श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग : अवतार/नेता जब स्वयं एक सत्यार्थी की भूमिका में थे (साधक अवस्था या 'मुमुक्षु -अवस्था' में थे), तब जिस तीव्र अनुराग, तथा उत्साह को लेकर वे अपने जीवन में सत्य की उपलब्धि के लिए अग्रसर हुए थे; दूसरों के द्वारा लिखित उनकी जीवनी में उसका विस्तृत और विश्वसनीय वर्णन उपलब्ध नहीं होता। [ स्वयं को 'भेंड़ शिशु' समझने वाले भ्रमित 'सिंह-शावक' की अवस्था से भ्रममुक्त, विसम्मोहित (d-hypnotized) माँ जगदम्बा या अपने गुरु द्वारा वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त भावी नेता/शिक्षक में रूपांतरित होने तक; आचार्यों द्वारा किये गए तीव्र संघर्षों का विस्तृत और विश्वसनीय विवरण दूसरों के द्वारा लिखित उनकी जीवनी (Biography ) उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि भक्तों का स्वभाव होता है कि वे अपने प्रिय गुरु/अवतार को सदैव पूर्ण ही देखना पसन्द करते हैं।] जबकि भावी नेताओं/शिक्षकों के लिए अपने आदर्श की जीवनी में उनकी साधक अवस्था (मुमुक्षु अवस्था) में उनके द्वारा की जाने वाली साधनाओं का अध्यन करना क्यों आवश्यक है। उसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए श्रीरामकृष्ण-लीलापर्षद स्वामी सारदानन्द जी लिखते है :
कारण 4 : अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव की 'शिक्षा' - १. [तैत्तरीय उपनिषद वाली शीक्षा)
" माँ काली या ठाकुरदेव के ऐश्वर्य की उपलब्धि हो जाने पर 'मैं और तुम' कहकर उनसे प्रेम करना सम्भव नहीं है। यदि कोई सत्यार्थी अपने आदर्श (इष्टदेव-Personal God) के ऐश्वर्य की उपलब्धि (अर्थात ठाकुरदेव साक्षात् ब्रह्म हैं ! इस ज्ञान की उपलब्धि ) प्रारंभिक अवस्था में ही कर लेगा, तो उसकी उपासना में (अनासक्तप्रेम-सम्बन्ध में ) 'तुम और मैं ' का भाव रहना सम्भव नहीं है।"ठकुरेर उपदेश -ऐश्वर्य-उपलब्धिते 'तुमि-आमि' - भावे भालवासा थाके ना, काहारउ भाव नष्ट करिबे ना। ঠাকুরের উপদেশ - ঐশ্বর্য-উপলব্ধিতে 'তুমি-আমি'-ভাবে ভালবাসা থাকে না, কাহারও ভাব নষ্ট করিবে না/ The Master’s teaching: “Love-relation to the intimacy of ‘Thou’ and ‘I’ cannot stand when knowledge of powers intervenes”, शिक्षा-२' ईश्वर के सम्बन्ध में किसी के भाव (आध्यात्मिक दृष्टिकोण या spiritual attitude) को नष्ट नहीं करना चाहिए। " [“nobody’s spiritual attitude should be tampered with”]
कारण 4 : अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव की 'शिक्षा' - १. [तैत्तरीय उपनिषद वाली शीक्षा)
" माँ काली या ठाकुरदेव के ऐश्वर्य की उपलब्धि हो जाने पर 'मैं और तुम' कहकर उनसे प्रेम करना सम्भव नहीं है। यदि कोई सत्यार्थी अपने आदर्श (इष्टदेव-Personal God) के ऐश्वर्य की उपलब्धि (अर्थात ठाकुरदेव साक्षात् ब्रह्म हैं ! इस ज्ञान की उपलब्धि ) प्रारंभिक अवस्था में ही कर लेगा, तो उसकी उपासना में (अनासक्तप्रेम-सम्बन्ध में ) 'तुम और मैं ' का भाव रहना सम्भव नहीं है।"ठकुरेर उपदेश -ऐश्वर्य-उपलब्धिते 'तुमि-आमि' - भावे भालवासा थाके ना, काहारउ भाव नष्ट करिबे ना। ঠাকুরের উপদেশ - ঐশ্বর্য-উপলব্ধিতে 'তুমি-আমি'-ভাবে ভালবাসা থাকে না, কাহারও ভাব নষ্ট করিবে না/ The Master’s teaching: “Love-relation to the intimacy of ‘Thou’ and ‘I’ cannot stand when knowledge of powers intervenes”, शिक्षा-२' ईश्वर के सम्बन्ध में किसी के भाव (आध्यात्मिक दृष्टिकोण या spiritual attitude) को नष्ट नहीं करना चाहिए। " [“nobody’s spiritual attitude should be tampered with”]
मानवजाति के नेता, अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव से उनके भक्तगण, लीलापार्षद जब उनकी शक्तिविशेष के परिचायक [ some kind of vision as a direct evidence of particular powers of God] 'दिव्य-दर्शन' आदि प्राप्त करने के लिए बहुत जिद करने लगते कि, " आप जिस प्रकार सब भूतों में ब्रह्म दर्शन करते हैं, मुझे भी करवा दीजिये; आपकी कृपा से असम्भव भी सम्भव हो सकता है।"जब उनसे उनकी शक्तिविशेष के साक्षात् परिचायक किसी प्रकार के दर्शन [स्पर्श के द्वारा शक्तिपात द्वारा परम् सत्य का दर्शन] आदि के लिए विशेष आग्रह करने लगते, तो श्री रामकृष्ण मधुर तथा विनम्र भाव से कहा करते थे," देखो, इस प्रकार के दर्शन की आकांक्षा ठीक नहीं है। सामान्य मनुष्य को ऐश्वर्य (माँ की शक्ति) देखने से भय उत्पन्न होता है। उनको खिलाना-पहनाना ( Feeding and dressing Him) तथा (ईश्वर के प्रति) 'तुम और मैं ' का भाव (अनासक्त प्रेम-सम्बन्ध deep loving relation) नष्ट हो जाता है। "(इन्द्रियातीत सत्य को देखने की पात्रता अर्जित किये बिना यदि) कोई भक्त उस प्रकार के दर्शन आदि के लिए बहुत जिद करने लगता, तो ठाकुरदेव मधुर तथा विनम्र भाव से कहते थे - "अरे, मुझमें कुछ करा देने का सामर्थ्य कहाँ है - माँ की जो इच्छा होती है, वही होता है। यह सुनकर यदि उनका कोई भक्त दुःख व्यक्त करने लगता,तब उसको समझाते हुए कहते - " मैं तो चाहता हूँ कि तुम लोगों को सब प्रकार का दर्शन प्राप्त हो (सविकल्प और निर्विकल्प समाधि (तुरीयावस्था) की अनुभूति सभी को हो जाय) किन्तु ऐसा होता कहाँ है ? ...यह सुनकर भी यदि वह शान्त न होकर यह कहता कि " आपकी इच्छा होने पर ही माँ की इच्छा होगी। तब कहते " अरे मुझमें कुछ करा देने की सामर्थ्य कहाँ है,-माँ की जो इच्छा होती है , वही होता है। “What shall I say? Let Mother’s will be done.”
[यह दृष्टिगोचर नामरूपमय जगत माँ जगदम्बा का राज्य है, यहाँ वही होता है जो माँ की इच्छा होती है -What Mother wills, happens! “My child, I do wish that all of you may have all kinds of spiritual states and visions; but is it fulfilled?” क्योंकि वैसा होना नियम नहीं है ?] अत्यंत आग्रह करने पर श्री रामकृष्णदेव कहते थे -'अरे, किसी के आध्यात्मिक भाव को कभी नष्ट नहीं करना चाहिए। ... “Ah, the spiritual attitude of no one should be destroyed.” अत्यन्त आग्रह करने पर भी ठाकुरदेव (never tried to break that firm belief of the devotee) किसी के भ्रमपूर्ण दृढ़ विश्वास को भंग कर उसके भाव या आध्यात्मिक दृष्टिकोण को कभी नष्ट करने का प्रयास नहीं करते थे। (कहते थे -विश्वास भी क्या अँधा और आँख वाला होता है ?)
