कुल पेज दृश्य

रविवार, 16 जून 2019

लीलाप्रसंग -5. सदियों से पड़ी गरीबी को किस प्रकार दूर भगाया जाता है ?

अवतरणिका 7- भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्णदेव का अभिमत (Opinion): सदियों से पड़ी गरीबी को यूँ दूर भगाया जाता है ? यूँ स्वर्ग (बैकुण्ठ) बनाया जाता है - (हृदय गुफा में छाये 1000 वर्षों के अंधकार-आध्यात्मिक गरीबीके विषय में श्रीरामकृष्ण देव का अभिमत ! " दैव ओ पुरुषकार सम्बन्धे ठकुरेर मत "/   দৈব ও পুরুষকার সম্বন্ধে ঠাকুরের মত/  [“Give up all desires one by one, it is then that you will succeed”; “Be like a castoff leaf blown by the wind”; “Give up lust and lucre and call on God”; “I have done all the sixteen parts. Do at least one part yourselves”] 
ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीरामकृष्णदेव द्वारा प्रदत्त अमृतवाणी में इस दो भावों- 'प्रवृत्ति और निवृत्ति '  के अधिकारी विभिन्न श्रेणी के भक्तों के लिए अलग अलग उपदेशों का मर्म हम अभी तक नहीं समझ सके हैं।  इसी कारण प्रारंभिक अवस्था  में अक्सर हमलोग यह निर्णय नहीं कर पाते हैं कि  " माँ जगदम्बा पर निर्भरता (self-surrender)और साधन (self-effort) " या दैव (predestinationभाग्य-प्रारब्ध या नियतिवाद का सिद्धान्त) तथा पुरुषार्थ ( free willइनमें से किसको अवलंबन बनाकर जीवन में अग्रसर होना चाहिए ? [ क्योंकि " साधना की सर्वोच्च अवस्था में पहुँचने पर ही मनुष्य को यह पता चलता है कि - ईश्वरेच्छा से ही सर्वदा सब कुछ हो रहा है और होता रहेगा।"]  
दक्षिणेश्वर में एक दिन बहस चला कि ... स्वतंत्र इच्छाशक्ति और भाग्य में कौन बड़ा है ? इसका हल पूछने हम ठाकुर के पास गए। उन्होंने गंभीर होकर कहा - " अरे , कोई स्वाधीन इच्छा नाम की कोई वस्तु किसी के अंदर विद्यमान भी है क्या ?(Is there any one who has free will or anything like that?) साधना के अंत में ही मनुष्य को यह पता चलता है की -" ईश्वरेच्छा से ही सर्वदा सब कुछ हो रहा है, और आगे भी होता रहेगा। ओह ! किन्तु बहुत लम्बे समय तक साधना में लगे रहने के बाद, अन्त में ही मनुष्य को इस सच्चाई का पता चलता है ! " [ It is by God’s will alone that everything has always happened and shall happen. Man understands it in the long run.]
" फिर भी बात ऐसी है कि ------ मानो किसी गाय को एक लम्बी रस्सी के द्वारा खूँटे में बाँध दिया गया है- वह गाय चाहे तो खूँटे से एक हाथ (cubit) की दूरी पर खड़ी हो सकती है और यदि चाहे तो रस्सी जितनी लम्बी है, वहाँ तक जाकर भी खड़ी हो सकती है। मानव की स्वाधीन इच्छा भी इसी प्रकार की है। जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी गाय को एक खूँटे से यह विचार करके इतनी लम्बी रस्सी से बाँधता है कि, वह गाय उसी दायरे में चाहे जहाँ बैठे, खड़ी हो जाये, अथवा घूमती रहे (चरैवेति-चरैवेति:  ‘Let her lie down, stand or move about wherever she wills within that area’.)!   ठीक इसी प्रकार ईश्वर ने भी मानव को कुछ शक्ति देकर (विवेक-प्रयोग शक्ति और पुरुषार्थ आदि देकर) वह चाहे उसका जितना प्रयोग करे या न करे -इस प्रकार की स्वतंत्रता देकर उसे छोड़ दिया है। (Similarly God has given man some power. And He has also given him freedom to use as much of it as he likes and in any way. This is why man feels he is free. ) इसीलिए मनुष्य अपने को स्वतन्त्र समझता है [तीसमारखां समझता है ? But the rope is fastened to the post.] किन्तु रस्सी तो खूँटे से बँधी हुई है। ... आर्त भाव से प्रार्थना करने पर वे उसे ढीला कर बाँध सकते हैं, उस रस्सी (tether-पगहा)  को और भी लम्बी कर दे सकते हैं और चाहें तो गले के बंधन को एकदम खोल भी सकते हैं।  (If anyone prays to Him in all humility, He may remove him to another place and tie him there; or He may lengthen the tether or even remove it completely from his neck.) " 
इस प्रकार निर्देशित किये जाने पर ठाकुर के भक्तों ने उनसे पूछा - " तब तो,साधन-भजन करने में मनुष्य का कोई हाथ नहीं है ? प्रत्येक व्यक्ति यह कह सकता है, कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ , सब उनकी इच्छा से ही कर रहा हूँ ! ' [महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास करने में महामण्डल कर्मी का कोई हाथ नहीं है ? Then man has no hand in practicing religious discipline. Everyone may say, ‘Whatever I do, is according to His will’.एक बार कैम्प में किसी वरिष्ठ संन्यासी के द्वारा अंग्रेजी में दिए भाषण का जब मैंने हिन्दी अनुवाद सुनाया था, तब दादा ने मेरे उत्साह को बढ़ाने के लिए उनके समक्ष ही कहा था -"इतना अच्छा अनुवाद कैसे किये? " मैंने वहाँ उपस्थित एक संन्यासी के समक्ष विनम्र बनते हुए कहा -ठाकुर, माँ स्वामि जी की कृपा से हुआ है,मैंने नहीं किया। तब दादा ने उस समय मुझे साधना में लगे रहने के लिए उत्साहित करने के उद्देश्य से -भर्त्स्ना करते हुए  कहा था- 'किन्तु स्वामी जी तो कहते थे मैंने किया है।' ]   
श्रीरामकृष्ण - " अरे केवल कहने से क्या होगा ? कोई कील-काँटा नहीं है -क्या इस प्रकार कहने से काम चल जाता है ? काँटे पर हाथ पड़ते ही, उसके चुभ जाने पर -मनुष्य 'उह' कहकर चिल्ला पड़ता है। (As soon as you touch a thorn you cry out ‘Ugh’. ) यदि 5 अभ्यास सभी के लिए एक समान लगन के साथ करना सम्भव होता, तब तो सभी लोग उसका पालन कर सकते थे, किन्तु कर क्यों नहीं पाते हैं? ...बात यह है कि उन्होंने तुमको जितनी शक्ति (विवेक-प्रयोग शक्ति और पुरुषार्थ) दी है,यदि तुम उसका उचित प्रयाग न करो तो वे उससे अधिक नहीं देंगे। इसीलिए पुरुषार्थ और अध्यवसाय (individual effort and perseverance) की आवश्यकता है। (He does not give one more power, if the little that is given is not properly used.)  क्या तुम यह नहीं देखते कि सभी को कुछ न कुछ उद्यम करने के बाद ही ईश्वर (माँ जगदम्बा) की कृपा का अधिकारी बनना पड़ता है। ऐसा करने से उनकी कृपा से दस जन्म के भोग एक ही जन्म में समाप्त हो जाते हैं। किन्तु इसके पहले उनपर निर्भरशील होकर कुछ न कुछ उद्यम करना ही पड़ता है। ( Don’t you see, everyone has to make some effort, however small, before he gets God’s grace? क्या तुम नेताओं की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करने पर यह नहीं देखते कि -ठाकुर, माँ, स्वामी जी, कैप्टन सेवियर, नवनीदा जैसे लोगों को भी पहले उद्यम (17 वर्ष में नौकरी ?) तो करना ही पड़ता है !
