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सोमवार, 17 जून 2019

लीलाप्रसंग -6 (C-in-C) Biography- memorabilia

'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग
[अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी 'Biography'] 
के साथ 
 ' जीवन नदी के हर मोड़ पर' 
[नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा 'memorabilia'] 
का तुलनात्मक अध्यन :  
अवतरणिका 9. अवतार पुरुष मानवों की असम्पूर्णता को इसीलिए स्वीकार करते हैं, ताकि वे मुक्ति के मार्ग (भ्रममुक्त होने का मार्ग) का आविष्कार कर सकें। [Incarnations of God assume imperfection of man to discover paths to liberation. "मानवेर असम्पूर्णता स्वीकार करिया अवतारपुरुषेर मुक्तिर पथ आविष्कार करा। "মানবের অসম্পূর্ণতা স্বীকার করিয়া অবতারপুরুষের মুক্তির পথ আবিষ্কার করা] 
अवतार पुरुष जब मानव शरीर धारण कर, मनुष्य जैसी लीला करने में प्रवृत्त होते हैं, तो उनको भी हम लोगों की तरह बहुधा आध्यात्मिक अँधापन तथा अल्पज्ञता (circumscribed knowledge परिसीमित ज्ञान केवल स्त्री/पुरुष शरीर होने का भ्रम) आदि का अनुभव करना पड़ता है। उनको भी इस आध्यात्मिक अंधकार और अविद्या (spiritual darkness and ignorance) से बाहर निकलने का पथ आविष्कृत करने के लिये (भ्रममुक्त या विसम्मोहित होने के लिए) हम लोगों की ही तरह प्रयास करना पड़ता है। 
और जब तक वह मार्ग आविष्कृत नहीं हो जाता (till that path is discovered.अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो जाता), तब तक उनके हृदय में अपने यथार्थ दिव्य स्वरुप (ब्रह्मत्व) का विश्वास कुछ समय के लिए उदित होने पर पुनः वह आच्छन्न हो जाता है।  इस प्रकार  अवतार पुरुषों को भी हमलोगों की तरह  -'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' माया के आवरण को स्वीकार कर (माँ काली की शक्ति के शरण में जाकर)आलोक -अंधकार के राज्य में मार्ग का अन्वेषण करना पड़ता है। ( for the good of the many they have to assume a veil of Maya and grope their way like us all in this realm of light and darkness.) 
भेद केवल इतना ही है कि उनके अन्दर 'कामिनी-कांचन' के प्रति थोड़ी भी आसक्ति नहीं रहने के कारण, वे अपने जीवन-मार्ग में हमलोगों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से आलोक देख पाते हैं। और अपने अंदर अवस्थित समस्त शक्तियों (3H की शक्तियों) को सहज ही में एक साथ केन्द्रित कर अविलम्ब जीवन-मृत्यु समस्या का समाधान करते हुए, जनताजनार्दन की सेवा - "Be and Make " में नियुक्त हो जाते हैं। 
अवतरणिका 10. मानव रूप से चिंतन किये बिना अवतार पुरुषों के जीवन तथा प्रयत्न का अर्थ जाना नहीं  जा सकता। [মানব বলিয়া না ভাবিলে অবতারপুরুষের জীবন ও চেষ্টার অর্থ পাওয়া যায় না/   If incarnations are not thought of as human beings, we cannot get at the purpose of their lives and endeavours] 
यद्यपि कैप्टन सेवियर ने ही नवनीदा का शरीर (ससीम व्यष्टि अहं-Inasmuch as) धारण किया था, किन्तु वे वास्तव साक्षात् माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध (माँ काली) के अवतार हैं , इसीलिए वे उनकी शरण में जाने वाले समस्त सन्तानों की दोष-त्रुटियों (imperfections) को वास्तविक रूप में जानते हुए भी, बिल्कुल अपनी ही सन्तान मानकर स्वीकार कर लेते थे। महामण्डल के नेता वरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा को, या पैगम्बर को भी मनुष्य के रूप नहीं देखें, तो उन जैसे अवतार पुरुषों ने अपने जीवन में जो साधनायें की थीं --उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता। ....  नवनीदा के मानव बोलिया ना भाविले अवतारपुरुषेर जीवन ओ चेष्टार अर्थ पावा जाय ना।"
[नहीं तो उनको भी हमलोग पोलिटिकल स्वार्थ में आधारित गुरु-शिष्य परम्परा : 'जेपी -लालू ', 'अन्ना -केजरी', 'अटल-अडवाणी.... आदि, जैसे एक राजनितिक नेता समझकर उनकी जीवनी भी अध्यन करने की चेष्टा करेंगे।]  जबकि आध्यात्मिक त्याग में आधारित गुरु-शिष्य परम्परा के आध्यात्मिक नेताओं की जीवनी---यथा 'रामकृष्ण-विवेकानन्द', 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर', स्वामी रंगनाथानन्द -नवनीदा, नवनीदा -प्रमोददा की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करना हमारे लिए अधिक उपयोगी होगा। उसमें भी " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा'-- में निर्मित महामण्डल के आध्यात्मिक नेतावरिष्ठ---नवनीदा तो  हमारे अपने परिवार के लोगों से भी अधिक अपने हैं; -------- इस प्रकार का चिंतन किये बिना उनके साधनकालीन (महामण्डल की स्थापना और 50 वर्षों तक उसका संचालन करते समय) उनके द्वारा किये अलौकिक उद्यम तथा अध्यवसाय आदि (superhuman effort, perseverance, etc.कैम्प में सोते समय बीच नींद में उठकर अपनी डायरी में कुछ लिखने लगना ...आदि,आदि के पीछे) जो उनका उद्देश्य था, उसकी खोज हम नहीं कर पाएंगे।
अतः मानवजाति के किसी मार्गदर्शक नेता की जीवनी (Biography-रामकृष्ण लीलाप्रसंग) अथवा आत्मकथा (memorabilia -"जीवन नदी के हर मोड़ पर" ) का अध्यन करते समय उन नरदेवों को भी हमें अपनी माता,पिता, गुरु, बड़े-भैया जैसे मानवीय संवेदनशील सम्बन्ध जोड़कर अध्यन करने से हमें बहुत लाभ प्राप्त होंगे। क्योंकि महामण्डल के संस्थापक सचिव हमारे नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा युवाओं  की खामियों को जानते हुए भी सचमुच अपने अनुज के रूप में स्वीकार करते थे। (सामान्य मनुष्यों की प्रवृत्ति, 3'K' आदि में आसक्ति या असम्पूर्णता को जानते हुए भी सचमुच अपने अनुज के रूप में स्वीकार करते थे) इसीलिए देव-मानव नवनीदा के मानव-भाव की विवेचना के द्वारा महामण्डल के कई वरिष्ठ भाइयों का अत्यन्त कल्याण हो सका है। अतः जो महामण्डल कर्मी स्वयं पैगम्बर या भावी नेता/ शिक्षक बनना चाहते हों, उन्हें भी उनके मानव-भावों को सर्वदा सामने रखकर उनके दिव्य स्वभाव की विवेचना करने के लिए हम अनुरोध करते हैं। 
"नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा " हम लोगों में से ही एक थे !-------इस प्रकार से चिन्तन किये बिना उनके साधनकालीन अलौकिक उद्यम (superhuman effort) तथा प्रयासों का कोई अर्थ ढूँढ़ने पर भी हमें प्राप्त नहीं होगा। अन्यथा, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जो नित्यपूर्ण ( eternally perfect-ब्रह्म) ही हैं, तो फिर उनके लिए सत्य लाभ के प्रयत्न की क्या आवश्यकता है ? हमें ऐसा प्रतीत होगा कि महामण्डल आन्दोलन को खड़ा करने में उनके द्वारा किये जाने वाले अथक प्रयास, जिसमें उनकी जान जाने का भी खतरा था, (आँसु बहाकर उनका रोनाhis terrible effort threatening his very life) वो सब कहीं केवल एक 'लोकदिखावा' (sham या पाखण्ड) मात्र तो नहीं था ? इतना ही नहीं, महामण्डल का भावी शिक्षक/नेता बनने के निमित महान आदर्शों को अपने जीवन में सुप्रतिष्ठित करने के लिए अनुष्ठित उनके उद्यम, निष्ठा तथा त्याग के द्वारा प्रेरणा प्राप्त कर, हमें भी उस प्रकार आचरण करने का प्रोत्साहन प्राप्त न होगा। (उनको भी पाखण्डी पोलिटिकल नेता आडवाणी/ममता/नितीश जैसा सोचना) हमारे दिलों में आशा और उत्साह के बदले निराशा को जन्म देगा; और इस जीवन में हमारी अज्ञानता (ignorance -हृदय का अँधेरा) कभी दूर न होगी। 
11. 'बद्ध मानव' को ईश्वर के 'अवतार' के मानव-भाव का ही बोध होता है।[ बद्धमानव मानवभावे मात्रई बुझिते पारे/বদ্ধমানব মানবভাবে মাত্রই বুঝিতে পারে/ Unenlightened souls can understand an incarnation of God only as a human being.] 
