[( 28 अक्टूबर 1882) परिच्छेद-14, श्री रामकृष्ण वचनामृत]
*तमोगुण का मोड़ घुमा देने ~ 'Spiritual Turn" देने ~ से ईश्वर लाभ होता है ! *
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं, प्रेमरस से भरे मधुर कण्ठ से गा रहे हैं -
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[( 28 अक्टूबर 1882) परिच्छेद-14, श्री रामकृष्ण वचनामृत]
*तमोगुण का मोड़ घुमा देने ~ 'Spiritual Turn" देने ~ से ईश्वर लाभ होता है ! *
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं, प्रेमरस से भरे मधुर कण्ठ से गा रहे हैं -
[(5 मार्च 1882) परिच्छेद ~ 3,श्री रामकृष्ण वचनामृत ]
* श्रीरामकृष्ण समाधि में *
सभा भंग हुई । भक्त सब इधर-उधर घूमने लगे । मास्टर भी पंचवटी आदि स्थानों में घूम रहे थे । समय पाँच के लगभग होगा । कुछ देर बाद वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आए और देखा उसके उत्तर की ओर छोटे बरामदे में अद्भुत घटना हो रही है ।
श्रीरामकृष्ण स्थिर भाव से खड़े हैं और नरेन्द्र गा रहे हैं। दो-चार भक्त भी खड़े हैं । मास्टर आकर गाना सुनने लगे । गाना सुनते हुए वे मुग्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण के गाने को छोड़कर ऐसा मधुर गाना उन्होंने कभी कहीं नहीं सुना था । अकस्मात् श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर वे स्तब्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण की देह निःस्पन्द हो गयी थी और नेत्र निर्निमेष ।
श्वासोच्छ्वास चल रहा था या नहीं-बताना कठिन है । पूछने पर एक भक्त ने कहा, यह ‘समाधि’ है । मास्टर ने ऐसा न कभी देखा था, न सुना था । वे विस्मित होकर सोचने लगे, भगवच्चिन्तन करते हुए मनुष्यों का बाह्यज्ञान क्या यहाँ तक चला जाता है? न जाने कितनी भक्ति और विश्वास हो तो मनुष्यों की यह अवस्था होती है !
नरेन्द्र जो गीत गा रहे थे, --
चिन्तय मम मानस हरि चिद्घन निरंजन।
किबा अनूपम भाति, मोहन मूरति, भकत-हृदय-रंजन॥
नव रागे रंजित कोटि शशी बिनिन्दित,
किबा बिजली चमके, अरूप आलोके, पूलके शिहरे जीवन॥
हृदि-कमलासने, भाब तांर चरण,
देखी शांत मने, प्रेम नयने, अपरूप प्रिय-दर्शन।
चिदानंद-रसे भक्तियोगाबेशे हो ओ रे चिर मगन॥
চিন্তয় মম মানস হরি চিদঘন নিরঞ্জন।
কিবা, অনুপমভাতি, মোহনমূরতি, ভকত-হৃদয়-রঞ্জন।
নবরাগে রঞ্জিত, কোটি শশী-বিনিন্দিত;
(কিবা) বিজলি চমকে, সেরূপ আলোকে, পুলকে শিহরে জীবন।
उसका भाव यह है-
“ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर । उसकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है, जो भक्तों का मन हर लेती है वह रूप नये नये वर्णों से मनोहर है, कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाला है, -उसकी छटा क्या है मानो बिजली चमकती है ! उसे देख आनन्द से जी भर जाता है ।”
Narendra was singing: Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through. How peerless is the Light that in Him shines! How soul-bewitching is His wondrous form! How dear is He to all His devotees! Ever more beauteous in fresh-blossoming love That shames the splendour of a million moons, Like lightning gleams the glory of His form, Raising erect the hair for very joy.
गीत के इस चरण को गाते समय श्रीरामकृष्ण चौंकने लगे । देह पुलकायमान हुई । आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे । बीच बीच में मानो कुछ देखकर मुस्कराते हैं । कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाली उस अनुपम रूप का वे अवश्य दर्शन करते होंगे । क्या यही ईश्वर-दर्शन है? कितनी साधना, कितनी तपस्या, कितनी भक्ति और विश्वास से ईश्वर का ऐसा दर्शन होता है?
[ গানের এই চরণটি গাহিবার সময় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শিহরিতে লাগিলেন। দেহ রোমাঞ্চিত! চক্ষু হইতে আনন্দাশ্রু বিগলিত হইতেছে। মাঝে মাঝে যেন কি দেখিয়া হাসিতেছেন। না জানি ‘কোটি শশী-বিনিন্দিত’ কী অনুপম রূপদর্শন করিতেছেন! এরই নাম কি ভগবানের চিন্ময়-রূপ-দর্শন? কত সাধন করিলে, কত তপস্যার ফলে, কতখানি ভক্তি-বিশ্বাসের বলে, এরূপ ঈশ্বর-দর্শন হয়? আবার গান চলিতেছে:
The Master shuddered when this last line was sung. His hair stood on end, and tears of joy streamed down his cheeks. Now and then his lips parted in a smile. Was he seeing the peerless beauty of God, "that shames the splendour of a million moons"? Was this the vision of God, the Essence of Spirit? How much austerity and discipline, how much faith and devotion, must be necessary for such a vision!]
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*सर्वधर्मसमन्वय ~“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम ।”*
प्रश्न : भगवान के किस मूर्ति (रूप -Form) पर मनःसंयोग का अभ्यास करना चाहिए ?
श्रीरामकृष्ण : “यदि रागभक्ति-अनुराग के साथ भक्ति-हो तो वे स्थिर नहीं रह सकते ।”
“भक्ति उनको उतनी ही प्रिय है जितनी बैल को चोकर मिला हुआ सानी ।”
“रागभक्ति-शुद्ध भक्ति-अहैतुकी भक्ति । जैसे प्रह्लाद की ।”
“तुम किसी बड़े आदमी से कुछ चाहते नहीं हो, परन्तु रोज आते हो, उन्हें देखना ही चाहते हो । पूछने पर कहते हो- ‘जी, कोई काम नहीं है, बस दर्शन के लिए आ गया ।’ इसे अहैतुकी भक्ति कहते हैं । तुम ईश्वर से कुछ चाहते नहीं, सिर्फ प्यार करते हो ।”
{“যদি রাগভক্তি হয় — অনুরাগের সহিত ভক্তি — তাহলে তিনি স্থির থাকতে পারেন না।“ভক্তি তাঁর কিরূপ প্রিয় — খোল দিয়ে জাব যেমন গরুর প্রিয় — গবগব করে খায়।“রাগভক্তি — শুদ্ধাভক্তি — অহেতুকী ভক্তি। যেমন প্রহ্লাদের।“তুমি বড়লোকের কাছে কিছু চাও না — কিন্তু রোজ আস — তাকে দেখতে ভালবাস। জিজ্ঞাসা করলে বল, ‘আজ্ঞা, দরকার কিছু নাই — আপনাকে দেখতে এসেছি।’ এর নাম অহেতুকী ভক্তি। তুমি ঈশ্বরের কাছে কিছু চাও না — কেবল ভালবাস।”
"God cannot remain unmoved if you have raga-bhakti, that is, love of God with passionate attachment to Him. Do you know how fond God is of His devotees' love? It is like the cow's fondness for fodder mixed with oil-cake. The cow gobbles it down greedily."Raga-bhakti is pure love of God, a love that seeks God alone and not any worldly end. Prahlada had it. Suppose you go to a wealthy man every day, but you seek no favour of him; you simply love to see him. If he wants to show you favour, you say: 'No, sir. I don't need anything. I came just to see you.' Such is love of God for its own sake. You simply love God and don't want anything from Him in return."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे :
" आमि मुक्ति दिते कातोर नेई, शुद्धा भक्ति दिते कातोर होई।
आमि मुक्ति दिते कातोर नेई,
शुद्धा भक्ति दिते कातोर होई।
आमार भक्ति जेबा पाय , तारे केबा पाय ,
शे जे सेवा पाय , होये त्रिकालजयी।।
शुन चन्द्रावली भक्तीर कथा कोई।
भक्तीर कारणे पाताल भवने,
बलिर द्वारे आमि द्वारपाल होये रोही ।।
शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी।
शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने,
गोप- गोपी वीने अन्ये नाही जाने।
भक्तीर कारणे नन्देर भवने,
पिता ज्ञाने नन्देर बाधा माथाय बोई।
" गीत का मर्म यह है:-‘मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, किन्तु शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ।’
“मूल बात है ईश्वर में रागानुराग भक्ति और विवेक-वैराग्य चाहिए ।”
{“মূলকথা ঈশ্বরে রাগানুগা ভক্তি। আর বিবেক বৈরাগ্য।”
He continued, "The gist of the whole thing is that one must develop passionate yearning for God and practise (मनःसंयोग) discrimination and renunciation."
