ईश्वर के अवतारों या पैगम्बरों की जीवनी का अध्यन
करते समय -
'उनके साधक भाव पर चर्चा करने की आवश्यकता। '
[NEED FOR THE STUDY OF THE LIFE OF A DIVINE INCARNATION AS A SADHAKA : Sri Ramakrishna The Great Master: श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग by Swami Saradananda (Author), Swami Jagadananda (Translator-1952) के आधार पर [http://web.eecs.umich.edu/~lahiri/LilaPrasanga/http://www.ramakrishnavivekananda.info/sriramakrishna_thegreatmaster/srkgrtmaster_file] : महामण्डल के संस्थापक सचिव, नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय [15. 8 . 1931 - 26.9. 2016] की आत्मकथा (MEMORABILIA) 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' एवं अरुणाभ सेनगुप्ता द्वारा लिखित तथा महामण्डल द्वारा नवम्बर 2016 में प्रकाशित जीवनी - ' Sri Nabaniharan Mukhopadhyay ---A SHORT BIOGRAPHY' के अध्यन की अनिवार्यता :
नवनी दा के माध्यम से आविर्भूत होने वाले युवा-मार्गदर्शक संगठन 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के आविर्भूत होने के समय की घटनाओं की विस्तार पूर्वक चर्चा करके हमलोग इस बात को समझने की चेष्टा करेंगे कि 'महामण्डल' गठन के प्रारम्भ से ही इस संगठन के पीछे मानव और देव दोनों भाव ~ 'Be and Make' एक साथ विद्यमान रहते हैं। महामण्डल के निष्ठवान कर्मियों के समक्ष (जिन्होंने पूज्य नवनी दा को बहुत निकट से देखने का सौभाग्य प्राप्त किया है) यह कहना अनावश्यक है कि यदि देवमानव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के साथ रहने का सौभाग्य हमें प्राप्त न हुआ होता, तो ~ "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत आश्रम, मायावती 'मनुष्य बनो और बनाओ ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" (Vivekananda -Captain Sevier Be and Make Vedanta Leadership training tradition) में मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने में समर्थ महामण्डल को तथा उसके संस्थापक सचिव को एक अवतार के रूप में देख पाना हमारे लिए कभी सम्भव नहीं था।
एक मुमुक्षु -साधक के रूप में अवतार पुरुषों (नेताओं, पूज्य नवनीदा जैसे जीवन्मुक्त आचार्यों) की जीवनी (Biography) आत्मकथा (autobiography), अथवा आत्मसंस्मरण (मेमोरबिलिया/ Self-memorabilia) के अध्यन की अनिवार्यता : इसके मूल कारणों पर प्रकाश डालते हुए वर्तमान युग के प्रथम युवा मार्गदर्शक नेता 'श्रीरामकृष्ण परमहंस देव' की जीवनी " श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग " के लेखक, स्वामी सारदानन्द जी महाराज ने निम्नलिखित मौलिक बातों का उल्लेख किया है:
1.आचार्यों के साधकभाव (मुमुक्षु अवस्था) का विवरण लिपिबद्ध रूप से उपलब्ध नहीं होता है।[Lack of records concerning divine incarnations as aspriants: (আচার্যদিগের সাধকভাব লিপিবদ্ধ পাওয়া যায় না|]
संसार के आध्यात्मिक इतिहास (अवतारों या लोकगुरूओं की जीवनी, आत्मकथा या आत्मसंस्मरण) का अध्यन करने से पता चलता है , कि भगवान बुद्ध तथा श्रीचैतन्यदेव को छोड़कर अन्यान्य अवतार-पुरुषों के जीवन में साधकभाव का विवरण (Incarnations of God as aspirants), विस्तृत रूप से लिपिबद्ध नहीं है। अर्थात अवतार/आचार्य भी जिस समय एक साधारण मनुष्य की तरह जब " मुमुक्षु अवस्था" में रहे होंगे; उस अवस्था उनके संघर्ष -साधना का विस्तृत विवरण लिपिबद्ध नहीं है। इसलिए हम यह नहीं जान पाते कि अपने जीवन में जब उन्होंने सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) के साक्षात्कार का निश्चय किया होगा, उस समय क्या हमारी ही तरह, उनको भी कभी आशा-निराशा, आनन्द -व्याकुलता, और भय-विस्मय के तरंगों में बहते हुए कभी उल्लसित तो कभी विषादग्रस्त होना पड़ा होगा ? उनमें कैसा अदम्य-उत्साह और साहस रहा होगा, जिसके बल पर वे हर प्रकार की परिस्थितियों से जूझते हुए भी अपने गंतव्य लक्ष्य पर नजरें गड़ाए रहने में कैसे सफल होते चले गए ?
