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मंगलवार, 30 सितंबर 2025

⚜️️ भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥⚜️️घटना - 371⚜️️⚜️️भगवान श्रीराम द्वारा अयोध्या वासियों को मानव तन प्राप्त करने का सौभाग्य और फलाफल का उपदेश⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #371 ||⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -44,45,46]


     श्रीराम अयोध्या वासियों को मानवतन प्राप्त करने के सौभाग्य और फलाफल का उपदेश दे रहे हैं। मनुष्य का शरीर भवसागर पार करने के लिए नौका के समान है जो मनुष्य ऐसा साधन पाकर भी भवसागर पार न कर पाये ; वो महाकृतघ्न और मूर्ख होता है। हे नगरवसीयों इहलोक और परलोक में सुख प्राप्त करना चाहते हो , तो भक्ति के सुलभ मार्ग का अनुशीलन करो। ज्ञान का मार्ग कठिन होता है , उसे सहज ही प्राप्त नहीं किया जा सकता। भक्ति का मार्ग अपेक्षाकृत सहज होता है। किन्तु संत-समागम के बिना इसकी साधना नहीं हो पाती ! बड़े पुण्य अर्जित करके संतों की सङ्गति मिलती है ! और पुण्य अर्जित करने का साधन है , कपट त्यागकर मन -वचन और कर्म से उनकी सेवा करना जो पूज्य हैं , जिनके चरण वंदनीय हैं ! प्रजाजन के सम्मुख श्रीराम हाथ जोड़कर कहते हैं - देवाधिदेव महादेव का भजन किये बिना ; मनुष्य मेरा भक्त नहीं हो सकता ! भक्ति के मार्ग में न तो यज्ञ और त्याग की आवश्यकता है , और न ही तप और उपवास की। 

दोहा :
* जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥

भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥

चौपाई :

* जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥

भावार्थ:-यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है॥1॥

* ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥

भावार्थ:-ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥

* भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥3॥

भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥3॥

*पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥4॥

भावार्थ:-जगत्‌ में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है- मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥4॥

दोहा :

* औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥45॥

भावार्थ:-और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता॥45॥
चौपाई :

* कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥1॥

भावार्थ:-कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥1॥

* मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥2॥

भावार्थ:-मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात्‌ उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है।) बहुत बात बढ़ाकर क्या हूँ? हे भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ॥2॥

* बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥3॥

भावार्थ:-न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान्‌ है॥3॥

* प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥4॥

भावार्थ:-संतजनों के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक (भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है, पर (दूसरे के मत का खण्डन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है ॥4॥  

दोहा -

* मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥46॥

भावार्थ:-जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानन्दराशि को प्राप्त है॥46॥

चौपाई-

* सुनत सुधा सम बचन राम के । गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥1॥

भावार्थ:-श्रीरामचन्द्रजी के अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं॥1॥

* तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥2॥

भावार्थ:-और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं) परन्तु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)॥2॥
* हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥3॥

भावार्थ:-हे असुरों के शत्रु! जगत्‌ में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करने वाले तो दो ही हैं- एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत्‌ में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं। हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है॥3॥

* सब के बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥4॥

भावार्थ:-सबके प्रेम रस में सने हुए वचन सुनकर श्री रघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए॥4॥

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⚜️️बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥⚜️️घटना - 370⚜️️श्री राम द्वारा अयोध्या नगर निवासियों को नीतिपरक उपदेश⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #370 || ⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/uttar-kand_98.html⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -41,42,43]


श्री राम द्वारा अयोध्या नगर निवासियों को नीतिपरक उपदेश
         
          अयोध्यावासियों को राजा श्रीराम ने जो उपदेश दिए ,उसे भक्तजन रामगीता की संज्ञा देते हैं। हनुमान तथा अपने तीनों भाइयों को संत असंत के लक्षण बताकर श्रीराम ने नगर निवासियों को नीतिपरक उपदेश दिए। 'बड़े भाग मानुष तन पावा ' -सभी ग्रंथों में कहा गया है , कि मानव-तन देवताओं के लिए भी दुर्लभ होता है। ये साधना का माध्यम और मोक्ष का द्वार होता है। जिसने अपने परलोक की चिंता नहीं की , उसे अन्ततोगत्वा पछताना पड़ता है। वो काल, कर्म और ईश्वर को व्यर्थ ही दोष देता है। हे नगरवासियों ये शरीर विषयों का भोग प्राप्त करने के लिए नहीं मिला है। विषय-वासना में इस तन का उपयोग करने वाले मूर्खतावश अमृत को विष में बदल देते हैं। माया के वशीभूत प्राणी काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण -अवगुणों से घिरा अनंत काल तक भटकता रहता है। 

दोहा :
* सुनहु तात माया कृत, गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥41॥

भावार्थ:-हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥

चौपाई :

* श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा॥1॥

भावार्थ:-भगवान के श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गए। प्रेम उनके हृदयों में समाता नहीं। वे बार-बार बड़ी विनती करते हैं। विशेषकर हनुमान्‌जी के हृदय में अपार हर्ष है॥1॥

*पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए॥
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं॥2॥ `

भावार्थ:-तदनन्तर श्री रामचंद्रजी अपने महल को गए। इस प्रकार वे नित्य नई लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्री रामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं॥2॥

* नित नव चरित देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥3॥

भावार्थ:-मुनि यहाँ से नित्य नए-नए चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यंत सुख मानते हैं (और कहते हैं-) हे तात! बार-बार श्री रामजी के गुणों का गान करो॥3॥

*सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी॥4॥

भावार्थ:-सनकादि मुनि नारदजी की सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परंतु श्री रामजी का गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधि को भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे (रामकथा सुनने के) श्रेष्ठ अधिकारी हैं॥4॥

दोहा :

* जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥42॥

भावार्थ:-सनकादि मुनि जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म समाधि) छोड़कर श्री रामजी के चरित्र सुनते हैं। यह जानकर भी जो श्री हरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं॥42॥ 

चौपाई :

*एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥1॥ 

भावार्थ:-एक बार श्री रघुनाथजी के बुलाए हुए गुरु वशिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगर निवासी सभा में आए। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गए, तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटाने वाले श्री रामजी वचन बोले-॥1॥

* सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥2॥

भावार्थ:-हे समस्त नगर निवासियों! मेरी बात सुनिए। यह बात मैं हृदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है, इसलिए (संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर) मेरी बातों को सुन लो और (फिर) यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो!॥2॥
* सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥3॥ 

भावार्थ:-वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना॥3॥

* बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥

भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥4॥
दोहा :

* सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई॥43॥

भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥
चौपाई :
* एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥1॥

भावार्थ:-हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत्‌ के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥1॥

* ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥2॥ 

भावार्थ:-जो पारसमणि को खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है॥2॥

* फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥3॥

भावार्थ:-माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं॥3॥

* नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥4॥

भावार्थ:-यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥4॥  
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🔱विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ का सारांश 🔱||Session 25||The Essence of Vivekachudamani | 🔱 https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-09-07🔱🔱https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-472-479/

🔱माँ काली का अनुग्रह- मैं नहीं हूँ ! ईश्वर  ही है !🔱 

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः हरिः ॐ 

   अभी तक के विगत 24 सत्रों में विवेक चूड़ामणि के जो मुख्य श्लोक हैं उनके तात्पर्य को हमने देख लिया। हमलोग चुन करके पढ़ रहे हैं। पूरा ग्रंथ तो हमलोग नहीं पढ़ रहे हैं , कुछ Selected verses' कुछ चुने हुए श्लोकों को ही हमलोग पढ़ रहे हैं। तो उस ग्रंथ के एक -दो और भी विचारणीय श्लोकों को हमलोग पढ़ लेते हैं। लेकिन आगे बढ़ने से पहले विगत 24 सत्रों में हमने जो पढ़ा है उसका सारांश देख लेते हैं,  summaries कर लेते हैं, या संक्षिप्त विवरण देख लेते हैं। शुरुआत से लेकर अबतक हमने जो पढ़ा है ,उसका एक total viewing कर लेते हैं। 


 The Essence of Vivekachudamani | Session 25


1. मनुष्य शरीर की महत्ता('खण्डन भव बन्धन की योग्यता' नित्य-अनित्य विवेक-प्रयोग करने की क्षमता केवल मनुष्य में है।) 

        इस ग्रन्थ के शुरुआत में ही शंकराचार्यजी हमें यह बता देते हैं कि इस मनुष्य शरीर का क्या महत्व है ? मनुष्य शरीर में जन्म लेना कितना बड़ा सौभाग्य है , ये हमें अब समझ में आ रहा है। क्योंकि कोई भी विशालकाय पशु वह काम नहीं कर सकता , जो कार्य केवल मनुष्य ही कर सकता है, और वह महान कार्य क्या है ? वह कार्य है -'खण्डन भव बन्धन' ! बन्धनों से मुक्त होना! इस कार्य को मनुष्य मात्र ही कर सकता है। इस सृष्टि में जितने भी जीव-जन्तु हैं वे सभी बद्ध हैं लेकिन वह बंधन क्या है ? इस पहेली (riddle-गोरखधन्धा, अविनाशी आत्मा होकर भी नश्वर शरीर में कैद क्यों हैं???) को समझने, और फिर इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है। (स्थूल शरीर स्त्री-पुरुष देह के जन्म-मृत्यु को अपना जन्म-मृत्यु समझने के सम्मोहन  का भ्रम) बंधन से मुक्त होने का प्रयास, मनुष्य अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं कर सकता है। भव-बंधन से मुक्त होने का प्रयास, मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं कर सकता है। उसकी योग्यता अन्य जीवों में नहीं होती, यह योग्यता सिर्फ मनुष्यों में ही होती है

    1A. मनुष्य मात्र की विशिष्ट योग्यता क्या है ? हमने इस पर विस्तार से चर्चा करके समझा कि विवेक प्रयोग करने की क्षमता और साहस केवल मनुष्यों में ही होती है। विवेक-प्रयोग करने की योग्यता सिर्फ मनुष्य शरीर मिलने से ही प्राप्त होती है। तो शंकराचार्यजी विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ के शुरुआत में ही, मंगला-चरण में ही इस अत्यन्त गंभीर विचारणीय-विषय (Issue) को हमारे सामने रखते हैं।  कहते हैं -"तम् अगोचरम्" — यह शब्द दर्शाता है कि वह परमात्मा या गुरु सामान्य ज्ञानेंद्रियों के द्वारा जानने योग्य नहीं हैं।  यद्यपि वे इन्द्रियातीत हैं, फिर भी वह वेदांत के सिद्धांतों (महावाक्यों) के माध्यम से जाने  जा सकते हैं

"तमगोचरं सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं। 

गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥"

*****

जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता ,

 तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् । 

आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-

र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥ 

*****

"दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।।

*****

ये दुर्लभं शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इस नरदेह की दुर्लभता क्या है ?  मनुष्य  नरदेह सुलभ नहीं है- ये आसानी से नहीं मिलता। अगर यह मिला है तो - यह ईश्वर के अनुग्रह से ही मिलता है। 

2. मुक्ति इस सृष्टि की सबसे दुर्लभ वस्तु :   

     फिर हमने देखा कि इस सृष्टि में सबसे दुर्लभ चीज तो मुक्ति है। लेकिन क्या नर शरीर प्राप्त करने मात्र से ही सब कुछ हो गया क्या ? इस पृथ्वी पर मनुष्यों की जनसंख्या 8 अरब है। उसमें से कितने मनुष्य मुक्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं ? तो नर शरीर (3H) प्राप्त करने के पश्चात् भी बहुत से विचारणीय मुद्दे (issues या मामले) हैं जिन्हें हमें -'Cultivate' विकसित करना है। शरीर को व्यायाम और पौष्टिक आहार से स्वस्थ रखना पहला धर्म है। मन की  एकाग्रता और शक्ति को विकसित कर पौष्टिक आहार और अभ्यास द्वारा वश में लाने का प्रयास करना, ह्रदय के विकास के लिए व्यायाम और पौष्टिक आहार आदि कुछ अन्य प्रमुख मुद्दा है। जिसको विकसित करने की पद्धति हमें सीखनी होगी। क्योंकि   

इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति । 

दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ॥ ५ ॥

अर्थ:- दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ? 

