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मंगलवार, 28 सितंबर 2021

$$$$ *वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है !* ( 1 जनवरी 1883) परिच्छेद ~22,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]


( 1 जनवरी 1883) परिच्छेद ~22,श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ताँके लाभ होले ,  ताँते समाधिस्थ होले - ज्ञानविचार आर थाके ना।*

पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) --“उन्हें (अपने इष्टदेव को)  प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर (अर्थात आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर), फिर ज्ञान-विचार ("Reasoning and discrimination, कुतर्क करने की आदत और अपना-पराया में भेदभाव)  नहीं रह जाता ।” 

[“তাঁকে লাভ হলে, তাঁতে সমাধিস্থ হলে — জ্ঞানবিচার আর থাকে না।

 "Reasoning and discrimination vanish after the attainment of God and communion with Him in samadhi.

“ज्ञान-विचार तो तभी तक है, जब तक अनेक वस्तुओं की धारणा रहती है- जब तक जीव, जगत्, हम, तुम, यह ज्ञान रहता है । जब एकत्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब चुप हो जाना पड़ता है । जैसे त्रैलंगस्वामी  ^ ।” (^ बनारस के एक प्रसिद्ध संन्यासी जो मौनव्रत का पालन करते थे , जिनसे श्रीठाकुर एक बार मिले थे। )

[“জ্ঞানবিচার আর কতক্ষণ? যতক্ষণ অনেক বলে বোধ হয় —“যতক্ষণ জীব, জগৎ, আমি, তুমি — এ-সব বোধ থাকে। যখন ঠিক ঠিক এক জ্ঞান হয় তখন চুপ হয়ে যায়। যেমন ত্রৈলঙ্গ স্বামী।

 How long does a man reason and discriminate? As long as he is conscious of the manifold, as long as he is aware of the universe, of embodied beings, of 'I' and you'. He becomes silent when he is truly aware of Unity. This was the case with Trailanga Swami. (A noted monk of Benares whom the Master once met. The Swami observed a vow of silence.)

ब्रह्मभोज के समय नहीं देखा? पहले खूब गुलगपाड़ा मचता है । ज्यों-ज्यों पेट भरता जाता है, त्यों-त्यों आवाज घटती जाती है । जब दही आया, तब सुप्-सुप्, बस और कोई शब्द नहीं । इसके बाद ही निद्रा-समाधि ! तब आवाज जरा भी नहीं रह जाती !

[“ব্রাহ্মণ ভোজনের সময় দেখ নাই? প্রথমটা খুব হইচই। পেট যত ভরে আসছে ততই হইচই কমে যাচ্ছে। যখন দধি মুণ্ডি পড়ল তখন কেবল সুপ-সাপ! আর কোনও শব্দ নাই। তারপরই নিদ্রা — সমাধি। তখন হইচই আর আদৌ নাই।

"Have you watched a feast given to the brahmins? At first there is a great uproar. But the noise lessens as their stomachs become more and more filled with food. When the last course of curd and sweets is served, one hears only the sound 'soop, soop' as they scoop up the curd in their hands. There is no other sound. Next is the stage of sleep — samadhi. There is no more uproar.]

 श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) – “कितने ही ऐसे हैं जो ब्रह्मज्ञान की डींग मारते हैं परन्तु नीचे स्तर की वस्तुएँ लेकर मग्न रहते हैं । घर-द्वार, धनमान, इन्द्रियसुख । मोनूमेण्ट  (Monument- ^शहीद मीनार, कोलकाता के एस्प्लेनेड में स्थित है। इसकी ऊँचाई 157 फीट है।)  के नीचे जब तक रहा जाता है, तब तक गाड़ी, घोड़ा, साहब, मेम-यही सब दीख पड़ते हैं । ऊपर चढ़ने पर सिर्फ आकाश, समुद्र लहराता हुआ दीख पड़ता है । तब घर-द्वार, घोड़ा-गाड़ी, आदमी-इन पर मन नहीं रमता, ये सब चींटी जैसे नजर आते हैं ।” 

[(মাস্টার ও প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — “অনেকে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা কয়, কিন্তু নিচের জিনিস লয়ে থাকে। ঘরবাড়ি, টাকা, মান, ইনিদ্রয়সুখ। মনুমেন্টের নিচে যতক্ষণ থাক ততক্ষণ গাড়ি, ঘোড়া, সাহেব, মেম — এইসব দেখা যায়। উপরে উঠলে কেবল আকাশ, সমুদ্র, ধু-ধু কচ্ছে! তখন বাড়ি, ঘোড়া, গাড়ি, মানুষ এ-সব আর ভাল লাগে না; এ-সব পিঁপড়ের মতো দেখায়!

(To M. and Prankrishna) "Many people talk of Brahmajnana, but their minds are always preoccupied with lower things: house, buildings, money, name, and sense pleasures. As long as you stand at the foot of the Monument, (A reference to the Ochterloney Monument in Calcutta.) so long do you see horses, carriages, Englishmen, and Englishwomen. But when you climb to its top, you behold the sky and the ocean stretching to infinity. Then you do not enjoy buildings, carriages, horses, or men. They look like ants.]

“ब्रह्मज्ञान होने पर संसार की आसक्ति चली जाती है, 'कामिनी -कांचन' के लिए उत्साह नहीं रहता –सब शान्त हो जाता है । काठ जब जलता है तब उसमें चटाचट आवाज होती है और कड़ुआ धुआँ भी निकलता है । जब सब जलकर खाक हो जाता है, तब फिर शब्द नहीं होता । कामवासना और लोभ (Lust and greed ) में आसक्ति के जाते ही तृष्णा (Thirst ) भी चली जाती है । अन्त में केवल शान्ति रह जाती है ।” 

[“ব্রহ্মজ্ঞান হলে সংসারাসক্তি, কামিনী-কাঞ্চনে উৎসাহ — সব চলে যায়। সব শান্তি হয়ে যায়। কাঠ পোড়বার সময় অনেক পড়পড় শব্দ আর আগুনের ঝাঁঝ। সব শেষ হয়ে গেলে, ছাই পড়ল — তখন আর শব্দ থাকে না। আসক্তি গেলেই উৎসাহ যায় — শেষে শান্তি।

"All such things as attachment to the world and enthusiasm for 'woman and gold' disappear after the attainment of the Knowledge of Brahman. Then comes the cessation of all passions. When the log burns, it makes a crackling noise and one sees the flame. But when the burning is over and only ash remains, then no more noise is heard. Thirst disappears with the destruction of attachment. Finally comes peace.

“ईश्वर की ओर कोई जितना ही बढ़ता है, उतनी ही शान्ति मिलती है । शान्तिः शान्तिः शान्तिः प्रशान्तिः। गंगा के निकट जितना ही जाया जाता है, उतना ही शीतलता का अनुभव होता जाता है । नहाने पर और भी शान्ति मिलती है ।”

[“ঈশ্বরের যত নিকটে এগিয়ে যাবে ততই শান্তি। শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ প্রশান্তিঃ। গঙ্গার যত নিকটে যাবে ততই শীতল বোধ হবে। স্নান করলে আরও শান্তি।

"The nearer you come to God, the more you feel peace. Peace, peace, peace — supreme peace! The nearer you come to the Ganges, the more you feel its coolness. You will feel completely soothed when you plunge into the river. ] 

“परन्तु जीव, जगत, चौबीस तत्त्व ^* , इनकी सत्ता उन्हीं की सत्ता से भासित हो रही है । उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता । एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है । एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।” 

[“তবে জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব,^* এ-সব, তিনি আছেন বলে সব আছে। তাঁকে বাদ দিলে কিছুই থাকে না। ১-এর পিঠে অনেক শূন্য দিলে সংখ্যা বেড়ে যায়। ১-কে পুঁছে ফেললে শূন্যের কোনও পদার্থ থাকে না।”

"But the universe and its created beings, and the twenty-four cosmic principles,^*  all exist because God exists. Nothing remains if God is eliminated. The number increases if you put many zeros after the figure one; but the zeros don't have any value if the one is not there."

[ चौबीस तत्त्व ^* सांख्य-दर्शन में माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24  ब्रह्माण्डीय तत्वों से मिलकर हुआ है।इसके अनुसार सृष्टि के पूर्व त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृति साम्यावस्था में थी।  गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होने से बुद्धि या महत् की उत्पत्ति होती है।  उससे तीन अंहकार (सत, रज, तम), तामस अहंकार से पांच तन्मात्राएं (the causal energies of creation) : {रूप (Form), रस (Taste), शब्द (Sound) , गन्ध (Smell) और स्पर्श (Touch)। } एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय [पांच ज्ञानेद्रियां ( the Five Sense Organs : आंख,नाक, कान , जीभ और त्वचा); पांच कर्मेन्द्रियां ( the Five Motor Organs :  गुदा,जननेन्द्रिय ,हाथ, पैर, वाणी) तथा उभयात्मक मन ] और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश , वायु, तेजस् , जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत ( the Five Elements)। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 24  तत्व मानता है। इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।] 

प्राणकृष्ण पर कृपा करने के लिए श्रीरामकृष्ण अपनी अवस्था के सम्बन्ध में कह रहे हैं ।

*ब्रह्मज्ञान के उपरान्त~  ‘भक्ति का मैं’* 

पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- ब्रह्मज्ञान के पश्चात् समाधि के पश्चात्, कोई कोई नीचे उतरकर ‘विद्या का मैं’, ‘भक्ति का मैं’ लेकर रहते हैं । हाट का क्रय-विक्रय समाप्त हो जाने पर भी कुछ लोग अपनी इच्छानुसार हाट में ही रह जाते हैं, जैसे नारद आदि । वे ‘भक्ति का मैं’ लेकर लोकशिक्षा के लिए संसार में रहते हैं । शंकारचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रखा था । 

[“ব্রহ্মজ্ঞানের পর — সমাধির পর — কেহ কেহ নেমে এসে ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকে। বাজার চুকে গেলে কেউ কেউ আপনার খুশি বাজারে থাকে। যেমন নারদাদি। তাঁরা লোকশিক্ষার জন্য ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকেন। শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।

{"There are some who come down ,  as it were, after attaining the Knowledge of Brahman — after samadhi — and retain the 'ego of Knowledge' or the 'ego of Devotion' , just as there are people who, of their own sweet will, stay in the market-place after the market breaks up. This was the case with sages like Narada. They kept the 'ego of Devotion' for the purpose of teaching men. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' for the same purpose.