चौधरी- महाराज, गुरु (नेता ) के न होने से क्या ईश्वर-दर्शन नहीं होता?
{MR. CHOUDHURY: "Sir, is it not possible to have the vision of God without the help of a guru?"}
श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु है ।
“शवसाधना (हृदय श्मशान में अहं का शवदाह करते समय) करते समय जब इष्टदर्शन का मौका आता है, तब गुरु सामने आकर कहते हैं, ‘यह देख अपना इष्ट ।’ फिर गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं । जो गुरु हैं वे ही इष्ट हैं । गुरु मार्ग पर लगा देते हैं ।
{সচ্চিদানন্দই গুরু।“শবসাধন করে ইষ্টদর্শনের সময় গুরু সামনে এসে পড়েন — আর বলেন, ‘ওই দেখ্ তোর ইষ্ট।’ — তারপর গুরু ইষ্টে লীন হয়ে যান। যিনি গুরু তিনিই ইষ্ট। গুরু খেই ধরে দেন।
MASTER: "Satchidananda Himself is the Guru. At the end of the sava-sadhana (अहंकाररूपी शव का दाहसंस्कार करते ही) , just when the vision of the Ishta is about to take place, the guru appears before the aspirant and says to him, 'Behold! There is your Ishta.' Saying this, the guru merges in the Ishta. He who is the guru is also the Ishta (माँ काली) . The guru is the thread that leads to God.
“अनन्त-चतुर्दशी * का तो व्रत है, पर पूजा विष्णु की की जाती है । उसी में ईश्वर का अनन्त रूप विराजमान है ।”
“অনন্তব্রত করে। কিন্তু পূজা করে — বিষ্ণুকে। তাঁরই মধ্যে ঈশ্বরের অনন্তরূপ!”
[श्री कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे 'काल' हैं जिसे अनंत कहा जाता है। भगवान् श्रीहरि विष्णु के चौदह नाम ~ 1. अनन्त 2. ऋषिकेश, 3. पद्मनाभ, 4. माधव, 5. वैकुंठ, 6. श्रीधर, 7. त्रिविक्रम, 8. मधुसुदन, 9. वामन, 10. केशव, 11. नारायण, 12. दामोदर, 13. गोविन्द, 14. श्रीहरि ! यदि हरि अनंत हैं तो 14 गांठ हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की प्रतीक हैं। भगवान् श्रीहरि विष्णु द्वारा निर्मित चौदह लोक -1. तल, 2. अतल, 3. वितल, 4. सुतल, 5. तलातल, 6. रसातल, 7. पाताल, 8. भू, 9. भुवः, 10. स्वः, 11. जन, 12. तप,13. सत्य, 14. मह। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह ---"श्रीहरि" स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे।
अनंत व्रत चंदन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। इस व्रत के विषय में कहा जाता है कि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।]
Women perform a ritualistic worship known as the 'Ananta-vrata', the object of worship being the Infinite. But actually the Deity worshipped is Vishnu. In Him are the 'infinite' forms of God.]
श्रीरामकृष्ण : (रामादी भक्तों से) यदि कहो किस मूर्ति का चिन्तन करेंगे, तो जो मूर्ति अच्छी लगे, उसी का ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं ।
[(রামাদি ভক্তদের প্রতি) — “যদি বল কোন্ মূর্তির চিন্তা করব; যে-মূর্তি ভাল লাগে তারই ধ্যান করবে। কিন্তু জানবে যে, সবই এক।
(To Ram and the other devotees) "If you asked me which form of God you should meditate upon, I should say: Fix your attention on that form which appeals to you most; but know for certain that all forms are the forms of one God alone.
श्रीरामकृष्ण : “किसी से द्वेष न करना चाहिए । शिव, काली, हरि- सब एक ही के भिन्न भिन्न रूप हैं । वह धन्य है जिसको उनके एक होने का ज्ञान हो गया है ।”
(“কারু উপর বিদ্বেষ করতে নাই। শিব, কালী, হরি — সবই একেরই ভিন্ন ভিন্ন রূপ। যে এক করেছে সেই ধন্য।
"Never harbour malice toward anyone. Siva, Kali, and Hari are but different forms of that One. He is blessed indeed who has known all as one.)
“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम ।”
{“বহিঃ শৈব, হৃদে কালী, মুখে হরিবোল।
Outwardly he appears as Siva's (S.V.) devotee, But in his heart he worships Kali (Ma Sarda), the Blissful Mother, And with his tongue he chants aloud Lord Hari's name (Sri Thakur).
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केनोपनिषद् में एक आख्यान सुनाया है जिसका प्रयोजन यह बताना है कि 'गोलोकधाम ' जैसे लूडो के खेल में भी ईश्वर सदा युद्ध होने पर देवताओं के लिये जीत संपन्न करते हैं। देवता इस अनुग्रह को बिना समझे जय-निमित्तक गर्व से ग्रस्त हो गये। “जीत हमारी हुई है” ! यों देवताओं की मान्यता समझकर ईश्वर उन्हें समझाने के लिये उनके सम्मुख यक्ष के रूप में प्रकट हुए। सभा में उपस्थित देवों ने ईश्वर का अलौकिक शरीर देखकर, “यह क्या है? यह पता लगाने के लिये अग्नि को ईश्वर के पास भेजा ।देवासुर संग्राम में जो देव- विजय होती है वह ईश्वरकृत ही हुआ करती है। कभी-कभी असुर-विजय भी होती है, लेकिन वह ईश्वरकृत तो है लेकिन उसमें भी देवहित निहित अवश्य रहता है।
जय हुई ईश्वरानुग्रह से पर देवों में गर्व हो गया कि “हमारी ही यह जय है, हमारी ही यह महिमा है? । लोक में भी देखते हैं : एक दुकान /होटल व्यवसाय आदि चल रही है, सेठ जी तीन समय आश्रम आकर ध्यान-भजन-सत्संग विचार करते हैं। भगवान् से प्रार्थना की, उनकी कृपा से एक से दो, दो से चार दुकानें/ होटल बड़ा हो गया। सेठ जी को यह भूल जाता है कि ईश्वरानुग्रह से व्यापार चमका है, यह अभिमान हो जाता है कि "मेरे करने से होटल चल रहा है। ” यही हाल देवों का हुआ तो परमेश्वर ने सोचा कि देवों में यह आसुर भाव पनपना ठीक नहीं। अतः जहाँ देवता सभा जमाये बैठे थे वहाँ पास में भगवान् एक विचित्र यक्षरूप धारण कर प्रकट हो गये जिसे देवता देख तो सकें पर कौन है यह समझ न सकें। सीधे ही पहचान सकने वाला रूप लेकर आये होते तो देवता आदर-सत्कार कर देते लेकिन जो मुख्य उद्देश्य था वह पूरा न होता कि उनका भ्रम मिटे। अज्ञात शरीर देख कर उसके बारे में पता लगाने को सबसे पहले अग्निदेव को भेजा गया ।
पास आये अग्नि के कुछ पूछने से पहले को ईश्वर ने ही पूछ लिया “आप कौन हैं?” उसने गर्वीला हो कहा “मैं अग्नि , नाम का जाततवेदा हूँ।” उसका गर्व भंग करने के लिये परमेश्वर ने पूछा 'तुममें क्या ताकत है?” उसने गर्व से यह बात कही “सब कुछ जला डालता हूँ ।” अपनी दी हुई शक्ति को खींचकर “यह तिनका जलाओ' ऐसा ईश्वर बोले। वह (पूरा जोर लगाकर) भी उस तिनके को जला ही नहीं पाया!।।८३।। अग्नि गया तो था पता लगाने के लिए पर यक्ष के सम्मुख अभिभूत हो गया, पूछने की हिम्मत नहीं जुटा-पाया, बोलती बन्द हो गयी। यक्ष ने ही उससे परिचय पूछा तो हिम्मत खुली, अपना नाम बताया और साथ में गर्वसूचक विशेषण दिया “जातवेदा” अर्थात् जो कुछ संसार में उत्पन्न होता है उसे अग्नि जानता है!