3. ब्राह्मणों पाए जाने वाले 24 गुणों को विकसित करना : 

    तो हमने देखा शंकराचार्य जी कह रहे हैं - नर शरीर (3H) प्राप्त करने के पश्चात् भी बहुत से विचारणीय मुद्दे (issues या मामले) हैं जिन्हें हमें -'Cultivate' विकसित करना है। उन अच्छे गुणों को विकसित करना होगा जो ब्राह्मणों में पाए जाते हैं ! ब्राह्मणो का गुण अर्थात आत्मसंयम-केन्द्रित जीवन, यम-नियम-आसन आदि अष्टांग मार्ग में तपस्या केंद्रित वेद मार्गी जीवन। शुद्ध और पवित्र जीवन का गठन । (5:03) वैसा जीवन-गठन जो ईश्वर केंद्रित है , निःस्वार्थ है, जो अपरोक्ष ज्ञान केंद्रित जीवन गठन । ये सब है ब्राह्मणों का गुण। उन्हें विकसित करना और चरित्रवान मनुष्य बनना। वैसा जीवन गठन। 

4. वेद के बातये हुए मार्ग (Be and Make अष्टांग-मार्ग) पर निष्ठा : इस ग्रन्थ पर चर्चा करने से समझ में आया की अन्य कोई भी 'ism' या मार्ग हमारे वेद मार्ग -Be and Make मार्ग से श्रेष्ठ नहीं है। कौन सा ऐसा मार्ग है - जो आपको परमार्थ तक ले जा सकती है ? (परमार्थ दूसरों की निःस्वार्थ सेवा - मनुष्य का वह नैतिक लक्ष्य जो सर्वोच्च है, जिससे अधिक श्रेयस्कर कुछ हो नहीं सकता, जो मानवीय प्रयत्न का सबसे बड़ा साध्य है।) हमलोग जितने भी ism पढ़ते हैं -Marxism, Socialism, वो परमार्थ का (जन-सेवा का) कोई मार्ग है क्या ? मनुष्य की सच्ची उन्नति किस मार्ग पर चलने से होगी ? वेद के मार्ग पर जब हमारी निष्ठा होगी , तभी हमारी ठीक -ठीक उन्नति होगी। यदि वेद-निष्ठा हो भी जाये तो , उसके मूल शास्त्र (दशावतार और अवतार वरिष्ठ) का ज्ञान किसके पास है ? बहुत कम लोगों के पास है। शास्त्र का ज्ञान हो भी जाये तो उसका अनुशीलन कितने लोग कर रहे हैं ? 

5. वेदमार्ग का अनुशीलन अर्थात आत्मा-अनात्मा विवेचनं : कितने लोग कर रहे हैं ? अति दुर्लभ लोग कर रहे हैं।

6.अपरोक्ष ज्ञान की अनिभूति प्राप्त पुनः देह में लौटने वाले 'नेता' कितने हैं आत्मा-अनात्मा विवेचनं करके फिर अनुभूति कितनों की होती है ? अगर यह अनुभूति हो भी गयी , मैं आत्मा हूँ , 'शिवोहं' हूँ - तो अभी मरेगा कौन ? ऐसा साहस , समाधि, और माँ की कृपा से पुनः उसी शरीर में लौट आने की क्षमता कितनों को होती है ? और भी कम ! (6:21इसलिए इस सृष्टि में सबसे दुर्लभ उपलब्धि 'मुक्ति' या मोक्ष ही है। 

7.माँ काली का अनुग्रह  इसलिए यदि किसी व्यक्ति को मनुष्य शरीर , मुक्ति की इच्छा और किसी महापुरुष (अतीन्द्रिय दृष्टि प्राप्त गुरु) का आश्रय तीनो प्राप्त हो तो शंकराचार्य जी कहते हैं यह केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही मिला हुआ है , अन्यथा यह संभव नहीं है। (अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणमयी परमेश शक्ति -माँ काली , कात्यायनी,.. के अनुग्रह से ही संभव है।)  अगर हम आज मनुष्य शरीर में हैं , और हमारे अंदर थोड़ी सी भी 10 %भी इस बंधन से मुक्त होने की इच्छा है , किसी समर्थ गुरुदेव और विष्णु के सहस्रनाम में वर्णित नेता (अवतारी ब्राह्मण नेता और पूर्वजन्म के कैप्टन सेवियर) का मार्गदर्शन हमको मिलता है। या हमारे जीवन में ये अगर सब चल रहा है ? तो हमें समझ लेना चाहिए कि सब 'उस परमेश शक्ति काली की कृपा' से ही हो रहा है जो शिव को ही ढँक रही है, अन्यथा यह सम्भव नहीं है ! (7:24) 

8. आत्म या ब्रह्म जिज्ञासा के चार साधन : या 'मुक्ति रूपी लक्ष्य' तक पहुँचने के साधन : अब इस मुक्ति को प्राप्त करना हो , तो मुक्ति के कुछ साधनों की आवश्यकता है। उन साधनों के बगैर कोई भी व्यक्ति इस मुक्ति रूपी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। उन चार साधनों को साधन चतुष्टय कहते हैं। 

विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिनः ।

मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मता ॥ १७॥

अर्थ:-जो सदसद्विवेकी, वैराग्यवान्, शम-दमादि षट्सम्पत्तियुक्त और मुमुक्षु हो उसी में ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता मानी गयी है।

साधनान्यत्र चत्वारि कथितानि मनीषिभिः ।

येषु सत्स्वेव सन्निष्ठा यदभावे न सिद्ध्यति ॥ १८ ॥

अर्थ:- यहाँ मनस्वियों ने आत्म या ब्रह्म जिज्ञासा के चार साधन बताये हैं, उनके होने से ही सत्य स्वरूप आत्मा में स्थिति हो सकती है, उनके बिना नहीं।

आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् शमादिषट्‌कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति परिगण्यते । स्फुटम् ॥१९॥

अर्थ:-पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख भोग में वैराग्य होना है, तीसरा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान- ये छः सम्पत्तियाँ हैं और चौथा साधन मुमुक्षुता है।

9.विवेक की परिभषा : फिर हमने शंकराचार्य जी के द्वारा प्रदत्त विवेक की परिभाषा को देखा। 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः ।

सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः ॥ २० ॥

अर्थ:- 'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' कहलाता है।

10.  वैराग्य की परिभाषा क्या है ? 

तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः 

देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि ॥ २१ ॥

अर्थ:-दर्शन और श्रवणादि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थों में जो घृणा बुद्धि है वही 'वैराग्य' है।

11. षट्सम्पत्ति की परिभाषा 

 विरज्य विषयव्राताद्दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः ।

स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते ॥ २२ ॥

अर्थ:-बारम्बार दोष-दृष्टि करने से विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना ही 'शम' है।

विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ॥ २३ ॥ 

उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः । 

बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा ॥ २४॥

अर्थ:-कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने-अपने गोलकों में स्थित करना 'दम' कहलाता है। वृत्ति का बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है।

सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा। 

तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥ २७ ॥

अर्थ:-अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को 'समाधान' कहा है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है।

12. मुमुक्षुता क्या है ?  

अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान् ,

स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छा मुमुक्षुता ॥ २८ ॥

अर्थ:-अहंकार से ले कर देह पर्यन्त जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा 'मुमुक्षुता' है(8:04

  ये सब हमने देखा तो, इस प्रकार जो व्यक्ति साधन-चतुष्टय सम्पन्न मुमुक्षु  होगा , उसको मुक्ति प्राप्त होगी -कहने का मतलब यह नहीं है कि उसमें 100 % विवेक-वैराग्य होना चाहिए ! (अवतार के अतिरिक्तहम जैसे सर्वसाधारण मनुष्यों में किसी का भी आध्यात्मिक जीवन 100 % विवेक-वैराग्य के साथ शुरू नहीं होता है। हम जैसे सर्वसाधारण मनुष्यों में कोई व्यक्ति 100 % वैरागी हो , ऐसा  सम्भव भी नहीं है। हम साधारण मनुष्य हैं हमारे अंदर -विवेक, वैराग्य, षट्- सम्पत्ति और मुमुक्षता विभिन्न मात्राओं में होती है। थोड़ी ज्यादा या कम -लेकिन कुछ मात्रा में ही होना अपेक्षित है। अगर बिल्कुल भी नहीं हो, तो मुक्ति की दिशा में हमारी जो यात्रा है , वो शुरू ही नहीं होगी। तो कमसेकम कुछ मात्रा में 5-10 % भी होना अपेक्षित है। और फिर मनःसंयोग की साधना से हम उसको बढ़ाते जाते हैं। साधना क्या है ? साधन चतुष्टय को धीरे -धीरे बढ़ाते जाना ही साधना है। इस पाठचक्र में महामण्डल के द्वारा निर्देशित जो 5 साधन बताये गए हैं, उसका अभ्यास करने वाले हम सभी लोग इस साधन-चतुष्टय मार्ग के ही साधक हैं। हमलोग अभी सिद्ध नहीं हुए हैं(9:18) हम सब अभी साधक है। तो हमें अभी focus करना है साधन चतुष्टय पर। यहाँ से जाने के बाद भी यदि आप जीवनगठन और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार -प्रसार करना चाहते हो ? तो आपको focus करना पड़ेगा साधन चतुष्टय पर उसमें भी विशेष कर विवेक और वैराग्य परThe main point is Viveka and Vairagya ! यदि ये दोनों चीजें -विवेक और वैराग्य अपने जगह पर हों - तो चरित्र के बाकि सारे गुण अपने आप जुड़ते चले जायेंगे। 

13. विवेक और वैराग्य यदि 50 % से ऊपर की दिशा बढ़ता गया , तो चरित्र के बाकि के सारे गुण खुद अभिव्यक्त होते जायेंगे। आपका जीवन ही बदल जायेगा। क्योंकि विवेक क्या है ? स्पष्टता है। यदि आपका विवेक अर्थात सत्य-मिथ्या स्पष्टता हर समय जाग्रत है, तब अपने आप ही अपनी जीवन नौका को बहुत सावधानी से वैराग्य पूर्वक (त्यागपूर्वक भोग करते हुए ) आगे ले जा पाओगे। यही है जीवन जीने की कला। 

14. पूर्णत्व प्राप्ति के लिए हमें focus करना है साधन चतुष्टय पर। उसमें भी विवेक और वैराग्य पर। 

15.सत्य द्रष्टा गुरु की खोज : और इस प्रकार जो साधक साधन-चतुष्टय की साधना में 60 % ऊपर उठ गया , वो मोक्षार्थी पहुँचता है गुरु के पास। उस मोक्षार्थी के मन की दशा ऐसी है कि वह अपने आपको इस संसार सागर में डूबता हुआ देख रहा है ! स्वयं को संसार की अग्नि में तपता हुआ पाता है। उसको अत्यंत पीड़ा है -वो जान रहा है , कि मैं डूब रहा हूँ। जिस बिना तली के अंधे कुँए में मैं गिरा हूँ , उसमें गिरता ही जा रहा हूँ। अब वह मुमुक्षु उस अन्धकूप से बाहर निकलने के लिए अत्यंत व्याकुल है (11:00) यह उसकी मनोदशा है। ऐसा जो मुमुक्षु है , जो सत्यार्थी है , जो सत्यान्वेषी है , वो उस गुरु के पास आता है। ये आदर्श शिष्य है जो साधन-चतुष्टय से युक्त है , और उसके साथ जिसके अंदर इतनी तीव्र व्याकुलता है ! आदर्श गुरु कौन है ? वो भी हमने देख लिया था। आदर्श गुरु वे हैं इन्द्रियातीत ब्रह्म के विषय में श्रोत्रिय  है ब्रह्मनिष्ठ है। जो निष्पाप है , निष्काम है! [इन्द्रियातीत सत्य या आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त वह श्रेष्ठ {श्रोत्रिय} ब्राह्मण श्रद्धेय और पूजा योग्य होता है। तथा जो धर्मग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त करके प्रवचन द्वारा वास्तविक सत्य को प्रकट करने वाला ब्राह्मण है श्रोत्रिय कहलाता है।]  

16. आदर्श शिष्य को देखकर आदर्श गुरु खिल उठते है ! उनका संवाद शुरू होता है। ऐसे योग्य शिष्य को पाकर के जो मुमुक्षु है , जो इन बंधनों से मुक्त होना चाहता है। वे ऐसे शिष्य को पाकर उसकी प्रसंशा करते हैं 

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावितं ते कुलं त्वया।

 यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ।॥ ५२ ॥

अर्थ:-गुरु-तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धन से छूट कर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है। तुम इस अविद्या रूपी बंधन से मुक्त होने की इच्छा कर रहे हो , तुम धन्य हो , तुम कृतकृत्य हो, तुम्हारे इस प्रयास कारण तुम्हारा पूरा कुल पवित्र हो गया। तो इस प्रकार ये शिष्य गुरु के पास आता है , और गुरु के समक्ष 7 मूल भूत प्रश्नों को रखता है -उसके प्रश्न कोई साधारण मनुष्य के प्रश्न नहीं हैं -कि मैं जीवन में शांति कैसे पाऊँ ? या मेरी नौकरी कब लगेगी ? हमलोग तो साधारणतः किसी योगी गुरु के पास जाते हैं , तो ऐसे ही प्रश्न करते हैं। गुरुदेव हमको बताओ मैं गेट की परीक्षा गेट की परीक्षा [The Graduate Aptitude Test in Engineering (GATE)] कैसे पास करूँगा ? लेकिन ऐसे प्रश्न (देवराहा बाबा से यह प्रश्न कि 1986 का बिहार और देश कैसे कैसे ठीक होगा? कौन करेगा ?] 