"देवो (de-hypnotized) भूत्वा देवं  यजेत"-'Becoming God, one should worship Him': यह उक्ति बिल्कुल सत्य है। जब तक हम स्वयं सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त या  (de-hypnotized ) होकर  होकर, सचमुच अपने  निर्गुण देव-स्वरूप (existence-consciousness-bliss) में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, तब तक जगत्कारण ईश्वर (universal cause-माँ जगदम्बा) एवं उनके अवतारों को हमें अपने ही जैसा मानवभाव-सम्पन्न मानना पड़ेगा, तथा स्वीकार भी करना पड़ेगा। मानव-शरीर प्राप्त होने पर भी उसमें पाशविक, मानविक और दैवी (सम्भावना)  समस्त भाव  छिपे रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति घोर स्वार्थी है (0 % unselfish ) है, या निःस्वार्थपरता से रहित है,  तो वह पशु के सामान है !  मानवधर्म से रहित या पाशविक मानव (भेंड़ -सिंह), मनुष्य (साधक) तथा देव-मानव (सिद्ध , भ्रममुक्त या सिंह-शावक ) के बीच के अन्तर का पता उसकी बढ़ती हुई निःस्वार्थपरता की मात्रा से निर्धारित किया जा सकता है। जो व्यक्ति अभी '0 '% unselfish है वो 'पशु' के स्तर पर जी रहा है, जो स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ 50 %  unselfish बन चुका हो, वह 'मनुष्य' के स्तर पर जी रहा है, और जो व्यक्ति विवेकज-ज्ञान प्राप्त करके भ्रममुक्त होने के कारण  100 % unselfish  हो चुका है, वह देव-मानव के स्तर पर पहुँच चुका है।  इस प्रकार हम देखते हैं कि 'पशु-मानव, मनुष्य और देव-मानव' के बीच अन्तर का पैमाना निःस्वार्थपरता में ही निर्भर करता है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे -  'unselfishness is God' -----निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! इसलिए (रामकृष्ण-विवेकानन्द -नवनीदा तुल्य भ्रममुक्त ) देवमानवों की  आराधना करने के लिए, पहले हमें स्वयं देवत्व में आरूढ़ होना पड़ता है।( -अर्थात  देवों की उपासना करने के लिए पहले स्वयं भ्रममुक्त या 100 % unselfish होना अनिवार्य है।) हमारे शास्त्रों में कहा गया है - 
आहार-निद्रा-भय-मैथुनश्च सामान्यम् एतद्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः धर्मेण हीनः पशुभिः समानः"
Food, sleep, fear, producing offsprings — in all these humans compare with animals;It is only 'dharma' or righteousness (नेकी, भलाई के काम -परहित) that is unique to them, without which, they are no better than animals."
यहाँ 'धर्म' का अर्थ है - 'righteousness' ---- अर्थात 'दूसरों का कल्याण करने की इच्छा' यह वास्तव में एक 'बुमेरांग' (boomerang) या प्रतिगामी-चक्र (सुदर्शन-चक्र) की तरह कार्य करता है। इसीलिए धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है---- 'धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। ---" Dharma, when killed, kills and protects, when protected." किन्तु इस प्रकार स्वयं देवत्व में आरूढ़ होकर (डीहिप्नोटाइज्ड, भ्रममुक्त अर्थात 100 % unselfish होकर) ईश्वर के मायातीत देवस्वरूप (existence-consciousness-bliss) का यथार्थ पूजन करने के अधिकारी व्यक्तियों (मृत्युरूपा माँ काली के भक्तों) की संख्या अत्यंत विरल है।  जो व्यक्ति 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' का श्रवण-मनन - निदिध्यासन अर्थात स्वार्थपरता को त्याग करते हुए क्रमशः उन्नत होकर पूर्णतः निःस्वार्थपर (unselfishness 100 %) हो जाता है, वह देवत्व में आरूढ़ हो जाता है। तब वह "देवो (de-hypnotized) भूत्वा देवं  यजेत" के मर्म को भी समझ सकता है। और हमारे जैसे दुर्बल अधिकारी (प्रवृत्ति मार्गी-गृहस्थ लोग) अभी उससे (उस भ्रममुक्त अवस्था में पहुँचने से)  बहुत दूर हैं। यदि तुम समाधि के बल से (चित्तवृत्ति-निरोध के बल से) निर्विकल्प अवस्था (existence-consciousness-bliss) की अनुभूति प्राप्त कर चुके हो, केवल तभी तुम भगवान श्रीरामकृष्णदेव (ईश्वर -मृत्युरूपा माता काली, विवेकानन्द, नवनीदा आदि जीवन्मुक्त आचार्यों) के सच्चे स्वरूप की उपलब्धि एवं धारणा कर सकते हो, तथा वास्तव में अपने नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा की पूजा करने के अधिकारी हो। [If you have reached the Nirvikalpa plane of consciousness by virtue of Samadhi, then alone will you be able to realize the real nature of God, have a correct conception of Him and truly worship Him.তুমি যদি স্বয়ং সমাধিবলে নির্বিকল্প ভূমিতে পৌঁছাইতে পারিয়া থাক, তবেই তুমি ঈশ্বরের যথার্থ স্বরূপের উপলব্ধি ও ধারণা করিয়া তাঁহার যথার্থ পূজা করিতে পারিবে।] 
किन्तु यदि अभी तक तुम्हें साक्षी चेतना (witness-consciousness) और प्रतिबिम्बित चेतना (reflected-consciousness) के अन्तर का 'विवेकज-ज्ञान' उपलब्ध नहीं हो सका है, तो तुम्हारी पूजा उसी देवभूमि (निर्विकल्प अवस्था) में पहुँचने तथा ईश्वर की सच्ची पूजा करने का योग्यता प्राप्त करने का प्रयत्न (Being and becoming की साधना -आचार्यदेव के निर्देशानुसार 5 अभ्यास का पालन) ही मानी जाएगी। [But if you have not been able to do so, your worship will be but an attempt at ascending to that divine plane and making yourselves fit for the true worship of God.]  और तब तक तुम्हें जगत्कारण ईश्वर (जगतजननी माँ काली) माँ जगदम्बा एक विशिष्ट शक्तिसम्पन्न माता के रूप में ही अनुभव होती रहेंगी। [Till then, you will continue to consider God, the cause of the universe, to be a human being endowed with extraordinary powers.  আর, যদি তাহা না পারিয়া থাক, তবে তোমার পূজা উক্ত দেবভূমিতে উঠিবার ও যথার্থ পূজাধিকার পাইবার চেষ্টামাত্রেই পর্যবসিত হইবে এবং জগৎকারণ ঈশ্বরকে বিশিষ্ট শক্তিসম্পন্ন মানব বলিয়াই তোমার স্বতঃ ধারণা হইতে থাকিবে।] इसलिए ,  हम लोगों के आंतरिक पूजन को ग्रहण करने के निमित्त ही  ईश्वर का मानवीय भाव तथा देह का स्वीकार कर उनका देवमानव रूप (नवनी दा और महामण्डल) रूप धारण करना है।  हमारे जैसे दुर्बल व्यक्तियों (गृहस्थ लोगों) के प्रति दयावान होकर नेतावरिष्ठ नवनीदा और महामण्डल का मानवभूमि में अवतरण है ! हम जैसे व्यक्तियों  के आंतरिक पूजन को ग्रहण करने के निमित्त ही नवनीदा और महामण्डल ने   - मानवीय भाव तथा देह का स्वीकार कर  देवमानव रूप धारण किया है।
 अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी ----'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग' के साथ, महामण्डल के नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा की आत्मकथा  "जीवन नदी के हर मोड़ पर ' का तुलनात्मक अध्यन  करने पर यह पता चलता है कि, प्राचीन अवतार पुरुषों की अपेक्षा, आधुनिक युग के अवतार पुरुष के साधन कालीन इतिहास  की विवेचना हमारे लिए अधिक लाभदायक है।  क्योंकि नवनीदा की स्व-लिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक में जिन घटनाओं को विस्तार से लिखा है, तथा समय समय पर हमलोगों से अपने जीवन में घटित घटनाओं के  विषय में जो कुछ कहा करते थे, उसका उज्ज्वल चित्र हमारे हृदय पर अमिट रूप से अंकित हो चुका है। जैसे महामण्डल में योग देने से पहले हमलोग समझते थे कि देश के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देने को देशभक्ति कहते हैं। किन्तु नवनीदा कहते थे - केवल देश के लिये मर जाना ही नहीं, बल्कि केवल भारत-कल्याण के उद्देश्य से जीना भी सच्ची देश-भक्ति है। यद्यपि  महामण्डल द्वारा आविष्कृत भारत-कल्याण सूत्र -' Be and Make ' को  कार्य रूप देना ही सच्ची देश-भक्ति है; तथापि  महामण्डल द्वारा संचालित यह मनुष्यनिर्माण- आन्दोलन, ----जो हमें स्वाभाविक रूप से चरित्र-निर्माण में उन्नत कराता हुआ, पूर्णत्व-प्राप्ति की दिशा में भी कैसे अग्रसर करवा देता है, इसके मर्म को भली भाँति समझ लेना सबों के लिये उतना आसान भी नहीं है।यथार्थ 'मनुष्य' बन जाना, जीवनमुक्त मनुष्य बन जाना, 'भ्रममुक्त - de-hypnotized मनुष्य' या 'ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ' बनना सब एक ही बात है, इसके मर्म (quintessence-सारतत्व) को को यदि समझना हो,तो विश्व के धार्मिक इतिहास को अभी और लम्बी यात्रा करनी होगी।
