पत्ति भी आजायेगी, मुमुक्षुत्व भी आ जायेगा। 

          ऐसा जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न व्यक्ति है , वो ब्रह्मजिज्ञासा के योग्य है। अब हमें आत्मनिरीक्षण करके परखना है कि - मेरे अंदर ये सभी चीजें हैं क्या है ? मेरे अंदर की वस्तुस्थिति क्या है ? विवेक है क्या ? question mark है ? Find Out ! वैराग्य है क्या ? Find Out!  षट्सम्पत्ति है क्या ?  षट्सम्पत्ति में पहला है - शम। शम का मतलब है मन का निग्रह। मन का निग्रह का माने है - मन पर नियंत्रण , 'Control of the mind'.जिनके पास कॉपी -पेन हो लिख सकते हैं। दम का मतलब है -  इन्द्रियों का निग्रह - Control of the sense organs, इंद्रियों पर नियंत्रण ! तीसरा सम्पद है उपरति- उपरति का मतलब है - बाहर की चीजों से प्रभावित न होना। मन की वो दशा जिसमें हम बाहर की चीजों से प्रभावित नहीं होते हों। आचार्य शंकर ने उपरति को बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित किया है। चौथा सम्पद है तितिक्षा - तितिक्षा का मतलब है -सहन करना- forbearance, सहनशीलता, या Tolerance-  श, स , ष। जीवन में दुःख तो आते ही हैं -स्वजन वियोग, या रोग आदि होने पर उसको सहना ही पड़ेगाव्यावहारिक स्तर पर जीवन क्या है ? उथल-पुथल है कि नहीं ? 'सामान 100 वर्ष का है - पल की खबर नहीं !' सभी दुःखों को सहन करना। फिर श्रद्धा और समाधान- पाँचवाँ सम्पद श्रद्धा, और छठा सम्पद है -समाधान। श्रद्धा क्या है ? गुरु और शास्त्र की महावासाधन क्य जो हैं -जो उपदेशों हैं उस पर विश्वास। छठा है समाधान - अन्तःकरण (अहंकार) का निरंतर ब्रह्म या आत्मा में ही स्थिर होकर रहना ही समाधान है। ये जो छह गुण हैं - शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान , ये छह सम्पति हैं। तो साधन चतुष्टय में चार साधन - क्या हैं ? विवेक , वैराग्य, षट्सम्पत का समूह और चौथा है (सत्य को देखने की तीव्र इच्छा??) -मुमुक्षुत्वं-Strong desire for Moksha!              यह साधनचतुष्टय - चार साधनों से विभूषित रहने पर ही किसी साधक में , ब्रह्मजिज्ञासा, आत्मजिज्ञासा या आत्मज्ञान - मैं कौन हूँ ? का उत्तर रूपी साध्य वस्तु को प्राप्त करने की योग्यता उसके अंदर आती है। फिर प्रश्न उठता है - हमारे अंदर ये योग्यता है क्या ? निराश होने की जरूरत नहीं है -This question is very beautiful ! आप देखोगे , हमारे अंदर इनमेंसे शायद कुछ भी नहीं हो ? या बहुत थोड़ा सा हो ? मैं तो कहूँगा आप सबके अंदर कुछ मात्रा में अवश्य है -तभी आप इस कैम्प या P.C. में आये हो। नहीं तो आप यहाँ नहीं होते। आप सबके अंदर पहले से ही ये योग्यताएं कुच-न-कुछ मात्रा में अवश्य हैं। तभी घर और शहर के भोग का सारा सुख छोड़कर यहाँ का दाल-मुढ़ी बड़े शौख से खा रहे हैं ! 3 दिन -मोबाईल को भी छूना नहीं हैआज के युग में  ये तो सबसे बड़ी कठिन तपस्या है ! देखिये , आध्यात्मिक जीवन में ऐसा कभी भी नहीं होता कि ये जो चार साधन - बताये गए , वे हमारे अंदर 100 % हों ? किसी के भी जीवन में ऐसा नहीं होता। विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षत्व शत-प्रतिशत किसी के पास नहीं होता। सभी साधकों में ये थोड़ा-थोड़ा ही होता है। हो सकता है -किसी में सिर्फ 10 % हो , किसी में सिर्फ 5 % हो , किसी में हो सकता है -15 % हो लेकिन , थोड़ा तो होना जरुरी है। यदि बिल्कुल भी नहीं हो , तो ये सफर- आत्मज्ञान तक पहुँचने की यात्रा जो है, ये शुरू ही नहीं होगी। समझते हो भाई ? इसीलिए बाहर के लोग यहाँ नहीं आ सकते , क्योंकि उनके अंदर ये बिल्कुल भी नहीं है। आपके अंदर कुछ है , थोड़े मात्रा भी है , तभी आपलोग यहाँ पहुँचे हुए हो। (21.40 मिनट) ये ईश्वर का अनुग्रह ही है कि ये जो चार साधन हैं , उसका कुछ-नकुछ सभी में है, ये अनिवार्य है -हर मनुष्य जीवन में होना चाहिए।  ''विवेक हीनः पशुभिः समानः''-विवेक यदि थोड़ा भी नहीं होगा तो आपकी ये यात्रा शुरू ही नहीं होगी।