कारण 5. किसी व्यक्ति का (जगत और ईश्वर के प्रति) आध्यात्मिक दृष्टिकोण या भाव नष्ट करने का परिणाम कैसा होता है, उसके दृष्टान्त स्वरूप काशीपुर उद्यान में घटित शिवरात्रि की घटना : ( An example of the destruction of spiritual attitude on the occasion of the Siva ratri at the Kasipur garden):
[यह दृष्टिगोचर नामरूपमय जगत माँ जगदम्बा का राज्य है, यहाँ वही होता है जो माँ की इच्छा होती है -What Mother wills, happens! “My child, I do wish that all of you may have all kinds of spiritual states and visions; but is it fulfilled?” क्योंकि वैसा होना नियम नहीं है ?] अत्यंत आग्रह करने पर श्री रामकृष्णदेव कहते थे -'अरे, किसी के आध्यात्मिक भाव को कभी नष्ट नहीं करना चाहिए। ... “Ah, the spiritual attitude of no one should be destroyed.” अत्यन्त आग्रह करने पर भी ठाकुरदेव (never tried to break that firm belief of the devotee) किसी के भ्रमपूर्ण दृढ़ विश्वास को भंग कर उसके भाव या आध्यात्मिक दृष्टिकोण को कभी नष्ट करने का प्रयास नहीं करते थे। (कहते थे -विश्वास भी क्या अँधा और आँख वाला होता है ?)
कारण 5. किसी व्यक्ति का (जगत और ईश्वर के प्रति) आध्यात्मिक दृष्टिकोण या भाव नष्ट करने का परिणाम कैसा होता है, उसके दृष्टान्त स्वरूप काशीपुर उद्यान में घटित शिवरात्रि की घटना : ( An example of the destruction of spiritual attitude on the occasion of the Siva ratri at the Kasipur garden):
केवल आँखों में देखकर या स्पर्श मात्र से दूसरों के हृदय में आध्यात्मिक अनुभूति (-'मैं वह हूँ !' की अनुभूति!) को संचारित करने का सामर्थ्य बहुत कम साधकों (प्रशिक्षित नेताओं/शिक्षकों) को प्राप्त होता है।ठाकुरदेव अपने शिष्यों से बारम्बार कहते थे कि समय आने पर स्वामी विवेकानन्द (नवनीदा) इस प्रकार की शक्ति से विभूषित होकर कई भावी नेताओं में अपनी सच्चिदानन्द स्वरूप की स्मृति/अनुभूति को संचारित करने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे। ' स्वामी विवेकानन्द जैसे उत्तम अधिकारी संसार में दुर्लभ है। 'ठाकुरदेव पहले से जानते थे कि स्वामी विवेकानन्द तो निवृत्तिमार्ग के सप्त-ऋषिओं में से एक ऋषि थे, इसीलिए उन्हें वेदान्त प्रतिपादित अद्वैत-ज्ञान (knowledge of the unity of existence spoken of in the Vedanta.) का उपदेश देते हुए उनके चरित्र और धर्मजीवन को एक भावी नेता/शिक्षक के रूप में निर्मित कर रहे थे।
ब्राह्मसमाज में प्रचलित द्वैतभाव से ईश्वर की उपासना करने में अभ्यस्त स्वामीजी की दृष्टि में यद्यपि वेदान्त के 'सोSहं' भाव की उपासना ईशनिन्दा (blasphemy) करने जैसी बात थी। फिर भी ठाकुरदेव उनसे वेदान्त प्रतिपादित 'नेति नेति ' मार्ग का अभ्यास कराने के लिए ठाकुर देव नानाप्रकार से प्रयत्न करते रहते थे। दक्षिणेश्वर पहुँचने पर उनको 'अष्टावक्र -संहिता', 'मुक्ति (dehypnotization) तथा उसके साधन '(Mukti and how to attain it), गीता अथवा अद्वैतभाव से परिपूर्ण 'अध्यात्म रामायण' (Adhyatma Ramayana, which is full of non-dualistic ideas.) और 'योगवशिष्ठ ' आदि ग्रन्थ से कोई पाठ सुनाने के लिए अनुप्रेरित करते थे। स्वामीजी कहा करते थे -" यदि मैं ठाकुर प्रतिवाद करता कि 'मैं ब्रह्म हूँ !' इस प्रकार की भावना का मन में उदय होना तो एक प्रकार का पाप है, ऐसी पुस्तकों को जला देना चाहिए। " It is a sin even to think ‘I am God’. The book teaches the same blasphemy. It should be burnt.’ तब वे हँसते हुए कहते , " क्या मैं तुम्हें पढ़ने को कह रहा हूँ ? मैं चाहता हूँ तुम मुझे पढ़कर सुनाओ। तब तुम यह कहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि तुम भगवान हो ? " तब स्वामीजी को बाध्य होकर उन पुस्तकों के कुछ अंश पढ़कर उन्हें सुनाना ही पड़ता था। Again, although he was training the Swami that way: फिर यहाँ हम देख सकते है कि ठाकुर देव, एक ओर स्वामी विवेकानन्द को जहाँ ' वेदान्त श्रुति परम्परा ' या 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make' के निवृत्ति मार्ग से भावी शिक्षक/नेता बनने का प्रशिक्षण दे रहे थे।
वहीं दूसरी ओर अपने स्वामी ब्रह्मानन्द आदि अन्य तरुण भक्तों में से किसी को प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने के लिए साकार उपासना के प्रशिक्षण द्वारा उन्हें आध्यात्मिक जीवन में अग्रसर होने का प्रशिक्षण दे रहे थे। तो अधिकारी-भेद से किसी को विवेकज-ज्ञान मिश्रित- भक्ति ( devotion mingled with discrimination) शाश्वत -नश्वर विवेक, सत्य-असत्य विवेक का प्रयोग (discrimination between the real and the unreal)करते हुए उन्हें धर्मजीवन में अग्रसर करा रहे थे। दक्षिणेश्वर तथा काशीपुर उद्यान में आयोजित उस प्रथम युवा प्रशिक्षण शिविर में यद्यपि अपने 'C -in -C' श्रीरामकृष्णदेव' के समीप, स्वामी विवेकानन्द आदि समस्त बालक भक्तवृन्द ( boy devotees-शिक्षार्थी युवा या कैम्पर्स भाई-भावी नेता) एक साथ शयन-उपवेशन, आहार-विहार करते हुए, अर्थात 'श्रुति -परम्परा में गुरुगृहवास' करते हुए, मनःसंयोग, चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया, संकल्प ग्रहण पद्धति (3H -विकास) आदिविषयों पर 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन' कर रहे थे। फिर भी अधिकारी भेद (प्रवृत्ति-धर्म और निवृत्ति धर्म के प्रति झुकाव के अनुसार in diverse ways according to their peculiar tastes and tendencies.) से ही उनका विभिन्न प्रकार से उनको प्रशिक्षित कर रहे थे।
1886 के मार्च महीने में काशीपुर बगीचे में घटित घटना है। श्रीरामकृष्ण देव प्रतिदिन सायंकाल में स्वामी जी को अपने समीप बुलाकर इस युवा-संघ के माध्यम से भविष्य में 'Be and Make Leadership Training Tradition" को कैसे सुप्रतिष्ठित किया जायेगा उसकी शिक्षा प्रदान करते थे। ... साधन के प्रभाव से उस समय स्वामी जी के अन्दर दूसरों को स्पर्शकर धर्मशक्ति -संचार करने का सामर्थ्य कुछ कुछ प्रकट होने लगा था, किन्तु किसी पर उसकी परीक्षा करके देखा नहीं था। ..... व्यावहारिक जगत में सत्य (इन्द्रियातीत सत्य की शक्ति -माँ काली,जगदम्बाश्राम कोआलपाड़ा, की माँ सारदा देवी, लालमुख-वाली माँ, गर्म चादर माँगने वाली माँ? .. या कोई अन्य रूप जैसे बुद्ध के सामने नहीं गिलहरी के रूप में, आचार्य शंकर के सामने चाण्डाल और शिव-पार्वती रूप में आती रहती हैं ?) भी अवस्था तथा अधिकारी भेद से विभिन्न रूप (Bh रूप) धारण करती हैं, बालकस्वभाव स्वामी जी उस समय तक यह बात नहीं समझ पाए थे। [Then the boy Swami did not realize that truth in the practical world assumed different forms according to different conditions and capabilities.]
फाल्गुनी शिवरात्रि का दिन था। ..... रात्रि के 10 बजे स्वामी जी के भीतर अकस्मात दूसरों को स्पर्शकर धर्मशक्ति -संचार करने का सामर्थ्य (विभूति) के तीव्र अनुभव का उदय हुआ। तथा तत्काल उसकी परीक्षा करने के उद्देश्य से स्वामी जी ने ध्यान में बैठकर स्वामी अभेदानन्द से कहा -" मुझे कुछ समय तक के लिए स्पर्श किये रहो। " “Do touch me for a while”.
