श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग : अवतार की जीवनी में उनकी मुमुक्षु अवस्था/ साधक अवस्था में उनके द्वारा की जाने वाली साधनाओं को जानना क्यों आवश्यक है ? क्योंकि उसको पढ़ने से किसी भावी नेता/शिक्षक/ सत्यार्थी - देवकुलीश को अन्धे होने के भय से सापेक्षिक सत्य में निरपेक्ष सत्य की खोज करने में भय नहीं होगा।
2.भक्तों को यह सोचना भी अच्छा नहीं लगता कि अवतार या आचार्य उनके जीवन की किसी भी कालखण्ड में अपूर्ण रहे होंगे ? [तँहारा (नेता/अवतार रा) कोनकाले असम्पूर्ण छिलेन, ए कथा भक्तमानव भाविते चाहे ना। Devotees do not like the idea that incarnations are imperfect at any period of their lives.: তাঁহারা কোনকালে অসম্পূর্ণ ছিলেন, এ কথা ভক্তমানব ভাবিতে চাহে না|]
अधिकांश अवतारों /आचार्यों [अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव/ नेता-वरिष्ठ नवनीदा] की मुमुक्षु अवस्था या साधक अवस्था में उनके द्वारा किये गए संघर्षों का विस्तृत विवरण उनके जीवन-इतिहास (जीवन-चरित्र) में क्यों उपलब्ध नहीं होता? इस समय उसके कारणों की परिकल्पना कर पाना कठिन है। हम केवल यह अनुमान लगा सकते हैं कि शायद अवतार या आचार्यों के भक्त और शिष्यगण, अपने आचार्यदेव के प्रति अतिशय भक्ति के कारण, देवमानव के चरित्र में मानवीय अपूर्णता का वर्णन करने में संकोच का अनुभव करते होंगे। इसलिए उन लोगों ने इन विषयों को लोकचक्षु से अगोचर रखना ही उचित उचित समझा होगा। .... क्योंकि भक्त अपने भगवान को सदैव पूर्ण देखना चाहते हैं। वे यह स्वीकार करना नहीं चाहते कि मानवशरीर धारण करने के कारण उनमें कभी किंचितमात्र भी मानवीय-दुर्बलता, अपने यथार्थ स्वरूप की विस्मृति, या शक्तिहीनता विद्यमान रही होगी। भक्त लोग तो बालगोपाल के मुख-विवर में सदैव विश्वब्रह्माण्ड को प्रतिष्ठित देखने का प्रयास करते हैं। [शायद इसीलिए अघासुर, बकासुर, शकटासुर के साथ बालगोपाल के युद्ध का विश्वसनीय विवरण नहीं मिलता।]
3.अवतार (नेता/आचार्य) के सम्बन्ध में उक्त प्रकार की धारणा रहने से भक्तों की भक्ति में हानि पहुँचती है, यह बात तर्क-संगत (logical) नहीं है। [It does not stand to reason that such an idea interferes with devotion/ 'एईरूप भाविले भक्तेर भक्तिर हानि हय, एकथा युक्तियुक्त नहे। ( ঐরূপ ভাবিলে ভক্তের ভক্তির হানি হয়, একথা যুক্তিযুক্ত নহে/ It does not stand to reason that such an idea interferes with devotion.]
अवतार ने जब मानवशरीर धारण किया है तो आहार, निद्रा, क्लान्ति, व्याधि तथा शरीरत्याग उनको भी करना पड़ेगा, ऐसा सोचने से भक्तों की भक्ति में हानि पहुँचती होगी- यह बात युक्तिसंगत नहीं है। भक्तजन केवल अपनी दुर्बलता के कारण (त्रिविध-एषणाओं को त्यागने की असमर्थता के कारण) ही इस प्रकार का निर्णय कर बैठते हैं। भक्ति की अपरिपक्व अवस्था में ही इस प्रकार की दुर्बलता भक्त में दिखाई देती है। भक्ति की प्रारंभिक अवस्था में भक्त कभी अपने भगवान का ऐश्वर्यरहित रूप से चिंतन नहीं कर पाता। सम्पूर्ण भक्तिशास्त्रों में यह बात बारम्बार कही गयी है। ऐसा देखा जाता है कि श्रीकृष्ण की पालक माता (foster mother) यशोदा, बालक गोपाल की दिव्य विभूतियों का नित्य परिचय पाने से भी उनको अपना बालक समझकर लालन -ताड़न आदि कर रही है।
सुदर्शन (1895-1967) की कहानी 'एथेंस का सत्यार्थी ' मेरी नौवीं कक्षा के हिन्दी गद्य संग्रह में थी। यह कहानी सत्य की खोज में भटकते देवकुलीश की कहानी है। इस कहानी में लेखक हमें मिथक (mythic-काल्पनिक कथा) की सहायता से सत्य के अन्वेषण की गहन यात्रा पर ले जाते हैं। इस यात्रा का अंत उस सत्य की प्राप्ति से होता है, जिसे देखकर देवकुलीश अँधा हो जाता है। जब (1965 में ) पहली बार क्लास में इस कहानी को हमारे हिन्दी शिक्षक श्री वासुदेव झा जी ने सुनाई तब इसकी गूढ़ता समझ से परे थी। मैंने उनसे पूछा कि सर, एथेंस का सत्यार्थी तो अँधा हो गया ! क्या सत्य इतना भी चमकीला हो सकता है कि कोई देखे तो उसकी आँखें केवल चौंधिया ही नहीं जाएँ, बल्कि देखने वाला बिलकुल अँधा ही हो जाये?
