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रविवार, 2 जून 2019

उदयति दिशि यस्सां भानुमान् सैव पूर्वा।

भारत की विदेश और घरेलू नीति 
(Foreign and Domestic Policy of India)  
" भारत का - NARA "
(National Ambition and Regional Aspirations of India)
भारत की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और क्षेत्रीय 
अथर्ववेद में भूमि को माता के रूप में स्वीकार किया गया है-माता भूमिः, पुत्रोंऽहं पृथिव्याः। उसमें भी भारत की भूमि तो रत्नगर्भा है। भारत भूमि को यह सौभाग्य प्राप्त है कि समय -समय पर इस धरती ने ऐसे नररत्न पैदा किये जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को पूरी दृढ़ता के साथ प्रचारित किया। इसी का परिणाम है कि जब पूरी दुनिया तनावग्रस्त है, तब वह आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए भारत की ओर निहार रही है। इसीलिए 1897 में जब स्वामी विवेकानन्द पाश्चत्य देशों की यात्रा से भारत लौटे थे तब पाम्बन अभिनन्दन के उत्तर में उन्होंने कहा था- "आज तो समस्त संसार आध्यात्मिक खाद्य के लिए भारत-भूमि की ओर ताक रहा है, और भारत को ही यह 'आध्यात्मिक खाद्य' प्रत्येक राष्ट्र को देना होगा। 5 /36 
(The eyes of the whole world are now turned towards this land of India for spiritual food; and India has to provide it for all the races.)
" under God's providence' : ईश्वर के विधान से (भारत की नियति से) आज, जब कितने  ही पश्चमी देश हमारे पास आध्यात्मिक सहायता के लिए खिंचे चले आ रहे हैं, तब - हम हिन्दू  स्वयं को बहुत कठिन तथा चुनौतीपूर्ण स्थिति में पाते हैं। आज भारत की सन्तान के ऊपर यह महान नैतिक दायित्व है कि वे मानवीय अस्तित्व की समस्या (आतंकवाद आदि) के विषय में संसार के पथ-प्रदर्शन के लिए अपने को पूरी तरह तैयार कर लें। (3'H' को पूर्णतः विक्सित कर लें। ) .... भले ही आज हम अधःपतित (degraded) और अपविकसित (degenerated) हो गए हों, और चाहे (निःस्वार्थपर) मनुष्य की अवस्था से पदच्युत होकर (घोरस्वार्थपर) पशु की अवस्था में क्यों न पहुँच चुके हों; परन्तु यह निश्चित है कि आज यदि हम अपने धर्म (वर्णाश्रम धर्म और पुरुषार्थ द्वारा पूर्णतः निःस्वार्थपर या भ्रममुक्त होने) के लिए तत्परता से कार्य-संलग्न हो जाएँ तो हम पुनः हम अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हो सकते हैं !" 5/37/]
["The nations of the West are coming to us for spiritual help. ...We Hindus have now been placed, under God's providence, in a very critical and responsible position. A great moral obligation rests on the sons of India to fully equip themselves for the work of enlightening the world on the problems of human existence....We may be degraded and degenerated now; but however degraded and degenerated we may be, we can become great if only we begin to work in right earnest on behalf of our religion. REPLY TO THE ADDRESS OF WELCOME AT PAMBAN)] 
" तब फिर मेरी योजना/नीति क्या है ? मेरी योजना है - प्राचीन महान आचार्यों की शिक्षाओं का अनुसरण करना।  (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं राम,कृष्ण, बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मुहम्मद,..... श्रीरामकृष्णदेव ....नवनीदा ..की जीवनी और शिक्षाओं का अनुसरण करना।) 
मैंने उनके कार्यों का अध्यन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया था, उस प्रणाली के [" Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के"] आविष्कार करने का सौभाग्य मुझे मिला! वे सब महान समाज-संस्थापक थे। बल, पवित्रता और संकल्प शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। " 5 /115 
" राजनीति (parliamentary-democracy/संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली) का प्रचार-प्रसार  करने के लिए हमें दिखाना होगा कि उसके द्वारा हमारे राष्ट्रीय-जीवन की आकांक्षा - आध्यात्मिक उन्नति - की कितनी अधिक पूर्ति हो सकेगी ? इस संसार में, जिस प्रकार  प्रत्येक व्यक्ति को अपना अपना मार्ग चुन लेना पड़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र को भी अपने मार्ग का निर्धारण कर लेना पड़ता है। हमने युगों पूर्व अपना पथ निर्धारित कर लिया था, और अब हमें उसी से लगे रहना चाहिए -उसीके अनुसार (श्रुति-परम्परा के अनुसार) चलना चाहिए। फिर, हमारे इस चयन (choice) में कोई बुराई भी कहाँ है ? जड़ के बदले चैतन्य का चिन्तन करना [अपने को केवल नश्वर शरीर और मन समझने के बदले अविनाशी 'आत्मा' (existence-consciousness-bliss) समझना।] संसार में मनुष्य (M/F शरीर) देखने के बदले ईश्वर के एक रूप में चिन्तन करना, 'जनता-जनार्दन' के रूप में चिन्तन करना-क्या कोई बुरी चीज है ?" 
भारतीय संस्कृति का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, अतः भारत में लोकतान्त्रिक संसदीय प्रणाली का प्रचार-प्रसार करने के पहले हमें अपनी (Domestic policy) या क्षेत्रीय अभिलाषाओं (Regional Aspiration) को निर्धारित करना आवश्यक है। विभन्न भाषा-भाषी और विभिन्न धर्म के लोगों बीच अंतर्राज्यीय सौहार्द स्थापित करने के लिए क्या करनीय है ? इसी विषय पर प्रकाश डालते हुए स्वामी जी कहते हैं -  " मुक्ति अथवा स्वाधीनता - दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता , आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं। 
 " भारत को समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की (राष्ट्रवाद)बाढ़ ला दी जाय। सर्वप्रथम , हमारे उपनिषदों , पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थ के पन्नों से बाहर निकाल कर, मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, वनों की निर्जनता से बाहर लाकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेष के हाथों से छीनकर (निवृत्ति मार्गी सन्यासियों के हाथों से छीनकर) देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जाएँ - हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें। सबसे पहले हमें यही करना होगा। सभी को इन सब शास्त्रों में निहित उपदेश सुनाने होंगे, क्योंकि उपनिषदों में कहा है - 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यास्त्वयो !'(This has first to be heard, then thought upon, and then meditated upon.)- " पहले इसे सुनना होगा, फिर मनन करना होगा और उसके बाद निदिध्यासन (खुली आँखों से ध्यान करना होगा) ।"
" हमलोगों को अपनी प्रकृति के अनुसार उन्नति करनी होगी। विदेशी संस्थाओं ने बलपूर्वक जिस कृत्रिम शिक्षा प्रणाली को हममें प्रचलित करने की चेष्टा की है, उसके अनुसार काम करना वृथा है। वह असम्भव है। जय हो प्रभु !! हम लोगों को तोड़-मड़ोड़कर नये सीरे से दूसरे राष्ट्रों के ढाँचे में गढ़ना असम्भव है। तब फिर मेरी योजना क्या है ? मेरी योजना है -प्राचीन महान आचार्यों की वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण प्रणाली का अनुसरण करना। /114 ]
[अतः हमलोग सबसे पहले भारत के बहुमूल्य आध्यात्मिक खजाने-'अष्टांग योग, गीता, उपनिषद' को खोलकर इसमें संचित बहुमूल्य रत्नों को सर्वत्र बिखेर देंगे। इसके लिए पहले कुछ गृहस्थ युवाओं को 'Be and Make -वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' (श्रुति-परम्परा) में जो "5 अभ्यास के द्वारा ~ 3 'H  विकास-पद्धति" है उसी पद्धति के अनुसार प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं के रूप में निर्माण करना होगा। जो भले ही अभी स्वयं पूर्णतः निवृत्ति मार्ग में प्रतिष्ठित नहीं हो सके हों, किन्तु उपनिषद के सत्यों का प्रचार-प्रसार करने में, उसे दूसरों को सुनाने में सक्षम हों। 
" पहले (चरण में) देश के लोग इन सत्यों को सुनें। और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के इन महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा, वह आज एक ऐसा कर्म (निष्काम कर्म) करेगा जिसके समान आध्यात्मिक फल प्रदान करने वाला दूसरा कोई कर्म ही नहीं है। (संसार कुत्ते की टेढ़ी पूँछ है, किन्तु जो इस आंदोलन का निष्ठावान कर्मी बनेगा, उसके हृदय की वक्रता चली जाएगी; वह भ्रममुक्त होकर निवृत्तिमार्ग में स्वतः प्रतिष्ठित हो जायेगा। )  ... इस दानशील देश में हमें पहले सर्वश्रेष्ठ दान - 'आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तार के लिए साहसपूर्वक अग्रसर होना होगा। और यह ज्ञान -विस्तार भारतवर्ष की सीमा में ही आबद्ध नहीं रहेगा, इसका विस्तार तो सारे संसार भर में करना होगा। 5 /116 
" बुद्धदेव के जन्म के बहुत पहले से ही ऐसा होता आया है। ... आज फिर वही सुयोग उपस्थित हुआ है। आज अंग्रेजों की प्रतिभा के कारण संसार अपूर्व एकता के डोर से बँध गया है।...मैं जो अमेरिका गया था, वह मेरी या तुम्हारी इच्छा से नहीं हुआ , वरन भारतवर्ष के भगवान, माँ काली के अवतार, श्रीरामकृष्णदेव  - जो उसकी नियति (destiny) के नियामक भी हैं, उन्होंने मुझे (लिखित चपरास - 'नरेन् शिक्षा देबे' देकर) अमरीका भेजा था ! और वे ही इसी भाँति सैंकड़ों प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों को संसार के अन्य सब देशों में भेजेंगे। इसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती। अतएव तुमको धर्म-प्रचार के लिए भारत के बाहर भी जाना होगा।"5/118/ 
{" What is my plan then? My plan is to follow the ideas of the great ancient Masters. I have studied their work, and it has been given unto me to discover the line of action they took !... So, in India, social reform has to be preached by showing how much more spiritual a life the new system will bring; and politics has to be preached by showing how much it will improve the one thing that the nation wants — its spirituality. Every man has to make his own choice; so has every nation. We made our choice ages ago, and we must abide by it.  And, after all, it is not such a bad choice. Is it such a bad choice in this world to think not of matter but of spirit, not of man but of God? ...."Before flooding India with socialistic or political ideas, first deluge the land with spiritual ideas. The first work that demands our attention is that the most wonderful truths confined in our Upanishads, in our scriptures, in our Purânas must be brought out from the books, brought out from the monasteries, brought out from the forests, brought out from the possession of selected bodies of people,and scattered broadcast all over the land, so that these truths may run like fire all over the country from north to south and east to west, from the Himalayas to Comorin, from Sindh to the Brahmaputra.... " Let the people hear first, and whoever helps in making the people hear about the great truths in their own scriptures cannot make for himself a better Karma today..... In this land of charity, let us take up the energy of the first charity, the diffusion of spiritual knowledge. And that diffusion should not be confined within the bounds of India; it must go out all over the world.... This happened ages before Buddha was born,... Owing to English genius, the world today has been linked in such a fashion as has never before been done. That I went to America was not my doing or your doing; but the God of India who is guiding her destiny sent me, and will send hundreds of such to all the nations of the world. No power on earth can resist it. This also has to be done. You must go out to preach your religion, preach it to every nation under the sun, preach it to every people. This is the first thing to do." - MY PLAN OF CAMPAIGN/(Delivered at the Victoria Hall, Madras)}
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "मनुष्यजाति के इतिहास में हम पाते हैं कि एक या दो बार नहीं प्रत्युत पुनः पुनः प्राचीन काल से संसार को आध्यात्मिकता की शिक्षा देना ही भारत का भाग्य रहा है।5/68/ (It has been the destiny of India in the past to supply spirituality to the world.) 