एक-दो मिनट बाद स्वामीजी ने आँख खोलकर कहा -" बस हो चुका, तुझे क्या अनुभव हुआ ? क्या मुझे स्पर्श करने पर तुझे बिजली के झटका जैसा अनुभव हुआ था ?" अभेदानन्द जी ने कहा " बिजली की बैटरी ( electric battery)से जुड़े तार को पकड़ने से जैसा अनुभव होता है, वैसा ही अनुभव उस समय तुमको स्पर्श करने से भी हो रहा था। [ “Exactly like something entering into one when one holds an electric battery, one’s hand trembling all the while.”] उसके बाद अभेदानन्द भी ध्यान करने लगे तब -उनका शरीर निश्चल होकर गर्दन तथा मस्तक झुक गया और कुछ काल के लिए उनकी बाह्य चेतना एकदम विलुप्त हो गयी।
... थोड़ी देर बाद स्वामी रामकृष्णानन्द जी आकर स्वामी जी को बोले -" ठाकुर आपको बुला रहे हैं। " स्वामी जी को देखते ही श्रीरामकृष्णदेव बोले - " जमा होते न होते ही खर्च ? पहले अपने अन्दर अच्छी तरह जमा तो होने दे, फिर कहाँ किस प्रकार से खर्च करना है, यह स्वयं ही समझ में आ जायेगा-माँ ही सब समझा देंगी। उसके अंदर अपना भाव प्रविष्ट कराकर तुमने उसकी कितनी क्षति की है, .. मानो छः महीने का गर्भ नष्ट हो गया। खैर, जो होना था हो चुका, अबसे कभी ऐसा परीक्षण किसी पर सहसा मत करना। -जो भी हो, लड़के का भाग्य अच्छा है। " ... फल यह हुआ कि अभेदानन्द जी अद्वैत भाव (निर्विकल्प समाधि) को ठीक ठीक धारण करना तथा समझना तो समय-सापेक्ष कृपा है, वे इसे न समझकर यदाकदा वेदान्त की दुहाई देकर सदाचार -विरुद्ध कार्यों (Bh -आदि निषिद्ध कर्मों) को भी करने लगे। .... श्रीरामकृष्णदेव के शरीर त्याग बहुत दिनों बाद अभेदानन्द अपनी भूल-त्रुटियों को सुधारकर पुनः यथार्थ अद्वैत भाव में प्रतिष्ठित होना सम्भव हो सका था।
[एक दिन मैंने नवनी दा से पूछा था,कि काली महाराज तो स्वामी जी के प्रिय गुरुभाई थे, फिर उन्होंने रामकृष्ण मठ और मिशन, से अलग रामकृष्ण-वेदान्त मठ की स्थापना क्यों की ? तब उन्होंने कहा था कि अभेदानन्द जी इस घटना के उल्लेख को लीलाप्रसंग से निकाल देने का आग्रह किया था; उनकी यह इच्छा पूर्ण न होने के कारण उन्होंने अलग से रामकृष्ण वेदान्त मठ की स्थापना की थी। उसके कुछ दिनों बाद स्वामी अभेदानन्द जी महाराज की बंगला भाषा में लिखित, तथा ' सारदा प्रज्ञाधाम ' C- 27 बाघायतिन पल्ली, कोलकाता - 700092, द्वारा प्रकाशित जीवनी 'प्रचारक अभेदानन्द' की 10 प्रतियाँ, Thursday, July 28, 2011 को मुझे, आलोक मास्टर, अरुणाभ, समीर आदि में वितरित किया था। भुवनेश्वर स्थित ' सारदा- धाम ' के प्राणपुरुष श्रद्धेय नगेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ( तदानीस्तन वेदान्त सोसाईटी) ने स्वामी अभेदानान्दजी के साथ, रामकृष्ण वेदान्त मठ के पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में,घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने का सुयोग प्राप्त किया था।और जब स्वामी अभेदानान्दजी 1922 ई० में अमेरिका से भारत वापस आ गए, तब से लेकर अंतिम समय 1939 तक उनके स्नेहपात्र और सारदाधाम के प्रमुख सेवक बने रहे थे। भुवनेश्वर स्थित 'सारदा- धाम' और कोलकाता स्थित नगेन्द्र प्रज्ञा मन्दिर (वर्तमान में ' सारदा प्रज्ञाधाम ') के साथ परमपूज्य श्रीमत स्वामी अभेदानन्दजी का बहुत पुराना सम्बन्ध रहा है।'
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मानव इतिहास के प्रारंभ से ही, इसी कोटि के असंख्य नेता भारत कि धरती पर अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत का, अपितु पूरी मानव जाति का मार्गदर्शन किया है। आज सम्पूर्ण विश्व में इस तथ्य को हर जगह न्यूनाधिक रूप में स्वीकार किया जाने लगा है, कि मानव सभ्यता को समृद्धि प्रदान करने तथा उसकी सच्ची उन्नति में भारत का प्रचूर अंशदान रहा है। विश्व के 177 देशों में 21 जून को 'विश्व योग दिवस' के रूप में मनाया जाने लगा है। आज यदि सभी देशों के प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क- तरंगों ( Brain-Waves)से निसृत होने वाले विचार-प्रवाहों (Thought Current) का परिक्षण किया जाय, तो पायेंगे कि प्राचीन काल की ही तरह आज भी पूरी मानव जाति ज्योति , ज्ञान और मार्ग-दर्शन प्राप्त करने के लिये उदग्रीव हो कर, भारत की ओर ही निहार रही है। यह अंशदान भारत केवल इसी कारण कर सका है कि भारत भूमि पर ऐसे महापुरुष लगातार अवतरित होते आ रहे हैं जो मानवजाति के सच्चे नेता थे। उन समस्त नेताओं/शिक्षकों में जो विशेषता सामान्य रूप से विद्यमान थी, वह यही थी कि - वे सभी महापुरुष आध्यात्मिक दिग्गज थे, ~ अर्थात सारे अवतार/नेता या पैगम्बर स्वयं "सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन" करने में समर्थ थे। साथ ही साथ इस दृष्टि को दूसरों में संचारित करने की योग्यता भी रखते थे। उन महापुरुषों ने स्वयं के जीवन और शिक्षण के द्वारा सम्पूर्ण मानवजाति को न केवल लौकिक उन्नति करने के क्षेत्र में मार्गदर्शन किया अपितु, बाहरी परिवेश और परिस्थितिओं के दबाव को हटा कर जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन में भी सच्चे पथ-प्रदर्शक बने रहे।
स्वामी विवेकानन्द तो यह विश्वास करते थे कि 'सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिकता का दान करना भारत का भाग्य है। इसीलिए हमारी श्रुति परम्परा (श्रीतोतापुरी -श्री रामकृष्ण Be and Make वेदान्त नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षित लोकशिक्षकों के निर्माण की यह प्रक्रिया भारतभूमि पर कभी समाप्त नहीं होती, निरन्तर चलती रहती है !