“कामिनी -कांचन में आसक्ति का नाममात्र भी रहते वे नहीं मिल सकते । सूत के रेशे निकले हुए हों तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता ।” 

[“একটুও আসক্তি থাকলে তাঁকে পাওয়া যায় না। সূতার ভিতর একটু আঁশ থাকলে ছুঁচের ভিতর যাবে না।

"God cannot be realized if there is the slightest attachment to the things of the world. A thread cannot pass through the eye of a needle if the tiniest fibre sticks out.

“जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, उनके काम-क्रोध नाममात्र के हैं, जैसे जली रस्सी, - रस्सी का आकार तो है परन्तु फूकने से ही उड़ जाती हैं ।”

[ “যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর কাম-ক্রোধাদি নামমাত্র। যেমন পোড়া দড়ি। দড়ির আকার। কিন্তু ফুঁ দিলে উড়ে যায়।

"The anger and lust of a man who has realized God are only appearances. They are like a burnt string. It looks like a string, but a mere puff blows it away.}

*शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है वह ईश्वर की वाणी है।*

“मन से आसक्ति के चले जाने पर उनके दर्शन होते हैं । शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है , वह उन्हीं की वाणी है । शुद्ध मन जो है, शुद्ध बुद्धि भी वही है और शुद्ध आत्मा भी वही है; क्योंकि उन्हें छोड़ कोई दूसरा शुद्ध नहीं है ।” 

“परन्तु उन्हें पा लेने पर लोग धर्माधर्म को पार कर जाते हैं ।” 

{“মন আসক্তিশূন্য হলেই তাঁকে দর্শন হয়। শুদ্ধ মনে যা উঠবে সে তাঁরই বাণী। শুদ্ধ মনও যা শুদ্ধ বুদ্ধিও তা — শুদ্ধ আত্মাও তা। কেননা তিনি বই আর কেউ শুদ্ধ নাই।“তাঁকে কিন্তু লাভ করলে ধর্মাধর্মের পার হওয়া যায়।”

"God is realized as soon as the mind becomes free from attachment. Whatever appears in the Pure Mind is the voice of God. (अर्थात व्यष्टि-समष्टि अहं का शवदाह हो जाने के बाद )That which is Pure Mind is also Pure Buddhi; that, again, is Pure Atman, because there is nothing pure but God. But in order to realize God one must go beyond dharma and adharma."

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से भक्त रामप्रसाद का एक गीत गाने लगे-

आय मन  बेड़ाते जाबी। 

काली-कल्पतरु मूले रे (मन),  चारी फल कूड़ाये पाबी।।  


प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (तार),  निवृत्तीरे संगे लोबी। 

ओ रे विवेक नामेर तार बेटारे , तत्व कथा ताय सुधाबि।।

शुचि अशुचिरे लोये दिव्य घोरे कोरे शुबि। 

जोखन दुई सौतिने पिरित होबे, तोखन श्यामा मा के देखते पाबी।। 

अहंकार अविद्या तोर, पितामाताय ताड़िये दिबि। 

जोदि मोहगर्ते  टेने लोय, धैर्य-खोंटा धोरे रोबी।। 

धर्माधर्म दुटो अजा, तुच्छ खूंटाये बेन्धे खुबि। 

जोदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि।। 

प्रथम भार्यार संतानेरे दूर होते बुझाईबि। 

जोदि ना माने प्रबोध, ज्ञान-सिन्धु माझे डूबाईबि।।

प्रसाद बोले, एमोन होले कालेर काछे जोबाब दिबि। 

तबे बापु बाछा बापेर ठाकूर , मोनेर मतो मन होबि।।  

আয় মন, বেড়াতে যাবি ৷

কালী-কল্পতরুমূলে রে (মন) চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ৷৷

প্রবৃত্তি নিবৃত্তি জায়া, (তার) নিবৃত্তিরে সঙ্গে লবি ৷

ওরে বিবেক নামে তার বেটা, তত্ত্ব-কথা তায় সুধাবি ৷৷

শুচি অশুচিরে লয়ে দিব্য ঘরে কবে শুবি ৷

যখন দুই সতীনে পিরিত হবে, তখন শ্যামা মাকে পাবি ৷৷

অহংকার অবিদ্যা তোর, পিতামাতায় তাড়িয়ে দিবি ৷

যদি মোহগর্তে টেনে লয়, ধৈর্যখোঁটা ধরে রবি ৷৷

ধর্মাধর্ম দুটো অজা, তুচ্ছখোঁটায় বেঁধে থুবি ৷

যদি না মানে নিষেধ, তবে জ্ঞানখড়্গে বলি দিবি ৷৷

প্রথম ভার্যার সন্তানের দূর হতে বুঝাইবি ৷

যদি না মানে প্রবোধ, জ্ঞান-সিন্ধু মাঝে ডুবাইবি ৷৷

প্রসাদ বলে, এমন হলে কালের কাছে জবাব দিবি ৷

তবে বাপু বাছা বাপের ঠাকুর, মনের মতো মন হবি ৷৷

(भावार्थ )- “मन, चल, सैर करने चलें । कालीरूप कल्पवृक्ष के नीचे तुझे जीवन के चारों फल (.धर्म,अर्थ , काम और मोक्ष) मिल जायेंगे । हे मन, अपनी इन दो पत्नियों प्रवृत्ति और निवृत्ति,  में से तू निवृत्ति को साथ लेना; और उसी के निवृत्ति के पुत्र विवेक से तत्त्व की बातें पूछना ।” शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्य गृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा। अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं- दोनों को भगा दे । यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह । धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख । यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना । प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना । यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना । रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब से सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा ।” 

{O mind, Come, let us go for a walk,  to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life.  Of your two wives, Dispassion (निवृत्ति)  and Worldliness (प्रवृत्ति) , Bring along Dispassion only, on your way to the Tree, And ask her son Discrimination about the Truth. When will you learn-to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness (शुचि ) and Defilement (अशुचि)  on either side of you? Only when you have found the way, To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama. Ego and Ignorance, your parents, instantly banish from your sight; And should Delusion seek to drag you to its hole, Manfully cling to the pillar of Patience. Tie to the post of Unconcern the goats of Vice and Virtue, Killing them with the sword of Knowledge if they rebel. With the children of Worldliness, your first wife, plead from a goodly distance, And, if they will not listen, drown them in Wisdom's sea. Says Ramprasad: If you do as I say, You can submit a good account, O mind, to the King of Death, And I shall be well pleased with you and call you my darling.}

[( 27 अक्टूबर 1882) परिच्छेद ~ 13, श्री रामकृष्ण वचनामृत ]*... वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है ! ;  गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है । *जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।* 

“संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (framework of illusion-धोखे की टट्टी) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- "एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।  जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"  

‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे) 

["Why shouldn't one be able to realize God in this world? King Janaka had such realization. Ramprasad described the world as a mere 'framework of illusion'. But if one loves God's hallowed feet, then —This very world is a mansion of mirth; Here I can eat, here drink and make merry. Janaka's might was unsurpassed; What did he lack of the world or the Spirit? Holding to one as well as the other, He drank his milk from a brimming cup!