"हे ब्राह्मणों ! यदि अनुवांशिकता के आधार पर पैरियों (शूद्र) की अपेक्षा ब्राह्मण आसानी से विद्याभ्यास कर सकते हैं,उनमे सीखने की योग्यता यदि अधिक हो, तब वैसे ब्राह्मणों की शिक्षा पर अधिक धन व्यय मत करो।(गरीब सवर्णों तथा अन्य पिछड़ों को 10 % आरक्षण दो? ) बल्कि शूद्रों को (हरिजनों को) शिक्षित बनाने पर शिक्षा -बजट का अधिक हिस्सा खर्च करो। दुर्बलों की सहायता पहले करो, क्योंकि free scholarship आदि सुविधाओं की जरूरत उनको ज्यादा है। जो ब्राह्मण या स्वर्ण लोग यदि जन्म से ही बुद्धिमान और खुशहाल हों, तो वे किसी सहायता के बिना ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। .. यदि पैरिया लोग जन्म से कुशल नहीं हैं तो उन्हें आवश्यक शिक्षा तथा शिक्षक प्राप्त करने दो। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यही युक्तिसंगत सामाजिक न्याय है !    
भारत के इन दीन-हीन लोगों को, इन पददलित जाति के लोगों को, उनका अपना वास्तविक स्वरूप समझा देना परमावश्यक है। जात-पाँत का भेद छोड़कर, कमजोर और मजबूत का विचार छोड़कर , प्रत्येक स्त्री-पुरुष को, प्रत्येक बालक-बालिका को यह सन्देश सुनाओ। उन्हें यह सिखाओ कि ऊंच-नीच, अमीर -गरीब और बड़े-छोटे सभी में उसी एक अनन्त आत्मा का निवास है, जो सर्वव्यापी है; इसीलिये सभी लोग (हिन्दू-मुस्लिम,सिख-इसाई, बौद्ध-जैन, यूरोपियन-अफ्रीकन) महान तथा सभी लोग साधु (भ्रममुक्त) हो सकते हैं।  आओ हम प्रत्येक व्यक्ति में घोषित करें -Let us proclaim to every soul: 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' — 'उठो, जागो और जब तक तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक विश्राम मत लो ! उठो, जागो - और इस सम्मोहन से ( यह hypnotism है, यह मोहनिद्रा है, भ्रम है;  पहले उठो, सम्मोहित अवस्था को त्याग दो। ) से जाग जाओ कि तुम दुर्बल हो, मरणधर्मा शरीर (भेंड़-शिशु) मात्र हो। वास्तव में तुम आत्मा हो;  जो अविनाशी, अनन्त और सर्वशक्तिसम्पन्न है। जिसे कोई शस्त्र नहीं काट सकता, अग्नि जला नहीं सकती, वायु सूखा नहीं सकता और वर्षा का जल गीला नहीं कर सकता। इसलिए उठो, अपने वास्तविक (विराट-बृहद -ब्रह्म ) रूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर जो भगवान है, उसकी सत्ता को ऊँचे स्वर में घोषित करो। उसे अस्वीकार मत करो।
हम हिन्दु-जाति की बुद्धि अभी अज्ञान से मोहित है, इसलिये वर्णाश्रमधर्म से गुणगत रूप में प्राप्त  4 वर्ण को 4000 जातियों में विभाजित कर, हम लोग अगड़ा-पिछड़ा कहकर परस्पर झगड़ा करने में लगें हैं।
इसलिए हे आधुनिक हिन्दुओं ! अपने को इस अविद्या के सम्मोहन से, स्वयं को केवल (M/F) शरीर मानने के भ्रम से मुक्त करो , स्वयं ही स्वयं को  'de-hypnotized' करो ! {युवाओं,  हे सिंह-शावकों, अपने को इस भ्रम से मुक्त करो कि तुम भेंड़ हो -या मरणधर्मा शरीर मात्र हो।} स्वयं को विसम्मोहित करने या डीहिप्नोटाइज्ड करने की पद्धति सीखने के लिए तुमको (कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं हैइसका उपाय तुमको अपने धर्मशात्रों (अष्टांगयोग, गीता, उपनिषद आदि) में ही मिल जायेगा। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरुप की शिक्षा दो और घोरतम मोह-निद्रा में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्हारी जीवात्मा प्रबुद्ध होकर सक्रीय हो उठेगी -तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आयेगी, पवित्रता भी आप ही चली आयगी -मतलब यह कि जो कुछ अच्छे गुण हैं, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुँचेंगे। 
[" Power will come, glory will come, goodness will come, purity will come, and everything that is excellent will come" - Ay, Brâhmins, if the Brahmin has more aptitude for learning on the ground of heredity than the Pariah, spend no more money on the Brahmin's education, but spend all on the Pariah. Give to the weak, for there all the gift is needed. If the Brahmin is born clever, he can educate himself without help. If the others are not born clever, let them have all the teaching and the teachers they want. This is (so called social) justice and reason as I understand it. Arise, awake! Awake from this hypnotism of weakness. O ye modern Hindus, de-hypnotise yourselves. The way to do that is found in your own sacred books.Teach yourselves, teach every one his real nature, call upon the sleeping soul and see how it awakes." 

"O ye modern Hindus, de-hypnotize yourselves. The way to do that is found in your own sacred books. Teach yourselves, teach every one his real nature, call upon the sleeping soul and see how it awakes. Power will come, glory will come, goodness will come, purity will come, and everything that is excellent will come when this sleeping soul is roused to self-conscious activity. Ay, if there is anything in the Gita that I like, it is these two verses, coming out strong as the very gist, the very essence, of Krishna's teaching — "He who sees the Supreme Lord dwelling alike in all beings, the Imperishable in things that perish, he sees indeed. For seeing the Lord as the same, everywhere present, he does not destroy the Self by the Self, and thus he goes to the highest goal."
गीता में यदि कोई ऐसी बात है, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, तो  -गीता: अध्याय 13 का 28 और 29  श्लोक हैं।
 विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28। 
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।13.29।।
(विनश्यस्तु =among the perishing/ अविनश्यन्तम् =the unperishing/ यः =who/ पश्यति= sees/ सः he/ पश्यति sees.)
जो पुरुष समस्त नश्वर, परिवर्तनशील भूतों में - अपरिवर्तनशील अविनाशी आत्मा  को समभाव से स्थित देखता है,  वही (वास्तव में) देखता है। सभी लोग देखते हैं , फिर वही देखता है इस विशेषणसे क्या प्रयोजन है ? -- ठीक है ( अन्य सब भी ) देखते हैं; परंतु वे विपरीत देखते हैं।  जैसे कोई तिमिर-रोग (nyctalopia-  निक्टलोपिया) से दूषित हुई दृष्टि वाला व्यक्ति अनेक चन्द्रमाओं को देखता है।  उसकी अपेक्षा एक चन्द्र देखने वाले की यह विशेषता बतलायी जाती है,  कि वही ठीक-ठीक  देखता है। वैसे ही यहाँ भी जो आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से विभाग-रहित एक देखता है,  उसकी अलग-अलग अनेक आत्मा देखने वाले विपरीत-दर्शियों की अपेक्षा यह विशेषता बतलायी जाती है कि वही ठीक-ठीक देखता है, जो 'अनेक' में भी 'एक' को देखता है, उसी का देखना सार्थक है। क्योंकि वह सभी प्राणियों में स्वयं को ही स्थित देखकर किसी की हिंसा नहीं करता,  अभिप्राय यह है कि जो दूसरों को अपने से भिन्न समझकर हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं, वे दूसरे सब  वास्तवमें नहीं देखते।" 5 /89 
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति "— "He who exists is one; the sages call Him variously." सत्ता मात्र एक है,पंडित लोग उसी एक वर्णन तरह तरह से करते हैं '-   "The whole history of India you may read in these few words. भारत का सम्पूर्ण इतिहास इन्हीं कुछ शब्दों में जाना जा सकता है।संसार धर्मसहिष्णुता के इसी महान सार्वभौम सिद्धान्त ~को सीखने की प्रतीक्षा कर रहा है।" आधुनिक सभ्यता के अन्दर यह भाव प्रवेश करने पर उसका विशेष कल्याण होगा।" 5 /८३
 [  "The whole history of India you may read in these few words. The whole history has been a repetition in massive language, with tremendous power, of that one central doctrine.It was repeated in the land till it had entered into the blood of the nation, till it began to tingle with every drop of blood that flowed in its veins,....and thus the land was transmuted into the most wonderful land of toleration, giving the right to welcome the various religions as well as all sects into the old mother-country. ]
" शिव विष्णु की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं है- अथवा विष्णु ही सब कुछ हैं, शिव कुछ नहीं हैं -ऐसी भी बात नहीं है। एक ही सत्ता को कोई शिव, कोई विष्णु और कोई और ही किसी नाम से पुकारते हैं। नाम अलग अलग है, पर 'वह' एक ही है। भारतवर्ष का समग्र इतिहासउसी एक केन्द्रीय सिद्धान्त (central doctrine-एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति") की आश्चर्यजनक शक्ति के साथ और ओजस्वी भाषा में पुनरुक्ति मात्र है। इस देश में यही शिक्षा (शीक्षा-वल्ली) बार बार दोहराई गयी है, यहाँ तक कि अन्त में वह हमारी जाति के रक्त के साथ मिलकर एक हो गयी है। इस प्रकार यह देश दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता (अविरोध) के एक आश्चर्यजनक लीलाक्षेत्र के रूप में परिणत हो गया है। इसी कारण इस प्राचीन मातृभूमि में हमें सब धर्मों और सम्प्रदायों को सादर स्थान देने का अधिकार प्राप्त हुआ है।" 5 /13  