उन्होंने तब मेरे पेट में चिकोटी काटते हुए कहा था -'तुम बहुत सवाल पूछता है, जाओ पीपल पेड़ के नीचे। ' मैं क्लास से बाहर आ गया और स्कूल के गेट के पास लगे पीपल के पेंड़ के नीचे बैठ गया, किन्तु कोई सही उत्तर नहीं खोज पाया। …... आह ! आखिर वह कौन सा सत्य है, जिसे कोई व्यक्ति उसे देख न सके ? देखना चाहे तो न चाहते हुए भी आँखें बंद हो जाएँ, या व्यक्ति बिल्कुल अँधा ही हो जाये ?
[सुदर्शन का असली नाम पंडित बदरीनाथ है। इनका जन्म सियालकोट में १८९५ में हुआ था। प्रेमचन्द के समान वह भी ऊर्दू से हिन्दी में आये थे। अपनी सभी प्रसिद्ध कहानियों में प्रायः इन्होंने समस्यायों का आदशर्वादी समाधान प्रस्तुत किया है। केवल इसलिये कि वे पक्के आर्यसमाजी थे और आर्य समाजी अक्सर समाज सुधारक ही होते हैं। पंडित सुदर्शन की कालजयी कहानी - 'हार की जीत' (बाबा भारती, खड़क सिंह डाकू और घोडा वाली) उनकी पहली कहानी है और १९२० में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। मुख्य धारा के साहित्य-सृजन के अतिरिक्त उन्होंने अनेकों फिल्मों की पटकथा और गीत भी लिखे हैं। सोहराब मोदी की सिकंदर (१९४१) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है। फिल्म धूप-छाँव (१९३५) के प्रसिद्ध गीत 'तेरी गठरी में लागा चोर', 'बाबा मन की आँखें खोल' आदि उन्ही के लिखे हुए हैं।]
.... 14 अप्रैल 1992 में एक अद्भुत घटना/(दुर्घटना ?बनारस के निकट -ऊँच पुलिया पर) घटी तब यह समझा कि वह सत्य या ईश्वर जो इन्द्रियातीत (निरपेक्ष सत्य) हैं, वही सापेक्षिक सत्य या परिवर्तनशील जगत के रूप में प्रतीत हो रहे हैं! स्पष्ट उत्तर मिला माँ काली के भक्त, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस देव की जीवनी 'लीलाप्रसंग' पढ़ने से।
श्रीरामकृष्णदेव के मूर्त से अमूर्त में जाने का प्रयास (मन को निर्विकल्प करने का प्रयास) विफल होने पर तोतापुरीजी का व्यवहार : श्रीरामकृष्ण देव अपनी वेदान्त साधना का उल्लेख करते हुए कहते थे - "मुझे दीक्षा देने के बाद" न्यांगटा (तोतापुरीजी) वेदान्त के निष्कर्ष से परिचित करवाने के लिए नानाप्रकार के सिद्धान्त-वाक्यों (महावाक्य) का उपदेश देने लगा; और मुझे अपने मन को सभी प्रकार से निर्विकल्प करके आत्मचिन्तन में निमग्न हो जाने को कहा। किन्तु मेरी स्थिति ऐसी हुई कि जब मैं ध्यान के लिए बैठा, तो बहुत प्रयत्न करने पर भी मैं अपने मन को निर्विकल्प न कर सका, उसको नाम और रूप की सीमा से मुक्त न कर सका। अन्य समस्त सांसारिक आकर्षण की वस्तुओं (कामिनी-कांचन -कीर्ति आदि) से तो मन आसानी से वापस लौट आया, किन्तु उसी क्षण उसमें माँ भवतारिणी की चिरपरिचित जीवंत मूर्ति जाग्रत रूप से समुदित होकर -'सब प्रकार के नामरूप का त्याग करना होगा ' - इस निर्देश को पूरी तरह से भुला देने लगी।..... जब बारम्बार ऐसा होने लगा, तब निर्विकल्प समाधि के सम्बन्ध में लगभग निराश हो उठा। और आँखों को खोलकर न्यांगटा से कहा - ' मुझसे यह सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प कर आत्मचिन्तन करने में असमर्थ हूँ। ' न्यांगटा अत्यन्त उत्तेजित होकर तीव्र तिरस्कार करता हुआ बोलै - " क्यों नहीं होगा ?" यह कहकर कुटिया में चारों ओर देखने लगा, एवं काँच के टुकड़े पर दृष्टि पड़ते ही उसने उसे उठा लिया, तथा सुई की तरह नुकीले उसके अग्रभाग को मेरी भौंहो के बीच में बलपूर्वक गड़ाकर बोला -'इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो !'