‘মনেতেই বদ্ধ, মনেতেই মুক্ত। আমি মুক্ত পুরুষ; সংসারেই থাকি বা অরণ্যেই থাকি, আমার বন্ধন কি? আমি ঈশ্বরের সন্তান; রাজাধিরাজের ছেলে; আমায় আবার বাঁধে কে? যদি সাপে কামড়ায়, ‘বিষ নাই’ জোর করে বললে বিষ ছেড়ে যায়! তেমনি ‘আমি বদ্ধ নই, আমি মুক্ত’ এই কথাটি রোখ করে বলতে বলতে তাই হয়ে যায়। মুক্তই হয়ে যায়। .... সংসারে ঈশ্বরলাভ হবে না কেন? জনকের হয়েছিল। এ-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ প্রসাদ বলেছিল। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করলে —এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি। জনক রাজা মহাতেজা, তার কীসের ছিল ক্রটি। সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।’

[(১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর)-ব্রাহ্মদিগকে উপদেশ -- খ্রীষ্টধর্ম, ব্রাহ্মসমাজ ও পাপবাদ ]

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सोमवार, 27 सितंबर 2021

[( 28 अक्टूबर 1882) परिच्छेद-14, श्री रामकृष्ण वचनामृत] *नाम महात्म्य और पाप*

  [( 28 अक्टूबर 1882) परिच्छेद-14, श्री रामकृष्ण वचनामृत] 

*तमोगुण का मोड़ घुमा देने ~ 'Spiritual Turn" देने ~ से ईश्वर लाभ होता है ! * 

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं, प्रेमरस से भरे मधुर कण्ठ से गा रहे हैं -

गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय। 
काली काली काली बोले आमार अजपा जोदि फूराय।। 


त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से की चाय। 
संध्या तार संध्याने फेरे, कोभू संधी नाहि पाय।। 

जप यज्ञ पूजा होम आदि आर किछु ना मने लोय। 
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय।। 

कालीनामेर एतो गुण, केबा जानते पारे ताय। 
देवादिदेव महादेव, जार पंचमुखे गुण गाय।। 

গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায় ৷
কালী কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷
ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায় ৷
সন্ধ্যা তার সন্ধানে ফেরে, কভু সন্ধি নাহি পায় ৷৷
দয়া ব্রত দান আদি, আর কিছু না মনে লয় ৷
মদনের যাগযজ্ঞ, ব্রহ্মময়ীর রাঙা পায় ৷৷
কালীনামের এত গুণ, কেবা জানতে পারে তায় ৷
দেবাদিদেব মহাদেব, যাঁর পঞ্চমুখে গুণ গায় ৷৷
भाव यह है:- “ ‘काली काली’ जपते हुए यदि मेरे शरीर का अन्त हो तो गया गंगा-काशी-कांची-प्रभास आदि की परवाह कौन करता है? हे काली, तुम्हारा भक्त पूजा-सन्ध्यादि नहीं चाहता, सन्ध्या खुद उसकी खोज में फिरती है, पर पता नहीं लगा सकती । दया-व्रत-दान आदि पर उसका मन नहीं जाता । मदन के याग-यज्ञ ब्रह्मयी के रक्तिम चरणों में होते हैं । काली के नाम के गुण, जिसे देवाधिदेव महादेव पाँचों मुख से गाते हैं, कौन जान सकता है?” 
{Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas,^(^पाँच तीर्थस्थल) So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips? What need of rituals has a man, what need of devotions any more, If he repeats the Mother's name at the three holy hours? (^ सुबह, दोपहर और शाम।Dawn, noon, and dusk. Rituals may pursue him close, but never can they overtake him. Charity, vows, and giving of gifts dc not appeal to Madan's mind; The Blissful Mother's Lotus Feet are his whole prayer and sacrifice. Who could ever have conceived the power Her name possesses? Siva Himself, the God of Gods, sings Her praise with His five mouths!
श्रीरामकृष्ण मानो अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर भावोन्मत्त  हो पुनः गाने लगे (The Master was beside himself with love for the Divine Mother. He sang with fiery enthusiasm:-

आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोले मा जदि मरी।  
आखेरे ऐ -दीने, ना तारो केमने, जाना जाबे गो शंकरी।। 


नाशि गो, ब्राह्मण, हत्या करी भृणु,  सुरापान आदि बिनाशी नारी।  
ए सब पातक न भाबी तिलेक, ब्रह्म पद निते पारि।।   
 
गीत का आशय यह है - “यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ जपता हुआ मरूँ तो अन्त में इस दीन को, हे शंकरी, देखूँगा तुम कैसे नहीं तारती हो ।” 

[ঠাকুর ভাবোন্মত্ত, যেন অগ্নিমন্ত্রে দীক্ষিত (तूँ भावमुख रह के) হইয়া গাহিতেছেন:

 আমি দুর্গা দুর্গা বলে মা যদি মরি।
আখেরে এ-দীনে, না তারো কেমনে, জানা যাবে গো শঙ্করী।
[  If only I can pass away repeating Durga's name, How canst Thou then, O Blessed One, Withhold from me deliverance, Wretched though I may be? . . .


श्रीरामकृष्ण- “क्या ! मैंने उनका नाम लिया है- मुझे पाप ! मैं उनकी सन्तान हूँ- उनके ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ !” इस प्रकार की जिद चाहिए । 
“तमोगुण को ईश्वर की ओर फेर देने से ईश्वर-लाभ होता है । उनसे हठ करो; वे कोई दूसरे तो नहीं, अपने ही तो हैं ।” 

[“কি! আমি তাঁর নাম করেছি — আমার আবার পাপ! আমি তাঁর ছেলে। তাঁর ঐশ্বর্যের অধিকারী! এমন রোখ হওয়া চাই! “তমোগুণকে মোড় ফিরিয়ে দিলে ঈশ্বরলাভ হয়।তাঁর কাছে জোর কর, তিনি তো পর নন, তিনি আপনার লোক। 
Then he said, "One must take the firm attitude: 'What? I have chanted the Mother's name. How can I be a sinner any more? I am Her child, heir to Her powers and glories.']
"If you can give a spiritual turn to your tamas, you can realize God with its help. Force your demands on God. He is by no means a stranger to you. He is indeed your very own.
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[(5 मार्च 1882) परिच्छेद ~ 3,श्री रामकृष्ण वचनामृत ]

  [(5 मार्च 1882) परिच्छेद ~ 3,श्री रामकृष्ण वचनामृत ]

* श्रीरामकृष्ण समाधि में * 

सभा भंग हुई । भक्त सब इधर-उधर घूमने लगे । मास्टर भी पंचवटी आदि स्थानों में घूम रहे थे । समय पाँच के लगभग होगा । कुछ देर बाद वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आए और देखा उसके उत्तर की ओर छोटे बरामदे में अद्भुत घटना हो रही है ।    

श्रीरामकृष्ण स्थिर भाव से खड़े हैं और नरेन्द्र गा रहे हैं।  दो-चार भक्त भी खड़े हैं । मास्टर आकर गाना सुनने लगे । गाना सुनते हुए वे मुग्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण के गाने को छोड़कर ऐसा मधुर गाना उन्होंने कभी कहीं नहीं सुना था । अकस्मात् श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर वे स्तब्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण की देह निःस्पन्द हो गयी थी और नेत्र निर्निमेष । 

 श्वासोच्छ्वास चल रहा था या नहीं-बताना कठिन है । पूछने पर एक भक्त ने कहा, यह ‘समाधि’ है । मास्टर ने ऐसा न कभी देखा था, न सुना था । वे विस्मित होकर सोचने लगे, भगवच्चिन्तन करते हुए मनुष्यों का बाह्यज्ञान क्या यहाँ तक चला जाता है? न जाने कितनी भक्ति और विश्वास हो तो मनुष्यों की यह अवस्था होती है !

         नरेन्द्र जो गीत गा रहे थे, --

चिन्तय मम मानस हरि चिद्घन निरंजन।

किबा अनूपम भाति, मोहन मूरति, भकत-हृदय-रंजन॥



नव रागे रंजित  कोटि शशी बिनिन्दित,

किबा बिजली चमके, अरूप आलोके, पूलके शिहरे जीवन॥

हृदि-कमलासने, भाब तांर चरण,

देखी शांत मने, प्रेम नयने, अपरूप प्रिय-दर्शन।

चिदानंद-रसे भक्तियोगाबेशे हो ओ रे चिर मगन॥ 


চিন্তয় মম মানস হরি চিদঘন নিরঞ্জন।

কিবা, অনুপমভাতি, মোহনমূরতি, ভকত-হৃদয়-রঞ্জন।

নবরাগে রঞ্জিত, কোটি শশী-বিনিন্দিত;

(কিবা) বিজলি চমকে, সেরূপ আলোকে, পুলকে শিহরে জীবন।

उसका भाव यह है-

“ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर । उसकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है, जो भक्तों का मन हर लेती है वह रूप नये नये वर्णों से मनोहर है, कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाला है, -उसकी छटा क्या है मानो बिजली चमकती है ! उसे देख आनन्द से जी भर जाता है ।”  

Narendra was singing: Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through. How peerless is the Light that in Him shines! How soul-bewitching is His wondrous form! How dear is He to all His devotees! Ever more beauteous in fresh-blossoming love That shames the splendour of a million moons, Like lightning gleams the glory of His form, Raising erect the hair for very joy.  

गीत के इस चरण को गाते समय श्रीरामकृष्ण चौंकने लगे । देह पुलकायमान हुई । आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे । बीच बीच में मानो कुछ देखकर मुस्कराते हैं । कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाली उस अनुपम रूप का वे अवश्य दर्शन करते होंगे । क्या यही ईश्वर-दर्शन है? कितनी साधना, कितनी तपस्या, कितनी भक्ति और विश्वास से ईश्वर का ऐसा दर्शन होता है?

[ গানের এই চরণটি গাহিবার সময় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শিহরিতে লাগিলেন। দেহ রোমাঞ্চিত! চক্ষু হইতে আনন্দাশ্রু বিগলিত হইতেছে। মাঝে মাঝে যেন কি দেখিয়া হাসিতেছেন। না জানি ‘কোটি শশী-বিনিন্দিত’ কী অনুপম রূপদর্শন করিতেছেন! এরই নাম কি ভগবানের চিন্ময়-রূপ-দর্শন? কত সাধন করিলে, কত তপস্যার ফলে, কতখানি ভক্তি-বিশ্বাসের বলে, এরূপ ঈশ্বর-দর্শন হয়? আবার গান চলিতেছে:

The Master shuddered when this last line was sung. His hair stood on end, and tears of joy streamed down his cheeks. Now and then his lips parted in a smile. Was he seeing the peerless beauty of God, "that shames the splendour of a million moons"? Was this the vision of God, the Essence of Spirit? How much austerity and discipline, how much faith and devotion, must be necessary for such a vision!] 

