6. नरलीला में सभी कार्य सामान्य मनुष्य की तरह होते हैं। "नरलीलाय समस्त कार्य साधारण नरेर न्याय होय" নরলীলায় সমস্ত কার্য সাধারণ নরের ন্যায় হয়/When sporting like a man, the Divine behaves like a man: उन भक्तों की श्रेणी के लिए जो यह सोचते हैं कि जीवन में सत्य (ब्रह्मत्व) की प्राप्ति तथा उसके पूर्ण अभिव्यक्ति (प्रकटीकरण) के लिए ईश्वर के अवतारों के प्रयास मात्र एक बहाना (simulation-स्वांग रचना) हैं, उनके लिए हमारा उत्तर है कि, श्रीरामकृष्णदेव के श्रीमुख से हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी है। इसके विपरीत कई बार उन्हें ऐसा कहते सुना है कि - " जब नारायण स्वयं नरशरीर को स्वीकार कर नरलीला करते हैं, तो वे भी बिल्कुल सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं। उन्हें भी सुख-दुःख का वैसा ही अनुभव होता है, जैसा कोई सामान्य मनुष्य अनुभव करता है। एवं मनुष्य के ही समान उद्यम (personal effort),चेष्टा (endeavour- हाथ पाँव मारना) तथा तपस्या (austerity) आदि के द्वारा उन्हें भी सभी विषयों में (3'H' विकास के 5 अभ्यास में ?) पूर्णत्व प्राप्त करना पड़ता है।" [ बाहर तो वे साधारण मनुष्य की तरह दिखाई देते हैं, पर भीतर से वे समस्त कर्म-कोलाहल से परे परम् शान्त अवस्था में प्रतिष्ठित रहते हैं।]
संसार के समस्त धर्मों का इतिहास इस बात का गवाह है। The history of the religions of the world bears witness to this. विश्व के समस्त पूर्वकालीन अवतारों/ पैगम्बरों/नेताओं की जीवनी (Biography) तथा महामण्डल के संस्थापक सचिव/नेता, आचार्य नवनीहरण मुखोपाध्याय की आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक (memorabilia) "जीवन नदी के हर मोड़ पर" का तुलनात्मक अध्यन (comparative study) करने और तार्किक-विश्लेषण (logical analysis) की सहायता से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि ऐसा न हो; तो साधक (सत्यार्थी या मुमुक्षु) का मार्गदर्शन करने हेतु दया करके ईश्वर के नरदेह धारण करने का उद्देश्य बिल्कुल सिद्ध नहीं होता, और ईश्वर के नरदेह धारण करने की परेशानियों में कोई सार्थकता भी नहीं रहती।
आधुनिक युग में मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता भगवान श्रीराकृष्णदेव अपने भक्तों को उनकी स्वाभाविक रुझानों के अनुसार दो श्रेणियों ----'निवृत्ति और प्रवृत्ति ' में विभक्त कर अलग-अलग ढंग से उपदेश दिया करते थे। उनके कुछ शिक्षाओं का उल्लेख करने से पाठक (भावी नेता /शिक्षक) इस विषय को स्वयं समझ जायेंगे।
निवृत्ति मार्ग के अधिकारी भक्तों के लिए उनका उपदेश होता था ----- " मैंने चावल पका लिया है, तुम परोसे हुए भात की थाली लेकर खाने को बैठ जाओ।", " साँचा तैयार हो गया है, तुम लोग उसमें अपने अपने मन को डालदो तथा उसे गढ़ लो। " "यदि स्वयं कुछ भी न कर सको तो मुझे अपना बकलमा (power of attorney) दे दो!"... इत्यादि [नवनीदा के एक पत्र में उन भावी शिक्षकों को जो प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने के अधिकारी थे उन्हें भी इसी प्रकार का आश्वासन दिया गया है।]
अमृतवाणी: "संन्यास-ग्रहण का अधिकारी कौन है ? ------'जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग त्याग देता है, 'कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा ' इसकी बिल्कुल फ़िक्र नहीं करता, वही ठीक ठीक संन्यासी बनने की पात्रता रखता है। जो ताड़ के पेड़ से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है, वही संन्यास ग्रहण का अधिकारी है।
[अपने पहले कैम्प में लेखक जब अमिताभ कट बाल कटवाकर और पैन्ट -शर्ट के बदले सफेद धोती-कुर्ता पहन कर दादा के रूम में गया तो दादा ने खुश होने के बजाय -गंभीर मुद्रा में यही कहा था।:- " सफ़ेद स्वच्छ कपड़े पर अगर थोड़ा सा भी काला धब्बा लग जाये तो वह बहुत भद्दा दिखाई देता है। साधुओं का छोटासा दोष (आशाराम -धरमपाल-रामरहीम आदि का दोष ?) भी बड़ा भारी मालूम होता है।
" संन्यासी का सोलहों आना त्याग देखकर ही साधारण लोगों को साहस होगा, तभी वे भी कामिनी-कांचन -कीर्ति में आसक्ति को त्यागने का प्रयत्न करेंगे। भला, त्याग की शिक्षा अगर संन्यासी न दे तो दे कौन ?
" एक आदमी अपने बीमार बच्चे को गोद में लेकर एक साधु के पास दवा लेने गया। साधु ने उससे कहा, 'कल आना। ' दूसरे दिन आदमी जब फिर गया तब उस साधु ने कहा , 'बच्चे को गुड़ बिल्कुल खाने मत देना, इसीसे वह अच्छा हो जायेगा। ' तब वह आदमी बोला ----'महाराज, यह बात तो आप कल भी बता सकते थे। ' साधु ने कहा -----' है, बता तो सकता था , पर कल मेरे सामने ही गुड़ रखा हुआ था, यह बात अगर मैं कल बताता, तो तुम्हारा बच्चा सोचता कि यह साधु खुद तो गुड़ खाता है, और दूसरे को मना करता है ? ..... पर उपदेश कुशल बहुतेरे !
भक्त --------'सच्चे साधु की पहचान क्या है ? श्रीरामकृष्ण ---------" सच्चा साधु कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति को सम्पूर्ण रूप से त्याग देता है। वह स्त्रियों की ओर ऐहिक दृष्टि (भोगी -दृष्टि) से नहीं देखता। वह सदा स्त्रियों से दूर रहता है, और यदि कोई स्त्री उसके पास आये तो उसे माता के समान देखता है। वह सदा ईश्वर-चिंतन में मग्न रहता है, और सर्वभूतों में ईश्वर विराजमान हैं, यह जानकर सब की सेवा करता है।
" जो साधु दवाई देता हो, झाड़-फूँक करता हो, रुपया-पैसा लेता हो, और भभूत रमाकर या माला-तिलक आदि बाह्य चिन्हों का आडम्बर रचाकर मानो 'साइन बोर्ड' लगाकर लोगों के सामने अपनी गुरुगिरि का प्रदर्शन करता हो, उस पर कभी विश्वास मत करना।
दूसरी ओर घर -संसार में रहनेवाले प्रवृत्ति-मार्गी साधक के प्रति श्रीरामकृष्णदेव का उपदेश होता था ------ " एक-एक करते हुए सब वासनाओं (Bh) को त्याग दो, तभी नेतृत्व करने की पात्रता अर्जित करने की दिशा में अग्रसर हो सकोगे। " आँधी के सम्मुख डाल से टूटे पत्ते के सदृश (castoff leaf blown by the wind) बने रहो।" " कामिनी-कांचन (lust and lucre) में आसक्ति को त्यागकर ईश्वर को पुकारो।" "मैं सोलह आने कर चुका हूँ, तुम एक आना भर तो करो। "
अमृतवाणी से : " तान्त्रिक शवसाधना में साधक को शव की छाती पर बैठकर साधना करनी होती है। शवसाधना करते समय साधक को अपने साथ चना-चबेना और शराब लेकर बैठना पड़ता है। साधना के समय बीच में यदि शव जागकर मुँह फाड़े तो उस समय उसके मुँह में कुछ चना और मदिरा देनी पड़ती है। ऐसा करने से वह फिर स्थिर हो जाता है। अन्यथा वह साधक को डराकर साधना में विघ्न उत्पन्न करता है। इसी तरह यदि तुमको संसार में रहकर साधना करनी हो तो पहले संसार की जरुरी माँगों की पूर्ति का प्रबन्ध कर लो, अन्यथा संसाररूपी शव तुम्हारी साधना में विघ्न डालेगा।
प्रश्न----हमें तो हमेशा दाल-रोटी की फ़िक्र करनी पड़ती है, हम साधना कैसे करें ?