योग शास्त्रों में दो प्रकार के योगी कहे गये है।---१.. युञ्जानयोगी (साधक योगी-पहले फूल बाद में फल लगता है ?) २.. युक्तयोगी (सिद्ध योगी-पहले फल लगता है, बाद में फूल होता है ?) अष्टांग योग द्वारा समाधि लगने पर जिनको अपने तथा अन्य के पूर्व जन्म का ज्ञान होता है, उन्हें युञ्जान योगी कहते है तथा बिना समाधि के ही जिनको त्रिकाल ज्ञान हो तथा योग की सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो, उन्हें युक्तयोगी कहते हैं।
पातञ्जल योगदर्शन के तीसरे पाद--विभूतिपाद के १८वें सूत्र- संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥ पर व्यास जी ने अपने भाष्य में लिखा है------- "बन्धकारण शैथिल्यात् प्रचार सम्वेदनाच्च् चित्तस्य परशरीरप्रवेश:।" बंधनों के कारण सिथिल होने से तथा प्रचार के सम्वेदन से चित्त एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।
"बन्धन कारण शैथिल्यात्"------ शरीर के भीतर चित्त को बांधने के जो कारण है अर्थात शरीर के भीतर चित्त की प्रतिष्ठा इसका तथा चित्त की गति के प्रतिबंधन ज्ञान के कारण सम्बन्ध विशेष माने गये है। उसके पुण्य, पाप दो कारण है। चित्त के द्वारा आरम्भ किया हुआ पुण्य अथवा पाप इन दोनों की शिथिलता का कारण संयम है अर्थात धारणा, ध्यान समाधि के अभ्यास से चित्त के बंधन का कारण नहीं रहता।
"प्रचार सम्वेदनात् च"-------- जिन कारणों से अंतःकरण चंचल होता है , उन्हें चित्त का प्रचार कहा जाता है। चित्त की दौड़ लगाने वाली नाड़ियों में जो चित्त आता-जाता है, वह चित्त का प्रचार है।
"सम्वेदनात्-सम्------- सम-- धारणा, ध्यान, समाधि के एकत्र का नाम संयम है। इन तीनों के एक साथ अभ्यास से चित्त की चंचलता शांत होती है।
वेदनम्-- साक्षात्कार करना। चित्तस्य--- योगी का चित्त, अपने पूर्व शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे युक्तयोगी अपने सङ्कल्प शक्ति के प्रभाव से केवल एक शरीर में ही नहीं प्रवेश करते अपितु जितने भी शरीरों में चाहे, प्रवेश कर सकते हैं।
[साभार https://www.facebook.com/AadiShankaro/]
आधुनिक युग (२१वीं सदी) में भी महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा (आचार्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) भी ऐसे ही एक युक्तयोगी थे ! (स्वामी जी से चपरास प्राप्त योगी थे !) इसीलिये इच्छा तथा स्पर्श मात्र से, या केवल दूसरे की आँखों में देखने मात्र से, अपने चुने हुए (अधिकारी) शिष्यों में चैतन्यता, होश या बुद्धत्व के बीज को प्रस्फुटित करने, अथवा आध्यात्मिक चेतना या 'लोटा ब्रह्म थाली ब्रह्म की अवस्था' की अनुभूति संचारित करने में समर्थ थे! महामण्डल द्वारा 1987 में बेलघड़िया रामकृष्ण मिशन में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर '....... मेरा पहला कैम्प था........ उस कैम्प में उनकी इस शक्ति का अनुभव मुझे स्वयं हुआ था। पहले ही कैम्प में एक दिन लीडरशिप क्लास में मेरी आँखों में देखते हुए सम्पूर्ण क्लास से उन्होंने कहा था -'I bow down my head to the would be leaders of India !'उनकी स्वलिखित जीवनी या आत्मसंस्मरणात्मक कथा (memorabilia/ autobiography) 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में हमलोग, विगत 52 वर्षों से 'श्रुति पम्परा'-अर्थात त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः की परम्परा " में प्रशिक्षित नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करने वाली संस्था ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अवतरण की पृष्ठभूमि को समझ सकते हैं। वहाँ नवनीदा ने अपनी साधक अवस्था (मुमुक्षु अवस्था) का उल्लेख करते हुए स्वयं यह लिखा है कि अपने पूर्व-जन्म में वे " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा~ Be and Make' में प्रशिक्षित शिष्य एवं अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा के संस्थापक कैप्टन सेवियर थे। इसीलिए महामण्डल के द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में उसी 'त्याग और सेवा की श्रुति परम्परा' में आधारित 'Be and Make Leadership Training Tradition' में नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' नामक जीवनी में इसका सम्पूर्ण विवरण विश्वसनीय रूप से लिपिबद्ध है।
इसलिए नवनीदा की स्वलिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' भावी नेताओं/शिक्षकों के लिए यह एक असाधारण आकाशदीप (Light house) की तरह का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। अतएव "जीवन नदी के हर मोड़ पर " का अध्यन करके नेता /शिक्षक के सम्बन्ध में प्रचलित भ्रमात्मक संकेतार्थ (Delusive connotation) को दूर हटाकर, उसके यथातथ्य लक्ष्यार्थ (Precise connotation) को समझते हुए, हमें तत्सम्बन्धी (वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के विषय में) अपनी स्पष्ट धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।
योग शास्त्रों में दो प्रकार के योगी कहे गये है।---१.. युञ्जानयोगी (साधक योगी-पहले फूल बाद में फल लगता है ?) २.. युक्तयोगी (सिद्ध योगी-पहले फल लगता है, बाद में फूल होता है ?) अष्टांग योग द्वारा समाधि लगने पर जिनको अपने तथा अन्य के पूर्व जन्म का ज्ञान होता है, उन्हें युञ्जान योगी कहते है तथा बिना समाधि के ही जिनको त्रिकाल ज्ञान हो तथा योग की सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो, उन्हें युक्तयोगी कहते हैं।
पातञ्जल योगदर्शन के तीसरे पाद--विभूतिपाद के १८वें सूत्र- संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥ पर व्यास जी ने अपने भाष्य में लिखा है------- "बन्धकारण शैथिल्यात् प्रचार सम्वेदनाच्च् चित्तस्य परशरीरप्रवेश:।" बंधनों के कारण सिथिल होने से तथा प्रचार के सम्वेदन से चित्त एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।
"बन्धन कारण शैथिल्यात्"------ शरीर के भीतर चित्त को बांधने के जो कारण है अर्थात शरीर के भीतर चित्त की प्रतिष्ठा इसका तथा चित्त की गति के प्रतिबंधन ज्ञान के कारण सम्बन्ध विशेष माने गये है। उसके पुण्य, पाप दो कारण है। चित्त के द्वारा आरम्भ किया हुआ पुण्य अथवा पाप इन दोनों की शिथिलता का कारण संयम है अर्थात धारणा, ध्यान समाधि के अभ्यास से चित्त के बंधन का कारण नहीं रहता।
"प्रचार सम्वेदनात् च"-------- जिन कारणों से अंतःकरण चंचल होता है , उन्हें चित्त का प्रचार कहा जाता है। चित्त की दौड़ लगाने वाली नाड़ियों में जो चित्त आता-जाता है, वह चित्त का प्रचार है।
"सम्वेदनात्-सम्------- सम-- धारणा, ध्यान, समाधि के एकत्र का नाम संयम है। इन तीनों के एक साथ अभ्यास से चित्त की चंचलता शांत होती है।
वेदनम्-- साक्षात्कार करना। चित्तस्य--- योगी का चित्त, अपने पूर्व शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे युक्तयोगी अपने सङ्कल्प शक्ति के प्रभाव से केवल एक शरीर में ही नहीं प्रवेश करते अपितु जितने भी शरीरों में चाहे, प्रवेश कर सकते हैं।
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आधुनिक युग (२१वीं सदी) में भी महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा (आचार्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) भी ऐसे ही एक युक्तयोगी थे ! (स्वामी जी से चपरास प्राप्त योगी थे !) इसीलिये इच्छा तथा स्पर्श मात्र से, या केवल दूसरे की आँखों में देखने मात्र से, अपने चुने हुए (अधिकारी) शिष्यों में चैतन्यता, होश या बुद्धत्व के बीज को प्रस्फुटित करने, अथवा आध्यात्मिक चेतना या 'लोटा ब्रह्म थाली ब्रह्म की अवस्था' की अनुभूति संचारित करने में समर्थ थे! महामण्डल द्वारा 1987 में बेलघड़िया रामकृष्ण मिशन में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर '....... मेरा पहला कैम्प था........ उस कैम्प में उनकी इस शक्ति का अनुभव मुझे स्वयं हुआ था। पहले ही कैम्प में एक दिन लीडरशिप क्लास में मेरी आँखों में देखते हुए सम्पूर्ण क्लास से उन्होंने कहा था -'I bow down my head to the would be leaders of India !'उनकी स्वलिखित जीवनी या आत्मसंस्मरणात्मक कथा (memorabilia/ autobiography) 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में हमलोग, विगत 52 वर्षों से 'श्रुति पम्परा'-अर्थात त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः की परम्परा " में प्रशिक्षित नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करने वाली संस्था ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अवतरण की पृष्ठभूमि को समझ सकते हैं। वहाँ नवनीदा ने अपनी साधक अवस्था (मुमुक्षु अवस्था) का उल्लेख करते हुए स्वयं यह लिखा है कि अपने पूर्व-जन्म में वे " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा~ Be and Make' में प्रशिक्षित शिष्य एवं अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा के संस्थापक कैप्टन सेवियर थे। इसीलिए महामण्डल के द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में उसी 'त्याग और सेवा की श्रुति परम्परा' में आधारित 'Be and Make Leadership Training Tradition' में नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' नामक जीवनी में इसका सम्पूर्ण विवरण विश्वसनीय रूप से लिपिबद्ध है।
इसलिए नवनीदा की स्वलिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' भावी नेताओं/शिक्षकों के लिए यह एक असाधारण आकाशदीप (Light house) की तरह का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। अतएव "जीवन नदी के हर मोड़ पर " का अध्यन करके नेता /शिक्षक के सम्बन्ध में प्रचलित भ्रमात्मक संकेतार्थ (Delusive connotation) को दूर हटाकर, उसके यथातथ्य लक्ष्यार्थ (Precise connotation) को समझते हुए, हमें तत्सम्बन्धी (वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के विषय में) अपनी स्पष्ट धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" श्री रामकृष्ण का जीवन एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक ( Light house) है, जिसके प्रकाश में सनातन धर्म के विभिन्न अंग एवं आशय समझे जा सकते हैं। श्री रामकृष्ण शास्त्रों में निहित सिद्धान्त-रूप ज्ञान के प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरूप थे। विश्व के समस्त अवतार और पैगम्बर हमें जो वास्तविक शिक्षा देना चाहते थे, उस सम्पूर्ण शिक्षा -पद्धति को उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र मतवाद मात्र है, रामकृष्ण उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति हैं। उन्होंने अपने मात्र ५१ वर्ष के जीवनकाल में ५००० वर्ष का राष्ट्रीय आध्यात्मिक जीवन जी लिया था और इस तरह वे भविष्य की सन्तानों - ' त्यागी और गृहस्थ ' दोनों के लिये अपने आप को एक शिक्षाप्रद (अनुकर्णीय ) उदाहरण बना गये। " ( ३ :३३९ )
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " लोग कहते हैं - ' इस पर ( अमुक-तमुक बाबा पर ) विश्वास करो, उस पर ( श्री श्री .....जी ) पर विश्वास करो ' , मैं कहता हूँ - ' पहले अपने आप पर विश्वास करो ' यही रास्ता है। Have faith in yourself, all power is in you- be conscious and bring it out. - ' सब शक्ति तुममें है - इसे जान लो और उसे विकसित करो ! ' कहो, ' हम सब कुछ कर सकते हैं !' ' नहीं नहीं कहने से साँप का विष भी नहीं हो जाता है !'ख़बरदार, No ' नहीं नहीं ', कहो ' हाँ हाँ ', ' सो अहम् सो अहम् ' ( या कहो I and my Father are one ' ) !
" किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशाक्तिः, आमन्त्रयस्व भगवन भगदं स्वरूपम।" - हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में है ! हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप विकसित करो ! "कुर्मस्तारकचर्वणं त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात् , किं भो न विजानास्यस्मान् रामकृष्णदासा वयम्— We shall crush the stars to atoms, and unhinge the universe. Don't you know who we are? '' हम तारों को भी अपने दांतों में पीस सकते हैं, तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं | ''हमें नहीं जानते? हम श्री रामकृष्ण के दास हैं !' [ क्या हमें नहीं जानते? हम नवनीदा के अनुज हैं !]
" क्षीणाः स्म दीनाः सकरुणा जल्पन्ति मूढा जना, नास्तिक्यन्त्विदन्तु अहह देहात्मवादातुराः।—"It is those foolish people who identify themselves with their bodies, that piteously cry, 'We are weak, we are low.' जो भ्रमित (हिप्नोटाइज्ड) लोग नश्वर शरीर देह को ही अविनाशी आत्मा मानते हैं, वे ही करुण कण्ठ से (भेंड़ की तरह में में करते हुए) कहते हैं - हम तो दुर्बल मनुष्य हैं, हम दीन हैं; यही नास्तिकता है !
प्राताः स्म वीरा गतभया अभयं प्रतिष्ठां यदा,अस्तिक्यन्त्विदन्तु चिनुमः रामकृष्णदासा वयम्॥ हमलोग जब इन्द्रियातीत सत्य को जानकर अभयपद में प्रतिष्ठित हो चुके हैं, तो हम स्वयं को भयरहित वीर (heroes-माँ सारदा देवी की कृपा प्राप्त सन्तान) क्यों न समझें ? निश्चित रूप से यही वह आस्तिकता है जिसे हम, श्री रामकृष्ण के दास चुनते हैं। " कहो -हम श्री रामकृष्ण के चुने हुए दास हैं। (और उनके दास के दास के दास पूज्य नवनीदा के चुने हुए अनुज हैं! यह समझ लेना ही आस्तिकता है !) All this is atheism. Now that we have attained the state beyond fear, we shall have no more fear and become heroes. This indeed is theism which we, the servants of Shri Ramakrishna, will choose. "
पीत्वा पीत्वा परमममृतं वीतसंसाररागाः| हित्वा हित्वा सकलकलहप्रापिणीं स्वार्थसिद्धिम् ।
ध्यात्वा ध्यात्वा गुरुवरपदं सर्वकल्याणरूपम्। नत्वा नत्वा सकलभुवनं पातुमामन्त्रयामः॥
संसार में आसक्ति (कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति ) तथा समस्त झगड़े की जड़ स्वार्थपरता का त्याग करके निरंतर परमामृत या अमरत्व में प्रतिष्ठित रहते हुए, श्री गुरु/नेता ठाकुरदेव के सर्वकल्याण-स्वरूप युगल चरणों का ध्यान कर, और नतमस्तक होकर हमलोग सम्पूर्ण विश्व को उस अमृत का पान करने के लिए बुला रहे हैं।"Giving up the attachment for the world and drinking constantly the supreme nectar of immortality, for ever discarding that self-seeking spirit which is the mother of all dissension, and ever meditating on the blessed feet of our Guru which are the embodiment of all well-being, with repeated salutations we invite the whole world to participate in drinking the nectar.
प्राप्तं यद्वै त्वनादिनिधनं वेदोदधिं मथित्वा। दत्तं यस्य प्रकरणे हरिहरब्रह्मादिदेवैर्बलम्। पूर्णं यत्तु प्राणसारैर्भौमनारायणानां। रामकृष्णस्तनुं धत्ते तत्पूर्णपात्रमिदं भोः ॥" अनादि अनन्त वेदों-उपनिषदों का मंथन करने से जो परम् अमृत (चार महावाक्य या बोध-वाक्य) मिला है, और जिसमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि देवताओं ने अपनी शक्ति (जगतजननी की शक्ति) को भी मिला दिया है, उसी परम् अमृत को अवतार वरीष्ठ (सभी अवतारों के सार स्वरूप) श्री रामकृष्णदेव ने अपने शरीर में पूर्ण मात्रा में धारण किया है ! That nectar which has been obtained by churning the infinite ocean of the Vedas, into which Brahmâ, Vishnu, Shiva, and the other gods have poured their strength, which is charged with the life-essence of the Avataras—Gods Incarnate on earth—Shri Ramakrishna holds that nectar (existence-consciousness-bliss) in his person, in its fullest measure!" एकमात्र त्याग के द्वारा ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है। त्याग, त्याग - के मर्म को सीख कर, अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों में इसीका अच्छी तरह से प्रचार करना होगा। त्यागी हुए बिना तेजस्विता नहीं आने की। [प्रवृत्ति मार्ग से होते हुए 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझे बिना कोई भी मनुष्य 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता।) कार्य आरम्भ कर दो। यदि तुम एक बार दृढ़ता से कार्यारम्भ कर दो, तो मैं कुछ विश्राम ले सकूंगा .... ( ३ :३११-१३)
पूज्य नवनीदा के गुरु स्वामी रंगनाथानन्द ने भारत की प्राचीन "श्रुति परम्परा" में निवृत्ति मार्ग के संन्यास-सूक्त के अनुसार 1926 में श्री रामकृष्णदेव के लीला-पार्षद स्वामी शिवानन्द से वे मंत्र-दीक्षा लाभ किया था। स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज ने 'युवा महामण्डल' कार्यकर्ताओं की एक बैठक (1967) में जो भाषण दिया था, उसीके आधार पर लिखित महामण्डल की बंगला पुस्तिका -" आमादेर करनीय" हमारे लिए करनीय !' में एक स्थान पर कहा गया है -" আত্মত্যাগ করলে আত্মা ও ব্যক্তিত্বকে উপলব্ধি করা যায়। ছোট অমিকে ত্যাগ করলে বড়ো আমির সঙ্গে পরিচয় ঘটে। আর সঙ্গে সঙ্গে by -product হিসেবে আসে সেবা।"- अर्थात 'आत्मत्याग करले 'आत्मा' ओ 'व्यक्तित्व' के उपलब्धि करा जाय। अर्थात आत्मोसर्ग (self-sacrifice) कर देने से 'आत्मा' और 'व्यक्तित्व' की उपलब्धि की जा सकती है। (Self and personality can be realized if you give up your ego !) छोटा 'मैं'-बोध (क्षुद्र अहं) को त्याग देने से बड़ा 'मैं' (अपने ब्रह्म-स्वरुप का) का साक्षात्कार हो जाता है ! [ अर्थात उसके व्यष्टि अहं का रूपांतरण माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं' में हो जाता है। और उसके साथ ही साथ जनता-जनार्दन की सेवा का भाव; एक 'by-product' - (उपोत्पाद) के रूप में प्राप्त होता है। [नवनीदा के शब्दों में - अपने हृदय में अवस्थित आत्मतत्व के अन्वेषण में डूब जाओ। समाधि के सहारे उसमें अवस्थित रहो। ऐसा करने पर देखोगे कि उस समय तुम्हारा तुच्छ अहंज्ञान (व्यष्टि अहं-little 'I ') विराट में (immense 'I' में) लीन और स्तब्ध हो जायेगा। तथा अखण्ड सच्चिदानन्द को अपना स्वरुप समझकर साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष कर सकोगे। (आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा ! और समाधि से लौटने पर तुम्हारा 'व्यष्टि अहं' माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'समष्टि अहं' में रूपांतरित हो जायेगा। )
[Dive deep into the reality of the Self existing in yourself. Be one with It with the help of Samadhi. You will then see the universe consisting of name and form, vanish, as it were, into the void; you will see the consciousness of the little 'I ' merge in that of the immense 'I', where it ceases to function; and you will have the immediate knowledge of the indivisible Existence-Knowledge-Bliss as yourself! ]