" इस बार मैं दृढ़ संकल्प होकर ध्यान के लिए बैठा, तथा जैसे ही पहले की तरह माँ जगदम्बा की जीवंत मूर्ति मन में उदित हुई, मैंने ज्ञान को खड्ग रूप में कल्पना कर उसके द्वारा उस मूर्ति को मैंने मन ही मन दो टुकड़े कर डाला! फिर मेरे मन कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से मेरा मन समग्र नामरूप के राज्य के परे चला गया और मैं समाधि में निमग्न हो गया। "
[Tota’s behaviour at the Master’s failure to make his mind free from all functions:
“After initiating me”, said the Master, “the naked one taught me many dicta conveying the conclusion of the Vedanta, and asked me to make my mind free of function in all respects and merge in the meditation of the Self. But, it so happened with me that when I sat for meditation I could by no means make my mind go beyond the bounds of name and form and cease functioning. The mind withdrew itself easily from all other things but, as soon as it did so, the intimately familiar form of the universal Mother, consisting of the effulgence of pure consciousness, appeared before it as living and moving and made me quite oblivious of the renunciation of names and forms of all descriptions...
When I listened to the conclusive dicta and sat for meditation, this happened over and over again. Almost despairing of the attainment of the Nirvikalpa Samadhi, I then opened my eyes and said to the naked one, ‘No, it cannot be done; I cannot make the mind free from functioning and force it to dive into the Self’. Scolding me severely, the naked one said very excitedly, ‘What, it can’t be done!’ What utter defiance! He then looked about in the hut and finding a broken piece of glass took it in his hand and forcibly pierced with its needle-like pointed end on my forehead between the eye-brows and said; ‘Collect the mind here to this point’. With a firm determination I sat for meditation again and, as soon as the holy form of the divine Mother appeared now before the mind as previously, I looked upon knowledge as a sword and cut it mentally in two with that sword of knowledge. There remained then no function in the mind, which transcended quickly the realm of names and forms, making me merge in Samadhi.”]
वीरमूर्ति-पूजा (hero worship :वीर-आत्माओं का पूजन) और मूर्तिमोह (Idol enchantment) का अंतर : स्वाधीनोत्तर भारत में जिस प्रकार किसी मूर्ति की पूजा का भाव प्रचलन में आया है, वह अंग्रेजी शिक्षा और गुलामी के प्रभाव से भारतीय इतिहास-बोध का विकृतिकरण (perversion) है। वास्तव में यह वीरमूर्ति-पूजा (Idol- worship) नहीं बल्कि मूर्ति-मोह है (Idol enchantment/किसी मूर्ति के गुण में नहीं उसके नाम-रूप के आकर्षण, सम्मोहन या इन्द्रजाल के वशीभूत होना है।) इसीलिये नासमझ लोग कभी शिवजी की प्रतिमा तोड़ देते हैं, तो कभी गाँधी-अम्बेडकर की, बंगाल में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की, तो कभी श्रीराम के चित्र और जयकारे की अवमानना की जाती है। कभी सीता को पात्र बनाकर भद्दी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं।