उत्तर ----- " तुम जिसके लिए श्रम करोगे ; जिसका काम करोगे (यदि ठाकुर का काम -महामण्डल करोगे तो वही ठाकुरदेव) वही तुम्हें भोजन देगा। जिसने तुम्हें संसार में भेजा है उसने पहले से तुम्हारी खुराक का प्रबन्ध कर रखा है। "
एक गृहस्थ भक्त -महाराज, क्या मुझे ज्यादा पैसा कमाने के लिए कोशिश करनी चाहिए ? श्रीरामकृष्ण ---------- " हाँ, यदि तुम 'विवेक-प्रयोग ' करते हुए संसार धर्म का (परिवार और समाज के प्रति अपने करनीय कर्तव्यों का) पालन करो तब ऐसे संसार के लिए आवश्यक धन कमा सकते हो। पर ख्याल रहे कि तुम्हारी कमाई ईमानदारी की हो, क्योंकि तुम्हारा उद्देश्य धन कमाना नहीं है। ईश्वर की सेवा करना ही तुम्हारा उद्देश्य है; ईश्वर की सेवा के लिए धन कमाने में कोई दोष नहीं है। "
" जब भगवान ने तुम्हें संसार में ही रखा है, तो तुम क्या करोगे ? उनकी शरण लो, उन्हें सब कुछ सौंप दो, उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो। ऐसा करने से फिर कोई कष्ट नहीं रह जायेगा। तब तुम देखोगे कि सब कुछ (40 साल बाद Bh ?) उन्हीं की इच्छा से हो रहा है। "
" एक या दो सन्तान हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहते हुए सतत भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे प्रभो, हमें शक्ति दो कि हम संयम और पवित्रतापूर्ण जीवन बिता सकें। "
" संसार में रहो पर संसारी मत बनो। जैसी की कहावत है - ' सॉँप के मुख पर मेढ़क को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाये।
" नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं , पर नाव के अंदर पानी न रहे। वरना नाव डूब जाएगी। साधक संसार में तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु साधक के भीतर संसार (की आसक्ति) न रहे।
" संसार में रहकर निर्लिप्त रहना बड़ा कठिन है। जनक राजा ने पहले कितनी कठोर तपस्या की थी। तुम्हें उतनी कठोर तपस्या करने की जरूरत नहीं। परन्तु साधना करनी होगी , निर्जनवास करना ही होगा। निर्जन में ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके फिर संसार में प्रवेश कर सकते हो।
" जनक राजा निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम 'विदेह ' था -----विदेह यानी देहबोध-रहित ! वे संसार में रहते हुए भी जीवन्मुक्त थे [भ्रममुक्त या dehypnotized थे।] परन्तु देहबोध (M/F मानने की आदत) का नष्ट होना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बहुत साधना चाहिए। [ चरित्र-गठन, चरित्र-निर्माण कैसे करें ?, चरित्र के गुण, नेति से इति आदि महामण्डल पुस्तिकाओं से दीर्घ अभ्यास आवश्यक है।] जनक राजा बड़े वीर (Hero) थे। वे एक ही साथ दो तलवारें चलाते थे --------एक ज्ञान की,दूसरी कर्म की।
"गृहस्थ आश्रम में रहकर भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। जैसे राजर्षि [राजा + ऋषि] जनक को हुए थे। परन्तु कहने मात्र से कोई राजा जनक नहीं बन जाता। जनक राजा ने पहले निर्जन में जाकर कितने वर्षों तक उग्र तपस्या की थी। तुम भी यदि संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहो, तो पहले तुम्हें निर्जन में रहकर साधना करनी चाहिए। निर्जन में जाना जरुरी है -----एक साल के लिए , छह महीने के लिए, एक महीने के लिए या कम से कम 12 ही दिनों के लिए सही। [ महामण्डल द्वारा आयोजित 6 दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, 4 दिवसीय इन्टर-स्टेट कैम्प, या 3 दिवसीय राज्य स्तरीय कैम्प, कम से कम 1 day camp, या साप्ताहिक पाठ-चक्र में जितना अधिक-से -अधिक गुरुगृह-वास करते हुए युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने का मौका मिले -निर्जन में अर्थात जहाँ मनुष्य बनने और बनाने के अतिरिक्त और कोई चर्चा न होती हो, वहाँ जरूर जाना चाहिए। ]
" जो लोग किसी को पूजा-उपासना करते देख (महामण्डल द्वारा आयोजित साप्ताहिक पाठचक्र और एन्यूअल कैम्प जाते देखकर) उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, धर्म की (हमारे लिए करनीय : विवेक-प्रयोग और चरित्रनिर्माण की) और धार्मिक व्यक्तियों की (महामण्डल के ब्रह्मवेत्ता नेता/या जीवनमुक्त शिक्षक की) निन्दा करते हैं , साधक अवस्था या मुमुक्षु अवस्था में ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए।
" संसार में रहकर सब कर्तव्यों को करते हुए जो मन को ईश्वर में स्थिर रखकर साधना (महामण्डल )कर सकता है, वह यथार्थ में वीर साधक है। शक्तिवान पुरुष ही सिर पर दो मन भारी बोझ [लाइट] लादकर चलते हुए गर्दन मोड़कर राह से गुजरते हुए बारात की ओर देख सकता है।
" जो संसार में रहते हुए साधना करते हैं, वे किले की ओट से युद्ध करने वाले सैनिकों की तरह होते है। और जो भगवान के लिए संसार को त्याग कर चले जाते हैं, वे खुले मैदान में लड़ने वाले सैनिकों की तरह होते हैं। किले के भीतर रहकर लड़ना खुले मैदान में लड़ने से काफी सरल और सुरक्षित है।
" शत्रु का मुकाबला करने की तैयारी के लिए पहले सैनिक लोग बैरक में ही युद्ध करना सीखते हैं।
बैरक में युद्धक्षेत्र की तरह कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार, तुम लोग भी संन्यासी जीवन को अपनाने के पहले गृहस्थी की सुख-सुविधाओं के भीतर रहकर साधना करते हुए उस जीवन की कठिनाइयों को सहने के लिए तैयार हो लो।[ निवृत्ति मार्ग में आने के पहले, प्रवृत्ति मार्ग के महत्व और निस्सारता दोनों को समझ लो। ]
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स्वामी विवेकानन्द ने ३० नवम्बर १८९४ को गृहस्थों (प्रवृत्ति मार्गी शिष्यों ) में त्यागी (निवृत्ति मार्गी जैसा) नेतृत्व-क्षमता जाग्रत करने के उद्देश्य से तीन पत्र लिखे थे, डा० नंजुदा राव को लिखे पत्र में कहते हैं - ' मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारत-माता अपनी उन्नति के लिये अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे। ...महापुरुषों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभ फल का भोग जनता ने किया।
अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिये सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ? क्या तुम संसार के कल्याण के लिये अपनी मुक्ति-कामना तक छोड़ने को तैयार हो ? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो। मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिये ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिये। अर्थात कुछ काल के लिये स्त्री-संग छोड़ कर अपने पिता के घर में रहो ; यही ' कुटीचक ' अवस्था है। संसार की हित- कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। ...कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ शिक्षक ( ऋषि-तुल्य नेता ) होना है।
..पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो। तन,मन और प्राणों का उत्सर्ग करके श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करने में लग जाओ, क्योंकि (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने के योग्य बनने के लिए) कर्म पहला सोपान है। भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है ; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचार-पीड़ित है। परन्तु ईश्वर दयामय है। वह फिर अपनी साधू-संतानों के परित्राण के लिये (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म मार्ग या वर्णाश्रम धर्म को पुनर्संस्थापित करने के लिए श्री रामकृष्ण ( महामण्डल और नवनिदा) का रूप धर कर अवतरित हुआ है, पुनः पतित भारत को उठने का सुयोग मिला है।
श्री रामकृष्ण परमहंस के पदप्रांत में बैठने (अर्थात महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण आंदोलन का नेता बनने और बनाने) पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। श्रीरामकृष्ण की जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को (Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा को) चारों ओर फैलाना होगा, ...यह काम कौन करेगा? श्री रामकृष्ण की पताका (महामण्डल-ध्वज) हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये अभियान करने वाला है कोई ?
नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान करके अवनति की बाढ़ रोकने वाला है कोई? कुछ इने-गिने ( निवृत्ति मार्गी, त्यागी ) युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है, ...परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे - कई हजार मनुष्य आयें और मैं जनता हूँ कि वे आयेंगे।"( ३:३३७)
" चाहे पूर्व प्रयत्न करे, चाहे पश्चिम, भारत कभी यूरोप नहीं बन सकता, जबतक कि वह मर-मिट न जाये। ...जिस भूमि में ऋषि-तुल्य मनुष्य अभी भी जीवित और जाग्रत हैं, क्या मर जायेगा ? ...जो यह समझते हैं कि सनातन धर्म का यह पुनरुत्थान देशभक्ति की प्रवृत्ति का विकास मात्र है, वे भ्रम में हैं। ...क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जब कि वर्तमान वैज्ञानिक खोज के प्रबल आक्रमण के सामने मतान्ध और हठधर्मी धर्मों के पुराने किले टूट टूटकर धूलि में मिल रहे हैं, जब कि आधुनिक विज्ञान के हथौड़ों की चोटें उन धार्मिक मतों को चीनी मिट्टी के बर्तनों की तरह चूर चूर कर रही हैं, जिनका आधार केवल विश्वास या चर्च-समिति की सभाओं का बहुमत है, ...इनमें से अधिकांश तो रद्दीखाने में डाल दिए गये, जबकि पश्चिम के अधिकांश विचारशील व्यक्ति चर्च के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ कर ..वेदों का धर्म ही पुनरुज्जीवित हो रहे हैं ! जिसमे कहा गया है- प्रत्येक स्त्री-पुरुष, यही नहीं उच्चतम देवों से लेकर पदतलस्थ कीट पर्यंत सभी वही आत्मा हैं, कोई ज्यादा विकसित कोई अविकसित है। अन्तर प्रकार में नहीं, केवल परिणाम में है। आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने पर ही होने से मनुष्य ही ईश्वर में रूपान्तरित हो जाता है ! पहले हमें ईश्वर बन लेने दो; तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। ' Be and Make ' - अर्थात बनो और बनाओ, यही हमारा मूल-मंत्र रहे ! " ( ९:३७९)
विशेष तौर से जो दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हों, भारत के उन सभी भावी नेताओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिये। उनमें ' स्पष्ट विचारण-क्षमता ( clear thinking ) एवं दूरदर्शिता (farsightedness ) ' इन दो गुणों का होना अत्यन्त आवश्यक है।
हमें अपने व्यक्तिगत भविष्य को उज्जवल बनाने के साथ साथ अपने देश के भविष्य को भी उज्जवल बनाने का प्रयास करना चाहिये। अतः भावी शिक्षकों/नेताओं में भारत के गौरवशाली अतीत के प्रति स्पष्टविचारण-क्षमता तथा उसके अत्यंत उज्जवल भविष्य को देखने की दूरदर्शिता भी अवश्य रहनी चाहिये। मन ही मन कल्पना करके यह देखने में, उन्हें समर्थ होना चाहिये कि यदि अभी से हमलोग 'Be and Make -श्रुति परम्परा' (अर्थात न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। 'कैवल्योपनिषत्' की परम्परा) में प्रशिक्षित, पूर्णतः निःस्वार्थी इसलिए वज्र के समान अप्रतिरोध्य जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने के "लक्ष्य" प्राप्ति की दिशा में एकजुट हो कर पूरी लगन और मिहनत से प्रयास करें; तो २५ वर्ष, ५० वर्ष या १०० वर्ष बाद हमारा (महामण्डल का) भविष्य कैसा हो सकता है ? महामण्डल के 300 + केन्द्रों में वैसे भ्रममुक्त नेता/ (PR) अभी कौन-कौन हैं, उनकी कुल संख्या कितनी है , उनके नाम, स्थान और मोबाईल नंबर क्या है? प्रत्येक राज्य और जिले में वैसे भ्रममुक्त और वज्र जैसे अप्रतिरोध्य नेताओं की SpTC कब से शुरू हो सकती है ? जिस संस्थागत लक्ष्य को हम निर्धारित समय के भीतर ही प्राप्त कर लेना चाहते हैं, उसका नक्शा या योजना सही ढंग से बना ली गयी है या नहीं ? या आवश्यकता पड़ने पर, बाद में उसमे कोई फेर-बदल कर उस नेतृत्व निर्माण (अजय2 ,जयप्रकाश, शशि, सुदीप, सुबोध,गजानन, मनोहर,अरुणाभ, रौनक,अनूप पांजा,.... निर्माण) में आने वाली अड़चनों से निबटा जा सकता है या नहीं ?
