नर देह प्राप्त करने का महत्व
(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।)
इस ग्रन्थ के शुरुआत में ही शंकराचार्य जी हमें नर देह प्राप्त करने महत्व बताते है। यह मनुष्य शरीर प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ वस्तु है। यह एक मशीन है , इसके द्वारा एक प्रयोजन सिद्ध होता है।इस मशीन का एकमात्र उद्देश्य है - सत्य का आविष्कार करना। इस मशीन को प्राप्त करके भी अगर हमने उस सत्य को नहीं जाना, तो बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। इस मनुष्य देह रूपी मशीन से अतिरिक्त जितने मशीन हैं , उनके अंदर सत्य को जानने की क्षमता ही नहीं है। उनको तब तक प्रतीक्षा करना होगा ,जब तक यह मशीन उनको नहीं मिल जाता है। इस ग्रन्थ के शुरुआत में ही शंकराचार्य जी हमें जगा रहे हैं , हम निद्रित हैं - मोहनिद्रा में सोये हुए हुए हैं। वे बता रहे हैं -इस बहुमूल्य मानव-शरीर के महत्व को समझो। नहीं तो हम इस मशीन का दुरूपयोग कर बैठेंगे और एक महान अवसर खो देंगें।
मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य सत्य को जानना है ! सत्य को जानेंगे तब ही हम बंधन से मुक्त होंगे। ये सब समीकरण के जैसा है। -these all are equations ! इस बंधन से मुक्त होने रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता है। उसके बिना हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएंगे। उन चार साधनों को हमलोग वेदांत में साधन चतुष्टय कहते हैं। वे इस प्रकार हैं - विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। षट्सम्पत्ति या छह असली सम्पत्ति क्या हैं - शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। अभी हमलोग एक एक योग्यता की परिभाषा देखेंगे। हमलोग यह अन्वेषण करने जा रहे हैं , कि जिसको हम मनुष्य कहते हैं , वह वास्तव है क्या ? उसी प्रकार यह जो विश्वप्रपंच हमको दिखाई दे रहा है , यह वास्तव में है क्या ? जिसको हमलोग M/F कह रहे हैं,वो वास्तव में हैं क्या ? यह अपने आप एक बहुत बड़ी Mystery है ! हमलोग आँखों से जो देख रहे हैं -वैसा है क्या ? ये बहुत बड़ा प्रश्न है। इस खोज में अग्रसर होने के लिए साधन-चतुष्टय की आवश्यकता है। इसमें पहला साधन है विवेक , इसकी परिभाषा देते हुए शंकराचार्य जी कहते हैं -
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवरूपो विनिश्चयः |
सोयं नित्यनित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः || 20 ||
20. मन की यह दृढ़ धारणा कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है, सत्य और मिथ्या के बीच विवेक कहलाती है।
जितने भी अद्वैत सनातन वेदांत के अनुयायी हैं, सभी ने श्लोक अवश्य सुना होगा। इस एक पंक्ति में परम सत्य को हमारे सामने रखा गया है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। दूसरी पंक्ति और भी Important है। इन दो पंक्तियों प्रत्येक मनुष्य का सत्य है। सत्य की परिभाषा क्या है ? वेदांन्त के अनुसार - सत्य वो है जो त्रिकाल अबाधित है ! तीनों कालों में जो बाधित नहीं होता -उसको सत्य कहते हैं। जो समय की तीनों अवस्थाओं में सत्य है। जो नित्य विद्यमान है , जो कभी भी जाता नहीं है। इस परिभाषा के अनुसार अपने जन्म से लेकर अभी तक अपनी इन्द्रियों से हमने जो कुछ अनुभव किया वह इस कसौटी पर खरी उतरती है क्या ? हमने जो