जब सब कुछ जला देने की शक्ति को ताकत बतायी तब यक्ष ने पहले तो उसे दी हुई वह ताकत रोक ली; और फिर सामने एक तिनका रखकर उसे जलाने को कहा! अग्नि ने जलाने की ताकत को परमेश्वर की कृपा से प्राप्त हुई है , ऐसा न कहकर “अपनी” कहा था। अतः यक्ष ने उसे प्रत्यक्ष करा दिया कि ताकत उसकी तो है लेकिन “अपनी” नहीं, परमेश्वर-प्रदत्त है। पुराने समय में भारतीयों का बोलने का ढंग ही था कि परमेश्वर की कृपा से कुछ हुआ, उपलब्ध हुआ आदि। घर-मकान आदि को भी कहते थे “भगवान् के दिये हैं! भले ही सबको सर्वथा गर्वराहित्य नहीं हासिल होता था। लेकिन कम-से-कम भगवान् तो याद आते थे, संस्कार पड़ता था, बच्चों को शिक्षा मिलती थी। पाश्चात्य शिक्षा और आधुनिकता ने वह भाव तो मिटाया ही, बोलने में भी परिवर्तन कर दिया, भगवान् के जिक्र से ही परहेज होने लगा है। यह अभिमानवर्धन ही वर्तमान काल के दबाव तनाव आदि मनोविकारों से स्कूल फाइनल का रिजल्ट निकलने के बाद अवसाद ग्रस्त होने या आत्महत्या करने का मुख्य हेतु है। भगवान् मिहनत का फल देने में भगवान ही जिम्मेवार है यह याद रखें तो अपने सिर का बोझ नहीं रहता, मैं ही सब करने-धरने वाला हूँ तो बोझ मुझ पर ही रहेगा! अग्नि भी इसी 'मेरा” के प्रभाव में था अतः उसका पराभव हुआ। परमेश्वर ने जब शक्ति रोक ली तब अग्नि सारी कोशिश करके भी उस एक छोटे से सूखे तिनके को भी जलाने में असमर्थ रहा! अत्यंत लज्जित हो, बिना कुछ कहे तुरंत लौट आया और देवताओं से इतना ही कहा "मैं पता नहीं लगा पाया!।
आगे की कथा में बताते हैं अग्नि की तरह वायु भी यक्ष के समाने गर्व-भंग होने पर लौट आया। अग्नि निष्फल हुआ तो देवताओं ने वायुको भेजा। वह भी पूछ न पाया। यक्ष ने ही पूछा 'कौन हो, क्या करते हो? वायु बोला वायु, मातरिश्वा हूँ, सब कुछ उड़ा देता हूँ। यक्ष ने वैसे ही उसकी सामर्थ्य रोककर तिनका उड़ाने को कहा जिसे वह उड़ा न पाया तो मुँह लटकाकर लौट आया।
इन प्रधान देवताओं की असामर्थ्य को देखकर इन्द्र का गर्व जाता रहा। वह स्वयं पता लगाने चला। यक्ष ने समझ लिया कि गर्व तो इसका मिट ही चुका अब केवल इसकी श्रद्धा परीक्षणीय है। दैवी गुणों में निरभिमान (अहंशून्यता-निःस्वार्थपरता ) और श्रद्धा प्रधान हैं। परीक्षा के लिये यक्ष अन्तर्धान हो गया। इन्द्र यह देखकर अधिक श्रद्धालु हुआ। यदि इन्द्र भी अहंकारी और अश्रद्धालु होता तो सोचता 'कुछ नहीं था" या ऐसा ही कोई तुच्छ बल वाला था जो मेरा तेज नहीं सह पाया” आदि। लेकिन इंद्र में श्रद्धा जाग्रत हुई। उसे मालूम था कि अग्नि-वायु भी ऐरे-गैरे नहीं हैं, प्रधान देवता हैं। भले ही इंद्र राजा होने से विशेष है पर वे भी अतिसमर्थ हैं। अतः यक्ष की उपेक्षा न कर उसके महत्त्व के प्रति सद्भाववाला हुआ। जो मुझे समझ में न आये वह हो ही नहीं सकता'यह अश्रद्धालुओं का निश्चय होता है। शास्त्रों के वर्णन, देवकृपा, तपःसामर्थ्य आदि सब को इसी दृष्टि से देखने का बढ़ता रिवाज अश्रद्धा का ही परिचायक है। 'मेरी समझ से परे भी बहुत कुछ है” यह श्रद्धालु की सोच है। जिससे प्रेरित हो वह अधिक-अधिक जानने का प्रयास करता है। सत्य को जानने या समझने का प्रयास ही श्रद्धा को दिखाता है। अश्रद्धालु ऐसा प्रयास ही नहीं कर सकता क्योंकि अपने समझे हुए खाके में बैठाने में ही उलझा रहता है। इन्द्र निर्गव और श्रद्धालु था अतः वहीं रुका रहा। उसे निश्चय था कि भगवान् की कृपा से ही पता लगेगा अतः वह माँ जगदम्बा का कृपा प्रार्थी बना ।ऊपर अर्थात् मन-वाणी से परे तत्त्व का विलोकन अर्थात् चिन्तन करते हुए स्थिर रहा। श्रद्धा देख भगवान् ने उमा-रूप में दर्शन दिया। जिसने यक्ष-रूप में जिज्ञासा जगायी, उसी ने उमारूप से ज्ञान दिया। परमेश्वर ही विविदिषा-उत्पादन (ज्ञानप्राप्त की इच्छा , इन्द्रियातीत सत्य को जानने की कामना ।) पूर्वक विद्या देते हैं। किन्तु इसकी योग्यता गर्वहीन श्रद्धा है। जैसे अंधे को सूर्य भी नहीं दीखता वैसे श्रद्धारूप चक्षु से वंचित को परमार्थ उपलब्ध नहीं होता। अश्रद्धा रहते साकार परमेश्वर भी 'दीखता” नहीं, कंस शिशुपाल आदि को कृष्ण परमेश्वर नहीं दीखे। (इन्द्र ने प्रयास किया।) इन्द्र को गर्वरहित देख कर उसकी परीक्षा लेने के लिये यक्ष रूपी ब्रह्म तिरोहित हो गये ।ईश्वर-कृपा को चाहने वाला इन्द्र , वापस नहीं लौटा , ऊपर देखता हुआ खड़ा रहा। उस इन्द्र पर अनुग्रह करने के लिये भगवान ने उमा-रूप धारण कर लिया। इन्द्र ने पूछा 'हे देवी! देवों ने इससे पहले जो देखा वह क्या है? उमा बोली “वह ब्रह्म है, उसके अनुग्रह से ही देवासुर संग्राम में जीत हुई थी” ।हैमवती को देख इन्द्र ने उसी यक्ष के बारे में पूछा जिसका स्वरूप उमा ने ब्रह्म बताया, उसका प्रभाव देवताओं की जीत बतायी। शास्त्रसंस्कारी इन्द्र “ब्रह्म! शब्द सुनते ही ठीक समझ गया कि कौन यक्ष था। विजय उसका प्रभाव था सुनकर इंद्र को बोध हो गया कि किस प्रयोजन से यक्ष ने दर्शन दिया था। विचारशील इंद्र योग्य था अतः उमा के उपदेशमात्र से उसे साक्षात्कार हो गया। श्रवण की ज्ञान- साधनता इससे स्पष्ट हो जाती है। अग्नि-वायु की यक्ष से और इन्द्र की उमा से जो थोड़ी-सी बातचीत हुई इसीसे ये देवताओं से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गये, वेदों में इनके मंत्र ज्यादा हैं। जैसे जो राजा से कुछ बातचीत कर आये, गाँव में उसका ओहदा बढ़ जाता है वैसे परब्रह्म परमात्मा से वार्तालाप किया तो इन देवताओं का सम्मान बढ़ गया।परमेश्वर से थोड़ी-सी बातचीत करने के कारण अग्नि, वायु और इन्द्र उत्कृष्ट हैं। इनमें भी इन्द्र पुण्यात्मा है क्योंकि उस पर अनुग्रह भी ज्यादा हुआ ।