स्वतंत्र भारत में सर्वप्रथम नवनीदा ने अपने जीवन को ही उदाहरण के रूप में गढ़ कर, तथा महामण्डल को स्थापित करके यह समझाया है कि 'अवतार' का अर्थ होता है -मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर, लोक-शिक्षक अथवा आचार्य। भारत को यदि फिर से जगत का सितारा बनाना चाहते हों, तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ लोक-शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना है।
खरदह स्थित अपने पैतृक 'भुवन-भवन' का त्याग करके वे कोन्नगर के 'महामण्डल भवन' में रहने वाले नवनी दा के रूप में कैसे परिणत हुए, उसका पूरा विवरण उनके द्वारा स्वलिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' तथा अन्य महामण्डल पुस्तिकाओं में उपलब्ध है। उनके जीवन के उत्तरार्ध में उनके आश्चर्यजनक कार्य के साथ उनकी बाल्यकालीन शिक्षा (4 वर्ष में ही स्कुली शिक्षा की समाप्ति), उद्यम (17 वर्ष की आयु में ही क्रशर में नौकरी) तथा night college में पढ़कर B.A. करना, एक साल पढाई में गैप रहने के बाद M. A. करना, फिर अन्य आश्चर्यजनक कार्य - यथा बंगाल सरकार के उद्योग विभाग में नौकरी करते हुए 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' की 1967 में स्थापना से लेकर 2016 तक संचालन करने के बीच कोई स्वाभाविक पूर्वापर कार्य-कारण सम्बन्ध (natural nexus of cause and effect) दिखाई नहीं देता।
[हम चाहते हैं कि ऐसे कई हजार मनुष्य आएं जो प्रवृत्ति मार्ग से होते हुए 'निवृत्ति अस्तु महफला' को समझें और ब्रह्मवेत्ता मनुष्य/पैगम्बर/भ्रममुक्त लोकशिक्षक बनने और बनाने के कार्य में जुट जायें; और मैं जानता हूँ कि जब अद्वैत आश्रम ,मायावती,अल्मोड़ा महामण्डल के रूप में और कैप्टन सेवियर नवनीदा के रूप में और कोलकाता में अवतरित होगा -वे आएंगे।]
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संसार के समस्त धर्मों का इतिहास इस बात का गवाह है। The history of the religions of the world bears witness to this. विश्व के समस्त पूर्वकालीन अवतारों/ पैगम्बरों/नेताओं की जीवनी (Biography) तथा महामण्डल के संस्थापक सचिव/नेता, आचार्य नवनीहरण मुखोपाध्याय की आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक (memorabilia) "जीवन नदी के हर मोड़ पर" का तुलनात्मक अध्यन (comparative study) करने और तार्किक-विश्लेषण (logical analysis) की सहायता से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि ऐसा न हो; तो साधक (सत्यार्थी या मुमुक्षु) का मार्गदर्शन करने हेतु दया करके ईश्वर के नरदेह धारण करने का उद्देश्य बिल्कुल सिद्ध नहीं होता, और ईश्वर के नरदेह धारण करने की परेशानियों में कोई सार्थकता भी नहीं रहती।
आधुनिक युग में मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता भगवान श्रीराकृष्णदेव अपने भक्तों को उनकी स्वाभाविक रुझानों के अनुसार दो श्रेणियों ----'निवृत्ति और प्रवृत्ति ' में विभक्त कर अलग-अलग ढंग से उपदेश दिया करते थे। उनके कुछ शिक्षाओं का उल्लेख करने से पाठक (भावी नेता /शिक्षक) इस विषय को स्वयं समझ जायेंगे।
निवृत्ति मार्ग के अधिकारी भक्तों के लिए उनका उपदेश होता था ----- " मैंने चावल पका लिया है, तुम परोसे हुए भात की थाली लेकर खाने को बैठ जाओ।", " साँचा तैयार हो गया है, तुम लोग उसमें अपने अपने मन को डालदो तथा उसे गढ़ लो। " "यदि स्वयं कुछ भी न कर सको तो मुझे अपना बकलमा (power of attorney) दे दो!"... इत्यादि [नवनीदा के एक पत्र में उन भावी शिक्षकों को जो प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने के अधिकारी थे उन्हें भी इसी प्रकार का आश्वासन दिया गया है।]
अमृतवाणी: "संन्यास-ग्रहण का अधिकारी कौन है ? ------'जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग त्याग देता है, 'कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा ' इसकी बिल्कुल फ़िक्र नहीं करता, वही ठीक ठीक संन्यासी बनने की पात्रता रखता है। जो ताड़ के पेड़ से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है, वही संन्यास ग्रहण का अधिकारी है।
[अपने पहले कैम्प में लेखक जब अमिताभ कट बाल कटवाकर और पैन्ट -शर्ट के बदले सफेद धोती-कुर्ता पहन कर दादा के रूम में गया तो दादा ने खुश होने के बजाय -गंभीर मुद्रा में यही कहा था।:- " सफ़ेद स्वच्छ कपड़े पर अगर थोड़ा सा भी काला धब्बा लग जाये तो वह बहुत भद्दा दिखाई देता है। साधुओं का छोटासा दोष (आशाराम -धरमपाल-रामरहीम आदि का दोष ?) भी बड़ा भारी मालूम होता है।
" संन्यासी का सोलहों आना त्याग देखकर ही साधारण लोगों को साहस होगा, तभी वे भी कामिनी-कांचन -कीर्ति में आसक्ति को त्यागने का प्रयत्न करेंगे। भला, त्याग की शिक्षा अगर संन्यासी न दे तो दे कौन ?
" एक आदमी अपने बीमार बच्चे को गोद में लेकर एक साधु के पास दवा लेने गया। साधु ने उससे कहा, 'कल आना। ' दूसरे दिन आदमी जब फिर गया तब उस साधु ने कहा , 'बच्चे को गुड़ बिल्कुल खाने मत देना, इसीसे वह अच्छा हो जायेगा। ' तब वह आदमी बोला ----'महाराज, यह बात तो आप कल भी बता सकते थे। ' साधु ने कहा -----' है, बता तो सकता था , पर कल मेरे सामने ही गुड़ रखा हुआ था, यह बात अगर मैं कल बताता, तो तुम्हारा बच्चा सोचता कि यह साधु खुद तो गुड़ खाता है, और दूसरे को मना करता है ? ..... पर उपदेश कुशल बहुतेरे !
भक्त --------'सच्चे साधु की पहचान क्या है ? श्रीरामकृष्ण ---------" सच्चा साधु कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति को सम्पूर्ण रूप से त्याग देता है। वह स्त्रियों की ओर ऐहिक दृष्टि (भोगी -दृष्टि) से नहीं देखता। वह सदा स्त्रियों से दूर रहता है, और यदि कोई स्त्री उसके पास आये तो उसे माता के समान देखता है। वह सदा ईश्वर-चिंतन में मग्न रहता है, और सर्वभूतों में ईश्वर विराजमान हैं, यह जानकर सब की सेवा करता है।
" जो साधु दवाई देता हो, झाड़-फूँक करता हो, रुपया-पैसा लेता हो, और भभूत रमाकर या माला-तिलक आदि बाह्य चिन्हों का आडम्बर रचाकर मानो 'साइन बोर्ड' लगाकर लोगों के सामने अपनी गुरुगिरि का प्रदर्शन करता हो, उस पर कभी विश्वास मत करना।
दूसरी ओर घर -संसार में रहनेवाले प्रवृत्ति-मार्गी साधक के प्रति श्रीरामकृष्णदेव का उपदेश होता था ------ " एक-एक करते हुए सब वासनाओं (Bh) को त्याग दो, तभी नेतृत्व करने की पात्रता अर्जित करने की दिशा में अग्रसर हो सकोगे। " आँधी के सम्मुख डाल से टूटे पत्ते के सदृश (castoff leaf blown by the wind) बने रहो।" " कामिनी-कांचन (lust and lucre) में आसक्ति को त्यागकर ईश्वर को पुकारो।" "मैं सोलह आने कर चुका हूँ, तुम एक आना भर तो करो। "
अमृतवाणी से : " तान्त्रिक शवसाधना में साधक को शव की छाती पर बैठकर साधना करनी होती है। शवसाधना करते समय साधक को अपने साथ चना-चबेना और शराब लेकर बैठना पड़ता है। साधना के समय बीच में यदि शव जागकर मुँह फाड़े तो उस समय उसके मुँह में कुछ चना और मदिरा देनी पड़ती है। ऐसा करने से वह फिर स्थिर हो जाता है। अन्यथा वह साधक को डराकर साधना में विघ्न उत्पन्न करता है। इसी तरह यदि तुमको संसार में रहकर साधना करनी हो तो पहले संसार की जरुरी माँगों की पूर्ति का प्रबन्ध कर लो, अन्यथा संसाररूपी शव तुम्हारी साधना में विघ्न डालेगा।
प्रश्न----हमें तो हमेशा दाल-रोटी की फ़िक्र करनी पड़ती है, हम साधना कैसे करें ?