       ये सभी साधन कुछ मात्रा में होनी चाहिए , हमारा प्रयास क्या होता है ? पता है ? उसकी मात्रा को धीरे-धीरे बढ़ाते रहते हैं। हो सकता है -हमारा विवेक थोड़ा सा हो ,पर फिर साधुसंग के द्वारा , पाठचक्र और कैम्प के द्वारा , इस प्रकार शास्त्र और गुरु विवेकानन्द द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलते-चलते हम विवेक-वैराग्य और षट्सम्पत्ति की मात्रा को हम बढ़ाते जाते हैं , बढ़ाते जाते है ,और आत्ममूल्यांकन तालिका खुद उसका मनांक बैठाते रहते हैं। हमारी योग्यता और भी बढ़ती -बढ़ती जाती है, बढ़ती जाती है। यदि महामण्डल द्वारा निर्दिष्ट -Autosuggestion' या स्व-सुझाव का निष्ठापूर्वक पालन करें -छह महीने में ही चरित्र रूपी चमत्कार हमारी आज्ञा का पालन करने लगेगा- अर्थात षट्सम्पत्ति -से हम अपने को धनी पाएंगे। और इस प्रकार  हम भी ब्रह्मजिज्ञासा के योग्य होते जाते हैं। हो सकता है कि आज हमारे अंदर विवेक-वैराग्य बहुत ही मंद हो , बहुत थोड़ी मात्रा में हो। उससे हमें हताश नहीं होना है -इसको हमें बढ़ाना है। उसको हम बढ़ा सकते हैं --यही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। उसकी प्रक्रिया दूसरे क्लास में बताया जायेगा। दादा मायावती यात्रा का ही उदाहरण देते थे -यदि आपको यहाँ से दिल्ली जाना हो , पर आपकी गाड़ी के पेट्रोल की टंकी बिल्कुल खाली हो - तो गाड़ी start भी नहीं हो सकती। अच्छा पेट्रोल की टंकी पूरी भरी हुई हो , ऐसा भी जरुरी नहीं है। कमसेकम 1 लीटर पेट्रोल तो होनी चाहिए कि आप कमसे कम स्टार्ट करके नजदीक के पेट्रोल पम्प तक तो चले जाएँ। यात्रा शुरू ही नहीं होगी -कमसेकम थोड़ी तो होनी चाहिए कि आप नजदीक के पेट्रोल-पम्प  तक चले जाएँ। और वहां  से भरें। हो सकता है कि आपके पास टंकी फूल करने का पैसा नहीं हो।  फिरभी पेट्रोल क्रमशः डालते हुए हम आगे बढ़ते जाते हैं। अपनी योग्यता को हम बढ़ाते जाते हैं , पहले थोड़ी मात्रा में जो विवेक-वैराग्य था , उसको बढ़ाते जाते हैं। 