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गुरुवार, 16 सितंबर 2021

अनन्त चतुर्दशी व्रत सर्वधर्म ~ समन्वय का प्रतीक है ! [परिच्छेद~ (24, फरवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*सर्वधर्मसमन्वय ~“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम ।”*

प्रश्न : भगवान के किस मूर्ति (रूप -Form) पर मनःसंयोग का अभ्यास करना चाहिए ?  

श्रीरामकृष्ण : “यदि रागभक्ति-अनुराग के साथ भक्ति-हो तो वे स्थिर नहीं रह सकते ।” 

“भक्ति उनको उतनी ही प्रिय है जितनी बैल को चोकर मिला हुआ सानी ।”

“रागभक्ति-शुद्ध भक्ति-अहैतुकी भक्ति । जैसे प्रह्लाद की ।”

“तुम किसी बड़े आदमी से कुछ चाहते नहीं हो, परन्तु रोज आते हो, उन्हें देखना ही चाहते हो । पूछने पर कहते हो- ‘जी, कोई काम नहीं है, बस दर्शन के लिए आ गया ।’ इसे अहैतुकी भक्ति कहते हैं । तुम ईश्वर से कुछ चाहते नहीं, सिर्फ प्यार करते हो ।”

{“যদি রাগভক্তি হয় — অনুরাগের সহিত ভক্তি — তাহলে তিনি স্থির থাকতে পারেন না।“ভক্তি তাঁর কিরূপ প্রিয় — খোল দিয়ে জাব যেমন গরুর প্রিয় — গবগব করে খায়।“রাগভক্তি — শুদ্ধাভক্তি — অহেতুকী ভক্তি। যেমন প্রহ্লাদের।“তুমি বড়লোকের কাছে কিছু চাও না — কিন্তু রোজ আস — তাকে দেখতে ভালবাস। জিজ্ঞাসা করলে বল,  ‘আজ্ঞা, দরকার কিছু নাই — আপনাকে দেখতে এসেছি।’ এর নাম অহেতুকী ভক্তি। তুমি ঈশ্বরের কাছে কিছু চাও না — কেবল ভালবাস।”

"God cannot remain unmoved if you have raga-bhakti, that is, love of God with passionate attachment to Him. Do you know how fond God is of His devotees' love? It is like the cow's fondness for fodder mixed with oil-cake. The cow gobbles it down greedily."Raga-bhakti is pure love of God, a love that seeks God alone and not any worldly end. Prahlada had it. Suppose you go to a wealthy man every day, but you seek no favour of him; you simply love to see him. If he wants to show you favour, you say: 'No, sir. I don't need anything. I came just to see you.' Such is love of God for its own sake. You simply love God and don't want anything from Him in return."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे : 

" आमि मुक्ति दिते कातोर नेई, शुद्धा भक्ति दिते कातोर होई।


  

आमि मुक्ति दिते कातोर नेई, 

शुद्धा भक्ति दिते कातोर होई।  

आमार भक्ति जेबा पाय , तारे केबा पाय ,

 शे जे सेवा पाय , होये त्रिकालजयी।।  

शुन चन्द्रावली भक्तीर कथा कोई।

भक्तीर कारणे पाताल भवने,

बलिर द्वारे आमि द्वारपाल होये रोही ।।

शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी।

शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने,

गोप- गोपी वीने अन्ये नाही जाने।

भक्तीर कारणे नन्देर भवने,

पिता ज्ञाने नन्देर बाधा माथाय बोई।

" गीत का मर्म यह है:-‘मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, किन्तु शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ।’ 

“मूल बात है ईश्वर में रागानुराग भक्ति और विवेक-वैराग्य चाहिए ।”

{“মূলকথা ঈশ্বরে রাগানুগা ভক্তি। আর বিবেক বৈরাগ্য।”

He continued, "The gist of  the whole thing is that one must develop passionate yearning for God and practise (मनःसंयोग) discrimination and renunciation."

चौधरी- महाराज, गुरु (नेता ) के न होने से क्या ईश्वर-दर्शन नहीं होता?

{MR. CHOUDHURY: "Sir, is it not possible to have the vision of God without the help of a guru?"}

श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु है । 

“शवसाधना (हृदय श्मशान में अहं का शवदाह करते समय)  करते समय जब इष्टदर्शन का मौका आता है, तब गुरु सामने आकर कहते हैं, ‘यह देख अपना इष्ट ।’ फिर गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं । जो गुरु हैं वे ही इष्ट हैं । गुरु मार्ग पर लगा देते हैं ।

{সচ্চিদানন্দই গুরু।“শবসাধন করে ইষ্টদর্শনের সময় গুরু সামনে এসে পড়েন — আর বলেন, ‘ওই দেখ্‌ তোর ইষ্ট।’ — তারপর গুরু ইষ্টে লীন হয়ে যান। যিনি গুরু তিনিই ইষ্ট। গুরু খেই ধরে দেন।

MASTER: "Satchidananda Himself is the Guru. At the end of the sava-sadhana (अहंकाररूपी शव का दाहसंस्कार करते ही) , just when the vision of the Ishta is about to take place, the guru appears before the aspirant and says to him, 'Behold! There is your Ishta.' Saying this, the guru merges in the Ishta. He who is the guru is also the Ishta (माँ काली) . The guru is the thread that leads to God. 

“अनन्त-चतुर्दशी * का तो व्रत है, पर पूजा विष्णु की की जाती है । उसी में ईश्वर का अनन्त रूप विराजमान है ।”

“অনন্তব্রত করে। কিন্তু পূজা করে — বিষ্ণুকে। তাঁরই মধ্যে ঈশ্বরের অনন্তরূপ!”

[श्री कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे 'काल' हैं जिसे अनंत कहा जाता है।  भगवान् श्रीहरि विष्णु के चौदह नाम ~ 1. अनन्त 2. ऋषिकेश, 3. पद्मनाभ, 4. माधव, 5. वैकुंठ, 6. श्रीधर, 7. त्रिविक्रम, 8. मधुसुदन, 9. वामन, 10. केशव, 11. नारायण, 12. दामोदर, 13. गोविन्द, 14. श्रीहरि !  यदि हरि अनंत हैं तो 14 गांठ हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की प्रतीक हैं। भगवान् श्रीहरि विष्णु द्वारा निर्मित चौदह लोक -1. तल, 2. अतल, 3. वितल, 4. सुतल, 5. तलातल, 6. रसातल, 7. पाताल, 8. भू, 9. भुवः, 10. स्वः, 11. जन, 12. तप,13. सत्य, 14. मह।  इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह ---"श्रीहरि" स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे।  

     अनंत व्रत चंदन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है।  अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। इस व्रत के विषय में कहा जाता है कि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है।  भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।]

 Women perform a ritualistic worship known as the 'Ananta-vrata', the object of worship being the Infinite. But actually the Deity worshipped is Vishnu. In Him are the 'infinite' forms of God.] 

श्रीरामकृष्ण : (रामादी भक्तों से) यदि कहो किस मूर्ति का चिन्तन करेंगे, तो जो मूर्ति अच्छी लगे, उसी का ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं ।

[(রামাদি ভক্তদের প্রতি) — “যদি বল কোন্‌ মূর্তির চিন্তা করব; যে-মূর্তি ভাল লাগে তারই ধ্যান করবে। কিন্তু জানবে যে, সবই এক।

(To Ram and the other devotees) "If you asked me which form of God you should meditate upon, I should say: Fix your attention on that form which appeals to you most; but know for certain that all forms are the forms of one God alone.

श्रीरामकृष्ण : “किसी से द्वेष न करना चाहिए । शिव, काली, हरि- सब एक ही के भिन्न भिन्न रूप हैं । वह धन्य है जिसको उनके एक होने का ज्ञान हो गया है ।”

(“কারু উপর বিদ্বেষ করতে নাই। শিব, কালী, হরি — সবই একেরই ভিন্ন ভিন্ন রূপ। যে এক করেছে সেই ধন্য।

"Never harbour malice toward anyone. Siva, Kali, and Hari are but different forms of that One. He is blessed indeed who has known all as one.)

“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम ।”

{“বহিঃ শৈব, হৃদে কালী, মুখে হরিবোল।

Outwardly he appears as Siva's (S.V.) devotee, But in his heart he worships Kali (Ma Sarda), the Blissful Mother, And with his tongue he chants aloud Lord Hari's name (Sri Thakur).