17. आदर्श शिष्य के मूलभूत 7 प्रश्न क्या हैं ?  

को नाम बन्धः, कथमेष आगतः,

 कथं प्रतिष्ठास्य, कथं विमोक्षः ।

कोऽसावनात्मा , परमः क आत्मा,

 तयोर्विवेकः कथम एतद उच्यताम् ॥ ५१ ॥

अर्थ:-बन्ध क्या है? यह कैसे हुआ? इसकी स्थिति कैसे है? और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है? अनात्मा क्या है? पर मात्मा किसे कहते हैं? और उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? कृपया यह सब कहिये।

  ये सारे प्रश्न बंधन केन्द्रित हैं। सातो प्रश्न बंधन मूलक है। इस बंधन से हम मुक्त कैसे हों ? बंधन की जब बात करते हैं तब अनात्मा और आत्मा को समझने का प्रश्न उठ खड़ा होता है। क्योंकि इन दोनों के बीच हमने गड़बड़ कर दिया है। एक को दूसरा समझ लिया है। आज हमने अनात्मा को आत्मा समझ लिया है। हमने देह को ही आत्मा समझ लिया है, जिस प्रकार वो किसान मगरमच्छ को लट्ठा समझकर नदी पार करना चाहता था। उसी प्रकार हम अनात्मा को आत्मा समझकर बैठे हैं। ये अनात्मा कभी भी आत्मा नहीं हो सकती। आप किसी भी तरह से यह नश्वर शरीर नहीं हो सकते हो। यह तो एक बुलबुला है , जो अभी दिख रहा है , अभी अदृश्य हो जायेगा। बस खन भर की बात है। ये स्थूल शरीर जो है , एक बुलबुले के समान है। अभी प्रकट हुआ अभी अदृश्य हो जायेगा , क्षण भर की बात है। कब ये बुलबुला फूटेगा ? कोई नहीं जानता। लेकिन हम कभी यह नश्वर शरीर हो ही नहीं सकते। हम कभी नश्वर शरीर नहीं हो सकते , ये बात हमें तभी समझ में आएगा जब हम इस चीज की खोज करें कि ये अनात्मा , ये बुलबुला , ये स्थूल शरीर है क्या ? जब खोजोगे तो ये मिलेगा ही नहीं। कुछ और ही मिल जाते हैं। इसकी खोज करो तो ईश्वर मिल जाते हैं। इन सातों प्रश्नों को गुरु के समक्ष रखने के बाद गुरुदेव सबसे पहले चतुर्थ प्रश्न- कथं विमोक्षः । का उत्तर  देता हैं। इन दो श्लोकों में गुरुदेव ने हमारे आध्यात्मिक जीवन का जो मार्ग है , उसके विषय में बहुत विस्तारित और बहुत सुंदर उत्तर दिया है। 

मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु

ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥

ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-ध्यानं चिरं नित्यनिरन्तरं मुनेः ।

ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ॥ ७२ ॥

अर्थ:-मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनन्तर शम, दम, तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है। तदुपरान्त मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य-निरन्तर आत्म-तत्त्व का ध्यान करना चाहिये। तब वह विद्वान्  परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर, इसी शरीर में जीवित रहकर निर्वाण-सुख को पाता है। 

अगर हम मोक्ष के प्रथम हेतु की बात करें तो वह वैराग्य है , किसके प्रति वैराग्य ? बुलबुलों के प्रति वैराग्य, अनित्य वस्तुओं के प्रति वैराग्य। अब अगर किसी मनुष्य को बुलबुलों के प्रति राग हो , बुलबुलों में आसक्ति हो , तो ये समझदारी है या मूर्खता है ? बुलबुलो के प्रति यदि हमारी राग हो, हमारी आसक्ति हो , हम अगर बुलबुलों से चिपक रहे हैं , तो ये हमारी मूर्खता है। तो उस अनित्य वस्तुओं के प्रति तीव्र वैराग्य। और जब तीव्र वैराग्य होता है तो शम -दम -उपरति-तितिक्षा -श्रद्धा -समाधान आदि षट सम्पत्ति स्वतः चली आती है। फिर वह व्यक्ति निष्काम कर्म करता है। वह कामना युक्त स्वार्थी कर्म नहीं कर सकता। और उस शुद्ध मन से जब वो श्रवण , मनन और निदिध्यासन करता है , तो इस शरीर में जीतेजी ही वह निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेगा। इन दो श्लोकों में बंधन से मुक्ति कैसे प्राप्त करें ? ये बता दिया गया है। (16:57)अनित्य वस्तुओं से वैराग्य - that is the beautiful highway ! अनित्य बुलबुलों से वैराग्य - वह सुन्दर राजमार्ग है ! ये हुआ चतुर्थ प्रश्न का समाधान। फिर गुरुदेव पंचम प्रश्न को लेते हैं -वो है अनात्मा क्या है ? क्योंकि हमारे मन में जितनी भी भ्रान्तियाँ हैं , वे अनात्मा को लेकर के ही हैं। हमने अनात्मा को ही तो आत्मा समझ लिया है। तो अनात्मा पर विस्तार से विचार दिया गया है। जब हम अनात्मा की बात करते है तो प्रथम आता है स्थूल शरीर ! क्योंकि हम सब इसी में फँसे हुए हैं। इस स्त्री-पुरुष शरीर में ही हमारी 'मैं -बुद्धि' है। मैं तो ये हो ही नहीं सकता। और इसी शरीर में हमारी मैं -बुद्धि है। तप पहले स्थूल शरीर की ही खोज करते है कि स्थूल शरीर क्या है ?

18. स्थूल शरीर क्या है >

मज्जास्थिमेदः पलरक्तचर्म-त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्

पादोरुवक्षोभुजपृष्ठमस्तकै -रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत्

अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रय रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं।  

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥

परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।

मात्रास्तदीया विषया भवन्ति शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥

अर्थ:-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी- ये सूक्ष्म भूत हैं। इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूल शरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएँ भोक्ता जीव के भोग रूप सुख के लिये शब्दादि पाँच विषय हो जाती हैं। 

      ये स्थूल शरीर , जो एक बुलबुला मात्र है , कभी 'मैं ' हो सकता है क्या ? हम सब स्थूल शरीर से ही तो मोहित हैं। विशेषकर बाहर से सतह पर 2mm की चमड़ी -दृष्टि से ही तो भ्रमित हैं। सारा विश्व- प्रपंच 2mm की चर्म -दृष्टि में ही फँसा हुआ है। इसी में सुंदर-असुंदर , स्त्री -पुरुष ,काला - गोरा , सारा लैंगिक भेद और लैंगिक आकर्षण यह सब स्थूल शरीर -केंद्रित दृष्टि में है। सच्चाई में ये शरीर सतह पर जैसा दीखता है , वैसा है क्या ? उसमें मज्जा है , अस्थि है , मेद है , पल है , रक्त है , चर्म है। फिर उस शरीर के विभिन्न अंग हैं - हाथ है, पैर है ,जाँघे हैं , पीठ है , मस्तक है -वगैरह , वगैरह। स्थूल शरीर का वर्णन इस प्रकार से करने का तात्पर्य यह है कि ऊपर से सब शरीर अलग अलग दीखते हैं , भीतर से सब समान हैं। सतह पर सब अलग अलग दीखते हैं , थोड़ा सा भीतर चले जाइये -सब समान हैं। (19:34) कोई अन्तर नहीं है। शरीर के भीतर झाँकने से ही समदृष्टि आ जाती है, सारी भेद-दृष्टि उसी में चली जाती है -ब्रह्म में पहुँचने से पहले ही, थोड़ा सा भी हम सतह के भीतर प्रवेश कर जाएँ तो हमारी भेद -दृष्टि कम हो जाती है। हम देखते हैं -सब तो एक ही है। कहाँ अंतर है , बताइये ? केवल मनुष्य ही नहीं पशु को भी ले लीजिये। उसके भीतर भी वही अस्थि, चर्म , रक्त है। फिर ये लिंग जो है -Gender जो है, जिसका प्रभाव हमारे मन के ऊपर इतना dominant या प्रबल हो गया है। हमारे सम्पूर्ण जीवन का आचरण behaviour इसी Gender differentiation से लिंग भेद से Govern हो रहा है। मनुष्यों के दैनंदिन जीवन के आचरण को विशेष करके कौन संचालित कर रहा है ? ये लैंगिक भेद का प्रभाव द्वारा ही संचालित हो रहा है या नहीं ? सोंच कर दिखिए। ये एक कितना बड़ा बंधन है ? This gender ideas govern your behaviour .It makes you behave in a certain manner. It makes respond in a certain manner .It makes you react in a certain manner .  ये लिंग संबंधी विचार आपके व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। ये ये लिंग संबंधी विचार ही आपको एक विशेष तरीके से respond करने या प्रत्युत्तर देने  के लिए प्रेरित करते हैं। ये आपको एक निश्चित तरीके से परस्पर प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करते हैं।  ये gender है क्या चीज ? थोड़ा सा हम भीतर जाकर देखें तो पाएंगे कि यह कितना निरर्थक है , और निराधार है। जबकि सारा का सारा विश्व-प्रपंच वहीं पर अटका हुआ है। (21:22) ये सब स्थूल शरीर के वर्णन करने का, इस प्रकार कहने के पीछे का जो तात्पर्य है , वो यह कि ये सब कितना निरर्थक है ! हम कहाँ पर बँधे हुए हैं ?

18. इस सृष्टि की मोहास्पद चीज क्या है ? 

फिर कहते हैं इस स्थूल शरीर के निस्सारता को समझना इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? क्योंकि यह स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः । और ये मोह कैसे काम करता है ? अहंममेति प्रथितं शरीरं- 'मैं' यह M/F शरीर हूँ और ये 'मेरा /मेरी' चीज है ? अहंममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः । इस स्थूल शरीर के प्रति ही हमारी ऐसी धारणा है कि मैं यह हूँ और ये मेरा है। और जब दूसरे बुलबुलों या बुलबुली के साथ ऐसा सम्बन्ध बना लेते हैं कि यह मेरी पत्नी है ! ये मेरा पति है। ये मेरे बच्चे हैं। ये मेरा , ये मेरी। एक बुलबुला दूसरे बुलबुलों के साथ चिपक कर सुरक्षित होना चाहता है। लेकिन वे भी तो बुलबुले ही हैं। अभी प्रकट होगा , अभी अदृश्य हो जायेगा। उसी बुलबुले के साथ मैं और मेरा रूपी -एक मोह ग्रस्त सम्बन्ध हमने बना लिया है। ये स्थूल शरीर ही सारे मोह का आस्पद है। मोह वह चीज है जो बड़े -बड़े ऋषि-मुनि को भी अँधा बना देता हैं। मोह वह चीज है -जो सत्य को ढँक देती है। और वो व्यक्ति फिर सत्य को देख नहीं पाता है। इसीलिए हम सत्य को देख नहीं पा रहे हैं। जब तक हमारे अन्तःकरण में यह लैङ्गिक मोह रहेगा , हम सत्य को देख नहीं पाएंगे। इसलिए शंकराचार्यजी कहते हैं , यह स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है। हमलोगों ने उदाहरण से भी समझा था, पुत्र मोह होता है , स्त्री-पुरुष मोह होता है। धन का मोह होता है। नामयश -पद से मोह होता है। और ये मोह काटते नहीं कटता है। (23:18 )

19. राग और प्रेम भिन्न भिन्न हैं। विषयों से आबद्ध होने का परिणाम : फिर एक श्लोक में बहुत बड़ा मुद्दा शंकराचार्यजी उठाते हैं -हम सारे विषयों से आबद्ध कैसे हो जाते हैं ?

अहंममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।

अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आस्पद रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं। वो क्या चीज है जो हमें संसार के सारे विषयों से बाँध देती है ? हम सब के लिए बहुत बड़ी challenging समस्या , युवाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौतीपूर्ण समस्या यह राग या आसक्ति ही है । शंकराचार्यजी कहते हैं राग वह अत्यंत मजबूत किन्तु एक अदृश्य रस्सी है, जिसको काटना बड़ा कठिन है। इस राग रूपी रस्सी के द्वारा हर मनुष्य दूसरे बुलबुला से बँधा हुआ है। दूसरे वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ बंधा हुआ है। यही हर मनुष्य की परिस्थिति है , वस्तुस्थिति है। है कि नहीं ? व्यावहारिक स्तर पर यही हमारी वस्तु स्थिति है , हम सभी दूसरे वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ हमलोग इस राग-द्वेष रूपी अदृश्य रस्सी से बँधे हुए हैं। इसीको राग attachment आसक्ति या ममता से बंधे हुए हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस राग को ही सारी दुनिया प्रेम समझती है। इस attachment को ही सभी लोग Love समझते हैं।  attachment और Love दोनों बिल्कुल भिन्न-भिन्न चीजें हैं। हमारे दैनंदिन जीवन में इस अन्तर को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। अपने परिवार के ही प्रति, भाई, पत्नी , बच्चों के प्रति आपको विचार करना पड़ेगा कि ये आसक्ति या प्रेम है ? जाँच करके देखो। attachment होगा तो उसका परिणाम सिर्फ पीड़ा ,बंधन और दुःख ही होगा। प्रेम इससे भिन्न चीज है। attachment वह है जो सिर्फ अपना पराया के आधार पर दो -चार लोगों के साथ ही होता है। आपकी भावनाएं , आपके Concerns या सहानुभूति सिर्फ दो चार लोगों के साथ रहेंगी। दूसरे प्रति आप लापरवाह रहते हैं। ये आसक्ति है। प्रेम कैसा होता है ? वो अनंत है , सीमा हीन है , उसके लिए सब समान हैं , वह लगाव सिर्फ दो चार अपने लोगों के प्रति नहीं होता। उसके लिए सभी समान हैं। उसकी सहानुभूति सबके लिए समान होती है। प्रेम कभी भी शरीर केंद्रित नहीं हो सकता।  प्रेम का आधार लैङ्गिक नहीं हो सकता। लैङ्गिक आकर्षण प्रेम नहीं है।  लैङ्गिक आकर्षण सिर्फ मोह है , अंधापन है। attachment है राग है ! प्रेम का लैङ्गिक आकर्षण के साथ कुछ लेना-देना है ही नहीं। शरीर के साथ कुछ लेना देना नहीं है।  न रक्त के संबंध और सम्बन्धियों से कुछ लेना देना है। Love has got nothing to do with blood relation . प्रेम का रक्त सम्बन्धियों से कोई सम्बन्ध नहीं हैThe real person who has got Love , you can take the example of Swami Vivekananda .

     20.प्रेम आपको मुक्त करेगा , प्रेम कभी भी कड़वा नहीं होता:   स्वामी जी का जीवन राग और प्रेम के अंतर का आदर्श उदाहरण है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण देखना हो, जिसके ह्रदय में सच्चा प्रेम है, तो आप स्वामी विवेकानंद का उदाहरण ले सकते हैं। क्या उनका प्रेम सिर्फ रक्त के सम्बन्धियों के लिए था ? सबों के प्रति समान प्रेम था। क्या उनका प्रेम लैङ्गिक आकर्षण पर आधारित था? उनका प्रेम शरीर के विचार पर आधारित नहीं था। प्रेम की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? ईश्वर दृष्टि से होती है। राग की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? देहदृष्टि से होती हैआपके दैनंदिन जीवन में ये पॉइंट बहुत ही स्पष्ट होनी चाहिए। क्योंकि अपने घर-परिवार -समाज में आपको इसी प्रेम /राग के अंतर को समझकर उसे व्यवहार में लाना होगा। हम किस दृष्टि से दूसरे व्यक्ति के साथ आकृष्ट हो रहे हैं ? हर समय इस विवेक-दृष्टि को जाग्रत रखना होगा। अगर आपकी दृष्टि देह-केन्द्रित होगी तो उसमें से राग ही उत्पन्न होगा। और अगर आपकी दृष्टि ईश्वर केंद्रित होगी तो उससे प्रेम उत्पन्न होगा। प्रेम आपको मुक्त करेगा : प्रेम कभी भी कड़वा नहीं होता ! (27:50) राग शुरुआत में मीठा लगेगा , लेकिन आगे चलकर वो कड़वाहट में बदल जायेगा। 

21.इंद्रिय-वस्तुओं से आसक्ति कितनी विषैली है ? (How toxic is attachment to Sense-objects ? ) जिन विषयों में हम राग के द्वारा बँध जाते हैं, वे विषय कितने विषाक्त हैं?

शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पंच पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः ।

कुरङ्गमातङ्गपतङ्गमीन-भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥ ७८ ॥

अर्थ:-अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से बँधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है?

दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि। 

विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥ ७९ ॥

अर्थ:-दोष में विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, परन्तु विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते। उसके विष की तुलना काले नाग के विष के साथ की गयी है -इस महत्वपूर्ण चेतावनी को हमेशा याद रखना है ! लेकिन काले नाग का विष से आपकी मृत्यु तब होगी , जब कोबरा आपको काटे और उसका विष आपके रक्त में संचारित हो , तभी मृत्यु होगी। कोबरा नाग को देखने मात्र से कोई आदमी नहीं मरता। शंकराचार्य जी कहते हैं , जितने विषय हमको इन्द्रियों से दिखाई देते हैं , वे काले नाग के विष से भी अधिक विषाक्त हैं। ये हमें दूर से ही मार देते हैं। (29:29तो यह विवेक-प्रयोग हमें अपने दैनंदिन जीवन में हर समय करना होगा -नहीं तो पानी पिलाने वाली M/F को देह-दृष्टि से दूर से देखकर ही ज्ञानी -भक्त देवर्षि नारद जी 12 वर्ष तक माया में फँसे रहे थे। तोयहाँ भी  यह प्रश्न उठता है न, हम यहाँ निर्जन में 6 दिनों तक जिस विवेक-वैराग्य आदि साधन-चतुष्टय का अभ्यास कर रहे हैं , यहाँ से वापस लौटकर कैसे जीवन जियेंगे ?  तो इसी उदाहरण से अब हर चीज को विवेक पूर्वक अपने आचरण में उतारेंगे। विशेष कर ये अनात्मा -आत्मा में विवेक-दृष्टि अगर साफ होगी तो आप , बीच-बाजार में रहकर भी कभी किसी बुलबुलों से चिपकोगे नहीं। कोई भी चीज कामनी-कांचन , या नाम-यश और पद आपपर प्रभाव नहीं डाल सकेंगे। यही मुक्ति है। 

22.The art of living : ईश्वर दृष्टि जगत को देखकर व्यवहार करना नहीं तो हम, कामिनी -कांचन में नाम पद में, या विपरीत लिंग के आकर्षण को प्रेम समझकर उससे आसक्त हो जाते हैं, प्रभावित हो जाते हैं (30:00) हमारे मन का अपहरण हो जाता है। फिर कैसे आप मन को एकाग्र रखकर ध्यान कर पाओगे ? पढाई कैसे कर पाओगे ? आप संसार के चल-धमक और चकाचौंध के मध्य रहकर भी मन को विचलती नहीं होने दे सकते हो। मन किसी के रूप-सौंदर्य को देखकर आकर्षित -मोहित से रोकना बहुत बड़ी चुनौती है। कभी निकट जाकर चिपकना मत तभी अविचलित रह सकते हो। मन को किसी भी राग की वस्तु से प्रभावित नहीं होने देना। मन रूप-धन-यश  से आकृष्ट नहीं हो रहा है, प्रलोभित नहीं हो रहा है। यह तभी सम्भव होगा जब ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या विवेक हमेशा  जाग्रत रहेगा। सभी के साथ, घर के निकटतम सगे -सम्बन्धियों के साथ भी  देह-दृष्टि नहीं इसी ईश्वर-दृष्टि रखकर विवेक-जाग्रत दृष्टि से व्यवहार -आचरण करना प्रैक्टिकल लाइफ है , जीने की यही कला है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए आप दैनंदिन जीवन को कैसे जिओगे ? उसका यह सही जीवन का Road-map है इसको आप जीवन के हर व्यवहार में अपनाकर के देखियेमाँ सारदा देवी की कृपा से किसी को पराया दृष्टि से नहीं देखकर जिव -जगत को ईश्वर-दृष्टि से देखते हुए व्यवहार करने की आदत जब प्रवृति बन जाती है , तब किसी भी निकट सम्बन्धी के प्रति राग -द्वेष कभी मन का अपहरण नहीं कर सकेगा। नामरूप वाला स्थूल -जगत तो सम्मोहक वस्तु है ही , लेकिन जगत को माँ काली की दृष्टि से देखने पर, हमारी इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले कोई  आर्केस्ट्रा , थियेटर आपके मन को प्रभावित नहीं कर सकेगा। हमारे मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले सारी चीजों के बीच रहते हुए भी, ईश्वर-दृष्टि लाभ रूपी हम अपना उद्देश्य प्राप्त कर सकते हैं। तीनों ऐषणाओं से निर्लिप्त कैसे रहोगे ? विवेक के द्वारा हर जीव में ईश्वर-लाभ या माँ काली-दृष्टि लाभ से आप जीवनमुक्त होकर रहोगे। जब आपको आसक्ति और प्रेम का अंतर पता रहेगा, जब आपको यह याद रहेगा , कि विषय कितने घातक हैं , और कैसे हम इसमें बंध जाते है ? यह विवेक जाग्रत रहेगा तो जीवन अच्छी तरह जी सकोगे। इस प्रकार स्थूल -शरीर का विवरण वहाँ हो गया। (31:48

23. सूक्ष्म शरीर क्या है ? सूक्ष्म शरीर आठ चीजों से बनी हुई है।  

वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाश्रमुखानि पञ्च ।

बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥

अर्थ:-वागादि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, श्रवणादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणादि पाँच प्राण, आकाशादि पाँच भूत, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा- सूक्ष्म शरीर कहलाता है। 

8 चीजें क्या हैं ? ज्ञानइन्द्रिय, कर्मइन्द्रिय, प्राण, आकाश आदि पंचभूत तन्मात्रा,और पांचवा है अन्तःकरण चतुष्टय। इसके अतिरिक्त अविद्या, काम और कर्मये तीन भी सूक्ष्म शरीर का अंग माने गए हैं। अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है। काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। 

स्थूल शरीर जो बाहर दिखाई देता है , उसके पीछे और उसके भीतर और एक शरीर है जिसको सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। यह स्थूल शरीर सिर्फ इसका बाहर से एक मशीन है। स्थूल शरीर का पूरा संचालन सूक्ष्म शरीर से हो रहा है। सूक्ष्म शरीर के बगैर यह स्थूल शरीर कुछ नहीं कर सकता। और वह सूक्ष्म शरीर भी बुलबुला ही है -अनित्य है। वहाँ भी सबकुछ बदल रहा है। प्रति क्षण अन्यथा स्वभाव है। ये सूक्ष्म शरीर भी अनित्य है नश्वर है। (32:57)

24. सूक्ष्म शरीर के भीतर कारण शरीर: अब इस सूक्ष्म शरीर को भी संचालित करने वाली शक्ति का नाम क्या है ? सूक्ष्म शरीर के भी भीतर और पीछे एक कारण शरीर है।जो शक्ति सूक्ष्म और स्थूल दोनों शरीरों को संचालित कर रही है। वह शक्ति सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को भी संचालित कर रही है। इसीलिए उसको हम कारण शरीर (माया?) कहते हैं। जैसे ही हम कारण शरीर में प्रवेश कर जाते हैं , हम सृष्टि (-स्थिति -प्रलय) के मूल में ही पहुँच जाते हैं। तो आपका स्थूल शरीर संचालित हो रहा है , सूक्ष्म शरीर से, और सूक्ष्म शरीर किससे संचालित हो रहा है ? कारण शरीर से। 

25. और कारण शरीर क्या है(33:32) प्रभु परमेश्वर है , परमेश शक्ति है। तो सबको संचालित करने वाला है कौन ? हमको लगता है कि हम कुछ कर पायेंगे क्या ? ईश्वर की उपस्थिति के बगैर यहाँ एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। इस पूरे सृष्टि के मूल में वह परमेश शक्ति है। वह माया शक्ति है। विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में हम वहाँ माया का विवरण देखते हैं। दो श्लोकों में माया अतुलनीय विवरण भगवान शंकराचार्य जी हमें बताते हैं कि यह जगत क्या है ? माया ! माया क्या है ? जगत ! जगत क्या है ? माया ! माया क्या है ? जगत ! और माया (माँ सारदा है !) परमेशशक्ति है, परमात्मा की (अवतार वरिष्ठ की) अपनी ही शक्ति  [जो राम अवतार में माँ सीता बनी थी। कृष्ण अवतार में राधा बनी थी !]     