यदि किसी मूर्ति-विशेष (M/F के नामरूप) के प्रति मोह या घोरआकर्षण (enchantment ) या सम्मोहन (hypnotism) होगा तो, एक न एक दिन उस मोह का भंजन, या विसम्मोहन (de-hypnotism) भी होगा। और यदि किसी वीरमूर्ति की पूजा के पीछे का मनोभाव यदि उसकी बाह्य-आकृति (नाम-रूप) के आकर्षण (little 'I') से सम्मोहित न होकर, उस मूर्ति में अन्तर्निहित दिव्यता (- उसके immense 'I' में रूपांतरित हो जाने की सम्भावना) के प्रति श्रद्धा रखते हुए निष्काम प्रेम की भावना से वास्तविकता प्राप्त करेगी; तो उस भावना के रहते यदि कोई वीरमूर्ति भग्न भी हो जाये, तो उस वीरात्मा की उपासना की कोई क्षति नहीं होती। क्योंकि दिव्य-प्रेम (निष्काम-प्रेम) की वह भावना नई मूर्ति तुरंत गढ़ लेगी। कोई भी मूर्ति कभी निरपेक्ष रूप से (absolutely) पवित्र नहीं होती। इसीलिए उनका रोज स्नान-श्रृंगार करना होता है। इसीलिए टूटा हुआ मंदिर या भग्न मूर्ति उपास्य नहीं रह पाते। जिस मूर्ति की उपासना अविच्छिन्न रूप से (uninterruptedly) होती आ रही हो, फिर वह चाहे मनुष्य रचित आकार वाली मूर्ति हो, या स्वयम्भू मूर्ति हो , इससे कुछ खास बनता बिगड़ता नहीं है। यह अवस्था तब आती है जब हमें (एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश के जैसा) निरन्तर और अविच्छिन्न रूप में उनका साक्षात्कार होता रहता है। (जबकि सामान्य लोग समझते है कि देवकुलीश संसार (3'K') के लिए अँधा हो गया)
क्योंकि जीवंत उपासना किसी सिद्ध वस्तु (Proven object) की नहीं हो सकती। उपासना तो एक साधना है , जिसमें उपास्य निरंतर साध्य रहता है। सिद्ध इतिहास-पुरुष की कल्पना (अंतिम-पैगम्बर की कल्पना) एक खंड-सृष्टि में बंधने वाली उपासना है। किन्तु श्रुति-परम्परा या " Be and Make- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित नेताओं/शिक्षकों का निर्माण बन्धन नहीं है, निरंतर प्रवाहमान है ! [साभार -श्री विद्यानिवास मिश्र 1976/ भवन्स नवनीत मई,2019]
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2.भक्तों को यह सोचना भी अच्छा नहीं लगता कि अवतार या आचार्य उनके जीवन की किसी भी कालखण्ड में अपूर्ण रहे होंगे ? [तँहारा (नेता/अवतार रा) कोनकाले असम्पूर्ण छिलेन, ए कथा भक्तमानव भाविते चाहे ना। Devotees do not like the idea that incarnations are imperfect at any period of their lives.: তাঁহারা কোনকালে অসম্পূর্ণ ছিলেন, এ কথা ভক্তমানব ভাবিতে চাহে না|]
अधिकांश अवतारों /आचार्यों [अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव/ नेता-वरिष्ठ नवनीदा] की मुमुक्षु अवस्था या साधक अवस्था में उनके द्वारा किये गए संघर्षों का विस्तृत विवरण उनके जीवन-इतिहास (जीवन-चरित्र) में क्यों उपलब्ध नहीं होता? इस समय उसके कारणों की परिकल्पना कर पाना कठिन है। हम केवल यह अनुमान लगा सकते हैं कि शायद अवतार या आचार्यों के भक्त और शिष्यगण, अपने आचार्यदेव के प्रति अतिशय भक्ति के कारण, देवमानव के चरित्र में मानवीय अपूर्णता का वर्णन करने में संकोच का अनुभव करते होंगे। इसलिए उन लोगों ने इन विषयों को लोकचक्षु से अगोचर रखना ही उचित उचित समझा होगा। .... क्योंकि भक्त अपने भगवान को सदैव पूर्ण देखना चाहते हैं। वे यह स्वीकार करना नहीं चाहते कि मानवशरीर धारण करने के कारण उनमें कभी किंचितमात्र भी मानवीय-दुर्बलता, अपने यथार्थ स्वरूप की विस्मृति, या शक्तिहीनता विद्यमान रही होगी। भक्त लोग तो बालगोपाल के मुख-विवर में सदैव विश्वब्रह्माण्ड को प्रतिष्ठित देखने का प्रयास करते हैं। [शायद इसीलिए अघासुर, बकासुर, शकटासुर के साथ बालगोपाल के युद्ध का विश्वसनीय विवरण नहीं मिलता।]
3.अवतार (नेता/आचार्य) के सम्बन्ध में उक्त प्रकार की धारणा रहने से भक्तों की भक्ति में हानि पहुँचती है, यह बात तर्क-संगत (logical) नहीं है। [It does not stand to reason that such an idea interferes with devotion/ 'एईरूप भाविले भक्तेर भक्तिर हानि हय, एकथा युक्तियुक्त नहे। ( ঐরূপ ভাবিলে ভক্তের ভক্তির হানি হয়, একথা যুক্তিযুক্ত নহে/ It does not stand to reason that such an idea interferes with devotion.]