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गुरुवार, 9 सितंबर 2021

केनोपनिषद् में साधना का विधान

        केनोपनिषद् में एक आख्यान सुनाया है जिसका प्रयोजन यह बताना है कि 'गोलोकधाम ' जैसे लूडो के खेल में भी ईश्वर सदा युद्ध होने पर देवताओं के लिये जीत संपन्‍न करते हैं। देवता इस अनुग्रह को बिना समझे जय-निमित्तक गर्व से ग्रस्त हो गये। “जीत हमारी हुई है” !  यों देवताओं की मान्यता समझकर ईश्वर उन्हें समझाने के लिये उनके सम्मुख  यक्ष के रूप में प्रकट हुए। सभा में उपस्थित देवों ने ईश्वर का अलौकिक शरीर देखकर, “यह क्या है? यह पता लगाने के लिये अग्नि को ईश्वर के पास भेजा ।देवासुर संग्राम में जो देव- विजय होती है वह ईश्वरकृत ही हुआ करती है। कभी-कभी असुर-विजय भी होती है, लेकिन  वह ईश्वरकृत तो है लेकिन उसमें भी देवहित निहित अवश्य रहता है। 

    जय हुई ईश्वरानुग्रह से पर देवों में गर्व हो गया कि “हमारी ही यह जय है, हमारी ही यह महिमा है? । लोक में भी देखते हैं : एक दुकान /होटल व्यवसाय आदि चल रही है, सेठ जी तीन समय आश्रम आकर ध्यान-भजन-सत्संग विचार करते हैं। भगवान्‌ से प्रार्थना की, उनकी कृपा से एक से दो, दो से चार दुकानें/ होटल बड़ा हो गया। सेठ जी को यह भूल जाता है कि ईश्वरानुग्रह से व्यापार चमका है, यह अभिमान हो जाता है कि "मेरे करने से होटल चल रहा है। ” यही हाल देवों का हुआ तो परमेश्वर ने सोचा कि देवों में यह आसुर भाव पनपना ठीक नहीं।  अतः जहाँ देवता सभा जमाये बैठे थे वहाँ पास में भगवान्‌ एक विचित्र यक्षरूप धारण कर प्रकट हो गये जिसे देवता देख तो सकें पर कौन है यह समझ न सकें। सीधे ही पहचान सकने वाला रूप लेकर आये होते तो देवता आदर-सत्कार कर देते लेकिन जो मुख्य उद्देश्य था वह पूरा न होता कि उनका भ्रम मिटे। अज्ञात शरीर देख कर उसके बारे में पता लगाने को सबसे पहले अग्निदेव को भेजा गया ।

पास आये अग्नि के कुछ पूछने से पहले को ईश्वर ने ही पूछ लिया  “आप कौन हैं?” उसने गर्वीला हो कहा “मैं अग्नि , नाम का जाततवेदा हूँ।” उसका गर्व भंग करने के लिये परमेश्वर ने पूछा 'तुममें क्या ताकत है?”  उसने गर्व से यह बात कही “सब कुछ जला डालता हूँ ।” अपनी दी हुई शक्ति को खींचकर “यह तिनका जलाओ' ऐसा ईश्वर बोले। वह (पूरा जोर लगाकर) भी उस तिनके को जला ही नहीं पाया!।।८३।। अग्नि गया तो था पता लगाने के लिए  पर यक्ष के सम्मुख अभिभूत हो गया, पूछने की हिम्मत नहीं जुटा-पाया, बोलती बन्द हो गयी। यक्ष ने ही उससे परिचय पूछा तो हिम्मत खुली, अपना नाम बताया और साथ में गर्वसूचक विशेषण दिया “जातवेदा” अर्थात्‌ जो कुछ संसार में उत्पन्न होता है उसे अग्नि जानता है!

जब  सब कुछ जला देने  की शक्ति को ताकत बतायी तब यक्ष ने पहले तो उसे दी हुई वह ताकत रोक ली; और  फिर सामने एक तिनका रखकर उसे जलाने को कहा! अग्नि ने जलाने की  ताकत को परमेश्वर की कृपा से प्राप्त हुई है , ऐसा न कहकर “अपनी” कहा था।  अतः यक्ष ने उसे प्रत्यक्ष करा दिया कि ताकत उसकी तो है लेकिन “अपनी” नहीं, परमेश्वर-प्रदत्त है। पुराने समय में भारतीयों का बोलने का ढंग ही था कि परमेश्वर की कृपा से कुछ हुआ, उपलब्ध हुआ आदि। घर-मकान आदि को भी कहते थे “भगवान्‌ के दिये हैं! भले ही सबको सर्वथा गर्वराहित्य नहीं हासिल होता था।  लेकिन कम-से-कम भगवान्‌ तो याद आते थे, संस्कार पड़ता था, बच्चों को शिक्षा मिलती थी। पाश्चात्य शिक्षा और आधुनिकता ने वह भाव तो मिटाया ही, बोलने में भी परिवर्तन कर दिया, भगवान्‌ के जिक्र से ही परहेज होने लगा है। यह अभिमानवर्धन ही  वर्तमान काल के दबाव तनाव आदि मनोविकारों से स्कूल फाइनल का रिजल्ट  निकलने के बाद अवसाद ग्रस्त होने या आत्महत्या करने  का मुख्य हेतु है। भगवान्‌ मिहनत का फल देने में भगवान ही जिम्मेवार है यह याद रखें तो अपने सिर का बोझ नहीं रहता, मैं ही सब करने-धरने वाला हूँ तो बोझ मुझ पर ही रहेगा! अग्नि भी इसी  'मेरा” के प्रभाव में था अतः उसका पराभव हुआ। परमेश्वर ने जब शक्ति रोक ली तब अग्नि सारी कोशिश करके भी उस एक छोटे से सूखे तिनके को भी जलाने में असमर्थ रहा! अत्यंत लज्जित हो, बिना कुछ कहे तुरंत लौट आया और देवताओं से इतना ही कहा "मैं पता नहीं लगा पाया!। 

आगे की कथा में  बताते हैं अग्नि की तरह वायु भी यक्ष के समाने गर्व-भंग होने पर लौट आया। अग्नि निष्फल हुआ तो देवताओं ने वायुको भेजा। वह भी पूछ न पाया। यक्ष ने ही पूछा 'कौन हो, क्या करते हो? वायु बोला वायु, मातरिश्वा हूँ, सब कुछ उड़ा देता हूँ। यक्ष ने वैसे ही उसकी सामर्थ्य रोककर तिनका उड़ाने को कहा जिसे वह उड़ा न पाया तो मुँह लटकाकर लौट आया।

          इन प्रधान देवताओं की असामर्थ्य को देखकर इन्द्र का गर्व जाता रहा। वह स्वयं पता लगाने चला। यक्ष ने समझ लिया कि गर्व तो इसका मिट ही चुका अब केवल इसकी श्रद्धा परीक्षणीय है। दैवी गुणों में निरभिमान (अहंशून्यता-निःस्वार्थपरता )  और श्रद्धा प्रधान हैं। परीक्षा के लिये यक्ष अन्तर्धान हो गया। इन्द्र यह देखकर अधिक श्रद्धालु हुआ। यदि इन्द्र भी अहंकारी और अश्रद्धालु होता तो सोचता 'कुछ नहीं था"  या ऐसा ही कोई तुच्छ बल वाला था जो मेरा तेज नहीं सह पाया” आदि। लेकिन  इंद्र में श्रद्धा जाग्रत हुई। उसे मालूम था कि अग्नि-वायु भी ऐरे-गैरे नहीं हैं, प्रधान देवता हैं। भले ही इंद्र राजा होने से विशेष है पर वे भी अतिसमर्थ हैं। अतः यक्ष की उपेक्षा न कर उसके महत्त्व के प्रति सद्भाववाला हुआ। जो मुझे समझ में न आये वह हो ही नहीं सकता'यह अश्रद्धालुओं का निश्चय होता है। शास्त्रों के वर्णन, देवकृपा, तपःसामर्थ्य आदि सब को इसी दृष्टि से देखने का बढ़ता रिवाज अश्रद्धा का ही परिचायक है। 'मेरी समझ से परे भी बहुत कुछ है” यह श्रद्धालु की सोच है।  जिससे प्रेरित हो वह अधिक-अधिक जानने का प्रयास करता है। सत्य को जानने या समझने का प्रयास ही श्रद्धा को दिखाता है। अश्रद्धालु ऐसा प्रयास ही नहीं कर सकता क्योंकि अपने समझे हुए खाके में बैठाने में ही उलझा रहता है। इन्द्र निर्गव और श्रद्धालु था अतः वहीं रुका रहा। उसे निश्चय था कि भगवान्‌ की कृपा से ही पता लगेगा अतः वह माँ जगदम्बा का कृपा प्रार्थी बना ।ऊपर अर्थात्‌ मन-वाणी से परे तत्त्व का विलोकन अर्थात्‌ चिन्तन करते हुए स्थिर रहा। श्रद्धा देख भगवान्‌ ने उमा-रूप में दर्शन दिया। जिसने यक्ष-रूप में जिज्ञासा जगायी, उसी ने उमारूप से ज्ञान दिया। परमेश्वर ही विविदिषा-उत्पादन (ज्ञानप्राप्त की इच्छा , इन्द्रियातीत सत्य को जानने की कामना ।)   पूर्वक विद्या देते हैं। किन्तु इसकी योग्यता गर्वहीन श्रद्धा है। जैसे अंधे को सूर्य भी नहीं दीखता वैसे श्रद्धारूप चक्षु से वंचित को परमार्थ उपलब्ध नहीं होता। अश्रद्धा रहते साकार परमेश्वर भी 'दीखता” नहीं, कंस शिशुपाल आदि को कृष्ण परमेश्वर नहीं दीखे।  (इन्द्र ने प्रयास किया।) इन्द्र को गर्वरहित देख कर उसकी परीक्षा लेने के लिये यक्ष रूपी ब्रह्म  तिरोहित हो गये ।ईश्वर-कृपा को चाहने वाला इन्द्र , वापस नहीं लौटा , ऊपर देखता हुआ खड़ा रहा। उस इन्द्र पर अनुग्रह करने के लिये भगवान ने उमा-रूप धारण कर लिया। इन्द्र ने पूछा 'हे देवी! देवों ने इससे पहले जो देखा वह क्‍या है? उमा बोली “वह ब्रह्म है, उसके अनुग्रह से ही देवासुर संग्राम में जीत हुई थी” ।हैमवती को देख इन्द्र ने उसी यक्ष के बारे में पूछा जिसका स्वरूप उमा ने ब्रह्म बताया, उसका प्रभाव देवताओं की जीत बतायी। शास्त्रसंस्कारी इन्द्र “ब्रह्म! शब्द सुनते ही ठीक समझ गया कि कौन यक्ष था। विजय उसका प्रभाव था सुनकर इंद्र को बोध हो गया कि किस प्रयोजन से यक्ष ने दर्शन दिया था। विचारशील इंद्र योग्य था अतः उमा के उपदेशमात्र से उसे साक्षात्कार हो गया। श्रवण की ज्ञान- साधनता इससे स्पष्ट हो जाती है। अग्नि-वायु की यक्ष से और इन्द्र की उमा से जो थोड़ी-सी बातचीत हुई इसीसे ये देवताओं से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गये, वेदों में इनके मंत्र ज्यादा हैं। जैसे जो राजा से कुछ बातचीत कर आये, गाँव में उसका ओहदा बढ़ जाता है वैसे परब्रह्म परमात्मा से वार्तालाप किया तो इन देवताओं का सम्मान बढ़ गया।परमेश्वर से थोड़ी-सी बातचीत करने के कारण अग्नि, वायु और इन्द्र उत्कृष्ट हैं। इनमें भी इन्द्र पुण्यात्मा है क्योंकि उस पर अनुग्रह भी ज्यादा हुआ ।