उत्तर ----- " तुम जिसके लिए श्रम करोगे ; जिसका काम करोगे (यदि ठाकुर का काम -महामण्डल करोगे तो वही ठाकुरदेव) वही तुम्हें भोजन देगा। जिसने तुम्हें संसार में भेजा है उसने पहले से तुम्हारी खुराक का प्रबन्ध कर रखा है। "
एक गृहस्थ भक्त -महाराज, क्या मुझे ज्यादा पैसा कमाने के लिए कोशिश करनी चाहिए ? श्रीरामकृष्ण ---------- " हाँ, यदि तुम 'विवेक-प्रयोग ' करते हुए संसार धर्म का (परिवार और समाज के प्रति अपने करनीय कर्तव्यों का) पालन करो तब ऐसे संसार के लिए आवश्यक धन कमा सकते हो। पर ख्याल रहे कि तुम्हारी कमाई ईमानदारी की हो, क्योंकि तुम्हारा उद्देश्य धन कमाना नहीं है। ईश्वर की सेवा करना ही तुम्हारा उद्देश्य है; ईश्वर की सेवा के लिए धन कमाने में कोई दोष नहीं है। "
" जब भगवान ने तुम्हें संसार में ही रखा है, तो तुम क्या करोगे ? उनकी शरण लो, उन्हें सब कुछ सौंप दो, उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो। ऐसा करने से फिर कोई कष्ट नहीं रह जायेगा। तब तुम देखोगे कि सब कुछ (40 साल बाद Bh ?) उन्हीं की इच्छा से हो रहा है। "
" एक या दो सन्तान हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहते हुए सतत भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे प्रभो, हमें शक्ति दो कि हम संयम और पवित्रतापूर्ण जीवन बिता सकें। "
" संसार में रहो पर संसारी मत बनो। जैसी की कहावत है - ' सॉँप के मुख पर मेढ़क को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाये।
" नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं , पर नाव के अंदर पानी न रहे। वरना नाव डूब जाएगी। साधक संसार में तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु साधक के भीतर संसार (की आसक्ति) न रहे।
" संसार में रहकर निर्लिप्त रहना बड़ा कठिन है। जनक राजा ने पहले कितनी कठोर तपस्या की थी। तुम्हें उतनी कठोर तपस्या करने की जरूरत नहीं। परन्तु साधना करनी होगी , निर्जनवास करना ही होगा। निर्जन में ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके फिर संसार में प्रवेश कर सकते हो।
" जनक राजा निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम 'विदेह ' था -----विदेह यानी देहबोध-रहित ! वे संसार में रहते हुए भी जीवन्मुक्त थे [भ्रममुक्त या dehypnotized थे।] परन्तु देहबोध (M/F मानने की आदत) का नष्ट होना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बहुत साधना चाहिए। [ चरित्र-गठन, चरित्र-निर्माण कैसे करें ?, चरित्र के गुण, नेति से इति आदि महामण्डल पुस्तिकाओं से दीर्घ अभ्यास आवश्यक है।] जनक राजा बड़े वीर (Hero) थे। वे एक ही साथ दो तलवारें चलाते थे --------एक ज्ञान की,दूसरी कर्म की।
"गृहस्थ आश्रम में रहकर भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। जैसे राजर्षि [राजा + ऋषि] जनक को हुए थे। परन्तु कहने मात्र से कोई राजा जनक नहीं बन जाता। जनक राजा ने पहले निर्जन में जाकर कितने वर्षों तक उग्र तपस्या की थी। तुम भी यदि संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहो, तो पहले तुम्हें निर्जन में रहकर साधना करनी चाहिए। निर्जन में जाना जरुरी है -----एक साल के लिए , छह महीने के लिए, एक महीने के लिए या कम से कम 12 ही दिनों के लिए सही। [ महामण्डल द्वारा आयोजित 6 दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, 4 दिवसीय इन्टर-स्टेट कैम्प, या 3 दिवसीय राज्य स्तरीय कैम्प, कम से कम 1 day camp, या साप्ताहिक पाठ-चक्र में जितना अधिक-से -अधिक गुरुगृह-वास करते हुए युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने का मौका मिले -निर्जन में अर्थात जहाँ मनुष्य बनने और बनाने के अतिरिक्त और कोई चर्चा न होती हो, वहाँ जरूर जाना चाहिए। ]
" जो लोग किसी को पूजा-उपासना करते देख (महामण्डल द्वारा आयोजित साप्ताहिक पाठचक्र और एन्यूअल कैम्प जाते देखकर) उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, धर्म की (हमारे लिए करनीय : विवेक-प्रयोग और चरित्रनिर्माण की) और धार्मिक व्यक्तियों की (महामण्डल के ब्रह्मवेत्ता नेता/या जीवनमुक्त शिक्षक की) निन्दा करते हैं , साधक अवस्था या मुमुक्षु अवस्था में ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए।
" संसार में रहकर सब कर्तव्यों को करते हुए जो मन को ईश्वर में स्थिर रखकर साधना (महामण्डल )कर सकता है, वह यथार्थ में वीर साधक है। शक्तिवान पुरुष ही सिर पर दो मन भारी बोझ [लाइट] लादकर चलते हुए गर्दन मोड़कर राह से गुजरते हुए बारात की ओर देख सकता है।
" जो संसार में रहते हुए साधना करते हैं, वे किले की ओट से युद्ध करने वाले सैनिकों की तरह होते है। और जो भगवान के लिए संसार को त्याग कर चले जाते हैं, वे खुले मैदान में लड़ने वाले सैनिकों की तरह होते हैं। किले के भीतर रहकर लड़ना खुले मैदान में लड़ने से काफी सरल और सुरक्षित है।
" शत्रु का मुकाबला करने की तैयारी के लिए पहले सैनिक लोग बैरक में ही युद्ध करना सीखते हैं।
बैरक में युद्धक्षेत्र की तरह कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार, तुम लोग भी संन्यासी जीवन को अपनाने के पहले गृहस्थी की सुख-सुविधाओं के भीतर रहकर साधना करते हुए उस जीवन की कठिनाइयों को सहने के लिए तैयार हो लो।[ निवृत्ति मार्ग में आने के पहले, प्रवृत्ति मार्ग के महत्व और निस्सारता दोनों को समझ लो। ]
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स्वामी विवेकानन्द ने ३० नवम्बर १८९४ को गृहस्थों (प्रवृत्ति मार्गी शिष्यों ) में त्यागी (निवृत्ति मार्गी जैसा) नेतृत्व-क्षमता जाग्रत करने के उद्देश्य से तीन पत्र लिखे थे, डा० नंजुदा राव को लिखे पत्र में कहते हैं - ' मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारत-माता अपनी उन्नति के लिये अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे। ...महापुरुषों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभ फल का भोग जनता ने किया।
अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिये सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ? क्या तुम संसार के कल्याण के लिये अपनी मुक्ति-कामना तक छोड़ने को तैयार हो ? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो। मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिये ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिये। अर्थात कुछ काल के लिये स्त्री-संग छोड़ कर अपने पिता के घर में रहो ; यही ' कुटीचक ' अवस्था है। संसार की हित- कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। ...कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ शिक्षक ( ऋषि-तुल्य नेता ) होना है।
..पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो। तन,मन और प्राणों का उत्सर्ग करके श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करने में लग जाओ, क्योंकि (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने के योग्य बनने के लिए) कर्म पहला सोपान है। भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है ; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचार-पीड़ित है। परन्तु ईश्वर दयामय है। वह फिर अपनी साधू-संतानों के परित्राण के लिये (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म मार्ग या वर्णाश्रम धर्म को पुनर्संस्थापित करने के लिए श्री रामकृष्ण ( महामण्डल और नवनिदा) का रूप धर कर अवतरित हुआ है, पुनः पतित भारत को उठने का सुयोग मिला है।
श्री रामकृष्ण परमहंस के पदप्रांत में बैठने (अर्थात महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण आंदोलन का नेता बनने और बनाने) पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। श्रीरामकृष्ण की जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को (Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा को) चारों ओर फैलाना होगा, ...यह काम कौन करेगा? श्री रामकृष्ण की पताका (महामण्डल-ध्वज) हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये अभियान करने वाला है कोई ?
नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान करके अवनति की बाढ़ रोकने वाला है कोई? कुछ इने-गिने ( निवृत्ति मार्गी, त्यागी ) युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है, ...परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे - कई हजार मनुष्य आयें और मैं जनता हूँ कि वे आयेंगे।"( ३:३३७)
स्वामी रामकृष्णानन्द ( शशि महाराज ) को १८९४ में लिखित एक पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " मूकं करोति वाचलं पंगुम लंघयते गिरिम -(मौनी मनमोहन 10 साल तक चुप रहने के बाद, बोलने लगता है-हमने भी सर्जिकल स्ट्राइक की थी !) मुझे उनकी कृपा पर आश्चर्य है। याद रखना, सब उनकी ही इच्छा से होता है - I am a voice without a form ...हजारों " गौरी माताओं " की आवश्यकता है, जिनमें उन्ही के समान महान एवं तेजोमय भाव हो।... हम सभी को चाहते हैं -(गृही और संन्यासी दोनों को) हममें एक बड़ा दोष यह है कि हम अपने सन्यास धर्म (निवृत्ति धर्म) के प्रति अत्यधिक गर्व का अनुभव करते हैं। (और प्रवृत्ति धर्म को अपने से कमतर समझते हैं ?) पहले-पहल उसकी उपयोगिता थी, अब तो हम लोग परिपक्व हो गये हैं (पाशविक जीवन या नीचे गिरने का भय अब नहीं है, अब हमलोग निरन्तर स्वरूप में स्थित हो कर-शिक्षक की भूमिका निभा सकते हैं ), उसकी ( I am holier than thou वाली मानसिकता की) अब बिल्कुल आवश्यकता नहीं। समझते हो भाई ? सन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न करना चाहिये, तभी वह यथार्थ सन्यासी हो सकेगा। ..जिसे प्रभु उठाते हैं, वही उठता है, जिसे वे गिराते हैं, वह गिरता है, ...परन्तु ' अहं ' -खोखला अहं - जिसके पास एक तिनके को भी उड़ा देने या भष्म कर देने की शक्ति नहीं, वह अगर किसी से कहे, ' मैं कभी तुम्हें उठने न दूंगा ', तो कितनी उपहासास्पद बात है !यही jealousy और absence of conjoined action - अर्थात इर्ष्या और मिल-जुल कार्य करने की शक्ति का आभाव गुलाम जाति का nature है ; एक हो कर कार्य करो ! हमलोग सार्वभौमिक धर्म स्थापित करने जा रहे हैं, ( गृही -त्यागी, आस्तिक-नास्तिक या भाषा के नाम पर) गुटबाजी करके ? " ( ३ :३५९-६२ )'
- "वर्तमान युग का हिन्दू युवक, जब सनातन धर्म के अनेक पन्थों की भूलभुलैया में भटकता हुआ, ....जिन राष्ट्रों ने निरी भौतिकता के सिवाय कभी भी और कुछ नहीं जाना, उनसे अपने पूर्वजों के धर्म को समझने की चेष्टा करना प्रारम्भ करता है, तब ...हताश जोकर अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है। और तब वह या तो वह निपट अज्ञेयवादी बन जाता है या अपनी धार्मिक प्रकृति की प्रेरणाओं के कारण धर्मान्तरण कर लेता है। केवल वे ही बच पाते हैं जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सदगुरु (अवतार या भ्रममुक्त आचार्य ) के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो चुकी है। " ( ९: ३६१)
हम उनसे कहेंगे -[सनातन धर्म के अनेक पन्थों की भूल-भुलैया में जो हिन्दू युवक भटका हुआ है, उन अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों से कहेंगे] - मेरे मित्रों, देखो तुम्हें तो पहले ही से- ' त्रय - दुर्लभं ' में से एक, यह दुर्लभ मानव तन प्राप्त हो चुका है, अब यदि जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने की पद्धति भी सीख लो, तो किसी महापुरुष का का आश्रय और जीवन-मुक्त नेता बनने का अवसर भी प्राप्त हो सकता है ! यही इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ है। मानव-तन प्राप्त करने का सर्वोत्तम लाभ क्या है ? यही कि हमें कुत्ते की मौत मरने के लिये विवश कोई नहीं कर सकता है। ]
" ..बौद्ध धर्म का एक हिस्सा भयानक कुसंस्कारों और कर्मकाण्डों में फंस गया, ...उसके द्वारा आर्य, मंगोल एवं आदिवासियों का जो एक विचित्र मिश्रण हुआ, उससे अज्ञात रूप से कितने ही बीभत्स वामाचार-सम्प्रदायों की सृष्टि हुई। इसीलिये श्री शंकराचार्य और उनके मतानुयायी सन्यासियों ( दशनामी संप्रदाय- गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, सरस्वती और आश्रम आदि ) को उन महान लोकगुरु बुद्ध द्वारा प्रदत्त उपदेशों के इस विकृत रूप में परिणत हिस्से को (हीनयान को) भारत के बाहर निकाल देना पड़ा। वर्णाश्रम धर्म और मनुसूत्र (मनुस्मृति) पर ....'ब्राह्मणत्व' एवं 'क्षत्रियत्व' पर अभिमान करने वाली केवल कुछ मिश्रित जातियाँ ही शेष रह गयीं। किन्तु इन लोगों को, और संसार के सभी मनुष्यों को इस ब्रह्मर्षिदेश में (आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त -जिस क्षेत्र में आभी ज वर्णाश्रम धर्म का पालन किया जाता है) में पैदा हुए ब्राह्मणों (ठाकुर और नवनीदा तुल्य ब्राह्मण/ नेता /आचार्य ) से ही चारित्र- निर्माण की शिक्षा प्राप्त करनी होगी! ' इन लोगों को दीन वेष में दाक्षिनात्यों के पदप्रांत में बैठ कर विनयपूर्वक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी ..फलस्वरूप वेदान्त का ऐसा पुनरुत्थान हुआ जैसा भारत ने और कभी नहीं देखा था ; यहाँ तक कि गृहस्थाश्रमी भी आरण्यकों के अध्यन में संलग्न हो गये।" ...गीता 5.19 में कहा है-" इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः"।। जिनका मन साम्य-भाव में अवस्थित है, उन्होंने जीवित दशा में ही संसार पर जय-लाभ कर लिया है। जिनका अन्तःकरण समता में अर्थात् " सब भूतों में ब्रह्मदर्शन" करने में सक्षम हो गया है, अर्थात जिस मुमुक्षु (सत्यान्वेषी, सत्यार्थी, शिष्य) का मन " बनो और बनाओ - वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" ('Be and Make'- Vedanta Leadership Training Tradition) में प्रशिक्षित होकर'ब्रह्मरूप समभाव में स्थित यानी निश्चल' हो गया है। उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्था में ही सर्ग को यानी जन्म-मृत्यु को जीत लिया है। अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है। यद्यपि मूर्ख लोगों को दोष-युक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोषयुक्त सा प्रतीत होता है, तो भी वास्तव में वह (आत्मा-Pure Consciousness) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। क्योंकि चेतन आत्मा (Witness- consciousness) के अनादि और निर्गुण होनेके कारण, वह कभी प्रतिबिंबित चेतना (reflected Consciousness, या अन्तःकरण के साथ लिप्त नहीं होता। '.. इसलिए श्रीरामकृष्ण देव कहते थे " सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन साधना का चरम फल है ! "और जब तक मानव (चाहे सन्यासी हो या गृहस्थ) इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता, तबतक वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। " ( ९ : ३५१-५६)
