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मंगलवार, 22 जुलाई 2025

⚜️🔱सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥ ⚜️🔱घटना -300 : अग्निबाण सन्धान करने पर भयभीत समुद्र देवता का श्रीराम के समक्ष प्रगट होने का प्रसंग ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #300 ⚜️🔱

श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 299:  दोहा :58-60] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #300||] 


 >>>अग्निबाण सन्धान करने पर भयभीत समुद्र देवता का श्रीराम के समक्ष प्रगट होने का प्रसंग......  
        भयभीत सागर ने ब्राह्मण का रूप धारण कर , श्रीराम के समक्ष घुटने टेक दिये। अपनी उदण्डता के लिए क्षमायाचना करता हुआ बोला- हे नाथ, आकाश-वायु -अग्नि-जल और पृथ्वी, ये पाँच तत्त्व स्वभाव से ही जड़ होते हैं। आपकी प्रेरणा से माया ने सृष्टि करने के लिये इन्हें उत्पन्न किया है। जिसके लिए ,स्वामी की जैसी आज्ञा है , वह उसी प्रकार रहने में सुख पाता है। आप जैसा आदेश करें, मैं वैसा ही करूँगा। सागर का निवेदन सुनकर, कृपालु श्रीराम प्रसन्न हुए। बोले- तुम वो उपाय बताओ जिससे हमारी सेना पार उतर जाये। हे नाथ ! वानर सेना में नल और नील ऐसे दो भाई हैं , जिन्हें बचपन में ही ऋषि से आशीर्वाद प्राप्त हुआ था , कि उनके स्पर्श मात्र से भारी -भारी पत्थर और पहाड़ जल में तिरते रहेंगे, डूबेंगे नहीं; अगर आप इनसे सेतु निर्माण कराइये, और उस पार जाकर  पापियों का विनाश कीजिये ..... 
 
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। 

छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।

गगन समीर अनल जल धरनी। 

इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥

भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए। 
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
 सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥

भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥

भावार्थ:-प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात्‌ आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥4॥

दोहा 

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥

भावार्थ:-समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥

चौपाई 

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। 

लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥

तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। 

तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥

भावार्थ:-(समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥

भावार्थ:-मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥2॥

एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

भावार्थ:-इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात्‌ बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥

देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥4॥

भावार्थ:-श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया॥4॥

छंद 
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

भावार्थ:-समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन
दोहा 

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥60॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।

कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।

(सुंदरकाण्ड समाप्त)

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षड्ज शिव है, ऋषभ गिरिजा,  गणपति गंधार है... 
रिद्धि मध्यम,  सिद्धि पंचम,  त्रिशूल में धैवताकार है... 
निषाद नंदी,  शिवचरण में,   सात स्वर संसार है... 
ताल डमरू, गीत गंगा,  लय में ही ओंकार है...
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रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि़, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥

        विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - 
      अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड़ गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदास जी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है
(साभार -http://kavitakosh.org/kk)
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⚜️ बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥ 🔱घटना -299: गुप्तचर द्वारा रावण को लक्ष्मण का सन्देश देकर और पार जाने के लिए श्रीराम का अग्नि-बाण सन्धान करने का प्रसंग ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #299⚜️🔱

  श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 299:  दोहा : 56(ख)-58] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #299 ||] 