कुछ अनुभव किया इन्द्रियों के द्वारा ऐसा कुछ देखा जो तीनों कालों में विद्यमान है ? ऐसा कोई इन्द्रियगोचर वस्तु आप में से किसी ने देखा है , जो अतीत में भी था , वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा -ऐसा कोई वस्तु आप में से किसी ने देखा है ? हमारे इन्द्रियजगत का हर वस्तु बुलबुले की तरह है या नहीं ? अभी प्रकट हुआ , अभी नष्ट हो गया ? -Emerging and disappearing, Emerging and disappearing ..... इसकी ही शृंखला है। आप कुछ भी ले लीजिये -कल शाम को बगीचे में एक फूल दिखाई दे रहा था - अब नहीं है। आपकी अवलोकन दृष्टि बहुत तीक्ष्ण होनी चाहिए। उस फूल की उत्पत्ति के पहले वो अदृश्य था , अब उस फूल के नष्ट होने पर दुबारा अदृष्ट हो गया है। बीच कुछ समय के किये वह दिखाई दिया। हमलोग जो कुछ भी देख रहे हैं -सब बुल बुले के समान ही है। दिखे -गायब हुए , दिखे गायब हुए - कोई संदेह ? अभी एक घंटे में कितने बुलबुले उत्पन्न हुए और नष्ट भी हो गए -किसी को कोई फर्क पड़ा क्या ? अब इसी बात को अपने ऊपर लागु करके दिखिए। -You have to be very bold now ! अब आपको बहुत साहसी होना होगा। (विवेकानन्द की कृपा पाने के बाद -आपको साहसी तो होना ही पड़ेगा।) अभी इस बुलबुले को देखिये जिसका नाम 'B.K.S' दे दिया गया है। बड़ी मजेदार बात है , इन बुलबुलों को आपने एक नाम दे दिया है। हम सब बुलबुले हैं - थोड़ी देर पहले हम नहीं थे , अभी दिखाई दे रहे हैं , थोड़ी देर बाद ये दुबारा अदृश्य होने वाले हैं , ये दिखाई भी नहीं देंगे !! जो बीच में दिखाई दे रहा है उसका हमने एक नाम दे दिया है , जो सत्य सा दीखता है। पर ये मेरा नाम-रूप सत्य है क्या ? सत्य वह है -जो तीनों कालों में रहता है , सब समय विद्यमान रहता है। जगत की प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तनशील है। समुद्र की सतह पर एक लहर उठा , दूसरे क्षण चला गया। पानी हमेशा विद्यमान है। ये जो सूर्य हमेशा दीखता है -वो क्या है ? इस सूर्य की आधी life खत्म हो गयी है , आधी बाकि है। ये सूर्य भी पहले नहीं था। फिर ये भी डेड स्टार हो जायेगा। आप कहोगे ये हिमालय तो है। ये हिमालय एक समय में नहीं था , आगे नहीं रहेगा। पर सब परमामेंट लगता है। परमानेंट है क्या ? 500 साल बाद आप यहाँ आप आएंगे तो ये सब कुछ नहीं रहेगा।
शंकराचार्य जी जगत के बारे में एक बहुत सुंदर शब्द का प्रयोग करते हैं- 'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' इसको लिख लीजिये। इस पर आपको चिंतन -मनन करना है। हर वस्तु का स्वभाव रूप सबकुछ बदल रहा है , यहाँ पर कुछ भी स्थायी नहीं है। इसी 1 घंटा में 'BKS' में कितना बदलाओ हो गया है , आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते। जो सतत बदल रहा है -वो वस्तु कहाँ है ? शंकराचार्य जी एक और सुंदर शब्द कह रहे हैं - 'दृष्ट नष्ट स्वभाव।' जिस वस्तु को मैं अभी देख रहा हूँ, वो वस्तु उसी समय नष्ट भी हो रही है। दर्शनकाल में ही वो वस्तु नष्ट हो रही है। matter तो Energy के सिवा कुछ नहीं है। भौतिकशास्त्री को जगत नहीं दिखेगा atoms ही दिखेगा। Modern Physicist - आधुनिक भौतिक विज्ञानि भी यही कहेगा की जगत कहाँ है - ये तो सिर्फ Energy है। गहराई से देखने पर दृष्टि बदल जाती है। स्वामीजी ने कहा है -आधुनिक भौतिकी भी बहुत जल्दी अद्वैत वेदांत के निष्कर्ष पर पहुंचेगी ! Modern physics will come to conclusions of advaita vedanta इन सब तथ्यों का आविष्कार हमारे ऋषियों ने तब किया था जब इन पाश्चात्यदेशों का जन्म भी नहीं हुआ था। जो कुछ दिखाई दे रहा है वो थोड़ी देर के लिए है , इसको समझ जाओ तो जीवन बदल जायेगा। विवेक पूर्वक जीना ही art ऑफ़ living है। मगरमच्छ को आप लकड़ा समझकर व्यवहार कर रहे हो। मिथ्याजगत को सत्य समझकर उसके साथ व्यवहार करना बड़ा समझदारी का काम लगता है , लोग कहते है -छोटका भैवा प्रैटिकल है , लेकिन ठीक उल्टा है। विवेक हमें बताती है कि भाई देखो सत्य क्या है - मिथ्या क्या है ? जो प्रकट होता है , फिर अदृश्य हो जाता है , वो सत्य नहीं हो सकता। 'जगत प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है।
तो जगत क्या है ? मिथ्या ! कोई शक ? (26.40 मिनट) इसको मिथ्या क्यों कहते हैं ? ये 'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' है ! ये बुलबुलों के समान -दिख रहा है, अदृश्य हो रहा है, दिख रहा है, अदृश्य हो रहा है। यहाँ पर सबकुछ अनित्य है - कोई भी नित्य वस्तु हमको दीखता है क्या ? ये शरीर भी जगत-मिथ्या में है। ऐसा भ्रम मत पालना -ये जगत में सबकुछ मिथ्या है , केवल मेरा शरीर ही नित्य है, बाकि सब मिथ्या है ! ये शरीर अभी दिख रहा है , कल ही अदृश्य हो जायेगा। ये बुलबुला जो कल अदृश्य हो जायेगा -इससे किसी को कुछ फर्क पड़ने वाला है क्या ? किसीको कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। ईश्वर करे आप दीर्घायु हों - लेकिन आज नहीं कल सभी disappear होने वाले है। कितने आये -गए , उनके लिए अभी कोई रोता है क्या ? तो इस प्रकार विवेक आ जाने पर इसी समय जीवन-मृत्यु के प्रति देखने की दृष्टि बदल जाती है। हमलोग मृत्यु को लेकर परेशान हो जाते हैं। यही बात कृष्ण अर्जुन से कह रहे थे , अरे भाई जो जन्म है , सो मरेगा। जो प्रकट हुआ है, वो अदृश्य होगा - तू रोता क्यों है अर्जुन ? तस्मात् अपरिहार्ये अर्थे न त्वम् शोचितुम् अर्हसि !
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।" (2.27)
इसका अर्थ है: "जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरा है, उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिए, जो अवश्यंभावी है, उस पर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।" इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र के बारे में बताते हैं, और यह समझाते हैं कि आत्मा कभी नहीं मरती, केवल शरीर बदलता है। इसलिए, शोक करना व्यर्थ है, और अर्जुन को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इसलिए जन्म होने पर न तो खुशियाँ मनाने की बात है , और मृत्यु होने पर भी आँसू बहाना जरुरी है। बर्थडे पर केक काटना - एक बुलबुला आ गया सामने। जो बुलबुला आया है वो अदृश्य होने के लिए ही आया है। कोई शक ? बुलबुले को सत्य समझकर हम जो उसकेसाथ व्यवहार कर रहे हैं - यही हमारा बंधन है। विवेक के साथ सभी को देखिये - जो जैसा उसके साथ वैसा व्यवहार कीजिये - भ्रम में मत रहिये। समस्या दृष्टिगोचर जगत में नहीं है , उसको लेकर हमारे मन में भ्रम बैठा हुआ है -उसमें है।