केन उपनिषद ने कहानी सुनाकर ईश्वर की उपासना का विधान इस प्रकार किया है :  -" तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा इतीन्न्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम्‌ ॥" --यह 'उसी' का निर्देश है,... जैसे विद्युत् का चमकना हो अथवा जैसे पलक का झपक जाना हो, वैसा ही अधिदैव-भाव है।अथाध्यात्मं यद्देतद् गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्श्णं सङ्कल्पः ॥अब अध्यात्म-भाव यथा इस मन की गति 'उस' (परतत्त्व) को प्राप्त करती प्रतीत होती है एवं तत्पश्चात् उससे चिन्तनगत संकल्प निरन्तर 'उसका’ स्मरण करता है। तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनम् सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति॥‘उस' (परतत्त्व) का नाम है ''वह आनन्द'', 'उस आनन्द' के रूप में ही 'उसकी' उपासना करनी चाहिये। जो 'उसे' इस रूप में जानता है सभी प्राणी उसे विशेष रूप से चाहते हैं। (केन ४.४-६)

          अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।

             अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। 

(गीता 8.4) 

हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ  (पंचमहाभूत) को अधिभूत कहते हैं, पुरुष (अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी) अधिदैव हैं,  और इस शरीर में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।

यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह -मन उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है। ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है। 

              कोई भी कर्म केवल ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर उपासना है।मनुष्य को चाहिये कि वह ईश्वर की कृपा सिद्ध (प्राप्त) करने के लिये ब्रह्म की उपासना करें । अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत (भौतिक) तीनों धरातलों पर उसकी उपासना की जाये। कोई विशेष प्रकार का कर्म-काण्ड आदि ही ईश्वरोपासना नहीं है , बल्कि सभी बाह्य एवं भीतरी कर्म ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर, वैसे कर्म (ब्लॉग लिखना भी ?)  उपासना है। अपने पिता की सेवा भी उस शरीर में स्थित ईश्वरप्रीत्यर्थ सेवा करने पर, वह सेवा भी ईश्वरोपासना हो जाती है। ईश्वर-प्रसन्‍नता के अलावा कोई कामना मन में न रखकर करने पर ही उपासना होगी। अतः मोक्षेच्छुक ही इस उपासना में समर्थ होता है। संसार में कुछ भी चाहने वाला  (कामिनी-कांचन में घोर रूप से आसक्त व्यक्ति) ईश्वरोपासना में अक्षम है।

          आधिदैविक उपदेश :  जैसे बिजली चमक कर प्रकट- और फिर अप्रकट हो जाती है ;  वैसे ब्रह्म में भी  प्रकट होना एवं छिप जाना दोनों हुआ करते हैं। जैसे बिजली का स्वभाव ही अचानक चमकना फिर बुझना है वैसे ब्रह्म कभी किसी अनुभव रूप से प्रकट होता है फिर छिप जाता है। देवताओं को परमेश्वर ने यक्षरूप में अचानक ही दर्शन दिया, अचानक ही लुप्त हो गये। इससे इन्द्र ने यह तो पता लगाया कि यक्ष कौन था, लेकिन क्यों दर्शन मिला ? और फिर वंचित क्यों रह गये  ? इसकी चिंता इन्द्रादि ने नहीं की । यह परमेश्वर की स्वतंत्रता ही है इसे स्वीकारने में ही बुद्धिमानी है। क्योंकि देवताओं को यों अनुभव हुआ यह बताया और क्योंकि बिजली चमकाना देवकार्य ही है !  इसलिये दिव्य उपमा से दिया यह आधिदैविक उपदेश है ।

        आध्यात्मिक उपदेश  में 'मन' को दृष्टान्त बनाया जाता है , उसकी उपमा से यह समझाते हैं कि याद और संकल्प समेत मन अध्यात्म में उपाधि है। शरीर के भीतर रहने से 'मन' को अध्यात्म कहा गया है। जैसे हमें अचानक अनेक स्मृतियाँ आती हैं, वे क्यों आयीं ?  कुछ पता नहीं, कोशिश करते हैं तो आती नहीं हैं।  विविध संकल्प भी क्यों होते रहते हैं ?  कुछ पता नहीं चलता, ऐसे ही परमेश्वर का कर्मादिस्मरण और सृष्टिसंकल्प क्यों होता है ? इसका एक ही सही उत्तर  हमें भी पता नहीं है । अतः अपनी समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा की मूर्ति समझना चाहिये। सभी वृत्तियाँ व्यक्त तो परमात्मा को ही करती हैं।  अतः  कुछ भी याद आये तो समझो भगवान्‌ ने अपनी स्मृति- प्रदान करने के सामर्थ्य को ही व्यक्त किया है । ऐसे ही संकल्पादि में है। यहाँ भी वृत्तियों में उलझे बिना केवल उनसे परमात्मा का बोध कायम रखना यहाँ उपासना है।  इसी तरह भजा गया ब्रह्म आचार्य की उपलब्धि कराता है। 

         सावधान होकर एकमात्र परमेश्वर (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण)  की ही उपासना करनी चाहिये, उससे अलग अन्य किसी को उपासना-योग्य न समझे। यों उपासित परमेश्वर साधक को योग्य आचार्य /( गुरुदेव / CINC नवनीदा ) की उपलब्धि करा देता है। और  ऐसे उपासक में ही आचार्य होने की योग्यता प्रकट होती है। काली के उपासक या " ईश्वरभक्त ब्रह्मवेत्ता"  के पास ही भक्त आकर - " परमात्मा की विद्या सुनाइये” ऐसी प्रार्थना करते हैं। ईश्वरभक्त ब्रह्मज्ञ (माँ काली के भक्त ब्रह्मज्ञ -ब्रह्मविद ) को चाहते सभी हैं पर भक्त यों चाहते हैं कि वह उपदेश दे। संसारी लोग उससे ब्रह्मोपदेश नहीं चाहते लेकिन उसकी ओर आकृष्ट  तो होते ही हैं।