 नवनीदा ने अपनी स्वलिखित जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर " पुस्तक में महामण्डल के आविर्भूत होने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि यदि मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं (ब्रह्मविद या जीवन्मुक्त आचार्यों) का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना चाहते हों, तो  विभिन्न युगों में अवतरित अवतारों/आचार्यों/पैगम्बरों की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करना होगा। और इस प्रकार किशोरावस्था से ही " वेदान्त (बोध-वाक्य) शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा, या त्याग में आधारित श्रुति पम्परा 'Be and Make' द्वारा निर्मित आचार्यों की जीवनियों का तुलनात्मक अध्यन करना ---- भावी नेताओं के निर्माण (या भावी लोकशिक्षकों के जीवन-गठन) की कुंजी है !स्वामी विवेकानन्द अपने एक भाषण -
" धर्म: उसकी विधियाँ और प्रयोजन" 
(THE METHODS AND PURPOSE OF RELIGION) 
में कहते है --- " विश्व के धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने से हमें साधारणतया धार्मिक प्रवृत्ति की दो पद्धतियों (two methods of procedure) का पता चलता है। .... आज भी जब हम धार्मिक मुद्रा में बैठे  (सेमेटिक विचारधारा के अनुरूप बने ) किसी सन्त (सत्यार्थी) की यूरोपियन चित्र को देखते हैं, तो पाते हैं कि चित्रकार ने उनकी आँखों को उर्ध्वोन्मुख दिखलाया है। मानो वह सत्यार्थी ईश्वर की खोज (या सत्य की खोज) के लिए प्रकृति से बाहर, आकाश की ओर देख रहा है। [eyes upwards, looking outside of nature for God, looking up into the skies.] पर दूसरी ओर भारतवर्ष में (आर्य विचारधारा के अनुरूप बने) किसी सन्त के चित्र को देखें तो वहाँ सत्य-साधक को बन्द आँखों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, मानो वह अपने भीतर देख रहा हो। (खण्ड 2 -237)
वस्तुतः मनुष्य के अध्यन के लिए ये दो ही विषय हैं : बाह्य प्रकृति (external nature) तथा अन्तःप्रकृति (internal nature)। वैसे तो प्रथम-दृष्टया ये दोनों विरोधाभासी (contradictory) प्रतीत होते हैं, पर साधारण मनुष्य भी यही सोचता है कि बाह्य प्रकृति पूर्णतया आन्तरिक प्रकृति -----विचार जगत (world of thought) के द्वारा ही निर्मित हुई है।  संसार के अधिकांश दर्शन, खासकर पाश्चात्य दर्शन, ऐसा मानते हैं, कि ये दोनों ----पदार्थ और मन (matter and mind-2'H') विरोधाभासी अस्तित्व हैं। किन्तु अन्ततः यह देखा जाता है कि ये दोनों परस्पर एक बिन्दु (3rd'H') की और अभिमुख (converge ) होते हैं, और अन्त में संघटित होकर एक ही अनन्त सत्ता (an infinite whole. आत्मा या हृदय) में मिल जाते हैं। 
मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि जो लोग बाह्यप्रकृति के माध्यम से (शरीर और पंचेन्द्रीयों के माध्यम से) सत्य का संधान कर रहे हैं, वे गलत रास्ते पर हैं। अथवा जो अन्तःप्रकृति (मन) के माध्यम से ही सत्य को पाना चाहते हैं, वे अपेक्षाकृत उच्चतर कोटि के हैं। 
ये तो सत्यानुसन्धान की दो पद्धतियाँ ( two modes of procedure)है। दोनों ही को अवश्य रहना है, दोनों का ही अध्यन किया जाना चाहिए, और अन्त में यह देखा जायेगा कि दोनों एक में मिल जाती हैं। हम देखेंगे कि शरीर मन का विरोधी है, न मन शरीर का, यद्यपि कई लोग (धौति-नौलि करने वाले हठयोगी) ऐसा कहने वाले भी मिलते हैं, जो कहते हैं यह शरीर तो कुछ नहीं है।... जबकि वेदों में कहा गया है -(E=M) शरीर मन में तथा मन शरीर में विलीन हो जाता है।
What is that, knowing which we know everything else? जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने से हमें संसार की सम्पूर्ण मिट्टी ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार वह कौन सी वस्तु है, जिसे जान लेने से हमें सम्पूर्ण वस्तुओं का ज्ञान हो जायेगा ? हमारे जीवन के समस्त कार्य चाहे भौतिक हों, या आध्यात्मिक --समान रूप से एक ही आदर्श की ओर उन्मुख है; वह है, एकत्व की प्राप्ति। ... A man is single. He marries. कोई मनुष्य (M/F) पहले अकेला रहता/रहती है। फिर वह विवाह करता/करती है। यद्यपि प्रकट रूप से (Apparently) यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य जैसा दिख सकता है, तथापि इस विवाह के मूल में भी एक ही लालसा (impulsion)---- प्रेरक शक्ति है; वह है --उस एकत्व की प्राप्ति।[Apparently it may be a selfish act, but at the same time, the impulsion, the motive power, is to find that unity. उसके समबन्ध जुड़ते चले जाते है ---साला,साली, सास-ससुर को अपना मानने लगता है। पहले ससुराल प्रेमी बनता है, मालगाड़ी के इंजन पर चढ़कर भी ससुराल पहुँच जाता है। फिर ... ] उसकी सन्तानें होती हैं, मित्र बनते हैं, वह अपने देश से प्रेम करता है, फिर विश्व से प्रेम करता है, और फिर पूरी कायनात से प्रेम या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से प्रेम करने में उसके प्रेम की परिसमाप्ति होती है। मानो कोई अदम्य शक्ति (निःस्वार्थ प्रेम) है जो हमें पूर्णता की उस स्थिति में जाने के लिए बाध्य करती है। जिसके बल से हम अपने हृदय को अधिकाधिक उदार बनते हुए तुच्छ 'अहं' (little "I" ) को समाप्त करके, उसको माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं-बोध' (Immense "I") में रूपांतरित कर लेते हैं। यही वह लक्ष्य है, जिसकी ओर सम्पूर्ण विश्व धावमान है। खण्ड 2 /238 / 
...जीव जितना उन्नत होता जाता है, उसके लिए इन्द्रिय-सुख का आकर्षण उतना ही कम होता जाता है।  तुम सदा ऊँचे आनन्द के लिये निम्न सुख को त्याग देते हो। यह है व्यावहारिक धर्म - मुक्ति की प्राप्ति, त्याग  त्यागी ! निम्न को त्यागो, जिससे कि तुमको  उच्च प्राप्त हो सके। समाज का आधार क्या है ? नैतिकता, सदाचार, नियम। त्यागो ! अपने पड़ोसी ( या सगे भाई तक) की सम्पत्ति हथियाने की, अपने पडोसी पर चढ़ बैठने की सारी लालसा को, दुर्बलों को यातना देने के सारे सुख को, झूठ बोलकर दूसरों को ठगने के सारे सुखों को त्यागो। क्या यह समाज अब भी केवल नैतिकता की बुनियाद पर नहीं टिका हुआ है ?क्या नैतिकता समाज का आधार नहीं है ?" विवाह, करने का अर्थ व्याभिचार का त्याग करने के अतिरिक्त और क्या है ? बर्बर विवाह नहीं करते।  मनुष्य विवाह करता है, क्योंकि वह त्यागता है। यह क्रम इसी प्रकार चलता जाता है। त्यागो, त्यागो बलि दो ! छोड़ दो ! शून्य के लिये नहीं - कुछ न पाने के लिये नहीं। वरन उन्नत मनुष्य (देव मानव) बन जाने के लिये। पर तुम पूर्ण त्याग तब तक नहीं कर सकते, जब तक तुम सचमुच ऊँचा उठ नहीं जाते। (अर्थात अपने 3H को विकसित कर सचमुच उन्नत मनुष्य (Heart Whole man) नहीं बन जाते। ) तुम इस पर चर्चा करते हो, संघर्ष करते हो ...पर जब तुम ऊँचे उठ जाते हो तो वैराग्य स्वयं आ जाता है। तब न्यूनतर स्वयं ही छुट जाता है। " (खण्ड ३:१७५-७६) 
"संसार के सभी अवतारों/पैगम्बरों / नेताओं/ जीवन्मुक्त शिक्षकों ने एक ही उपदेश दिया है - 'तूँ निःस्वार्थ बन' ---  "Be thou unselfish", " मैं नहीं, वरन तूँ" ---यही भाव समस्त नीतिसाश्त्र की पृष्ठभूमि है।उच्च श्रेणी के पुराणों के नेता सदैव महान नैतिक पुरुष (gigantic moral men) हुआ करते हैं। और नैतिकता तथा पवित्रता के रूप में ही उनकी शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। खण्ड -2/239/   