केन उपनिषद ने कहानी सुनाकर ईश्वर की उपासना का विधान इस प्रकार किया है : -" तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा इतीन्न्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम् ॥" --यह 'उसी' का निर्देश है,... जैसे विद्युत् का चमकना हो अथवा जैसे पलक का झपक जाना हो, वैसा ही अधिदैव-भाव है।अथाध्यात्मं यद्देतद् गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्श्णं सङ्कल्पः ॥अब अध्यात्म-भाव यथा इस मन की गति 'उस' (परतत्त्व) को प्राप्त करती प्रतीत होती है एवं तत्पश्चात् उससे चिन्तनगत संकल्प निरन्तर 'उसका’ स्मरण करता है। तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनम् सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति॥‘उस' (परतत्त्व) का नाम है ''वह आनन्द'', 'उस आनन्द' के रूप में ही 'उसकी' उपासना करनी चाहिये। जो 'उसे' इस रूप में जानता है सभी प्राणी उसे विशेष रूप से चाहते हैं। (केन ४.४-६)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
(गीता 8.4)
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ (पंचमहाभूत) को अधिभूत कहते हैं, पुरुष (अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी) अधिदैव हैं, और इस शरीर में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।
यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह -मन उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है। ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है।
कोई भी कर्म केवल ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर उपासना है।मनुष्य को चाहिये कि वह ईश्वर की कृपा सिद्ध (प्राप्त) करने के लिये ब्रह्म की उपासना करें । अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत (भौतिक) तीनों धरातलों पर उसकी उपासना की जाये। कोई विशेष प्रकार का कर्म-काण्ड आदि ही ईश्वरोपासना नहीं है , बल्कि सभी बाह्य एवं भीतरी कर्म ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर, वैसे कर्म (ब्लॉग लिखना भी ?) उपासना है। अपने पिता की सेवा भी उस शरीर में स्थित ईश्वरप्रीत्यर्थ सेवा करने पर, वह सेवा भी ईश्वरोपासना हो जाती है। ईश्वर-प्रसन्नता के अलावा कोई कामना मन में न रखकर करने पर ही उपासना होगी। अतः मोक्षेच्छुक ही इस उपासना में समर्थ होता है। संसार में कुछ भी चाहने वाला (कामिनी-कांचन में घोर रूप से आसक्त व्यक्ति) ईश्वरोपासना में अक्षम है।
आधिदैविक उपदेश : जैसे बिजली चमक कर प्रकट- और फिर अप्रकट हो जाती है ; वैसे ब्रह्म में भी प्रकट होना एवं छिप जाना दोनों हुआ करते हैं। जैसे बिजली का स्वभाव ही अचानक चमकना फिर बुझना है वैसे ब्रह्म कभी किसी अनुभव रूप से प्रकट होता है फिर छिप जाता है। देवताओं को परमेश्वर ने यक्षरूप में अचानक ही दर्शन दिया, अचानक ही लुप्त हो गये। इससे इन्द्र ने यह तो पता लगाया कि यक्ष कौन था, लेकिन क्यों दर्शन मिला ? और फिर वंचित क्यों रह गये ? इसकी चिंता इन्द्रादि ने नहीं की । यह परमेश्वर की स्वतंत्रता ही है इसे स्वीकारने में ही बुद्धिमानी है। क्योंकि देवताओं को यों अनुभव हुआ यह बताया और क्योंकि बिजली चमकाना देवकार्य ही है ! इसलिये दिव्य उपमा से दिया यह आधिदैविक उपदेश है ।
आध्यात्मिक उपदेश में 'मन' को दृष्टान्त बनाया जाता है , उसकी उपमा से यह समझाते हैं कि याद और संकल्प समेत मन अध्यात्म में उपाधि है। शरीर के भीतर रहने से 'मन' को अध्यात्म कहा गया है। जैसे हमें अचानक अनेक स्मृतियाँ आती हैं, वे क्यों आयीं ? कुछ पता नहीं, कोशिश करते हैं तो आती नहीं हैं। विविध संकल्प भी क्यों होते रहते हैं ? कुछ पता नहीं चलता, ऐसे ही परमेश्वर का कर्मादिस्मरण और सृष्टिसंकल्प क्यों होता है ? इसका एक ही सही उत्तर हमें भी पता नहीं है । अतः अपनी समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा की मूर्ति समझना चाहिये। सभी वृत्तियाँ व्यक्त तो परमात्मा को ही करती हैं। अतः कुछ भी याद आये तो समझो भगवान् ने अपनी स्मृति- प्रदान करने के सामर्थ्य को ही व्यक्त किया है । ऐसे ही संकल्पादि में है। यहाँ भी वृत्तियों में उलझे बिना केवल उनसे परमात्मा का बोध कायम रखना यहाँ उपासना है। इसी तरह भजा गया ब्रह्म आचार्य की उपलब्धि कराता है।
सावधान होकर एकमात्र परमेश्वर (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) की ही उपासना करनी चाहिये, उससे अलग अन्य किसी को उपासना-योग्य न समझे। यों उपासित परमेश्वर साधक को योग्य आचार्य /( गुरुदेव / CINC नवनीदा ) की उपलब्धि करा देता है। और ऐसे उपासक में ही आचार्य होने की योग्यता प्रकट होती है। काली के उपासक या " ईश्वरभक्त ब्रह्मवेत्ता" के पास ही भक्त आकर - " परमात्मा की विद्या सुनाइये” ऐसी प्रार्थना करते हैं। ईश्वरभक्त ब्रह्मज्ञ (माँ काली के भक्त ब्रह्मज्ञ -ब्रह्मविद ) को चाहते सभी हैं पर भक्त यों चाहते हैं कि वह उपदेश दे। संसारी लोग उससे ब्रह्मोपदेश नहीं चाहते लेकिन उसकी ओर आकृष्ट तो होते ही हैं।
नचिकेता जैसा जिज्ञासु ही उपदेश-योग्य होता है। सही-गलत किसी भी कोटि में जो निश्चित है उसे उपदेश नहीं दिया जा सकता। वरन् जिसे सन्देह है, अपनी जानकारी पर भरोसा नहीं है, वही समझने को तैयार हो सकता है। नचिकेता, मैत्रेयी, जनक, अर्जुन आदि जब यों प्रष्टा बने तभी उन्हें उपदेश मिला।