अवतरणिका 8. उक्त विषय में श्री विष्णु तथा नारदजी का संवाद। अर्थात प्रारब्ध (predestination-नियतिवाद) के विषय में  श्रीविष्णु और नारद संवाद। प्रारब्ध (predestination) को तो भोग कर ही क्षय करना पड़ता है के विषय में श्रीविष्णु तथा नारदजी का संवाद। [ঐ বিষয়ে শ্রীবিষ্ণু ও নারদ-সংবাদ / 
The conversation between Vishnu and Narada on this topic]  
" भगवान विष्णु जिस लोक में निवास करते हैं उसे बैकुण्ठ कहा जाता है। इसके कई नाम हैं - साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुरबैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है - जहां कुंठा न हो। कुंठा यानी निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। इसका मतलब यह हुआ कि बैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है। व्यावहारिक जीवन में भी जिस स्थान पर निष्क्रियता नहीं होती उस स्थान पर स्वर्ग जैसी रौनक होती है। शास्त्रों के अनुसार बहुत ही पुण्य से मनुष्य को इस लोक में स्थान मिलता है। जो यहां पहुंच जाता है उसे पुनः गर्भ में नहीं आता क्योंकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। 
अध्यात्म की नजर से बैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। बैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे बैकुण्ठ धाम जाना हो, उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की किरण है। इससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम (सत्य का) ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं। भगवान् शंकर कैलाश से पहले गोलोक में ही रहते थे जो की उनकी गौशाला थी, वंही पहली बार विष्णु जी का प्राकट्य हुआ।  भगवान् अनंत ही सब कुछ है वो ही विष्णु और शिव है.इस सिद्धांत से समझ आता है की भगवान एक अनंत है जो निर्गुण है उसे से सब विभक्त हुए है। लेकिन निर्गुण की भक्ति पूजा असंभव है इसलिए वे अनन्त भगवान ही शालि-ग्राम या शिवलिंग या अवतार रूप में प्रकट हुए हैं;  जिनकी हम पूजा उपासना भाव से कर सकते है अन्यथा हम नास्तिक हो जायेंगे।]
 इसी प्रसंग में एक कहानी सुनो -" अनन्त काल तक बैकुण्ठ में निवास करने वाले, गोलोक-बिहारी श्रीविष्णु ने एक बार किसी कारण वश नारदजी  को अभिशाप दिया कि उन्हें नरक भोग करना होगा। नारदजी चिन्तातुर हो उठे -उनके चिंता कोई सीमा ही नहीं थी। नाना प्रकार भजन उनकी स्तुति में गाये, और उन्हें सतुष्ट करके,  नारदजी ने पूछा " अच्छा प्रभो, नरक क्या है और कहाँ है ? और कितने प्रकार के नरक हैं ?  मुझे यह जानने की इच्छा हो रही है, कृपा कर मुझे बताइये। तब श्री विष्णु ने चौक (खड़िया) के एक टुकड़े से जमीन पर---- स्वर्ग, पृथ्वी और नरक, जो जहाँ अवस्थित हैं, उसका नक्शा अंकित कर दिखते हुए कहा - " यहाँ पर स्वर्ग, तथा यहाँ नरक है। " (Narada said, ‘Is that so? My suffering in hell is then done here’. Saying so, he rolled on the hell drawn on the ground, got up and bowed down to the Lord.)  नारदजी ने कहा -" अच्छा, तो फिर मेरा नरकभोग हो गया"-----यह कह कर उस अंकित नरक के ऊपर लोट लगाने के बाद, नारद जी उन्हें प्रणाम किया। विष्णु हँसते हुए बोले -"यह क्या, तुम्हारा नरकभोग कैसे हो गया ? नारद बोले -" क्यों नहीं प्रभो, इस स्वर्ग तथा नरक की रचना भी तो आप ही ने की है ? आपने जब  नक्शा अंकित कर मुझे दिखाया कि -'यह नरक है' -तब वह स्थान वास्तव में नरक ही होगया। और उस पर लोट लगा लेने से मेरा भी नरक भोग क्यों नहीं पूरा हो गया ?"  नारदजी ने यह बात अपने हार्दिक विश्वास से कही थी न!