अवतार ने जब मानवशरीर धारण किया है तो आहार, निद्रा, क्लान्ति, व्याधि तथा शरीरत्याग उनको भी करना पड़ेगा, ऐसा सोचने से भक्तों की भक्ति में हानि पहुँचती होगी- यह बात युक्तिसंगत नहीं है। भक्तजन केवल अपनी दुर्बलता के कारण (त्रिविध-एषणाओं को त्यागने की असमर्थता के कारण) ही इस प्रकार का निर्णय कर बैठते हैं। भक्ति की अपरिपक्व अवस्था में ही इस प्रकार की दुर्बलता भक्त में दिखाई देती है। भक्ति की प्रारंभिक अवस्था में भक्त कभी अपने भगवान का ऐश्वर्यरहित रूप से चिंतन नहीं कर पाता। सम्पूर्ण भक्तिशास्त्रों में यह बात बारम्बार कही गयी है। ऐसा देखा जाता है कि श्रीकृष्ण की पालक माता (foster mother) यशोदा, बालक गोपाल की दिव्य विभूतियों का नित्य परिचय पाने से भी उनको अपना बालक समझकर लालन -ताड़न आदि कर रही है।
जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥
भावार्थ: श्रीयशोदा जी श्याम को पलने में झुला रही हैं। कभी झुलाती हैं, कभी प्यार करके पुचकारती हैं और चाहे जो कुछ गाती जा रही हैं। (वे गाते हुए कहती हैं-) निद्रा! तू मेरे लाल के पास आ! तू क्यों आकर इसे सुलाती नहीं है। तू झटपट क्यों नहीं आती? तुझे कन्हाई बुला रहा है।' श्यामसुन्दर कभी पलकें बंद कर लेते हैं, कभी अधर फड़काने लगते हैं। उन्हें सोते समझकर माता चुप हो रहती हैं और (दूसरी गोपियों को भी) संकेत करके समझाती हैं (कि यह सो रहा है, तुम सब भी चुप रहो)। इसी बीच में श्याम आकुल होकर जग जाते हैं; तब श्रीयशोदा जी फिर मधुर स्वर से गाने लगती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि जो सुख देवताओं तथा मुनियों के लिये भी दुर्लभ है, वही (श्याम को बालरूप में पाकर लालन-पालन तथा प्यार करने का) सुख श्रीनन्दपत्नी प्राप्त कर रही हैं। भक्ति परिपक्व होने पर तथा आगे चलकर ईश्वर के प्रति अनुराग गहरा होने पर, इस प्रकार का ऐश्वर्य-चिंतन भक्तिमार्ग में बाधा जैसा प्रतीत होने लगता है। तब भक्त उस अज्ञानता को यत्नपूर्वक त्याग देते हैं। सुदर्शन (1895-1967) की कहानी 'एथेंस का सत्यार्थी ' मेरी नौवीं कक्षा के हिन्दी गद्य संग्रह में थी। यह कहानी सत्य की खोज में भटकते देवकुलीश की कहानी है। इस कहानी में लेखक हमें मिथक (mythic-काल्पनिक कथा) की सहायता से सत्य के अन्वेषण की गहन यात्रा पर ले जाते हैं। इस यात्रा का अंत उस सत्य की प्राप्ति से होता है, जिसे देखकर देवकुलीश अँधा हो जाता है। जब (1965 में ) पहली बार क्लास में इस कहानी को हमारे हिन्दी शिक्षक श्री वासुदेव झा जी ने सुनाई तब इसकी गूढ़ता समझ से परे थी। मैंने उनसे पूछा कि सर, एथेंस का सत्यार्थी तो अँधा हो गया ! क्या सत्य इतना भी चमकीला हो सकता है कि कोई देखे तो उसकी आँखें केवल चौंधिया ही नहीं जाएँ, बल्कि देखने वाला बिलकुल अँधा ही हो जाये?
उन्होंने तब मेरे पेट में चिकोटी काटते हुए कहा था -'तुम बहुत सवाल पूछता है, जाओ पीपल पेड़ के नीचे। ' मैं क्लास से बाहर आ गया और स्कूल के गेट के पास लगे पीपल के पेंड़ के नीचे बैठ गया, किन्तु कोई सही उत्तर नहीं खोज पाया। …... आह ! आखिर वह कौन सा सत्य है, जिसे कोई व्यक्ति उसे देख न सके ? देखना चाहे तो न चाहते हुए भी आँखें बंद हो जाएँ, या व्यक्ति बिल्कुल अँधा ही हो जाये ?
