कौन हैं स्वामी रामानुजाचार्य ?
(1017 ई.से 1137 ई. तक-120 वर्ष जीवित रहने वाले ?)
120 वर्षों तक शरीर धारण करने वाले श्री रामानुजाचार्य 11वीं सदी के विशिष्टाद्वैत के आचार्य हैं। शंकराचार्य के अद्वैत विचार से वे पूरी तरह असहमति रखते थे, उनकी विचारधारा अद्वैतवादी निर्गुण ब्रह्म के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। इस सिद्धांत में आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन है। शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है। लेकिन रामानुज ने अपने सिद्धांत में यह स्थापित किया है कि जगत भी ब्रह्म ने ही बनाया है। परिणामस्वरूप यह मिथ्या नहीं हो सकता। आदि शंकराचार्य के अद्वैत से असहमति जताते हुए जो चार वैष्णव आचार्य मशहूर हैं, उनमें रामानुज सबसे पहले हैं। उसके बाद मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और निंबार्काचार्य आते हैं।
'श्री'- संप्रदाय बनाने वाले रामानुज, दरअसल अद्वैत को तो मानते हैं, लेकिन थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ। वे ब्रह्म को तो सत्य मानते हैं, लेकिन जगत को मिथ्या नहीं मान पाते। वे अपने ब्रह्म को विशिष्ट मानते हैं। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है। यानी वह अद्वैत, जो विशिष्ट है। इसके अनुसार यद्यपि जीव ,जगत् और ईश्वर तीनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं, फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं। और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं। चूंकि उनका ब्रह्म विशिष्ट गुणों से भरा हुआ है, इसीलिए वह विशिष्टाद्वैत है। आचार्य रामानुज ने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की, जैसे - वेदार्थ संग्रहम , गीता भाष्यम, वेदांत दीपम , शरणगति गद्यम ,श्रीरंगा गद्यम इत्यादि ; किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए - श्रीभाष्यम् (Sri Bhashyam) एवं वेदान्त सारम (VedAnta Saram)।
>>>श्री रामानुजाचार्य का जीवन चरित्र : रामानुजाचार्य स्वामी का जन्म में तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में हुआ था। श्रीपेरुमबुदुर (Sriperumbudur) भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह चेन्नई के 40 लगभग किमी दक्षिणपश्चिम में स्थित है और उसका उपनगर बनता जा रहा है। (यहीं पर सन् 1991 में भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, राजीव गांधी, की हत्या हुई थी। ) रामानुजाचार्य स्वामी की माता का नाम कांतिमती और पिता का नाम केशवचार्युलु था। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल से हुआ । श्रीरामानुचार्य पहले गृहस्थ थे, किन्तु जब इन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब इन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम जाकर संन्यास धर्म की दीक्षा ले ली।
गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा लेने और मन्त्र प्राप्त करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य उनके पास गए। गोष्ठी पूर्ण ने उनके आने का आशय जानकर कहा, “किसी अन्य दिन आओ तो देखा जायेगा।” निराश होकर रामानुज अपने निवास स्थान को लौट आये। श्रीरामानुज इसके बाद फिर गोष्ठिपूर्ण के चरणों में उपस्थित हुए, परन्तु उनका उद्देश्य सफल नहीं हुआ। इस प्रकार 17 बार लौटाए जाने के बाद, 18 वीं बार फिर गए तब गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र (‘ऊँ नमः नारायणाय’) का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना क्योंकि वह इसका आदर नहीं करेगा।
उधेड़बुन में थे रामानुज। गुरु गोष्ठीपूर्ण के यहां से लौट रहे थे। प्रभु को पाने के लिए उन्होंने रामानुज को ओम् नमो नारायण: का मंत्र दिया। हालांकि उस मंत्र के लिए वह 17 बार पहले ही वहां जा चुके थे, पर इस बार गुरु ने वह मंत्र दिया था। खुशी इस बात की थी कि उन्हें मंत्र मिल गया। परेशानी इसकी थी कि गुरु ने उसे अपने तक रखने को कहा था। अद्भुत कल्याण करने वाला वह मंत्र! पर उसे गुप्त रखना है उसे किसी को बताना नहीं है! या फिर बेहद खास को बताना है। रामानुज के मन में 'निज जन' और 'पराया जन' कौन है -के बीच लड़ाई चल रही थी।