⚜️🔱  गुप्तचर द्वारा रावण को लक्ष्मण का सन्देश देकर और पार जाने के लिए श्रीराम का अग्नि-बाण सन्धान करने का प्रसंग .......
        (लक्षणजी के पत्र में लिखा था -)  " अरे मूर्ख वाग्विलासिता से अपने मन को बहलाकर अपने कुल का सर्वनाश क्यों करता है ? श्रीराम के विरोधी की रक्षा ब्रह्मा -विष्णु -महेश,  कोई भी नहीं कर सकते। " - लक्ष्मण के पत्र में लिखा ये सन्देश सुनकर रावण भयभीत हुआ;  किन्तु सभासदों को दिखाने के लिये मुस्कुराता हुआ बोला- पृथ्वी पर खड़ा ये तुच्छ तपस्वी आकाश पकड़ने की डिंग मार रहा है। दूत शुक ने रावण को समझाने की भरसक चेष्टा की। श्रीराम से बैर न करने की प्रार्थना की , ये भी विश्वास दिलाना चाहा कि उनका स्वभाव अत्यंत कोमल है। शरणागत पर वे कृपा करते हैं। वे आपके अपराध भी क्षमा कर देंगे। हे स्वामी, जनक नन्दिनी उन्हें लौटा दीजिये। मेरी इतनी विनती मान लीजिये। शुक को इस अनुनय के लिये रावण ने लात मारी, और अपशब्दों के बौछार के साथ -उसे सभा से निकाल दिया। इधर तीन दोनों की अवधि बीत जाने पर भी जब समुद्र ने पार जाने देने की विनती नहीं मानी तो श्रीराम को क्रोध हो आया; उन्होंने अग्नि-बाण का सन्धान किया; जिससे सागर के ह्रदय में भीषण ज्वाला धधक उठी। सागर -ब्राह्मण का रूप धारण कर मस्तक झुकाये आ खड़ा हुआ ..... 

चौपाई 

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥

भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

भावार्थ:-पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

भावार्थ:-शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

भावार्थ:-जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

भावार्थ:-वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध और समुद्र की विनती, श्री राम गुणगान की महिमा

दोहा 

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

चौपाई 

लछिमन बान सरासन आनू।

 सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।

 सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥

भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

ममता रत सन ग्यान कहानी। 

अति लोभी सन बिरति बखानी॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। 

ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा (भक्ति) , इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।

 यह मत लछिमन के मन भावा॥

संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। 

उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

दोहा 
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58
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सोमवार, 21 जुलाई 2025

⚜️🔱राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥⚜️🔱 घटना -298: गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #298 ⚜️🔱

 श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 298:  दोहा : 54-57] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #298 ||] 


[⚜️🔱 गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग

       रावण का दूत शुक; जिसको उसने विभीषण के पीछे-पीछे श्री राम की सेना का भेद लेने के लिए भेजा था, लौटकर रावण को वानर सेना की विशालता और बल का विवरण देता है। उसने द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, शठ और जामवन्त आदि वीरों के अतुलनीय बल की झलक देखि थी, और सहज ही परिणाम का अनुमान लगा लिया था। शुक ने रावण को वास्तविकता से परिचित कराने का भरसक प्रयत्न किया ; वे करोड़ों शूरवीर रावण को सहज ही परास्त कर देंगे, सभी वानर समुद्र को शोख लेने या पर्वतों से उसे पाट देने पर उतारू हैं। केवल राम की आज्ञा उन्हें नहीं मिल रही है। स्वयं शुक तथा अन्य गुप्तचरों की भी उन्होंने मारपीट कर दुर्गति कर दी थी। वह तो श्रीराम की सौगंध सुनकर उन्हें छोड़ दिया। शुक-संवाद को रावण हँसकर टाल देता है। किन्तु उसने जब लक्ष्मण का पत्र उसे दिया , तो रावण एक बार भय से काँप गया ...... 

दोहा 

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।

दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥

भावार्थ:-द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

चौपाई 

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

भावार्थ:-ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ:-हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। 

आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। 

पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

भावार्थ:-सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
 
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। 

मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

भावार्थ:-और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

दोहा 

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।

रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥

भावार्थ:-सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

चौपाई 

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। 

सेष सहस सत सकहिं न गाई॥

सक सर एक सोषि सत सागर।

 तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। 

मागत पंथ कृपा मन माहीं॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा। 

जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ:-उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

भावार्थ:-स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। 

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। 

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

भावार्थ:-सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

रामानुज दीन्हीं यह पाती। 

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥

बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।

 सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

भावार्थ:-(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

दोहा 

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56क॥

भावार्थ:-(पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56 (क)॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56ख॥

भावार्थ:-या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 (ख)॥ 

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शनिवार, 19 जुलाई 2025

⚜️🔱कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध ⚜️भाग #297 ⚜️🔱 श्री रामचरित मानस गायन || ⚜️🔱'Episode'> घटना -297: रावण द्वारा भेजे गए गुप्तचरों को पहचान लेने का प्रसंग ⚜️🔱

 

श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 51-54  


    >>>'Episode'> घटना -297: रावण द्वारा भेजे गए गुप्तचरों को पहचान लेने का प्रसंग ....... 