[सुदर्शन का असली नाम पंडित बदरीनाथ है। इनका जन्म सियालकोट में १८९५ में हुआ था। प्रेमचन्द के समान वह भी ऊर्दू से हिन्दी में आये थे। अपनी सभी प्रसिद्ध कहानियों में प्रायः इन्होंने समस्यायों का आदशर्वादी समाधान प्रस्तुत किया है। केवल इसलिये कि वे पक्के आर्यसमाजी थे और आर्य समाजी अक्सर समाज सुधारक ही होते हैं। पंडित सुदर्शन की कालजयी कहानी - 'हार की जीत' (बाबा भारती, खड़क सिंह डाकू और घोडा वाली) उनकी पहली कहानी है और १९२० में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। मुख्य धारा के साहित्य-सृजन के अतिरिक्त उन्होंने अनेकों फिल्मों की पटकथा और गीत भी लिखे हैं। सोहराब मोदी की सिकंदर (१९४१) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है। फिल्म धूप-छाँव (१९३५) के प्रसिद्ध गीत 'तेरी गठरी में लागा चोर', 'बाबा मन की आँखें खोल' आदि उन्ही के लिखे हुए हैं।]
.... 14 अप्रैल 1992 में एक अद्भुत घटना/(दुर्घटना ?बनारस के निकट -ऊँच पुलिया पर) घटी तब यह समझा कि वह सत्य या ईश्वर जो इन्द्रियातीत (निरपेक्ष सत्य) हैं, वही सापेक्षिक सत्य या परिवर्तनशील जगत के रूप में प्रतीत हो रहे हैं! स्पष्ट उत्तर मिला माँ काली के भक्त, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस देव की जीवनी 'लीलाप्रसंग' पढ़ने से।
देवकुलीश (नरदेव श्रीरामकृष्ण) ने अपने मन में ईश्वर जिस रूप को एक कोमल खाका 'माँ भवतारिणी' के रूप में खींच रखा था,....जैसे ही पहले की तरह वही चिरपरिचत माँ जगदम्बा की जीवंत मूर्ति मन में उदित हुई, उसी समय उसने मन ही मन ज्ञान को खड्ग रूप में कल्पना कर उसके द्वारा उस मूर्ति के दो टुकड़े कर डाले! फिर देवकुलीश के मन में कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से उसका मन समग्र नामरूप के राज्य के परे चला गया और वह समाधि में निमग्न हो गया। .... तब, समाधि से लौटने, 'व्युत्थान' होने पर समझ में कि- 'जो अँधा हो गया था' वह देवकुलीश का मिथ्या 'अहं' (little I) था जो नश्वर नाम-रूप, सापेक्षिक सच की मृत्यु भयानकता से भयभीत था, उसे जब सापेक्षिक सच के विपरीत अपने अविनाशी निरपेक्ष सत्य (सच्चिदानन्द स्वरूप) immense I का साक्षात्कार हुआ; तब उस साक्षात्कार के प्रभाव से उसका व्यष्टि अहं भी माजग्दम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो गया। उसी अवस्था को सुदर्शन जी ने अपने रूपक 'एथेन्स का सत्यार्थी ' में कहा कि, सातवें पर्दे को फाड़ते ही इन्द्रियातीत सच का साक्षात्कार करने वाला देवकुलीश अँधा हो गया....साक्षात्कार से ?
वेदान्त साधना के द्वारा जब उनके ब्रह्मज्ञ गुरु श्रीमत तोतापुरी जी श्रीरामकृष्णदेव को वेदान्त प्रसिद्द 'नेति नेति ' ~ उपाय का अवलम्बन कर ब्रह्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होने का उपदेश देते हुए कहते हैं -“ नित्य-शुद्ध-बुद्ध -मुक्तस्वभाव, देश-काल -निमत्त आदि द्वारा सर्वदा अपरिच्छिन्न एकमात्र ब्रह्मवस्तु (सच्चिदानन्द) ही सदा सत्य हैं! अघतन-घटन-पटियसी माया अपने प्रभाव से उनको (सच्चिदानन्द को) नाम-रूप के द्वारा खण्डितवत् प्रतीत कराने पर भी वे वास्तव में कभी उस प्रकार (ससीम और नश्वर) नहीं हैं। क्योंकि समाधि अवस्था में मायाजनित देश-काल या नाम-रूप की किंचिन्मात्र भी उपलब्धि नहीं होती। अतः नाम-रूप की सीमा के भीतर जो कुछ अवस्थित है (Bh आदि), वह कभी नित्य नहीं हो सकता, उसको दूर से त्याग दो! नामरूप के दृढ़ पिंजर को सिंहविक्रम से भेदकर निकल आओ। अपने हृदय में अवस्थित आत्मतत्व के अन्वेषण में डूब जाओ। समाधि के सहारे उसमें अवस्थित रहो। ऐसा करने पर देखोगे कि उस समय तुच्छ अहंज्ञान (व्यष्टि अहं) विराट में लीन और स्तब्ध हो जायेगा। तथा अखण्ड सच्चिदानन्द को अपना स्वरुप समझकर साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष कर सकोगे। (आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा ! और समाधि से लौटने पर तुम्हारा 'व्यष्टि अहं' माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'समष्टि अहं' में रूपांतरित हो जायेगा। )