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।

कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११० ॥

अर्थ:-जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की परा शक्ति है (श्रीश्री माँ सारदा) , वही माया (जगतजननी-ज्ञानदायिनी) है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। बुद्धिमान् जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं।

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। नो

साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो  महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

अर्थ:- वह न सत् है, न असत् है और न [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और न [ भिन्नाभिन्न] उभयरूप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीय रूपा (जो कही न जा सके ऐसी) है

        हमने देखा था इस माया की जो वस्तुस्थिति होगी , वही इस जीव -जगत (pda-gp-rnn-dp) की वस्तुस्थिति भी होगी। क्योंकि जगत और माया एक ही हैं ! (34:26) तो इसकी वस्तुस्थिति क्या है ? हम इस माया के बारे में इतना ही कह सकते हैं - " महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं !" और कुछ नहीं कह सकते। इस जगत के बारे में भी हम इतना ही कह सकते हैं - " महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं !" क्योंकि ये  (pda-gp-rnn-dp) है , ऐसा  हम नहीं कह सकते। यह  (pda-gp-rnn-dp) नहीं है , हम ऐसा भी नहीं कह सकते। ये माया क्या ब्रह्म से भिन्न है ? हम ऐसा नहीं कह सकते। तो क्या ये माया ब्रह्म से अभिन्न है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। हम इसको सिर्फ  " महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं !" ही कह सकते हैं। ईश्वर की अपनी ही शक्ति इस रूप में प्रकट हो रही है , ईश्वर स्वयं इतने रूपों में प्रकट हो रहे हैं। क्या कहोगे ? यहाँ पर वह काली -उसका नृत्य चल रहा है। सृष्टि-स्थिति-प्रलय रूपी उस परमेश शक्ति काली का नृत्य अनादि -अनंत काल से चल रहा है देखिये चारों ओर क्या चल रहा है ? बुलबुले बन रहे हैं , टूट रहे हैं। सृष्टि-स्थिति -प्रलय रूपी उस परमेश शक्ति काली का नृत्य चल रहा है। 

  26. काली -शिव को ढँकती भी है दिखाती भी है !  तो हमने देखा शिव और काली ब्रह्म और शक्ति का अत्यंत सुन्दर प्रतीक है ! कैसे ? ये काली सत्य को ढँक रही है ! जब तक ये माया हटती नहीं है , तब तक शिव (अविनाशी आत्मा) का ज्ञान किसी को होना सम्भव नहीं है। (सत्य और शक्ति) तो माया अज्ञान का एक ऐसा पर्दा है , जिसके कारण सत्य (अविनाशी आत्मा) क्या है, इसको हम जान नहीं पाते हैं। लेकिन ये माया शक्ति ऐसी है , जो सत्य को ढँकती भी है और सत्य को दिखाती भी है। और वह जब सत्य को दिखाती है - शिवोहं का अनुभव करा देती है , तो उसीको हमलोग ईश्वर का अनुग्रह कहते हैं। तो यदि अनात्मा और आत्मा के विषय में यदि थोड़ी सी भी स्पष्टता आयी है ,तो यह वही परमेश शक्ति माँ काली करवा रही है , यह उन्हीं का अनुग्रह है। 

27. वेदान्त की परिणति भक्ति में : (36:30) वेदान्त सिद्धान्त बाद में परम् भक्ति में परिणत हो जाते है। अब हमारा दृष्टिकोण अब क्या होता है ? अगर हम जीव को खोजने जाते हैं -(स्त्री-पुरुष शरीर के भीतर और पीछे बैठे जीव को खोजने जाते हैं) तो जीव अदृश्य हो जाता है, और ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। और जगत को खोजने जाओ , तो जगत अदृश्य हो जाता है, ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। घड़े को खोजने जाओ तो मिट्टी मिल जाती है ! अंगूठी, कंगन, बाली का अगर विश्लेषण करने जाओ , तो नामरूप खो गया स्वर्ण प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार सतह पर बैठकर जीव -जगत,जीव -जगत,जीव -जगत, करते हैं उसको खोजो तो इसके मूल में ईश्वर ही है। ईश्वर ही जिव जगत के रूप में दिख रहा है। यहाँ पर ईश्वर ही है। एक ब्रह्म से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। तो जो भी हम देख रहे हैं , सब उसी ब्रह्म का ही रूप है। ईश्वर का ही रूप है। यही वेदान्त है ! यही सब उपनिषदों का अंतिम निर्णय है। इन्द्रियों के द्वारा भी हम जो कुछ देख रहे हैं , यह सब क्या है ? ईश्वर के ही विभिन्न रूप हैं। आत्मानुभूति के बाद, या अपरोक्ष ज्ञान के बाद अब हमारा दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल जाता है , या नहीं ? एक -दूसरे को देखने के प्रति पहले जो दृष्टि थी , उसमें आमूल परिवर्तन हो जाता है। पहले हम स्त्री-पुरुष, स्त्री-पुरुष, स्त्री-पुरुष, ऐसा भेद करके देखते थे। अब उसी दृष्टि ईश्वर के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। सम दृष्टि आती है कि नहीं ? कोई बड़ा -छोटा, सुंदर-असुंदर इन चीजों का कोई अर्थ ही नहीं रहता। सम दृष्टि आ जाती है , सब में आप ईश्वर देखते हो। इस दृष्टि से आप जो भी करोगे , वो सब ईश्वर की पूजा बन जाती है। आप क्या किसी की मदत कर सकते हो ? हम क्या किसी की मदत कर सकते हैं ? हम सिर्फ पूजा कर सकते हैं। आप यदि अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा कर रहे हो , तो आप कुछ अहसान नहीं कर रहे हो , उस वृद्ध व्यक्ति के ऊपर। वो तो ईश्वर का रूप है -आप ईश्वर की पूजा कर रहे हो। इसी दृष्टिकोण से आप अपने सारे रिश्ते-नातों को देख लीजिये ? ऐसे देखने से जीवन धन्य हो जाता है। पति पत्नी के लिए जो करता है , या पत्नी पति के लिए जो करता है , भाई -भाई के लिए जो करता है ? माता-पिता बच्चों के लिए जो करते हैं , पति, पत्नी बच्चे सब ईश्वर का रूप हैं। आप जो भी कर रहे हो -वो सब पूजा में परिणत हो जाता है। यही जीवन आदर्श गृहस्थ जीवन बन जाता है। दृष्टि बदलने से कर्म पूजा हो जाता है। आपका आचरण भी बदल जायेगा, एक दूसरे के प्रति कितना सम्मान का भाव पूजनीय भाव आ जाती है। अब आप किसी को छोटा करके नहीं देख पाओगे। सबके भीतर ईश्वर को देखने से सबके प्रति एक पूजनीय भाव आएगा। ईश्वर ही इतने विभिन्न रूपों में हमारे सामने खड़े हैं। 

28. आत्मा- अनात्मा का परोक्ष ज्ञान:  जान लेने के बाद बाकी के तीन प्रश्नों का उत्तर भी जान लिया। बंधन क्या है ? कथमेष आगतः,कथं प्रतिष्ठास्य, कथं विमोक्षः । आदि प्रश्नों का उत्तर भी देख लिया। गुरु उस शिष्य को सब उपदेश देने के बाद कहते हैं -अब तू जा ध्यान कर ! अभी तो सिर्फ ये परोक्ष ज्ञान हुआ है। तुमने तो अभी तक सिर्फ बुद्धि से समझा है। केवल बुद्धि से समझना से शिक्षा खत्म नहीं हुई है। जा अब साधना कर और वेदान्त सिद्धान्तों का साक्षात् अनुभव करना है। इसको अपरोक्ष अनुभूति में परिणत करना है। इसके लिए जा साधन कर। और वो शिष्य दीर्घकाल तक साधना करता है। और जो हमने सुना कि सब कुछ ईश्वर है - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , एक ही अनेक बन गया है। उसको जब इसकी अपरोक्ष अनुभूति हो जाती है। और अपरोक्ष अनुभूति हो जाने के पश्चात् दुबारा गुरु के पास आता है। और इस बार जब गुरु के पास आता है, तो स्वयं कहता है। उसकी अनुभूति कितनी सुंदर हैं -

क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् । 

अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम् ॥ (484)  

आत्मा के ब्रह्मानन्द में लीन होने पर जगत संसार विलुप्त हो जाता है। ऐसा लगता है कि अचानक दुनिया कहाँ गायब हो गई अभी तो यही थी बड़ा ही अद्भुत नजारा है। 

   शब्द बड़े सुंदर हैं। कोई चीज सामने है। (40:57) अभी नहीं है ? अभी तक मैं देख रहा था। अभी नहीं है ? कहाँ गया ? किसके द्वारा हटाया गया ? और कहाँ लीन हो गया ? थोड़ी देर पहले तक तो मैं जीव-जगत , जीव-जगत , जीव-जगत ,कर रहा था , अब देख रहा हूँ। जीव भी नहीं है जगत भी नहीं है ? एक ईश्वर ही है , क्या अद्भुत नजारा है ? क्या आश्चर्य है ? क्या आश्चर्य है ? हम सबों को भी ठीक यही अनुभूति होने वाली है ! ये शिष्य कोई अलग प्राणी नहीं है। ये सबके लिए है। कभी न कहि हमारी अनुभूति भी ठीक यही होने वाली है। 

      साधन चतुष्टय मार्ग से हम जब आगे बढ़ेंगे तो ये अपरोक्ष अनुभूति हर किसी को एक दिन होने वाली है। लेकिन शर्त है आपको गुरु-शिष्य परम्परा के निर्देशों का पालन करना होगा। जो करणीय है उसको नहीं करोगे , तो इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं करोगे। उस प्रकार का जीवन जीना होगा। इस प्रकार वो शिष्य लक्ष्य तक पहुँच जाता है। और वह खुद कहता है -मैं धन्य हूँ मैं कृतकृत्य हूँ ! मैं इस संसार के बंधन से मुक्त हो गया हूँ ! कैसे मुक्त हुआ ? तो आपके अनुग्रह से ! शास्त्र के अनुग्रह से। जिस शिष्य ने सत्य का अनुभव किया है , ऐसा जो व्यक्ति है जो आत्मज्ञानी है , जिसने सत्य को जान लिया है , जिसने मैं कौन हूँ ? के मैं के अर्थ का निर्धारण कर लिया है ; मतलब क्या ? मैं नहीं हूँ ! ईश्वर ही है। यह अंतिम बात ! (43:00)

29. सन्तोष धन : गोविन्द का है -उसको मेरा कहना ही भाव के घर में चोरी है  जिस व्यक्ति ने इस प्रकार जान लिया है कि घर-परिवार, धनदौलत सब गोविन्द का है -मेरा नहीं है , अब वो व्यक्ति कैसा होगा ? आप उस व्यक्ति की कल्पना रमण महर्षि , रामकृष्ण परमहंस देव हों , ऐसे किसी महापुरुष के चित्र को आप सामने रखकर देखिये। उसकी वर्णना कितनी सुंदर है।    

निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबलः ।

नित्यतृप्तोऽप्यभुञ्जानो,ऽप्यसमः समदर्शनः ॥ ५४३ ॥ 

543. Though without riches, yet ever content; though helpless, yet very powerful, though not enjoying the sense-objects, yet eternally satisfied; though without an exemplar, yet looking upon all with an eye of equality.

Notes: Powerful: The Atman is his wealth, power, and everything.