       तो ब्रह्मजिज्ञासा योग्यता , आत्मज्ञान की योग्यता में इन चार साधनों की अनिवार्यता है -कम से कम कुछ मात्रा में भी रहना आवश्यक है। फिर उसको हमलोग क्रमशः बढ़ाते जायेंगे। उसी को साधना कहा जाता है। साधक का जीवन साधना करने के लिए होता है। महामण्डल के 5 अभ्यास को करते जाने से उसका विवेक-वैराग्य बढ़ता जाता है , बढ़ता जाता , वो और भी सशक्त बनता जाता है। उसी बात को आगे कहते हैं -   'साधनन्यात्र चत्वारि कथितानि मनीषिभिः' मनीषियों ने ऋषियों ने इन्हीं चार अनिवार्य साधनों की बात की है। येषु सत्स्वेव संनिष्ठा यदाभावे न सिध्यति || 18 | इनके रहने पर ही आत्मा में निष्ठा सम्भव है। इसके अभाव में आत्मा में निष्ठां सम्भव नहीं है। इन चार साधनों के रहने से आप इस जीवनयात्रा के गन्तव्यस्थान तक पहुँचोगे ! साधन चतुष्टय रूपी पेट्रोल यदि बिल्कुल नहीं हो तो आप की यात्रा शुरू ही नहीं होगीगणित की तरह है - पर लीटर 12 KMयेषु सत्स्वेव संनिष्ठा यदाभावे न सिध्यति|जिसके अभाव में आप यह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। 

      तो पहला साधन को परिभाषित कर रहे है -'आदौ नित्यनित्यवस्तुविवेकः परिगम्यते' - पहली योग्यता क्या है ? विवेक ! विवेक क्या है ? नित्यवस्तु और अनित्यवस्तु के बीचमें की स्पष्टता ! ये नित्य वस्तु है - ये अनित्य वस्तु है , इन दोनों मिलाना नहीं है। कन्फ्यूज नहीं होना है - आज हमने अनित्य वस्तु (देहमन) को नित्य वस्तु समझ लिया है , और नित्य वस्तु क्या है ? आपको पता ही नहीं है ! हमने मगरमच्छ को लकड़ा समझ लिया है - यही हमारी समस्या है। सो विवेक क्या है ? इन दोनों को पृथक करके स्पष्ट रूप से देखना। सारे अध्यात्मजीवन की शुरुआत विवेक से ही होती है। इसीलिए विवेक को क्या कहते हैं ? चूड़ामणि ! विवेक-चूड़ामणि ! कितना सुंदर है इस ग्रन्थ का नाम। इसलिए विवेक जो है वो चूड़ामणि है - There is nothing greater than this Viveka! यह विवेक  ही हमारे जीवन में स्पष्टता लाता हैं - रतौन्धी दूर होती है , हम चीजों स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। मन का सारा भ्रम निकल जाता है। तब आप अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण बुद्धिमता के साथ आगे ले जा सकते हैं। 