किसी अज्ञात देवदत्त को यदि गदहा कहा जाये तो यह मनन का विषय नहीं बनता ; किंतु हमें ही यदि कोई गदहा कहे तो विचार करना पड़ता है- कि क्यों कहा, किस ग़लती से कहा इत्यादि। सृष्टि-आदि का कारण जब 'मुझे” बताया जाता है तभी मनन जरूरी है। जब तक तो “कोई! परमेश्वर है तब तक केवल सुनना है, किन्तु में परमेश्वर हूँ", तब सोचना पड़ता है कि प्रमाणरूप वेद कह क्या रहा है। माण्डूक्य उपनिषद् और उस पर लिखी हुई कारिका में इसी तथ्य को समझाया गया है। केवल 'श्रवण ' या सुनने से नहीं, मनन किया जाने पर त्राण करता हो , वैसा रक्षा करने वाला 'मन्त्र ' कहलाता है। संसार के विषयों में (कामिनी-कांचन में) आसक्ति ही बुद्धि (चित्त ) की अशुद्धि है। कामिनी-कांचन में आसक्त व्यक्ति स्वयं का वास्तविक स्वरूप नहीं जान सकता। कारण अपने कार्य से सूक्ष्म होता है, उसी सूक्ष्मता की परकाष्ठा होने से परमेश्वर को परमकारण कह दिया जाता है। वही तत्त्व बुद्धिसाक्षी हुआ साक्षिरूप से सभी को देख रहा है, सबको प्रकाशित कर रहा है। हमें दो 'मैं ' का अनुभव होता है, एक बदलने वाला और दूसरा न बदलने वाला एकरस, स्थायी । इस स्थायी 'मैं ' को साक्षी और बदलते रहने वाले को प्रमाता कहते हैं। एक मैं बच्चा 'था', (अब नहीं हूँ) और दूसरा मैं जो अब भी हूँ'। देह-इन्द्रिय आदि से तादात्म्यापन्न मैं परिवर्तित होने वाला हूँ, संसारी हूँ, यहाँ भी देश-अवस्था आदि में सरकता रहता हूँ। और लोकलोकान्तर में भी जाता-आता रहता हूँ। किन्तु जो इन सब परिवर्तनों को, संसरणों को जानता है, जिसके द्वारा जाने गये होने से ही ये परिवर्तन एक के हैं। यह सिद्ध होता है, वह अपरिवर्तनशील साक्षी ही वास्तव में आत्मा है, ब्रह्म है। “मैं वह हूँ, वह मैं हूँ” सः मायने वह (परमेश्वर), अहम् मायने मैं (साक्षी)। लगातार सोहं-सोहं-सोहम् कहने पर अहं सः भी सम्बन्ध सुनाई देता है। नाम-रूप (Bh )का महत्त्व विपरीत शरीर के प्रति राग रहने से ही भासते हैं, इसीलिए उसके संहार में संकोच होता है। अतः वैराग्य के बिना निर्विशेष की ध्यान-साधना भी संभव नहीं। ब्रह्म में जगत् भी तभी मिले जब पहले जगत् कुछ हो; क्योंकि वह " है” नहीं, है एकमात्र ब्रह्म, इसलिये जगत् का संहार हो जाता है।'स्थूल-सूक्ष्म-कारण तीनों शरीर मुझमें माया से आरोपित हैं? विवेकी (विवेक-प्रयोग में समर्थ व्यक्ति की) की तो प्रतीति ही होती है कि प्रमाता-रूप मैं ही विकारी है, साक्षिरूप मैं निर्विकार ही हूँ। मान लें मच्छरों ने काटना शुरू कर दिया, उन्हें उड़ाने की तीव्र इच्छा में मन उलझा है; तब चिंतन करते हुए उड़ाये कि काटने वाला मच्छर अधिदैव है, जिसे काट रहा है वह शरीर अध्यात्म है। अतः उड़ाने वाला हाथ भी अध्यात्म है, इन्हीं का परस्पर व्यवहार है, मैं इससे अछूता हूँ। इन्द्रियों से व्यवहार जाग्रत् में जाग्रत् है। मन से चिन्तन करना जाग्रतू में स्वप्न है। इन्द्रिय-मन की निश्चेष्ट स्थिति जाग्रतू में सुषुप्ति है। तृप्तता जाग्रत् में तुरीय है । स्वप्न के अंतर्गत भी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति-तुरीय ये चार स्वप्न के भेद हैं।सपना ठीक याद आये तो समझना चाहिये कि दीखते समय वह सपने में जाग्रत् स्थिति थी। साफ न याद आये तो वह सपने में सपने की अवस्था थी। बिलकुल याद न रहे फिर भी शरीर के भारीपन से या अन्य उपाय से पता चले कि सपने आते रहे, तो वह सपने में सुषुप्ति थी।(इन्द्रियों सहित) बुद्धि लीन हो जाने पर आत्मा सुषुप्ति में स्थित रहता है। तब द्वैत का लोप (अदर्शन) हो जाने से आत्मा अकेला होता है।सुषुप्ति में कोई दुःख नहीं हो सकता । आत्मा सुखरूप है, दुःख उत्पन्न होने पर आत्मसुख छिप-सा जाता है और हमें अनुभव में उल्लेख दुःख का ही होता है; जब द्वैत न रहने से दुःख है नहीं ; तब स्वतः स्फूर्त आत्मसुख बना ही रहता है। इसी से सुषुप्त को आनन्दमय कहा। क्योंकि दुःखबीज अज्ञान बचा है इसलिये आनंदरूप नहीं कह सकते।चेतना के चतुर्भेद सुषुप्ति में आत्मा प्राज्ञ और ईश्वर कहलाता है। आत्मा (ह्रदय -Heart) ही ज्ञान-कर्मेन्द्रियों का (Hand) , प्राण मन (Head) आदि का प्रेरक है, इनका विषय नहीं। सुनार गहने बेचते समय चाहे आकार (डिजाइन) की ही प्रशंसा करता रहे, लेकिन खरीदते समय सोने का ही मूल्य देता है। अतः सार ही मूल्यवान् है। ज्ञान ही मूल्यवान् रूप है। आँख-कान आदि से होने वाले तो ज्ञानाभास हैं, आत्मरूप ज्ञान तो अपरोक्ष, निरपेक्ष अनुभूति है। स्थूल जाग्रत् में और सूक्ष्म स्वप्न में भिन्न प्रतीत होकर दुःखदायी है ही, सुषुप्ति में भेदप्रतीति न सही पर सारे भेदों के बीज रहने से सभी दुःखों के बीज भी वहाँ हैं। अतः उसे भी वास्तव में दुःखरहित अवस्था नहीं कह सकते भेददृष्टि आत्मस्वरूप के अज्ञान से है। तत्त्वसाक्षात्कार से अज्ञान दूर हो चुकने से भेददृष्टि समाप्त हो जाती है अतः कोई दुःख संभव नहीं रहता, यही मोक्ष में बंधन से विशेष है। बंधन अज्ञान के रहते है, अज्ञान की निवृत्ति से मोक्ष है। अज्ञान से ही हमलोग स्वयं को साक्षी न जानकर प्रमाता (ज्ञाता-ध्याता) समझते हैं,आँख-कान के सहारे ज्ञान वाला समझते हैं, देखने-सुनने चलने-पकड़ने वाला, सोचने-समझने वाला स्वयं को मानते हैं और तभी प्रपंच क्लेश देता रहता है। दुःख की पहुँच है ही मन तक, मुझ तक नहीं है, फिर भी इस तथ्य को न जानकर हम मन से एकमेक हुए दुःखी हैं। ऐसा दुःख तभी मिटे जब हम समझ लें कि हम मन नहीं उसके साक्षी हैं।
ध्याता स्वयं को ईश्वर न समझे वरन् तुरीय समझे,तुरीय सत्य है, विश्वादि उस पर अध्यस्त हैं। तुरीय ही कल्याणस्वरूप, आनंदस्वरूप होने से शिव है। स्वरूप से निर्विकार होने पर भी भ्रम से आरोपित विकारों के भी बाधित हो जाने पर वह शांत, दुःखरहित है। द्वैत उसमें कदापि नहीं अतः वही सत्य वस्तु अद्वैत है। समझने के लिये उसे आत्मा का चौथा चरण कहते हैं। वास्तव में वही आत्मा है लेकिन भ्रमसिद्ध तीन चरणों से स्वतन्त्र बताने के लिये उसे चौथा चरण कह देते हैं।
चित्त का भटकना ही संसार का स्वरूप है जिसकी स्थायी शांति के लिये योग और विवेक दो साधन बताये गए हैं । योग में चित्त -प्रवाह का निरोध चाहिये,ज्ञान निश्वय में प्रमाण पर अटूट श्रद्धा चाहिये। मनः संयोग का अभ्यास, सांसारिक फलों के लिये नहीं, संसारनिवृत्ति के लिये है अतः विरक्त मुमुक्षु ही इसका (विवेक-दर्शन का) अभ्यास करे। चित्त का भ्रमण ही जन्म-मरण का चक्ररूप संसार है । 'भ्रमण” से ध्वनित है कि चित्त-निमित्तक भ्रम ही संसार है। उपाधितादात्म्य को ही जन्म और स्थूल से तादात्म्य छूटने को मरण कहते हैं। तादात्म्य स्पष्ट ही भ्रम है अतः संसार को भ्रम कहना बनता है। जीवन के दौरान भी सुख-दुःख का भोग रूप संसार तादात्म्य से ही है क्योंकि आत्मा वस्तुतः तो साक्षी ही रहता है। इस भ्रमण से वैराग्य हो तभी अध्यात्म साधना प्रारंभ होगी।