 " आध्यात्मिक सत्य का अनन्त समुद्र हमारे सामने पड़ा है, जिसका हमें अविष्कार करना है तथा जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है। दुनिया ने हजारों पैगम्बरों को देखा है, पर उसे अभी और भी करोड़ों को देखना है। प्राचीन काल में हर समाज में अनेक पैगम्बर हुआ करते थे- अब ऐसा समय आयेगा कि दुनिया के हर शहर की हर गली में पैगम्बर घूमेंगे। प्राचीन काल में समाज के कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार खास-खास व्यक्ति ही पैगम्बर माने जा सकते थे। अब तो ऐसा समय आने वाला है, जब समझा जाने लगेगा कि धार्मिक व्यक्ति होने का अर्थ ही पैगम्बर बन जाना है, और तब तक कोई धार्मिक नहीं होता, जब तक वह पैगम्बर नहीं बन जाता। तब हम लोग समझेंगे कि कतिपय विचारों को समझ लेना तथा उन्हें समझा देना ही धार्मिकता का रहस्य नहीं है वरन जैसा कि वेद कहते हैं,पहले हमें स्वयं आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति करनी होगी तथा और भी उच्च और अन- आविष्कृत तथ्यों का संधान करना होगा, फिर उन्हें समाज के लिये सुलभ करना होगा। धर्मों का अध्यन - अर्थात धार्मिक नेताओं की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन - ऐसे धर्म प्रचारकों नेताओ/शिक्षकों के निर्माण की कुँजी है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को पैगम्बर बनने और बनाने के लिए एक प्रशिक्षण-केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा----और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक धर्म उसके लिए तुच्छ और महज मजाक का विषय रहेगा। खंड 2 -243 /    
...." The infinite ocean of spiritual truth lies before us to be worked on, to be discovered, to be brought into our lives. The world has seen thousands of prophets, and the world has yet to see millions.There were times in olden days when prophets were many in every society. The time is to come when prophets will walk through every street in every city in the world. In olden times, particular, peculiar persons were, so to speak, selected by the operations of the laws of society to become prophets. The time is coming when we shall understand that to become religious means to become a prophet, that none can become religious until he or she becomes a prophet. We shall come to understand that the secret of religion is not being able to think and say all these thoughts; but, as the Vedas teach, to realise them, to realise newer and higher one than have ever been realised, to discover them, bring them to society; and the study of religion should be the training to make prophets.  The schools and colleges should be training grounds for prophets. "
 The whole universe must become prophets; and until a man becomes a prophet, religion is a mockery and a byword unto him. We must see religion, feel it, realise it in a thousand times more intense a sense than that in which we see the wall.(C.W.vol:6:page 10)
 (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग, विवेकानन्द चरित, पूज्य नवनीदा की आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' पुस्तक को गहराई से समझना) संसार के धार्मिक इतिहास में, अवतरित विभिन्न धर्मों के आचार्यों की जीवनी या आत्मकथा का तुलनात्मक धर्माध्यन ही  ऐसे श्रेष्ठ शिक्षकों, भ्रममुक्त नेताओं या पैगम्बरों के निर्माण  के प्रशिक्षण -पाठ्यक्रम होना चाहिए  ।  विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को  पैगम्बर बनाने के लिये पर्शिक्षण- केंद्र के रूप में विकसित होना चाहिये। सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा- और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिये तुच्छ और महज उपहास का विषय रहेगा।  " ( २ : २४२-४३ ) 
सचमुच हमारे सामने एक महान कार्य है (There is a great work/task before us) : पहले के जमाने में लोगों को यह पता नहीं था कि पैगम्बर,नेता, अवतार, जीवनमुक्त शिक्षक आदि का वास्तविक अर्थ क्या होता है ? वे सोचते थे कि मात्र संयोग से,या दैवी कृपा से, अथवा अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर कोई व्यक्ति 'अनेकता में एकता ' के उत्कृष्ट ज्ञान (superior knowledge----सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन की क्षमता) को प्राप्त कर लेता है। [ They thought it was something by chance, that just by a fiat of will or some superior intelligence, a man gained superior knowledge. ]
अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी 'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग ' और नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय और महामण्डल के अवतरण की आत्मकथा का तुलनात्मक अध्यन करने की सुविधा- प्राप्त युग में, और  52 वर्षों से आजमाये जा रहे अपने लीडरशिप ट्रेनिंग के अनुभव के बल पर, आज हम यह सिद्ध करने के लिए तैयार हैं कि ' सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन की क्षमता' को अर्जित कर लेना ----प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है; और इस विश्व में --मात्र संयोग से कुछ नहीं होता। यदि किसी  व्यक्ति के बारे में हम सोचते हैं, मात्र संयोग से उसने अमुक चीज (C-in-C का बैज )  प्राप्त कर लिया है, तो यह हमारी नादानी हैं। क्योंकि हमें नहीं मालूम कि उस व्यक्ति ने वास्तव  में  युगों से उसकी प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्न करता रहा है। पिछले जन्म में जब नवनीदा ,  कैप्टन सेवियर थे---उन्होंने अद्वैत आश्रम , मायावती को स्थापित करने में अथक परिश्रम किया था। और उसी प्रयत्न को आगे भी  जारी  रखते हुए,  इस जन्म में उन्होंने 'अद्वैत आश्रम शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' का व्यावहारिक रूप महामण्डल को स्थापित किया था , और इसी कार्य के लिए उन्हें 'नेतावरिष्ठ (C-in-C) का चपरास' प्राप्त हुआ था।  
और अब उसी task को पूरा करने के लिए,  'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' ---Be and Make' में प्रशिक्षित नेता, जीवनमुक्त शिक्षक बनने और बनाने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी हम लोगों पर----- जो स्वयं 'नेतावरिष्ठ नवनीदा' के अनुज या वारिस समझते हैं; पर निर्भर करती है ! प्रश्न है -- "क्या हम सचमुच पैगम्बर /नेता -जीवन्मुक्त शिक्षक/ बनना चाहते हैं?" यदि हाँ, तो हम बनकर रहेंगे ! क्योंकि इच्छाशक्ति सीधा भगवान के पास से आती है। इसीलिए कोई व्यक्ति  यदि महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर (auto- suggestion) या आत्मसम्मोहन पद्धति के अनुसार संकल्प-ग्रहण करले या अपने 'मन में ठान ले' तो वह अवश्य पूर्ण हो जाता है।  क्योंकि तब सम्पूर्ण कायनात (माँ जगदम्बा) स्वयं उसकी मदत करने लगती है।  
[In modern times, we are prepared to demonstrate that this knowledge is the birthright of every living being, whosoever and wheresoever he be, and that there is no chance in this universe.Every man who, we think, gets something by chance, has been working for it slowly and surely through ages. And the whole question devolves upon us: "Do we want to be prophets?" If we want, we shall be.
यही - 'पैगम्बरों को प्रशिक्षित करने का कार्य ' हमारे सम्मुख पड़ा हुआ है (This, the 'training of prophets', is the great work that lies before us) :  इस तरह 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त पैगम्बर-प्रशिक्षण परम्परा'-"Be and Make " में पैगम्बरों /नेताओं के निर्माण का अत्यन्त  महान कार्य हमारे सम्मुख पड़ा है। और जाने-अनजाने संसार के सभी महत्वपूर्ण धर्म भी ----इसी उद्देश्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं। [and, consciously or unconsciously, all the great systems of religion are working toward this one great goal] 
" यदि ये द्रष्टा लोग [ऋषि या ब्रह्मवेत्ता---नेतावरिष्ठ नवनीदा-प्रमोददा आदि ] कुछ विचित्र प्रकार के व्यक्ति थे, और उन्हें इस प्रकार की शक्ति ---'इन्द्रियातीत सत्य को देखने की शक्ति या सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन की शक्ति'--- मात्र संयोग से प्राप्त हो गयी थी, तो हमें उनकी बातों में विश्वास करने का कोई अधिकार नहीं है। (It would be a sin to believe in anything that is by chance, because we cannot know it.) किसी भी संयोग-जनित वस्तु में विश्वास करना पाप होगा, क्योंकि उनके अतिरिक्त और कोई साधारण मनुष्य तो ब्रह्मविद बन ही नहीं सकेगा? 