            विभीषण के श्री राम के शरण में जाने के साथ ही शत्रु की सेना का भेद जानने को रावण ने जो गुप्तचर भेजे थे, उनकी वास्तविकता वानरों के आगे देर तक छिपी न रह सकी। वे पकड़ लिए गए। सुग्रीव ने आदेश दिया कि उनका अंग-भंग करके उन्हें लंका भेज दिया जाये। नाक-कान काटे जाने की बात सुनकर गुप्तचर त्राहि त्राहि कर उठे और वानरों को ऐसा न करने के लिए श्रीराम की सौगन्ध दे दी। हाथ-पाँव बाँधकर जब उन्हें लक्ष्मणजी के सम्मुख लाया गया ; तो दयालु लक्ष्मण ने उन्हें बन्धन -मुक्त कराया। रावण के नाम से पत्र देकर गुप्तचरों को ये मौखिक संदेश पहुँचाने को कहा कि  सीताजी को सादर वापस लाकर,  वो राम की शरण आये, अन्यथा अपना काल आया ही समझे। लंका पहुँचकर रावण से अपनी दुर्गति और लक्ष्मण का सन्देश सुनाते हुए गुप्तचर शुक ने निवेदन किया - हे नाथ वानर-सेना का वर्णन तो सौ करोड़ मुखों से भी करना सम्भव नहीं है। जिसने लंका जलाई और आपके पुत्र अक्षय कुमार का वध किया उसका बल तो अन्य वानरों की तुलना में कुछ भी नहीं है ....
 
 दोहा 

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।

        प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥    
  
   भावार्थ:-कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

भावार्थ:-फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया। सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥1॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

भावार्थ:-सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

भावार्थ:-वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥ 3॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

भावार्थ:-यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया। (और उनसे कहा-) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो॥4॥

दोहा 

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥

भावार्थ:-फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥52॥

चौपाई 

तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥

कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

भावार्थ:-लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए॥1॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥

पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

भावार्थ:-दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है॥2॥

करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

भावार्थ:-मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

भावार्थ:-और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्‌) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥4॥

दूत का रावण को समझाना और लक्ष्मणजी का पत्र देना

दोहा 

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।

कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

भावार्थ:-उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है॥53॥

चौपाई 

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

भावार्थ:-(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥

दोहा 

रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥

श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

भावार्थ:-हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए, यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥

पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥

नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3

भावार्थ:-हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥

अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

भावार्थ:-जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥4॥
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⚜️🔱शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। ⚜️🔱भाग #296 ⚜️🔱 श्री रामचरित मानस गायन ||

 श्रीराम चरित मानस  

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 49-50 (क)-(ख)  


>>>'Episode'> घटना -296 :  समुद्र पार करने के उपाय के लिये समुद्र से प्रार्थना करने की विभीषण की सलाह .... 
      
        विभीषण ने श्रीराम की पवित्र भक्ति माँगी और वो उन्हें प्राप्त हो गयी। (ठाकुर जी ने विभीषण को ह्रदय से अपना लिया !) श्री राम के वानर सेना के सामने समस्या थी समुद्र पार कैसे किया जाय ?? विभीषण का कहना है कि यद्यपि श्री राम का एक ही वाण करोड़ों समुद्रों का जल शोख सकता है, तथापि नीति कहती है कि पहले जाकर समुद्रसे प्रार्थना की जाय। वे ऐसा उपाय बतायेंगे कि रीछ और वानरों की सेना बिना किसी कठिनाई के सागर पार चली जाएगी।
   
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। 

तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।

राम बचन सुनि बानर जूथा। 

सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

भावार्थ:-हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥1॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी

 नहिं अघात श्रवनामृत जानी

पद अंबुज गहि बारहिं बारा। 

हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

भावार्थ:-प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी। 
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

उर कछु प्रथम बासना रही। 
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना (ऐषणा) थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥3॥

अब कृपाल निज भगति पावनी। 
देहु सदा सिव मन भावनी॥

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
 मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥

भावार्थ:-अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥4॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। 

मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। 

सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

भावार्थ:-(और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है। (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥5॥ (वह निष्फल नहीं जाता- रामजी ने मानो पहले ही लंका पर विजय प्राप्त कर लिया था !!)