इसीलिए विष्णु ने भी 'तथास्तु-‘Be it so’. कहा। किन्तु नारद जी को उनपर यथार्थ रूप से विश्वास स्थापन कर उस अंकित नरक के ऊपर लोट तो लगाना ही पड़ा। इस प्रकार थोड़ा उद्यम करने के पश्चात, तब कहीं उनका प्रारब्ध-भोग समाप्त हुआ।(It was by making that little effort that his suffering was annulled.) इसी प्रकार कृपा के राज्य में ----(माँ काली के कृपा के राज्य में) भी  उद्यम तथा पुरुषार्थ ( perseverance and individual effort) दोनों का ही स्थान है; इस बात को श्रीरामकृष्णदेव इस कहानी की सहायता से कभी कभी हमको समझाया करते थे।
[तलेजा दम्पति के अनुरोध पर Bt को वापस लाते समय BIT Meshra के रॉकेटरी में प्रोफेसर और माँ दुर्गा के भक्त श्री मिश्राजी ने नरक का भोग समाप्त करने की एक हफ्ते पूजा करने के बाद कहा था .... गाय चाहे तो खूँटा उखाड़ कर गले की बंधी हुई हालत में इधर-उधर दौड़ भी सकती है ! दुःख -कष्ट सहने की शक्ति, और कभी-कभी  सुख मिलने पर फूलकर कुप्पा होने से बचने की शक्ति को ही आत्मशक्ति, अंतर्निहित शक्ति, अन्तःशक्ति अथवा endurance: सहनशीलता, तितिक्षा, धैर्य आदि 24 चारित्रिक गुणों की अभिव्यक्ति का उपाय कहते हैं। 
-------------------------------- 
 हममें से प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में कितने सारे दुःख, अपमान झेलने के साथ साथ थोड़ी खुशियाँ भी नसीब होतीं हैं। माँ जगतजननी उन सभी दुःख-कष्ट से गुजार कर समग्ररूप से हमारी परीक्षा लेते हुए, हमें एक भावी शिक्षक/नेता बनने या पूर्णत्व-प्राप्ति  की दिशा में अग्रसर रहने में सहायता करती हैं। सुख-दुःख के धक्कों -हिचकोलों को अपनी अन्तर्निहित आत्मशक्ति के बल पर झेलते और चेहरे पर श्रीकृष्ण जैसी मुस्कान रखते हुए इस " पूर्णता '' (wholeness) के लक्ष्य तक पहुँच जाना ही मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी है।  यही "मनुष्य जीवन" (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य/ नेता के जीवन) का सच्चा इतिहास है।श्रीराकृष्णदेव कहते थे -हिन्दी वर्णाक्षर में तीन- 'स', 'श', 'ष' कहते हैं। अर्थात सहो,सहो, सहो फॉर्मूला के अनुसार भावी नेता कभी  दुःख से दुखी नहीं होते, बल्कि उसे माँ जगदम्बा की परीक्षा मानते हैं।]  किन्तु अधिकांश मनुष्य (माँ जगदम्बा की परीक्षा से घबड़ा कर, श्री तोतापुरी जैसे) अपनी अन्तर्निहित ' पूर्णता ' से अनभिज्ञ ही रह जाते हैं। 
इसीलिये प्रत्येक मनुष्य को सजग रहकर, पूरे मनोयोग के साथ पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर रहना चाहिये। सामान्यतः मनुष्य अज्ञान-अविद्या की स्थिति (Hypnotized,सम्मोहित या भ्रमित अवस्था) में ही रहता है, उसके ह्रदय में आत्म-ज्योति प्रज्ज्वलित नहीं हो पाती है। इसीलिये हम प्रार्थना करते हैं -" तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद् -गमय ; मृत्योर्मा अमृतं गमय। " - अर्थात हे ईश्वर ! हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।  हमें अविद्या और अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर, इन्द्रियों से परे, देश-काल-परिणाम से परे, ' परम सत्य ' के जगत में ले चलो, हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। हमें स्वयं उस पूर्णता को प्राप्त कर ऋषि-तुल्य नेता या ' यथार्थ मनुष्य ' बन जाना चाहिये तथा अपने आस-पास रहने वाले प्रत्येक युवाओं को वैसा ही ' नेता ' बनने के पथ पर अग्रसर होने में सहायता करनी चाहिये।' जब जब धर्म की अवनति होती है और अधर्म बढ़ता है, तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ |' (गीता ४ :७) यह वाक्य संसार में आध्यात्मिक शक्ति-प्रवाह के सनातन उत्थान और पतन के नियमों का मूल मंत्र है ! ' ( ९ :३५० )
 समय समय पर धरती पर मानव जाति के मार्ग-दर्शक सच्चे नेता आते रहे हैं जिन्होंने मनुष्यों को पूर्णत्व प्राप्ति के लक्ष्य पर आरूढ़ कराने में अपनी नेतृत्व-क्षमता को नियोजित किया है।  ऐसे नरदेवों को ही मानव जाति का सच्चा नेता कहा जाता है। किन्तु आज नेता शब्द गाली के जैसा बन गया है, उसका कारण यही है कि हमने मानव-जाति के सच्चे नेताओं को भगवान का नाम देकर उन्हें बना मन्दिर में बंद कर दिया है तथा, राजनीती के क्षेत्र के नेता को ही अपना नेता बनालिया है। किन्तु इस प्रकार के नेता (कनहैया कुमार, मधु कोड़ा,राहुल,ममता,अखिलेश, तेजस्वी यादव  टाइप ) को ' गिरोह का सरदार ' कहा जा सकता है, ' नेता ' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे एक अलग ही प्रकार के झुण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं। परन्तु जब हम महामण्डल में ' नेता ' और 'नेतृत्व' के गुणों पर चर्चा करते हैं, तो हमारे मन में 'ख़ानमार्केट लिबरल गैंग या टुकड़े-टुकड़े गैंग' के सरदार टाइप (कनहैया कुमार जैसे) नर-पशुओं का चेहरा नहीं उभरता। किन्तु जब हम यहाँ महामंडल में ,' नेता और नेतृत्व -क्षमता ' की वास्तविक व्याख्या सुनते हैं- तो हमारे आँखों के समक्ष वैसे ही ' नरदेव ' - रूपी ' नेता ' (पूज्य नवनीदा) का चित्र उभरता है जिसकी चर्चा गीता में की गयी है! मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (लोकगुरूओं) को ही 'अवतार ' कहा जाता है। इसीलिए विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम "नेता " भी है। उस दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि -" माँ काली -श्री तोतापुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित"  शिक्षक, विश्वविजयी विवेकानन्द के गुरु, श्रीरामकृष्ण देव निश्चय ही आधुनिक युग के प्रथम युवा नेता (साम्यभाव में प्रतिष्ठितनेता) थे, बल्कि महान नेता  थे ! 
[ माँझी की थप्पड़ का निशान, हरिदुब पर चलने से छाती लाल, देवघर में दरिद्रनारायण सेवा के अभूतपूर्व उदाहरण होने के कारण - वे अवतारवरिष्ठ थे!)  उसी प्रकार "श्रीरामकृष्ण परमहंस -नरेन्द्रनाथ  वेदान्त Be and Make  नेतृत्व- प्रशिक्षण परम्परा " (Shree Ramkrishna - Narendranath Vedanta Be and Make Leadership - Training Tradition) में प्रशिक्षित ....]