आखिर ज्ञान का अर्थ क्या है ? अपवादिता, 'peculiarity' या 'अनोखापन' का विनाश ! और साहचर्य की प्राप्ति ! What is meant by knowledge? Destruction of peculiarity.):   
अनुभूत तथ्यों में किसी सार्वभौम सिद्धान्त (universal law जैसे E =M) का दर्शन ही ज्ञान है ! अपवाद या विलक्षणता का भाव तो अज्ञान का द्योतक है। [Our knowledge is knowing the principle. Our non-knowledge is finding the particular without reference to principle. ] यदि  किसी पैगम्बर (नवनीदा ) पर यों ही विश्वास कर लेना आवश्यक होता, तो युक्ति-तर्क करने वाली बुद्धि हमें किस लिए मिली ? युक्ति-तर्क की कसौटी पर कसे बिना, जिस-तिस व्यक्ति को नेतावरिष्ठ (C-in-C) स्वीकार कर लेना क्या ईशनिन्दात्मक बात नहीं है ? ईश्वर ने जो विवेक-प्रयोग करने की शक्ति हमें दी है, उसका उपयोग न करने का हमारा क्या अधिकार है ?
 [Why was reason given us if we have to believe? Is it not tremendously blasphemous to believe against reason? What right have we not to use the greatest gift that God has given to us?]  
(किसी व्यक्ति को अपना नेता या आदर्श स्वीकार करने के पहले) हमें युक्ति-तर्क अवश्य करना चाहिए। और जब ये पैगम्बर और महापुरुष जिनकी चर्चा सभी देशों के प्राचीन ग्रन्थों में है, युक्ति-तर्क की कसौटी-----'पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कसौटी' पर भी  खरे उतरें, तभी उनमें विश्वास किया जाना चाहिए। [श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी (biography)  'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग' में  जिन अवतारवरिष्ठ और नवनीदा की आत्मकथा (memorabilia'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में 'नेतावरिष्ठ' (C-in-C) की चर्चा की गयी है ----उनके  युक्ति-तर्क की कसौटी पर खरे उतर जाने के बाद ही इनमें विश्वास किया जाना चाहिए। 
जब महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर नेतावरिष्ठ  (C-in-C) 'नवनी दा -प्रमोद दा वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा'-- 'Be and Make ' में प्रशिक्षित किसी जीवन्मुक्त शिक्षक/ नेता के साथ  'गुरुगृहवास करते हुए ' अपने बीच ऐसे पैगम्बरों को  को देख लेंगे, तब अनायास ही हम उनमें विश्वास करने लगेंगे। तब हम यह समझ जायेंगे कि पैगम्बर /नेतावरिष्ठ लोग कोई विचित्र/अनोखे/अपवाद स्वरूप कोई मनुष्य नहीं थे, प्रत्युत एक विशिष्ट तत्व ----'माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध' की साकार प्रतिमा थे। (माँ काली के अवतार थे।) [We shall believe in them when we see such prophets among ourselves. We shall then find that they were not peculiar men, but only illustrations of certain principles.] 
इन तत्वों ने उनके जीवन के माध्यम से  अपने को अभिव्यक्त किया था, और अगर हम भी अपने जीवन में उन्हें प्रकाशित करना चाहते हैं, तो  उसके लिए हमें भी साधना करनी होगी। और जब हम स्वयं पैगम्बर [ब्रह्मवेत्ता ऋषि-द्रष्टा] बन जायेंगे, तो स्वतः उनमें हमारा विश्वास जम जायेगा। वे लोग दैवी तथ्यों के (existence-consciousness-bliss आदि महावाक्यों के) द्रष्टा थे। वे लोग (नेता/शिक्षक लोग)  इन्द्रियातीत तथ्यों (pure -consciousness) की झाँकी प्राप्त करने के अधिकारी थे। किन्तु इन बातों में हमारा विश्वास तभी हो सकेगा जब हम स्वयं भी वैसा कर सकेंगे; अन्यथा नहीं। 
[They worked, and that principle expressed itself naturally, and we shall have to work to express that principle in us. They were prophets, we shall believe, when we become prophets. They were seers of things divine. They could go beyond the bounds of senses and catch a glimpse of that which is beyond. We shall believe that when we are able to do it ourselves and not before.]
'पहले तुम स्वयं द्रष्टा, ऋषि या ब्रह्मवेत्ता बनो ' ---वेदान्त का यही एक मात्र सिद्धान्त है। वेदांत यह घोषणा करता है कि धर्म यहाँ और अभी, इसी जीवन में अनुभूत होने वाला विषय है; क्योंकि उसके अनुसार यह जन्म और पिछला जन्म, जन्म लेना और मरना----इहलोक और परलोक (72 हूरें ), ये सारी बातें अन्धविश्वास और पूर्वाग्रह (superstition and prejudice) में आधारित हैं।  हम जो अपनी धारणा में बना लेते हैं उसके सिवा, समय के प्रवाह में कभी कोई विराम नहीं है। काल के प्रवाह में कभी विराम नहीं होता,हाँ अपनी धारणाओं से हम भले उसमें विराम मान लें: (There is no break in time beyond what we make :14 -4 -1992, 5.30 am, ऊँच ,बनारस में जब मेरे लिए समय रुक गया था ? और व्युत्थान के बाद पुनः चलना शुरू हुआ ? What difference is there between ten and twelve o'clock, except what we make by certain changes in nature? चाहे प्रातः काल की बेला हो या दोपहर का समय हो, काल में कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाँ प्रकृति (सूरज) में कुछ परिवर्तन भले ही दिख पड़ते हैं। 
समय का प्रवाह तो अविच्छिन्न रूप से सतत जारी रहता है। तब फिर इस जन्म (नवनीदा के शरीर का जन्म) और उस जन्म (जब वे कैप्टन सेवियर थे ?) का क्या अभिप्राय है? यह तो केवल समय का प्रश्न है, और जो काम (Be and Make)  पिछले समय में न किया जा सका हो, (अद्वैत आश्रम, मायावती के माध्यम से  न किया जा सका हो ?) उसे गति को तीव्रतर करके अब -- नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल के माध्यम से  पूरा किया जा सकता है। ('जीवन नदी के हर मोड़ पर' नामक पुस्तक में वर्णित) इस उदाहरण के द्वारा, वेदान्त के इस कथन को सत्य सिद्ध किया जा सकता है कि ---'धर्म की अनुभूति तो यहीं हो सकती है।' नवनीदा अक्सर कहते थे केवल महामण्डल के कार्य  निष्ठापूर्वक करते जाओ, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी, यहीं और इसी जन्म में मुक्त  जाओगे !   
साक्षात्कार ही धर्म का एकमात्र मार्ग है :(Realisation of religion is the only way) और तुम्हारे लिये (सत्यार्थी या would be Leaders के लिए) धार्मिक होने का अर्थ है कि तुम किसी ब्रांड वाले धर्म की शरण में गए बिना ही - 'श्रुति परम्परा' में अपनी साधना का प्रारम्भ करो, और अपनी साधना से ही परम् सत्य की अनुभूति करो। और जब तुम ऐसा कर सकोगे , तभी तुम्हारा कोई धर्म [अविरोध] होगा। उसके पहले तुम केवल नास्तिक ही नहीं हो, बल्कि उससे भी बदतर हो; क्योंकि नास्तिक है वह कम से कम सच्चा तो है --- वह कहता है, "मुझे इन सारी चीजों का (आत्मा-परमात्मा आदि का) कोई ज्ञान नहीं" - जब कि दूसरे लोग ज्ञान न रखते हुए भी (आत्मसाक्षात्कार किये बिना ही) संसार भर में ढिंढोरा पीटते चलते हैं ---'हम बड़े धार्मिक हैं। ' धर्म का बोध प्राप्त करना ही एकमात्र रास्ता है। हम में से प्रत्येक को स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए।
" आत्मज्ञान ही धर्म है !" (realisation is religion)" ----यही वेदान्त का पहला सिद्धान्त है ! और जिसे इसकी उपलब्धि हो चुकी है,वही धार्मिक है।  किन्तु हर विज्ञान में अनुसन्धान का अपना एक तरीका होता है : (every science has its own particular method of investigation):  प्रत्येक विज्ञान में अनुसन्धान करने की अपनी एक विशिष्ट पद्धति होती है, और धार्मिक बनने के साथ भी यही बात है। महामण्डल द्वारा आविष्कृत मानव-निर्माण तकनीक या 'Man-making technology' की भी अपनी विधियाँ हैं - इसमें 5 अभ्यास [प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग)  के माध्यम से मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव ---" Hand-Head-Heart" (3 'H') को विकसित करके ब्रह्मवेत्ता मनुष्य (धार्मिक मनुष्य) या पैगम्बर बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है ! 