लेकिन श्रीरंगम पहुंचते-पहुंचते रामानुज की उधेड़बुन खत्म हो गई थी। उन्होंने तय किया था कि उसे अपने तक नहीं रखेंगे। उस महामंत्र को सबको बता देंगे। अब भले ही उससे गुरु को दिया हुआ प्रण तोड़ना पड़े। रात तो जैसे-तैसे बीती। अगले दिन उन्होंने लोगों को मंदिर में इकट्ठा होने के लिए कहा। वे मंदिर के गोपुरम पर चढ़ गए और चिल्ला-चिल्ला कर उस मंत्र को जन-जन के हवाले कर दिया। जाहिर है गुरु गोष्ठीपूर्ण जबर्दस्त नाराज हुए। वह श्रीरंगम आए व रामानुज को भला-बुरा कहने लगे। रामानुज ने माफी मांगते हुए कहा, ‘महाराज, मैंने सचमुच पाप किया है। प्रतिज्ञा तोड़ी है। लेकिन यदि मन्त्र सुनकर हज़ारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है। रामानुज का जवाब सुनकर गुरु भी प्रसन्न हुए।
>>> 'शरीर' और 'मन' (2H) का 'शौच' पालन : करने से जातिगत श्रेष्ठता का अभिमान, या उच्च वंश में जन्म लेने का अहंकार मिटता है। जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण देव उच्च वंश/ जाति का अभिमान दूर करने के लिए मेहतर के घर के शौचालय की सफाई अपने बालों से करते थे; उसी प्रकार रामानुजाचार्य जब स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते।
वे प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे, उन्हें देखकर यह बात तो सभी समझते थे कि वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, किंतु जाते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। यदि शूद्र का सहारा लेकर स्नान करने जाएँ और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर आयें तो भी बात समझ में आती है। नदी स्नान कर शुद्ध हो जाने के बाद अपवित्र शूद्र को छूने से स्नान का महत्व ही भला क्या रह जाता है? लेकिन उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था।
सभी आपस में चर्चा करते कि शायद वृद्धावस्था में रामानुजाचार्य की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। (जैसे नवनीदा श्रीलंका तक जीप से जाने की बात प्रमोद दा से कहते थे !)एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है?
यह सुनकर आचार्य बोले- मैं तो, बाह्य शौच और आंतरिक शौच दोनों का पालन करता हूँ, अतएव शरीर और मन दोनों को स्नान कराता हूं। मैं जब ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर स्नान करने जाता हूं, तब शरीर का स्नान करता हूं, किंतु उस समय मेरे मन का स्नान नहीं हो पाता है। क्योंकि जातिगत या वंशगत उच्चता के अहंकार भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है।
>>> रामानुजाचार्य का विशिष्ट अद्वैत : सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत् हैं, उनकी शक्ति महा लक्ष्मी चित् हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्री लक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।
>>>अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ठाकुर देव का विशिष्ट अद्वैत : कहता है -ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं। इस जगत को ब्रह्म की शक्ति या आद्या शक्ति माँ काली ने ही जन्म दिया है, इसलिए नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य है ! इसीलिए स्वामी जी श्रीरामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ कहते थे! श्री रामकृष्ण के देह त्याग के बाद - उनके प्रिय शिष्य - "नरेन् शिक्षा देगा " का चपरास प्राप्त शिष्य - स्वामी विवेकानन्द ने जिस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर 'राम-राज्य' स्थापित करने वाले 'Be and Make' महामण्डल आंदोलन का प्रचार-प्रसार करते हुए भारतवर्ष से शुरू कर पूर्वी और पश्चमी गोलार्ध तक की यात्रा की थी।