" महान पुरुषों की मृत्यु हुई है, दुर्बलों की मृत्यु हुई है। देवताओं की मृत्यु हुई है; मृत्यु - सब ओर मृत्यु। यह संसार अनन्त अतीत का कब्रिस्तान है, फिर भी हम इस शरीर से चिपटे रहते हैं -और इसी भ्रम में जीते हैं कि : ' मैं कभी मरने वाला नहीं हूँ। ' हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि इस शरीर को भी मरना होगा, फिर भी इससे चिपटे हुए हैं। पर उसमे भी एक अर्थ है ; क्योंकि एक अर्थ में ' हम ' कभी नहीं मरते,( आत्म-स्वरूप की दृष्टि से - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) गलती यह है कि हम शरीर से चिपटे रहते हैं, जब कि जो आत्मा है, वह वास्तव में अमर है। ...इस पहचान में होने वाली भूल को समाप्त करो ! तुम इसमें कितने आगे बढ़े हो ? तुम दो हजार अस्पताल भले ही बनवा लो, ५०,००० भले ही बनवा सको, पर उससे क्या, यदि तुमने ( तैरना नहीं सीखा ) यह अनुभूति नहीं प्राप्त की है कि तुम आत्मा हो ? तुम कुत्ते की मौत मरते हो, उसी भावना से, जिससे कुत्ता मरता है। कुत्ता चीखता है और रोता है, इसलिए कि वह समझता है कि वह जड़ तत्त्व मात्र है और विलीन होने जा रहा है। ...स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है। ईश्वर वहाँ है। वह सब आत्माओं की आत्मा है। उसे अपनी आत्मा में देखो। यह व्यावहारिक धर्म है। यही मुक्ति है ! हम ( भेष से हम भले सन्यासी हों या गृही हों ) एक दूसरे से पूछें कि क्या हमने इसमें कितनी प्रगति कि है? भारतीय कुशल प्रश्न है - आप अभी ' स्वस्थ ' हैं ? या काया-में स्थित हैं ? .... हम शरीर के कितने उपासक हैं ; या ईश्वर में , आत्मा में कितने सच्चे विश्वासी हैं ; हम अपने को आत्मा कहाँ तक समझते हैं ? यही निःस्वार्थपरता है। यही मुक्ति है, यह सच्ची उपासना है। ...अस्पताल ढह पड़ेंगे, रेल के दाता सब मर जायेंगे। पृथ्वी के चीथड़े उड़ जायेंगे, सूर्यों का सफाया हो जायेगा। आत्मा का ही अस्तित्व सदा रहेगा। अधिक ऊँचा या अधिक व्यावहारिक लक्ष्य क्या है ? उन नाशवान वस्तुओं को प्राप्त करने के पीछे दौड़ना, जीवन की सारी उर्जा नष्ट कर देना, जिनको प्राप्त करने से पहले ही मृत्यु आ जाती है, और तुमको उन सब को छोड़ ही देना होता है ? अथवा उसकी पूजा करना जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता ? उस महान राजा ( सिकंदर ?) की भाँति जिसने सबकुछ जीत लिया था। जब मौत आयी, तो उसने कहा , ' मेरे खजाने से भरे हुए कलसों को मेरे सामने फैला दो। ' उसने कहा - ' उस बड़े हीरे को मुझे दो ' ! और उसने उसे अपनी छाती पर रखा और रो पड़ा। इस प्रकार वह रोते हुए मरा, वैसे ही, जैसे कुत्ता मरता है। मनुष्य कहता है - ' मै जीता हूँ !' वह यह नहीं जानता कि इस मृत्यु के भय के करण ही वह जीवन से दासवत चिपका रहता है। वह कहता है, ' मैं भोग कराता हूँ !' उसे स्वप्न में भी यह विचार नहीं आता कि प्रकृति ने उसे अपना दास बना रखा है।...इसलिए आत्मा की अनुभूति आत्मा के रूप में करना व्यवहारी धर्म है। यह अनुभूति प्राप्त होती है त्रिविध -सर्पकेचुल के त्याग से और मनःसंयोग का अभ्यास करने से।... मैं भौतिक जीवन नहीं चाहता, इन्द्रिय-जीवन नहीं चाहता , वरन उससे ऊँची वस्तु चाहता हूँ। ' - यह है त्याग का वास्तविक अर्थ ! .. हम प्रकृति रूपी मादाड़ी (मृत्युरूपा माता, माँ काली) के इशारों पर नाचने वाले बन्दर हैं। यदि बाहर आवाज होती है तो मुझे वह सुननी पडती है। यदि कुछ हो रहा है तो मुझे वह देखना पड़ता है। बन्दरों की भाँति। बन्दर बड़े नकलची और जिज्ञासा प्रिय होते हैं। तो , जब हम अपने ऊपर वश नहीं रख पाते तो उसे ' मजा लेना ' कहते हैं। यह अनूठी भाषा है; हम संसार का मजा ले रहे हैं ! या हम मजा लेने के लिये विवश हैं ? मनः संयोग वह बल है, जो हमें इन सब का सामना करने का सामर्थ्य देता है| तुम्हारे पास जो ज्ञान है - वह कैसे आया ? मन को एकाग्र करने से, ध्यान की शक्ति से | आत्मा ने ज्ञान ( I am He ) को अपनी गहराई से मथ कर निकाला है। क्या उसके बाहर भी कभी ज्ञान रहा है ?..... दीर्घ काल तक मनः संयोग का अभ्यास करने से, ध्यान की वह शक्ति हमें अपने शरीर से ( त्रिविध केंचुल से ) अलग कर देती है और आत्मा अपने असली अजन्मा, अमर और अनादी स्वरूप को पहचान लेती है। अब दुःख नहीं रहता, इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेना पड़ता, आत्मा जान लेती है कि वह सदा पूर्ण है और मुक्त रही है। "( ३ : १७८ -८० )
स्वामी विवेकानन्द मानव जाति के सच्चे नेता थे, उन्होंने भारत के भविष्य को ऋषि-दृष्टि से देखते हुए कहा था - ' भारत अतीत में बहुत महान था, किन्तु निश्चित तौर पर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है। मेरा यह दृढ विश्वास कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा, जिसको उसने अब तक स्पर्श भी नहीं किया है। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देख कर संतुष्ट होंगे। भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मंडित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे तथा उसके सामने तुच्छ जान पड़ेंगे। " विशेष तौर से जो दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हों, भारत के उन सभी भावी नेताओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिये। उनमें ' स्पष्ट विचारण-क्षमता ( clear thinking ) एवं दूरदर्शिता (farsightedness ) ' इन दो गुणों का होना अत्यन्त आवश्यक है।
हमें अपने व्यक्तिगत भविष्य को उज्जवल बनाने के साथ साथ अपने देश के भविष्य को भी उज्जवल बनाने का प्रयास करना चाहिये। अतः भावी शिक्षकों/नेताओं में भारत के गौरवशाली अतीत के प्रति स्पष्टविचारण-क्षमता तथा उसके अत्यंत उज्जवल भविष्य को देखने की दूरदर्शिता भी अवश्य रहनी चाहिये। मन ही मन कल्पना करके यह देखने में, उन्हें समर्थ होना चाहिये कि यदि अभी से हमलोग 'Be and Make -श्रुति परम्परा' (अर्थात न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। 'कैवल्योपनिषत्' की परम्परा) में प्रशिक्षित, पूर्णतः निःस्वार्थी इसलिए वज्र के समान अप्रतिरोध्य जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने के "लक्ष्य" प्राप्ति की दिशा में एकजुट हो कर पूरी लगन और मिहनत से प्रयास करें; तो २५ वर्ष, ५० वर्ष या १०० वर्ष बाद हमारा (महामण्डल का) भविष्य कैसा हो सकता है ? महामण्डल के 300 + केन्द्रों में वैसे भ्रममुक्त नेता/ (PR) अभी कौन-कौन हैं, उनकी कुल संख्या कितनी है , उनके नाम, स्थान और मोबाईल नंबर क्या है? प्रत्येक राज्य और जिले में वैसे भ्रममुक्त और वज्र जैसे अप्रतिरोध्य नेताओं की SpTC कब से शुरू हो सकती है ? जिस संस्थागत लक्ष्य को हम निर्धारित समय के भीतर ही प्राप्त कर लेना चाहते हैं, उसका नक्शा या योजना सही ढंग से बना ली गयी है या नहीं ? या आवश्यकता पड़ने पर, बाद में उसमे कोई फेर-बदल कर उस नेतृत्व निर्माण (अजय2 ,जयप्रकाश, शशि, सुदीप, सुबोध,गजानन, मनोहर,अरुणाभ, रौनक,अनूप पांजा,.... निर्माण) में आने वाली अड़चनों से निबटा जा सकता है या नहीं ?