ज्ञाता ज्ञेय से पृथक् होता ही है, हमें चक्षु आदि ज्ञेयरूप से प्रतीत होते हैं अतः निश्चय है कि हम उनसे पृथक् हैं। चक्षु आदि में मन भी आ जाता है। मन से प्रथक् स्वयं को समझते ही साक्षिरूप में स्थिति हो जाती है। साक्षी नित्यदृष्टि होने पर भी उसे अनित्य ज्ञान इसीलिये हो पाते हैं कि उसपर अहंकार आरोपित है। अहंकाररूप उपाधि से ही साक्षी प्रमाता बनता है।
सुषुप्ति में अहंकार न रहते कोई अनित्य ज्ञान भी नहीं होता, ज्ञानमात्र कायम रहता ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जो लगातार रहता है वह ज्ञान आत्मा है, उसमें जो ज्ञानकर्त॒त्व, ज्ञातृत्व, अनित्य ज्ञानवत्त्व प्रतीत होता है वह अहंकार उपाधि से होने वाला भ्रम है।
जगत में बहुधा साधारण से अनुभवों पर चिंतन करने से गंभीर तथ्य प्रकट होते हैं। सेब गिरना देखने से गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार हुआ , कचरे को चमकता देखने से रेडियम का पता चला, फूल का रंग बदलना देखने से रमण-प्रभाव का निर्णय हुआ। ऐसे ही हमारे सभी अनुभव इस योग्य हैं कि इन पर चिंतन करें तो परमात्मा का आविष्कार हो सकता है।
नरसिंह देव का एक नाम है 'भक्त वत्सल' - अर्थात भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए सदा आतुर । नृसिंह-शब्द भी नृ-से जीव और सिंह-से ईश्वर को कहकर दोनों का अभेद व्यक्त करता है।
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
भावार्थ:ॐ हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, आपकी ज्वाला एवं ताप चारों दिशाओं में फैली हुई है।हे नरसिंहदेव प्रभु, आपका चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ।
इस अनुष्टुप् का प्रथम पद ‘उग्रम्' मंत्र का प्रथम स्थान है, यह जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। मंत्र में ‘वीरम्' का द्वितीय स्थान है।'महाविष्णुम्' पद का तृतीय स्थान है। ‘ज्वलंतम्' का चतुर्थ स्थान है। ‘सर्वतोमुखम्' का पंचम स्थान है। ‘नृसिंहम्' का षष्ठ स्थान है। ‘भीषणम्' का सप्तम स्थान है। ‘ भद्रम्' का अष्टम स्थान है। ‘मृत्युमृत्युम्' का नवम स्थान है।‘नमामि' का दशम स्थान है।‘अहम्' को एकादश स्थान है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है ॥ उग्रादिपदोक्त ब्रह्म का 'अहं ' से अभेद है यह उस मन्त्र का भाव है। मंत्र से समझने में कठिनाई लगे तो प्रसिद्ध 'अहं ब्रह्मास्म' आदि महावाक्य से अनुस्मरण करे।
उक्त साधन के पश्चात् अविद्या को निवृत्त करके प्रकट होने वाला वही है जो हमेशा स्वयं नृसिंह ही था! अर्थात् ब्रह्म ही बंधानुभव कर रहा था, साधना कर रहा था, अब मुक्त है भले ही ब्रह्म होने से सदा मुक्त रहता है। कारणभूत अविद्या, जो वास्तव में है ही नहीं, उसे चित् से खाया हुआ बनाकर वीर को चाहिये कि तत्त्वस्मरण करते हुए निर्भय हो जाये ।मायाको आत्माके वश में लाकर प्रतीतिमात्रसिद्ध उस माया को निष्प्रभाव बनाकर उसे साक्षी में डुबाकर, ब्रह्मानुभवरूप सिंह से उसे खाकर रहने वाला यह वीर किसी से हार नहीं सकता।
“नमामि” शब्द से ब्रह्म से अभिन्नता का अनुचिंतन करे। ऐसा योगी कामनारहित होगा, वह कामना करे ऐसा कोई विषय संभव नहीं ।लौकिक कामनाओं से (कामिनी-कांचन में आसक्ति से ) निवृत्त हो चुकने पर साधक जब निष्काम हो जाता है, अब वह केवल आत्मा को ही चाहता रहा। फिर उसे वह आत्मा भी बोध से प्राप्त हो गया, अब और क्या चाह सकता है। तब उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता वरन् वे परमात्मा में लीन हो जाते हैं।“नमामि " नमस्कार या नमन का अर्थ हैअहंकार समाप्त करना । अहं छोड़ते ही ब्रह्म से अभेद का पता चल जाता है।
आत्मज्ञान की इच्छा उत्पन्न होने में , विषयासक्ति (कामिनी -कांचन में आसक्ति ) ही सबसे बड़ी रुकावट है । अतः इसे दूर करने को प्राथमिकता देना साधक का कार्य है। कामिनी -कांचन के प्रति अतिशय आसक्ति , शास्त्रनिषिद्ध कर्म करने को प्रेरित करती है , यह आसुरी प्रवृत्ति होने से पाप है, वह विद्या की इच्छा को ही प्रतिबद्ध (रोक) कर लेती है अतः पहले इसे ही हटाया जाये।आसक्ति, आकर्षण होता है नाम-रूप-कर्म के प्रति तथा वे ही मिथ्या हैं! सत्य की ओर हमारा आकर्षण ही नहीं होता। इन्द्रिय-मन में तादात्म्य कर हम इनके गुलाम बने हैं, इनसे अपना भेद पहचानकर इस गुलामी से मुक्ति पुरुषार्थ है।
रज और तम की वृत्तियाँ छोड़कर सात्त्विक वृत्ति का सहारा लेने वाली बुद्धि जब चिदानन्दरूप आत्मा के ध्यान में, संलग्न रहती है तब तदाकार ही हो जाती है। सगुण ईश्वर की उपासना से तमोगुण पर और निर्गुण की उपासना से रजोगुण पर विजय होती है। मंत्र वही रहता है, उसके अर्थों में ही भेद है। सर्वत्र वेदादि के मंत्रों में यह रहस्य है कि आपाततः सगुण (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) का वर्णन करते हुए भी वे लक्षणा-व्यंजना-ध्वनि आदि वृत्तियों से निर्गुण का कथन करते हैं। साधक एकाएक निर्गुणोपासना कर नहीं सकता अतः सगुणोपासना से ही प्रारम्भ करे।
ब्रह्म के सत्-चित्-आनन्द सब वस्तुओं में दीखते हैं, अतः ब्रह्म सब का आत्मा है।सुषुप्ति में जीव-चैतन्य अद्वैत ब्रह्मरूप हो जाता है और सारा जगत् अविद्या रह जाता है यह सभी का अनुभव है । सृष्टि से पहले भी ऐसे ही अद्वैत-स्थिति थी । वट के बीज जैसी उस माया ने अनेक रूप धारण कर जीव और ईश्वर का निर्माण किया। कार्य की उपाधि वाला यह जीव है तथा कारणरूप उपाधि वाला ईश्वर है। वटबीज में अतिविस्तृत वट वृक्ष की तरह ईश्वर में संसार था जो उसी में से प्रकट हो गया ; तब जिन उपाधियों का विकास हुआ , उनके संबंध से परमेश्वर ही ईश्वर एवं जीव कहलाने व समझा जाने लग गया।