     लंगोटधारी रमण महर्षि के चित्र को देख लीजिये। उनके कितने बैंक एकाऊंट्स होंगे ? बैंक बैलेंस कितना है ? हमारे तो कई बैंको में अकाउंट रहता है। हम गृहस्थ हैं , हमें अपने बैंक अकाउंट्स बंद करने की जरूरत नहीं है। उस अकॉउन्ट को रहने दीजिये सिर्फ उसमें आसक्ति -राग नहीं होना चाहिए। उसके प्रति मैं और मेरा बुद्धि नहीं रहनी चाहिए। जो है वो प्रारब्ध से आ रहा है। उस आत्मज्ञानी व्यक्ति का वर्णन इस प्रकार है। उसके पास कुछ भी नहीं है , एकदम निर्धन हैं। धन माने लौकिक जमीन -जायदाद उसके पास कुछ भी नहीं है; लेकिन सदा तृप्त है !-निर्धनोऽपि सदा तुष्टः/ यह वेदान्ती हर समय सन्तुष्ट है। सन्तुष्टि के साथ धन का कुछ लेना देना है क्या? इसको इसी समय निर्धारित कर लेना चाहिए। हमारे पास इतना धन होते हुए भी कोई सन्तुष्ट है क्या ? हम तो धनी होकरके भी सदा असंतुष्ट हैं। किसी भी धनी व्यक्ति को नजदीक से देखिये उसकी तुष्टि हो गयी है ? वो तो धन के प्रति उसका लोभ और बढ़ गया है। और और भी अशांत है। और ये व्यक्ति उसके पास - कामिनी, कंचन , पदनाम यश कुछ भी नहीं है , वो सदा तुष्ट है। सब समय संतुष्ट है। आप रमण महर्षि को देख लीजिये , रामकृष्ण परमहंस को देख लोजिये। लौकिक धन कुछ भी नहीं है। स्वामी विवेकानन्द को लीजिये जेब में एक पैसा नहीं है। लेकिन सदा संतुष्ट ! उनकी संतुष्टि कहाँ से आती है ? ईश्वर से। ईश्वर में (60 तो 100 % निःस्वार्थपरता ?) में   प्रतिष्ठित होने पर , आप पूर्ण हो जाते हो। 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

                                              -वृहदारण्यक उपनिषद    

हम सब स्वभावतः पूर्ण ही हैं। लेकिन अज्ञान के कारण (अविद्या -देहबुद्धि से ?) हमको लग रहा है कि हम अपूर्ण हैं। तो जब अपरोक्ष ज्ञान होगा , तो क्या ज्ञान होगा ? ईश्वर ही है। जब आत्मज्ञान होगा तो परम् संतुष्ट हो जायेंगे। वह सन्तुष्टि लौकिक धन केंद्रित नहीं होता है। एक प्रसिद्द भजन है -पायो जी मैंने राम रतन धन पायो ।

वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु ।

कृपा कर अपनायो ॥

जन्म जन्म की पूंजी पाई ।

जग में सबी खुमायो ॥

खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे।

दिन दिन बढ़त सवायो॥

सत की नाव खेवटिया सतगुरु।

भवसागर तरवयो॥

मीरा के प्रभु गिरिधर नगर।

हर्ष हर्ष जस गायो॥

राम रतन धन ही असली धन है। वो धन मीरा जी को कहाँ से मिला ? गुरु की कृपा से , शास्त्र की कृपा से। शास्त्र की कृपा से गुरु की कृपा से ये धन मिलता है। और ये धन जिसके पास है , वही सच्चा धनी व्यक्ति है। सांसारिक धन व्यक्ति को और भी असंतुष्ट बना देती है। देखिये वर्णाश्रम धर्म के अनुसार गृहस्थ को धन उपार्जन करना है। लेकिन सीखना ये है कि, यह मत समझिये कि धन आपको सन्तुष्ट बना देगा। Don't think that money is going to make you happy ! आपको गृहस्थ आश्रम में धन का उपार्जन करना है , पर अपने को उसका मालिक नहीं समझना है , trusty समझो। धन समस्या नहीं है , समस्या राग का है। गृहस्थों के पास लौकिक धन पर्याप्त होना चाहिए। आप  गरीब क्यों रहोगे ? गरीबी तो अभिशाप है। You should have sufficient wealth. Earn sufficiently! Lead a decent and dignified life. आपके पास पर्याप्त धन होना चाहिए। पर्याप्त कमाएँ! एक सभ्य और सम्मानजनक जीवन जिएँ। किन्तु धन सम्पत्ति में राग Attachment नहीं होना चाहिए। और आपके पास जो भी संसाधन हैं, उसे दूसरों के कल्याण के लिए सदुपयोग करने के लिए तत्परता चाहिए। विश्व ब्रह्माण्ड की समस्या का समाधान करने वाले हम कौन हैं ? लेकिन कोई मुश्किल में पड़ा व्यक्ति आपके पास आता है, तो उसकी सेवा करने लिए तैयार रहना चाहिए। हमारे पास जो अधिक है उसे देने में संकोच नहीं करना चाहिए। मेरा धन है -ऐसा नहीं सोचकर ये तो भगवान का धन है , ऐसा सोचना चाहिए। हमारे देश ऐसी प्रथा रही है कि -जो भी अवतार वरिष्ठ के भक्त हैं , वे कुलदेवता या , वे कुलदेवी को ही घर का मालिक समझते हैं। हम सिर्फ इस घर के caretaker हैं -दरवान हैं। वो देवी जीवंत है। उस घर का सारा कार्यक्रम कुलदेवी के सलाह से ही होता है। यदि घर के दरवान को कुछ खरीदना होगा तो कुलदेवी की कृपा से होगा। उनसे सम्मति लेंगे , प्रार्थना करेंगे। जो भी घर में आएगा वो गोविन्द के लिए ही आएगा। घर का रसोई घर भी कुलदेवी का है। भोजन गोविन्द के लिए बन रहा है , हम सिर्फ प्रसाद खा रहे हैं। घर में नया मेम्बर आता है - तो गोविन्द का है। मैं मेरा बेटा का दृष्टिकोण नहीं रहना चाहिए। आपका बेटा कहाँ से हुआ ? (51:11) आपने उसकी हड्डी बनाई ? अपने उसका रक्त बनाया ? हड्डी -रक्त जो भी है ये किसका है ? मूल में कौन है ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - जब आप कह रहे हो ये मेरा बेटा है , तब आप झूठ बोल रहे हो। किसी और के समान को अगर मैं कहूं कि ये मेरा है , तो फिर ये चोरी हो गया। हमलोग सतत ये चोरी कर थे हैं। जब हम मेरा मकान , दुकान , बिजनेस, कहते हैं, तो हम चोरी कर रहे हैं। सबकुछ ईश्वर का यह जानकर भी आप कहते हैं ये मेरा है। यहाँ पर कोई भी ऐसा चीज है जो ईश्वर का नहीं है ? उसको जो मेरा कहेगा -वो कभी संतुष्ट नहीं होगा। घर-परिवार सब तेरा मैं सिर्फ उसका देखभाल करने वाला हूँ। तू जगन्नाथ है ! पूरे परिवार का मालिक है। इस प्रकार एक आदर्श जीवन जिया जाता है। जहाँ पर किसी भी चीज के लिए 'मैं' और 'मेरा' का भाव नहीं सब गोविन्द का है - अर्थात इन्द्रियातीत सत्य -ईश्वर का है ! नवनी दा का परिवार 300 साल तक ऐसा ही था !कुछ परिवार आज भी है। श्री नवनीहरण मुखोपध्याय के पितामह श्री श्रीषचन्द्र मुखोपाध्याय की तंत्र गुरु उनकी माता जी थीं, नवनी दा के पितामह आशुतोष मुखोपाध्य को दीक्षा के लिए तैयार थे।  जो काशीपुर निवासी श्री महिमाचरण चक्रवर्ती (श्रीरामकृष्ण वचनामृत/श्री श्री रामकृष्ण महिमा : अक्षय कुमार सेन :/mahamandal blog  शनिवार, 7 जुलाई 2018) की कन्या थीं। स्वामी विवेकानन्द ने उनको गुड़िया दी थी।)] अर्थात उनका पूरा परिवार  गोविन्द  केंद्रित चलता है , वे सिर्फ caretaker ' देखभाल करने वाले हैं । धन को गोविन्द का धन समझकर धन को आने दो। तुम जगन्नाथ के दास हो सिर्फ caretaker हो। धन समस्या नहीं है , उसके प्रति जो मेरा भाव है -वही भाव के घर में चोरी है। (52:56) धन मेरा कहाँ से हुआ? वो धन गोविन्द का है , और गोविन्द के काम (भारत माता काम)  के लिए खर्च करना है। अर्जित धन को भारत माता के कल्याण के लिए लगाना है। तो ऐसा जो महापुरुष है श्रीरामकृष्ण परमहंस की तरह, या रमण महर्षि की तरह , का जो व्यक्ति है -इनके पास कोई भी लौकिक धन नहीं है , किन्तु सदा संतुष्ट हैं ! ये संतुष्टि क्या अद्भुत है ! कितना अद्भुत है ! रमण महर्षि या स्वामी विवेकानन्द की संतुष्टि विचारणीय है।  

गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।

 जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥६॥ 

(सन्त तुलसी दास )

सभी महापुरुषों की ऐसी अद्भुत संतुष्टि अगर विचारणीय नहीं है तो इन सभी को ऐसी सन्तुष्टि आती कहाँ से है ? कहाँ से आती है ? ईश्वर से गई आती है। लौकिक धन में आसक्ति के साथ इन महापुरुषों का कोई लेनादेना नहीं है। 

30. जो ब्रह्माण्ड को पार कर गया वो महाबली: 

      आप रमण महर्षि को बाहर से देखोगे तो आपको लगेगा कि ये व्यक्ति कितना असहाय है ? असहायो अपि महाबलः - जिसको अपरोक्ष अनुभूति वो महाबली है जो ब्रह्माण्ड को पार कर गया : फिर  क्योंकि उसके पास कोई सामाजिक बल -ऊँचा पद नहीं है। इनके पास न तो धनबल है, न तो बाहुबल है , अकेले रहते हैं। कोई बड़ा राजनितिक दल उनके पीछे नहीं है। असहाय दीखते हैं। लेकिन महाबली हैं। उनसे बढ़कर भी कोई बली है क्या ? वो तो ब्रह्माण्ड को ही पार कर गए हैं ! हम तो ब्रह्माण्ड में फँसे हुए हैं। दुर्बल हैं। हम सब गुलाम है (ऐषणाओं के गुलाम हैं) वो तो राजा है ! (अष्टमी पूजा 30 सितम्बर , 2025 ) रमण महर्षि को बाहर से देखो तो असहाय लगते हैं। लेकिन सच्चाई में राजा है कि नहीं ? रामकृष्ण परमहंस -क्या हैं ? महबली है ! बाहर से देखो तो असहाय लगेगा , लेकिन महाबली है। 

31.विषयभोग नहीं करते पर नित्य तृप्त हैं  फिर क्या ? ये लोग कोई भी विषयभोग नहीं करते। नित्य तृप्तो अपि अभुञ्जानो अपि: -कोई भोग न करके भी सदा नित्य -तृप्त हैं ! और हमलोग सारे विषयभोगों में डूबकर भी सदा अतृप्त हैं। अन्तर देख रहे हैं ? हमलोग सारे इन्द्रियों का भोग करके भी सदा अतृप्त हैं।  ये लोग इन्द्रियों के विषयों का भोग न करके भी सदा तृप्त हैं। क्या अद्भुत है -इसलिए विचारणीय है। कि इन्द्रिय भोगों में कुछ नहीं रखा है। भोगों में डूबे रहना उस कुँए में गिरने के समान है , जिसका तल ही नहीं हो। हमें पहुँचना है ईश्वर में -आत्मलाभ या ईश्वरलाभ में ही सारी समस्यायों का समाधान है। फिर क्या हैं ? 