        विवेक-प्रयोग किसी सिद्धान्त को जानने का नाम नहीं है, इसका प्रतिफलन हमारे जीवन पर होता है, हमारे व्यक्तित्व पर होता है। आपका व्यक्तित्व ही बदल जायेगा। विवेकी व्यक्ति का एक स्वाधीन व्यक्तित्व होता है , वो किसी का गुलाम नहीं है। Is this not the best thing to happen ? किसी का भी गुलाम न होना - अच्छा है या नहीं ? कितने प्रकार के हम विषयों के गुलाम हैं , कितने प्रकार के हम भोगों के गुलाम है। ये भोग हमें जलाकरके राख बना देती हैं। पर हमें समझ नहीं आ रहा , इस गुलामी से ऊपर उठने की यात्रा में जो प्रथम पड़ाव है - वो विवेक है! दादा कहते थे - 'विवेक-दर्शन अभ्यासेन विवेक-स्रोत उदघाट्यते'! इसलिए विवेक के बिना मनुष्य बनने और बनाने की यात्रा सम्भव ही नहीं है - इसीलिए भगवान शंकराचार्य जी कह रहे हैं -  आदौ नित्यनित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते साधन की पहली परिगणना जो बताई जा रही है -वो विवेक है। विवेक का अर्थ हुआ नित्य वस्तु और अनित्यवस्तु के बीच की स्पष्टता। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि यह विश्व-ब्रह्माण्ड जैसा हमें इन्द्रियों से दिख रहा है , ये जैसा दिख रहा है , ये वैसा नहीं है। जब आपको यह समझ हो जायेगा की जगत जैसा गोलगोल और सुंदर दिख रहा है -वैसा ये नहीं है। तब वैराग्य भी अपने आप आ जायेगा। तब क्या होगा ? आप इसके पीछे दौड़ना बंद कर दोगे। जब वैराग्य होगा - मन में 72 हूरों, शराब की नदी आदि से वैराग्य हो जायेगा -तब क्या होगा ?           इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरं, यहाँ और अमुत्र माने परलोक में फलभोगने की इच्छा - मनुष्य कितने प्रकार की चीजों के लोभ में पड़कर के वो जगत में व्यवहार कर रहा है। हमलोग यहाँ जोकुछ भी कर्म कर रहे हैं - वह किसी न किसी फल को पाने के लिए ही तो कर रहे हैं। हमसभी फलीच्छा से प्रेरित होकर ही तो कर्म करते हैं। केवल इसी लोक में नहीं , कुछ लोग इसलिए भी कर्म करते हैं कि हमें स्वर्ग की प्राप्ति हो। ऐसा कोई है जो फल पाने की इच्छा के बगैर करता हो ? जैसे नचिकेता के पिता -बाजश्रवा। (बालक नचिकेता को दुनिया का पहला जिज्ञासु माना जाता है – कम से कम पहला महत्वपूर्ण जिज्ञासु। एक उपनिषद् भी उस से शुरू होता है। नचिकेता एक छोटा बालक था।) स्वर्ग प्राप्ति  -एक ऐसा बहुत बड़ा लोभ है , जो हमें प्रेरित करती है , कुछ विशिष्ट प्रकार के कर्मों के करने की प्रेरणा देती है। स्वर्गप्राप्ति के लिए आतंकवादी लोग कुछ भी कर लेते हैं। उनको ऐसा लगता है कि आत्मघाती हमला करके हम स्वर्ग में पहुँच जायेंगे। फिर क्या होगा ? आप जानते हैं -ये सब कल्पना है। ये सब विभिन्न नाम वाले धर्म या ism क्या हैं ? ये सब गलत धारणायें हैं ! सबसे ज्यादा अवैज्ञानिक , अन्धविश्वास में -Most unscientific superstitions में डूबा हुआ मानव समाज में स्वर्ग की जो कल्पना है , और वेदांत या सनातन सत्य की बात कर रहे हैं - कोई कल्पना नहीं, कोई अन्धविश्वास नहीं। ऊपर कोई बैठा हुआ हैं -वहाँ से विश्वब्रह्माण्ड का संचालन कर रहा है?  मरने के बाद आप वहां पहुँचोगे , और वो व्यक्ति फिर मनमानी करेगा ? वो उसकी ख़ुशी है कि वो आपको कहाँ डालेगा , स्वर्ग या नर्क में ? अनंतकाल तक आप वहीँ पर पड़े रहते हो। यह क्या विश्वसनीय है ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, बड़ों की तो बात दूर रही ये स्कूल जाने वाले बच्चों को भी विश्वसनीय नहीं होगा। इसमें विज्ञानं कहा है ? ये अद्वैत सनातन धर्म की जो विचारधारा है , उससे सर्वथा विपरीत है। मनुष्य कितने अगणित चीजों से प्रेरित होकर कर्म करता है , उसमें से एक लोभ है -स्वर्गप्राप्ति ! स्वर्ग में जाकरके मैं भोग करूँगा।  तो वैराग्य क्या है? इहामुत्रफलभोग-विरागः विरागस्तदनन्तरं - इस लोक में भी (इस जन्म में भी) पर लोक में भी सभी प्रकार के भोगों से विरक्ति। फिर क्या योग्यता चाहिए - शम,दम आदि षट्सम्पत्ति। शमदीशतकसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् || 19 || छह गुणों को सम्पत्ति कहा गया - वे कितने सुंदर गुण हैं ?? हमारे जीवन की असली धनसम्पत्ति तो ये है ! हमारे बैंक में कितनी धनसम्पत्ति है - उससे मनुष्य सुखी नहीं होगा। सरकार नहीं तो लारेंस गैंग  - सब छीन कर ले जाता है। लेकिन किसी व्यक्ति के अंदर जितना -भी शम, दम, उपरति , तितिक्षा , श्रद्धा और समाधान अधिक से अधिकतर होता जायेगा, वो व्यक्ति स्वभाव से ही सुखी होगा। इसके चेहरे पर सुख और समाधान सब समय छलकेगा ! वहीं जो Materialism या भौतिकवाद है , हमारे धन का हमारे मन के साथ क्या सम्बन्ध है ? धन का सम्बन्ध सिर्फ हमारे स्थूल शरीर के साथ है। आप धन से एक घर बना सकते हो, air conditioner लगा सकोगे , डनलप पिलो और गद्दा ले पाओगे - वो सब इस स्थूल शरीर के लिए है। मन का राग, द्वेष, काम-क्रोध , लोभ-मोह, मद -मात्सर्य आदि षडरिपु है - इसका धन से कोई सम्बन्ध है क्या ? जिस मन के अंदर ये आग सबसमय जल रही है - काम, क्रोध , लोभ-मोह -मात्सर्य रूपी जो आग जल रही है , वो भले ही कितने air conditioner में सो जाओ उसी दशा क्या है ? वो सुखी हो सकता है क्या ?  