लोकगुरु स्वामी विवेकानन्द भी, जगत को प्रकाश देने में  युवा नेता थे, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद , बुद्धदेव, श्री चैतन्य, श्री राम, श्री कृष्ण आदि भी मानव जाति के श्रेष्ठ नेता थे। इसीलिये महामण्डल में जब 'नेता' बनने या "नेतृत्व-क्षमता" अर्जित करने के विषय पर चर्चा होती है, तो हमारी आँखों के सामने ऐसे ही किसी 'आकाशदीप' (lighthouse) जैसे- जगत को प्रकाश देने में सक्षम नेताओं  की छवि ही रहती है। तथा हम सबों के मन में इसी प्रकार के प्रकाश-स्तम्भ जैसे जगत को प्रकाश देने में समर्थ नेताओं की तुलना में समानुपातिक (proportional) या कम-से कम एक छोटी सी अनुकृति बनने का दृढ़ संकल्प अवश्य रहना चाहिए। यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का यह दृढ-संकल्प ग्रहण प्रक्रिया (Autosuggestion-आत्मसुझाओ, स्वपरामर्श या आत्मसम्मोहन चार्ट -'चमत्कार जो तुम कर सकते हो!') का निरंतर अभ्यास  ही ' नेतृत्व-क्षमता ' का आधार है। हममें से जिन्होंने विवेकानन्द साहित्य पढ़ा है, वे जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द यह मानते थे कि - समाज की सच्ची सेवा करने में न तो  घोर निर्धन व्यक्ति और न अत्यन्त धनवान व्यक्ति ही समर्थ हो सकता है।   उसी प्रकार न तो शिक्षा के क्षेत्र कई ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ रखने वाले नामी-गिरामी पंडित लोग और न तो बिल्कुल कोई अज्ञानी मनुष्य ही मानव जाति की सच्ची सेवा कर सकता है।  स्वामीजी ने तो बार बार धन और शिक्षा की दृष्टि से दोनों अतियों के मध्य रहने वाले - 'मध्यमवर्ग' के व्यक्तियों पर विशेष जोर दिया है। क्योंकि दोनों प्रकार की अतियों के बीच जीने वाले लोग कभी भी पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्य नहीं बन सकते हैं।  वे दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राणों की बाजी कभी नहीं लगा सकते हैं।
क्योंकि जिनके पेट में अन्न का दाना नहीं, या जो अशिक्षा, अज्ञान के घोर अन्धकार में जीने को विवश हैं, वे कभी मनुष्य जाति या समाज के कल्याण के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर के मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के महान विचार को अपने अन्तः करण में धारण ही नहीं कर सकता है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि ' अत्यधिक धन-सम्पदा ' या ' डिग्रियों का ढेर ' किसी भी मनुष्य में अहंकार या ' मद ' उत्पन्न कर देता है। किन्तु जिस व्यक्ति किसी महापुरुष (नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक/आचार्य) से यथार्थ शिक्षा प्राप्त हो गयी है [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त  Be and Make Leadership - Training Tradition' में यथार्थ शिक्षा प्रशिक्षण प्राप्त हो गयी है] वे ही जानते हैं कि ' मद ' को ' दम ' में कैसे परिवर्तित कर दिया जाता है ?
 महाभारत में कहा गया है - ' मद (भोग की आकांक्षा) को आत्मसंयम में रूपान्तरित करने में समर्थ मनुष्य के ह्रदय में ही सबों के कल्याण के लिये प्रेम प्रवहित होने लगता है।' [भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता 6.2  में कहते हैं - एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति न तो इंद्रियों के भोगों में आसक्त होता है, न कर्मों में। कर्मों से पीछे जो संकल्प होते हैं, इरादे होते हैं, उन्हें वह त्याग चुका होता है। तभी किसी से योगारुढ योगी कहा जाता है।अपना उद्धार अपने आप करना चाहिए। अपने को गिराना नहीं चाहिए। हम स्वयं ही हैं और स्वयं ही अपने शत्रु हैं।अपना मित्र वह है जिस ने अपने आप को जीत लिया है। जिस ने अपने को नहीं जीता, वह अपने आप से शत्रु की तरह व्यवहार कर रहा है।अपने पर नियंत्रण नहीं किया तो योग की प्राप्ति कठिन ही है। मेरा यही मत है। लेकिन उपायों से अपने को वश में करने का प्रयत्न करने से योग को पाया जा सकता है।मन चंचल और अस्थिर है। जहां-जहां भी वह जाता है, वहां-वहां से उसे रोक कर वशपूर्वक, जबरदस्ती, आत्मा में ही ले जाइए।मन को शांत कर पाने वाले योगी को उत्तम सुख मिलता है। उस योगी का रजोगुण शांत हो जाता है। वह ब्रह्म में एकाकार हो जाता है। वह पाप से दूर हो जाता है।शरीर, सिर और गरदन को एक सीध में रखें। अचल बैठें। हिलें-डुलें नहीं। नाक के अगले भाग को देखें। इधर-उधर न देंखे। और फिर आत्मचिंतन करें। भगवान ।।6.2।। हे पाण्डव जिसको (महामण्डल आंदोलन जैसे निष्काम कर्म को शास्त्रवित् और ब्रह्मविद आचार्य) संन्यास कहते हैं उसी को तुम योग समझो क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।। प्रवृत्ति-धर्म या कर्मयोग से होते हुए, उसके ठीक विपरीत निवृत्ति-धर्म (परमार्थ-संन्यास) में कैसे प्रतिष्ठित हुआ जा सकता है ? दोनों को सनातन धर्म कैसे कहा जा सकता है ?  परमार्थ-संन्यासके साथ कर्म-योग की कर्तृत्व विषयक समानता है।  