ईसा मसीह के महान तथा उदार जीवन में उनकी 30 वर्ष की आयु से पूर्व काल की घटनाओं में केवल एक-दो का ही उल्लेख मिलता है। आचार्य शंकर के जीवन का भी केवल उत्तरार्ध ही लिपिबद्ध हुआ है, पूर्वार्ध को जानने का कोई उपाय नहीं है। अन्य आचार्यों की जीवनी में भी यही बात दृष्टिगोचर होती है। ऐसा क्यों हुआ? इसके कारण का पता लगाना कठिन है। सम्भवतः भक्तों की भक्ति की प्रबलता के कारण ही इन विषयों को लिपिबद्ध नहीं किया गया है।
दूसरों के द्वारा लिखित अवतार पुरुषों (शिक्षकों/नेता) की जीवनी (Biography) में, उनकी साधक-अवस्था ('टेनियावस्था' 😎 apprentice- शिक्षार्थी, सत्यार्थी की अवस्था) का विस्तृत और विश्वसनीय विवरण प्राप्त नहीं होता। अथवा उनके जीवन के उत्तरार्ध में (भ्रममुक्त होने के बाद) अनुष्ठित आश्चर्यजनक क्रिया-कलापों के साथ उनकी बाल्यकालीन शिक्षा, उद्यम तथा कार्यों का कोई स्वाभाविक पूर्वापर कार्य-कारण सम्बन्ध (nexus of cause and effect) भी दिखायी नहीं देता। दृष्टान्त स्वरूप कहा जा सकता है कि वृन्दावन के ग्वालबालों के सखा माखनचोर श्रीकृष्ण से, बाद में धर्म-संस्थापक और द्वारकानाथश्रीकृष्ण (the Lord of Dwaraka) के रूप में कैसे परिणत हुए? यह अब स्पष्ट रूप से जानने का कोई साधन नहीं है।
महामण्डल के प्रत्येक भावी कर्मी (शिक्षक/नेता) के लिए, महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की जीवनी -" जीवननदी के हर मोड़ पर " पुस्तक का अध्यन करना आवश्यक क्यों है ? युवा महामण्डल जैसे युवा-मार्गदर्शक संगठन को क्यों आविर्भूत होना पड़ता है ? जब हम किसी 'अवतारी पुरुष' = Incarnations , मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं,जीवनमुक्त शिक्षकों -यथा श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्धदेव, प्रभु ईसामसीह, पैगम्बर मोहम्मद, गुरु नानक, संत कबीर, चैतन्य महाप्रभु, श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द......अथवा आधुनिक युग के "अवतारी युवा-मार्गर्दर्शक संगठन" ~ 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' तथा उसके संस्थापक सचिव 'नवनी दा' की जीवनी - के संग-संग 'महामण्डल के भी आविर्भूत होने की सम्पूर्ण कथा - " जीवन नदी के हर मोड़ पर" पुस्तक का अध्यन करें, तो 'नर और नारायण' इन दोनों (देव और मानव) दृष्टिकोण को सामने रखकर, महामण्डल के आविर्भूत होने की विवेचना करना आवश्यक है ! क्योंकि 1967 में आविर्भूत होने वाले महामण्डल जैसे किसी अवतारी संगठन में तथा उसके संस्थापक सचिव में, प्रारम्भ से ही ( गुरुभाव पूर्वार्ध से ही the two natures ~ divine and human) नर-नारायण इन दोनों भावों के विद्यमान रहने के कारण; वे साधनकाल (1967 -2016) में ही सिद्ध (perfect या पूर्ण) जैसे प्रतीत होते हैं।
अतः दूसरों के द्वारा लिखित कुछ लोकशिक्षकों/ अवतार पुरुषों/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की जीवनी ( जैसे ईसा और गौतमबुद्ध की जीवनी, स्वामी सारदानन्द द्वारा लिखित श्री रामकृष्णदेव की जीवनी - लीलाप्रसंग), महात्मा गाँधी द्वारा लिखित आत्मकथा, और हमारे समकालीन महामण्डल के आचार्य नवनीदा की memorabilia- आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक -" जीवन नदी के हर मोड़ पर' का तुलनात्मक अध्यन करके उनकी जीवन के पूर्वार्ध को समझना, भावी शिक्षकों (would be leaders) के लिए अधिक उपयोगी होगा।
ईसा मसीह की जीवनी और उपदेश बाइबिल के ‘नया नियम’ (न्यू टेस्टमेंट) (ख़ास तौर पर चार शुभ-सन्देशों: मत्ती, लूका, युहन्ना, मर्कुस पौलुस का पत्रिया चिट्ठियां ) में दिये गये हैं उन्हें इस्लामी परम्परा में भी एक महत्वपूर्ण पैग़म्बर माना गया है, तथा क़ुरान में उनका ज़िक्र है। किन्तु ईसा ने 13 साल से 29 साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा माना जाता है कि, अपनी इस उम्र के बीच ईसा मसीह भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा येरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष। रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्रायडे' कहते हैं। और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है।
उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए। > कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ सम्प्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया।> कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।
उसी प्रकार महात्मा गांधी बीसवीं सदी के सबसे अधिक प्रभावशाली राजनितिक व्यक्ति हैं, जिनकी अप्रत्यक्ष उपस्थिति उनकी मृत्यु के 70 वर्ष बाद भी पूरे देश पर देखी जा सकती है। उन्होंने स्वाधीन भारत की कल्पना की और उसके लिए कठिन संघर्ष किया। ‘सत्य के प्रयोग’ महात्मा गांधी की आत्मकथा है। यह आत्मकथा उन्होंने मूल रूप से गुजराती में लिखी थी। हिंदी में इसका अनुवाद 1925 में हरिभाऊ उपाध्याय ने किया था। इस क्रम में गांधीजी ने भी साधना की आरम्भिक अवस्था में 'आहार,निद्रा,भय-मैथुन' वाले जीवन को ही पहले सत्य समझा था।और उसके साथ प्रयोग करने के क्रम में मांसाहार, बीड़ी पीने, चोरी करने, विषयासक्त रहने जैसी कई आरंभिक भूलें भी उनसे हुईं। और बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए विदेश जाने पर भी अनेक भ्रमों-आकर्षणों ने उन्हें जब-तब घेरा। 'महात्मा' बन जाने के बाद भी वे अपनी विषयासक्ति की जाँच करते रहे। लेकिन अपने पारिवारिक संस्कारों, माता-पिता के प्रति अनन्य भक्ति, सत्य, अहिंसा तथा ईश्वर को साध्य बनाने के कारण गांधीजी उन संकटों से उबरते भी रहे।
बुद्ध पूर्णिमा 18 मई 2019 :'वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है। कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ बुद्धत्व की खोज में भटक रहे थे। तब वे बहुत दिनों तक कठोर साधना में लगे रहे, फिर भी उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो रही थी। उनकी हिम्मत टूटने लगी। एकबारगी तो उन्हें लगा कि सत्य और ज्ञान की खोज में उनका गृह त्याग करना व्यर्थ गया। वे निराश होकर ये सोच रहे थे कि मैंने अभी तक कुछ प्राप्त नहीं किया है, क्या आगे कर पाउँगा ? उनके मन में यह विचार उठने लगा कि क्यों न वापस राजमहल चला जाय ?अन्त में वे कपिलवस्तु की ओर लौट पड़े। उस समय में एक नन्ही गिलहरी कैसे बनी भगवान गौतम बुद्ध की प्रेरणास्त्रोत ?