     जिस मन में काम रूपी अग्नि सबसमय धधक रही है , जो सब समय मन का गुलाम है , Slave to lust and anger है , वासना और क्रोध का गुलाम है। लोभ का गुलाम है, लोभी है ये सभी चीजें मन में ही तो है। मात्सर्य या ईर्ष्या का जलन की अग्नि में मन जलता रहता है। आपकी धनसम्पत्ति इस मन के रोग का निवारण कर सकती है क्या ? आपका बैंक बैलेंस आपके मन की इस अग्नि को शांत कर सकती है क्या ? सुख के साथ धनसम्पत्ति का क्या सम्बन्ध है ? ये सिर्फ शरीर सम्बंधित कुछ सुविधायें उपलब्ध कर सकती हैं , शानदार मकान और गाड़ी हो सकता है। लेकिन निद्रा प्रदान कर सकती है क्या ?  जबतक अन्तःकरण में आग लगी हुई हो , कोई व्यक्ति सो सकता है क्या ? धनसम्पत्ति का सुख के साथ कोई साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है, यह एक विचारणीय विषय है। सोचकर देखिये। विवेकानन्द के पास कौन सी धनसम्पत्ति थी ? लेकिन परमानन्द में हैं कि नहीं? क्योंकि उनके मन के अंदर काम, क्रोध, लोभ , मोह मद और मात्सर्य रूपी जो बीमारी है - वो बिल्कुल भी नहीं है। लंगोटधारी जो रमण महर्षि हैं , या श्रीरामकृष्ण हैं , सब समय आनंद में हैं -क्योंकि उनका मन सब समय - काम,क्रोध ,लोभ,  मद, मोह और मात्सर्य से मुक्त है। सब समय परमानंद में है। समझ रहे हो भाई ? 