क्योंकि जो परमार्थ-संन्यासी है वह सब कर्मों का और उनके फलविषयक संकल्पोंका जो कि प्रवृत्ति-हेतुक काम के कारण है त्याग करता है। और यह कर्मयोगी भी कर्म करता हुआ फल-विषयक संकल्पों का त्याग करता ही है। ( इस प्रकार दोनों धर्मों की समानता है ) इस अभिप्रायको दिखलाते हुए कहते हैं जिसने फल-विषयक संकल्पों का यानी भोग की इच्छाओं का त्याग न किया हो ऐसा कोई भी कर्मी योगी नहीं हो सकता। अर्थात् ऐसे पुरुष का चित्त (भोग की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु का चित्त) समाधिस्थ होना सम्भव नहीं है क्योंकि फल का संकल्प या भोग की आकांक्षा ही चित्त के विक्षेप का कारण हैइसलिये जो कोई महामण्डल कर्मी (मुमुक्षु) फल-विषयक संकल्पों का त्याग कर देता है वही योगी होता है। अभिप्राय यह है कि चित्त-विक्षेप का कारण जो फल-विषयक संकल्प (कामिनी-कांचन और कीर्ति Bh या नाम-यश की कामना) है, उसके त्यागसे ही मनुष्य समाधान-युक्त यानी चित्त-विक्षेप से रहित योगी होता है।भगवान श्रीकृष्ण गीता 6 /29 में कहते है- "                                             सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।" 
 (सर्वभूतस्थम् आत्मानं सर्वभूतानि च आत्मनि,  ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ शब्दार्थः/ योगयुक्तात्मा = समाहितचित्तः one who is harmonisedd-hypnotized  by Yoga?/सर्वत्र = सर्वेषु/ समदर्शनः = तुल्यदृष्टिः/ आत्मानम् = स्वम्/ सर्वभूतस्थम् = निखिलभूतस्थितम्/ आत्मनि च = स्वस्मिन् च/ सर्वभूतानि = सकलभूतानि/ईक्षते = अवलोकते।)
 अब योग का फल (साधना का चरम फल - सर्व भूतों में ब्रह्म दर्शन) जो कि समस्त संसार का (में आसक्ति का या भोग की आकांक्षा का)  विच्छेद करा देने वाला, और ब्रह्म के साथ अपने स्वरूप की एकता को देखना है,उसे समझाया जाता है।  समाहित अन्तःकरण से युक्त और सब जगह सम-दृष्टि वाला (साम्यभाव में स्थित) योगी जिसका ब्रह्म और आत्मा की एकता को विषय करने वाला ज्ञान ब्रह्म से लेकर स्थावर पर्यन्त समस्त विभक्त प्राणियों में भेद-भावसे रहित सम हो चुका है, ऐसा पुरुष अपने आत्माको सब भूतोंमें स्थित (देखता है ) और आत्मा में सब भूतों को स्थित देखता है। अर्थात् ब्रह्मासे लेकर स्तम्ब-पर्यन्त समस्त प्राणियों को आत्मा में एकता को प्राप्त हुए देखता है। इसलिए उसके हृदय में सबों के कल्याण के लिए प्रेम प्रवाहित होने लगता है। यदि हमारे ह्रदय में अनन्त ज्ञान अनन्त प्रेम (Bliss)  का एक भी स्फुलिंग प्रज्ज्वलित न हो तो दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करने की इच्छा उत्पन्न ही नहीं हो सकती।  इससे यह  स्पष्ट हो जाता है कि महामण्डल के इस चरित्र-निर्माण आन्दोलन को इसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सक्षम नेता वही बन सकते हैं जो धन और शिक्षा के क्षेत्र में समाज के मध्यम वर्ग (साम्यभाव ?) का प्रतिनिधित्व करते हों।
स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास के विक्टोरिया हाल में जो प्रसिद्द व्याख्यान दिया था उसका शीर्षक है - ' मेरी क्रन्तिकारी योजना। ' स्वामी जी किस प्रकार की क्रांति करना चाहते थे, और उस क्रांति को धरातल पर उतारने की उनकी कार्य-योजना क्या थी? उनके मन में जो कार्य योजना थी, महामण्डल उसी योजना को प्रारंभिक तौर से भारत के युवाओं के बीच क्रियान्वित करने का प्रयत्न विगत 52 वर्षों से करता चला आ रहा है। वह है, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में 3'H' विकास का]  प्रशिक्षण देकर, उन्हें शारीरिक, मानसिक, तथा आर्थिक दृष्टि से उन्नत करने के साथ साथ उसके ह्रदय को भी इतना उदार और करुणापूर्ण बना देना कि उसमे व्यक्तिगत सुख भोग कि इच्छा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी भी जगह न बचे।  त्याग और तेजस्विता सम्पन्न मनुष्य(ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य संपन्न मनुष्य) बनने के लिए उन्हें उस स्तर तक प्रशिक्षण दिया जाय कि उनके मन में भोगाकांक्षा की थोड़ी सी गंध भी वहाँ बची न रहे। उसका शरीर और मन हृष्ट-पुष्ट होने के साथ साथ ह्रदय को भी अति विशाल और करुणापूर्ण बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ श्रेष्ठ शिक्षकों या नेताओं का निर्माण हजारों की संख्या में करना ही महामण्डल के ' नेतृत्व प्रशिक्षण ' का प्रधान उद्देश्य है। किसी नेता के ' ह्रदय ' का विकास ऐसा होना चाहिये वह दुःख-कष्ट, अपमान या कभी-कभी मिलने वाले सुखों की परीक्षा से गुजरते समय सहनशीलता (endurance) या त्याग-तितिक्षा में ' वज्र ' के समान कठोर होने के साथ साथ फूलों जितना ' कोमल ' भी हो ! ऐसे विरोधाभासी गुणों से सम्पन्न ह्रदय को प्राप्त करना ही नेता का प्रधान कर्त्तव्य है जो -' वज्रादपि  कठोरानि मृदुनि कुसुमादपि ' एक साथ रहे ! नेता  का ह्रदय अपने दोषों को दूर हटाने के समय तो ' वज्र '  के जैसा कठोर रहे,  किन्तु दूसरों को (भावी शिक्षकों या Would be leaders)  ' त्याग और तितिक्षा ' या  सहनशीलता में प्रतिष्ठित होने के लिए अनुप्रेरित करते समय पुष्प के समान कोमल होना चाहिये।