चलते-चलते उन्हें बड़े जोर की प्यास लगी। सामने एक झील थी। वे उसके किनारे गए। जल पीया विश्राम किया फिर मन कुछ ठंडा हुआ। तभी उन्होंने देखा कि - एक नन्ही गिलहरी बार-बार पानी के पास जाती, अपनी पूँछ उसमें डुबोती और उसे निकाल कर पानी बाहर रेत पर झटक देती। उसे बार बार ऐसे करते देख सिद्धार्थ सोच में पड़ गए कि यह नन्ही गिलहरी क्या कर रही है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह झील को सुखाने का प्रयास कर रही है ? पर इससे तो यह कार्य कभी पूरा नहीं हो पायेगा। तभी उन्हें लगा कि गिलहरी उनसे कहना चाहती है कि मन में जिस कार्य को करने का एक बार निश्चय कर लिया जाय, और उस पर अटल रहकर अध्यवसाय करते रहने से वह लक्ष्य एक दिन प्राप्त हो ही जाता है। बस, हमें अपना काम (कर्तव्य या धर्म) करते रहना चाहिये। "
तभी सिद्धार्थ की तंद्रा भंग हो गयी। उन्हें अपने मन को वशीभूत करने में अपनी निर्बलता का अनुभव हुआ। उन्होंने सोचा मैं तो मन का गुलाम नहीं हूँ, इसका प्रभु हूँ। मैं अवश्य अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकता हूँ। वे वापस लौटे और साधना (तप) में लग गए। निरंतर प्रयास से अन्ततः उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त कर लिया। ( मनुष्य जीवन के लक्ष्य को - बुद्धत्व, चैतन्य की अवस्था, भ्रममुक्त अवस्था -चित्तवृत्ति निरोध या निर्विकल्प समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लिया।) इस जीवन-वृतान्त से यही शिक्षा मिलती है कि यदि हम प्रयत्न करना ना छोड़े तो एक न एक दिन लक्ष्य की प्राप्ति हो ही जाती है। जिस तरह महात्मा बुद्ध ने प्रयत्न किया और बुद्धत्व को प्राप्त किया, ठीक उसी प्रकार कोई भी साधारण मनुष्य 'परम् ज्ञान' को प्राप्त कर सकता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर 'बुद्धत्व' के बीज मौजूद हैं। निरंतर कर्म-पथ (निष्काम कर्म) पर चलते रहने, और लालच (कामिनी-कांचन -कीर्ति के लालच) को कम करते हुए लगातार 'अभ्यास ' करते रहने से हम भी अपने भीतर बुद्धत्व (ब्रह्मत्व) को जगा सकते हैं। जिस प्रकार बुद्ध जैसे अवतारी पुरुष के जीवन चरित (Biography) का अध्यन करने से हमें शिक्षा प्राप्त होती है, उसी प्रकार किसी छोटे से जीव का सामान्य कर्ममय-जीवन को देखने से भी हमें 'यथार्थ मनुष्य' बनने की शिक्षा प्राप्त हो सकती है। किन्तु विडंबना यह है कि कुछ राजनेताओं के अतिरिक्त अधिकांश आध्यात्मिक महापुरुषों (अवतारों-पैगम्बरों) के साधक भाव (मुमुक्षु अवस्था) का इतिहास उनकी आत्मकथा (autobiography) के रूप में उपलब्ध नहीं होता! जिसके कारण हम महापुरुषों,अवतारों, पैगम्बरों की मुमुक्षु अवस्था में उनके द्वारा किये गये संघर्षों से अनभिज्ञ (unaware या अनजान) ही रह जाते हैं।
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'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के संस्थापक सचिव, हमारे समकालीन आचार्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनीदा) की आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक (memorabilia) 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' हमारे लिए उपलब्ध है। अतः प्रत्येक महामण्डल कर्मी, 'Would be Leader' के लिए उनकी स्वलिखित जीवनी -'जीवन नदी की हर मोड़ पर ' का अध्यन करना अनिवार्य है। किन्तु अवतार, नेता, पैगंबर या जिवनमुक्त शिक्षक के विषय में अपनी धारणा को स्वष्ट करने लिए उनके द्वारा लिखित पुस्तिका -"नेतृत्व की अवधारणा तथा नेता के गुण ! " (Leadership : its Concept and Quality) का अध्यन करना आवश्यक है:
नेता कौन हैं ? किस प्रकार के मनुष्य को 'नेता' की संज्ञा दी जा सकती है ? वर्तमान युग में 'नेता' शब्द इतना आम बन चुका है कि इस शब्द का प्रयोग हम बिना कुछ सोंच-विचार किये, जिस-तिस व्यक्ति के लिये कर देते हैं, फलस्वरूप यह शब्द गाली जैसा बन गया है। इसीलिए बहुत से युवाओं को नेता शब्द से ही चिढ़ हो गया है। वे 'नेता' बनने के विचार को, इसीलिए त्याग देते हैं कि कहीं कोई व्यक्ति उसके चरित्र को लेकर भी कहीं भ्रम में तो नहीं पड़ जाएगा ? क्योंकि इन दिनों हमारे समाज में केवल राजनीती के क्षेत्र के वंशवादी नेताओं को ही ' नेता ' समझा जाता हैं। (1920 में कॉंग्रेस अध्यक्ष मोती नेहरू, 2020 राहुल गाँधी ?)