इतिहास शब्द का मूल अर्थ है - 'इति ह आस' (ऐसा ही होता आया है) अर्थात क्रिया यहाँ भूतकालिक नहीं है, यह पूर्ण वर्तमानकाल की द्योतक है। रामायण और महाभारत को जैसे इतिहास माना जाता है, वह पाश्चात्य दृष्टि से पढ़ा जाने वाला इतिहास नहीं है। हर युग में अवतार की लीला के द्वारा मानवीय इतिहास को उसकी सीमा से निरंतर ऊपर उठाने की कोशिश की गयी है। ... सत् न तो केवल कोई काल-निरपेक्ष प्रतीति है, न देश-काल से नियंत्रित होने वाली प्रतीति है, बल्कि यह देश-काल से अलग रह सकने की की अपनी क्षमता की प्रतीति है। पर इसके साथ ही एक ऐसी क्षमता (शक्ति या माँ जगदम्बा) की प्रतीति भी है, जो देश और काल में संसक्त ( देह-मन में समंजस्यपूर्ण -coherent) भी हो सकती है। अवतार (ब्रह्मवेत्ता /पैगम्बर/नेता) जीवन्मुक्त होने के बाद भी, सामान्य जनों पर करुणा करके अपनी लीला में अनासक्त भाव से लोक-दुःख और जन्म-मृत्यु को स्वीकार करता है।    भारत में अवतारों को व्यष्टि-चैतन्य के रूप में समष्टि-चैतन्य का ऐसा रूपान्तर माना जाता है, जो अपनी लीला में व्यष्टि (microcosm-reflected consciousness) और समष्टि (macrocosm-existence-consciousness-bliss) दोनों को एक साथ सार्थकता (significance, महत्व) प्रदान करते हैं। साथ ही उनकी लीला केवल एक देश-काल विशेष में घटित न होकर अनवरत प्रकटित (Continually expressed) होती रहती है। उनके बार बार प्रकटित होने की सम्भावना कभी चुकती नहीं है। मनुष्य की अन्तहीन आकांक्षा (endless Aspiration) की तरह उनकी (ईश्वर की) लीला भी अन्तहीन है। भारत में इन लीला-पुरुषों की उपासना  (Heroes-नेताओं,अवतारों, जीवनमुक्त शिक्षकों -माँ काली की सन्तानों की उपासना) इतिहास-पुरुष के रूप में न होकर, मनुष्यों के बीच उनकी उपस्थित ईश्वरीयता की एक जीवन्त उपस्थिति के तौर पर की जाती है। 
विवेकानन्द साहित्य (५ वां खण्ड, विशेषतः -मेरी समर नीति) पढ़ने से, यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि स्वामीजी ने अपनी ऋषि-दृष्टि के  बल पर भारतवर्ष में विद्यमान दो अलग-अलग प्रकार की समस्याओं को देखा था। एक है अंतर्राज्यीय समस्या (Inland Problem- देश के विभिन्न राज्यों की अभिलाषाओं से जुडी हुई समस्या) और दूसरी है अन्तरराष्ट्रीय-समस्या (International problem)| अर्थात देश में एक प्रकार की समस्या देश की गृह-नीति 'domestic policy' से सम्बद्ध है, तो दूसरी भारत के विदेश-नीति 'foreign policy' से जुड़ी हुई समस्या है। 
इन दोनों प्रकार की समस्याओं के बारे में  गहराई से चिंतन-मनन करने के बाद, स्वामीजी ने उसके समाधान रूप में जो योजना /नीति हमारे हाथों में सौंपी है,उसका मुख्य स्वर यही है कि - " जिस आध्यात्मिक शक्ति या 'spiritual strength' एवं दार्शनिक शक्ति या 'philosophical strength' के बल पर हमलोग विगत 5000 वर्षों से जीवित हैं, उन्हीं की सहायता से हमलोग पहले देश की सभी अंतर्राज्यीय समस्याओं को दूर कर लेंगे। तत्पश्चात पूर्वजों से विरासत में प्राप्त (श्रुति-परम्परा में या चपरास-परम्परा में प्राप्त) इसी बहुमूल्य आध्यात्मिक सम्पदा या 'spiritual treasure ' को हमलोग अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में भी उन्मुक्त कर देंगे। 
(नीति-आयोग > योजना आयोग?) विश्वगुरु बनने की भारत की इसी विदेश-नीति (Foreign Policy) या राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition) एवं इसे पूरा करने की आवश्यक  पात्रता अर्जित करने की  अपने अपने राज्यों में 'अंतर्राज्यीय युवा प्रशिक्षण शिविर'(Be and Make - Interstate Youth Training Camp)  आयोजित करने की जो क्षेत्रीय अभिलाषायें (Regional Aspirations) अथवा (भारत के विभिन्न भाषा-भाषी) अंतरराज्यीय नीति (domestic policy) क्या होनी चाहिए?  उसकी ओर इंगित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -5/118/   
हमारे देश के  (विशेषतः पश्चिम बंगाल के) न्यूज़ पेपर में समाज-सेवा और राजनीति के क्षेत्र के साथ जुड़े  युवा संगठनों के द्वारा संचालित कार्यक्रमों के विषय में आये दिन जो समाचार छपते रहते हैं, उनको पढ़ने से यह समझ में नहीं आता कि, वे स्वामी विवेकानन्द  के बारे में,  कुछ जानते भी हैं या नहीं ? हमारे देश के कुछ युवा-संगठन तो ऐसा भी कहते हैं [ जैसे - 'नेहरू युवा केन्द्र' या J.N.U. के 'वामपंथी युवा संगठन' आदि ] कि, " विवेकानन्द तो एक हिन्दू संन्यासी थे, मात्र एक धर्म-विशेष के गुरु थे।  हमलोग तो सार्वजनिक राजनीति (Public politics) के क्षेत्र में कार्य करते हैं। हमलोग भला 'हिन्दू संन्यासी विवेकानन्द' से क्या सीख सकते हैं ?"
 किन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है, वे यह नहीं जानते कि स्वामी विवेकानन्द ने भारत के आवाम या जन-साधारण की समस्याओं को (Public problem) को केवल संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण (narrow religious perspective) से ही नहीं देखा था; बल्कि 'समग्र दृष्टिकोण(overall perspective) से देखा था;-अर्थात प्रत्येक मनुष्य (चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय में क्यों न जन्मा हो)  वस्तुतः क्या है ? इस नजरिये से देखा था। और कहा था -'Each Soul is Potentially Divine ~ प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' और सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति यही तो स्वामी विवेकानन्द का विशिष्ट योगदान है !
[अतः स्वामी विवेकानन्द के नाम के पहले 'हिन्दू संन्यासी' होने का तगमा (simile) लगा देना, सम्पूर्ण  मानव-जाति  के कल्याण में उनके इस विशिष्ट योगदान (special- contribution) को गौण बना देने का दुष्प्रयास मात्र है।]
कन्या-कुमारी में भारत के अंतिम शिलाखण्ड पर बैठकर उन्होंने बिल्कुल अलग प्रकार का ध्यान किया था।[कन्याकुमारी भारत के तमिलनाडु में दक्षिण तट पर स्थित एक शहर है। एक ऐसा स्थान जहाँ पर हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर मिलते हैं।  प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कन्याकुमारी ने भी तपस्या की थी। कहा जाता है कि यहां कुमारी देवी के पैरों के निशान मुद्रित हैं।  देश के मानचित्र के अंतिम छोर पर होने के कारण अधिकांश लोग इसे देख लेने की इच्छा रखते हैं।]
" समुद्र में अवस्थित इसी चट्टान पर स्वामी विवेकानन्द ने जब गहन ध्यान लगाया था, तब उनके पवित्र चित्त-दर्पण पर मातृभूमि के अतीत, वर्तमान व् भविष्य के चित्रसमूह एक एक करके प्रतिबिम्बित होने लगे। ... उन्होंने देखा - एक ओर भारत के जो अत्यन्त धनी-मानी व्यापारी, या राजा-महाराजा लोग हैं,जो इन्द्रियभोगों में उन्मत्त और विशेषाधिकार मद में मतवाले होकर, दरिद्र, पददलित लोगों का शोषण कर अपने इन्द्रियभोगों की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। दूसरी ओर अनाहार से जीर्णशीर्ण, फ़टे वस्त्रवाले, मुखमण्डल पर युगयुगान्त की निराशा को लिए अगिणत दीनदुखी मनुष्य पशुओं का सा जीवन बिता रहे है। 
भारत के जो 80 प्रतिशत गरीब अवाम हैं, दीन-दुःखी और पददलित मनुष्य हैं, वे लोग वैसे  हृदयहीन पुरोहितों के कठोर व्यवहार से प्रताड़ित (पुरोहित संप्रदाय में जन्में वैसे कुछ व्यक्ति जो जन्मगत रूप से तो ब्राह्मण कहलाते हैं, किन्तु ब्रह्मज्ञ नहीं हैं)  होकर, श्रुति-परम्परा में प्राप्त होने वाली मनुष्य-निर्माण चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के अभाव में,  सनातन धर्म (वर्णाश्रम धर्म) के प्रति श्रद्धा-हीन होते जा रहे हैं। केवल इतना ही नहीं हृदयहीन पुरोहितों और भोगी राजाओं की मिलीभगत से मिलने वाली प्रताड़ना के लिए वे  हिन्दू धर्म (वर्णाश्रम धर्म) को ही अपराधी ठहराकर दूसरे धर्म को ग्रहण कर रहे हैं।  उनका उद्धार किस प्रकार किया जा सकता है, जो  सनातन-ऋषि परम्परा के प्रति श्रद्धाहीन हो गए हैं ? स्वामी जी को ठाकुरदेव की एक उक्ति का स्मरण हो आया, ठाकुर कहते थे - 
" खाली पेट में धर्म नहीं होता,
 साधारण अन्न व् मोटे वस्त्र की व्यवस्था चाहिए।" 
***
  " धर्म उनमें यथेष्ट है।  आवश्यकता है शिक्षाविस्तार की-
 चाहिए भोजनवस्त्र की व्यवस्था।"
"श्रीगुरुदेव के आशीर्वाद से इस महान कार्य का भार मैं ग्रहण करूँगा। उन्हीं की इच्छा से निकट भविष्य में भारत के नगर नगर, गाँव गाँव में ऐसे हजारों नरनारी पैदा होंगे जो पशुओं जैसा घोरस्वार्थपर होकर केवल भोग-विलास के पीछे ही नहीं दौड़ेंगे, जो प्रवृत्ति से पुनः निवृत्ति में आएंगे। और जनता-जनार्दन की सेवा में, आध्यात्मिक दान वितरण में अपना सर्वस्व अर्पण कर इस महान युगचक्र के विवर्तन में सहायक होंगे। " विवेकानन्द चरित -117/ ]                          साधारणतौर से कोई साधक या भक्त अपने ईश्वर (इष्टदेव)  का  ध्यान करते हैं, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के ध्यान का विषय था -'मनुष्य'! इस युग के 'नये मनुष्य' (लीलापुरुष /ब्रह्मवेत्ता पैगम्बर) ने कन्याकुमारी के शिलाखण्ड पर तीन दिनों तक बैठकर, इसी विषय पर ध्यान किया था- कि भारत के जो 80 प्रतिशत गरीब अवाम हैं, दीन-दुःखी और पददलित मनुष्य हैं, उनका उद्धार किस प्रकार किया जा सकता है ? 