और इस मामले में विश्व के प्रत्येक धर्म के सिद्ध पैगम्बर/ ब्रह्मवेत्ता/ जीवनमुक्त शिक्षक से हम सभी (भावी शिक्षक) भी कुछ सीख सकते हैं। ’बाबा! आप यह बताने की मेहरबानी करेंगे कि हजरत ईसा, हजरत मूसा,  हजरत मोहम्मद आदि पैगंबर खुदा के घर में पहुंचने में कितने कितने मददगार साबित होते हैं और जीव का कल्याण कैसे संभव है?’ ’बादशाह! जीव का कल्याण तो उसके सदाचार से (चरित्र-निर्माण करने से) ही हो सकता है। पीर, पैगंबर, औलिया, गुरु, नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक-[  यह सारे तो सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं।  वे बंदों को बुरे कर्मों से बचने की प्रेरणा ही दे सकते हैं। हमारा कल्याण तो हमारे अपने सत्कर्मों से ही होगा।  .. और वे हमें उन विशिष्ट विधियों को सिखा सकते हैं, जिनकी सहायता से हम धार्मिक तथ्यों का संधान कर सकते हैं। (They will give us the methods, the particular methods, through which alone we shall be able to realise the truths of religion.)उन्होंने जीवनभर संघर्ष करके मन को वशीभूत करने की तकनीक, उसको सुसंस्कृत करने के उपायों का अनुसन्धान किया है, और विवेकदर्शन के अभ्यास और लालच को कम करते हुए -चित्तवृत्तियों के निरोध से आत्मसाक्षात्कार के पथ की खोज की है। ब्रह्म को जानने लिए, पैगंबर/नेता बनने के लिए हमें इन उपायों को अपनाकर साधना करनी पड़ेगी। यदि महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास करने से भी अगर हमारे  हाथ कुछ नहीं लगता, तब हमें यह कहने का अधिकार होगा कि----धर्म में कुछ नहीं रखा है, क्योंकि मैंने प्रयास करके देखा है कि कुछ हाथ नहीं आता। (There is nothing in religion, for I have tried and failed)  
वेदान्त की योजना (The plan of Vedanta ---भारत की घरेलू नीति और विदेशनीति अथवा NARA) : प्रत्येक अवतार या नेता की जीवनियों में कुछ विशिष्ट नियमों का निर्वाह तो देखा ही जाता है। इन नियमों के पालन से (3H विकास के 5 अभ्यास के पालन से) वे अपने को जनसाधारण से विशिष्ट (नेतावरिष्ठ C-in-C) बना लेते हैं, और इसीसे उच्च सिद्धियाँ ---'सर्वभूतों ब्रह्मदर्शन करने की आध्यात्मिक शक्ति' भी अर्जित कर लेते हैं। अगर हम भी ऐसे दर्शन की इच्छा रखते हैं, तो हमें भी वैसी साधना करनी पड़ेगी। साधना ही हमें ऊपर उठायेगी। इसलिए वेदान्त के सामने यही योजना है : सभी युवाओं को शिविर में एकत्र कर, पहले सिद्धान्तों का निरूपण, लक्ष्य का सन्धान और फिर वैसी साधनाओं का प्रशिक्षण, जिससे लक्ष्य की सिद्धि हो सके, धर्म का ज्ञान सके , उसकी वास्तविक अनुभूति हो सके। .....The plan of Vedanta, therefore, is: first, to lay down the principles, map out for us the goal, and then to teach us the method by which to arrive at the goal, to understand and realise religion.  
 मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया में - प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते समय, चाहे तुम नाजरथ के पैगम्बर को मानते हो, अथवा मक्का मस्जिद को, अथवा हिन्दुस्तान के किसी पीर-पैगम्बर को , अथवा चाहे तुम स्वयं ही कोई औलिया हो (इसलिए अपने ही चित्र को सामने रखकर उसपर अपने मनको एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो ---इन बातों से वेदान्त का कोई विरोध नहीं। यह तो केवल उस सिद्धान्त का उपदेश देता है, जो सभी धर्मों की पृष्ठभूमि है। और सारे पैगम्बर तथा सन्त और द्रष्टा / नेता जिसके दृष्टान्त-स्वरूप और अभिव्यक्तिस्वरूप हैं। तुम्हारे पैगम्बर चाहे जितने अधिक हों, इसमें कोई आपत्ति नहीं। यह तो केवल सार्वभौम सिद्धान्तों [निःस्वार्थपरता आदि गुणों ] की बात करता है, साधना की विधि (धारणा के आदर्श का चयन) तो तुमको चुननी है। तुम चाहे जो भी मार्ग अंगीकार करो , जिस किसी को भी अपना धर्मगुरु मानो , पर इतना ध्यान रखो कि वह मार्ग (आदर्श) तुम्हारे स्वभाव (पवित्रता) के अनुकूल हो, क्योंकि तभी तुम्हारा (3 'H' का) विकास हो सकेगा। 
                             [ॐ स्थापकाय च महामण्डलस्य सर्व नेता स्वरूपिणे। 
नेता वरिष्ठाय श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ते नमः। ]
  ईश्वर (माँ जगदम्बा) चाहे  'नेतृत्व प्रशिक्षण देने में समर्थ महमाण्डाल जैसे किसी युवा-मार्गदर्शक संगठन के माध्यम से अवतरित हों, अथवा उसके संस्थापक सचिव नेतावरिष्ठ आचार्य नवनी दा के  शरीर में अवतरित हों;  उनलोगों ने स्वयं अपने प्रारम्भिक जीवन या साधक-अवस्था  में  जो-जो साधनायें की थी, उन समस्त  साधनाओं या घटनाओं का ध्यानपूर्वक अध्यन करना, महामण्डल के 'Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition'में प्रशिक्षित भावी लिकशिक्षक/ नेताओं (Would be Leaders) के लिए अत्यन्त आवश्यक है। 
और इसी प्रकार प्रत्येक भावी नेता/शिक्षक, युवा महामण्डल के प्रथम नेता पूज्य नवनीदा की जीवनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' के साथ साथ  स्वामी विवेकानन्द और श्रीरामकृष्ण की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करने से  क्रमशः उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह ' मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' आधारित है! 
मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित अन्तःशक्ति (endurance,सहनशीलता, तितिक्षा, धैर्य आदि चारित्रिक गुण) स्वयं को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है, और वह स्वतः ही 'पूर्णत्व'  की ओर आगे  बढ़ रही है। ' किन्तु 'पूर्णत्व' (wholeness,अखण्डता) शब्द के मर्म को भी आत्मसात कर लेना उतना आसन नहीं है।  शास्त्रों में कहा गया है -
" ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते। 
ॐ शांति: शांति: शांतिः।। " 
-ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म-शक्ति) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म या जगत]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो। ' पूर्णमदः ' अर्थात वह ब्रह्म पूर्ण है, अर्थात वह इतना ' बृहद ' है की, उससे बाहर कुछ भी नहीं है ! फिर ' पूर्णं- इदं ' में इदम, अर्थात इससे ही निकला हुआ, यह दृष्टि गोचर बाह्य-जगत भी पूर्ण है।  कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में अनुस्यूत है, प्रविष्ट है, या ओतप्रोत है, वस्तुतः ब्रह्म ही जगत हो गये हैं ! और ' पूर्णस्य पूर्णमादाय ' कहने से तात्पर्य यह है की यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही ' पूर्ण ' तुम्हारे साथ साथ इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण कण में भी प्रविष्ट है, तो फिर उस ' पूर्ण ' के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - ' पूर्णमेवावशिष्यते ' ! जब अपरोक्षानुभूति हो गयी तो ह्रदय से अनुभव करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है वह भी ब्रह्म के सिवा अन्य कुछ नहीं है। यहाँ 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को यों समझा जाता है कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है।'पूर्ण' अर्थात वह सच्चिदानन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा जो भौतिक दृष्टि से दिखाई नहीं देता, सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण/ माने अनंत है। अनंत (Infinity) का अर्थ होता है जिसका कोई अंत न हो। अनंत शब्द का अंग्रेजी पर्याय "इनफिनिटी" लैटिन भाषा के 'इन्' (अन्) और 'फिनिस' (अंत) की संधि है। इसको ∞ से निरूपित करते हैं। "∞+∞=∞, ∞-∞=∞,∞x ∞=∞" -  बस यही इस मंत्र का सार है। 