" क्योंकि वर्तमान समय में ' नेता ' (गुरु) शब्द इतना बदनाम हो गया है कि इसे सुनने मात्र से ही हमारे भीतर एलर्जी उत्पन्न हो जाती है। किन्तु इसी कारण मानवजाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेता को भी अनावश्यक मान कर, हमलोग बिना किसी प्रकाश-स्तम्भ के आलोक का अनुसरण किये, स्वयं अज्ञान-अविद्या के अन्धकार में रहते हुए, परम सत्य (Absolute Truth) को आजीवन अंधों की तरह खोजते (grope,टटोलते) नहीं रह सकते। मानव जाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता प्राचीन युग में भी थे और आज भी अवश्य रहने चाहिये। अतः सर्वप्रथम हमें 'नेता' शब्द को केवल गलत अर्थों में न लेकर इस शब्द के यथार्थ मर्म को समझने की चेष्टा करनी चाहिये।
'नेता' जैसे महान शब्द से जुड़े हुए भ्रमात्मक संकेतार्थ (Delusive connotation ~ जैसे डैकतों गिरोह का सरदार, नेतागिरी,आशाराम, धर्मपाल आदि की गुरुगिरी) को अपने मन से निकाल बाहर करना होगा। तथा नेता शब्द के यथातथ्य लक्ष्यार्थ (Precise connotation-आकाशदीप जैसे महान शिक्षक/नेता) जैसे श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध देव, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद, श्री चैतन्य, श्री रामकृष्ण परमहंस,' युगनायक स्वामी विवेकानन्द ' तथा उन्ही के तुल्य कई अन्य महापुरुष जो वास्तव में एक ऐसे 'विशाल प्रकाश -स्तम्भ (टॉवर) सरीखे नेता थे जो उधर से गुजरने वाले जहाजों को शॉल्स (उथले जमीन shoals) की चेतावनी देता है। (Light -House, a tower with a light that gives warning of shoals to passing ships, या beacon) ]
आओ, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि नेतृत्व किसे कहते हैं- तथा एक 'नेता' की आवश्यकता हमें कब और कहाँ महसूस होती है ? तथा सच्चे नेता होते कैसे हैं ? हमलोग यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक ही उपादान 'से निर्मित हुए हैं। हमलोगों की पुरातन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, या हमारे अपने प्राचीन ऋषि-मुनियों के तत्त्व-ज्ञान के अनुसार; सृष्टि का मूल उपादान केवल एक ही है, और उसी मूल उपादान "महत" तत्व (आकाश और प्राण) से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि प्रारंभ होने से पूर्व इसके उपादान तत्त्व सन्तुलन में थे तथा बिल्कुल साम्यावस्था थी। उस ' अवस्था ' में - जब ' एकमेवाद्वितीय ' (ब्रह्म) को छोड़ कर दूसरी कोई वस्तु थी ही नहीं, तब नैसर्गिक रूप से सभी एक समान थे। किन्तु जैसे ही उस आद्य सन्तुलन ( महत तत्व या चित्त की साम्यावस्था) में विक्षोभ उत्पन्न हुआ, कि सृष्टि का विस्तार होने लगा।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -
" जात-पाँत की ही बात लीजिये। संस्कृत में ' जाति ' शब्द का अर्थ है-वर्ग या श्रेणी -विशेष। यह (जाति-गत असमानताएँ ) सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात जाति का अर्थ ही सृष्टि है। एको अहम् बहुस्याम - ' मैं एक हूँ -अनेक हो जाऊं ', विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ | अतः यदि यह विविधता समाप्त हो जाय, तो सृष्टि का ही लोप हो जायगा।...हमारा जातीय प्रासाद (वर्णाश्रम-धर्म) अभी अधुरा ही है, इसीलिये अभी सब कुछ भद्दा दिख रहा है। सदियों के अत्याचार के कारण हमें प्रासाद- निर्माण का कार्य छोड़ देना पड़ा था। अब निर्माण- कार्य पूरा कर लीजिये, बस, सब कुछ अपनी अपनी जगह पर सजा हुआ सुन्दर दिखायी देगा। यही मेरी समस्त कार्य- योजना है। " ( ३ : ३६६-६८)
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किंधाकांड में लिखा है कि," क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।" इस बात को विशेषरूप से इस लिए कहा गया है कि आपको किसी भी बात का अहंकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह नश्वर शरीर का अंतिम प्रारब्ध तो इसका पंच तत्व में विलीन होना है। तथापि 'पंचतत्व और त्रिगुण ' के आनुपातिक सम्मिश्रण में विभिन्नता रहने के कारण 'अहं ' चला ही आता है, और गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से सभी मनुष्य बिल्कुल एक समान या एक दूसरे की बिल्कुल कार्बन कॉपी कभी नहीं हो सकते। [किसी में भक्त का अहं रहता है, किसी में विद्या का अहं रहता है। किसी में देह-सुख भोगने का अहं होता है। ] फिर भी हम सभी के मन में हर दृष्टि से एक समान बन जाने की इच्छा अवश्य विद्यमान रहती है। परन्तु यह भी एक सच्चाई है कि नैसर्गिक रूप से सभी मनुष्य हर दृष्टि बिल्कुल एक समान कभी नहीं हो सकते। इस सृष्टि में विविधताएँ रहती ही हैं, क्योंकि विभिन्नता ही सृष्टि का आधार है। सृष्ट जगत का तात्पर्य ही है विविधताओं से परिपूर्ण जगत; विविधताओं से रहित कोई भी सृजन हो ही नहीं सकता। (एक बार दादा ने paper pin कारखाने में जाकर देखा था, एक ही मशीन से बना कोई भी पिन बिल्कुल एक जैसा नहीं था। सज्जन 5 पाण्डव में अलग अलग गुण थे, दुष्ट-दुर्जन कौरव में दुशाशन-दुर्योधन सारे एक जैसे दुष्टता के कार्बन कॉपी थे।) इसीलिये सृष्टि विस्तार की किसी भी अवस्था में, विभिन्न मनुष्यों में गुण वैशिष्ट्य के अनुसार असमानता का होना अनिवार्य है।
कुशल नेतृत्व की नयी परम्परा का प्रारंभ : (Genesis of efficient leadership) : 'चरैवेति चरैवेति' करते हुए भारत के कन्याकुमारी से प्रारम्भ कर सम्पूर्ण संसार में इस आध्यात्मिक साम्यावस्था को स्थापित करना भारत का भाग्य है। और इसके लिए हमें हजारों की संख्या में 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में भावी शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करना होगा। किन्तु बहुत गहराई से चिन्तन कर के (विवेक-प्रयोग करके) सबसे पहले हमें 'कुशल नेतृत्व' के कार्यारम्भ-बिन्दु को ढूँढ़ निकलना होगा। अर्थात हमें यह निर्धारित करना होगा कि समाज के किस स्तर पर रहने वाले मनुष्यों को,सबसे पहले 'नेता' के रूप में उन्नत करने में, हमें अपनी त्रिविध शक्तियों को नियोजित करना उचित होगा ?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है,मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। सब प्रकार के प्राणियों से - यहाँ तक कि देवताओं (फरिश्तों) से भी मनुष्य ही श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। देवताओं (फरिश्तों) को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। एक मात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देव-दूतों (फरिश्तों) और अन्य समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी फ़रिश्तों से मनुष्य के सामने सिर को झुकाने के लिए, उसे प्रणाम और अभिनन्दन करने का आदेश दिया। इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतना बन गया।