जैसे ही कोई युवा/शिक्षक/नेता जनता-जनार्दन की सेवा करने अथवा भारत कल्याण करने के उद्देश्य से, आत्मोसर्ग (Self-sacrifice) कर देने या अपने हृदय को भी उखाड़ कर फेंक देने के लिए भी उद्दत हो जाता है, वैसे ही वह 'आत्मा' और 'व्यक्तित्व' (मातृहृदय नेता या शिक्षक का व्यक्तित्व) की उपलब्धि कर लेता है। और उसके साथ ही साथ (Leadership skill-pseudo secularism - बंगाली ममता जैसे छद्म धर्मनिरपेक्षता से या चालाकी से प्राप्त नहीं होता।) जनता-जनार्दन की सेवा का भाव; एक 'by-product' - (उपोत्पाद) के रूप में प्राप्त होता है। जैसे 'भात' बनाते समय 'माड़' का या शक्कर बनाते समय 'इथेनॉल' एक 'उपोत्पाद' by-product. के रूप में निर्मित होता है। ठीक वैसे ही जब कोई व्यक्ति अपने सच्चिदानन्द स्वरूप (existence-consciousness-bliss) का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसको वैसा 'अभीः सम्पन्न व्यक्तित्व' या वैसा अद्भुत 'दास लीडरशिप' क्वालिटी एक by-product के रूप में प्राप्त होता है। तब उस नेता का व्यक्तित्व अपने संगियों पर जादू सा कर देता है! क्योंकि तब - 'अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत ब्रह्ममय देखते ही', उसमें जनता-जनार्दन की सेवा करने भाव -या सोज़-ए -मुहब्बत (प्रेम का जूनून) by-product या उपोत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। इसी अवस्था को प्राप्त होने के बाद उर्दू के प्रसिद्द सूफ़ी शायर फ़ैज़ अहमद फैज ने कहा था-
" आइए हाथ उठाएँ हम भी, हम (असाधारण व्यक्ति) जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं।
हम जिन्हें सोज़े-मुहब्बत के सिवा, कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं। "
उसी प्रकार जो आध्यात्मिक दृष्टि से धनीव्यक्ति/ शिक्षक, ब्रह्मविद, पैगम्बर या नेता हैं वे, उस जनता-जनार्दन की सेवा - जो आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र और मन-इन्द्रियों द्वारा पददलित होकर पशुतुल्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनकी सेवा - 'शिव ज्ञान से जीव-सेवा' के रूप में करेंगे। अर्थात उन्हें सर्वश्रेष्ठ-दान अध्यात्म विद्या का दान करेंगे। इसीलिए सूफ़ी परम्परा के शायर फैज को भी जब आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त हो गयी, तब प्रेम के जूनून से भरकर उन्होंने कहा था -
" जिन की आँखों को रुख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं,
उन की रातों में कोई शम्अ मुनव्वर कर दें।
उन की रातों में कोई शम्अ मुनव्वर कर दें।
जिन के क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं,
उन की नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें। "
उन की नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें। "
(रुख़-ए-सुब्ह -सुबह का चेहरा,यारा-शक्ति,जोर मुनव्वर -रौशन, रह -टिकना )]
[श्रुति-परम्परा = "‘कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः " कैवल्योपनिषत्/ ३ की परम्परा। — Neither by progeny nor by wealth, but by renunciation alone some (rare ones-असाधारण व्यक्तियों ने) attained immortality" (Kaivalya Upanishad, 3)."अभीरभीरभीः — Be fearless, be fearless, be fearless!" उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म (rituals) के द्वारा, न सन्तान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म या अभिः को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है।
सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की। ईक्षणादिप्रवेशान्तः संसार ईशकल्पितः। समस्त संसार आत्माका ही संकल्प होनेके कारण आत्मस्वरूप ही है। यों तो माया में कोई भी बात कुतूहलजनक नहीं हुआ करती; इसका अभिप्राय केवल (अपनी सन्तानों को ?) आत्मबोध कराने में है। यह केवल आत्मा के अद्वितीयत्व का बोध कराने के लिये ही कही गयी है। यदि 'निवृत्ति अस्तु महाफला 'का निरंतर स्मरण करते हुए किसी व्यक्ति को 'प्रवृत्ति मार्ग' की निस्सारता का अनुभव हो जाय, तथा किसी प्रकार (निष्काम कर्म या निष्काम प्रेम द्वारा) चित्तशुद्धि हो जाने से उसे गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय; तो भी कामनाशून्य हो जाने से~ अपने गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जाने के कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति हो जायगी। वेद ने कर्मों द्वारा मुक्ति की बात कही है। अतः मनुष्य को आयु पर्यन्त कर्म ही करना चाहिए।' वेद ने कहा भी है---- "यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्।" किन्तु ऐसी श्रुतियाँ केवल अज्ञानियों के लिये हैं, बोधवान् के लिये इस प्रकार की कोई विधि नहीं की जा सकती। जो लोग घर में रहते हुए ही शमदमादि साधनसम्पन्न हो सकते हैं और जिन बोधवानों की निष्कामतामें अपने गृहविशेष में रहना बाधक नहीं होता वे घर में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं। वे स्वरूप से संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्मसम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही अनुसरण करने वाले हैं।]
[दादा के सानिध्य पहला कैम्प बेलघड़िया रामकृष्ण मिशन 1987: वहाँ के एक तांत्रिक संन्यासी-अमलानन्द ? जो काली बिल्ली पालता था ? से भिड़ गया था ? प्रणवदा ने फिर स्वयं माँ ----जगदम्बा आश्रम पान से लालमुख वाली ? ने सहायता की थी ? .... मैं प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक, उस भावी नेता/शिक्षक के सामने अपने सिर को झुकाता हूँ, जिसको समय आने पर माँ से आध्यात्मिक शक्ति संचारित करने का चपरास प्राप्त होगा ? त्वमेव-प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ! उनसे नजरें मिलीं और जिगर लुट गया ? महामण्डल के सभी वरिष्ठ भ्राता गण उसके साक्षी हैं। दादा के सानिध्य में अंतिम कैम्प - जमशेदपुर इंटरस्टेट कैम्प 2016 की घटनायें .....मैं इस जुबली पार्क में कई बार आया हूँ, सत्यार्थी से उन्होंने कहा था ..... अब भी नहीं समझ पाया कि स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी (आनन्द महाराज) ने दिल्ली आश्रम में। ... दिखलाते हुए राजस्थान के स्वामी तपनानन्द से क्यों कहा था -ऊँचा आधार है ? क्या किसी घोर स्वार्थी पशु जैसा जीवन वाले को ऊँचा आधार कहेंगे ?... are you a beast ? मने करबी तुमि एक जन शिक्षक! किस प्रकार सबों को साथ लेकर महामण्डल कैम्प कैसे हो सकता है, उसकी ही शिक्षा प्रदान करते थे।]
[दादा के सानिध्य पहला कैम्प बेलघड़िया रामकृष्ण मिशन 1987: वहाँ के एक तांत्रिक संन्यासी-अमलानन्द ? जो काली बिल्ली पालता था ? से भिड़ गया था ? प्रणवदा ने फिर स्वयं माँ ----जगदम्बा आश्रम पान से लालमुख वाली ? ने सहायता की थी ? .... मैं प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक, उस भावी नेता/शिक्षक के सामने अपने सिर को झुकाता हूँ, जिसको समय आने पर माँ से आध्यात्मिक शक्ति संचारित करने का चपरास प्राप्त होगा ? त्वमेव-प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ! उनसे नजरें मिलीं और जिगर लुट गया ? महामण्डल के सभी वरिष्ठ भ्राता गण उसके साक्षी हैं। दादा के सानिध्य में अंतिम कैम्प - जमशेदपुर इंटरस्टेट कैम्प 2016 की घटनायें .....मैं इस जुबली पार्क में कई बार आया हूँ, सत्यार्थी से उन्होंने कहा था ..... अब भी नहीं समझ पाया कि स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी (आनन्द महाराज) ने दिल्ली आश्रम में। ... दिखलाते हुए राजस्थान के स्वामी तपनानन्द से क्यों कहा था -ऊँचा आधार है ? क्या किसी घोर स्वार्थी पशु जैसा जीवन वाले को ऊँचा आधार कहेंगे ?... are you a beast ? मने करबी तुमि एक जन शिक्षक! किस प्रकार सबों को साथ लेकर महामण्डल कैम्प कैसे हो सकता है, उसकी ही शिक्षा प्रदान करते थे।]
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हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को या " सर्वभूतों (Bh?) में ब्रह्मदर्शन के महत्व" को अवश्य समझ लेना चाहिये। क्योंकि मनुष्य केवल दोनों पैरों पर खड़े होकर चलने वाला एक अकलमन्द पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य कोई मितव्ययी आर्थिक प्राणी, या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है, वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है। इसलिए यदि मनुष्य को आगे बढना है, उन्नत होना है, अपनी अन्तः शक्ति को अभिव्यक्त करना है, अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट करना है तो उसे आध्यात्मिक -प्रशिक्षण पद्धति के आश्रय में आना ही पड़ेगा। हमें अपनी दृष्टि को भी ज्ञानमयी बनाकर, जगत को ब्रह्ममय देखना ही पड़ेगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं है।