उसी प्रकार 120 की लम्बी आयु प्राप्त श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये स्वयं ही सम्पूर्ण भारत की यात्रा की थी। उन्होंने देश भर में भ्रमण करके लाखों लोगों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। यात्रा के दौरान अनेक स्थानों पर आचार्य रामानुज ने कई जीर्ण-शीर्ण हो चुके पुराने मंदिरों का भी पुनर्निमाण कराया। इन मंदिरों में प्रमुख रुप से श्रीरंगम्, तिरुनारायणपुरम् और तिरुपति मंदिर प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्तिका श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं।
>>>श्री रामानुजाचार्य के अपने शिष्यों को दिए गए अन्तिम निर्देश : —
१) सदैव ऐसे भक्तों का संग करो जिनका चित्त भगवान् के श्री चरणों में लगा हो और अपने गुरु के समान उनकी सेवा करो ।
[जिस प्रकार दया, परोपकार आदि पर दिए श्री चैतन्य महाप्रभु के उपदेश -विषयों पर बातचीत करते हुए, की व्याख्या करते हुए जब श्री रामकृष्ण देव भाव के आवेग में अपना अंतिम उपदेश में कहने लगे,
" जीवे दोया, नामे रूचि , वैष्णव सेवा। "
[ (জীবে দয়া) (নামে রুচি) (বৈষ্ণব সেবা)।"
" और दया ? कौन किस पर दया करेगा ? दया नहीं -दया नहीं , सेवा -सेवा ! शिवज्ञान से जीवसेवा!" " इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पूजनीय स्वामी सारदानन्द जी से कहा था - अनन्त भावमय श्री रामकृष्ण को सम्यक रूप से समझना बहुत कठिन है, इसका वास्तविक अर्थ है - " सेवा नहीं पूजा " शिवज्ञान से जीव पूजा ! - क्योंकि पूजा करते समय कहीं सेवा -दोष न हो जाये ? इसीलिए सिर्फ समाज-सेवा नहीं - ' पूजा भाव से जीव सेवा !' ]
२) सदैव वेदादि शास्त्रों एवं महान वैष्णवों के शब्दों में पूर्ण विश्वास रखो ।
३) काम, क्रोध एवं लोभ जैसे शत्रुओं से सदैव सावधान रहो, अपनी इंद्रियों के दास न बनो ।
४) भगवान् श्री नारायण की पूजा करो और हरिनाम को एकमात्र आश्रय समझकर उसमे आनंद अनुभव करो ।
५) भगवान् के भक्तों की निष्ठापूर्वक सेवा करो क्योंकि परम भक्तों की सेवा से सर्वोच्च कृपा का लाभ अवश्य और अतिशीघ्र मिलता है ।
इस सिद्धांत के अनुयायी श्री वैष्णव के नाम से जाने जाते हैं। उनके माथे पर दो सीधी लकीरों वाला टीका लगा होता है, और वो अपने कंधे पर हमेशा शंख-चक्र प्रतीक रखते हैं। पाञ्चरात्र आगम में कहा गया है खिले हुये कमल पर श्रीहरि के दो चरण स्थापित करने चाहिये । तिलक में जो नासिक प्रदेश में आकृति बनाई जाती है उसे कमल का आसन कहते हैं ।
कमलासन देने के पश्चात दो सीधी समानान्तर रेखायें जो खींचीं जातीं हैं उसे भगवान् के युगल चरण कहा जाता है । ये दोनों रेखायें श्रीभगवान् के अचिन्त्य अद्भुत श्रीचरण कमलों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं । और जहाँ भगवान् के चरण हो वहाँ श्रीजी का वास तो अवश्य ही होगा इसीलिए मध्य में रक्त वर्ण की श्री को धारण किया जाता है यह श्री जगन्माता श्रीलक्ष्मी का स्वरूप कही जाती है :-
ऊर्ध्वपुण्ड्रस्य मध्ये तु विशालेषु मनोहरे ।
सान्तराले समासीनो हरिस्तत्र श्रिया सह ।।
ऊर्ध्व पुण्ड्र के मध्य भाग में दोनों रेखाओं के बीच भगवान् श्रीहरि के साथ श्रीमहालक्ष्मी विराजमान रहतीं हैं । यह सोचने पर भी रोमांच होता है जिन प्रभु के चरणों का ध्यान बड़े बड़े सिद्धात्मा विमलात्मा नहीं कर पाते वह श्रीचरण हमारे मस्तक पर सुशोभित होते हैं । अहो कैसा अद्भुत भाग्य है हम श्रीवैष्णवों का ।
सत्संप्रदाय में दो धारायें हैं तिंकलै और बड़कलै । इनमें तिलक एवं श्रीधारण (रक्त श्री पीत श्री) को लेकर थोड़ा भेद है । दोनों ही शाखाओं में अपने अपने प्रमाण पूर्ण रूपेण प्राप्त हैं दोनों ही आगमोक्त हैं इस लिये इस झगड़े में कभी नहीं पड़ना चाहिये कि कौन सही और कौन गलत हैं । दोनों ही सही हैं और शास्त्र सम्मत हैं ।
इस संप्रदाय के जो लोग संन्यास लेते हैं उन्हें जीयर कहा जाता है। उनके कई नाम होते हैं जैसे इलाया पेरूमल, एमबेरूमनार, यथीराज भाष्यकरा आदि। वर्तमान के चिन्ना जीयर का सपना है कि “दिव्य साकेतम”, मुचिन्तल की विशाल स्पिरिचुअल फैसिलिटी जल्द ही एक विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक स्थान के रूप में उभरेगी।