32. नेता (गुरु) मनुष्य जैसे दीखते हैं पर वे असम-वे असाधारण  हैं : असमः समदर्शनः -महापुरुष लोग बाहर से आपके और मेरे तरह ही दीखते हैं। बाहर से गुरु भी हमारे जैसे दो पैर -दो हाथ के साधारण मनुष्य ही दीखते हैं। लेकिन ये लोग असम हैं-का मतलब चार हाथ नहीं होने पर भी ये अपरोक्ष ज्ञानी -They are extraordinary ! बाहर से देखो तो बहुत ordinary लगता है , हमारी तरह। भूख लगने पर वे भी रसोई में जाकर खाना खाएंगे। बीमार पड़ेंगे तो दवा लेने डॉक्टर के पास जायेंगे। सचपूछो तो ऐसे लोगों को पहचानना मुश्किल है। बाहर से देखकर आप उनको पहचान नहीं सकते हो। बाहर ऐ आपकी -हमारी तरह ही खातेपीते सोते हैं , बीमार पड़ते हैं , दवाई खाते हैं। लेकिन भीतर ईश्वर ज्ञान , ब्रह्मानन्द में डूबे  हुए हैं। नेता (वेदांती) लोग असम हैं -They are not like the common people . बाहर से उनको पहचनना कठिन है। तो इस श्लोक आत्मज्ञानी महापुरुषों की सुंदर वर्णना है। 

भगवान शंकराचार्य जी आध्यात्मिक विज्ञान सर्वश्रेष्ठ गुरु माने जाते हैं , विशेषकर के वे अद्वैत दर्शन के ज्ञानी माने जाते हैं। लेकिन यहाँ देखिये वे क्या कह रहे हैं ? बहुत रोचक बात कहते हैं , हमलोग भगवान शंकरायाचार्यजी को ज्ञानी ही कहते हैं , पर वे क्या कहते हैं > कहते हैं कि इस मोक्ष प्राप्ति में सबसे उत्तम साधन भक्ति है। हमने अभी जो वेदांत चर्चा किया वो परम भक्ति में समाप्त हुई।  अब आप सही अर्थों में भक्त होंगे। भक्त किसे कहेंगे , उस विषय में हमारी समझ अभी बहुत मोटी है। दिया,घंटी , शंख फूंकना प्रारंभिक है , वास्तविक भक्त वो है जो सर्वत्र भगवान को ही देखता है। और वह समझ अद्वैत ज्ञान से ही आता है। अद्वैत ज्ञान और भक्ति एक  ही है। जब आपको यह समझ में आ गया कि -ब्रह्माण्ड पर करके लौटने के बाद जगत ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं , तब क्या होगा ? आप सब समय भक्ति भाव में ही रहोगे। आप भक्त हो जाओगे। 

33. मोक्ष-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है सत्य की खोज : और मुक्ति प्राप्ति के लिए वह स्वरुप अनुसन्धान रूपी भक्ति सर्वश्रेष्ठ साधन है। (59:21)  

मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी ।

स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ॥ ३१ ॥ 

-अरे भाई , मोक्ष का जो कारण का जो सामग्री है, उसमें सबसे श्रेष्ठ भक्ति ही है। और भक्ति क्या है ? कर्मकाण्डी अनुष्ठान करके भी भक्ति होती है ,वो प्रारम्भिक अवस्था में ठीक है। अपने वास्तविक स्वरुप का अनुसन्धान करना -हमारा स्वस्वरूप तो ईश्वर है , तो इसका अर्थ हुआ ईश्वर का (परम् सत्य) का अनुसन्धान करना ही 'भक्ति' कहलाता है। आपका स्वरुप क्या है? ईश्वर ही है न ?  स्वस्वरूप अनुनुसन्धानं - माने अपने स्वरुप की खोज

     हमलोगों ने वही खोज किया - सामने जो दीखता है - वो स्थूल शरीर है। स्थूल शरीर के भीतर और पीछे सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म के भीतर कारण शरीर है। यही तो अनुसन्धान है। सत्य का अनुसन्धान , ईश्वर ही सत्य है , स्व-स्वरुप तो ईश्वर ही है। उस ईश्वर का अनुसन्धान करना -यही भक्ति है। बाहर प्रकट रूप की पूजा करना भी ठीक है। वो भी भक्ति है। बाहरी पूजा शुरुआत में ठीक है। वास्तविक भक्ति है अपने स्वरुप की खोज करना। यही ईश्वर की जो खोज है , यह जो सत्य को देखने की जो जिद है , ईश्वर की जो खोज है यही मोक्ष की सर्वश्रेष्ठ सामग्री है। नरेन्द्रनाथ की खोज का प्रश्न -महाशय क्या आपने ईश्वर को देखा है ? हमलोग भी यही खोज कर रहे थे , तो हमलोग भी भक्ति ही कर रहे थे। हमलोग ईश्वर का अनुसन्धान कर रहे थे -तो देखो भक्ति भाव आ गया। जब हृदय के भक्ति का भाव जग गया तो ईश्वर को आप किसी भी रूप में देख सकते हैं। जिसको राम के रूप में देखना हो , राम के रूप में देख लीजिये। कृष्ण के रूप में देखना हो तो कृष्ण के रूप में। शिव , काली -दुर्गा रूप को देख लीजिये। जिसको निराकार ईश्वर देखना हो -निराकार देख लीजिये। ईश्वर निराकार भी है वो साकार भी है(1:01:11)  

34:  ध्यान का मनोभाव -(Attitude in Meditation) 

    अब कुछ ध्यान श्लोक हैं उसको हम पढ़ लेते हैं। Verses on meditation बहुत सुंदर हैं -254 से 264 तक के श्लोक और इसका अर्थ हमलोग यहाँ देख लेते हैं। ये हमलोग प्रतिदिन पाठ कर सकते हैं। हर छंद की अंतिम पंक्ति है - ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ हर समय यह चिंतन करो कि जो कुछ है -ईश्वर ही है !(1:06:10)  

जातिनीतिकुलगोत्रदूरगं

नामरूपगुणदोषवर्जितम् ।

देशकालविषयातिवर्ति यद्

           ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५४ ॥

सब उपदेश देने के बाद गुरुदेव आदेश दे रहे हैं -  जो जाति-पाँति, कुल-वंश से परे है; नाम-रूप, पुण्य-पाप से रहित है; देश, काल और निमत्त से परे है - वही ब्रह्म तू है, इसका मन में ध्यान कर।

जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियों से परे हैं , ब्राह्मण-क्षत्रिय -वैश्य -शूद्र ये सब तो देह केन्द्रित बातें हैं। स्थूल शरीर या देह को लेकर ही ये सब विभाजन हैं , वर्गीकरण हैं। ईश्वर क्या हैं ? ईश्वर तो उससे परे हैं।  जाति के बाद नीति - जो समाज नीति, राजनीति , आदि नीतियों से भी परे हैं। जो कुल-गोत्र -भी देह केंद्रित है , लेकिन ईश्वर कुल-गोत्र से भी परे हैं। जो नाम-रूप, गुण -दोष, देश-काल, तथा सभी विषयों से भी परे हैं।   ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि-ऐसा जो ब्रह्म -सच्चिदानन्द है , वह तुम ही हो ! अपने मन में ऐसा चिंतन करो !अपने अन्तःकरण में ऐसा ध्यान करो ! कैसा ध्यान करें ? यही कि वह जो ब्रह्म है -वह तुम्हीं हो। मतलब तुम नहीं हो, ब्रह्म ही है -ऐसा ध्यान करो ! तुम ब्रह्म हो का मतलब क्या है ? तुम नहीं हो ; ब्रह्म ही है ! तुम अजय नहीं है - ब्रह्म ही है , ईश्वर ही है। ऐसा ध्यान करो। इन 10 श्लोकों का अंतिम पंक्ति यही है कि तुम अजय नहीं है - ब्रह्म ही है , ईश्वर ही है। ऐसा ध्यान करो की तुम नहीं हो , ईश्वर ही है ! मैं नहीं हूँ ! ईश्वर ही है!  मैं नहीं हूँ ! ईश्वर ही है! मैं नहीं हूँ, ईश्वर ही है! तुम ऐसा ध्यान करो।  

यत्परं सकलवागगोचरं

गोचरं विमलबोधचक्षुषः ।

शुद्धचिद्घनमनादि वस्तु यद्

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५५ ॥

  वह परम ब्रह्म जो समस्त वाणी से परे है, जो सब विषयों से परे है। सकल वाक अगोचरं - वाणी से गोचर होने वाला नहीं है। कहने का मतलब ईश्वर इन्द्रियों का विषय नहीं है। गोचरं विमल बोधचक्षुषः - ये गोचर कैसे होता है ? बोध चक्षु के द्वारा ईश्वर गोचर होता है। चर्म -चक्षु से ईश्वर गोचर नहीं होता है। बोध चक्षु का अर्थ है -विवेक और ज्ञान , दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत ! (1:08:39हमने अभी यही चर्चा किया न ? साधन-चतुष्टय का अभ्यास करते -करते जब हमारे अंदर विवेक जग गया , 10 % भी जग गया ? श्रेय-प्रेय भी समझ गए। सत्य-मिथ्या की समझ न भी हुई , यह समझ गया कि ईश्वर ही जीव और जगत बन गया है। हमारी बोध चक्षु जब बंद थी, हमको समझ में नहीं आ रहा था। शास्त्र और गुरु की कृपा से बोध-चक्षु जब थोड़ी सी खुलने लग गयी ; तो हम यह आकलन कर पा रहे हैं कि ईश्वर ही जगत बन गया है !  

शुद्ध चित्त घनं अनादि वस्तु- ईश्वर शुद्ध, चित्त घन है। चैतन्य घन है -शाश्वत चैतन्य है , और अनादि वस्तु है । ऐसा जो ब्रह्म या ईश्वर चैतन्य घन है , वही है। मैं नहीं हूँ। ऐसा ध्यान कर ! मैं वही ईश्वर हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ -कहने का क्या मतलब है ? मैं नहीं हूँ , ब्रह्म ही हैं ! मैं ईश्वर हूँ -अर्थात मैं नहीं हूँ , ईश्वर ही है ! ऐसा ध्यान कर ! ईश्वर से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है। न तो जीव है न जगत है। जैसा दिख रहा है -वैसा नहीं है , ईश्वर ही है। ऐसा ध्यान कर। 

36. ईश्वर कैसा है :  

षड्भिरूर्मिभिरयोगि योगिहृद्

भावितं न करणैर्विभावितम् ।

बुद्ध्यवेद्यमनवद्यमस्ति यद्

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५६ ॥

ईश्वर छह तरंगों से अतीत है।  षड्भिः उर्मि -उर्मि का अर्थ है तरंग। अस्तित्व की छह तरंगें। वह ब्रह्म या आत्मा 1.भूख, 2.प्यास, 3. शोक (दुःख), 4.मोह (भ्रम) , 5.वार्धक्य, तथा 6. मृत्यु  इन छः तरंगों से अतीत है। हमारे जीवन में ये छह तरंग दिखाई देता है। लेकिन ईश्वर कैसा है इन छः तरंगों से परे है। जिसका चिन्तन योगी लोग अपने ह्रदय में चिंतन करते हैं -जो इन्द्रियातीत है। ईश्वर में ये छह तरंगे नहीं हैं। जो बुद्धि के परे है , ऐसा जो निर्दोष ब्रह्म है , वह तुम्ही हो। ऐसा चिंतन अपने अन्तःकरण में करो। ईश्वर में कोई दोष नहीं है , ऐसा जो निर्दोष ईश्वर है -वही है , मैं नहीं हूँ ! ऐसा तू ध्यान कर।  

37. जगत भ्रान्ति द्वारा कल्पित है :

भ्रान्तिकल्पितजगत्कलाश्रयं

स्वाश्रयं च सदसद्विलक्षणम् ।

निष्कलं निरुपमानवद्धि यद्

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५७ ॥      

जो भ्रान्ति द्वारा कल्पित इस जगत का तथा इसके अंशों का आश्रय है। जो स्वयं ही अपना आश्रय है। जो कारण तथा कार्य अर्थात सूक्ष्म तथा स्थूल से भिन्न है। अवयव रहित अर्थात अखण्ड है। जिसकी कोई उपमा नहीं हो सकती। ऐसा जो ईश्वर ब्रह्म है , वह तुम ही हो। ऐसा अपने अन्तःकरण में ध्यान कर।  (1:12:56) जगत तो भ्रान्ति द्वारा ही कल्पित है। जगत कहाँ है ? हम भ्रान्ति में ही जगत को देखते हैं। जब भ्रान्ति चली जाती है , तब देखते हैं कि ये तो ईश्वर ही है। ईश्वर (अवतार-वरिष्ठ) कैसे हैं ? ईश्वर स्वाश्रयं - उनका कोई आश्रय नहीं है ! लेकिन जगत भ्रान्ति कल्पित है। जगत अज्ञान पर खड़ी है। माया पर खड़ी है। वो सत् असत् विलक्षणं 'स्थूल और सूक्ष्म शरीर के भी परे है। ऐसा जो ईश्वर है वही है, तू नहीं है। 