श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के बीच पहली बार मुलाकात हुई, तब विचारों का आदान-प्रदान करते समय स्वामी विवेकानन्द ( तब के नरेन्द्र ) ने प्रश्न किया था -' महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तथा उनके इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत सरल था, ( Highest Truths are very simple ) - श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया था - ' हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुमको देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ। और केवल इतना ही नहीं ; " यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ।" स्वामी विवेकानन्द के गुरु का यह प्रस्ताव ~ " यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ".... एक विज्ञान सम्मत प्रस्ताव है; तथा प्रस्ताव उस बात की ओर इशारा करता है कि ' ईश्वर' (सत्य) को देखने की कोई न कोई विज्ञान-सम्मत प्रणाली अवश्य है ! (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने की कोई वेदान्त विज्ञानसम्मत शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति अवश्य है!) जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा, उसमे कभी अन्तर नहीं हो सकता। यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हे भी किसी कुशल नेता से वही वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रणाली प्राप्त होगी, यहाँ पर वह लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार करना है, (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करना) जो की ईश्वर का दर्शन करने के समान है।
इसीलिए हममें से प्रत्येक महामण्डल कर्मी को अपने यथार्थ- स्वरूप के ऊपर अवश्य श्रद्धा ( आस्तिक्य-बुद्धि ) रखनी चाहिये। हमें यह विश्वास करना चाहिये कि हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं, स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान (बृहद या ब्रह्म) हैं। तथा हममें से प्रत्येक संभाव्य रूप में दिव्य है, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, हमें अपनी उस अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करने के लिये हर संभव प्रयास करना चाहिये। हमारी अपनी यथार्थ सत्ता में असीम शक्ति, अनन्त ज्ञान और अपरिमित प्रेम-निर्झर का स्रोत विद्यमान है। हमें इसी जीवन में उस स्रोत के ऊपर रखे चट्टान या बाधाओं को (अहं) दूर हटा कर, उस " विवेक-श्रोत" को (ससीम व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित कर लेना चाहिए।) अवश्य उदघाटित कर लेना चाहिये।
किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिये कि, भारत केवल योग-शास्त्र या आध्यात्मिक विद्या में ही अग्रणी था। बल्कि सत्य तो यह है कि भारत ने अतयंत प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की लौकिक शिक्षा -यथा अंतरिक्ष-विज्ञान (Space Science) , नक्षत्र विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, धातु विज्ञान, गणित शास्त्र, यन्त्र शास्त्र, शिल्प-कौशल, अभियांत्रिकी आदि के क्षेत्र में भी, समान रूप से यथेष्ट ज्ञान अर्जित कर लिया था। इन समस्त लौकिक विद्या में महारत हाँसिल करने के साथ ही साथ- भारत की रत्नगर्भा धरती अत्यंत प्राचीन काल से लगभग 5000 वर्ष पहले से, अनेक आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न सच्चे मार्ग-दर्शी नेताओं/ अवतारों/गुरुओं की जन्मस्थली भी रही है।
सक्षम नेतृत्व का अनिवार्य गुण है - 'सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन ! राजनीती के क्षेत्र में, वंशवादी नेतागिरी करते हुए दिखाई पड़ने वाले 'नेता' नेतृत्व के सच्चे आदर्श का प्रतिनिधित्व नहीं करते। किन्तु वर्तमान समय में, प्रायः सभी देशों में नेतृत्व को लेकर यही भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि- ' नेता' का मतलब केवल राजनैतिक नेता होता है; तथा 'नेता' केवल (वंशवादी) राजनीती के क्षेत्र में ही पाये जा सकते हैं। जबकि व्यावहारिक जीवन के सकल क्षेत्रों में- चाहे कोई संस्था हो, संगठन हो या हमारा अपना परिवार ही क्यों न हो, उसके कुशल सञ्चालन के लिये भी सक्षम नेतृत्व की आवश्यकता होती ही है !हम लोग देख सकते हैं कि जब किसी परिवार का अभिभावक (लीडर) योग्य होता है, और परिवार का सञ्चालन 'नेतृत्व कौशल" के साथ करता है , तो परिवार के सदस्यों के बीच एकता रहती है, पूरा परिवार शांति और आनंद में रहता है; तथा वह परिवार हर दृष्टि से फलता-फुलता, और समृद्ध होता रहता है। ठीक वैसी ही स्थिति किसी संगठन , विद्यालय, विश्वविद्यालय, कारपोरेट जगत, समाज, राज्य या देश की भी होती है।
यदि हम विश्व के इतिहास में मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेताओं /आचार्यों की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करें, तो पता चलेगा कि हर युग में केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानवजाती का सच्चा नेता माना गया है जिनके भीतर सामान्य लौकिक ज्ञान के अतिरिक्त, एक अन्य असाधारण योग्यता भी निश्चित रूप से विद्यमान रहती है। और वह असाधारण योगता है~ आध्यात्मिक शक्ति ( Spiritual Power) या 'सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने की शक्ति। विशेष करके भारत में तो सच्चा मार्ग-दर्शी या मानव जाति का सच्चा नेता उसीको माना जाता है जिसके पास 'सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन' करने की आध्यात्मिक शक्ति अनिवार्य रूप से विद्यमान रहती हो।हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को या " सर्वभूतों (Bh?) में ब्रह्मदर्शन के महत्व" को अवश्य समझ लेना चाहिये। क्योंकि मनुष्य केवल दोनों पैरों पर खड़े होकर चलने वाला एक अकलमन्द पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य कोई मितव्ययी आर्थिक प्राणी, या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है, वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है। इसलिए यदि मनुष्य को आगे बढना है, उन्नत होना है, अपनी अन्तः शक्ति को अभिव्यक्त करना है, अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट करना है तो उसे आध्यात्मिक -प्रशिक्षण पद्धति के आश्रय में आना ही पड़ेगा। हमें अपनी दृष्टि को भी ज्ञानमयी बनाकर, जगत को ब्रह्ममय देखना ही पड़ेगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं है।
श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के बीच पहली बार मुलाकात हुई, तब विचारों का आदान-प्रदान करते समय स्वामी विवेकानन्द ( तब के नरेन्द्र ) ने प्रश्न किया था -' महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तथा उनके इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत सरल था, ( Highest Truths are very simple ) - श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया था - ' हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुमको देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ। और केवल इतना ही नहीं ; " यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ।" स्वामी विवेकानन्द के गुरु का यह प्रस्ताव ~ " यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ".... एक विज्ञान सम्मत प्रस्ताव है; तथा प्रस्ताव उस बात की ओर इशारा करता है कि ' ईश्वर' (सत्य) को देखने की कोई न कोई विज्ञान-सम्मत प्रणाली अवश्य है ! (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करने की कोई वेदान्त विज्ञानसम्मत शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति अवश्य है!) जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा, उसमे कभी अन्तर नहीं हो सकता। यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हे भी किसी कुशल नेता से वही वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रणाली प्राप्त होगी, यहाँ पर वह लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार करना है, (सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन करना) जो की ईश्वर का दर्शन करने के समान है।