कन्याकुमारी पहुँचने से पहले 'परिव्राजक' विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की थी। और उन्होंने पाया था कि देशवासियों में आत्मशक्ति (संकल्प शक्ति-willpower) और आत्मचैतन्य (Self-consciousness श्रद्धा और विवेकका घोर अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप वे पशुओं के स्तर पर जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। 
इसलिये उनके जीवन का उद्देश्य था -और जिसे सफल करने की जिम्मेदारी उन्होंने भावी पीढ़ी के युवाओं पर सौंप दी है; वह है: मनुष्य के भीतर जो आत्मशक्ति (हृदय का बल या संकल्प-शक्ति) प्रसुप्त अवस्था में है, उसको जाग्रत और विकसित कराकर,  मनुष्य को उसकी स्व-महिमा में प्रतिष्ठित होने के लिए अनुप्रेरित कर देना। भारत की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition): है - सम्पूर्ण मानव-जाती को यह शिक्षा देना कि प्रत्येक 'मनुष्य', चाहे वह किसी भी जाति और संप्रदाय में क्यों न जन्मा हो, प्रत्येक मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना 'masterpiece है -जो केवल संकल्प शक्ति (willpower) के बल से अपने बनाने वाले 'ब्रह्म' को भी जान सकता है। 
हमारी राजनीति, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी शिक्षानीति, हमारी संस्कृति, हमारा सब कुछ इसी उद्देश्य के द्वारा प्रभावित रहना चाहिए। 
स्वामी जी द्वारा प्रदत्त सभी भाषणों का मुख्य स्वर (वादी और संवादी दोनों स्वर) वास्तव में एक ही है, और वह है:  मनुष्य को कैसे ऊपर उठाया जाये, कैसे उसको पुनः उसकी महिमा में, उसके मान-मर्यादा में प्रतिष्ठित कर दिया जाये। [अर्थात भारत की 'सनातन श्रुति-परम्परा से प्राप्त शिक्षाविस्तार की पद्धति~ " Be and Make  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " के अनुसार (पशु-स्तर में गिरे) मनुष्य को कैसे ऊपर उठाया जाये, कैसे उसको पुनः उसकी महिमा में, उसके मान-मर्यादा में प्रतिष्ठित कर दिया जाये।] सम्पूर्ण मानवजाति को (उसके जाति-नस्ल या धर्म का विचार किये बिना) स्वामी जी इसी नजरिये से- इसी करुणा-पूर्ण दृष्टि से देखते थे। मनुष्य-मात्र के प्रति स्वामी जी का यही दृष्टिकोण था। स्वामी विवेका-नन्द ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था - ‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।" 
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीकृष्ण (गीता अध्याय 14 /3-4-5) में , भावी नेता या भावी लोकशिक्षक अर्जुन से सृष्टि- प्रारम्भ के इतिहास का विश्लेषण करते हुए कहते हैं - -
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। 
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।14.3।।
[मम योनिः महत् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधामि अहम्। सम्भवः सर्वभूतानां ततः भवति भारत ॥ ) 
( योनिः = गर्भाधानस्थानम्/ महत् = विस्तृतम् -बृहदतम् / ब्रह्म = प्रकृतिः= माँ काली / गर्भम् = सल्परूपं बीजम्/दधामि = निक्षिपामि] 
 हे भरतवंशोद्भव अर्जुन,  मेरी महत् ब्रह्म-रूप प्रकृति ही समस्त प्राणियों को जन्म देने वाला क्षेत्र (भूतों की) योनि है, जिसमें मैं गर्भाधान करता हूँ। अर्थात् अविद्या, कामना,  कर्म और उपाधि के स्वरूप का अनुवर्तन करने वाले क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ से संयुक्त किया करता हूं।  इससे समस्त भूतों की उत्पत्ति होती है। (मुझ ईश्वर की माया -- त्रिगुणमयी प्रकृति,  समस्त कार्यों से यानी उत्पत्तिशील वस्तुओं से बड़ी होने के कारण और अपने विकारों को धारण करने वाली होने से प्रकृति ही महत् ब्रह्म  इस विशेषण से विशेषित की गयी है।) मैं उस प्रकृति रूप क्षेत्र में चेतन रूप बीज की स्थापना करता हूँ। और ऐसा करने से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है। समस्त योनियों में जितने प्रकार के शरीर उत्पन्न होते हैं -उनको उत्पन्न करने का क्षेत्र प्रकृति है, तथा मैं उनको उत्पन्न करने वाला पिता हूँ। यहाँ श्रुति-परम्परा यह समझा रही है कि  इस प्रकार 'क्षेत्र' (Reflected Consciousness)और 'क्षेत्रज्ञ' (Pure Consciousness) का संयोग ही सर्व -भूतों की उत्पत्ति का कारण है।  
 फिर 5 वें श्लोक में ही भगवान यह भी कह देते हैं कि -सत्व गुण,रजो गुण और तमो गुण ये तीनों अविनाशी जीवात्मा को बंधन में डाल देते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रकृति ही माया-शक्ति भी है, जो प्राणी को बंधन में डाल देती है। ( माँ जगदम्बा ही दैवी- माया भी हैं ! जो नारी मात्र में मातृभावना नहीं रखने से नरों को नश्वर शरीर होने के भ्रम में डाल देती हैं, या हिप्नोटाइज्ड कर देती हैं !) भारत की इस दार्शनिक गुत्थी (Philosophical knot) या आध्यात्मिक सार को नहीं समझ पाने के कारण ही वैज्ञानिकों में 'पदार्थ-ऊर्जा समीकरण' से आगे की खोज की विकलता मौजूद है।ब्रह्म की दो शक्तियाँ ऋत (विद्या) और अनृत (अविद्या) सृष्टि के उदयकाल से ही उसमें व्याप्त रही हैं। परवर्ती काल में इसको सरल करते हुए कहा गया कि मनुष्य के षड रिपु हैं -काम,क्रोध, मद,मोह, लोभ और मत्सर। इन पर विजय प्राप्त किये बिना अर्थात मन को जीते बिना मनुष्य का उर्ध्व संचरण (या सच्चिदानन्द की यात्रा अथवा 'existence-consciousness -bliss ' तक पहुँचने की यात्रा ) सम्भव नहीं है। इसका सही अर्थ है नर से नारायण में रूपांतरित हो जाना। जब कोई व्यक्ति ब्रह्म को जान लेता है, तब भगवान केवल मिल ही नहीं जाते, बल्कि ब्रह्मवेत्ता व्यक्ति स्वयं ही ब्रह्म बन जाता है। 
बाकी सब गुण - आहार, निद्रा, भय और मैथुन – आदि  तो पशुओं में भी पाये जाते हैं। मनुष्य जीवन में करने योग्य क्या है ? जब असमंजस की स्थिति हो तब हमारे आचार्य कहते हैं, जो धर्म के अनुकूल है, वही करो ! केवल धर्म का विशेष गुण  ही मनुष्य को अलग पहचान देता है। धर्म ही बताता है कि सद क्या है और असद क्या है ? धर्म की मर्यादा में ही आचरण को आबद्ध रखो। मनुष्य केवल मनुष्य ढाँचा प्राप्त करने से ही श्रेष्ठ नहीं है, बल्कि उसमें 'ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने की क्षमता' (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति ) विद्यमान है , इसीलिए एक चेतन जीव के रूप में वह श्रेष्ठ है , परतर है -अर्थात उसके लिए कोई पर नहीं है (Other than He नहीं है ? ),सभी अपने हैं।  वेदव्यास महाभारत  (शांतिपर्व, 299/20)में कह चुके हैं—
गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रीवीमि। 
न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः।'
—एक बात बताता हूं, संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है! 'सच मानिए, ईश्वर भी नहीं.मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है , क्योंकि मनुष्य श्रेष्ठता का निर्धारक (determinantयदि कुछ है, तो आत्मीयता का भाव - 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं का भाव' ही है !-अर्थात मनुष्य की अ-परता का भाव की मात्रा ही उसकी श्रेष्ठता का निर्धारक  है। जिसके कारण उसकी जीवन यात्रा पूर्ण चैतन्य (श्रीमाँ सारदादेवी) की अद्वितीय अभिव्यंजक उदाहरण स्वरूप होती है।
कोई व्यक्ति शरीर से वामन (व्यष्टि अहं) होकर भी अपने व्यक्तित्व-शक्ति-प्रभाव से विराट (समष्टि अहं) हो सकता है।[अर्थात कोई व्यक्ति माँ जगदम्बा की कृपा से अपने क्षुद्र अहं बोध को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के 'अहं'-बोध में रूपान्तरित कर सकता है। ] कृ़ष्ण के विराट् रूप का यही रहस्य है  कि  वह विश्वरूप हो सकता है, अपने क्षेत्र को विस्तृत बनाकर संसार को अपने भीतर तथा बाहर छाया की भाँति रख सकता है। एक मनुष्य अपने साथ-साथ सारे देश, समाज और युग का भी उद्धार कर सकता है। अपने प्रभाव से वह चेतनाहीन प्राणियों को भी नवजीवन देने की शक्ति रखता है। एक आँख वाला हजारों अन्धों को रास्ता दिखा सकता है। संस्कृत की एक कहावत है- 
उदयति दिशि यस्सां भानुमान् सैव पूर्वा।
जिधर सूर्य उदय होता है, उसी को लोग पूर्व दिशा मानते हैं। तेजस्वी पुरुष (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न पुरुष) के सम्बन्ध में भी यही बात चरितार्थ होती है।जिधर वह (नवनीदा) झुकता है, उधर लोक झुक जाता है; जहाँ वह रहता है, वह साधारण स्थान भी तीर्थ बन जाता है; जहाँ वह जाता है, वह भूमि जनता के लिए स्वर्ग से भी बढ़कर हो जाती है। ' जहँ-जहँ रामचरन चलि जाहीं; तेहि समान अमरावति नाहीं।' (मानस) उसकी महिमा से देश और काल की भी महिमा बढ़ जाती है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है,मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। सब प्रकार के प्राणियों से - यहाँ तक कि देवताओं (फरिश्तों) से भी मनुष्य ही श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। देवताओं (फरिश्तों) को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। [This human body is the greatest body in the universe, and a human being the greatest being. Man is higher than all animals, than all angels; none is greater than man. Even the Devas (gods) will have to come down again and attain to salvation through a human body. Man alone attains to perfection, not even the Devas.]  यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देव-दूतों (फरिश्तों) और अन्य समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी फ़रिश्तों से मनुष्य के सामने सिर को झुकाने के लिए, उसे प्रणाम और अभिनन्दन करने का आदेश दिया। इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतना बन गया।
[According to the Jews and Mohammedans, God created man after creating the angels and everything else, and after creating man He asked the angels to come and salute him, and all did so except Iblis; so God cursed him and he became Satan.] 