इस रूपक (allegory) के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। ईश्वर की निम्नतर सृष्टि -पशु आदि मन्दबुद्धि के हैं, क्योंकि वे तमोगुण से ही निर्मित हुए हैं। पशु (beast -जैसे क्रूर और अत्यधिक भोगी व्यक्ति आदि) किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। इसी तरह मानव-समाज में भी अत्यधिक-धन अथवा अत्यधिक-दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान बाधाएँ हैं। संसार में जितने महात्मा (अवतार, नेता, जीवनमुक्त लोकशिक्षक) पैदा हुए हैं , सभी मध्यमवर्ग के लोगों से हुए हैं। मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं। " 1 / 53-54
" यह बात जगत-प्रसिद्द है कि गौतमबुद्ध भी मध्यममार्गी थे। मृगदाव में उन्होंने जो प्रथम उपदेश दिया, उसमें उन्होंने शिष्यों से कहा कि दोनों छोरों को छोड़कर 'बीच से चलो'। विषय-भोगों में लिप्त होना निंद्य है, किन्तु उससे भी अधिक निंद्य है कृच्छ साधनों (हठ-योग आदि) के द्वारा शरीर को सूखा डालना। [आजीवन 'प्रवृत्ति मार्ग 'में लिप्त रहना निंद्य है, किन्तु उससे भी अधिक निंद्य है 'निवृत्ति मार्ग का अधिकारी पुरुष' बने बिना कृच्छ साधनों (हठयोग आदि) के द्वारा शरीर को सूखा डालना। इसीलिए हमारे हमारे शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने में कोई बाधा नहीं देते !] गृहस्थ आश्रम में रहते हुए निष्काम-कर्म निभाने की जो परम्परा राजा जनक ने चलायी थी, तथा गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस निष्काम कर्म और निष्काम-प्रेम का उपदेश दिया, बुद्ध का मध्यममार्ग भी बहुत हद तक उसी सनातन हिन्दू धर्म की व्याख्या थी।" ~ रामधारी सिंह दिनकर
इस विषय पर चिन्तन करने से हम लोग भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि - अभिज्ञता, सहानुभूति, और विवेक की दृष्टि से बिल्कुल न्यूनतम स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की अपेक्षा, जो लोग सामान्यतः थोड़े उच्चतर स्तर पर पहुँच चुके हैं - वैसे लोग ही समाज के उन लोगों को ऊपर उठा सकते हैं जो बुद्धि, समझदारी, योग्यता, प्रतिभा, गुणों आदि की दृष्टि से उनकी अपेक्षा अभी न्यूनतम सोपान पर ही खड़े हैं। और ठीक इसी स्थल पर नेतृत्व कौशल का आरम्भ-बिन्दु (Genesis of efficient leadership) स्वतः उभर कर सामने आ जाती है। इसी कारण हमलोगों को 'नेता' शब्द के सच्चे लक्ष्यार्थ (precise connotation) के महत्व को बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझने की चेष्टा करनी चाहिये। धैर्यपूर्वक यह देखने का प्रयास करना चाहिये कि किस व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता का आरम्भ-बिन्दु स्वतः उभर कर सामने आ चुका है ?हमलोग आसानी से यह समझ सकते हैं कि, असमानताओं से परिपूर्ण इस जगत में वैसे कुछ व्यक्ति जो नैसर्गिक रूप से विशेष गुणवान हैं, जो प्रतिभा और योग्यता की दृष्टि से समाज में न्यूनतर स्तर पर खड़े मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान हैं; वे चाह लें तो जो अभी बुद्धि, समझ, क्षमता की दृष्टि से उनकी अपेक्षा निचले सोपान पर खड़े हैं, अपने इन विशिष्ट गुणों का प्रयोग कर उन्हें भी उच्चतर स्तर तक उठाने का प्रयास कर सकते हैं। उच्चतर प्रतिभा संपन्न मनुष्य सदैव न्यूनतर सोपानों पर खड़े मनुष्यों को, ऊपर उठने में सहायता दे कर उन्हें भी प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करा दे सकते हैं। और नेतृत्व-कौशल की अवधारणा का यही सार तत्त्व है, सच्चे नेतृत्व का उदगम स्थान या आरम्भ बिन्दु यही है।
हमलोग भी जब " नेता" शब्द से जुड़े काल्पनिक लक्ष्यार्थ (Delusive connotation, गुरु-गिरी-नेतागिरी जैसे भ्रमात्मक धारणा या गैरहक़ीक़ी निहितार्थ) को निकालकर उसके यथातथ्य लक्ष्यार्थ (Precise connotation) को अपने जीवन में धारण करके एक सच्चा 'नेता' (Leader, ब्रह्मवेत्ता, सत्यद्रष्टा ऋषि, लोकशिक्षक) बनना चाहें तो- सृष्टि या समाज में (प्रवृत्ति या निवृत्ति धर्म के रुझानों आधार पर) विद्यमान असमानता को स्वीकार करने के बाद भी, समता,साम्यावस्था, प्रगति, पूर्णता की प्राप्ति के लिये कुछ न कुछ प्रयास हमलोग अवश्य कर सकते हैं।
नेता (Leader) और नेतृत्व (Leadership)को अंग्रेजी में लिखने के लिये, हमें capital 'L' से शुरुआत करना होगा। अंग्रेजी भाषा में ' L' शब्द से प्रारंभ होने वाले जितने भी सुन्दर सब्द हैं, उन सबों में LOVE से बढ़कर सुन्दर और दूसरा कोई शब्द नहीं है। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार-बार यह अनुरोध किया जा रहा था की आप अपने गुरु, अपने प्रियतम, अपने नेता, अपने सर्वस्व - श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में कुछ कहिये, जिनके चरणों में आपने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। किन्तु उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी को संकोच हो रहा था। उनके सम्बन्ध में कहने के लिये वे एक भी उपयुक्त शब्द ढूंढ नहीं पा रहे थे, ( इसीलिये वे दुविधा में थे) उन्होंने ने कहा मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं कह पाउँगा।
स्वामी विवेकानन्द इस जगत के अनेक विषयों पर व्याख्यान दे सकते थे, अनेक ग्रन्थ लिख सकते थे, किन्तु अपने जीवन सर्वस्व के ऊपर एक भी शब्द उच्चारण करने से यह सोंच कर डर रहे थे कि जो कुछ ' वे ' वास्तव में थे, उनके शब्द कहीं ' उन्हें ' (जिन्होंने नरेन्द्र नाथ के समस्त कुतर्कों को सहकर भी, लातमारने वाले बच्चे की तरह जबरदस्ती दवा पिलाने वाले भववैद्य की तरह उन्हें भ्रममुक्त होने की पद्धति सिखलायी थी तथा सम्पूर्ण विश्व को जिसकी शिक्षा देने का चपरास दिया था?....) छोटा तो नहीं बना देंगे ? वे तो इतने महान हैं ! इतने विशाल हैं ! भला समुद्र के तुल्य अगाध और अन्तरिक्ष के जैसा उनके अनन्त असीम विस्तार को शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? स्वामी विवेकानन्द उस सीमाहीन विस्तार को मापने में तथा उनके ह्रदय की विशालता को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। किन्तु, जब कुछ कहने के लिये बार- बार अनुरोध किया जाने लगा तो, उन्होंने श्री रामकृष्ण के सम्पूर्ण अद्भुत व्यक्तित्व का निचोड़ केवल एक शब्द में देते हुए कहा-- ' LOVE !' ' श्री रामकृष्ण प्रेम हैं!'