[THE MASTER’S SADHANA OF THE VEDANTA: Perfected in the discipline of the Madhura Bhava, the Master now reached the zenith of the Sadhana of all the devotional moods.Tota, a knower of Brahman, now encouraged the Master to have recourse to the means of “Not this”, “Not this”, well known in the Vedanta and remain identified with Brahman Itself. Tota urged the Master to remain identified with Brahman Itself: Brahman, the one substance 'Existence-Consciousness-Bliss' : which alone is eternally pure,eternally awakened, unli-mi-ted by time, space and causation, is absolutely real. Through Maya, which makes the impossible possible, It causes, by virtue of its influence, to seem that It is divided into names and forms.Brahman is never really so divided. For, at the time of Samadhi, not even an iota, so to say, of time and space, and name and form produced by Maya is perceived. Whatever, therefore, is within the bounds of name and form can never be absolutely real. Shun it by a good distance. Break the firm cage of name and form with the overpowering strength of a lion and come out of it. Dive deep into the reality of the Self existing in yourself. Be one with It with the help of Samadhi. You will then see the universe consisting of name and form, vanish, as it were, into the void; you will see the consciousness of the little 'I ' merge in that of the immense 'I', where it ceases to function; and you will have the immediate knowledge of the indivisible Existence-Knowledge-Bliss as yourself!] श्रीरामकृष्णदेव के मूर्त से अमूर्त में जाने का प्रयास (मन को निर्विकल्प करने का प्रयास) विफल होने पर तोतापुरीजी का व्यवहार : श्रीरामकृष्ण देव अपनी वेदान्त साधना का उल्लेख करते हुए कहते थे - "मुझे दीक्षा देने के बाद" न्यांगटा (तोतापुरीजी) वेदान्त के निष्कर्ष से परिचित करवाने के लिए नानाप्रकार के सिद्धान्त-वाक्यों (महावाक्य) का उपदेश देने लगा; और मुझे अपने मन को सभी प्रकार से निर्विकल्प करके आत्मचिन्तन में निमग्न हो जाने को कहा। किन्तु मेरी स्थिति ऐसी हुई कि जब मैं ध्यान के लिए बैठा, तो बहुत प्रयत्न करने पर भी मैं अपने मन को निर्विकल्प न कर सका, उसको नाम और रूप की सीमा से मुक्त न कर सका। अन्य समस्त सांसारिक आकर्षण की वस्तुओं (कामिनी-कांचन -कीर्ति आदि) से तो मन आसानी से वापस लौट आया, किन्तु उसी क्षण उसमें माँ भवतारिणी की चिरपरिचित जीवंत मूर्ति जाग्रत रूप से समुदित होकर -'सब प्रकार के नामरूप का त्याग करना होगा ' - इस निर्देश को पूरी तरह से भुला देने लगी।..... जब बारम्बार ऐसा होने लगा, तब निर्विकल्प समाधि के सम्बन्ध में लगभग निराश हो उठा। और आँखों को खोलकर न्यांगटा से कहा - ' मुझसे यह सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प कर आत्मचिन्तन करने में असमर्थ हूँ। ' न्यांगटा अत्यन्त उत्तेजित होकर तीव्र तिरस्कार करता हुआ बोलै - " क्यों नहीं होगा ?" यह कहकर कुटिया में चारों ओर देखने लगा, एवं काँच के टुकड़े पर दृष्टि पड़ते ही उसने उसे उठा लिया, तथा सुई की तरह नुकीले उसके अग्रभाग को मेरी भौंहो के बीच में बलपूर्वक गड़ाकर बोला -'इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो !'
" इस बार मैं दृढ़ संकल्प होकर ध्यान के लिए बैठा, तथा जैसे ही पहले की तरह माँ जगदम्बा की जीवंत मूर्ति मन में उदित हुई, मैंने ज्ञान को खड्ग रूप में कल्पना कर उसके द्वारा उस मूर्ति को मैंने मन ही मन दो टुकड़े कर डाला! फिर मेरे मन कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से मेरा मन समग्र नामरूप के राज्य के परे चला गया और मैं समाधि में निमग्न हो गया। "
[Tota’s behaviour at the Master’s failure to make his mind free from all functions:
“After initiating me”, said the Master, “the naked one taught me many dicta conveying the conclusion of the Vedanta, and asked me to make my mind free of function in all respects and merge in the meditation of the Self. But, it so happened with me that when I sat for meditation I could by no means make my mind go beyond the bounds of name and form and cease functioning. The mind withdrew itself easily from all other things but, as soon as it did so, the intimately familiar form of the universal Mother, consisting of the effulgence of pure consciousness, appeared before it as living and moving and made me quite oblivious of the renunciation of names and forms of all descriptions...