 इसीसे मिलती-जुलती कथा श्रीमद्भागवत पुराण में भी आती है - " सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजया-ऽऽत्मशक्त्या। वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् । तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय । ब्रह्मावलोक-धिषणं मुदमाप देवः ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ९/श्लोक: २८ ॥ ईश्वर ने अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से- वृक्ष, रेंगने वाले प्राणी, पशु, उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी उनको  उनमें संतोष नहीं हुआ। फिर उसने ब्रह्म साक्षात्कार करने में समर्थ बुद्धिवाले अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति (masterpiece) 'मनुष्य' की सृष्टि की,जिसकी प्रज्ञा (Intelligence) अपने बनाने वाले को-ब्रह्म को भी जान लेने में सक्षम है, तब उस ईश्वर को बहुत आनन्द हुआ। तब उसने सभी फ़रिश्तों को बुलवा भेजा, और उनसे मनुष्य के सामने सिर को झुकाने, उसका अभिनन्दन करने का आदेश दिया, क्योंकि जो मनुष्य-मात्र के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही शैतान है 
इस रूपक (allegory) के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। ईश्वर की निम्नतर सृष्टि -पशु आदि मन्दबुद्धि के हैं, क्योंकि वे तमोगुण से ही निर्मित हुए हैं। पशु (beast -जैसे क्रूर और अत्यधिक भोगी व्यक्ति आदि) किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। इसी तरह मानव-समाज में भी अत्यधिक-धन अथवा अत्यधिक-दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान बाधाएँ हैं। संसार में जितने महात्मा (लीलापुरुष/अवतार /नेता / जीवनमुक्त लोकशिक्षक) पैदा हुए हैं , सभी मध्यमवर्ग के लोगों से हुए हैं। मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं। " 1 / 53-54 
[Behind this allegory is the great truth that this human birth is the greatest birth we can have.The lower creation, the animal, is dull, and manufactured mostly out of Tamas. Animals cannot have any high thoughts; nor can the angels, or Devas, attain to direct freedom without human birth. In human society, in the same way, too much wealth or too much poverty is a great impediment to the higher development of the soul.It is from the middle classes that the great ones of the world come. Here the forces are very equally adjusted and balanced." Volume 1, Raja-Yoga/CHAPTER II/THE FIRST STEPS
इस तत्व ज्ञान को अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य शंकर लिखते हैं - 
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष-संश्रयः॥ 
संसार में तीन चीजें केवल परमात्मा की कृपा से मिलती हैं- मनुष्यत्व -मानवोचित संस्कार, मुमुक्षत्व -भ्रममुक्त (de-hypnotiz  ed) होने की कामना तथा महापुरुषों का सत्संग। ( सत्संग =युवा प्रशिक्षण शिविर : गुरु-गृह वास करते हुए गुरु के उपदेशों का  श्रवण-मनन -निदिध्यासन करने से सम्मोहित सिंहशावक भ्रममुक्त/विसम्मोहित हो जाता है।) इसीलिए यह देश आस्थावादी है, निष्काम-कर्म और निष्काम-प्रेम में विश्वास करता है, आत्मा की अमरता तथा शरीर की नश्वरता में विश्वास रखता है। इसलिए यहाँ लौकिक सम्बन्ध भी यहाँ जन्म-जन्मान्तर के लिए बनते हैं, और हम अपना गोत्र अपने पूर्वज ऋषियों (ऋषि साण्डिल्य या श्रीमद तोतापुरि) ढूँढ़ते हैं।
भारत की  " Be and Make ~ श्रुति-परम्परा " का इतिहास अत्यंत प्राचीन है: 
 भारत की श्रुति-परम्परा कितनी प्राचीन है, उसका वर्णन करते हुए गीता अध्याय 4/ श्लोक1 -7 में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - मं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।4.1। निष्काम-कर्म और निष्काम-प्रेम  जिसका उपाय है, जिसमें  वेद का प्रवृत्ति-धर्म रूप और निवृत्ति-धर्म रूप दोनों प्रकार का सम्पूर्ण तात्पर्य समझ में आ जाता है, उस योग को गीता के दूसरे और तीसरे अध्याय में  कहा गया है।   भगवान् श्रुति- परम्परा कथन से उस ( मध्यममार्ग से ज्ञाननिष्ठारूप योग ) की स्तुति करते हैं।  श्रीभगवान् बोले जगत्प्रतिपालक क्षत्रियों में बल स्थापन करने के लिये, उक्त दो अध्यायों में कहे हुए, इस अविनाशी योग को पहले सृष्टि के आदिकाल में,  मैंने विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया) था। उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र सब से पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु से कहा।( क्योंकि ) उस योगबल से युक्त हुए क्षत्रिय ही अपने "ब्रह्मत्व" (ब्रह्म-तेज)  की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। तथा ब्राह्मण और क्षत्रियों का पालन ठीक तरह हो जाने पर ये दोनों सम्पूर्ण जगत का पालन अनायास कर सकते हैं। इस योग का फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस मध्यममार्ग  से सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योग का मोक्षरूप फल (विसम्मोहन-भ्रममुक्ति) कभी नष्ट नहीं होता। 
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2। हे परंतप ! इस प्रकार मध्यममार्गी क्षत्रियों की 'Be and Make वेदान्त श्रुति-परम्परा ' से प्राप्त हुए इस योग को सबसे पहले राजर्षियों ने जाना ! अर्थात जो कि राजा (प्रवृत्ति-मार्ग) और ऋषि (निवृत्ति-मार्ग) दोनों थे, वैसे आचार्यों ने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण, (अब)  मध्यम-मार्ग से योग की वह  'Be and Make  वेदान्त श्रुति-परम्परा ' इस मनुष्य-लोक में लुप्त-प्राय हो गयी है। अर्थात् उसकी सम्प्रदायपरम्परा टूट गयी है। अर्थात् नेता/शिक्षक बनने और बनाने की नेतृत्व सम्प्रदाय-परम्परा /Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition टूट गयी है। स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।  भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्यों के हाथ में पड़कर (जिनका मन और मुख एक न हो ,वैसे  गुरुओं के हाथ में पड़कर और जो प्रवृत्ति मार्ग की निस्सारता को समझ लेने के बाद भी, निवृत्ति में प्रतिष्ठित नहीं रह सकते, ऐसे ठग गृहस्थ -गुरुओं के हाथ में पड़कर। ) यह योग नष्ट हो गया है।  यह देख कर और साथ ही लोगों को पुरुषार्थ रहित हुए देखकर,  क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो, इसीलिए मैंने आज तुम्हें  उसी  पुरातन मध्यम-मार्ग की योग-पद्धति  'Be and Make वेदान्त श्रुति-परम्परा '  को तुम्हें कहा (सिखाया) |  क्योंकि यह ज्ञानरूप योग (विवेक-दर्शन का अभ्यास से , विवेक-श्रोत उद्घाटित  हो जाता है)  बड़ा ही उत्तम रहस्य है।सन्त तुलसी दास जी ने कहा था -"  पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।। " —  दूसरों को उपदेश देना तो बहुत आसान है लेकिन स्वयं उन उपदेशों पर अमल करना कठिन। वर्तमान समय में उपदेशक अधिक है, अमलकर्ता नहीं। यदि व्यक्ति स्वयं आदर्शों का पालन करने लग जाए तो उसे उपदेश देने की ज़रूरत नहीं होगी। [औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत /An ounce of example is better than a ton of precept.(प्रवचन)] उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। उपदेश का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। राष्ट्र निर्माण में समाज-सुधारकों का भी महत्व है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। पर उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है तभी उसी बात का प्रभाव पड़ता है। जब उपदेशक केवल उपदेश देता है और स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब वह प्रभावहीन हो जाता है। आज के युग में श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं। वे आँख मींचकर किसी भी बात पर ऐसे ही विश्वास नहीं कर लेते। वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है। वह किन बातों पर अमल करता है और किन्हें कहने तक सीमित रखता है। पर-उपदेश के संदर्भ में एक घटना का उल्लेख किया जाता है। एक स्त्री का बालक बहुत अधिक गुड़ खाता था। वह स्त्री बालक से गुड़ खाना छुड़वाना चाहती थी। बालक उसकी बात मानता नहीं था। अतः वह एक साधु के पास पहुँची और उसे अपनी समस्या बताई। साधु ने पूरी बात सुनकर कहा कि अगले हफ्ते आना। जब वह स्त्री अगले हफ्ते बालक को लेकर साधु महाराज के पास गई तो उसने बालक को समझाया- बालक अधिक गुड़ खाना हानिकारक है, इससे दाँत खराब हो जाते हैं। यह सुनकर स्त्री बोली- इतनी सी बात तो आप इससे उस दिन भी कह सकते थे, व्यर्थ दो चक्कर कटवाए। इस पर साधु ने कहा- ‘‘ बहन, उस दिन तक मैं भी गुड़ खाता था। इस सप्ताह में मैंने गुड़ खाना छोड़ा है तभी इस बच्चे को गुड़ न खाने का उपदेश दे पाया हूँ।’’ 
यह उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी है कि उपदेश के पीछे (निष्काम कर्म और निष्काम प्रेम से उत्पन्न) संकल्प ग्रहण की शक्ति और नैतिक बल (चरित्र) दोनों का होना आवश्यक है। पहले स्वयं व्यवहार में लाओ, फिर किसी को उपदेश दीजिए। तभी उसका अपेक्षित प्रभाव पड़ सकेगा।अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। ।।4.4।।...  किसी के मन में ऐसी शंका न उठ जाये, कि भगवान भी कोई असङ्गत बात तो नहीं कर रहे हैं ? (जैसे दादा कहते थे मैं जीप लेकर लंका चला गया, जमशेदपुर के जुबली पार्क में पहले भी कई बार आ चुका हूँ !) अतः भावी शिक्षकों/नेताओं  के मन की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से, स्वयं  शङ्का करता हुआ सा अर्जुन ने पूछा -  आपका जन्म तो अर्वाचीन है-अभी का है अर्थात् अभी वसुदेव के घर में हुआ है।  और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है, अर्थात सूर्य की उत्पत्ति तो सृष्टि के आदि में हुई थी। तब मैं इस बात को अविरुद्धार्थयुक्त ( सुसङ्गत ) कैसे समझूँ कि  आपने जिस योग को आदिकाल में सूर्य से कहा था वही आप मुझ से अभी कह रहे हैं ?
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।।।4.5।। भगवान् वासुदेव श्री कृष्ण के विषय में मूर्खों की (दुर्योधन आदि की) जो ऐसी शङ्का है कि ये श्री कृष्ण स्वयं ईश्वर के अवतार नहीं है (ब्रह्म या माँ काली के अवतार नहीं हैं) सर्वज्ञ नहीं हैं।  तथा वैसे मूर्खों की जिस शङ्का को दूर करने के लिये ही अर्जुन का यह प्रश्न है, उसका निवारण करते हुए श्रीभगवान् बोले, हे अर्जुन मेरे और तेरे पहले बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, परन्तु  तूम  नहीं जानते।  क्योंकि पुण्य-पाप आदि के संस्कारों से तेरी ज्ञान-शक्ति आच्छादित हो रही है। परंतु मैं तो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाववाला हूँ इस कारण मेरी ज्ञानशक्ति आवरण-रहित है, मेरी बुद्धि  विशिष्ट प्रज्ञा है - जो कभी भ्रमित या hypnotized नहीं होती । इसलिये हे परन्तप मैं ( सब कुछ ) जानता हूँ। अपने विपक्षियों को 'पर' कहते हैं, और जो उन्हें शौर्यरूप तेज की किरणों के द्वारा सूर्य के समान तपता है वही  परंतप -  यानी शत्रुओंको तपानेवाला कहा जाता है।
 अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।।।4.6।।  तो फिर आपका नित्य ईश्वर का (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव का, आचार्य नवनीदा का )  पुण्य-पाप से सम्बन्ध न होने पर भी जन्म कैसे होता है ?  इस पर भगवान कहते हैं -यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूत मात्र का, ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण भूतों का नियमन करनेवाला ईश्वर भी हूँ।  (तथापि) अपनी प्रकृति को - अर्थात अपनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया को जिसके वश में सब जगत् बर्तता है,  और जिससे मोहित हुआ मनुष्य वासुदेवरूप अपने आपको (स्वरुपको) नहीं जानता।  उस अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) या अपने मन को वश में रखकर,  केवल अपनी लीला से ही शरीरधारी  सा,  जन्म लिया हुआ सा --हो जाता हूँ।  अन्य लोगों की भाँति वास्तव में (नेता/शिक्षक) जन्म नहीं लेता।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।।।4.7।।  
श्रुति-परम्परा के प्रथम आचार्य /नेता का अवतार या जन्म कब और किस लिये होता है ?  सो कहते हैं,  हे भारत ! हे भरतवंशी अर्जुन वर्णाश्रम (चार-वर्ण, चार-आश्रम, चार पुरुषार्थ)  आदि जिसके लक्षण हैं,  एवं प्राणियों की उन्नति और परम कल्याण का (अभ्युदय और निःश्रेयस का) जो साधन है ;  उस सनातन धर्म की जब जब हानि होती है। और अधर्म का अभ्युत्थान अर्थात् उन्नति होती है,  तब तब ही मैं अपने आपको साकार रूप से (एक चपरास प्राप्त शिक्षक के रूप में)  प्रकट करता हूँ, अर्थात माया से अपने स्वरूप को रचता हूँ।
[साभार -https://www.gitasupersite.iitk.ac.in/] 
नवनीत - भारतीय उपमहाद्वीप या भारत जैसे महादेश के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों और वनांचलों तक श्रुति-परम्परा से प्राप्त इन संस्कारों को पहुँचा देना, अपने आप में  एक बहुत बड़ी चुनौती है! प्राचीन काल में इसकी जिम्मेवारी गृहस्थ ब्राह्मणों और गृहत्यागी-साधुओं ने निभाई थी। ब्राह्मणों को अंग्रेज विद्वान् भी एक ऐसी संस्था मानते थे, जो भिक्षा-वृत्ति से जीवन चलाते थे और गाँव के लोगों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के बल पर भारत को उसकी संस्कृति से काट देने की बात कही थी। इसके लिए उसने ग्रामों में चलने वाली 'गुरूजी की पाठशाला' को ध्वस्त करना आवश्यक समझा था। अंग्रेजी शिक्षापद्धति ने इस कार्य को इतनी चालाकी से पूर्ण किया कि अंग्रेजों के शासन-काल में हमारा अंग्रेजी पढ़ालिखा युवा वर्ग अपनी संस्कृति से कट गया, और श्रुति-परम्परा से संस्कार ग्रहण के स्थान पर पश्चिम के अंधानुकरण की परम्परा प्रारम्भ हुई। दूसरी महत्वपूर्ण संस्था गृहत्यागी सन्यासियों की थी ,वे देश भर में भ्रमण करते और जनता को धर्म का मर्म समझाते थे, उन्हें अपना विवेक-प्रयोग करते हुए, वर्णाश्रमधर्म और चार पुरुषार्थ का पालन करते हुए, प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने की शिक्षा देते थे।  इस कार्य में वे लोक-भाषा में शिक्षा देते थे। 