अभिषेक को तिरुमज्जन और जल को तीर्थ: भगवान के तिरुआराधना के उपयोग में आये हुये जल को वैष्णव सम्प्रदाय की भाषा “तीर्थ” कहलाता है । “तीर्थ” याने वह पवित्र पुनीत जल , जो भगवान के, आचार्य के संसर्ग,स्पर्श, संपर्क में आया हुआ है । भगवान को स्नान करवाना ” तिरुमज्जन” कहलाता है। जबकि अन्य लोग “अभिषेक” कहते है। आचार्यों के पाद प्रक्षालित जल को अन्य सम्प्रदाय की भाषा में “चरणामृत” कहते है। आचार्य तुल्य परम वैष्णव के पाद प्रक्षालित जल को 'श्रीपाद तीर्थ' कहते है ।
श्री वैष्णव के शब्दों में, ''अद्वैत विचार में ये नियम है कि अष्ठाक्षरी मंत्र किसी को नहीं बताया जाता लेकिन रामानुजम ने इससे असहमति जताते हुए गोपुरम मंदिर से मंत्र का उच्चारण किया था ताकि सब उसे सुन सकें। रामानुज को यमुनाचार्य द्वारा वैष्णव दीक्षा में दीक्षित किया गया था। ‘नांबी’ नारायण ने रामानुज को मंत्र दीक्षा का उपदेश दिया। तिरुकोष्टियारु ने ‘द्वय मंत्र’ का महत्व समझाया और रामानुजम को मंत्र की गोपनीयता बकरार रखने के लिए कहा।
लेकिन उन्होंने स्वेच्छा से उस नियम का उल्लंघन किया कि जो भी मंत्र को सुनता है, किसी दूसरे से नहीं कहता, उस पर कृपा होती है; और जो दूसरों के लिए मंत्र बोलता है उससे शाप लगता है। उनका कहना था कि अगर सभी पर कृपा होती है तो वो शाप लेने के लिए तैयार हैं। क्योंकि रामानुज ने यह महसूस किया कि ‘मोक्ष’ को कुछ लोगों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए- इसलिए वह पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से पवित्र मंत्र की घोषणा करने के लिए श्रीरंगम मंदिर के गोपुरम पर चढ़ गए।
संत श्री रामानुजाचार्य ने आस्था, जाति और पंथ सहित जीवन के सभी पहलुओं में समानता के विचार को बढ़ावा दिया था। रामानुजाचार्य स्वामी यह साबित करने वाले पहले आचार्य थे कि सर्वशक्तिमान के सामने सभी मनुष्य एक समान हैं। उन्होंने कहा था - "हर किसी की पीड़ा को कम करने के लिए भले ही मुझे अकेले नरक में जाना पड़े, मैं खुशी से ऐसा करूंगा। भगवान के सामने सभी समान हैं। हर जाति को उनका नाम लेने का अधिकार है। मंदिर में प्रवेश सभी के लिए खुला है। " रामानुजाचार्य ने अलग-अलग मौकों पर यही संदेश दिए हैं। रामानुजाचार्य ने सम्पूर्ण मानवजाति की आस्था, जाति और वंश सहित जीवन के किसी भी स्तर पर समानता के विचार की वकालत की थी । उन्होंने दलितों के साथ कुलीन वर्ग के समान व्यवहार किया। उन्होंने दलित समाज के लोगों को निचली जातियों से वैष्णव में बदला।
उन्होंने तथाकथित अछूत लोगों को “थिरुकुलथार” (Born again) कहा। इसका अर्थ है “दिव्य जन्म” और उन्हें मंदिर के अंदर ले गए। उन्होंने इन जातियों में से कुछ प्रशिक्षित लोगों को पुजारी भी बना दिया था। उन्होंने छुआछूत और समाज में मौजूद अन्य बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंका। स्वामी जी ने सभी को भगवान की पूजा करने का समान विशेषाधिकार दिया।
उन्होंने कुछ मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर काम किया। उन्होंने 120 वर्षों तक अथक परिश्रम करते हुए यह साबित किया कि भगवान श्रीमन नारायण सभी आत्माओं के कर्म बंधन से परम मुक्तिदाता हैं। उन्होंने भक्ति आंदोलन का बीड़ा उठाया और दर्शन की वकालत की जिसने कई भक्ति आंदोलनों का आधार बनाया। उन्होंने पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उन्होंने सनातन धर्म के वर्णाश्रम शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले सभी समाजों की जीवनचर्या को समझा।
भक्तों का मानना है कि यह अवतार स्वयं भगवान आदिश ने लिया था। सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण भगवान शिव का एक नाम 'आदिश' भी है। उन्होंने कांची अद्वैत पंडितों से गुरु-शिष्य परम्परा में वेदांत में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने विशिष्टाद्वैत विचारधारा की व्याख्या की और मंदिरों को धर्म का केंद्र बनाया।
>>>श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका –
1. रहस्य त्रय : विशिष्टाद्वैत मत, जिसके प्रतिपादक या संस्थापक श्री रामानुजाचार्य हैं, से श्री वैष्णवों के लिए निम्नांकित संस्कार शास्त्रानुमोदित है !!
पञ्च संस्कार विधि के भाग के रूप में मंत्रोपदेश (रहस्य मंत्रो के उपदेश) दिया जाता है। उसमें, आचार्य द्वारा शिष्य को 3 रहस्यों का उपदेश दिया जाता है। वे इस प्रकार है:
1.तिरुमंत्र – नारायण ऋषि ने नर ऋषि (दोनों ही भगवान के अवतार है) को बद्रिकाश्रम में उपदेश किया था। `ओम नमो नारायणाय।' अर्थ : जीवात्मा, जिसके स्वामी/ नाथ भगवान है, उसे सदा भगवान की प्रसन्नता मात्र के लिए ही प्रयत्नरत रहना चाहिए; उसे सभी के स्वामी श्रीमन्नारायण भगवान की सदा सेवा करना चाहिए।
2.द्वय मंत्र – श्रीमन्नारायण भगवान ने श्रीमहालक्ष्मीजी को विष्णु लोक में उपदेश किया। `श्रीमन् नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये। श्रीमते नारायणाय नमः।। '
अर्थ : मैं श्रीमन्नारायण भगवान के चरण कमलों में आश्रय लेता हूँ, जो श्रीमाहलाक्ष्मीजी के दिव्य नाथ है; मैं श्रीमहालक्ष्मीजी और श्रीमन्नारायण भगवान के स्वार्थ रहित कैंकर्य की प्रार्थना करता हूँ।
3. चरम श्लोक (भगवत गीता 18 /66) – श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में उपदेश किया ~
सर्व धरमान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः।।
(सभी साधनों का पुर्णतः त्याग कर, अपना सर्वस्व मुझे समर्पित करो; मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा, चिंता मत करो।)
अर्थ : सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
>>>धर्म= Law of existence. हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं। इसलिए, अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है। मधुरता (मिठास) चीनी का धर्म है, कटु चीनी मिथ्या है।
जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म>> होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म - (कृत्रिम या नैमित्तिक।) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है। परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है; जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है।
इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है ? उसकी त्वचा का वर्ण? असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार? उसका स्वभाव (संस्कार)? उसके शरीर? मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है। जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्म-तत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।
सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्तधर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं ? अथवा क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
किन्तु आत्मस्वरूप के अज्ञान (अविद्या) के कारण मनुष्य अपने शरीर, मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न र्मत्य जीव (नश्वर M/F) का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा, मन्ता, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता रूप जीव (व्यष्टि अहं) ही संसार के दुखों को भोगता है।
वह शरीरादि उपाधियों के जन्म-जरा -मृत्यु आदि शरीर-मन के धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु, वास्तव में ये हमारे शुद्ध स्वरूप - 'आत्मा ' के धर्म नहीं हैं। वह जन्म-मृत्यु भी गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है। इसलिए समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ (M/F में अहं भाव का त्याग) हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है; अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना।
>>>मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) : मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है ? जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन, धारणा का कोई उच्च आदर्श , अवतार वरिष्ठ या नेता -वरिष्ठ का मूर्तरूप प्रदान नहीं करते हैं। एकाग्रता का अभ्यास ,आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन या शाश्वत-नश्वर विवेक का प्रयोग करने के लिए मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए - जीवन में अवतारवरिष्ठ का चयन करना ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा (ब्रह्म या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।