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥49क॥

भावार्थ:-श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया॥49 (क)॥

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥49ख॥

भावार्थ:-शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥49 (ख)॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। 
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥

निज जन जानि ताहि अपनावा। 
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥

भावार्थ:-ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया॥1॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
 सर्बरूप सब रहित उदासी॥

बोले बचन नीति प्रतिपालक। 
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥

भावार्थ:-फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-॥2॥

(#समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना।) 
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥

भावार्थ:-हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥

 कह लंकेस सुनहु रघुनायक। 
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥

जद्यपि तदपि नीति असि गाई। 
बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥

भावार्थ:-विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥4॥
दोहा 
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

भावार्थ:-हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। 
करिअ दैव जौं होइ सहाई।

मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
 राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा। 
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥

कादर मन कहुँ एक अधारा।
 दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

भावार्थ:-(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥3॥

भावार्थ:-यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

भावार्थ:-उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥

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⚜️🔱जिन्हें द्विज के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥ ⚜️ भाग #295 🔱श्री रामचरित मानस गायन ||

 श्रीराम चरित मानस  

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 45-48 

>>>'Episode'> घटना -295 भगवान श्री राम से अपने शरण में लेने की विभीषण की विनती - 

       " हे नाथ ! मैं दशमुख रावण का भाई विभीषण हूँ। मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरी काया तामसी है, स्वाभाव से ही मैं पापी हूँ, कानों से आपका सुयश सुनकर आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। विभीषण ये वचन कहकर श्री राम के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया। हर्षित होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगा लेते हैं ; कहते हैं- हे लंकेश ! परिवारसहित अपना कुशल स्वयं सुनाइए। दिन-रात दुष्टों के साथ आपका निवास है, आप अपना धर्म भला किस प्रकार निभाते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप नीतिकुशल हैं, अनीति से आपका कोई समबन्ध नहीं। ये वचन सुनकर विभीषण कहते हैं - हे प्रभु! नरक में रहना श्रेयस्कर है, परन्तु विधाता किसीको दुष्टों की संगति न दे। लोभ, मोह, मत्सर (ईर्ष्या -डाह) और अभिमान तभीतक ह्रदय में बसते हैं , जबतक श्री रघुनाथ का वहाँ निवास नहीं होता। ये मेरा परम सौभाग्य है कि मैंने उन चरणों में शरण प्राप्त कर ली जिनकी पूजा स्वयं ब्रह्मा तथा शिव करते हैं। श्रीराम ने विभीषण को अपनी भक्त वत्सलता से आश्वस्त कर दिया। प्रभु के वचन सुनकर विभषण का जीवन धन्य हो गया।         

[राक्षस कुल में जन्मे भक्त विभीषण की विशेषता : उन्होंने हनुमान जी (ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु) के मुख से प्रभु श्रीराम के सुयश का श्रवण करके उस पर मनन , निदिध्यासन किया था।]   

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

भावार्थ:-मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

चौपाई 

अस कहि करत दंडवत देखा।

 तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। 

भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

भावार्थ:-प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥

कहु लंकेस सहित परिवारा। 

कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥

खल मंडली बसहु दिनु राती। 

सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥

 ' दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? 

बरु भल बास नरक कर ताता। 

दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

-हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।

 लोभ मोह मच्छर मद माना॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा।

 धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

      भावार्थ:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते 1॥

     अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।

       देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥47॥

भावार्थ:-हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। 

जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। 

आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काक-भुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥

तजि मद मोह कपट छल नाना। 

करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥

भावार्थ:-और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। 

जननी जनक बंधु सुत दारा। 

तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

सब कै ममता ताग बटोरी।

 मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं।

 हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

भावार्थ:-माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार,  इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें।

 लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। 

धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

भावार्थ:-ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे किसी लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥

दोहा 

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।

ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम48

भावार्थ:-जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों (द्विज) के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

[द्विज - जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः (श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः नवनी दा) जन्मना जायतो शूद्रः। वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।] 

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