 'बुद्धिवाद की मशाल' शीर्षक लेख (नवनीत - मई अंक 2019) में रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं - " विख्यात बात है कि बुद्धदेव मध्यममार्गी थे। मृगदाव में उन्होंने जो प्रथम उपदेश दिया, उसमें उन्होंने शिष्यों से कहा कि दोनों छोरों को छोड़कर बीच से चलो। विषय-भोगों में लिप्त होना निंद्य है, किन्तु उससे भी अधिक निंद्य है कृच्छ साधनों (हठ-योग आदि) के द्वारा शरीर को सूखा डालना। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए निष्काम कर्मयोग निभाने की जो परम्परा राजा जनक ने चलायी थी, तथा गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस निष्काम कर्म का उपदेश दिया, बुद्ध का मध्यममार्ग भी बहुत हद तक उसी सनातन हिन्दू धर्म की व्याख्या थी।"  [   अतः जो व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में नहीं आ सकते उनके लिए गृहस्थ आश्रम से होकर या प्रवृत्ति-मार्ग से होकर निवृत्ति-मार्ग में आने में हमारे शास्त्र कभी बाधा खड़ी नहीं करते।" स्वामीविवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make' में प्रशिक्षित होकर आत्मदर्शन करने के बाद या 'Existence- Consciousness-Bliss ' का साक्षात्कार कर लेने के बाद ; जब तुम्हारा क्षुद्र व्यष्टि अहं (मन) या प्रतिबिंबित चेतना (Reflected Consciousness) -डीहिप्नोटाइज्ड होकर साक्षी चेतना (Witness Consciousness) में प्रतिष्ठित हो जाएगी या माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपांतरित हो जाएगी,- तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आयेगी, पवित्रता भी आप ही चली आयगी -मतलब यह कि जो कुछ अच्छे गुण हैं, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुँचेंगे।"]  
इस कड़ी में पहले संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के बाद -पहली बार स्वामी विवेकानन्द ही ऐसे संन्यासी हुए, जिन्होंने पाश्चत्य जगत को अंग्रेजी में तत्वज्ञान का उपदेश दिया। और भारत लौटने के बाद पहली बार बंगलाभाषी स्वामी विवेकानन्द ने ही तत्वज्ञान का उपदेश हिन्दी भाषा में देने की परम्परा का प्रारम्भ किया। उनके पहले भारत में तत्वज्ञान के उपदेश केवल संस्कृत भाषा में ही दिये जाते थे। और अपने बाद स्वामी विवेकानन्द ने इस श्रुति-परम्परा से प्राप्त संस्कारों को भारत के जन साधारण तक पहुँचाने की जिम्मेदारी भारत के युवाओं के ऊपर थाती के रूप में सौंप दिया था । जिसे नवनीदा के नेतृत्व में महामण्डल ने उस चुनौती को स्वीकार कर लिया है।
 इसीलिए महामण्डल के द्वारा विगत 52 वर्षों से ऋषि-परम्परा ( विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा/ के  'Be and Make '- Vedanta Leadership Training Tradition ) में  प्रतिवर्ष -'अखिल भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' का आयोजन होता चला आ रहा है। इस प्रशिक्षण शिविर में  हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में 5 अभ्यास के साधन से '3H' के विकास द्वारा खंड को अखंड बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। अर्थात व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करने का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। और अपने 32 साल के अनुभव के आधार पर यह बात मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ, कि श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भावधारा- Be and Make ' में प्रशिक्षित महामण्डल के समस्त वर्तमान और पूर्ववर्ती ऋषिगणों ने (आचार्य नवनीदा सह वरिष्ठ पदाधिकारी गण से लेकर प्रमोद दा तक ने)  5 अभ्यासों (स्वाध्याय , प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम और विवेक-प्रयोग) के साधन से 'विवेकज-ज्ञान' को प्राप्त कर लिया है। विशिष्ट प्रज्ञा की सिद्धि  कर ली है; तभी तो उनकी बातें अकाट्य होती हैं। 
 इस शिविर में शारीरिक और मानसिक बल को हृदय के बल से जोड़ने के लिए यह सुनने को मिलता है, कि प्रत्येक 'मनुष्य' विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना 'masterpiece है - चाहे वह किसी भी जाति और संप्रदाय में क्यों न जन्मा हो, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य  केवल आत्मशक्ति (संकल्प शक्ति  willpower) के बल से अपने बनाने वाले 'ब्रह्म' को भी जान सकता है। भारत यात्रा के दौरान विवेकानन्द ने यह अनुभव किया था कि भारत में सिर्फ दो ही जातियाँ हैं -'एक गरीब जो झोपड़ियों में निवास करता है और दूसरे वैसे कुछ~ खेतड़ी के राजा अजीत सिंह - जैसे  राजर्षि भी हैं। जो महलों में निवास करते हुए भी 'ब्रह्मविद' हैं, इसीलिए उन्हें गरीबों की  सेवा करने का विशेषाधिकार (privileged) प्राप्त है। 
और नवनीदा महामण्डल के Leadership Training Class  में भावी नेताओं को अनुप्रेरित करने के लिए बार-बार यही यह सुनाते रहते थेउसी प्रकार भविष्य के भारत में वैसे कुछ युवा जो ब्रह्मविद शिक्षक होने के साथ साथ  ईमानदार टैक्स पेयर भी होंगे, तथा इस देश की मिट्टी से भी प्यार करते होंगे , वैसे 'privileged' (विशेषाधिकार प्राप्त या निःस्वार्थ जीवन्मुक्त चपरास प्राप्त शिक्षक) युवा अपने  80 % गरीब अवाम, व्यथित और दबे-कुचले भाइयों की  सहायता किस प्रकार निःस्वार्थभाव से कर सकते हैं- इसी विषय पर उन्होंने ध्यान किया था,अपने मन को एकाग्र किया था।और पाया था कि-  देशवासियों के  खोये हुए श्रद्धा और विवेक शक्ति को वापस लौटाने के लिए, कुछ  विशेषाधिकार प्राप्त (अंग्रेजी पढ़े-लिखे और ईमानदार टैक्स पेयर) युवाओं को एकत्रित कर उन्हें " Be and Make  वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित शिक्षक (विवेकज-ज्ञान से सम्पन्न नेता) बनने और बनाने के लिए अनुप्रेरित करना होगा।
जो व्यक्ति साम्यभाव में अवस्थित हो जाता उसके मन-वचन-कर्म तीनों में समतालता (Coordination समन्वय,तालमेल) और सौमनस्य रहता है। (जैसे शिव 'Auspiciousness' के प्रतिक हैं, आनंद के, मांगल्य के, इंद्रियातीत सत् के, शुद्ध निरपेक्ष चैतन्य के।) उसके व्यक्तित्व में शिव के जैसा सौमनस्य रहता है।
 जिस प्रकार की वीरपूजा (hero-worship) का भाव पश्चिम में प्रचलित है, वैसी कम से कम भारत ( भारत का अर्थ भारत-देश नहीं, बल्कि भारत-भाव) में नहीं है। सेमेटिक देशों में जिस प्रकार इतिहास-पुरुष के रूप में पैगम्बर मूसा, ईसामसीह और पैगम्बर मुहम्मद को अपने नाम से नया पन्थ चलाने वाला माना जाता है, उस रूप में राम, कृष्ण और बुद्ध की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत में इन अवतारों की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता/ लोक-शिक्षकों के रूप में है।  
स्वामी जी कहते हैं - " महाभारत के प्रणेता महर्षि व्यास ने कहा है -"कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है। " तप और कठिन योगों की साधना इस युग में नहीं होती। सब दानों में श्रेष्ठ है -अध्यात्मदान, फिर है विद्यादान, फिर प्राणदान, भोजन-कपड़े का दान सबसे निकृष्ट दान है। जो (जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता/ब्रह्मविद) अध्यात्म ज्ञान का दान करते हैं, वे अनन्त जन्म-मृत्यु के चक्र से आत्मा की रक्षा करते हैं। जो विद्या का दान करते हैं, वे मनुष्य की ऑंखें खोलकर अध्यात्म-ज्ञान का पथ दिखा देते हैं। " 5/32
" [इस समय ] हमारी चेतना (Consciousness) पंचेन्द्रियों द्वारा सीमाबद्ध है। आध्यात्मिक जगत के सत्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को ज्ञान की अतीत भूमि में इन्द्रियों के परे जाना होगा। और इस समय भी ऐसे मनुष्य हैं, जो जो पंचेन्द्रियों की सीमा के परे जा सकते हैं। ये ही ऋषि कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने आध्यात्मिक सत्यों का साक्षात्कार किया है। ... ऐसा ऋषित्व (बुद्धत्व ) प्राप्त करना देश, काल, लिंग अथवा जातिविशेष के ऊपर निर्भर नहीं करता। (This Rishi-state is not limited by time or place, by sex or race.)   
वात्सयायन निर्भयतापूर्वक घोषणा करते हैं, कि यह ऋषित्व ऋषियों की संतानों , आर्यों-अनार्यों , यहाँ तक की म्लेच्छों की भी साधारण सम्पत्ति है। यही वेदों का ऋषित्व है। और धर्म के इस आदर्श को हम सभी भारतवासियों को निरंतर याद रखना होगा। मेरी इच्छा है कि दूसरे देशों के लोग भी धर्म के इस आदर्श और सीखें और याद रखें, ताकि धर्मों के बीच परस्पर लड़ाई-झगड़े कम हो जाएँ। 
 " जब तक तुम्हारा शरीर रहेगा, जब तक तुम सुख के दास बने रहोगे, जब तक देश और काल का तुम पर प्रभुत्व है, तब तक तुम दास ही हो। इसीलिए हमें बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति -दोनों पर विजय प्राप्त करनी होगी। प्रकृति को तुम्हारे पैरों के तले रहना चाहिए, और इसे पैरों से कुचल कर, इससे बाहर निकल कर तुमको स्वाधीन और अपने स्वरूप की महिमा में मंडित हो जाना चाहिए। तब जीवन नहीं रह जायेगा, अतएव मृत्यु भी नहीं होगी। तब सुख का प्रश्न नहीं होगा, अतएव दुःख भी नहीं होगा। यही सर्वातीत , अव्यक्त, अविनाशी आनन्द है। यहाँ जिसे हम सुख और कल्याण कहते हैं, वह उसी आनन्द का एक कण मात्र है। वही अनन्त आनन्द हमारा लक्ष्य है। " 5 /27
  " जब तक हम अपनी वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर लेते , तब तक हमारी किसी प्रकार मुक्ति सम्भव नहीं , जो मनुष्य प्रकृति का दास है, वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। ... जब शिष्य इस महान सत्य की धारणा के योग्य बन जाता है, तभी उस पर गुरु (नेता /जीवन्मुक्त शिक्षक) की कृपा होती है। 5/37  "हमारा यह  स्थूल शरीर है, इसके पीछे मन है, किन्तु यह मन आत्मा नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर है -सूक्ष्म तन्मात्राओं का बना हुआ है। यही जन्म और मृत्यु के फेर में पड़ा हुआ है। परन्तु मन के पीछे है आत्मा -मनुष्यों की यथार्थ सत्ता। ... स्थूल शरीर तथा मन, दोनों आत्मा से पृथक हैं, और वही आत्मा मन अथवा सूक्ष्मशरीर के साथ, जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। और जब समय आता है और उसे सर्वज्ञता तथा पूर्णत्व प्राप्त होता है, तब यह जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है। फिर वह स्वतंत्र होकर चाहे तो मन या सूक्ष्म शरीर को रख भी सकता है, अथवा उसका त्याग कर चिरकाल के लिए स्वाधीन और मुक्त रह सकता है। जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति ही है। " 5 /26 
" मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत अग्रसर हो रहा है, उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा। यही भारतीय संस्कृति का (हिन्दुओं का) आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। " 5/46 
 ... बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है। अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसीकारण हममें से अधिकांश आभ्यन्तरिक क्रिया-विधि की निरीक्षण-शक्ति खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ऊपर ही उनका प्रयोग करना , तांकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आप को विश्लेषण कर देख सके -एक कठिन कार्य है। पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार अग्रसर होने का यही एकमात्र उपाय है।  1/39 -40     
 " मनोयोग की शक्ति का सही सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है। तब वे सबकुछ आलोकित कर देती हैं। यही हमारे ज्ञान का एकमात्र उपाय है। [जिस प्रकार कॉन्वेक्स लेन्स पर सूर्य की किरणों को जब केन्द्रीभूत कराया जाता है। तो फ़ोकस प्वाइंट पर पहले काला धब्बा, धुआँ फिर आग पकड़ लेता है।]
" जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ ग़ायब हो जाता है ! मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होते ही, मनुष्य यह मनुष्य यह स्पष्ट रूप से अनुभव कर लेता है कि -'उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है !' तब उसे फिर मृत्यु भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने पर असार वासनाएँ [कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति] नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण-द्वय  का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ! इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक मात्र उपाय है -एकाग्रता ! 1 /40  
 " The power of attention, when properly guided, and directed towards the internal world, will analyse the mind, and illumine facts for us. The powers of the mind are like rays of light dissipated; when they are concentrated, they illumine.From our childhood upwards we have been taught only to pay attention to things external, but never to things internal; hence most of us have nearly lost the faculty of observing the internal mechanism. To turn the mind as it were, inside, stop it from going outside, and then to concentrate all its powers, and throw them upon the mind itself, in order that it may know its own nature, analyse itself, is very hard work. Yet that is the only way to anything which will be a scientific approach to the subject."