युगों युगों से विश्वगुरु भारत में ऐसे जीवनमुक्त शिक्षक / नेता आविर्भूत होते रहे हैं, जिन्होंने स्वयं आगे बढ़ कर, मानवसमाज के डरे, मरुआए, मुरझाये, मृतप्राय मनुष्यों को भी अद्वैत संजीवनी (Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा या श्रुति-परम्परा से प्राप्त भारत-भूमि के प्रति भक्ति) प्रदान कर उन्हें पुनर्जीवित करने की जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठा ली है। 5000 वर्ष पूर्व जन्मे ऐसे ही वेदान्त संजीवनी से मुरझाये मनुष्य को भी प्राणवंत कर देने वाले नेता /शिक्षक के अवतरण का स्मरण करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने १९२६ में -(भारत की आबादी तब मात्र तीस करोड़ थी ,अब २०१९- में एक सौ तीस करोड़ है।) लिखा था-
"अरे कंस के बन्दी-गृह की, उन्मादक किलकार!
तीस करोड़ बन्दियों का भी, खुल जाने दे द्वार।
उसी प्रकार अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की जीवनी के लेखक अक्षय कुमार सेन लिखते हैं -
सुनले रामकृष्ण-कथा जीवन जुड़ाय एमनि मीठे।
पाषाने जल झरे भाई मरा गाछ मंजरे उठे!
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतमय उपदेश इतने मधुर हैं कि, उनका श्रवण करने से जीवन में मिठास भर जाता है; अर्थात सम्मोहित मनुष्य (hypnotized man) में चैतन्य जाग्रत हो जाता है, और वह भ्रममुक्त (de-hypnotized) हो जाता। उसके पाषाण बन चुके हृदय से भी प्रेम का झरना फूट पड़ता है; और मृत पेड़ में भी मंजर निकल आते हैं। मानो मृतप्राय मनुष्य पुनरुज्जीवित हो उठता है।
कोई भी मनुष्य सच्चा नेता तभी बन सकता है जब उसके ह्रदय में भी उसी प्रेमाग्नि (भारतभक्ति) का एक स्फुलिंग, एक छोटा सा टुकड़ा भी अवश्य विद्यमान हो। जिन मनुष्यों के हृदय में प्रेम (भारतप्रेम)की यह छोटी सी चिगारी भी विद्यमान नहीं है, वे ( नेतागिरी या गुरुगिरी तो कर सकते हैं किन्तु ) कभी सच्चे नेता नहीं बन सकते। वे कभी किसी व्यक्ति को उन्नति, पूर्णत्व-प्राप्ति या पशु मानव से देव मानव में रूपांतरित होने की शिक्षा देने में ' समर्थ नेता ' नहीं बन सकते। अतः नेतृत्व के सम्बन्ध में इस नयी समझ, इस नूतन सिद्धान्त के आलोक में हमलोगों को अपने ह्रदय में इसी सर्वग्रासी प्रेम की अग्नि को प्रज्ज्वलित करने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहना चाहिये। बुद्ध देव, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद, गुरु नानक,... श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि, मात्र एक प्रेम की ही विविध अभिव्यक्तियाँ थे। उन विभिन नाम-रूपों के माध्यम से केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ था। वे सभी प्रेम-स्वरूप थे !
'ब्रह्म' का अर्थ होता है - बृहत या महान; जिससे बड़ा और कुछ न हो। यदि हम पहले स्वयं महान (अर्थात एक पूर्ण-हृदयवान मनुष्य -Heart whole man) बन कर, दूसरों को भी महान बनाना चाहते हों तो सर्वप्रथम हमें अपने चारित्रिक गुणों, तथा तीन प्रमुख अवयवों (3'H') की क्षमताओं/शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तिओं को विकसित करना होगा। तथा इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये, हमें भी (श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द,... कैप्टन सेवियर, नवनीदा ......की तरह) अपने आस-पास रहने वाले युवा भाइयों, को भी इन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करने में इस प्रकार सहायता करनी होगी - ताकि वे भी खुद को महान बना कर, दूसरों को भी महान बनाने वाले सच्चे नेता की भूमिका निभा सकें।
हमलोग इन बहुमूल्य विचारों को जीवन में उतार कर सच्चे अर्थों में उन्नत मनुष्य बन जायेंगे। अपने जीवन में उच्चतर पूर्णता को प्राप्त करने के लिये प्रयास करना चाहिये, तथा कुछ अपने साथ कुछ दूसरे सहकर्मियों को भी इसी दिशा में अनुप्रेरित करना चाहिये। स्वयं को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्धिशाली बनाने के लिये प्रयासरत रहने के साथ साथ अपने आस-पास रहने वाले लोगों को असत विचारों की अग्नि में झुलसते रहने के लिये न छोड़ देना ही सच्चे नेतृत्व का सार- सुगंध है !
क्या हमलोग भी 'नेता' नहीं बन सकते ? क्या हम उस प्रेम के एक छोटे से अंश को भी अपने ह्रदय में नहीं धारण कर सकते ? क्या हमलोग अपने आस- पास रहने वाले लोगों से प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य दुखपूर्ण संसार के कष्ट, दारिद्र्य, और विवशता के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ?[क्या हम अपने आस-पास रहने वाले 5-10 भाइयों को इकट्ठा कर चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की प्रशिक्षण पद्धति से अवगत नहीं करवा सकते ?] हाँ, हमलोग कर सकते हैं, और यह अवश्य करना चाहिये। हमलोगों को मानव जाती का सच्चा 'नेता' (इस शब्द के सटीक अर्थ या Precise connotation के अनुरूप-ब्रह्मवेत्ता, सत्यद्रष्टा या ऋषि) अवश्य बनना चाहिये।नेतृत्व-कौशल के सम्बन्ध में इस यथातथ्य लक्ष्यार्थ ( Precise connotation) या सटीक अर्थ की संक्षिप्त अभिज्ञता को प्राप्त कर लेने के बाद, क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि नेतृत्व-कौशल का यह अभिनव सिद्धान्त अपने आप में अत्यंत श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण है। सचमुच वे लोग (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर-नवनीदा ....) 'नेता' थे और- अब हम भी वैसा नेता बनना चाहते हैं !