तथा 'मनुष्य जीवन का उद्देश्य इस अन्तर्निहित पूर्णता (ब्रह्मत्व) को अपने ही ह्रदय में ही आविष्कृत करना है। इसलिए जो व्यक्ति  "विवेकानन्द~ कैप्टन सेवियर ' Be and  Make' वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा" में महामण्डल आंदोलन के नेता बनना चाहते हों,  उन्हें अपना जीवन इतना ओज-तेज से परिपूर्ण बनाना चाहिये कि, आस-पास रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर जादू सा कर देने (पूर्णतया प्रभावित कर देने)  में समर्थ हो।  
और एक ऋषि-तुल्य नेताओं का जीवन, ही आस-पास रहने वाले लोगों को भावी नेता  बनने के लिये  उत्साह और उर्जा के साथ प्रयास करने के लिये अनुप्रेरित करने में सक्षम हो सकता है। हमें नेतृत्व-क्षमता अर्जित करने के सम्बन्ध में इस अत्यावश्यक  गुण को ठीक से समझ कर आत्मसात कर लेना चाहिये। यदि हम इसे ठीक से समझकर अपने जीवन में उतार सकें तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति  ऐसे नेतृत्व को कार्यरूप देने में देने में समर्थ नेता बन जायेंगे। 
 ऐसा व्यक्तित्व गठित कर लेने के बाद ही हम अपने आस-पास रहने वाले भाइयों कि सेवा करने में सक्षम बन सकेंगे, तथा समाज के प्रति भी यही हमारी सच्ची सेवा होगी।   नेतृत्व-क्षमता अर्जित करने में सबसे प्रमुख आवश्यकता यही है कि, स्वयं में अन्तर्निहित सार-वस्तु के  बारे में, थोड़ी अनुभूति जन्य धारणा-हमें अवश्य रखनी चाहिये। हमें अपना यथार्थ मूल्य, इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का मूल्य - समझते हुये, अपने श्रेष्ठ गुणों को अभिव्यक्त करते हुए , ऐसा जीवन जी कर दिखाना चाहिये जो दूसरों के लिये भी प्रेरणा का स्रोत हो।   ऐसा जीवन और व्यक्तित्व हम किस प्रकार विकसित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा केवल मानव जाति के सच्चे नेताओं की जीवनी का तुलनात्मक अध्यन करने से ही प्राप्त हो सकती है। अतः हमलोगों को अपने भीतर , निःस्वार्थपरता, पवित्रता आदि सद्-गुणों  को विकसित करने, उनका संवर्धन करने पर निरन्तर विशेष ध्यान रखना चाहिये।
 हमें अपने मन को अवश्य अपने नियन्त्रण में रखना पड़ेगा, अपनी इन्द्रियों को अवश्य वश में रखना होगा, इन्द्रिय विषयों का भोग करने की इच्छा को या लालच को अवश्य सीमाबद्ध कर लेना होगा, इसके साथ साथ हमारा ह्रदय भी प्रेम से परिपूर्ण हो उठाना चाहिये।  हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण अभिलाषाओं, समस्त घृणा, सारी इर्ष्या आदि दुर्गुणों को निकाल फेंकना होगा। हमलोग केवल तभी एक आदर्श नेता बन सकते हैं जब अपने सदगुणों को विकसित करते हुए, उन्हें अपने विचारों में, वचन में और कर्मों में भी अभिव्यक्त करते हुये, जब हम सचमुच एक पवित्र जीवन जीने लगेंगे तब हम भी अपने आस-पास रहने वालों को प्रभावित कर देने में, ( उनके ऊपर जादू सा कर देने में ) सक्षम बन जायेंगे। |
 महामण्डल पुस्तिका ' नेतृत्व की अवधारणा तथा नेता के गुण' में नवनीदा लिखते हैं - " इस सृष्टि में विविधताएँ रहती ही हैं, क्योंकि विभिन्नता (diversity-विभेद) ही सृष्टि का आधार है।  सृष्ट जगत का तात्पर्य ही है विविधताओं से परिपूर्ण जगत,  विविधताओं से रहित कोई भी सृजन नहीं हो सकता। हमलोगों की पुरातन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, हमारे अपने प्राचीन ऋषि-मुनियों के तत्त्व-ज्ञान के अनुसार- सृष्टि का मूल उपादान केवल एक ही है, और उसी मूल उपादान से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है। "
" इसीलिये सृष्टि विस्तार की किसी भी अवस्था या पड़ाव में, असमानता और विशिष्टता का होना अनिवार्य है; यह एक ऐसा बुनियादी आधारतत्व है, जिसको हम चाह कर भी टाल नहीं सकते।अतेव, इस बात को हमें बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा।  तथा स्वीकार भी करना होगा कि इस जगत में सृष्ट मनुष्यों के बीच गुणों के आधार पर असमानता और वैशिष्ट्य रहेगा ही।  किन्तु सतही तौर पर दिखाई देने वाले असमानताओं  की अवहेलना कर हमें सार्विक समानता और वैश्विक सन्तुलन के समीप पहुँचने का प्रयास करना चाहिये।(नेता के) जीवन का यही उद्देश्य है।"
  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जात-पाँत की ही बात लीजिये। संस्कृत में ' जाति ' शब्द का अर्थ है-वर्ग या श्रेणी -विशेष। यह (जाति-गत असमानताएँ ) सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात जाति का अर्थ ही  सृष्टि है। एको अहम् बहुस्याम - ' मैं एक हूँ -अनेक हो जाऊं ', विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ। अतः यदि यह विविधता समाप्त हो जाय, तो सृष्टि का ही लोप हो जायगा।...हमारा जातीय प्रासाद अभी अधुरा ही है, इसीलिये अभी सब कुछ भद्दा दिख रहा है। सदियों के अत्याचार के कारण हमें प्रासाद- निर्माण का कार्य छोड़ देना पड़ा था। अब निर्माण- कार्य पूरा कर लीजिये, बस, सब कुछ अपनी अपनी जगह पर सजा हुआ सुन्दर दिखायी देगा। यही मेरी समस्त कार्य- योजना है। " ( ३ : ३६६-६८)
 वेद कहता है कि आत्मा (ब्रह्म)में कोई लिंगभेद नहीं होता, इसीलिए वेद परमात्मा को पुरुष, स्त्री, शिशु, युवा, वृद्ध आदि सभी रूपों में देखता है। वेद (श्वेताश्वतरोपनिषद् ४-3)  परमात्मा की स्तुति करते हुए कहता है- 
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥
हे जीवात्मा, 'तुम' ही स्त्री हो तथा 'तुम' ही पुरुष हो; 'तुम' ही कुमार हो एवं 'तुम' ही पुनः कुमारी कन्या हो; 'तुम' ही तो जरा-जीर्ण वृद्ध पुरुष हो जो अपने दण्ड के सहारे झुककर चलता है। अहो, 'तुम' ही तो जन्म लेते हो तथा सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे ही नाना रूपों से परिपूर्ण है।  
किन्तु हमलोग इस प्रकार 'अनेकता में एकता' क्यों नहीं देख पाते हैं ? श्री रामकृष्ण देव ने कहा है - : "सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन ही साधना का चरम फल है।" किन्तु कोई साधारण मनुष्य भी उस साम्यभाव में कैसे प्रतिष्ठित हो सकता है, यह बात उस अवस्था में पहुँचे हुए आचार्यों की 'मुमुक्षु-अवस्था' में उनके द्वारा किये गए साधना को देखकर या पढ़कर ही हमलोग समझ सकते हैं। 
किन्तु  अपने 3'H' का पूर्ण विकास कर 'Heart Whole Man' पूर्ण उदार हृदय 'मनुष्य' बन चुके, या अपने सीमित 'व्यष्टि अहं' (छोटा मैं) को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध में रूपान्तरित करने की साधनापद्धति- "Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition" में प्रशिक्षित तथा उस अवस्था (साम्यभाव) में प्रतिष्ठित  'आचार्यों, अवतारों, पैगम्बरों या मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेताओं अथवा नेतावरिष्ठ (C-in-C) पूज्य नवनी दा जैसे जीवनमुक्त शिक्षकों का साधक भाव लिपिबद्ध रूप से उपलब्ध नहीं होता है।'(अर्थात लोकगुरूओं या आचार्यों के सत्यार्थी, जिज्ञासु या मुमुक्षु अवस्था में की गयी साधना-पद्धति का स्वलिखित जीवन इतिहास, प्रमाण या रेकार्ड उपलब्ध नहीं होता है।)  युगों-युगों से, मानव जाति के सच्चे नेता रहे हैं, जिन्होंने स्वयं आगे बढ़ कर  मनुष्य समाज का पथ-प्रदर्शन करने, उन्हें प्रगति के मार्ग पर आरूढ़ करा देने के यथार्थ महान कार्य को सम्पादित किया है। ये नेता थे- श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध देव, ईसा मसीह, मोहम्मद, चैतन्य, गुरु नानकदेव, सन्त कबीर, श्री रामकृष्ण परमहंस,' युगनायक स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर, स्वामी रंगनाथानन्द -नवनीदा,  ' तथा उन्ही के तुल्य 'नवनीदा -प्रमोददा' आदि श्रुति-परम्परा में निर्मित अन्य महामण्डल के नेतागण।  