स्वामीजी ने कहा था - ' तुम जड़ नहीं हो, जड़ तो तुम्हारा दास है। ' जो नेता बनना चाहते हैं उन्हें इसके मर्म से अवश्य परिचित हो जाना चाहिये।(तुम मन के गुलाम नहीं हो, Matter या Mind ही तुम्हारा गुलाम है, तुम ब्रह्म हो जिसके एक-चौथाई में सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड स्थित है, तुम विश्वब्रह्माण्ड से तीनचौथाई ऊपर हो ! प्रकृति जड़ नहीं माँ जगदम्बा है ! ब्रह्म की शक्ति हैं !) हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर (अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य -सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने क्षमता, मुमुक्षु से नित्यमुक्त आचार्य बनने और बनाने के लक्ष्य की ओर ) सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये।
इसका तात्पर्य यह है कि हमें सर्वप्रथम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि केवल तभी हम अपनी अन्तः शक्तियों को समाज और देश कि सेवा में नियोजित करने में सक्षम हो सकेंगे। समाज में क्रन्तिकारी परिवर्तन, केवल ऋषि-तुल्य नेताओं या मानव जाति के श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करने के माध्यम से ही संभव हो सकता है। और ऐसे ही नेताओं की आवश्यकता हमें आज हजारों की संख्या में है। ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल देश या राज्यों की राजधानियों तक ही सिमित नहीं है, वरन इसकी आवश्यकता छोटे-बड़े शहरों, गाँवों, मुहल्लों, तथा देश के कोने कोने में है। मोहनिद्रा में निमग्न, दुःख-दारिद्र में पड़े सवा अरब कि जनसंख्या वाले इस देश को केवल वैसे ही नेता उठा सकते हैं जो स्वयं जाग चुके हों, जो पहले स्वयं भ्रममुक्त हो चुके हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मनुष्य का सच्चा स्वरूप वह है, जो अनादी, अनन्त, आनन्दमय तथा नित्य मुक्त है ; वही देश, काल और परिणाम के फेर में फंस गया है। यही प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में सत्य है। प्रत्येक वस्तु का परमार्थस्वरूप वही अनन्त है। यह विज्ञान-सम्मत सिद्धान्त (प्र्त्ययवाद) नहीं है, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य भौतिक जगत का अस्तित्व ही नहीं है। इसका अस्तित्व है, किन्तु यह सापेक्षिक सत्य है, और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं। लेकिन इसकी स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्त से अतीत निरपेक्ष आद्वितीय सत्ता मौजूद है। " ( ३:११८-११९ )
किन्तु वर्तमान समय में हमने जड़ मशीनों को ही अपना भगवान बना लिया है, और स्वयं मशीनों के दास बन गये हैं। इतना ही नहीं, हमने स्वयं को भी एक ह्रदय-रहित मशीन के रूप में बदल लिया है। हमने ऐसे मशीनी मानवों का निर्माण किया है, जो केवल लेना जानते हैं, देना तो सीखा ही नहीं है। हम सभी इस प्रकार के मशीनी मानव अर्थात ' रोबोट ' बन चुके हैं, जो बड़े ही स्वार्थी हैं तथा भविष्य में घोर स्वार्थी होकर ' सर्व-भक्षी राक्षस ' बन जाने की कामना करते हैं। यही कारण है कि भारत कि सामान्य जनता आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी गरीबी रेखा से नीचे, जीवन गुजर-बसर कर रही है। कम से कम अब तो उस कवी का करुण- क्रंदन चारों दिशाओं में गूंजना चाहिये, - ' हे ईश्वर ! अब और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो, बल्कि मानव जाति को उन्नत करने वाले सच्चे नेताओं, हजारों पैगम्बरों को उत्पन्न करो ! ' पर केवल प्रार्थना ही करते रहने से काम नहीं चलेगा, यह कार्य केवल तभी संभव होगा जब हम स्वयं देश के कोने कोने में रहने वाले युवाओं को उसी प्रकार के त्यागी-नेताओं के रूप में गढ़ सकें, जिस पर चर्चा हो चुकी है।
भगवान श्री रामकृष्ण को सन्यास-आश्रम ' श्री तोता पुरी ' से प्राप्त हुआ ' ...सिद्धान्त यह निकाला गया कि - ' अपरोक्षानुभूति सम्पन्न कोई भी मनुष्य ' आप्त ' हो सकता है !..ब्रह्म की अनुभूति और मोक्ष की प्राप्ति किसी अनुष्ठान, मत, वर्ण, जाति या संप्रदाय पर अवलम्बित नहीं है। कोई भी साधनचतुष्टय (१-नित्यानित्यवस्तुविवेक २- इहामुत्रफलभोगविराग ३- शम आदि षटसम्पत्ति ४- मुमुक्षत्व -मोक्षलाभ की प्रबल इच्छा।) - सम्पन्न साधक उसका अधिकारी बन सकता है। साधन-चतुष्टय (चरित्र - निर्माण) या चित्तशुद्धि करने वाले कुछ अनुष्ठान मात्र हैं। और इसी प्रकार हम क्रमशः उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह ' मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' आधारित है। स्वतंत्र भारत में सर्वप्रथम नवनीदा ने अपने जीवन को ही उदाहरण के रूप में गढ़ कर, तथा महामण्डल को स्थापित करके यह समझाया है कि 'अवतार' का अर्थ होता है -मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर, लोक-शिक्षक अथवा आचार्य। भारत को यदि फिर से जगत का सितारा बनाना चाहते हों, तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ लोक-शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना है।
खरदह स्थित अपने पैतृक 'भुवन-भवन' का त्याग करके वे कोन्नगर के 'महामण्डल भवन' में रहने वाले नवनी दा के रूप में कैसे परिणत हुए, उसका पूरा विवरण उनके द्वारा स्वलिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' तथा अन्य महामण्डल पुस्तिकाओं में उपलब्ध है। उनके जीवन के उत्तरार्ध में उनके आश्चर्यजनक कार्य के साथ उनकी बाल्यकालीन शिक्षा (4 वर्ष में ही स्कुली शिक्षा की समाप्ति), उद्यम (17 वर्ष की आयु में ही क्रशर में नौकरी) तथा night college में पढ़कर B.A. करना, एक साल पढाई में गैप रहने के बाद M. A. करना, फिर अन्य आश्चर्यजनक कार्य - यथा बंगाल सरकार के उद्योग विभाग में नौकरी करते हुए 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' की 1967 में स्थापना से लेकर 2016 तक संचालन करने के बीच कोई स्वाभाविक पूर्वापर कार्य-कारण सम्बन्ध (natural nexus of cause and effect) दिखाई नहीं देता।
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