       नचिकेता  जैसा जिज्ञासु ही उपदेश-योग्य होता है। सही-गलत किसी भी कोटि में जो निश्चित है उसे उपदेश नहीं दिया जा सकता।  वरन्‌ जिसे सन्देह है, अपनी जानकारी पर भरोसा नहीं है, वही समझने को तैयार हो सकता है। नचिकेता, मैत्रेयी, जनक, अर्जुन आदि जब यों प्रष्टा बने तभी उन्हें उपदेश मिला।किसी अज्ञात देवदत्त को यदि गदहा कहा जाये तो यह मनन का विषय नहीं बनता ;  किंतु हमें ही यदि कोई गदहा कहे तो विचार करना पड़ता है- कि क्‍यों कहा, किस ग़लती से कहा इत्यादि। सृष्टि-आदि का कारण जब 'मुझे” बताया जाता है तभी मनन जरूरी है। जब तक तो “कोई! परमेश्वर है तब तक केवल सुनना है, किन्तु में परमेश्वर हूँ", तब सोचना पड़ता है कि प्रमाणरूप वेद कह क्या रहा है। माण्डूक्य उपनिषद् और उस पर लिखी हुई कारिका में इसी तथ्य को  समझाया गया है। केवल 'श्रवण ' या सुनने से नहीं, मनन किया जाने पर त्राण करता हो , वैसा रक्षा करने वाला 'मन्त्र ' कहलाता है।  संसार के विषयों में (कामिनी-कांचन में) आसक्ति ही बुद्धि (चित्त ) की अशुद्धि है। कामिनी-कांचन में आसक्त व्यक्ति स्वयं का वास्तविक स्वरूप नहीं जान सकता। कारण अपने कार्य से सूक्ष्म होता है, उसी सूक्ष्मता की परकाष्ठा होने से परमेश्वर को परमकारण कह दिया जाता है। वही तत्त्व बुद्धिसाक्षी हुआ साक्षिरूप से सभी को देख रहा है, सबको प्रकाशित कर रहा है। हमें दो 'मैं '  का अनुभव होता है, एक बदलने वाला और दूसरा न बदलने वाला एकरस, स्थायी । इस स्थायी 'मैं ' को साक्षी और बदलते रहने वाले को प्रमाता कहते हैं। एक मैं बच्चा 'था', (अब नहीं हूँ) और दूसरा मैं जो अब भी हूँ'। देह-इन्द्रिय आदि से तादात्म्यापन्न मैं परिवर्तित होने वाला हूँ, संसारी हूँ, यहाँ भी देश-अवस्था आदि में सरकता रहता हूँ।  और लोकलोकान्तर में भी जाता-आता रहता हूँ। किन्तु जो इन सब परिवर्तनों को, संसरणों को जानता है, जिसके द्वारा जाने गये होने से ही ये परिवर्तन एक के हैं।  यह सिद्ध होता है, वह अपरिवर्तनशील साक्षी ही वास्तव में आत्मा है, ब्रह्म है। “मैं वह हूँ, वह मैं हूँ” सः मायने वह (परमेश्वर), अहम्‌ मायने मैं (साक्षी)। लगातार सोहं-सोहं-सोहम्‌ कहने पर अहं सः भी सम्बन्ध सुनाई देता है। नाम-रूप (Bh )का महत्त्व विपरीत शरीर के प्रति राग रहने से ही भासते हैं, इसीलिए  उसके संहार में संकोच होता है।   अतः वैराग्य के बिना निर्विशेष की ध्यान-साधना भी संभव नहीं। ब्रह्म में जगत्‌ भी तभी मिले जब पहले जगत्‌ कुछ हो; क्योंकि वह " है” नहीं, है एकमात्र ब्रह्म, इसलिये जगत्‌ का संहार हो जाता है।'स्थूल-सूक्ष्म-कारण तीनों शरीर मुझमें माया से आरोपित हैं? विवेकी (विवेक-प्रयोग में समर्थ व्यक्ति की)  की तो प्रतीति ही होती है कि प्रमाता-रूप मैं ही विकारी है, साक्षिरूप मैं निर्विकार ही हूँ।  मान लें मच्छरों ने काटना शुरू कर दिया, उन्हें उड़ाने की तीव्र इच्छा में मन उलझा है; तब चिंतन करते हुए उड़ाये कि काटने वाला मच्छर अधिदैव है, जिसे काट रहा है वह शरीर अध्यात्म है।  अतः उड़ाने वाला हाथ भी अध्यात्म है, इन्हीं का परस्पर व्यवहार है, मैं इससे अछूता हूँ। इन्द्रियों से व्यवहार जाग्रत्‌ में जाग्रत्‌ है। मन से चिन्तन करना जाग्रतू में स्वप्न है। इन्द्रिय-मन की निश्चेष्ट स्थिति जाग्रतू में सुषुप्ति है। तृप्तता जाग्रत्‌ में तुरीय है । स्वप्न के अंतर्गत भी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति-तुरीय ये चार स्वप्न के भेद हैं।सपना ठीक याद आये तो समझना चाहिये कि दीखते समय वह सपने में जाग्रत्‌ स्थिति थी। साफ न याद आये तो वह सपने में सपने की अवस्था थी। बिलकुल याद न रहे फिर भी शरीर के भारीपन से या अन्य उपाय से पता चले कि सपने आते रहे, तो वह सपने में सुषुप्ति थी।(इन्द्रियों सहित) बुद्धि लीन हो जाने पर आत्मा सुषुप्ति में स्थित रहता है। तब द्वैत का लोप (अदर्शन) हो जाने से आत्मा अकेला होता है।सुषुप्ति में कोई दुःख नहीं हो सकता । आत्मा सुखरूप है, दुःख उत्पन्न होने पर आत्मसुख छिप-सा जाता है और हमें अनुभव में उल्लेख दुःख का ही होता है; जब द्वैत न रहने से दुःख है नहीं ; तब स्वतः स्फूर्त आत्मसुख बना ही रहता है। इसी से सुषुप्त को आनन्दमय कहा। क्योंकि दुःखबीज अज्ञान बचा है इसलिये आनंदरूप नहीं कह सकते।चेतना के चतुर्भेद सुषुप्ति में आत्मा प्राज्ञ और ईश्वर कहलाता है। आत्मा (ह्रदय -Heart) ही ज्ञान-कर्मेन्द्रियों का (Hand) , प्राण मन (Head) आदि का प्रेरक है, इनका विषय नहीं।  सुनार गहने बेचते समय चाहे आकार (डिजाइन) की ही प्रशंसा करता रहे, लेकिन खरीदते समय सोने का ही मूल्य देता है। अतः सार ही मूल्यवान्‌ है। ज्ञान ही मूल्यवान्‌ रूप है। आँख-कान आदि से होने वाले तो ज्ञानाभास हैं, आत्मरूप ज्ञान तो अपरोक्ष, निरपेक्ष अनुभूति है। स्थूल जाग्रत्‌ में और सूक्ष्म स्वप्न में भिन्‍न प्रतीत होकर दुःखदायी है ही, सुषुप्ति में भेदप्रतीति न सही पर सारे भेदों के बीज रहने से सभी दुःखों के बीज भी वहाँ हैं।  अतः उसे भी वास्तव में दुःखरहित अवस्था नहीं कह सकते भेददृष्टि आत्मस्वरूप के अज्ञान से है। तत्त्वसाक्षात्कार से अज्ञान दूर हो चुकने से भेददृष्टि समाप्त हो जाती है अतः कोई दुःख संभव नहीं रहता, यही मोक्ष में बंधन से विशेष है। बंधन अज्ञान के रहते है, अज्ञान की निवृत्ति से मोक्ष है। अज्ञान से ही हमलोग स्वयं को साक्षी न जानकर प्रमाता (ज्ञाता-ध्याता) समझते हैं,आँख-कान के सहारे ज्ञान वाला समझते हैं, देखने-सुनने चलने-पकड़ने वाला, सोचने-समझने वाला स्वयं को मानते हैं और तभी प्रपंच क्लेश देता रहता है दुःख की पहुँच है ही मन तक, मुझ तक नहीं है, फिर भी इस तथ्य को न जानकर हम मन से एकमेक हुए दुःखी हैं। ऐसा दुःख तभी मिटे जब हम समझ लें कि हम मन नहीं उसके साक्षी हैं।

ध्याता स्वयं को ईश्वर न समझे वरन्‌ तुरीय समझे,तुरीय सत्य है, विश्वादि उस पर अध्यस्त हैं। तुरीय ही कल्याणस्वरूप, आनंदस्वरूप होने से शिव है। स्वरूप से निर्विकार होने पर भी भ्रम से आरोपित विकारों के भी बाधित हो जाने पर वह शांत, दुःखरहित है। द्वैत उसमें कदापि नहीं अतः वही सत्य वस्तु अद्वैत है। समझने के लिये उसे आत्मा का चौथा चरण कहते हैं। वास्तव में वही आत्मा है लेकिन भ्रमसिद्ध तीन चरणों से स्वतन्त्र बताने के लिये उसे चौथा चरण कह देते हैं।

चित्त का भटकना ही संसार का स्वरूप है जिसकी स्थायी शांति के लिये योग और विवेक दो साधन बताये गए हैं । योग में चित्त -प्रवाह का निरोध चाहिये,ज्ञान निश्वय में प्रमाण पर अटूट श्रद्धा चाहिये। मनः संयोग का अभ्यास, सांसारिक फलों के लिये नहीं, संसारनिवृत्ति के लिये है अतः विरक्त मुमुक्षु ही इसका (विवेक-दर्शन का)  अभ्यास करे। चित्त का भ्रमण ही जन्म-मरण का चक्ररूप संसार है । 'भ्रमण” से ध्वनित है कि चित्त-निमित्तक भ्रम ही संसार है। उपाधितादात्म्य को ही जन्म और स्थूल से तादात्म्य छूटने को मरण कहते हैं। तादात्म्य स्पष्ट ही भ्रम है अतः संसार को भ्रम कहना बनता है। जीवन के दौरान भी सुख-दुःख का भोग रूप संसार तादात्म्य से ही है क्योंकि आत्मा वस्तुतः तो साक्षी ही रहता है। इस भ्रमण से वैराग्य हो तभी अध्यात्म साधना प्रारंभ होगी।

ज्ञाता ज्ञेय से पृथक्‌ होता ही है, हमें चक्षु आदि ज्ञेयरूप से प्रतीत होते हैं अतः निश्चय है कि हम उनसे पृथक्‌ हैं। चक्षु आदि में मन भी आ जाता है। मन से प्रथक्‌ स्वयं को समझते ही साक्षिरूप में स्थिति हो जाती है। साक्षी नित्यदृष्टि होने पर भी उसे अनित्य ज्ञान इसीलिये हो पाते हैं कि उसपर अहंकार आरोपित है। अहंकाररूप उपाधि से ही साक्षी प्रमाता बनता है।

सुषुप्ति में अहंकार न रहते कोई अनित्य ज्ञान भी नहीं होता, ज्ञानमात्र कायम रहता ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जो लगातार रहता है वह ज्ञान आत्मा है, उसमें जो ज्ञानकर्त॒त्व, ज्ञातृत्व, अनित्य ज्ञानवत्त्व प्रतीत होता है वह अहंकार उपाधि से होने वाला भ्रम है।

जगत  में बहुधा साधारण से अनुभवों पर चिंतन करने से गंभीर तथ्य प्रकट होते हैं।  सेब गिरना देखने से गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार हुआ , कचरे को चमकता देखने से रेडियम का पता चला, फूल का रंग बदलना देखने से रमण-प्रभाव का निर्णय हुआ।  ऐसे ही हमारे सभी अनुभव इस योग्य हैं कि इन पर चिंतन करें तो परमात्मा का आविष्कार हो सकता है। 