>>>अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा): जो इच्छायें और विवेकहीन संकल्प हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके ( M/F भाव या Lust and lucre में घोर आसक्ति या घोर-स्वार्थपरता ?) हमारे मन की दृढ़ इच्छाशक्ति को विभिन्न इन्द्रियों में बिखेर देता है वह पाप कहलाता है। [इसीलिए महामण्डल के गुरुगृहवास/ निर्जनवास प्रशिक्षण शिविर में नेतावरिष्ठ के निर्देशन में वैराग्यपूर्वक मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, माँ की कृपा से किसी साधक का एक बार भी चित्तवृत्ति-निरोध होकर समाधि-जन्य विवेक जाग्रत हो गया हो - वैसे साधक को '.... ] , बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म (कर्मबन्धन) ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में कर्म मनुष्य के अन्तःकरण (चित्त) में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है।
शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं। वृत्ति रूप मन (अहं) है अतः, जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है तब तक मन (व्यष्टि अहं) का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है। जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं-- तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली कर्मों की प्रेरक, इच्छा- 'milk chocolate' और विक्षेपों को-(M/F) को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।
>>>Life-building : यद्यपि जीवन-गठन, नैतिकता, सदाचार के समस्त कर्तव्य (3H विकास के 5 अभ्यास) , श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण (भारत का कल्याण) की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' द्वारा सदाचारी मनुष्य बनने और बनाने को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को (यम-नियम-आसन,प्रत्याहार और धारणा आदि) धर्म की संज्ञा दी गयी है जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।
इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कुछ अन्य श्लोकों में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है, और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है। इस अध्याय में सम्पूर्ण गीताशास्त्र के तत्त्वज्ञान का उपसंहार किया गया है।
श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द भारतीय /हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की।
>>>भेद-प्रतीति (M/F में भेद, ब्रह्म और शक्ति में भेद ?) का निवर्तक : यह विचार करना चाहिये कि इस गीताशास्त्र में निश्चय किया हुआ परम कल्याण ( मोक्ष ) का साधन ज्ञान है या कर्म अथवा दोनों ? उपर्युक्त वाक्य में 'तु' शब्द दोनों पक्षों की निवृत्ति के लिये है अर्थात् मोक्ष न तो केवल कर्म से मिलता है और न ज्ञान- कर्म के समुच्चय से ही। इस प्रकार तु शब्द दोनों पक्षोंका खण्डन करता है। मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतःसिद्ध है। इसलिये कर्मों को उसका साधन मानना नहीं बन सकता क्योंकि कोई भी नित्य वस्तु (स्वतःसिद्ध वस्तु) कर्म या ज्ञान से उत्पन्न नहीं की जाती।
नित्यकर्मोंका आचरण करनेसे तो प्रत्यवाय न होगा, निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग कर देनेसे अनिष्ट ( बुरे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी? काम्य कर्मोंका त्याग कर देने के कारण इष्ट ( अच्छे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी तथा वर्तमान शरीर को उत्पन्न करने वाले कर्मों का फलके उपभोग से क्षय हो जानेपर। इस शरीर का नाश हो जाने के पश्चात् दूसरे शरीर की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं रहने से तथा शरीर सम्बन्धी आसक्ति आदिके न करनेसे, जो स्वरूप में स्थित हो जाना है वही कैवल्य है ! अतः बिना प्रयत्न के ही कैवल्य सिद्ध हो जायगा।
यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं, जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा (राज-योगविज्ञान या मनःसंयोग के द्वारा) अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है। इसके विपरीत, जिस साधक का मन (पितृ-हीन, मातृ हीन ~ टूअर होने, दरीद्रता, सन्तान हीनता, आदि के कारण) नैराश्य और रुदन, विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर पाता है। और स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूर-दूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
भेद-प्रतीति (M/F में भेद, ब्रह्म और शक्ति में भेद ?) का निवर्तक होने के कारण केवल आत्मज्ञान ही परम कल्याण (मोक्ष) का हेतु ( साधन ) है ! कैवल्य ( मोक्ष ) की प्राप्ति ही उसकी अवधि है। अर्थात् जैसे दीपक के प्रकाश का रज्जु आदि वस्तुओं में होनेवाली सर्पादि (M/F-पैन्ट टी-शर्ट में आने वाला /वाली ?) की भ्रान्ति को और अन्धकार को नष्ट कर देना ही फल है। और जैसे उस प्रकाश का फल सर्पविषयक विकल्प को हटाकर केवल रज्जु को प्रत्यक्ष कराके समाप्त हो जाता है। वैसे ही अविद्या रूप अन्धकार के नाशक आत्मज्ञान का भी फल केवल,आत्म-स्वरूप को प्रत्यक्ष कराके ही समाप्त होता देखा गया है। क्योंकि ज्ञान अविद्या का नाशक है इसलिये उसका कर्मों से विरोध है। यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकार का नाशक अन्धकार नहीं हो सकता। इसलिये केवल ज्ञान ही परम कल्याण का साधन है।
कर्म मेरे हैं, मैं उनका कर्त्ता हूँ। मैं अमुक फल के लिये यह कर्म करता हूँ यह अविद्या अनादिकाल से प्रवृत्त हो रही है। यह केवल ( एकमात्र ) अकर्ता क्रियारहित और फल से रहित आत्मा मैं हूँ, मुझसे भिन्न और कोई भी नहीं है ऐसा आत्मविषयक ज्ञान इस अविद्या का नाशक है। क्योंकि यह उत्पन्न होते ही , कर्म-प्रवृत्ति की हेतुरूप भेद-बुद्धि का नाश करने वाला है।
( भगवान् ) बोले -- समस्त धर्मों को अर्थात् जितने भी धर्म हैं उन सबको यहाँ नैष्कर्म्य ( कर्माभाव ) का प्रतिपादन करना है। इसलिये धर्म शब्द से अधर्म का भी ग्रहण किया जाता है। जो बुरे चरित्रों से विरक्त नहीं हुआ धर्म और अधर्म दोनों को छोड़ इत्यादि श्रुति-स्मृतियों से भी यही सिद्ध होता है। सब धर्मों को छोड़कर -- सर्व कर्मों का संन्यास करके 'मुझ एक' की शरण में आ।अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह कि मुझ परमेश्वर से (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव से ) अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय-वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष करा के समस्त धर्माधर्म-बन्धनरूप पापों से मुक्त कर दूँगा।
साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं। भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है।
एकाग्रता (समाधि जन्य ज्ञान) के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं :
(1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा (मनःसंयोग के अभ्यास और वैराग्य के द्वारा) सब धर्मों का त्याग।
(2) मेरी (ईश्वर की- वर्तमान युग के अवतार वरिष्ठ को पहचानकर केवल उनकी) ही शरण में आना और
(3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना।
इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है।
भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं- तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मा शुच (तुम शोक मत करो। ) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है।
गीता की तरह 'Be and Make' भी एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है, मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है। परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। ]
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