प्रशिक्षित नेता को इसका अनुभव अवश्य होना चाहिये कि ' त्याग और तितिक्षा ' में प्रतिष्ठित रहने, या 'त्रिविध-सर्पकेंचुल का त्याग'- अर्थात कामनी,कांचन और कीर्ति (नाम-यश) के प्रति आसक्ति या लालच को बिल्कुल त्याग देने, अथवा अपने तुच्छ व्यष्टि अहं-बोध को, माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध में रूपान्तरित करने के लिए संघर्ष करते समय, (मान-अपमान, दुःख-कष्ट को सहते समय परीक्षा की घड़ी में) बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी डगमगा जाया करते हैं। क्योंकि आचार्य शंकर, श्री तोतापुरी और स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करने पर हम पाते हैं कि उनको भी साधना के अन्त में जगत और जगतजननी के अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ा था। माँ जगदम्बा (शक्ति) की कृपा के बिना, उनको स्वीकार किये बिना " माँ का भक्त (Hero) बने बिना " हृदय को वज्र के समान कठोर और पुष्प के समान कोमल नहीं बनाया जा सकता। जब किसी नेता का हृदय वज्र के समान कठोर और  पुष्प के समान कोमल होकर, परम शान्ति (सन्तुलन-poise) के उस  शिखर पर पहुँच जाता है, तब वह - इन्द्रिय-भोगों में रचे-बसे तथा नीच जनोचित कलह, विषाद, और द्वेष, हिंसा में रत (पशु मानव जैसे) व्यक्तियों को भी प्रेम तथा करुणा की दृष्टि से देखने में समर्थ बन जाता है। महामण्डल के नेताओं का लक्ष्य - ' ह्रदय की इसी पूर्णता ' को प्राप्त करके 'Heart-whole man' बन जाना है। (पूर्ण उदार हृदय का मनुष्य-माँ जगदम्बा जैसे अपने किसी संतान का दोष नहीं देखती ?) यदि हम लोग पहले स्वयं साम्य भाव में स्थित हो जाएँ, तो हम भी समाज में, किसी न किसी रूप में ' नेता ' या ' जीवन्मुक्त शिक्षक ' का कर्त्तव्य निभा सकते हैं।
हमारे ही शहर या गाँव में, अथवा हमारे आस-पास के गाँव में अन्य लोगों के साथ ही साथ युवाओं का एक विशाल समूह भी निवास करता है, जिन्हें इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ रखा गया है कि, मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है, तथा उसमे अन्तर्निहित अनन्त संभावनाएँ क्या हैं, जिन्हें ठीक ठीक समझ लेने पर उसे उसका कितना बड़ा लाभ हो सकता है ! उनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, मनुष्य ' जीवन ' क्या है - उसके बारे में भी उनका अपना कोई निजी दृष्टिकोण अभी तक विकसित न हो सका है, उनके अपने जीवन का कोई विशिष्ट लक्ष्य भी नहीं है। हमलोग उन युवाओं को अपना नेतृत्व/मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं। 
 हमलोग उनके निकट जाकर उनसे कहेंगे - हे भाईयों, आओ यह समझने का प्रयास करें कि मनुष्य जीवन को देव-दुर्लभ या अति मूल्यवान, आखिर क्यों कहा जाता है ? शायद तुम नहीं जानते कि इस मानव तन का सर्वोत्तम लाभ कैसे लिया जा सकता है ?अभी तुम अपने जीवन को क्रमशः गठित करके  उन्नति के शिखर पर पहुँचने के प्रति तनिक भी उत्सुक नहीं हो।  जीवन-गठन की पद्धति को सीखने से यह जीवन अत्यन्त सफल और सुगंधपूर्ण बन सकता है।  सुगठित मनुष्य जीवन का निर्माण कर लेने से बढ़कर, मूल्यवान ' सम्पदा ' और कुछ भी नहीं है, जिसके स्वामी - तुम भी बन सकते हो। अब हम समझ सकते हैं कि इस मानव तन से जो सर्वश्रेष्ठ लाभ प्राप्त हो सकता है, वह यही है कि हम इस मानव-योनी को प्राप्त करके अपना सुंदर जीवन गठित कर सकते हैं; तथा अपने पूरे जीवन को दूसरों के कल्याण के लिये न्योछावर भी  कर सकते हैं। इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ इस मानव तन से नहीं उठाया जा सकता है। यही वह ' परम वस्तु ' है जिसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है। 
'परहित में अपने जीवन को न्योछावर' करने में समर्थ मनुष्य बनना ही मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य कैसे है, उसी ओर इंगित करते हुए श्रीमद्भागवत (मानवजाति के एक मार्गदर्शक नेता -श्रीकृष्ण की जीवनी में) वर्णन आता है,श्रीकृष्ण (नवनीहरन)  बृन्दावन के ग्वालबालों के सखा रहते समय,जब अपनी किशोरा-वस्था में गोप मण्डली के बीच ' नेता ' की भूमिका का मंचन कर रहे थे। तब एक दिन वे लोग गौएँ चराते हुए जंगल में बहुत दूर तक चले गये थे। दोपहर के समय एक वृक्ष की छाया में विश्राम करती हुई गायों की ओर इंगित करते हुए श्री कृष्ण ने अपने मित्रों (अनुयायियों) से  " नेतृत्व की अवधारणा तथा इसके गुण" (The Concept of Leadership and its Qualities ) पर प्रकाश डालते हुए कहा था -
" पश्यतैतान  महाभागन परार्थेएकान्त जिवितान।
 वात-वर्षा-ताप - हिमान सहन्तो वारयन्ति नः।। 
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राणी उप जीवनम,
सृजनस्येव, येषां वै विमुखा यान्तिनार्थिनः।
 मेरे प्रिय मित्रों ! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं ; इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई के लिये ही होता है। ये स्वयं तो हवाओं के थपेड़े,वर्षा, धूप, पाला सब कुछ सहते हैं, परन्तु ; हमलोगों की इन सबसे रक्षा करते हैं। अहो ! मैं तो कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन धन्य है, सार्थक है, क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को अपना जीवन निर्वाह करने में सहायता मिलती है। जिस प्रकार किसी सज्जन व्यक्ति के घर से कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी, सबों को कुछ न कुछ अवश्य ही प्राप्त  हो ही जाता है।