 तथापि , बद्ध-मनुष्य नेता वरिष्ठ (अवतारवरिष्ठ या C-in-C) को भी केवल एक साधारण मनुष्य के रूप में ही देख-समझ सकता है। [चार जने मिल खाट उठाये, हमका उढ़ाये चदरिया रे चलती बेरिया] चार प्रकार के मनुष्यों -----बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त में से जो व्यक्ति अभी बद्ध मनुष्यों की श्रेणी में हैं, वे नेता-वरिष्ठ (C-in-C नवनीदा) को भी केवल एक साधारण मनुष्य के रूप में ही देख-समझ सकते हैं। अतः महामण्डल के नेता वरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा के कृपाप्रार्थी होने पर भी हमें उन्हें बिल्कुल अपने जैसा मानवभाव-सम्पन्न मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारे दुःखों (पशुमानव से पूर्ण मनुष्य बनने में हमारी दुर्बलताओं) में सहानुभूति-सम्पन्न होकर ही तो वे हमारे दुःख को दूर करने के लिए-अग्रसर होंगे। (हमारी मानवीय-दुर्बलताओं-3 'K' में हमारी आसक्ति  को दूर करने के लिए सहानुभूति-सम्पन्न होकर ही तो वे उस प्रकार अग्रसर होंगे जैसा जमशेदपुर कैम्प में हुए थे ? ) चार श्रेणी के मनुष्यों में से जो अभी 'बद्धजीव' की श्रेणी में हैं, वे ईश्वर-अवतार के केवल मानवभाव को ही समझ सकते हैं। 
क्योंकि हम सभी महामण्डल कर्मी "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त आचार्य-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित, अपने आचार्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की कृपा पर निर्भर करते हैं, अतः हमें उन्हें भी अपने ही तरह मानवभावसम्पन्न (मातृत्व हृदय में विकसित नेता) आचार्य मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारी दोषो-त्रुटियों (जन्मजन्मांतर से चली आ रही पाशविक वृत्तियों को जानते हुए भी) के प्रति सहानुभूति-सम्पन्न होकर ही वे हमारे दोषों को दूर करने के अग्रसर होंगे। अतः हम उन्हें चाहे जिस दृष्टि से (Friend-philosopher-guide किसी दृष्टि से) देखते हों, मानवभावापन्न (having human feelings) रूप में उनका चिंतन किये बिना हमारे लिए अन्य कोई उपाय नहीं है। वास्तव में जब तक हम स्वयं सभी प्रकार के बंधनों से (कामिनी-कांचन और कीर्ति के बंधनों से) मुक्त  (भ्रममुक्त या de-hypnotized) होकर निर्गुण देवस्वरूप (नित्यमुक्त /सच्चिदानंद ब्रह्म स्वरुप-अभिः ) में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, तब तक जगत्कारण ईश्वर (जगतजननी माँ काली) तथा उनके समस्त अवतारों को हमें मानवभावपन्न रूप में ही चिंतन तथा ग्रहण करना पड़ेगा।
अन्यथा, स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठेगा कि जो नित्य पूर्ण (eternally perfect) हैं, उन्हें भी परमसत्य की अनुभूति करने के लिए, इतना कठिन परिश्रम क्यों करना पड़ा ? नवनीदा को 17 साल की उम्र में स्टोन-क्रसर की नौकरी,नाइट कॉलेज में पढ़ाई, एक महीना तेज बुखार में बेहोश, और law of success आदि पुस्तकों का अध्यन, क्लास में आँसू से चेहरा भिंगा कर रोना ..  क्यों करना पड़ा ?  और यदि उन्हें (माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध के अवतार के अवतार नहीं माने तो, (संशयी -नरेनदा के जैसा) यह सोंचने से हम बच नहीं सकते कि साधना के समय उनका वह अमानुषी प्रयत्न, जिससे उनका जीवन भी खतरे में पड़ जाने की पूरी सम्भावना थी, क्या वह सब केवल 'लोकदिखावा' (sham) मात्र तो नहीं था ? महामण्डल के कुछ संशयी वरिष्ठ भ्राता--- जो उनकी जीवित अवस्था में उन्हें कैप्टन सेवियर के अवतार नहीं - बल्कि 100 न०, काशीपुर रोड निवासी महिमाचरण चक्रवर्ती --जो ठाकुर के युवा भक्तों के सामने अपने को हिमालय निवासी डमरूवल्ल्भ के शिष्य बताकर श्रेष्ठ योगी होने का दिखावा करते थे - उनके अवतार मानते थे, किन्तु उनके देहत्याग के बाद उनपर श्रद्धा रखते हैं। नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी। वरना, ईश्वरप्राप्ति के निमित्त महान आदर्शों को अपने जीवन में सुप्रतिष्ठित करने के लिए अनुष्ठित, उनका उद्यम, निष्ठा और त्याग को अपने जीवन में धारण करने की अनुप्रेरणा हम लोगों को  कहाँ से प्राप्त होती ? यदि उनकी प्रेमभरी झिड़कियाँ हमें सुनने को नहीं मिलती तो हम भी आजीवन -पाशविक जीवन (आहार,निद्रा, bhy, मैथुन) में ही फंसे रह जाते। 
नवनीदा कहते थे - स्वामी विवेकानन्द के गुरु (the god-man) देवमानव श्रीरामकृष्ण परमहंस, ही आधुनिक युग के प्रथम युवा नेता थे। क्योंकि उनका मन सबसे पहले साम्यभाव में स्थित हो गया था।  वे थे  वे सभी मनुष्यों की असम्पूर्णता (imperfections-दोषों, दुर्बलताओं) को जानते हुए भी, अपनी शरण में आने वाले को अपनी संतानरूप से स्वीकार करते हैं। अतः किसी भी अवतार, पैगम्बर, लोकशिक्षक, आचार्य के मानव-भावों को सर्वदा सामने रखकर उनके देव-भाव की विवेचना करने से भावी-शिक्षकों को बहुत लाभ होगा। इसलिए प्रत्येक महामण्डल कर्मी को भी देवमानव नवनीदा के मानव-भावों को सर्वदा सामने रखकर उनके देवभाव की विवेचना करनी चाहिए। 'नवनीदा' हमलोगों में से एक थे ; इस प्रकार चिंतन किये बिना उनके साधनकालीन अलौकिक उद्यम तथा प्रयासों का अर्थ हम नहीं समझ पाएंगे। अन्यथा ऐसा प्रतीत होगा कि जो नित्यपूर्ण (विवेकाननन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में पूर्व जन्म से ही प्रशिक्षित थे -भ्रममुक्त थे !) उनके लिए सत्य लाभ के प्रयत्न की क्या आवश्यकता है ? मालूम होगा कि 'महामण्डल ' की स्थापना  के निमित्त उनकी अथक चेष्टाएँ क्या 'लोकदिखावा' मात्र तो नहीं थीं ? नवनीदा के कृपाप्रार्थी होने पर भी हमें उनको भी अपने ही जैसा मानवभावसम्पन्न नेता मानना पड़ेगा ; क्योंकि हमारी दोषों -त्रुटियों को जानते हुए भी वे पापी नहीं समझते,और अपने संतान पर सहानुभूति करके ही वे हमारी पाशविक वृत्तियों को दूर करने के लिए अग्रसर होते हैं।] 

12. इसीलिए मानवों के प्रति करुणा कर ईश्वर का मानवदेह धारण है, अतः अवतार पुरुषों को भी मानव ही समझकर, उनकी जीवनी या उनकी आत्मकथा पर चर्चा करना हमारे लिए कल्याणप्रद होगा।God takes on a human body out of compassion for humanity. Therefore it is beneficial to study the lives of divine incarnations as human beingsঐজন্য মানবের প্রতি করুণায় ঈশ্বরের মানবদেহধারণ, সুতরাং মানব ভাবিয়া অবতারপুরুষের জীবনালোচনাই কল্যাণকর
 एईजन्य मानवेर प्रति करुणाय ईश्वरेर मानवदेहधारण, सुतरांग मानव भाविया अवतारपुरुषेर जीवनालोचनाई कल्याणकर: देवत्व में आरूढ़ होकर (डीहिप्नोटाइज्ड होकर या 100 % निःस्वार्थी बनकर) इस प्रकार से ईश्वर के मायातीत देव-स्वरूप का यथार्थ पूजन करने में समर्थ व्यक्तियों की संख्या अत्यन्त विरल है। हमारे जैसे दुर्बल अधिकारी अभी उससे बहुत दूर हैं। इसलिए हम जैसे व्यक्तियों के प्रति करुणा करके ही  करुणामय अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव और नेतावरिष्ठ नवनीदा और महामण्डल धरती पर अवतरित होते हैं। अतः हम सभी महामण्डल कर्मियों (भावी नेताओं /शिक्षकों) को अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी (biography) 'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग' तथा नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia) 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' में वर्णित घटनाओं  का तुलनात्मक अध्यन करते समय, उन्हें भी अपने ही समान सामान्य मनुष्य मानकर अध्यन करने से, अधिक लाभ प्राप्त होता है। 
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