इसीलिए हममें से प्रत्येक महामण्डल कर्मी को अपने यथार्थ- स्वरूप के ऊपर अवश्य श्रद्धा ( आस्तिक्य-बुद्धि ) रखनी चाहिये। हमें यह विश्वास करना चाहिये कि हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं, स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान (बृहद या ब्रह्म) हैं। तथा हममें से प्रत्येक संभाव्य रूप में दिव्य है, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, हमें अपनी उस अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करने के लिये हर संभव प्रयास करना चाहिये। हमारी अपनी यथार्थ सत्ता में असीम शक्ति, अनन्त ज्ञान और अपरिमित प्रेम-निर्झर का स्रोत विद्यमान है। हमें इसी जीवन में उस स्रोत के ऊपर रखे चट्टान या बाधाओं को (अहं) दूर हटा कर, उस " विवेक-श्रोत" को (ससीम व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित कर लेना चाहिए।) अवश्य उदघाटित कर लेना चाहिये।
किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिये कि, भारत केवल योग-शास्त्र या आध्यात्मिक विद्या में ही अग्रणी था। बल्कि सत्य तो यह है कि भारत ने अतयंत प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की लौकिक शिक्षा -यथा अंतरिक्ष-विज्ञान (Space Science) , नक्षत्र विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, धातु विज्ञान, गणित शास्त्र, यन्त्र शास्त्र, शिल्प-कौशल, अभियांत्रिकी आदि के क्षेत्र में भी, समान रूप से यथेष्ट ज्ञान अर्जित कर लिया था। इन समस्त लौकिक विद्या में महारत हाँसिल करने के साथ ही साथ- भारत की रत्नगर्भा धरती अत्यंत प्राचीन काल से लगभग 5000 वर्ष पहले से, अनेक आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न सच्चे मार्ग-दर्शी नेताओं/ अवतारों/गुरुओं की जन्मस्थली भी रही है।
जब आचार्य शंकर मण्डन मिश्र से मिलने पहुंचे , उस समय वे अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे। पितृकर्म में संन्यासी की उपस्थिति तथा दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए। क्योंकि श्राद्ध में नित्य, अनित्य दोनों प्रकार के पितरों का आवाहन किया जाता है। यति को देखकर पितर लज्जित होकर भागने की चेष्टा करते हैं। वे विचार करते हैं कि "हम सकाम कर्म उपासना में पड़े रहने के कारण पितृलोक में पड़े हैं और इन यतियों ने कर्मों को ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध करके ब्रह्मत्व की प्राप्ति की है।"अतः व्यास और जैमिनी के उपस्थिति में जब मण्डन घर के सब किवाड़ बंद करके पितृकर्म में लगे हुए थे। सब द्वार बंद देखकर आचार्यपाद आकाश मार्ग उड़कर आंगन में पहुंच गए।
[ पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। मीमांसा शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा। अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है।ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है-अथातो धर्मजिज्ञासा।। अब धर्म अर्थात करनीय कर्म को जानने की जिज्ञासा है। 'आमादेर करनीय' की जिज्ञासा है।
कर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है।वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ-कर्म की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का (श्राद्ध आदि कर्म का भी) समावेश हो जाता है। बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही है।एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है।]
श्राद्ध का अन्न यति के पेट में जबतक रहता है, तबतक वह अस्पृश्य होता है। यदि भूल से भी संन्यासी के पेट में चला जाए तो त्वरित् वमन कर दे और प्रायश्चित करे। एक यति को ऐसे समय में उपस्थित देखकर अत्यंत कुपित होकर मण्डन बोले----- "हे दुर्बुद्धे ! तुम कन्था का इतना भार ढोते हो, क्या एक यग्योपवित नहीं धारण कर सकते ?, क्या तुमने भाँग पी रखी है ?"पहले उन्होंने कहा--"कुत: मुंडी ?"किस मार्ग से आये हो ?शंकर ने कहा--"आ गलान्तमुंडी।"गले तक मुंडी हूँ।मण्डन ---"पन्थानं पृच्छते मया ?".... मैं रास्ता पूछता हूँ, किस रास्ते से आये हो ?शंकर----"तर्हि पन्थानं प्रति प्रच्छ।" .... तो रास्ते से पूछो, मुझे क्यों पूछते हो?"फिर पितृकर्म के अनन्तर श्राद्ध के निमित्त बने भोजन से भिन्न स्वामी जी के लिए भिक्षा तैयार करवायी। क्योंकि पितरों के निमित्त दी हुई कोई भी वस्तु एक दण्डी संन्यासी को नहीं देना चाहिए। देने से दाता तथा गृहीता पितरों सहित नरकगामी होते हैं। अतः अलग भिक्षा तैयार होने पर मण्डन ने पाद्यादि से उनका पूजन किया। मण्डन ने भिक्षा परसी, उभयभारती ने हाथ में जल दिया। किन्तु आचार्य हाथ में ही लिये रहे। न आचमन किया न धरती पर ही छोड़ा। शंकित होकर विश्वरूप ने कारण पूछा। तब आचार्य ने कहा--- "यदि शास्त्रार्थ की भिक्षा दोगे, तब करूँगा।" मण्डन ने कहा---- "आप भिक्षा करें, निश्चय ही बाद में शास्त्रार्थ होगा।"
[साभार https://www.facebook.com/AadiShankaro/]
[ पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। मीमांसा शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा। अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है।ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है-अथातो धर्मजिज्ञासा।। अब धर्म अर्थात करनीय कर्म को जानने की जिज्ञासा है। 'आमादेर करनीय' की जिज्ञासा है।
कर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है।वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ-कर्म की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का (श्राद्ध आदि कर्म का भी) समावेश हो जाता है। बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही है।एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है।]
श्राद्ध का अन्न यति के पेट में जबतक रहता है, तबतक वह अस्पृश्य होता है। यदि भूल से भी संन्यासी के पेट में चला जाए तो त्वरित् वमन कर दे और प्रायश्चित करे। एक यति को ऐसे समय में उपस्थित देखकर अत्यंत कुपित होकर मण्डन बोले----- "हे दुर्बुद्धे ! तुम कन्था का इतना भार ढोते हो, क्या एक यग्योपवित नहीं धारण कर सकते ?, क्या तुमने भाँग पी रखी है ?"पहले उन्होंने कहा--"कुत: मुंडी ?"किस मार्ग से आये हो ?शंकर ने कहा--"आ गलान्तमुंडी।"गले तक मुंडी हूँ।मण्डन ---"पन्थानं पृच्छते मया ?".... मैं रास्ता पूछता हूँ, किस रास्ते से आये हो ?शंकर----"तर्हि पन्थानं प्रति प्रच्छ।" .... तो रास्ते से पूछो, मुझे क्यों पूछते हो?"फिर पितृकर्म के अनन्तर श्राद्ध के निमित्त बने भोजन से भिन्न स्वामी जी के लिए भिक्षा तैयार करवायी। क्योंकि पितरों के निमित्त दी हुई कोई भी वस्तु एक दण्डी संन्यासी को नहीं देना चाहिए। देने से दाता तथा गृहीता पितरों सहित नरकगामी होते हैं। अतः अलग भिक्षा तैयार होने पर मण्डन ने पाद्यादि से उनका पूजन किया। मण्डन ने भिक्षा परसी, उभयभारती ने हाथ में जल दिया। किन्तु आचार्य हाथ में ही लिये रहे। न आचमन किया न धरती पर ही छोड़ा। शंकित होकर विश्वरूप ने कारण पूछा। तब आचार्य ने कहा--- "यदि शास्त्रार्थ की भिक्षा दोगे, तब करूँगा।" मण्डन ने कहा---- "आप भिक्षा करें, निश्चय ही बाद में शास्त्रार्थ होगा।"
[साभार https://www.facebook.com/AadiShankaro/]
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