When I listened to the conclusive dicta and sat for meditation, this happened over and over again. Almost despairing of the attainment of the Nirvikalpa Samadhi, I then opened my eyes and said to the naked one, ‘No, it cannot be done; I cannot make the mind free from functioning and force it to dive into the Self’. Scolding me severely, the naked one said very excitedly, ‘What, it can’t be done!’ What utter defiance! He then looked about in the hut and finding a broken piece of glass took it in his hand and forcibly pierced with its needle-like pointed end on my forehead between the eye-brows and said; ‘Collect the mind here to this point’. With a firm determination I sat for meditation again and, as soon as the holy form of the divine Mother appeared now before the mind as previously, I looked upon knowledge as a sword and cut it mentally in two with that sword of knowledge. There remained then no function in the mind, which transcended quickly the realm of names and forms, making me merge in Samadhi.”]
वीरमूर्ति-पूजा (hero worship :वीर-आत्माओं का पूजन) और मूर्तिमोह (Idol enchantment) का अंतर : स्वाधीनोत्तर भारत में जिस प्रकार किसी मूर्ति की पूजा का भाव प्रचलन में आया है, वह अंग्रेजी शिक्षा और गुलामी के प्रभाव से भारतीय इतिहास-बोध का विकृतिकरण (perversion) है। वास्तव में यह वीरमूर्ति-पूजा (Idol- worship) नहीं बल्कि मूर्ति-मोह है (Idol enchantment/किसी मूर्ति के गुण में नहीं उसके नाम-रूप के आकर्षण, सम्मोहन या इन्द्रजाल के वशीभूत होना है।) इसीलिये नासमझ लोग कभी शिवजी की प्रतिमा तोड़ देते हैं, तो कभी गाँधी-अम्बेडकर की, बंगाल में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की, तो कभी श्रीराम के चित्र और जयकारे की अवमानना की जाती है। कभी सीता को पात्र बनाकर भद्दी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं।
यदि किसी मूर्ति-विशेष (M/F के नामरूप) के प्रति मोह या घोरआकर्षण (enchantment ) या सम्मोहन (hypnotism) होगा तो, एक न एक दिन उस मोह का भंजन, या विसम्मोहन (de-hypnotism) भी होगा। और यदि किसी वीरमूर्ति की पूजा के पीछे का मनोभाव यदि उसकी बाह्य-आकृति (नाम-रूप) के आकर्षण (little 'I') से सम्मोहित न होकर, उस मूर्ति में अन्तर्निहित दिव्यता (- उसके immense 'I' में रूपांतरित हो जाने की सम्भावना) के प्रति श्रद्धा रखते हुए निष्काम प्रेम की भावना से वास्तविकता प्राप्त करेगी; तो उस भावना के रहते यदि कोई वीरमूर्ति भग्न भी हो जाये, तो उस वीरात्मा की उपासना की कोई क्षति नहीं होती। क्योंकि दिव्य-प्रेम (निष्काम-प्रेम) की वह भावना नई मूर्ति तुरंत गढ़ लेगी। कोई भी मूर्ति कभी निरपेक्ष रूप से (absolutely) पवित्र नहीं होती। इसीलिए उनका रोज स्नान-श्रृंगार करना होता है। इसीलिए टूटा हुआ मंदिर या भग्न मूर्ति उपास्य नहीं रह पाते। जिस मूर्ति की उपासना अविच्छिन्न रूप से (uninterruptedly) होती आ रही हो, फिर वह चाहे मनुष्य रचित आकार वाली मूर्ति हो, या स्वयम्भू मूर्ति हो , इससे कुछ खास बनता बिगड़ता नहीं है। यह अवस्था तब आती है जब हमें (एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश के जैसा) निरन्तर और अविच्छिन्न रूप में उनका साक्षात्कार होता रहता है। (जबकि सामान्य लोग समझते है कि देवकुलीश संसार (3'K') के लिए अँधा हो गया)
क्योंकि जीवंत उपासना किसी सिद्ध वस्तु (Proven object) की नहीं हो सकती। उपासना तो एक साधना है , जिसमें उपास्य निरंतर साध्य रहता है। सिद्ध इतिहास-पुरुष की कल्पना (अंतिम-पैगम्बर की कल्पना) एक खंड-सृष्टि में बंधने वाली उपासना है। किन्तु श्रुति-परम्परा या " Be and Make- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित नेताओं/शिक्षकों का निर्माण बन्धन नहीं है, निरंतर प्रवाहमान है ! [साभार -श्री विद्यानिवास मिश्र 1976/ भवन्स नवनीत मई,2019]
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