जब आप सभी रिश्तों-नातों को विवेक के साथ देखना शुरू कर देते है -तब ही Real life शुरू होता है। तब आप सभी परिस्थितियों को बहुत बुद्दिमत्ता पूर्वक सँभालने के योग्य बन जाते हैं। बगैर कहीं 'दादा-दादीयों ' के मोह में फंसे हम सारे 'कालनेमियों' के साथ यथा-योग्य व्यवहार करने में सक्षम हो जाते हैं। शंकराचार्यजी हमें बतायेंगे कि हमलोग बंधन में क्यों पड़ जाते हैं -हमलोग विवेकी होकर भी, सिंह होकर भी भेंड़त्व के Trap में या जाल में कैसे फंस जाते है ? हमारी दृष्टि ही गलत है, जो मिथ्या है , उसको सत्य समझकर हम उसके साथ व्यवहार कर रहे हैं। कालनेमि को ही यदि मुनि समझकर जो उसके साथ व्यवहार करोगे - तो पहुँचोगे कहाँ ? मगरमच्छ के पेट में ही पहुँचोगे। बिल्कुल यही हो रहा है। जीवन में जो भी दुःख है वो इसी अज्ञान के कारण है -इसी अविद्या के कारण है -अर्थात अविवेक के कारण है। शंकराचार्य जी कोई नई बात नहीं कह रहे हैं -हमारे उपनिषदों की बातें ही बता रहे हैं। तो विवेक क्या है ? यह जगत मिथ्या है - यह समझलेना ही विवेक है। लेकिन वो सत्य वस्तु क्या है ? [ब्रह्म है या शक्ति है ? matter है या Energy है ?] इसका ज्ञान आज हमको नहीं है !! लेकिन अभी सुन लीजिये, श्रवण कर लीजिये - एक वस्तु है , जो कि नित्य है ! जो तीनों कालों में विद्यमान है , एकदम हमारे ह्रदय के अंदर ही है -लेकिन आज हमको वो अनुभव नहीं हो रहा है। उस सत्य वस्तु को एक नाम दे दिया गया है - ब्रह्म ! आप उसको ब्रह्म कहो, आप उसको आत्मा कहो , परमात्मा कहो , ईश्वर कहो , भगवान कहो , इन सारे शब्दों का मतलब वही है। अभी हम जिसको राम कह रहे हैं , कृष्ण कह रहे हैं , शक्ति या माँ काली या माँ सारदा कह रहे हैं ? हम उसी एक नित्य वस्तु की पूजा कर रहे हैं। अच्छा किसी अनित्य-या नश्वर वस्तु की हम पूजा कर सकते हैं क्या ? किसी नश्वर या अनित्यवस्तु की पूजा तो कोई भी नहीं कर सकता। हम पूजा सिर्फ उस वस्तु की कर सकते हैं , जो सब समय विद्यमान है। अंत में वेदांत हमें सिखाता है कि तुम जो अपने को बुलबुला समझ रहे थे , तुम वो नहीं हो - तुम स्वयं ही ब्रह्म हो ! तुम अविनाशी आत्मा हो -नश्वर अब शरीर नहीं हो ! अभी ये खोज का विषय है - आज हमको उसकी अनुभूति नहीं है। जैसे शास्त्र और गुरु ने बताया -अगर उस पथपर हम चलना शुरू कर देते हैं , तो एक दिन यह अनुभूति हम सबको होने वाली है।
सत्य क्या है ? ब्रह्म है ! जगत क्या है ? मिथ्या है ! इति एवं रूपो विनिश्चयः ! सोयं नित्यनित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः || 20 || आचार्य शंकर कहते हैं -ऐसा जो निश्चय है -यही 'नित्य-अनित्य वस्तु -विवेक' कहलाता है। इस प्रकार यह जो हमारी 'निश्चयात्मिका-बुद्धि' है- हम जो भी देख रहे हैं -उसके प्रति एकदम स्पष्ट रूप से मिथ्यत्व बुद्धि होनी चाहिए। जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि कभी नहीं आनी चाहिए। इन्द्रियों से हम जो कुछ भी देख रहे हैं - सब मिथ्या है। ये जगत सत्य है - ऐसी बुद्धि विवेकी मनुष्य में होनी ही नहीं चाहिए। मिथ्या क्यों है ? क्योंकि सबकुछ यहाँ बुलबलों के समान प्रकट हो था है , अदृश्य हो रहा है। कोई शक ? हमने जितने भी स्त्री-पुरुष नाते-रिश्ते मित्र आदि के अनुभव किये थे -वे सब इसी प्रकार हैं। अभी हैं , अगले क्षण वे नहीं हैं। समुद्र सत्य है -लहरें मिथ्या हैं। ब्रह्म वो समुद्र रूपी एक सत्यवस्तु है , जिसकी सतह पर यह जगत रूपी लहर उठ रही है। हमलोग मिथ्या को सत्य समझ लिए हैं , यही हमारी समस्या है। बुलबुला नाम का कोई चीज है क्या ? -ये तो