जैसे एक ही वटबीज-सामान्य अपने से अभिन्न अनेक सबीज वट उत्पन्न कर उनमें स्वयं पूर्णतः रहता है। वैसे ही अविद्या शक्ति , मायामय अनेक जीवादि का आभास कराती है; क्योंकि वह अघटन -घटना पटियसी है, दुर्घट-घटना करने में समर्थ है। उस कार्य-कारण विभाग को प्राप्त अविद्या में आभास द्वारा अहंकार बाँधे रखने वाला जीव हो जाता है और आभास का साक्षी रहने वाला ईश्वर हो जाता है। साक्षी होने से ही वह किसी परिच्छिन्न में सीमित नहीं रहता। इनमें भेद उपाधिकृत ही है अतः वास्तव में ये अभिन्न ही हैं। कारण- उपाधि में सर्वसामर्थ्य है अतः ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, कार्य-उपाधि में अल्प सामर्थ्य है ; अतः जीव अल्पशक्तिमान् है। लेकिन यह भेद उपाधि पर निर्भर है, वास्तव में नहीं। जीव का सामर्थ्य अल्प ही रहता है।
ईसाई सुनाते हैं कि ईसा ने एक मुर्दे को जिन्दा कर दिया। हमने पूछा “कहाँ है वह जिन्दा हुआ व्यक्ति?” वे कहते हैं "अरे! अब कहाँ होगा! वह तो फिर मर ही गया। ' तो विचार करो, ईसा की महत्ता क्या हुई! मिनट-घण्टा-दिन- महीना-साल भले ही बदले; पर मरने वाले को न मरने वाला तो नहीं बनाया। अतः जीव स्वयं परिच्छिन्न उपाधि में खुद को बँधा मानने से परिच्छिन्न ही सामर्थ्य वाला है। ईश्वर ऐसे सीमित अभिमान वाला है नहीं अतः असीमित सामर्थ्य वाला है।
ईश्वर (जगदम्बा) के निर्णयों का अनुमोदन करने के अलावा जीव कुछ कर नहीं सकता, लेकिन यह न स्वीकारने से कर्तृत्व-भ्रम पाले हुए है। जिसके फलस्वरूप भोक्तृत्व-भ्रम अनिवार्य है।
आत्मा नित्य ही सच्चिदानन्द है। अविद्या के नशे में स्वयं को और कुछ समझने पर भी वास्तव में वही है। नशा उतारने के लिये ही " स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर- 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित और C-IN-C होने के चपरास प्राप्त नेता (नवनीदा) द्वारा 3-'H' विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण को युवाओं तक पहुँचाने के लिए ही महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है ।
1 . Hand या स्थूल शरीर की अवस्था में चेतना का विकास : पशु- मनुष्य - देवता आदि शरीर वाला चेतन व्यष्टि जीव कहा जाता है। परमेश्वर ही सब शरीरों में घुसकर माया से छिपा-सा रहता है। द्वैत मायामय होने से सत्य अद्वैत है यह समझना चाहिये।
व्यष्टि सूक्ष्म कारण शरीरों (Head-अन्तःकरण) में भी देव-पशु-मनुष्य आदि भेद नहीं है , क्योंकि जो आज देव है वही कल पशु पैदा हो सकता है। अतः पशु , मनुष्य और देवता का भेद केवल व्यष्टि स्थूल शरीरों में ही हैं। इससे विवेक-प्रयोग करने में आसानी हो जाती है।
साभार https://archive.org/stream/anubhuti-prakash-vidyaranya-swami/Anubhut Prakash /
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गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विशेष -
क्या है ईश्वर का समीकरण ? What is God Equation ?
" GOD =LOVE "
श्रीरामकृष्ण वचनामृत
(14 सितंबर,1884)
(2)
* ईश्वर दर्शन का उपाय है ~ गुरुवाक्य 'तत्त्वमसि ' (thou art That) पर विश्वास *
श्रीरामकृष्ण के कमरे में बहुत से भक्तों का समागम हुआ है । कोन्नगर के भक्तों में एक साधक अभी पहले-पहल आये हैं । उम्र पचास के ऊपर होगी । देखने से मालूम होता है कि भीतर पाण्डित्य का पूरा अभिमान है । बातचीत करते हुए वे कह रहे, ‘समुद्र-मंथन के पहले क्या चन्द्र न था ? परन्तु इसकी मीमांसा कौन करे ?’
मास्टर - (सहास्य) - देवी के एक गाने में है - जब ब्रह्माण्ड ही न था, तब मुण्डमाला तुझे कहाँ मिली होगी?
साधक - (विरक्ति से) - वह दूसरी बात है ।....
श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठ गये । कोन्नगर के एक भक्त श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - 'महाराज, ये (साधक) आपको देखने आये हैं; इन्हें कुछ पूछना है।
साधक देह और सिर ऊँचा किये बैठे हैं ।
साधक - महाराज, उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - गुरु की बातों पर विश्वास करना । उनके आदेश के अनुसार चलने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं । जैसे डोर अगर ठिकाने से लगी हुई हो तो उसे पकड़कर चलने से पते पर पहुँचा जा सकता है ।
साधक - क्या उनके दर्शन होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - वे विषय-बुद्धि के रहते नहीं मिलते । कामिनी और कांचन का लेशमात्र रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते । वे शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि से गोचर होते हैं । वह मन चाहिए जिसमें आसक्ति का लेशमात्र न हो । शुद्ध मन, शुद्ध-बुद्धि और शुद्ध आत्मा, ये एक ही वस्तु हैं ।
साधक - परन्तु शास्त्र में है - 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' वे मन और वाणी से परे हैं ।
*बिना साधना किये (3H विकास के 5 अभ्यास किये बिना ) शास्त्रों की धारणा नहीं होती *
श्रीरामकृष्ण - रखो इसे । साधना किये बिना शास्त्रों का अर्थ समझ में नहीं आता । 'भंग-भंग' चिल्लाने से क्या होता है ? पण्डित जितने हैं, सर्राटे के साथ श्लोकों की आवृत्ति करते हैं, परन्तु इससे होता क्या है ? भंग जाहे जितनी देह में लगा ली जाय, पर इससे नशा नहीं होता, नशा लाने के लिए तो भंग पीनी ही चाहिए ।
"दूध में मक्खन है, दूध में मक्खन है, इस तरह चिल्लाते रहने से क्या होता है ? दूध जमाओ, दही बनाओ, मथो, तब होगा ।"
साधक - मक्खन निकालना , ये सब तो शास्त्र की ही बातें हैं ।
श्रीरामकृष्ण - शास्त्र की बात कहने या सुनने से क्या होता है ? - उसकी धारणा होनी चाहिए । पंचाग में लिखा हैं - वर्षा पूरी होगी, परंतु पंचाग दबाओ तो कही बूंद भर भी पानी नहीं निकलता ।
साधक - मक्खन निकालना बतलाते हैं - आपने निकाला है मक्खन ?
*मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता : केमन घी , ना जेमन घी *
श्रीरामकृष्ण - मैंने क्या किया है और क्या नहीं किया यह बात रहने दो । और ये बातें समझाना बहुत मुश्किल है । कोई अगर पूछे कि घी का स्वाद कैसा है, तो कहना पड़ता है, जैसा है - वैसा ही है ।
"यह सब समझना हो तो साधुओं का संग करना चाहिए । कौनसी नाड़ी कफ की है, कौनसी पित्त की और कौन वायु की, इसके जानने की अगर जरूरत हो तो सदा वैद्य के साथ रहना चाहिए ।"
साधक - दूसरे के साथ रहने में कोई कोई आपत्ति करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - वह ज्ञान के बाद – ईश्वर-प्राप्ति के बाद की अवस्था है । पहले तो सत्संग चाहिए ही न ?
साधक चुप हैं ।
साधक - (कुछ देर बाद, झुंझलाकर) - आपने उन्हें जाना? – कहिये – प्रत्यक्ष रूप से हो या अनुभव से । इच्छा हो और आप कह सकें तो कहिये, नहीं तो न सही ।
श्रीरामकृष्ण - (मुस्कराते हुए) - क्या कहूँ, आभास (hint) मात्र कहा जा सकता है ।
साधक - वही कहिये ।.....
नरेन्द्र गायेंगे । नरेन्द्र कहते हैं, पखावज अभी तक नहीं लाया गया ।...नरेन्द्र गा रहे हैं -
जाबे कि हे दिन आमार विफले चलिये,
आछि नाथ, दिवानिशि आशापथ निरखिये।
तुमि त्रिभुवन नाथ, आमि भिखारि अनाथ,
केमोन बोलिबो तोमाय ‘एशो हे मम हृदय। ’
O Lord, must all my days pass by so utterly in vain?
Down the path of hope I gaze with longing, day and night. . . .
गाना सुनते हुए साधक ध्यानमग्न हो गये । श्रीरामकृष्ण के तख्त के उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । दिन के तीन या चार बजे का समय होगा - पश्चिम की ओर से धूप आकर उन पर पड़ रही थी । श्रीरामकृष्ण ने फौरन एक छाता लेकर अपने पश्चिम और रखा, जिससे साधक को धूप न लगे । नरेन्द्र गा रहे हैं –
मलिन पंकिल मने केमोने डाकिबो तोमाय।
पारे कि तृण पशिते ज्वलंत अनल यथाय।।
तुमि पुण्येर आधार, ज्वलंत अनलसम।
आमि पापी तृणसम, केमोने पूजिबो तोमाय।।
शुनि तव नामेर गुणे, तरे महापापी जने।
लोइते पवित्र नाम, कांपे हे मम हृदय।।
अभ्यस्त पापेर सेवाय, जीवन चलिया जाय।
केमोने करिबो आमि पवित्र पथ आश्रय।।
ए पातकी नराधमे, तारो जदि दयाल नामे।
बल करे , केशे धरे, दाओ चरणे आश्रय।।
[मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता : यदि दूध से मक्खन निकालने की पद्धति सीखनी हो तो " C-IN-C=प्रेमस्वरूप नवनीदा जैसे नेता " का संग करना चाहिए, अर्थात छः दिनों का गुरुगृहवास-Be and Make ' युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेना चाहिए। ]
(3)
[नरेन्द्रादि को शिक्षा]
*वेद-वेदान्त में केवल आभास (hint) है *
नरेन्द्र गा रहे हैं –
सुंदर तोमार नाम दीन-शरण हे।
बहिछे अमृतधार, जुड़ाय श्रवण ओ प्राण-रमण हे॥
एक तव नाम-धन, अमृत-भवन हे।
अमर होय से'जन, जे करे कीर्तन हे।।
गभीर विषादराशि निमेषे बिनाशे, जखोनि तव नामसूधा श्रवणे परशे।
हृदय मधूमय तव गाने, होय हे हृदयनाथ चिदानन्दघन हे॥
“है दीनों के शरण ! तुम्हारा नाम बड़ा ही मधुर है । उसमें अमृत की धारा बह रही है । हे प्राणों में रमण करनेवाले । उससे मेरे श्रवणेन्द्रिय शीतल हो जाते हैं । जब कभी तुम्हारे नाम को सुधा श्रवणों का स्पर्श करती है तो समस्त विषाद-राशि का एक क्षण में नाश हो जाता है । हे हृदय के स्वामी – चिदानन्दघन ! तुम्हारे नामों को गाते हुए हृदय अमृतमय हो जाता है ।”
[Sweet is Thy name, O Refuge of the humble! It falls like sweetest nectar on our ears, And comforts us, Beloved of our souls!The priceless treasure of Thy name alone,Is the abode of Immortality,And he who chants Thy name becomes immortal. Falling upon our ears, Thy holy name,Instantly slays the anguish of our hearts,Thou Soul of our souls, and fills our hearts with bliss! ]
श्रीरामकृष्ण की भाव का आवेश अब भी है । उसी अवस्था में कह रहे हैं - "यह भला कैसी बात है माँ ! मक्खन निकालकर मुँह के सामने रखो । न तालाब में चारा (मछलियों का) छोडेगा - न बंसी लेकर बैठा रहेगा - बस, मछली पकड़कर उसके हाथ में रख दो ! कैसा उत्पात है ! माँ ! तर्क-विचार अब न सुनूँगा, कैसा उत्पात है ! अब मैं फटकार दूँगा ।
"वे वेद-विधि के पार हैं । - क्या वेद, वेदान्त और शास्त्रों को पढ़कर कोई उन्हें प्राप्त कर सकता है? (नरेन्द्र से) तू समझा ? वेदों में आभास (hint) मात्र है ।"
{After a long time the Master regained partial consciousness of the world and sat down on the mat. Narendra finished his singing, and the tanpura was put back in its place. The Master was still in a spiritual mood and said: "Mother, tell me what this is. They want someone to extract the butter for them and hold it to their mouths. They won't throw the spiced bait into the lake. They won't even hold the fishing-rod. Someone must catch the fish and put it into their hands! How troublesome! Mother, I won't listen to any more argument. The rogues force it on me. What a bother! I shall shake it off. God is beyond the Vedas and their injunctions. Can one realize Him by studying the scriptures, the Vedas, and the Vedanta? (To Narendra) Do you understand this? The Vedas give only a hint."}
नरेन्द्र ने फिर स्वयं तानपूरा ले आने के लिए कहा । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, मैं गाऊँगा । उन्होंने कई गाने गाये । अब भी भावावेश है, श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं ।
उन्होंने कई गाने गाये। फिर वे गीत के एक चरण की आवृत्ति करते हुए कह रहे हैं - (आमाय) दे मा पागल करे, आर काज नाई मा ज्ञान विचारे। (O Mother, make me mad with Thy love! What need have I of knowledge or reason? . . .) ज्ञान और तर्क के द्वारा या शास्त्रों का पाठ करके कोई ईश्वर की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकता ।” वे विनयपूर्वक गानेवाले से कह रहे हैं - ' भाई, आनन्दमयी का एक गाना गाइये ।’
गवैये - महाराज, क्षमा कीजियेगा ।
श्रीरामकृष्ण गवैये को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कह रह हैं - "नहीं भाई, इसके लिए आग्रह कर सकता हूँ ।" इतना कहकर गोविन्द अधिकारी की यात्रा (नाटक) के दल में गायी जानेवाली वृन्दा (गोपी-सखी) की उक्ति को गाते हुए कह रहे हैं -
" राई बोलिले बोलिते पारे ! (कृष्णेर जोन्ने जेगे आछे)
(सारा रात जेगे आछे ! ) (मान कोरिले करिते पारे। )
'राधिका अगर कृष्ण को कुछ कहना चाहे तो कह सकती है, क्योंकि कृष्ण के लिए तमाम रात जगकर उन्होंने भोर कर दिया ।"
{Radha has every right to say it; She has kept awake for Krishna. She has stayed awake all night, And she has every right to be piqued.}