" When by analysing his own mind, man comes face to face, as it were, with something which is never destroyed, something which is, by its own nature, eternally pure and perfect, he will no more be miserable, no more unhappy. All misery comes from fear, from unsatisfied desire. Man will find that he never dies, and then he will have no more fear of death. When he knows that he is perfect, he will have no more vain desires, and both these causes being absent, there will be no more misery — there will be perfect bliss, even while in this body.There is only one method by which to attain this knowledge, that which is called concentration."
 [Volume 1, Raja-Yoga/CHAPTER I/ INTRODUCTORY]
 "हमारे देश के लिए इस समय आवश्यकता है , लोहे की तरह ठोस मांस-पेशियों और इस्पात के समान मजबूत स्नायु वाले शरीरों की। आवश्यकता है इस तरह के दृढ़ इच्छा-शक्ति संपन्न होने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो। आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छाशक्ति की , जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो। .... श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा,परमात्मा में श्रद्धा -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। " 5/86/ 
"मैं तुमसे कहता हूँ , इसी समय हमको बल और वीर्य की आवश्यकता है। इस शक्ति को प्राप्त करने का पहला उपाय है - उपनिषदों पर विश्वास करना और यह विश्वास करना कि 'मैं आत्मा हूँ। 'न तो मुझे शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न हवा सूखा सकती है, मैं सर्वशक्तिमान हूँ , सर्वज्ञ हूँ। 5 /139  
"मनुष्य की इच्छाशक्ति किसी भी परिस्थिति के अधीन नहीं। इसके सामने -मनुष्य की इस प्रबल, सर्वव्यापी, विराट, अनन्त इच्छाशक्ति और स्वतंत्रता के सामने -सभी शक्तियाँ, यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी झुक जायेंगी, दब जाएँगी और इसकी गुलामी करेंगी। यही कर्मविधान का फल है। 5 /25/ 
आत्मसंयम (आत्मशक्ति) के लिए तुम्हें बाह्य सहायता की बिल्कुल आवश्यकता नहीं, तुम पहले से ही पूर्ण संयमी हो। अन्तर केवल जानने या न जानने में है। " 5 /56/ 
"इच्छाशक्ति (संकल्प-शक्ति) संसार में सबसे अधिक बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती; क्योंकि वह भगवान -साक्षात् भगवान से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है। 5/116-18-19/
संकल्प शक्ति के अद्भुत चमत्कार (जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा): 
संस्कृत भाषा में, निश्चय, वायदा, शपथ आदि के लिए शब्द है –‘संकल्प’। जब आप एक निर्णय लेते हैं, एक सुदृढ़ विचार बना लेते हैं, इसका अर्थ है कि आपने संकल्प कर लिया है। त्याग के अभ्यास द्वारा अपनी इच्छा-शक्ति में अभिवृद्धि की जा सकती है, जिसके परिणामस्वरूप आप अपने संकल्प पर अडिग रह पाते हैं। इसके लिए अवलोकन शक्ति (observation power)आवश्यक है।बहुधा संकल्प की तुलना पूर्णत: स्थिर व सुदृढ़ हिमालय के साथ की जाती है। एक सच्चे साधक का संकल्प हिमालय के समान होता है। यहाँ एक अतिउपयोगी तथ्य को समझना होगा, वह यह कि आपको ऐसे संकल्प लेने की कोई आवश्यकता नहीं जो जीवन-पर्यंत निभाने पड़ें। मानसिक परिवर्तन के मार्ग के सभी अभ्यास एक निश्चित अवधि के लिए होते हैं। वह अवधि कुछ दिन, कुछ सप्ताह अथवा कुछ मास की हो सकती है। तत्पश्चात, आपको निर्णय करना होता है कि आप उस अभ्यास को पुनः दोहराना चाहते हैं अथवा जीवन-पर्यंत उसका अनुसरण करना चाहते हैं। यदि आप अनासक्त भाव से जीवन जीते हैं तो आपकी आदतें कदापि आपको बद्ध नहीं कर सकतीं।
त्याग के अभ्यास द्वारा अपनी इच्छा-शक्ति में अभिवृद्धि की जा सकती है:  " संकल्प आत्मा की शक्ति है (हृदय का बल है।) शरीर में स्थित आत्मा के व्यवहार के लिए यद्यपि पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वह स्थूल होने से केवल भौतिक प्रयोजन ही पूरा करती हैं इनकी क्षमता सीमित है। ग्यारहवीं इन्द्रिय या शक्ति मन है, जिसके द्वारा आत्मा अपनी इच्छाएं या संकल्प को व्यक्त करती है। यह मन या सूक्ष्म शरीर इतनी जबरदस्त शक्ति है कि यह अपने प्रभु आत्मा को भी अपने जाल में बांधकर लोकलोकान्तरो में भ्रमण कराते रहती है। मन के इस चंचलता को संकल्प शक्ति के द्वारा वशीभूत करना एकाग्रता के अभ्यास में प्रशिक्षित मन के बूते की बात है। संकल्प आत्मा की जय-शक्ति है।आत्मज्ञ पुरुष इसीलिए संकल्पवान भी होते हैं, क्योंकि अविनाशी सत्य में श्रद्धा रखकर निष्ठापूर्वक  यम और नियम का पालन करने वाले साधक ही आत्मा को जान पाते हैं। और संशयात्मा विनश्यति।  अर्थात जिनके संकल्प डावांडोल होते रहते हैं, वे तो अपना विनाश कर लेते हैं। 
" संकल्प आत्मा की शक्ति है, मन उसका व्यवहार जब केवल स्फुट कार्यों में करता है, तब उसको केवल फुटकर लाभ ही मिल पाता है। इसीलिए साधारण लोगों को किसी भी उद्यम -उद्द्योग में कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाती। क्योंकि किसी भी कार्य को वे दत्त चित होकर , पूरी एकाग्रता के साथ नहीं कर पाते। आत्मा यदि अपनी संकल्प शक्ति को भूल जाए तो शरीर भी जीवित न रह सकेगा, इसीलिए विचार -प्रणाली अत्यावश्यक है। जब किसी कार्य को पूरे मनोयोग के साथ -दत्तचित्त होकर किया जाता है  तो मानसिक विद्युत् चुंबक तीव्रता से प्रकीर्ण होने लगते हैं। जिसके फलस्वरूप उस कार्य से सम्बंधित अनेकों ऐसी सूक्ष्म बातें सूझने लगती हैं, जिनसे सफलता की सम्भावना भी बहुत अधिक बढ़ जाती है। अपना संकल्प यदि इतना दृढ हो की हम आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के बारे में सोचें ही नहीं तब अनेक निराधार भय और कल्पनाओं को दूर किया जा सकता है। और एक ही दिशा का (आत्मा या सत्य  का) सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है। यो वः शुष्मो हृदयेष्वन्तराकूतिर्या वो मनसि प्रविष्टा। तान्सीवयामि हविषा घृतेन मयिसजाता रमतिर्वो अस्तु॥ -अथर्व वेद 6।73।2,. अर्थात्- 
हृदय का बल और मन का संकल्प एक कार्य में लगते हैं तो प्रत्येक कार्य उत्तम रीति से पूर्ण हो सकता है। हृदय और मन  एक भाव होकर संगठन के सभी कार्यकर्ताओं में परस्पर स्नेहभाव जागने लगें तब उनमें जो  जातीयता  का भाव उत्पन्न होता है, वह विलक्षण संघबल उत्पन्न करती है। अर्थात  संकल्प शक्ति से ही राष्ट्र , जाती और संस्कृति अजेय बनते हैं। "  -आचार्य श्रीराम शर्मा         
संकल्प शक्ति की महिमा के सामने झुक जाती है सभी शक्तियां:  हमारे जीवन में संकल्प शक्ति का बहुत ही बड़ा महत्व है । इसी से व्यक्ति के जीवन का निर्माण होता है, व्यक्ति अपने जीवन को ही परिवर्तन करके नया रंग भर सकता है, निम्न स्तर से व्यक्ति महान बन जाता है। हम जो भी इच्छा करते हैं वह दो प्रकार की होती है , एक सामान्य इच्छा और एक विशेष इच्छा, यह विशेष इच्छा ही जब उत्कृष्ट, दृढ़ व प्रबल बन जाती है उसी को ही संकल्प कहते हैं । हम जो कुछ भी क्रिया करते हैं उसके तीन ही साधन हैं शरीर, वाणी और मन । वाणी और शरीर में क्रिया आने से पहले मन में ही होती है अर्थात् कर्म का प्रारम्भिक रूप मानसिक ही होता है । मन में हम बार-बार आवृत्ति करते हैं कि :- “मैं उसको ऐसा बोलूँगा...”, “मैं इस कार्य को करूँगा....” उसके पश्चात् ही वाणी से बोलते अथवा शरीर से करते हैं । मन में यह जो दोहराना होता है, यही संकल्प होता है।
किसी भी कार्य के प्रारंभ करने से पहले संकल्प करना हमारी प्राचीन परम्परा रही है। हमारी वैदिक परम्परानुगत यज्ञ आदि जो भी शुभ कार्य करते हैं सर्वप्रथम हम संकल्प पाठ से ही आरंभ करते हैं। संकल्प के माध्यम से व्यक्ति मजबूत बनता है, अन्दर से दृढ़, बलवान् होता जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में हर प्रकार से उन्नति करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को संकल्पवान बनाना चाहिए। जिसको मन में संकल्प कर लिया उसको व्यवहार में क्रियान्वयन करना ही है । जिसका संकल्प जितना मजबूत होता है उसको उतनी ही सफलता मिलती जाती है ।इसीलिए वेद में ईश्वर ने निर्देश दिया कि “तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु” अर्थात् मेरा मन सदा कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो, अपना तथा अन्यों की उन्नति के लिए प्रयत्नशील हो । जब भी हम कोई संकल्प लेते हैं और लक्ष्य कि ओर चल पड़ते हैं तो संकल्प की सिद्धि और हमारे बीच में अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ व्यवधान बनकर खड़ी हो जाती हैं तो हमें यहाँ अत्यन्त संघर्ष करना होता है । जब भी हमें किसी कार्य में असफलता मिलती है तब कभी भी हताश-निराश होकर संकल्प को छोड़ नहीं देना चाहिए । विचार करना चाहिए कि - हमारे सामर्थ्य में कहीं कुछ कमी हो, हमारी क्रिया करने की शैली में कमी हो, उस विषयक हमारा अनुभव न हो, अथवा साधनों में कोई न्यूनता हो, क्योंकि असफलता के पीछे यही मुख्य कारण होता है ।  संकल्प के अभ्यास हेतु दृढ़ निश्चय व प्रबलता अत्यंत आवश्यक हैं। योग-सूत्र के अनुसार –तीव्रसंवेगानामासन्नः॥  (पतञ्जलि योग-सूत्र, १.२१)अर्थात – वह व्यक्ति जो अपने अभ्यास में दृढ़ता व उत्साह से रत रहता है, वह निश्चय ही शीघ्रतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। औरमृदुमध्याधिमात्रा ततोऽपि विशेषः॥  (पतञ्जलि योग-सूत्र, १.२२)अर्थात – प्रबलता के अनुरूप ही परिणाम मिलते हैं। साधक साधारण, औसत, व अति इच्छुक, श्रेणी के होते हैं।पतंजलि ने अपने एक श्लोक द्वारा हर प्रकार के अभ्यास में आने वाले संभव अवरोधों का समुचित रूप से वर्णन किया है –व्याधिस्त्यानसंशय प्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्ध भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ।  (पतञ्जलि योग-सूत्र, १.३०)अर्थात – व्याधि, निष्क्रियता, संदेह, प्रमाद, आलस्य, अविरति, इंद्रियों की गुलामी, विभ्रांति, विलंबन, एवं पुनः-पतन – अभ्यास के मार्ग पर आने वाले विभिन्न अवरोध हैं।जैसे-जैसे आप अपने संकल्प में आगे बढ़ते हैं, आप पाएंगे कि आपका प्रतिबंधित मन निर्बल होने लगा है। आपको एक अवर्णनीय आंतरिक-शक्ति का अनुभव होगा। ऐसी नवीन आंतरिक-शक्ति का साथ पा कर आप सुगमता पूर्वक सहजावस्था प्राप्त कर पाएंगे, परमानंद की नवीन व सदा रहने वाली सहज अवस्था।