हमने यह देखा है कि इस व्यक्तिपरक जगत (Subjective world) में प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म के रुझानों के आधार पर असमानताएँ रहतीं ही हैं। (बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त- 4 श्रेणी के मनुष्य पाए जाते हैं। जीवकोटि और ईश्वर (नेता) कोटि के मनुष्य में असमानता रहती है।) इस वस्तु-स्थिति को स्वीकार करते हुए, यदि हम वैसे कुछ श्रेष्ठ प्रतिभा संपन्न लोगों को " Be and Make -वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" (श्रुति-परम्परा या Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) में प्रशिक्षित कर सकें, जो इन सिद्धांतों को सुन कर आत्मसात कर लेने में सक्षम हों, तो वे समाज के दूसरे लोगों कि सहायता करने (या भावी नेताओं को प्रशिक्षित करने में) में एक अग्रणी नेता (भ्रममुक्त नेता) कि भूमिका निभा सकते हैं। श्री रामकृष्ण के द्वारा प्रतिपादित, तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रसारित - ' नेता बनो और बनाओ ' का यह अभिनव सिद्धान्त आज भी क्रियाशील है !
जैसा कि श्री रामकृष्ण कहा करते थे - " कुछ लकड़ी के कुन्दे इस प्रकार के काष्ठ के बने होते हैं कि उस के ऊपर यदि एक कौआ भी बैठ जाय तो वह डूब जाता है ; किन्तु कुछ लट्ठे ऐसी लकड़ी के बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक ढो कर ले जाते हैं | " जो नेता कोटि (ईश्वर श्रेणी-ऋषित्व प्राप्ति के बाद निर्विकल्प का त्याग करने में नरेन्द्रनाथ जैसे समर्थ) के युवा होते हैं वे बाद के उसी प्रकार के न डूबने वाले लकड़ी के कुन्दे जैसे होते हैं। वे लोग दूसरों के उत्तरदायित्व को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। वे उनका बोझ स्वेच्छा से बिना किसी निजी स्वार्थ के, बिना कोई पारिश्रमिक लिये, बिना किसी तरह के लाभ उठाये ही उस पार तक ढो कर ले जाते हैं। उन सच्चे नेताओं के लिये सार्वजनिक उन्नति, शिक्षा, विस्तार, समानता, साम्यावस्था, पूर्णत्व प्राप्ति, संतृप्ति कि प्राप्ति की कामना ही प्रत्यक्ष रूप से समाज को प्रेरणा देने की हेतु होती है, किन्तु परोक्ष रूप से एकमात्र प्रेरक -शक्ति रहती है- LOVE ! क्योंकि, " ईश्वर ( या नेता - नवनीदा ?) प्रेम स्वरूप हैं " जो (मुझ जैसे) पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने के लिये बार-बार पृथ्वी पर अवतरित होते रहते हैं !
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" निष्काम कर्म और निष्काम प्रेम-तत्व का उपदेश श्रीकृष्ण का मौलिक आविष्कार है। कृष्ण अवतार का मुख्य उद्देश्य गोपी-प्रेम की शिक्षा है। जब तुम कामिनी-कांचन और कीर्ति और तुच्छ मिथ्या संसार के प्रति आसक्ति को छोड़ोगे केवल तभी तुम गोपियों की प्रेम जनित विरह की उन्मत्तता को समझोगे। जब तुम्हारे हृदय में इस उन्मत्तता का प्रवेश होगा, जब तुम भाग्यवती गोपियों के भाव को समझोगे, तभी तुम जानोगे कि प्रेम क्या वस्तु है ! जब समस्त संसार तुम्हारी दृष्टि से अन्तर्धान हो जायेगा, जब तुम्हारे हृदय में और कोई कामना नहीं रहेगी, जब तुम्हारा चित्त पूर्णरूप से शुद्ध हो जायेगा-यहाँ तक कि जब तुममें सत्य के खोज की वासना भी नहीं रहेगी, तभी तुम्हारे हृदय में उस प्रेमोन्मत्तता का आविर्भाव होगा। और उसके बाद अद्वैत की अनुभूति होगी। धर्म न तो शास्त्रों में है, न सिद्धान्तों (चार महावाक्यों ), मतवादों में है, न वाद-विवाद करने में है। यह तो ब्रह्मविद बनकर ब्रह्म हो जाने की चीज है !(ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति।) यह कहना गलत है कि बुद्ध ने ब्राह्मणों की मूर्ति-पूजा उठा दी थी। ....वे नहीं जानते कि बौद्ध धर्म ने ही भारत में ब्राह्मण-धर्म और मूर्ति-पूजा का प्रारम्भ किया था। जगन्नाथ जी का मन्दिर तो एक प्राचीन बौद्ध मन्दिर है। हमने इसको तथा (भुवनेश्वर के) अन्य कई बौद्ध मन्दिरों को हिन्दू मन्दिर बना लिया। बौद्ध धर्म की अवनति से जिन घृणित अनुष्ठान-पद्धतियों, ऐसे अश्लील ग्रन्थ जो मनुष्यों द्वारा कभी लिखे नहीं गए, पाशविक अनुष्ठानपद्धतियाँ -जो अन्य किसी युग में धर्म के नाम प्रचलित नहीं हुई थीं, ये सभी गिरे हुए बौद्ध धर्म की सृष्टि हैं।
इसे (पाशविक अनुष्ठान-पद्धतियों को) हटाकर पुनः धर्म को स्थापित करने के लिए, इस बार भगवान शंकर केरल में आविर्भूत हुए। उस समय से लेकर अभी तक इसी अधःपतित बौद्ध धर्म पर वेदान्त की पुनर्विजय का कार्य सम्पन्न हो रहा है। अब भी यह काम जारी है, अब भी उसका अन्त नहीं हुआ है। [उन्हीं के कार्य को पूरा करने के लिए महामण्डल को भी श्रुति-परम्परा के अनुसार आविर्भूत होना पड़ा। (THE SAGES OF INDIA- भारत के महापुरुष, ) 5 /148-158
शरीर में रहते समय ही स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए घोषणा की थी -" प्रभु की आज्ञा है कि ' भारत कि उन्नति ' अवश्य होगी और साधारण तथा गरीब लोगों को सुखी करना होगा। अपने आप को धन्य मानो कि प्रभु के हाथों में तुम निर्वाचित यन्त्र हो। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध, निःसीम, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर आवर्तित होता देख रहा हूँ। - साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पंडितों के आचार्य बन जायेंगे- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत-- " उठो, जागो और जब तक लक्ष्य तक न पहुँच जाओ, न रुको। " ... तरंगें ऊँची उठ चुकी हैं, उस प्रचण्ड जलोच्छास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा | इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढँक लिया है, अब इसे कोई रोक नहीं सकता ! कोई भी शक्ति इन तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में धकेल नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुये सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा, ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे, सम्पूर्ण मानवता इन विचारों से प्रभावित हो जायगी।