नरसिंह देव का एक नाम है 'भक्त वत्सल' - अर्थात भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए सदा आतुर । नृसिंह-शब्द भी नृ-से जीव और सिंह-से ईश्वर को कहकर दोनों का अभेद व्यक्त करता है।

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।

नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥

भावार्थ:ॐ हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, आपकी ज्वाला एवं ताप चारों दिशाओं में फैली हुई है।हे नरसिंहदेव प्रभु, आपका चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ।

इस अनुष्टुप् का प्रथम पद ‘उग्रम्' मंत्र का प्रथम स्थान है, यह जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। मंत्र में ‘वीरम्' का द्वितीय स्थान है।'महाविष्णुम्' पद का तृतीय स्थान है। ‘ज्वलंतम्' का चतुर्थ स्थान है। ‘सर्वतोमुखम्' का पंचम स्थान है। ‘नृसिंहम्' का षष्ठ स्थान है। ‘भीषणम्' का सप्तम स्थान है। ‘ भद्रम्' का अष्टम स्थान है। ‘मृत्युमृत्युम्' का नवम स्थान है।‘नमामि' का दशम स्थान है।‘अहम्' को एकादश स्थान है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है ॥   उग्रादिपदोक्त ब्रह्म का 'अहं ' से अभेद है यह उस मन्त्र का भाव है। मंत्र से समझने में कठिनाई लगे तो प्रसिद्ध 'अहं ब्रह्मास्म' आदि महावाक्य से अनुस्मरण करे। 

उक्त साधन के पश्चात्‌ अविद्या को निवृत्त करके प्रकट होने वाला वही है जो हमेशा स्वयं नृसिंह ही था! अर्थात्‌ ब्रह्म ही बंधानुभव कर रहा था, साधना कर रहा था, अब मुक्त है भले ही ब्रह्म होने से सदा मुक्त रहता है। कारणभूत अविद्या, जो वास्तव में है ही नहीं, उसे चित्‌ से खाया हुआ बनाकर वीर को चाहिये कि तत्त्वस्मरण करते हुए निर्भय हो जाये ।मायाको आत्माके वश में लाकर प्रतीतिमात्रसिद्ध उस माया को निष्प्रभाव बनाकर उसे साक्षी में डुबाकर, ब्रह्मानुभवरूप सिंह से उसे खाकर रहने वाला यह वीर किसी से हार नहीं सकता। 

                  नमामि” शब्द से ब्रह्म से अभिन्‍नता का अनुचिंतन करे। ऐसा योगी कामनारहित होगा, वह कामना करे ऐसा कोई विषय संभव नहीं ।लौकिक कामनाओं से (कामिनी-कांचन में आसक्ति से ) निवृत्त हो चुकने पर साधक जब निष्काम हो जाता है,  अब वह केवल आत्मा को ही चाहता रहा। फिर उसे  वह आत्मा भी बोध से प्राप्त हो गया, अब और क्या चाह सकता है। तब  उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता वरन्‌ वे परमात्मा में लीन हो जाते हैं।“नमामि " नमस्कार या नमन का अर्थ हैअहंकार समाप्त करना । अहं छोड़ते ही ब्रह्म से अभेद का पता चल जाता है। 

              आत्मज्ञान की इच्छा उत्पन्न होने में , विषयासक्ति (कामिनी -कांचन में आसक्ति ) ही सबसे बड़ी रुकावट है । अतः इसे दूर करने को प्राथमिकता देना साधक का कार्य है। कामिनी -कांचन  के प्रति अतिशय आसक्ति , शास्त्रनिषिद्ध कर्म करने को प्रेरित करती है , यह आसुरी  प्रवृत्ति होने से पाप है, वह विद्या की इच्छा को ही प्रतिबद्ध (रोक) कर लेती है अतः पहले इसे ही हटाया जाये।आसक्ति, आकर्षण होता है नाम-रूप-कर्म के प्रति तथा वे ही मिथ्या हैं! सत्य की ओर हमारा आकर्षण ही नहीं होता।  इन्द्रिय-मन में तादात्म्य कर हम इनके गुलाम बने हैं, इनसे अपना भेद पहचानकर इस गुलामी से मुक्ति पुरुषार्थ है।

       रज और तम की वृत्तियाँ छोड़कर सात्त्विक वृत्ति का सहारा लेने वाली बुद्धि जब चिदानन्दरूप आत्मा के ध्यान में,  संलग्न रहती है तब तदाकार ही हो जाती है। सगुण ईश्वर की उपासना से तमोगुण पर और निर्गुण की उपासना से रजोगुण पर विजय होती है। मंत्र वही रहता है, उसके अर्थों में ही भेद है। सर्वत्र वेदादि के मंत्रों में यह रहस्य है कि आपाततः सगुण (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) का वर्णन करते हुए भी वे लक्षणा-व्यंजना-ध्वनि आदि वृत्तियों से निर्गुण का कथन करते हैं। साधक एकाएक निर्गुणोपासना कर नहीं सकता अतः सगुणोपासना से ही प्रारम्भ करे।   

       ब्रह्म के सत्‌-चित्-आनन्द सब वस्तुओं में दीखते हैं, अतः ब्रह्म सब का आत्मा है।सुषुप्ति में जीव-चैतन्य अद्वैत ब्रह्मरूप हो जाता है और सारा जगत्‌ अविद्या रह जाता है यह सभी का अनुभव है । सृष्टि से पहले भी ऐसे ही अद्वैत-स्थिति थी । वट के बीज जैसी उस माया ने अनेक रूप धारण कर जीव और ईश्वर का निर्माण किया।  कार्य की उपाधि वाला यह जीव है तथा कारणरूप उपाधि वाला ईश्वर है। वटबीज में अतिविस्तृत वट वृक्ष की तरह ईश्वर में संसार था जो उसी में से प्रकट हो गया ; तब जिन उपाधियों का विकास हुआ ,  उनके संबंध से परमेश्वर ही ईश्वर एवं जीव कहलाने व समझा जाने लग गया। 

      जैसे एक ही वटबीज-सामान्य अपने से अभिन्न अनेक सबीज वट उत्पन्न कर उनमें स्वयं पूर्णतः रहता है। वैसे ही अविद्या शक्ति , मायामय अनेक जीवादि का आभास कराती है;  क्‍योंकि वह अघटन -घटना पटियसी है, दुर्घट-घटना करने में समर्थ है। उस कार्य-कारण विभाग को प्राप्त अविद्या में आभास द्वारा अहंकार बाँधे रखने वाला जीव हो जाता है और आभास का साक्षी रहने वाला ईश्वर हो जाता है। साक्षी होने से ही वह किसी परिच्छिन्न में सीमित नहीं रहता।  इनमें भेद उपाधिकृत ही है अतः वास्तव में ये अभिन्‍न ही हैं। कारण- उपाधि में सर्वसामर्थ्य है अतः ईश्वर सर्वशक्तिमान्‌ है, कार्य-उपाधि में अल्प सामर्थ्य है ; अतः जीव अल्पशक्तिमान्‌ है। लेकिन यह भेद उपाधि पर निर्भर है, वास्तव में नहीं। जीव का सामर्थ्य अल्प ही रहता है।

    ईसाई सुनाते हैं कि ईसा ने एक मुर्दे को जिन्दा  कर दिया। हमने पूछा “कहाँ है वह जिन्दा हुआ व्यक्ति?” वे कहते हैं "अरे! अब कहाँ होगा! वह तो फिर मर ही गया। ' तो विचार करो, ईसा की महत्ता क्या हुई! मिनट-घण्टा-दिन- महीना-साल भले ही बदले;  पर मरने वाले को न मरने वाला तो नहीं बनाया। अतः जीव स्वयं परिच्छिन्न उपाधि में खुद को बँधा मानने से परिच्छिन्‍न ही सामर्थ्य वाला है। ईश्वर ऐसे सीमित अभिमान वाला है नहीं अतः असीमित सामर्थ्य वाला है।

ईश्वर (जगदम्बा)  के निर्णयों का अनुमोदन करने के अलावा जीव कुछ कर नहीं सकता, लेकिन यह न स्वीकारने से कर्तृत्व-भ्रम पाले हुए है।  जिसके फलस्वरूप भोक्तृत्व-भ्रम अनिवार्य है। 

आत्मा नित्य ही सच्चिदानन्द है। अविद्या के नशे में स्वयं को और कुछ समझने पर भी वास्तव में वही है। नशा उतारने के लिये ही " स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर- 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित और C-IN-C होने के चपरास प्राप्त नेता (नवनीदा) द्वारा 3-'H' विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण को युवाओं तक पहुँचाने के लिए ही महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है ।

1 . Hand या स्थूल शरीर की अवस्था में चेतना का विकास : पशु- मनुष्य - देवता आदि शरीर वाला चेतन व्यष्टि जीव कहा जाता है। परमेश्वर ही सब शरीरों में घुसकर माया से छिपा-सा रहता है। द्वैत मायामय होने से सत्य अद्वैत है यह समझना चाहिये।

व्यष्टि सूक्ष्म कारण शरीरों (Head-अन्तःकरण) में भी देव-पशु-मनुष्य आदि भेद नहीं है , क्योंकि जो आज देव है वही कल पशु पैदा हो सकता है। अतः पशु , मनुष्य और देवता का भेद केवल व्यष्टि स्थूल शरीरों में ही हैं। इससे विवेक-प्रयोग करने में आसानी हो जाती है। 

साभार https://archive.org/stream/anubhuti-prakash-vidyaranya-swami/Anubhut Prakash /

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