         तो असली सुख कहाँ हैं ? षट्सम्पत्ति में सुख है ; इसलिए उसको सम्पत्ति कहा गया। असली संपत्ति तो यह है ! जिसके अंदर ये सम्पत्ति जितना होगा , वो व्यक्ति स्वभाव से ही सुखी होगा आनंद में होगा। अंतिम मुद्दा है - मुमुक्षुत्वं ! ये सव अभि केवल Introduction हुआ। आत्मज्ञान रूपी साध्यवस्तु को प्राप्त करने का साधन जो है , वह चार है - विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति है और मुमुक्षुत्व है ! यह साधन चतुष्टय कम से कम थोड़ी भी मात्रा में हममें होनी चाहिए। कभी भी 100 % नहीं होना चाहिए। किसीका भी आध्यात्मिक जीवन 100 % योग्यता से प्रारम्भ नहीं होता। कम से कम षट्सम्पत्ति अगर 10 % हो , या 5 % भी हो तो आपकी यात्रा शुरू हो जाएगी। फिर उसको बढ़ाना है -और वही साधना है। धीरे -धीरे बढ़ाते हुए आप उस पूर्णता (निःस्वार्थपरता -तृप्ति) ओर अग्रसर होते जाओगे , पर यह दीर्घकालीन अभ्यास है। यह कोई एक-दो दिन की बात या जादू  नहीं है। साधन चतुष्टय का पहला परिभाषा ही अति महत्वपूर्ण है - इसको हमलोग अगले सत्र में सुनेंगे क्योंकि ये सबसे महत्वपूर्ण है। विवेक क्या है ? ब्रह्मसत्यं जगत मिथ्या अब हम धीरे धीरे और भी गहराई में प्रवेश करेंगे। Now the Investigation has started -सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? ये जगत जो हमको सत्य सा लग रहा है, ये सत्य है क्या ? ईसप कल विचार होगा। 

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रविवार, 10 अगस्त 2025

⚜️️🔱कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥⚜️️🔱घटना - 321⚜️️🔱मेघनाद और श्रीराम का युद्ध प्रसंग ⚜️️🔱Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #321||

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 321: दोहा -50  ] 

  

>>मेघनाद और श्रीराम का युद्ध प्रसंग

        नल, नील, द्विविद, सुग्रीव, अंगद, हनुमान तथा राम-लक्ष्मण को खोजता -ललकारता रावण का ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद युद्धभूमि में आन उतरा है। उसके वाणों से वानरसेना की टुकड़ियाँ कट-कट कर गिरने लगी हैं ,मेघनाद का उद्घोष है कि आज वो भाई से द्रोह करने वाले विभीषण का वध, अवश्य करेगा। क्रोध में काँपता धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींच , वो कठिन से कठिनतम वाण छोड़ने लगता है। उन्हें देख ऐसा लगता है, जैसे पंखों वाले सर्पों का समूह उड़ता चला जा रहा हो। मेघनाद के वाणों के प्रहार से त्रस्त वानर और रीछ जहाँ-तहाँ भागने लगते हैं। ऐसा दृश्य आ उपस्थित होता है , जैसे युद्धभूमि में एक भी वानर या रीछ जीवित नहीं बचेगा। चारो ओर मेघनाद का सिंह  गर्जन सुनाई देने लगता है। ये देख हनुमान ने एक पर्वतखण्ड उठाकर मेघनाद पर दे मारा। पर्वत को अपनी ओर आता देख मेघनाद उछलकर आकाश में उड़ जाता है , और हनुमान के बारबार ललकारने पर भी नीचे नहीं आता। वो श्रीराम के ऊपर तरह तरह के अस्त्रों के साथ गालियों की बौछार करने लगता है। श्रीराम उसके अस्त्रों को बड़ी सहजता से काटकर गिरा देते हैं -मेघनाद लज्जित होता है , किन्तु फिर माया रचाकर आसमान से अंगारों की वर्षा करने लगता है। साथ ही रक्त, पीब , हड्डियाँ, तथा अन्य दुर्गन्धमय पदार्थ बरसने लगते हैं। युद्धभूमि में ऐसा अन्धकार छा जाता है कि हाथों को हाथ नहीं सूझता। वानरों को भयभीत देख श्रीराम एक ही वाण से इस मयादृश्य को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। 

चौपाई :
* कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा॥1॥

भावार्थ:-(मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?॥1॥

* कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥2॥

भावार्थ:-भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा॥2॥

* सर समूह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥3॥

भावार्थ:- वह बाणों के समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥3॥

* जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥4॥

भावार्थ:- रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात्‌ जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों, बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥4॥

दोहा :
* दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥50॥

भावार्थ:- फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े। बलवान्‌ और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा॥50॥