38. ईश्वर छः तरंगों से अतीत है

जन्मवृद्धिपरिणत्यपक्षय

व्याधिनाशनविहीनमव्ययम् ।

विश्वसृष्ट्यवविघातकारणं

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५८ ॥  

उनका न तो जन्म है , न वृद्धि है , न व्याधि है, न तो नाश होता है। क्योंकि ये सब देह केंद्रित है।   घड़ा टूट सकता है , खराब हो सकता है , परिवर्तन घड़े का है। मिट्टी को क्या होना है ? तरंगे शरीर में है -ईश्वर में नहीं है।  ईश्वर ही विश्व के सृष्टि अविघात कारणं -जो इस जगत की सृष्टि, स्थिति और विनाश का कारण है। वही ईश्वर ,महामाया, ब्रह्म अपने माया शक्ति के द्वारा सृष्टि-स्थिति और विनाश कर रहे हैं। सब उसी परमेश शक्ति का ही खेल चल रहा है। ऐसा जो ईश्वर है -वही है , तू नहीं है। ऐसा ध्यान कर। (1:15:27)

39. ईश्वर में अपना -पराया भेद नहीं है

अस्तभेदमनपास्तलक्षणं

निस्तरङ्गजलराशिनिश्चलम् ।

नित्यमुक्तमविभक्तमूर्ति यद्

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २५९ ॥

ईश्वर में सारे भेद अस्त हो जाते हैं। स्तर-पुरुष, सुंदर -असुंदर जो सतह पर भेद करते हैं। ईश्वर दृष्टि आ गयी तो भेद समाप्त हो जाता है। अब हम सब में ईश्वर को देख रहे हैं। ईश्वर वो है जिसमें सारा भेद नष्ट हो जाता है। जो अस्ति या सत्ता मात्र लक्षण वाला है। सत्ता तो एकमात्र ईश्वर का ही है। जीव और जगत अस्तित्व में है - ऐसा हमको प्रतीत हो रहा है ! अस्तित्व में तो सिर्फ ईश्वर ही है। जो सत्ता मात्र लक्षण वाला है, जो तरंग रहित समुद्र की भांति निश्चल है। ऐसा जो ब्रह्म है ईश्वर है वही है , तू नहीं है। ऐसा तू ध्यान कर। (1:16:54

40. सारे कारणों का कारण ईश्वर है  

एकमेव सदनेककारणं

कारणान्तरनिरास्यकारणम् ।

कार्यकारणविलक्षणं स्वयं

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६0 ॥ 

 जो एक मात्र सत्ता होकर भी अनेक का कारण है , ईश्वर एक ही है, लेकिन सारी विचित्रतायेँ वो ही खड़ी करती है। वो एक काली ही है -लेकिन हमको अनेक दीखता है। ब्रह्म एक ही है लेकिन वो अपने माया शक्ति के द्वारा अनेकत्व की सृष्टि कर रहे हैं। सारे कारणों का कारण ईश्वर है !  अब यहाँ भी Physics आ गया न ? लौकिक विज्ञान हम हम युक्ति लगाते है-किसका कारण क्या है ? Logic and reasoning, सभी प्रकार का causality क्या है ? सारे कारणों का मूल कारण कौन है ? ईश्वर है ! लेकिन जो स्वयं कार्य तथा कारण से भिन्न है। ईश्वर में कार्य-कारण कुछ नहीं है। ईश्वर क्या ऐसा सोचते हैं कि जगत मेरा कार्य है , मैं इसका कारण हूँ ? ईश्वर ही तो है कार्य-कारण कहाँ है ? लहरे भी समुद्र ही हैं। बुलबुले भी समुद्र ही हैं -अब इसमें कारण क्या कार्य क्या है ? ऐसा जो ईश्वर है , वही है -तू नहीं है। ऐसा ध्यानकर। (1:18:52

41. क्षर और अक्षर क्या है ? 

निर्विकल्पकमनल्पमक्षरं

यत्क्षराक्षरविलक्षणं परम् ।

नित्यमव्ययसुखं निरञ्जनं

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६१ ॥  

जो निर्विकल्प ,असीम, तथा अविनाशी आत्मा है , वह क्षर-अक्षर माया से भी ऊपर है। क्षर माने यहाँ जो कुछ भी इन्द्रियों से दिख रहा है , सब बदल रहा हैऔर अक्षर क्या है ? अक्षर का मतलब है माया (परमेश शक्ति)। जो बदलता हुआ दिख रहा है, उसके मूल में तो माया है। तो माया और माया का कार्य - ये है क्षर -अक्षर ! जो माया से भी ऊपर है , सर्वश्रेष्ठ , चिरंतन , नित्यानंद स्वरुप निरंजन निष्पाप है, वह ब्रह्म , ईश्वर वही हैं, तुम नहीं हो। ऐसा तू ध्यान कर। (1:20:08) 

42. दृष्टि कहाँ टिकी है - स्वर्ण में या आभूषण में ? (Where is the focus – on gold or on jewellery?)

यद्विभाति सदनेकधा भ्रमान्

नामरूपगुणविक्रियात्मना ।

हेमवत्स्वयमविक्रियं सदा

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६२ ॥   

गढ़े हुए गहनों में जो हर समय निर्विकार है -वो स्वर्ण (आत्मा) है। सारे आभूषण  अंगूठी, कान की बाली , कंगन आदि के नाम-रूप अलग अलग हैं, बनते तो स्वर्ण से ही हैं।  वास्तव में सब स्वर्ण ही है। ये जो स्वर्ण के विभिन्न आभूषण हैं, आपकी दृष्टि अगर उसके रूप में ही अटकी हुई होगी, तो आप कहोगे -ये कान की बाली है , ये नथ है। लेकिन आपकी दृष्टि अगर स्वर्ण में टिकी हो, तो फिर आभूषण कहाँ है , सब स्वर्ण ही तो है। आभूषण को पिघला तो स्वर्ण ही रहेगा। आभूषण स्वर्ण से अतिरिक्त कुछ है क्या ? स्वर्ण सभी समय निर्विकार है , उसके नाम-रूप बनेंगे -बिगड़ेंगे। रूप चला गया तो आभूषण फिर स्वर्ण हो गया। स्वर्ण सब समय है। लेकिन रूप बनते हैं , बिगड़ते हैं। जो ईश्वर हर समय निर्विकार है परन्तु भ्रमवश , नाम, रूप , गुण तथा क्रिया की सत्ता से अनेक रूपों में प्रकट होता है। एक ही मिट्टी नाम-रूप और क्रिया में अलग अलग रूपों प्रकट हो रही है। मिट्टी को नाम रूप दे दिया तो घड़ा हो गया। घड़े में क्रिया है , घड़े का प्रयोजन है -उसमें जल रहेगा इसलिए वो विभिन्न नमरूपों में प्रकट हो रहा है।  नाम रूप, गुण , क्रिया सब भ्रमवश चलता है। है तो मिट्टी ही न ? मिट्टी से अतिरिक्त घड़े का कोई अस्तित्व है क्या ? सभी आभूषणों का स्वर्ण से अतिरिक्त कोई अस्तित्व है क्या ? उसको एक नाम रूप दे दिया तो -वो बाली हो गया, क्रिया हो गयी तो उसको कान में पहन लेते हैं। नाम-रूप क्रिया सब भ्रमवश चलता है। है  तो स्वर्ण ही। लकिन वही भ्रमित होकर नाम-रूप- गुण  तथा सत्ता की क्रिया से प्रकट होता है। वह ब्रह्म ईश्वर वही है , तुम नहीं होऐसा तुम ध्यान करो आपकी  दृष्टि कहाँ टिकी है ? स्वर्ण में या आभूषण में ? (1:22:31

43. जा 'अब', तू खुली आँखों से ध्यान कर :(दुर्गा पूजा ,नवमी तिथि, दिन- बुधवार, समय प्रातः 6:55, तानुसार 1 अक्टूबर, 2025)    

यच्चकास्त्यनपरं परात्परं

प्रत्यगेकरसमात्मलक्षणम् ।

सत्यचित्सुखमनन्तमव्ययं

ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥ २६३ ॥

 263. 'That'  beyond 'which' there is nothing; which shines even above Māyā, which again is superior to its effect, the universe; the inmost Self of all, free from differentiation; the Real Self, the Existence-Knowledge-Bliss Absolute; infinite and immutable 'that Brahman art thou', meditate on this in thy mind.

263. जिसके परे कुछ भी नहीं है; जो माया से भी ऊपर प्रकाशित है, जो उसके प्रभाव से भी श्रेष्ठ है, जो जगत् है; जो सबका अंतरतम आत्मा है, जो भेद से रहित है; जो सत्-ज्ञान-आनंद है, वह अनंत और अक्षर है - वह ब्रह्म तू ही है, इसका मन में ध्यान कर।

जिससे भिन्न कुछ भी नहीं है देखो, हमलोग इसी पर तो चर्चा कर रहे हैं न? ईश्वर से भिन्न कुछ है क्या ? सब ईश्वर ही है।  जो बुद्धि के भी परे हैं। जो सभी की एक रस अन्तरात्मा हैं। ईश्वर हमारी अंतरात्मा है। प्रत्यक आत्मा है। भीतर झांककर के देखो तो सब में प्रभु राम बैठे है। ईश्वर सब की अन्तरात्मा है , सब के भीतर बैठे हैं। जो सच्चिदानंद स्वरुप हैं , और वो राम क्या है ? ब्रह्म ही है, और कुछ नहीं है। सच्चिदानंद ब्रह्म ही हैं। जो सच्चिदानन्द स्वरुप है , अनंत और अव्यय के रूप में प्रकाशित हो रहा है। वह ब्रह्म, वह ईश्वर ही है, तुम नहीं हो। ऐसा तू ध्यानकर। ये बहुत सुंदर है। इसकी जो अंतिम पंक्ति है -ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ,ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि ,ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि -ये आपके लिए अब आदेश है - इस प्रकार तुम ध्यान करो। आप जब घर जाओगे तो आपके ध्यान का विषय क्या होगा ? ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहींये ध्यान का विषय होगा। ईश्वर से भिन्न न तो कोई जीव है , न तो कोई जगत है। यह  ध्यान का विषय है ! मैं नहीं हूँ ! ईश्वर ही है ! इस प्रकार से ध्यान करो, इस प्रकार से ध्यान करो, इस प्रकार से ध्यान करो !! मैं नहीं हूँ , ईश्वर ही है।इस प्रकार से ध्यान करो , इस प्रकार से ध्यान करो,इस प्रकार से ध्यान करो! ये अब हमारे दिमाग में यही बात चलनी चाहिए -ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि,ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि,ब्रह्म तत्त्वमसि भावयात्मनि।  समझते हो भाई ?जीव और जगत जैसा कुछ नहीं है , यहाँ ईश्वर ही है। मन को इसी भाव में डुबो देना चाहिए। और उस दृष्टि का अवलंबन करना चाहिए , आचरण के समय ईश्वर दृष्टि का अवलंबन करना चाहिए। ईश्वर दृष्टि से देखते हुए हम सभी से व्यवहार करेंगे। तो हमारा जीवन अतिसुंदर होगा। ॐ 

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 [मनुष्य केवल एक Homo erectus प्राणी (चिम्पांजी) ही नहीं है, मनुष्य ( होमो सेपियन्स ) प्राणी है जिसकी विशेषता है -नित्यानित्य विवेक करने की क्षमता या उच्च बुद्धि , द्विपादता और बालहीनता। और  मनुष्य रीढ़की हड्डी सीधी रख कर खड़ा हो सकता है।  गर्दन उठाकर आसमान देख सकता है, पशु ऊपर नहीं देख सकते, इसीलिए शास्त्र और गुरु की कृपा नित्य-अनित्य विवेक को जाग्रत नहीं कर सकते, जीव और जगत भी ईश्वर ही है इस परमसत्य को नहीं समझ सकता है। 

इस सृष्टि में जितने भी जीव-जन्तु हैं (चतुष्पाद, द्विपाद, निष्पाद) वे सभी बद्ध हैं ! लेकिन नित्य-अनित्य विवेक -प्रयोग द्वारा इस नश्वर स्थूल शरीर रूपी मानसिकता को अविनाशी आत्मा का बंधन को समझना , और इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है। (स्वयं को मात्र स्त्री-पुरुष देह समझकर जन्म-मृत्यु के) बंधन से मुक्त होने का प्रयास, मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं कर सकता है।