शिक्षित युवकों को प्रभावित करो, उन्हें एकत्रित करो और संघबद्ध करो। ..अंग्रेजी पढ़े-लिखे तेजस्वी युवकों का दल गठन करो और अपनी उत्साह की अग्नि उनमे प्रज्ज्वलित कर दो ! और क्रमशः इसकी परिधि का विस्तार करते हुये संघ का विस्तार करते रहो। बड़े बड़े काम केवल बड़े बड़े स्वार्थ त्यागों से ही हो सकते हैं। ..जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब है, आलसी है, उसके लिये नरक में भी जगह नहीं है। जीवों के लिये जिसमे इतनी करुणा है कि वह खुद उनके लिये नरक में भी जाने को तैयार रहता है - उनके लिये कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्री रामकृष्ण का पुत्र है, - इतरे कृपणाः - दूसरे तो हीन बुद्धि वाले हैं। जो इस आध्यात्मिक जागृति के संधिस्थल पर कमर कस कर खड़ा हो जायगा, गाँव गाँव, घर घर उनका संवाद देता फिरेगा, वही मेरा भाई है - वही ' उनका ' पुत्र है। यही कसौटी है - जो रामकृष्ण के पुत्र हैं, वे अपना भला नहीं चाहते, वे प्राण निकाल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं। जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सबका सर झुका हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे कोई नहीं। ..नाम के लिये समय नहीं है, न यश के लिये, न मुक्ति के लिये, न भक्ति के लिये समय है ; इनके बारे में फिर कभी देखा जायगा। अभी इस जन्म में "स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदांत नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा" अथवा "स्वामी रंगनाथानन्द- श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में निर्मित नेताओं / आचार्यों के महान चरित्र का, महान जीवन का, महान आत्मा का अनन्त प्रचार करना होगा। काम केवल इतना ही है, इसको छोड़ कर और कुछ नहीं। जहाँ -जहाँ उनका (श्रीरामकृष्णदेव का) नाम जायगा, वहां के कीट-पतंग तक देवता हो जायेंगे, हो भी रहे हैं; तुम्हारे आँखे हैं, क्या इसे नहीं देखते ?..काम करो, भावनाओं को, योजनाओं को कार्यान्वित करो, मेरे बालकों, मेरे वीरों, सर्वोत्तम, साधुस्वभाव मेरे प्रियजनों, पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो। ...याद रखना- बहुत से तिनकों को एकत्र करने से जो रस्सी बनती है, उससे मतवाला हाथी भी बांध सकता है। "
( वि ० सा० ख ० २ : ३५६ / ३ : ३५५)
मूर्ति-पूजा और मूर्ति-मोह का अन्तर : स्वाधीनोत्तर भारत में जिस प्रकार की वीर-मूर्ति पूजा (Spirit of idolatry worship) का भाव प्रचलन में आया है, वह अंग्रेजी शिक्षा और गुलामी के प्रभाव से भारतीय इतिहास-बोध का विकृतिकरण (perversion) है। वास्तव में यह मूर्ति-पूजा (Idol- worship) नहीं बल्कि मूर्ति-मोह है (Idol enchantment) है। इसीलिये नासमझ लोग कभी शिवजी की प्रतिमा तोड़ देते हैं, तो कभी गाँधी-अम्बेडकर की, बंगाल में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की, तो कभी श्रीराम के चित्र और जयकारे की अवमानना की जाती है। कभी सीता को पात्र बनाकर भद्दी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। यदि किसी मूर्ति-विशेष (M/F) के प्रति मोह, घोर आसक्ति (hypnotism/fascination) या सम्मोहन होगा तो, एक न एक दिन उस मोह का भंजन, या विसम्मोहन (de-hypnotism) भी होगा। और मूर्ति- पूजा का भाव यदि उसकी बाह्य-आकृति (नाम-रूप M/F) के आकर्षण से सम्मोहित न होकर, उस मूर्ति में अन्तर्निहित दिव्यता (अर्थात - उसके व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय की सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपांतरित हो जाने की सम्भावना) के प्रति श्रद्धा रखते हुए निष्काम प्रेम की भावना से वास्तविकता प्राप्त करेगी; तो उस भावना के रहते यदि मूर्ति भग्न भी हो जाये, तो उपासना की कोई क्षति नहीं होती। क्योंकि दिव्य-प्रेम की वह भावना नई मूर्ति तुरंत गढ़ लेगी। कोई मूर्ति निरपेक्ष रूप से (absolutely) पवित्र नहीं होती, उनका रोज स्नान-श्रृंगार करना होता है। इसीलिए टूटा हुआ मंदिर या भग्न मूर्ति उपास्य नहीं रह पाते। जिस मूर्ति की उपासना अविच्छिन्न रूप से (uninterruptedly) होती आ रही हो, फिर वह चाहे मनुष्य रचित आकार वाली मूर्ति हो, या स्वयम्भू मूर्ति हो , इससे कुछ खास बनता बिगड़ता नहीं है। यह अवस्था तब आती है जब हमें निरन्तर और अविच्छिन्न रूप में उनका साक्षात्कार होता है। क्योंकि जीवंत उपासना किसी सिद्ध वस्तु (Proven object) की नहीं हो सकती। उपासना तो एक साधना है , जिसमें उपास्य निरंतर साध्य रहता है। सिद्ध इतिहास-पुरुष की कल्पना (अंतिम-पैगम्बर की कल्पना) एक खंड-सृष्टि में बंधने वाली उपासना है। किन्तु श्रुति-परम्परा या " Be and Make- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " बन्धन नहीं है !
[साभार -श्री विद्यानिवास मिश्र 1976/ भवन्स नवनीत मई,2019]
[ साधना के दो मुख्य मार्ग हैं, 'नेति, नेति मार्ग' और 'इति, इति' मार्ग। अवतारवरिष्ठ का मार्ग और नेतावरिष्ठ (C-in-C) का मार्ग। अवतारवरिष्ठ ठाकुर और नेतावरिष्ठ (C-in- C) नवनी दा तथा महामण्डल के अवतरण को समझने में '12 जनवरी 1985 से 14-4-2019' तक कुल 34 साल लग गए! ]
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