पत्र -पुष्प-फल-छाया-मूल-वल्कल - दारूभिः।
 गन्ध-निर्यास-भस्म-अस्थि त्वकमैमः कामान्वितनव्ते।। 
श्री कृष्ण कहते हैं - मित्रों, देखो ये विक्ष तो इतने महान हैं कि कामना करने वालों को अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद , राख, कोयला, तथा कोपलों तक को दान करके लोगों की कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण, अपने आस-पास रहने वाले तरुण मित्रों को, वृक्ष की उपमा द्वारा अत्यन्त सरल शब्दों में , मानव-जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है को बड़े स्पष्ट और सुन्दर ढंग समझाते हैं। अंत में वृन्दावन के ग्वालबालों के ' तरुण नेता 'श्री कृष्ण कहते हैं-
 एतावत जन्म साफल्यं देहिनाम इह देहिषु , 
प्राणारथै धिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा।। 
 " उसी व्यक्ति का मनुष्य शरीर में आना सार्थक कहा जा सकता है, जो अपने शब्दों (शिक्षाओं) से, धन-सम्पत्ति या रुपये-पैसे के द्वारा ही नहीं, आवश्यकता रहने से अपने प्राणों की आहुति देकर भी प्रत्येक प्राणी का कल्याण करने में तत्पर रहता है। " यही तो है - सभी धर्मों में छुपा हुआ गूढ़ रहस्य या सारतत्त्व ! सनातन धर्म के इसी गूढ़ रहस्य को उदघाटित करते हुए महाभारत की कहानी में तुलाधर वैश्य कहते हैं -
 वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम। 
सर्वभूतहितं मैत्रयं पुराणं जना विदुह।। 
" हे जाजले (हे जाजले नामक ऋषि) ! मुझे सनातन धर्म के सार तत्व का पाता लग गया है- वह क्या है ? वह है सब जीवों का कल्याण, सबों के प्रति ' प्रेम ' ! यही तो है सनातन धर्म ! मानव जाति के जिन नेताओं, भ्रममुक्त (dehypnotized)  शिक्षकों या श्रेष्ठ आचार्यों को धर्म का सच्चा ज्ञान  हो जाता है, उनके लिये 
' सनातन धर्म '( जिसे अभी हिन्दू धर्म कहा जाता है) की परिभाषा यही होती है।
 महामण्डल के प्रत्येक कर्मी (मुमुक्षु या भावी नेता) को ' सनातन धर्म ' के इस रहस्य को पहले स्वयं  अनुभव कर लेने के बाद , अपने आस- पास रहने वाले भाइयों के ह्रदय में भी धर्म की इस महान ज्योति को प्रकाशित करने की चेष्टा करनी चाहिये। विशेष रूप से जो युवा भाई महामण्डल आन्दोलन से जुड़ चुके हों, उनके ह्रदय में धर्म के इस गूढ़ रहस्य को प्रकाशित करने में अवश्य सहायता करनी चाहिये। विभिन्न कारणों से , इस कार्य को रूपायित करने में हर व्यक्ति सक्षम नहीं भी हो सकता है, किन्तु इस कार्य को रूपायित  करने की इच्छा महामण्डल से जुड़े सारे सदस्यों में रहनी चाहिये। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का पारिवारिक और सामाजिक परिवेश, अथवा शारीरिक और मानसिक-गठन, या आध्यात्मिक- विकास (3'H'विकास) की यथार्थ शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।क्योंकि कतिपय कारणों से प्रत्येक युवा को महामण्डल के माध्यम से ' Be and Make~ विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में " मनुष्य बनने और बनाने" का ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता; कि वह भी दूसरों को इस विषय में मार्गदर्शन देने में सक्षम हो सके। 
 इसलिए प्रत्येक व्यक्ति  'आचार्य ' की भूमिका या ' नेता ' के महत्वपूर्ण दायित्व को अच्छे ढंग से सम्पादित नहीं कर सकता है। किन्तु वैसा व्यक्ति (मुमुक्षु), जिसके मन में खुद को डूबने से बचाने के साथ साथ दूसरों को भी डूबने से बचाने की अदम्य इच्छा रहती है।  यदि कोई वैसा व्यक्ति, इसी लक्ष्य को पाने के लिये उद्देश्य से, अपने जीवन को  मानव जाति के किसी असाधारण नेता के साँचे में ढाल कर गठित सकने में सफल हो जाये, तो वह दूसरों के लिये केवल अल्प सेवा (भोजन-वस्त्र-आवास जैसी साधारण सेवा) करके ही सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि दूसरों के (अन्य मुमुक्षु लोगों के) मन को भी रूपान्तरित करने में समर्थ हो जाता है। 
क्योंकि 'नेता',  भ्रममुक्त या नित्यमुक्त आचार्य का मुख्य कार्य दूसरों के मन को (मुमुक्षु के मन को) प्रभावित करना है, या भावी -शिक्षकों के मन को संशय-भ्रम से मुक्त करना है। साधारण ढंग की समाजसेवा - यथा चंदा मांग कर जरुरत-मंदों तक भोजन-वस्त्र वितरण करना,  या मोतियाबिंद का आपरेशन - जैसे अच्छे कार्य तो क्लब आदि के द्वारा आसानी से किये  जा सकते  हैं।  ये सभी कार्य अवश्य अच्छे कार्य हैं,  किन्तु इससे भी बढ़ कर अच्छा और महत्वपूर्ण कार्य है, युवाओं के मन को उच्च विचारों और भावों से भरने का काम, लोगों के मन को ही उन्नत बनाने का कार्य। यही  स्वामी विवेकानन्द की कार्य पद्धति है। स्वामीजी ने कहा है - ' उपदेश तो तुझे अनेको दिए, मेरे उपदेशों को सच्चे अर्थों में समझ कर कार्य में लग जाओ,...कम से कम एक ही उपदेश- "Be and Make" को तो कार्य में परिणत करके दिखा दो, ताकि  दुनिया यह देख सके कि तुम्हारा शास्त्र पढना और मेरे उपदेशों को सुनना सार्थक हुआ है! 