पानी ही है। उसी प्रकार जब आप मनुष्य के तह की खोज करते हैं - तो मनुष्य गायब हो जाता है भगवान की अनुभूति हो जाती है। उसी प्रकार जगत को खोजने पर जगत चला जायेगा ब्रह्म ही दिखाई देगा। जबतक Investigation नहीं होता है , हम सतह पर जो दिखाई देता है , उसीको सत्य मान कर व्यवहार कर रहे हैं। समझ रहे हैं -क्या विडंबना है? ईश्वर-रूपी समुद्र में मनुष्य रूपी बुलबले प्रकट हो रहे हैं -अदृश्य हो रहे हैं। मनुष्य मिथ्या है , ईश्वर ही सत्य है। इस स्पष्ट-दृष्टि को विवेक कहते हैं। जब आपको जगत-मिथ्या और ब्रह्म सत्य इतने स्पष्ट रूप में दिखेगा तब आपका जगतव्यवहार बुद्धिमत्ता पूर्वक होगा - कोई कालनेमि का जाल आपको बाँध नहीं सकेगा। यह समझ हमारे जीवन में एक क्रांति उत्पन्न कर देगी। आप समस्त समस्याओं का बहुत बुद्धिमानी से समाधान खोज लेंगे। विवेक वह दृष्टि है -जिसमें कोई दो चीजें घुलमिल गयी हों -गोल-माल कहते हैं ; माल को ले लेना है -गोल को छोड़ देना है। मगरमच्छ को आपने लकड़ा समझ लिया , गोलमाल हो गया। राक्षस कालनेमि को मुनि समझ लिया -गोलमाल हो गया। कालनेमि में भी ब्रह्म है - पर वो अभी नाम-यश रूपी रावण का गुलाम बना हुआ है। यह विवेक सिर्फ मनुष्य मात्र ही कर सकता है - गाय को तो अपना घाँस ही सत्य दिखाई देगा। चलते समय भी गाय की दृष्टि केवल घाँस की तरफ है , हम मनुष्यों की दृष्टि भी बिल्कुल उसी प्रकार है। हमलोग भी पशुओं के समान केवल विषयों के पीछे ही भागते जा रहे हैं। जब तक हमारा विवेक-जागृत नहीं होता हम बिल्कुल गाय और भैस की तरह ही हैं। गाय -बैल घांस के पीछे जाता है , हम विषयों के पीछे जाते हैं। क्योंकि उन विषयों के पीछे -हमारी सत्यत्व बुद्धि है। रुप-रस, गंध-शब्द -स्पर्श ये सारे विषय बुलबुलों के समान हैं कि नहीं ? ये विचार का विषय है, ये मंथन करना है। मिथ्या विषयों के पीछे पीछे दौड़ना , उस गड्ढे में गिरने के समान है -जिसका तल है ही नहीं। बाहर के स्थूल रूप तक ही हमारी दृष्टि अभी सीमित है। और यही बंधन है। M/F स्थूल रूप है ही नहीं - अस्ति, भाति, प्रिय है। नाम-रूप मिथ्या है। उसी मिथ्या में हम अपने को डुबो रहे हैं -इसीलिए जगत से कोई भी व्यक्ति तृप्त नहीं हो सकता। श्रवण-मनन करने से दृष्टि हमारी बदल रही है। गुरु और शास्त्रों के अनुसार चलने से जो विवेक-दृष्टि हमें प्राप्त होती है , वह दृष्टि क्या फिजिक्स क्लास में मिल सकती है ? आपके माता-पिता भी वो दृष्टि नहीं दे सकते -क्योंकि वे सभी भ्रमित हैं। आपके माता-पिता बहुत अच्छे लोग हो सकते हैं , किन्तु सत्य का निर्देशन नहीं कर सकते। जो सत्य को जानता है , वही हमें सत्य का निर्देशन कर सकता है। जब तक आप मिथ्या जगत को सत्य समझ रहे हो , तबतक आपके दिमाग में भूँसा ही भरा है न ? मिथ्या जगत को जो सत्य समझ रहे हो -वो भूँसा है या नहीं ? अब तक हमारे व्यवहार का जो आधार था वो क्या था ? मिथ्या जगत को सत्य समझकर हम व्यवहार कर रहे हैं। और हम समझ रहे थे कि हम बहुत समझदार हैं। समझदार है क्या ? ये सब विचारणीय प्रश्न है। ये जो स्पष्ट देखने वाली दृष्टि है - 'इति एवं रूपो विनिश्चयः' हम में आएगी। ज्ञानमयी दृष्टि -सत्य क्या है ? और जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है -वह क्या है ? गोल-माल में स्पष्ट दृष्टि। मिथ्या क्या है ? सत्य क्या है ? इसको हम विवेक कहते हैं। इसीलिए विवेक को चूड़ामणि कहा गया है , इस विवेक से बढ़के कुछ है क्या ? वेदांत कोई किताबी जानकारी नहीं है - It's Not a theory ! It's life transforming ! जीवन ही परिवर्तित हो जाता है। जादू है। विवेक आने पर क्या होता है ? अब आप सतर्क हो जाओगे। विषयों के पीछे दौड़ने का वो पुराना संस्कार तो है , इसलिए विवेक हो जाने के बाद भी विषयों के पीछे दौड़ोगे ; लेकिन अब पहले से थोड़ा सतर्क हो जाओगे। दौड़ने का स्पीड कम होने लगेगा। विवेक हो जाने पर आपका आचरण बदल जायेगा। वो व्यक्ति जबतक मगरमच्छ को लकड़ा समझ रहा था उसका आचरण कैसा था ? जैसे ही जान गया कि ये कालनेमि है , उसका आचरण बदल गया - अब वो उसके प्रभाव से मुक्त होगया। गुरुदक्षिणा पहले ले लो -देने लगे हनुमानजी। जैसे ही सही समझदारी आएगी , उसका प्रभाव हमारे आचरण पर दिखाई देगा। बुलबुलों में फंसना समझदारी है या मूर्खता है ? एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को पकड़ कर ये समझता है कि मैं सुरक्षित हूँ ! लेकिन जब तक सत्य नहीं जानिएगा , अपने को असुरक्षित ही समझियेगा। M पुरुष -F स्त्री को पकड़ता है , स्त्री पुरुष को पकड़ती है - पर सत्य को नहीं जान लेने तक दोनों असुरक्षित हैं। दोनों अदृश्य होने वाले हैं। ये बुलबुला तो समुद्र ही है - जैसे ही यह विवेक जागा, उसकी असुरक्षा का भय चला गया। सभी प्रकार का सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष, या भाई-भाई , भाई -बहन सम्बन्ध सभी में व्यक्ति सुरक्षित होने के लिए प्रयत्नशील है। अपने को विषयों में डुबोदेते है स्वयं को सुरक्षित महसूस करने के लिए। कोई बुलबुला कितना भी धनी हो , है तो बुलबुला ही न ? विश्व का सबसे धनी व्यक्ति -है तो एक बुलबुला ही न -उसका नाम चाहे जो कुछ हो ? वह भी उतना ही असुरक्षित है , जितना यह बुलबुला असुरक्षित है। बुलबुला जब यह जान लेगा कि समुद्र के साथ वो अभिन्न है -उसका भय सदा के लिए चला जायेगा। जीव अपने सत्य स्वरुप में ब्रह्म, समुद्र या ईश्वर ही है , यह अनुभूति प्रत्येक को करना होगा। यह आत्मज्ञान ही मनुष्य के सभी समस्यायों का समाधान है। इसलिए शंकराचार्य जी कह रहे हैं -जीव भी ब्रह्म ही है ! 'ब्रह्म सत्यं जीव मिथ्या ' ऐसे समझ लो। बुलबुला समुद्र ही है -वो जानता नहीं है। ज्ञान होने पर आप जानोगे कि -कालनेमि भी ब्रह्म ही है , किन्तु उसको यह अनुभूति नहीं है , इसलिए उससे आपको सतर्क रहना होगा। आगे जो कुछ खोज करना है - या अन्वेषण करना है वह इस विवेक के आधार पर ही करना है। what is actually Real and what is appearing to be Real ? इन दोनों के बीच में स्पष्टता को विवेक कहते हैं।
अब जो विवेक हो गया तो उसका प्रभाव आपके आचरण पर पड़ेगा , अब उसके फलस्वरूप नश्वर वस्तुओं से वैराग्य स्वतः होगा। वैराग्य मतलब व्यक्ति जंगल नहीं भागेगा - बल्कि मगरमच्छ की ओर बढ़ रहा था , कालनेमि की और बढ़ रहा था ? उससे कदम पीछे हटाएगा। अब वो उसके पीछे पीछे नहीं दौड़ेगा। अब पहले आप रुक जाओगे , उसके बाद पीछे हटोगे। इसीको वैराग्य कहते है ,विवेक होने से आपके जीवन पर उसका जो प्रभाव वो ऐसा होगा कि आप विषयों के पीछे नहीं दौड़ोगे , किसी भी ऐषणा के पीछे नहीं भगोगे। विषयों से पीछे हटोगे - इसको वैराग्य कहते हैं। अब देखिये वैराग्य की परिभाषा में आचार्य शंकर क्या कहते हैं -
तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवनादिभिः |
देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यानित्ये भोगवस्तुनि || 21 ||
21. दर्शन और श्रवण (Audio Visual-श्रव्य और दृश्य) आदि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त सम्पूर्ण क्षणभंगुर या अनित्य भोगों, या भोग्यपदार्थों में जो घृणाबुद्धि है वही 'वैराग्य' है।
जितने भी इन्द्रियों से दिखने वाले भोग की वस्तुयें हैं , हमें इन्द्रियाँ जो दिखा रही हैं -हम उसी को देख रहे हैं। यदि हमारी इन्द्रियां नहीं हों तो देखो ये जगत ही नहीं रहेगा। मतलब मानलो मेरी घ्राणेन्द्रिय नष्ट हो गयी , तो नाक तो है -पर गुलाब या बेला के फूल की खुशबु का अंतर हम नहीं कर पाएंगे। श्रवण या दर्शनेन्द्रिय नष्ट होने से भी यही होगा। कल्पना कर के देखो -आप हो ये शरीर भी है , पर इन्द्रियाँ नहीं हैं -तो जगत रहेगा क्या ? जगत सिर्फ इन्द्रियों का खेल है। इन्द्रियों से जो भी भोग वस्तुऐं दिखाई दे रही हैं , अज्ञान में हम जिसके पीछे दौड़ रहे थे। जब विवेक नहीं था ,जब विवेक का अभाव होता है , तब हम इन्द्रिय -भोग वस्तुओं के पीछे पीछे दौड़ते रहते हैं। जब जान गए कि ये मिथ्या है , अनित्य है - अब क्या होगा ? आपको उन विषयों में आसक्ति नहीं होगी। वैराग्य की भावना होगी -रूप, रस आदि भोग में आपकी रूचि नहीं होगी। पहले तो आप उसमें खूब रूचि ले रहे थे , कात्यायनी के रहते हुए मैत्रेयि की खोज में लगे हुए थे ? सोचरहे थे उसका भोग करके मैं तृप्त हो जाऊँगा। जब विवेक जग तो ये समझ में आ गया कि इसमें रूचि लेना तो मूर्खता है। क्योंकि ये अनित्य भोगवस्तु है - कौन कौन से भोग वस्तु है ? देहादिब्रह्मपर्यन्ते - अर्थात इस स्थूल शरीर से लेकर के ब्रह्मा तक - माने पूरे विश्वब्रह्माण्ड में जो हमको इन्द्रियों से भोग वस्तु दिखाई दे रहा है , वो अनित्य है। दर्शनश्रवणादिभिः - मतलब पाँचो इन्द्रियों से जो हमको दिखाई देता है। जब हमको ये स्पष्ट समझ में आ जाता है कि - स्पर्श इन्द्रिय , घ्राण इन्द्रिय से अनुभव में आने वाले सभी विषय सुख अनित्य ही नहीं हैं -विष के समान हैं। तब क्या होगा ? आपके अंदर अपने आप एक त्याग की भावना आती है। इसीको वैराग्य कहते हैं। -जिहासा या जुगुप्सा ? माने त्याग करने की इच्छा जग जाती है। इसका मतलब कहीं भागना नहीं है -It's a very intelligent way of handling, इन्द्रियों की लोलुपता से निपटने का, यह एक बहुत ही बुद्धिमानी वाला तरीका है। टेंडेंसी उधर जाने को कहेगी , तो भी आप नहीं जायेगे। इसके उदारण है स्वामी विवेकानन्द - वे हमारे युवा आदर्श हैं ! मार्ग में भटकने से भी हाथ बढ़ाकर संभाल लेते हैं । गड्ढे में और गिरने नहीं देते। कोई भी भोगवस्तु विवेकानन्द को प्रलोभित कर सकती है क्या ? सुंदर से सुंदर भोग वस्तु जिसके लिए मनुष्य पागल हो जाते हैं। श्रीरामकृष्ण अपने उपदेशों में वे दो उपदेश हमेशा बोलते हैं - काम और कांचन , 'Lust and lucre ' काम यानि लैंगिक जो आकर्षण है या 'कामिनी -कांचन' में आसक्ति जो रहती है ,सारा विश्व तो इस लैंगिक आकर्षण के पीछे पागल है। क्यों अविवेक ! ये लैंगिक आकर्षण है क्या ? हम सतह पर कुछ देख रहे हैं , अंदर झाँककरके देखिये आत्मा में न कोई लिंगभेद है , न कोई स्त्री है , न कोई पुरुष है। एक मात्र परब्रह्म परमेश्वर ही है। जिसको ये ब्रह्म नहीं दीखता उसको तो स्थूल स्त्री-पुरुष का शरीर ही दिखाई देता है। वहीँ पर उसकी बुद्धि सीमित है , वहीं पर वो अटका हुआ है। लेकिन विवेकानन्द की बुद्धि तो वहाँ सीमित नहीं है न ? उनको कोई भी लैंगिक वस्तु आकर्षित कर सकता है क्या ? रमण महर्षि को , रामकृष्ण परमहंस को इस ब्रह्माण्ड की कोई भी वस्तु उनको आकर्षित कर सकती है ? कहीं भागना नहीं है - दृष्टि स्पष्ट हो गयी तो आप, आगे से और किसी प्रलोभन के चपेट में आप नहीं आओगे. This is Freedom, जबतक आप विपरीत लिंग के शरीर से प्रभावित हो रहे हो , आप बंधन में हो कि मुक्त हो ? जब तक दूसरा वस्तु मुख्य प्रभावित कर रहा है। हम भयंकर बंधन में हैं। जब तक ये कामिनी -कांचन आपको प्रभावित कर रहा है , प्रलोभित कर रहा है - क्या आप आजाद हो ? वो वस्तु आपको नियंत्रित कर रही है। आज हमारी दशा तो यही है। हम कामिनी-कांचन में आसक्ति को control नहीं कर रहे हैं , वे हमें control कर रही हैं। इस सृष्टि में कामिनी-कांचन की आसक्ति से कौन आजाद है ? मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य इसी Freedom को पाना है। इस विवेक के द्वारा आपका व्यक्तित्व ऐसा निखरेगा कि आप इस ब्रह्माण्ड की आसक्तियों से ऊपर उठ जाते हैं। उसका स्वामी बन जाता है , ये ब्रह्माण्ड उसको प्रलोभित नहीं कर सकता। क्योंकि ये ब्रह्माण्ड तो मिथ्या है -तीनों काल में नहीं है ! यह ब्रह्माण्ड उस अनंत रूपी समुद्र में एक छोटा सा लहर है। ये विवेकी को दिखाई देता है , अविवेकी को समझ में नहीं आता। जब हम वेदांत पढ़ना चाहें तो हमें अपने सामने श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन को आदर्श के रूप में रख लेना चाहिए। Lust and greed तब तक काम करेगा , जब तक हम अविवेकी हैं। हमको तो सिर्फ M/F स्त्री-पुरुष, स्त्री-पुरुष, भाँति -भाँति के शरीर ही दीखते हैं। लेकिन विवेकानन्द के लिए न तो कोई स्त्री है न पुरुष एक परब्रह्म -सच्चिदानन्द ही है ! दृष्टि जिसकी बदल गयी वो मुक्त पुरुष है , वो स्वच्छंद घूमता है - कहीं भी उसके लिए बंधन नहीं है। हमारे अन्तःकरण में स्त्री-पुरुष रूपी भेद ऐसे ठूँस -ठूँस कर भरा है कि हम लोग freely - मुक्त होकर सड़क पर भी नहीं चल सकते हैं - हर समय Gender Idea, Gender Ideas, ये Gender Idea सत्य है क्या ? ये सब विचारणीय प्रश्न हैं , इन पर हमको मनन करना है। आपको सोचना होगा मैं कौन हूँ ? Who I am ? तो ये वैरग्या है -जितने भी भोग्य वस्तुएं हैं - दर्शन-श्रवण आदि इस स्थूल शरीर से लेकर ब्रह्मा जी तक - ब्रह्माण्ड में जितने भी भोग वस्तु हैं , ये सब बुलबुलों के समान हैं। ऐसा जनकरके कामिनी -कांचन के प्रति त्याग की भावना। त्याग करने की इच्छा को ही वैराग्य कहते हैं। मूर्ख व्यक्ति ही इन्द्रिय भोगों के पीछे पीछे जायेगा। तो विवेक होगा तो अपने आप ही वैराग्य आ जाता है। अविवेकी में कभी वैराग्य हो सकता है क्या ? संसार के सभी लोग अविवेक में डूबे हुए हैं , वे उसमें डूबे ही रहेंगे। पर जब विवेक होता है , अपनेआप ही अपनी दृष्टि बदल जाती है। उसका आचरण बदल जाता है। उसका आचरण अब त्यागमूलक होगा; भोगमूलक नहीं होगा। आज हमने जो चर्चा की है वो विवेक-वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण चीज है , इसपर हमें खूब मंथन करना होगा। अनंत काल में 1000 या 500 साल भी क्षण मात्र हैं। ॐ शांति !
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