[निष्काम कर्म और निष्काम प्रेम-तत्व का उपदेश श्रीकृष्ण का मौलिक आविष्कार है। कृष्ण अवतार का मुख्य उद्देश्य गोपी-प्रेम की शिक्षा है। जब तुम कामिनी-कांचन और कीर्ति और तुच्छ मिथ्या संसार के प्रति आसक्ति को छोड़ोगे केवल तभी तुम गोपियों की प्रेम जनित विरह की उन्मत्तता को समझोगे। जब तुम्हारे हृदय में इस उन्मत्तता का प्रवेश होगा, जब तुम भाग्यवती गोपियों के भाव को समझोगे, तभी तुम जानोगे कि प्रेम क्या वस्तु है ! जब समस्त संसार तुम्हारी दृष्टि से अन्तर्धान हो जायेगा, जब तुम्हारे हृदय में और कोई कामना नहीं रहेगी, जब तुम्हारा चित्त पूर्णरूप से शुद्ध हो जायेगा-यहाँ तक कि जब तुममें सत्य के खोज की वासना भी नहीं रहेगी, तभी तुम्हारे हृदय में उस प्रेमोन्मत्तता का आविर्भाव होगा। और उसके बाद अद्वैत की अनुभूति होगी।  बैठक-खाना, कोलकाता में गोपी-लीला दर्शन/ 24 फरवरी 1992 को पहले हुआ उसके बाद 14 अप्रैल 1992 में ब्रह्मदर्शन हुआ।      धर्म न तो शास्त्रों में है, न सिद्धान्तों (चार महावाक्यों ), मतवादों में है, न वाद-विवाद करने में है।Religion is not in books, nor in theories, nor in dogmas, nor in talking, not even in reasoning. It is being and becoming. यह तो ब्रह्मविद बनकर ब्रह्म हो जाने की चीज है !(ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति।
 यह कहना गलत है कि बुद्ध ने ब्राह्मणों की मूर्ति-पूजा उठा दी थी। ....वे नहीं जानते कि बौद्ध धर्म ने ही भारत में ब्राह्मण-धर्म और मूर्ति-पूजा का प्रारम्भ किया था। जगन्नाथ जी का मन्दिर तो एक प्राचीन बौद्ध मन्दिर है। हमने इसको तथा भुवनेश्वर के अन्य कई बौद्ध मन्दिरों को हिन्दू मन्दिर बना लिया।  the temple of Jagannath is an old Buddhistic temple. We took this and others over and re-Hinduised them. The most hideous ceremonies, the most horrible, the most obscene booksthat human hands ever wrote or the human brain ever conceived, the most bestial forms that ever passed under the name of religion, have all been the creation of degraded Buddhism. बौद्ध धर्म की अवनति से जिन घृणित अनुष्ठान-पद्धतियों, ऐसे अश्लील ग्रन्थ जो मनुष्यों द्वारा कभी लिखे नहीं गए, पाशविक अनुष्ठानपद्धतियाँ -जो अन्य किसी युग में धर्म के नाम प्रचलित नहीं हुई थीं, ये सभी गिरे हुए बौद्ध धर्म की सृष्टि हैं। इसे हटाकर पुनः धर्म को स्थापित करने के लिए, इस बार भगवान शंकर केरल में आविर्भूत हुए। उस समय से लेकर अभी तक इसी अधःपतित बौद्ध धर्म पर वेदान्त की पुनर्विजय का कार्य सम्पन्न हो रहा है। अब भी यह काम जारी है, अब भी उसका अन्त नहीं हुआ है। उन्हीं के कार्य को पूरा करने के लिए महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा। (THE SAGES OF INDIA- भारत के महापुरुष,  ) 5 /148-158   
 मूर्ति-पूजा (Idol worship) और मूर्ति-मोह (Idol enchantment) का अन्तर :अंग्रेजी शिक्षा और गुलामी के प्रभाव से स्वाधीनोत्तर भारत में जिस प्रकार की वीर-मूर्ति पूजा (Spirit of idolatry worship) का भाव प्रचलन में आया है, वह भारतीय इतिहास-बोध का विकृतिकरण (perversion) है। वास्तव में यह मूर्ति-पूजा (Idol-  worship) नहीं बल्कि मूर्ति-मोह है (Idol enchantment) है। इसीलिये नासमझ लोग कभी शिवजी की प्रतिमा तोड़ देते हैं, तो कभी गाँधी-अम्बेडकर की, तो कभी राम के चित्र की अवमानना की जाती है। सीता को पात्र बनाकर भद्दी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं।यदि किसी मूर्ति-विशेष (M/F) के प्रति मोह, घोर आसक्ति (hypnotism/fascination) या सम्मोहन होगा तो, एक न एक दिन उस मोह का भंजन, या विसम्मोहन (de-hypnotism) भी होगा। और मूर्ति- पूजा का भाव यदि उसकी बाह्य-आकृति (नाम-रूप M/F) के आकर्षण से सम्मोहित न होकर, उस मूर्ति में अन्तर्निहित दिव्यता (अर्थात - उसके व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय की सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपांतरित हो जाने की सम्भावना) के प्रति श्रद्धा रखते हुए  निष्काम प्रेम की भावना से वास्तविकता प्राप्त करेगी; तो उस भावना के रहते यदि मूर्ति भग्न भी हो जाये, तो उपासना की कोई क्षति नहीं होती। क्योंकि दिव्य-प्रेम की वह भावना नई मूर्ति तुरंत गढ़ लेगी। कोई मूर्ति निरपेक्ष रूप से (absolutely) पवित्र नहीं होती, उनका रोज स्नान-श्रृंगार करना होता है। इसीलिए टूटा हुआ मंदिर या भग्न मूर्ति उपास्य नहीं रह पाते। जिस मूर्ति की उपासना अविच्छिन्न रूप से (uninterruptedly) होती रहती है, वह चाहे मनुष्य रचित आकार वाली मूर्ति हो, या स्वयम्भू मूर्ति हो , इससे कुछ खास बनता बिगड़ता नहीं है। यह अवस्था तब आती है जब हमें निरन्तर और अविच्छिन्न रूप में उनका साक्षात्कार होता है। क्योंकि जीवंत उपासना किसी सिद्ध वस्तु (Proven object) की नहीं हो सकती।  उपासना तो एक साधना है , जिसमें उपास्य निरंतर साध्य रहता है। सिद्ध इतिहास-पुरुष की कल्पना (अंतिम-पैगम्बर की कल्पना) एक खंड-सृष्टि में बंधने वाली उपासना है। किन्तु श्रुति-परम्परा या  " Be and Make- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा "  बन्धन नहीं है ! [साभार -श्री विद्यानिवास मिश्र 1976/ भवन्स नवनीत मई,2019] 
" सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ती है। महादुःख का प्रायः अन्त ही प्रतीत होता है। मोहनिद्रा में निमग्न शव मानो जाग्रत हो रहा है। इतिहास की बात तो दूर रही, जिस सुदूर अतीत के घनान्धकार को भेद करने में अनुश्रुतियाँ भी असमर्थ हैं, वहीँ से एक आवाज हमारे पास आ रही है। ज्ञान, भक्ति और कर्म के अनन्त हिमालय स्वरूप हमारी मातृभूमि भारत की हर एक चोटी पर प्रतिध्वनित होकर यह आवाज मृदु, दृढ़ परन्तु अभ्रान्त स्वर में हमारे पास तक आ रही है। जितना समय बीतता है , उतनी ही यह और भी स्पष्ट तथा गम्भीर होती जाती है- और देखो , वह निद्रित भारत अब जागने लगा है। मानो हिमालय के प्राणप्रद वायु-स्पर्श से मृतदेह के शिथिलप्राय अस्थि-मांस तक में प्राण-संचार हो रहा है। जड़ता धीरे धीरे दूर हो रही है। जो अन्धे हैं, वे ही नहीं देख सकते। और जो विकृत बुद्धि हैं, वे ही समझ नहीं सकते कि हमारी मातृभूमि अपनी गम्भीर निद्रा से अब जाग रही है। अब कोई उसे रोक नहीं सकता। अब यह फिर सो भी नहीं सकती।कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती क्योंकि यह असाधारण शक्ति (आध्यात्मिक शक्ति) का देश अब जागकर खड़ा हो रहा है। 5 /42 " The longest night seems to be passing away, the sorest trouble seems to be coming to an end at last, the seeming corpse appears to be awaking and a voice is coming to us — away back where history and even tradition fails to peep into the gloom of the past, coming down from there, reflected as it were from peak to peak of the infinite Himalaya of knowledge, and of love, and of work, India, this motherland of ours — a voice is coming unto us, gentle, firm, and yet unmistakable in its utterances, and is gaining volume as days pass by, and behold, the sleeper is awakening! Like a breeze from the Himalayas, it is bringing life into the almost dead bones and muscles, the lethargy is passing away, and only the blind cannot see, or the perverted will not see, that she is awakening, this motherland of ours, from her deep long sleep. None can desist her any more; never is she going to sleep any more; no outward powers can hold her back any more; for the infinite giant is rising to her feet." 3/145    
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