चौपाई :
* देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥

भावार्थ:- सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोड़ा॥1॥

* आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥2॥

भावार्थ:- पहाड़ों को आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए) हनुमान्‌जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था॥2॥

* रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥3॥

भावार्थ:- (तब) मेघनाद श्री रघुनाथजी के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए। प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया॥3

* देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥4॥

भावार्थ:- श्री रामजी का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे॥4॥

दोहा :
* जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥

भावार्थ:- शिवजी और ब्रह्माजी तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान्‌ माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥51॥

चौपाई : :
* नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥

भावार्थ:- आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर 'मारो, काटो' की आवाज करने लगीं॥1॥

* बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥

भावार्थ:- वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेंक देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥2॥

* कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥

भावार्थ:- माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं॥3॥

* एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥

भावार्थ:- तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है। तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे॥4॥

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⚜️️🔱राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥⚜️️🔱घटना - 320⚜️️🔱 युद्ध को लेकर दोनों पक्षों द्वारा मंत्रणा का प्रसङ्ग ⚜️️🔱⚜️️🔱 Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #320|| ⚜️️🔱

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 320: दोहा -47,48,49 ] 


>>युद्ध को लेकर दोनों पक्षों द्वारा मंत्रणा का प्रसङ्ग --

       लंका में भीषण युद्ध छिड़ा है, वानरसेना ने प्रायः रावण की आधी सेना का संहार कर दिया है। रात्रि का आगमन होने पर दोनों पक्ष अपने -अपने शिविरों में जय-पराजय तथा रणनीतियों की समीक्षा करते हैं। आधा सैन्यबल खोकर रावण चिंतित है , मंत्रणा के समय माल्यवान रावण को फिर सीख देता है , वेद-पुराणों ने जिन प्रभु का गुण गाया है उससे विमुख होकर कोई भी सुखी नहीं हो सका। माल्यवन उसे स्मरण दिलाता है कि जब से वो सीता को हर लाया है , तबसे ही भाँति भाँति के अपशकुन हो रहे हैं। किन्तु रावण को अपने वृद्ध नाना की यह सीख नहीं सुहाई। अपमानित कर वो माल्यवन को सभा से निकाल देता है। रावणपुत्र मेघनाद ने पिता को अपनी दृढ़ता से उत्साहित किया -कल प्रातः देखना मैं क्या करताहूँ ! इस प्रकार-पिता-पुत्र में मंत्रणा होते रात बीत गयी , सवेरा हुआ वानरसेना ने एकबार फिर , दुर्गम गढ़ को चारों ओर से घेर लिया। राक्षस ऊपर से बड़े बड़े शिलाखण्ड तथा अन्य अस्त्र बरसाने लगे। घोर गर्जन-तर्जन और वज्र जैसे अस्त्रों से कलह मच गयी। वानरसेना प्रहार से घायल होती किन्तु मैदान नहीं छोड़ती। मेघनाद ने जब वानर और रीछ सेना द्वारा दुर्ग के घेर लिए जाने का समाचार सुना , तो युद्ध घोष करता , डंका बजाता किले से उतरकर युद्ध के लिए प्रस्तुत हुआ।   

 माल्यवान का रावण को समझाना

दोहा :
* कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ॥47॥

भावार्थ:- कुछ मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥47॥
चौपाई :

* निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥
राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥

भावार्थ:- रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं, जहाँ कोसलपति श्री रामजी थे। श्री रामजी ने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गए॥1॥

* उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥
आधा कटकु कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा॥2॥

भावार्थ:- वहाँ (लंका में) रावण ने मंत्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया। (उसने कहा-) वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिए?॥2॥

* माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥3॥

भावार्थ:- माल्यवंत (नाम का एक) अत्यंत बूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता (अर्थात्‌ उसका नाना) और श्रेष्ठ मंत्री था। वह अत्यंत पवित्र नीति के वचन बोला- हे तात! कुछ मेरी सीख भी सुनो-॥3॥

* जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥4॥

भावार्थ:-जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किए जा सकते। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन श्री राम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया॥4॥
दोहा :

* हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥48 क॥

भावार्थ:-भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को बलवान्‌ मधु-कैटभ को जिन्होंने मारा था, वे ही कृपा के समुद्र भगवान्‌ (रामरूप से) अवतरित हुए हैं॥ 48 (क)॥

मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम 

लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध, लक्ष्मणजी को शक्ति लगना


*कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥48 ख॥

भावार्थ:- जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन के भस्म करने वाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥48 (ख)॥

चौपाई :
* परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥1॥

भावार्थ:- (अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला-) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा॥1॥

* बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥2॥

भावार्थ:-तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान्‌ ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं॥2॥

* सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥3॥

भावार्थ:- वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला- सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा, थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा)॥3॥

* सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥4॥

भावार्थ:- पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे॥4॥

* कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥

बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए॥5॥

भावार्थ:- वानरों ने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किले पर पहाड़ों के शिखर ढहाए॥5॥

छंद :
* ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह, बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत, जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न, लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहि, जहँ सो तहँ निसिचर हए॥

भावार्थ:- उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से  गोले चलनेलगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे किले पर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं।

दोहा :
* मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ पुनि छेंका आइ।
उतर्‌यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥49॥

भावार्थ:- मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है। तब वह वीर किले से उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥49॥

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शनिवार, 9 अगस्त 2025

⚜️️🔱राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥⚜️️🔱घटना - 319⚜️️🔱 लंका में घमासान युद्ध होने का प्रसंग ⚜️️🔱 Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #319|| ⚜️️🔱

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 319: दोहा -44 ] 


>> लंका में घमासान युद्ध होने का प्रसंग 

           लंका में घमासान युद्ध हो रहा है, अंगद और हनुमान ने रावण के किले में घुसकर राक्षस सेना में ऐसी उथल-पुथल मचा दी , मानों दो मंदराचल समुद्रमंथन कर रहे हों। दिन का अंत हुआ, अनेक असुरों का संहार करके राम और लक्ष्मण श्रीराम के पास उपस्थित हुए। लेकिन उनके युद्धभूमि से हट जाने के बाद राक्षस एक बार फिर बानरसेना पर टूट पड़े। आसुरी माया से राख,  पत्थर और रक्त की वर्षा होने लगी। चारों ओर अंधकार छाया देख वानरसेना में खलबली मच गयी। श्रीराम से ये रहस्य छिपा न रहा। उन्होंने अग्निबाण चलाकर चहुँओर प्रकाश फैला दिया।

दोहा :
* एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड॥44॥

भावार्थ:- एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूंडे फूट रहे हों॥4॥

चौपाई :
* महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥

भावार्थ:- जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥

* खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥

भावार्थ:- ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥

* देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी॥3॥

भावार्थ:- ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंदबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥

* अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसें॥4॥

भावार्थ:- श्री रामजी ने कहा कि अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥ दोहा :
दोहा :

* भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत॥45॥

भावार्थ:- भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान्‌ और अंगद दोनों कूद पड़े और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान्‌ श्री रामजी थे॥45॥

चौपाई :
* प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥

भावार्थ:- उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥

* गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥

भावार्थ:- अंगद और हनुमान्‌ को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥

* निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥

भावार्थ:- राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही दल बड़े बलवान्‌ हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥

* महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥

भावार्थ:-सभी राक्षस महान्‌ वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान्‌ हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥

* प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥

भावार्थ:-(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥

* भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥

भावार्थ:- पलभर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥

दोहा :
* देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥46॥

भावार्थ:- दसों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥46॥

चौपाई :
* सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥
समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥1॥

भावार्थ:- श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान्‌ को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े॥1॥

*पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥2॥

भावार्थ:-फिर कृपालु श्री रामजी ने हँसकर धनुष चलाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं॥2॥

* भालु बलीमुख पाई प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥3॥

भावार्थ:-भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान्‌ और अंगद रण में गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे॥3॥

* भागत भट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥4॥

भावार्थ:- भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं॥4॥    

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