'महामण्डल की कामना भी यही है कि, स्वामीजी यह देख लें कि हमने उनके उपदेशों को सुना है, और उसके मर्म को समझा है ।  उनके व्यावहारिक वेदान्त के उपदेशों को हमलोग व्यवहार में अपना कर अपने जीवन में परिवर्तन लायेंगे, जगत के कल्याण के लिये, भारत के उन करोड़ों पद-दलितों के लिये, जिनकी कल्याण की चिन्ता से स्वामीजी आंसू बहाया करते थे - हम अपने जीवन को न्योछावर कर देंगे।  यह कोई हंसी-खेल की बात नहीं है, यह समय की पुकार है, विश्व की सबसे आवश्यक मांग है, जिसे सुन कर प्रत्येक युवा ह्रदय में छट -पटाहट मचनी चाहिये, सीने में एक आग सी उठनी चाहिये। स्वामीजी ने हमे पहले भी पुकारा था (पूर्वजन्म में जब नवनीदा कैप्टन सेवियर थे, तब भी पुकारा था), औरआज भी वे युवाओं को ही पुकार रहे हैं (35 वर्षीय नवनीदा को पुकार रहे हैं) , तथा सदैव वे इसी प्रकार भावी युवा नेताओं को ही पुकारते रहेंगे। क्या हम इसबार (इस जन्म में) भी उनकी पुकार को अनसुना कर देंगे ? उन्हों ने हमें एक अलग  ढंग से आशीर्वाद देते हुए कहा था - ' मुझे यह देख कर प्रसन्न हो लेने दो, कि मानवता के कल्याण के लिये तुमने मृत्यु तक का वरण कर लिया है !'इससे यह स्पष्ट है कि केवल साहसी व्यक्ति ही स्वामीजी के निकट पहुँच सकते हैं, उनकी पुकार सुन सकते हैं, तथा उनको आश्वस्त करने के लिये स्वयं को समर्पित करते हुए कह सकते हैं - ' हाँ, स्वामीजी हम आपके पद -चिन्हों पर चलने को तैयार हैं। स्वामी विवेकानन्द का अनुसरण  करने का यह अर्थ नहीं कि, हम उनके जन्म तिथि को बड़े धूम-धाम से उत्सव के रूप में आयोजित करते रहें।  उनके अनुयायी बनने का अर्थ यह भी नहीं है कि हम जगह-जगह स्वामीजी की मूर्तियाँ स्थापित करते रहें, या उनका मन्दिर बनवाते रहें, तथा उक्त अवसर पर तथाकथित बड़े-बड़े लोगों को बुलवाकर लेक्चर दिलवाते रहें। उनका अनुयायी होने से हमारा तात्पर्य है, उनके ही साँचे में ; 'एक भावी आचार्य के साँचे में' अपने जीवन को ढाल दें।  बिना कोई दिखावा किये अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करके दूसरे युवाओं के समक्ष एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें। 
अपना जीवन गठन करने के पीछे कोई निहित स्वार्थ (कामिनी -कांचन) , कोई कीर्ति-पुरस्कार पाने की इच्छा, या धन्यवाद का शब्द सुनने की इच्छा भी मन में नहीं उठनी चाहिये।  हमारे जीवन-गठन का एकमात्र उद्देश्य होगा कि यह भारत माता कि सेवा के योग्य बन जाये।  देश वासियों की जो सर्वोत्तम सेवा हमारे द्वारा हो सकती है, वह यही है कि हम उनके मन को  उदार भावों और उन्नत विचारों से परिपूर्ण कर दें।  स्वामीजी के उपदेशों को अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है, यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे स्वीकार कर लेना आसन नहीं है। स्वामीजी को समझने के लिये  केवल ' Head ' या बुद्धि का रहना ही यथेष्ट नहीं है, यदि हम स्वामीजी को समझना चाहते हों तो हमें अपना ' Heart ' या ह्रदय के बन्द कपाट को भी खोल देना होगा ! 
वैज्ञानिक कथाओं (science fictions) में जब भावी विकसित मनुष्य की काल्पनिक छवि को दिखलाने की चेष्टा की जाती है, तो अक्सर उसे इस प्रकार चित्रित किया जाता है, कि लगातार मनुष्य के मस्तिष्क का विकास होते रहने के कारण, भावी विकसित मनुष्य (एलियन) का धड़ तो निर्बल और बौने शरीर का होगा, किन्तु उस पर लगा हुआ सिर काफी बड़े आकार का होगा। परन्तु यदि स्वामी विवेकानन्द की / या महामण्डल की " व्यावहारिक वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में विकसित 3'H' की दृष्टि से, भविष्य के विकसित मनुष्यों की आकृति को चित्रित करें तो उसके विशाल और दृढ धड़ के ऊपर रखा सिर तो बड़ा होगा, किन्तु उसके चौड़े से सीने में (56 " वाले सीने में) एक बहुत बड़ा सा हृदय भी जुड़ा हुआ होगा! भविष्य का मानव प्रेम से परिपूर्ण ह्रदय वाला होगा, जिसके ह्रदय में सम्पूर्ण मानव जाति के लिये ,सच्ची करुणा होगी। जिसका शत्रु कोई नही होगा, सभी जाति और सम्प्रदाय के मनुष्य उसके मित्र होंगे। स्वामीजी की हमसे यही अपेक्षा थी कि हम लोग एक "पूर्ण हृदयवान मनुष्य " (Heart Whole Man) बन जाएँ ! हमारा ' ह्रदय रूपी कलश '  प्रेम की ज्योति से परिपूर्ण हो जाये। [ज्योति-कलश छलके, घर आंगन वन उपवन उपवन, करती ज्योति अमृत के सींचन, मंगल घट ढल के - २, ज्योति कलश छलके। ज्योति यशोदा धरती मैय्या, नील गगन गोपाल कन्हैय्या, श्यामल छवि झलके - '२' ज्योति कलश छलके।(गीतकार / पं. नरेंद्र शर्मा/ गायिका - लता मंगेशकर)भविष्य का विकसित मानव अपने तथा सम्पूर्ण जगत के बीच एकात्मता का अनुभव कर लेने में समर्थ होगा ! 
जब हमलोग भी इस प्रकार ' Be and Make~ विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' प्रशिक्षित "मनुष्य " बनने में समर्थ हो जायेंगे तो हम सब भी नेता बन सकेंगे। आज मानव जाति को हजारों की संख्या में ऐसे ही नेताओं की आवश्यकता है। महामण्डल ऐसे ही नेताओं का निर्माण करने वाला आन्दोलन है। इस आन्दोलन का प्रारंभ हुए अभी सिर्फ 52 वर्ष ही हुए है, भारत जैसे किसी प्राचीन राष्ट्र के जीवन में 52 वर्ष की अवधि कोई ज्यादा माने नहीं रखती। यदि भारत को पुनरुज्जीवित होना है, तो इसे केवल सच्चे आध्यात्म की शक्ति से जगाया जा सकता है , और श्री रामकृष्णदेव ने उस आध्यात्मिक ज्वार के फाटक को एक बार फिर से खोल दिया है। हमलोगों को उस आधात्मिकता के ज्वार रूपी मनोतीर्थ में डुबकी लगानी चाहिये।  विश्व  मानवता के प्रति प्रेम तथा आत्म-उत्सर्ग के अतिरिक्त आध्यात्मिकता और क्या है ? ह्रदय की उदारता, निः स्वार्थपरता, इन्द्रिय भोगों का त्याग के सिवा आधात्मिकता और क्या है ? अतः आओ, भाइयों हम सभी आध्यात्मिक मनुष्य बनें, पूर्ण हृदयवान मनुष्य बने , तथा आस-पास रहने वाले प्रत्येक मनुष्य को इसी प्रकार का आध्यात्मिक मनुष्य बनने के लिये अनुप्रेरित करें। महामण्डल के नेता का कर्त्तव्य है की वह नेतृत्व के इस गूढ़ रहस्य को भारत के गाँव -गाँव तक ही नहीं, विश्व के प्रत्येक मनुष्य तक पहुँचा दे।  इसी कार्य को रूपायित करने में समर्थ नेता हम सब को अवश्य बनना है ! ... इस प्रकार उदाहरण अन्य अवतारों की बाललीला के समय भी देखने को मिलते हैं।
-------------------- 

























कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें