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बुधवार, 9 अगस्त 2023

🔱🔱🙏सनातन धर्म का पनुर्जागरण - 2 [ 'Statue of Equality' (समता की मूर्ति ~गुरु परम्परा की महिमा) ]🙏श्री रामानुजाचार्य का जीवन चरित्र

कौन हैं स्वामी रामानुजाचार्य ?

(1017 ई.से 1137 ई. तक-120 वर्ष जीवित रहने वाले ?)  

120 वर्षों तक शरीर धारण करने वाले श्री रामानुजाचार्य 11वीं सदी के विशिष्टाद्वैत के आचार्य हैं। शंकराचार्य के अद्वैत विचार से वे पूरी तरह असहमति रखते थे, उनकी विचारधारा अद्वैतवादी निर्गुण ब्रह्म के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। इस सिद्धांत में आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन है। शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है। लेकिन रामानुज ने अपने सिद्धांत में यह स्थापित किया है कि जगत भी ब्रह्म ने ही बनाया है। परिणामस्वरूप यह मिथ्या नहीं हो सकता। आदि शंकराचार्य के अद्वैत से असहमति जताते हुए जो चार वैष्णव आचार्य मशहूर हैं, उनमें रामानुज सबसे पहले हैं। उसके बाद मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और निंबार्काचार्य आते हैं। 

'श्री'- संप्रदाय बनाने वाले रामानुज, दरअसल अद्वैत को तो मानते हैं, लेकिन थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ। वे ब्रह्म को तो सत्य मानते हैं, लेकिन जगत को मिथ्या नहीं मान पाते। वे अपने ब्रह्म को विशिष्ट मानते हैं।  रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है। यानी वह अद्वैत, जो विशिष्ट है।  इसके अनुसार यद्यपि जीव ,जगत् और ईश्वर तीनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं, फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं।  और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं। चूंकि उनका ब्रह्म विशिष्ट गुणों से भरा हुआ है, इसीलिए वह विशिष्टाद्वैत है। आचार्य रामानुज ने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की, जैसे - वेदार्थ संग्रहम , गीता भाष्यम, वेदांत दीपम , शरणगति गद्यम ,श्रीरंगा गद्यम इत्यादि ; किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए - श्रीभाष्यम् (Sri Bhashyam) एवं वेदान्त सारम (VedAnta Saram)। 

>>>श्री रामानुजाचार्य का जीवन चरित्र : रामानुजाचार्य स्वामी का जन्म में तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में हुआ था। श्रीपेरुमबुदुर (Sriperumbudur) भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह चेन्नई के 40 लगभग किमी दक्षिणपश्चिम में स्थित है और उसका उपनगर बनता जा रहा है।  (यहीं पर सन् 1991 में  भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, राजीव गांधी, की हत्या  हुई थी। ) रामानुजाचार्य स्वामी की माता का नाम कांतिमती और पिता का नाम केशवचार्युलु था।  16 वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल से हुआ । श्रीरामानुचार्य पहले गृहस्थ थे, किन्तु जब इन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब इन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम जाकर संन्यास धर्म की दीक्षा ले ली।

गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा लेने और मन्त्र प्राप्त करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य उनके पास गए। गोष्ठी पूर्ण ने उनके आने का आशय जानकर कहा, “किसी अन्य दिन आओ तो देखा जायेगा।” निराश होकर रामानुज अपने निवास स्थान को लौट आये। श्रीरामानुज इसके बाद फिर गोष्ठिपूर्ण के चरणों में उपस्थित हुए, परन्तु उनका उद्देश्य सफल नहीं हुआ।  इस प्रकार 17 बार लौटाए जाने के बाद, 18 वीं बार फिर गए तब गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र (‘ऊँ नमः नारायणाय’) का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना क्योंकि वह इसका आदर नहीं करेगा। 

उधेड़बुन में थे रामानुज। गुरु गोष्ठीपूर्ण के यहां से लौट रहे थे। प्रभु को पाने के लिए उन्होंने रामानुज को ओम् नमो नारायण: का मंत्र दिया।  हालांकि उस मंत्र के लिए वह 17 बार पहले ही वहां जा चुके थे, पर इस बार गुरु ने वह मंत्र दिया था। खुशी इस बात की थी कि उन्हें मंत्र मिल गया। परेशानी इसकी थी कि गुरु ने उसे अपने तक रखने को कहा था। अद्भुत कल्याण करने वाला वह मंत्र! पर उसे गुप्त रखना है उसे किसी को बताना नहीं है! या फिर बेहद खास को बताना है। रामानुज के मन में 'निज जन' और 'पराया जन' कौन है  -के बीच लड़ाई चल रही थी।

लेकिन श्रीरंगम पहुंचते-पहुंचते रामानुज की उधेड़बुन खत्म हो गई थी। उन्होंने तय किया था कि उसे अपने तक नहीं रखेंगे। उस महामंत्र को सबको बता देंगे। अब भले ही उससे गुरु को दिया हुआ प्रण तोड़ना पड़े। रात तो जैसे-तैसे बीती। अगले दिन उन्होंने लोगों को मंदिर में इकट्ठा होने के लिए कहा। वे मंदिर के गोपुरम पर चढ़ गए और चिल्ला-चिल्ला कर उस मंत्र को जन-जन के हवाले कर दिया। जाहिर है गुरु गोष्ठीपूर्ण जबर्दस्त नाराज हुए। वह श्रीरंगम आए व रामानुज को भला-बुरा कहने लगे। रामानुज ने माफी मांगते हुए कहा, ‘महाराज, मैंने सचमुच पाप किया है। प्रतिज्ञा तोड़ी है। लेकिन यदि मन्त्र सुनकर हज़ारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है। रामानुज का जवाब सुनकर गुरु भी प्रसन्न हुए।

>>> 'शरीर' और 'मन' (2H) का 'शौच' पालन : करने से जातिगत श्रेष्ठता का अभिमान, या उच्च वंश में जन्म लेने का अहंकार मिटता है। जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण देव उच्च वंश/ जाति का अभिमान दूर करने के लिए मेहतर के घर के शौचालय की सफाई अपने बालों से करते थे;  उसी प्रकार रामानुजाचार्य जब स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते।

 वे प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे, उन्हें देखकर यह बात तो सभी समझते थे कि वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, किंतु जाते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। यदि शूद्र का सहारा लेकर स्नान करने जाएँ और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर आयें तो भी बात समझ में आती है। नदी स्नान कर शुद्ध हो जाने के बाद अपवित्र शूद्र को छूने से स्नान का महत्व ही भला क्या रह जाता है? लेकिन उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था।

 सभी आपस में चर्चा करते कि शायद वृद्धावस्था में रामानुजाचार्य की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।   (जैसे नवनीदा श्रीलंका तक जीप से  जाने की बात प्रमोद दा से कहते थे !)एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है?

यह सुनकर आचार्य बोले- मैं तो, बाह्य शौच और आंतरिक शौच दोनों का पालन करता हूँ, अतएव  शरीर और मन दोनों को स्नान कराता हूं। मैं जब ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर स्नान करने जाता हूं, तब शरीर का स्नान करता हूं, किंतु उस समय मेरे मन का स्नान नहीं हो पाता है। क्योंकि जातिगत या वंशगत उच्चता के  अहंकार  भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है।

>>> रामानुजाचार्य का विशिष्ट अद्वैत : सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत्  हैं, उनकी शक्ति महा लक्ष्मी चित्  हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्री लक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं। 

>>>अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ठाकुर देव का विशिष्ट अद्वैत : कहता है -ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं। इस जगत को ब्रह्म की शक्ति या आद्या शक्ति माँ काली ने ही जन्म दिया है, इसलिए नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य है ! इसीलिए स्वामी जी श्रीरामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ  कहते थे!  श्री रामकृष्ण के देह त्याग के बाद - उनके प्रिय शिष्य - "नरेन् शिक्षा देगा " का चपरास प्राप्त शिष्य - स्वामी विवेकानन्द ने जिस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर 'राम-राज्य' स्थापित करने वाले  'Be and Make' महामण्डल आंदोलन का प्रचार-प्रसार करते हुए भारतवर्ष से शुरू कर पूर्वी और पश्चमी गोलार्ध तक की यात्रा की थी। 

उसी प्रकार 120 की लम्बी आयु प्राप्त श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये स्वयं ही सम्पूर्ण भारत की यात्रा की थी। उन्होंने  देश भर में भ्रमण करके लाखों लोगों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। यात्रा के दौरान अनेक स्थानों पर आचार्य रामानुज ने कई जीर्ण-शीर्ण हो चुके पुराने मंदिरों का भी पुनर्निमाण कराया। इन मंदिरों में प्रमुख रुप से श्रीरंगम्, तिरुनारायणपुरम् और तिरुपति मंदिर प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्तिका श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं।

>>>श्री रामानुजाचार्य के अपने शिष्यों को दिए गए अन्तिम निर्देश : —

१) सदैव ऐसे भक्तों का संग करो जिनका चित्त भगवान् के श्री चरणों में लगा हो और अपने गुरु के समान उनकी सेवा करो ।

[जिस प्रकार दया, परोपकार आदि पर दिए  श्री चैतन्य महाप्रभु के उपदेश -विषयों पर बातचीत करते हुए, की व्याख्या करते हुए जब  श्री रामकृष्ण देव भाव के आवेग में अपना अंतिम उपदेश में कहने लगे, 

" जीवे दोया, नामे रूचि , वैष्णव सेवा। " 

[ (জীবে দয়া) (নামে রুচি) (বৈষ্ণব সেবা)।"   

" और दया ? कौन किस पर दया करेगा ? दया नहीं -दया नहीं , सेवा -सेवा ! शिवज्ञान से जीवसेवा!" " इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पूजनीय स्वामी सारदानन्द जी से कहा था - अनन्त भावमय श्री रामकृष्ण को सम्यक रूप से समझना बहुत कठिन है, इसका वास्तविक अर्थ है - " सेवा नहीं पूजा " शिवज्ञान से जीव पूजा ! - क्योंकि पूजा करते समय कहीं सेवा -दोष न हो जाये ? इसीलिए सिर्फ समाज-सेवा नहीं - ' पूजा भाव से जीव सेवा !'  ]   

२) सदैव वेदादि शास्त्रों एवं महान वैष्णवों के शब्दों में पूर्ण विश्वास रखो ।

३) काम, क्रोध एवं लोभ जैसे शत्रुओं से सदैव सावधान रहो, अपनी इंद्रियों के दास न बनो ।

४) भगवान् श्री नारायण की पूजा करो और हरिनाम को एकमात्र आश्रय समझकर उसमे आनंद अनुभव करो ।

५) भगवान् के भक्तों की निष्ठापूर्वक सेवा करो क्योंकि परम भक्तों की सेवा से सर्वोच्च कृपा का लाभ अवश्य और अतिशीघ्र मिलता है ।

इस सिद्धांत के अनुयायी श्री वैष्णव के नाम से जाने जाते हैं।  उनके माथे पर दो सीधी लकीरों वाला टीका लगा होता है, और वो अपने कंधे पर हमेशा शंख-चक्र प्रतीक रखते हैं। पाञ्चरात्र आगम में कहा गया है खिले हुये कमल पर श्रीहरि के दो चरण स्थापित करने चाहिये । तिलक में जो नासिक प्रदेश में आकृति बनाई जाती है उसे कमल  का आसन कहते हैं । 

कमलासन देने के पश्चात दो सीधी समानान्तर रेखायें जो खींचीं जातीं हैं उसे भगवान् के युगल चरण कहा जाता है । ये दोनों रेखायें श्रीभगवान् के अचिन्त्य अद्भुत श्रीचरण कमलों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं । और जहाँ भगवान् के चरण हो वहाँ श्रीजी का वास तो अवश्य ही होगा इसीलिए मध्य में रक्त वर्ण की श्री को धारण किया जाता है यह श्री जगन्माता श्रीलक्ष्मी का स्वरूप कही जाती है :- 

ऊर्ध्वपुण्ड्रस्य मध्ये तु विशालेषु मनोहरे ।

सान्तराले समासीनो हरिस्तत्र श्रिया सह ।।

ऊर्ध्व पुण्ड्र के मध्य भाग में दोनों रेखाओं के बीच भगवान् श्रीहरि के साथ श्रीमहालक्ष्मी विराजमान रहतीं हैं । यह सोचने पर भी रोमांच होता है जिन प्रभु के चरणों का ध्यान बड़े बड़े सिद्धात्मा विमलात्मा नहीं कर पाते वह श्रीचरण हमारे मस्तक पर सुशोभित होते हैं । अहो कैसा अद्भुत भाग्य है हम श्रीवैष्णवों का । 

सत्संप्रदाय में दो धारायें हैं तिंकलै और बड़कलै । इनमें तिलक एवं श्रीधारण (रक्त श्री पीत श्री) को लेकर थोड़ा भेद है । दोनों ही शाखाओं में अपने अपने प्रमाण पूर्ण रूपेण प्राप्त हैं दोनों ही आगमोक्त हैं इस लिये इस झगड़े में कभी नहीं पड़ना चाहिये कि कौन सही और कौन गलत हैं । दोनों ही सही हैं और शास्त्र सम्मत हैं ।

 इस संप्रदाय के जो लोग संन्यास लेते हैं उन्हें जीयर कहा जाता है। उनके कई नाम होते हैं जैसे इलाया पेरूमल, एमबेरूमनार, यथीराज भाष्यकरा आदि।  वर्तमान के चिन्ना जीयर का सपना है कि “दिव्य साकेतम”, मुचिन्तल की विशाल स्पिरिचुअल फैसिलिटी जल्द ही एक विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक स्थान के रूप में उभरेगी।

अभिषेक को तिरुमज्जन और जल को तीर्थ: भगवान के तिरुआराधना के उपयोग में आये हुये जल को वैष्णव सम्प्रदाय की भाषा “तीर्थ” कहलाता है । “तीर्थ” याने वह पवित्र पुनीत जल , जो भगवान के, आचार्य के संसर्ग,स्पर्श, संपर्क में आया हुआ है । भगवान को स्नान करवाना ” तिरुमज्जन” कहलाता है। जबकि अन्य लोग “अभिषेक” कहते है। आचार्यों के पाद प्रक्षालित जल को अन्य सम्प्रदाय की भाषा में “चरणामृत” कहते है। आचार्य तुल्य परम वैष्णव के पाद प्रक्षालित जल को 'श्रीपाद तीर्थ' कहते है ।

श्री वैष्णव के शब्दों में, ''अद्वैत विचार में ये नियम है कि अष्ठाक्षरी मंत्र किसी को नहीं बताया जाता लेकिन रामानुजम ने इससे असहमति जताते हुए गोपुरम मंदिर से मंत्र का उच्चारण किया था ताकि सब उसे सुन सकें।  रामानुज को यमुनाचार्य द्वारा वैष्णव दीक्षा में दीक्षित किया गया था। ‘नांबी’ नारायण ने रामानुज को मंत्र दीक्षा का उपदेश दिया।  तिरुकोष्टियारु ने ‘द्वय मंत्र’ का महत्व समझाया और रामानुजम को मंत्र की गोपनीयता बकरार रखने के लिए कहा।

 लेकिन उन्होंने स्वेच्छा से उस नियम का उल्लंघन किया कि जो भी मंत्र को सुनता है, किसी दूसरे से नहीं कहता,  उस पर कृपा होती है; और जो दूसरों के लिए मंत्र बोलता है उससे शाप लगता है। उनका कहना था कि अगर सभी पर कृपा होती है तो वो शाप लेने के लिए तैयार हैं।  क्योंकि  रामानुज ने यह  महसूस किया कि ‘मोक्ष’ को कुछ लोगों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए- इसलिए वह पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से पवित्र मंत्र की घोषणा करने के लिए श्रीरंगम मंदिर के गोपुरम पर चढ़ गए। 

 संत श्री रामानुजाचार्य ने आस्था, जाति और पंथ सहित जीवन के सभी पहलुओं में समानता के विचार को बढ़ावा दिया था। रामानुजाचार्य स्वामी यह साबित करने वाले पहले आचार्य थे कि सर्वशक्तिमान के सामने सभी मनुष्य एक समान हैं। उन्होंने कहा था - "हर किसी की पीड़ा को कम करने के लिए भले ही मुझे अकेले नरक में जाना पड़े, मैं खुशी से ऐसा करूंगा।  भगवान के सामने सभी समान हैं।  हर जाति को उनका नाम लेने का अधिकार है।  मंदिर में प्रवेश सभी के लिए खुला है। " रामानुजाचार्य ने अलग-अलग मौकों पर यही  संदेश दिए हैं।   रामानुजाचार्य ने सम्पूर्ण मानवजाति की  आस्था, जाति और वंश सहित जीवन के किसी भी स्तर पर समानता के विचार की वकालत की थी । उन्होंने दलितों के साथ कुलीन वर्ग के समान व्यवहार किया। उन्होंने दलित समाज के लोगों को निचली जातियों से वैष्णव में बदला

 उन्होंने तथाकथित अछूत लोगों को “थिरुकुलथार” (Born again) कहा।  इसका अर्थ है “दिव्य जन्म” और उन्हें मंदिर के अंदर ले गए। उन्होंने इन जातियों में से कुछ प्रशिक्षित लोगों  को पुजारी भी बना दिया था। उन्होंने छुआछूत और समाज में मौजूद अन्य बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंका।  स्वामी जी ने सभी को भगवान की पूजा करने का समान विशेषाधिकार दिया।  

 उन्होंने कुछ मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर काम किया।   उन्होंने 120 वर्षों तक अथक परिश्रम करते हुए यह साबित किया कि भगवान श्रीमन नारायण सभी आत्माओं के कर्म बंधन से परम मुक्तिदाता हैं।   उन्होंने भक्ति आंदोलन का बीड़ा उठाया और दर्शन की वकालत की जिसने कई भक्ति आंदोलनों का आधार बनाया।  उन्होंने पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उन्होंने सनातन धर्म के वर्णाश्रम शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले सभी समाजों की जीवनचर्या को समझा। 

 भक्तों का मानना है कि यह अवतार स्वयं भगवान आदिश ने लिया था।   सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण भगवान शिव का एक नाम 'आदिश' भी है। उन्होंने कांची अद्वैत पंडितों से गुरु-शिष्य परम्परा में वेदांत में शिक्षा प्राप्त की।  उन्होंने विशिष्टाद्वैत विचारधारा की व्याख्या की और मंदिरों को धर्म का केंद्र बनाया।  

>>>श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – 

1. रहस्य  त्रय :  विशिष्टाद्वैत मत, जिसके प्रतिपादक या संस्थापक श्री रामानुजाचार्य हैं, से श्री वैष्णवों के लिए निम्नांकित संस्कार शास्त्रानुमोदित है !!

पञ्च संस्कार विधि के भाग के रूप में मंत्रोपदेश (रहस्य मंत्रो के उपदेश) दिया जाता है। उसमें, आचार्य द्वारा शिष्य को 3 रहस्यों का उपदेश दिया जाता है। वे इस प्रकार है:

1.तिरुमंत्र – नारायण ऋषि ने नर ऋषि (दोनों ही भगवान के अवतार है) को बद्रिकाश्रम में उपदेश किया था। `ओम नमो नारायणाय।' अर्थ : जीवात्मा, जिसके स्वामी/ नाथ भगवान है, उसे सदा भगवान की प्रसन्नता मात्र के लिए ही प्रयत्नरत रहना चाहिए; उसे सभी के स्वामी श्रीमन्नारायण भगवान की सदा सेवा करना चाहिए।

2.द्वय मंत्र – श्रीमन्नारायण भगवान ने श्रीमहालक्ष्मीजी को विष्णु लोक में उपदेश किया। `श्रीमन् नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये। श्रीमते नारायणाय नमः।। ' 

अर्थ : मैं श्रीमन्नारायण भगवान के चरण कमलों में आश्रय लेता हूँ, जो श्रीमाहलाक्ष्मीजी के दिव्य नाथ है; मैं श्रीमहालक्ष्मीजी और श्रीमन्नारायण भगवान के स्वार्थ रहित कैंकर्य की प्रार्थना करता हूँ।

3. चरम श्लोक (भगवत गीता 18 /66) – श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में उपदेश किया ~ 

सर्व धरमान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।  

अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः।। 

 (सभी साधनों का पुर्णतः त्याग कर, अपना सर्वस्व मुझे समर्पित करो; मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा, चिंता मत करो।)

 अर्थ : सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

>>>धर्म= Law of existence. हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है।  उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं। इसलिए, अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है। मधुरता (मिठास) चीनी का धर्म है, कटु चीनी मिथ्या है। 

जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म>> होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म - (कृत्रिम या नैमित्तिक।) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है। परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है; जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है

इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है ? उसकी त्वचा का वर्ण? असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार? उसका स्वभाव (संस्कार)? उसके शरीर? मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है।  जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्म-तत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।

सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्तधर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं ? अथवा क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। 

किन्तु आत्मस्वरूप के अज्ञान (अविद्या)  के कारण मनुष्य अपने शरीर, मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न र्मत्य जीव (नश्वर M/F) का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा, मन्ता, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता रूप जीव (व्यष्टि अहं) ही संसार के दुखों को भोगता है। 

वह शरीरादि उपाधियों के जन्म-जरा -मृत्यु आदि शरीर-मन के धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु, वास्तव में  ये हमारे शुद्ध स्वरूप - 'आत्मा ' के धर्म नहीं हैं। वह जन्म-मृत्यु भी गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है। इसलिए समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ (M/F में अहं भाव का त्याग) हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है;  अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। 

>>>मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) :  मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है ?  जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन, धारणा का कोई उच्च आदर्श , अवतार वरिष्ठ या नेता -वरिष्ठ का मूर्तरूप प्रदान नहीं करते हैं। एकाग्रता का अभ्यास ,आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन या  शाश्वत-नश्वर विवेक का प्रयोग करने के लिए मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए - जीवन में अवतारवरिष्ठ का चयन करना ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा (ब्रह्म या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।

>>>अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा): जो इच्छायें और विवेकहीन संकल्प हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके ( M/F भाव या Lust and lucre में घोर आसक्ति या घोर-स्वार्थपरता ?) हमारे मन की दृढ़ इच्छाशक्ति को विभिन्न इन्द्रियों में बिखेर देता है वह पाप कहलाता है। [इसीलिए महामण्डल के गुरुगृहवास/ निर्जनवास प्रशिक्षण शिविर में नेतावरिष्ठ के निर्देशन में  वैराग्यपूर्वक मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, माँ की कृपा से किसी साधक का एक बार भी चित्तवृत्ति-निरोध होकर समाधि-जन्य विवेक जाग्रत हो गया हो - वैसे साधक को '.... ] ,  बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म (कर्मबन्धन) ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में कर्म मनुष्य के अन्तःकरण (चित्त) में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है। 

शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं वृत्ति रूप मन (अहं) है अतः,  जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है तब तक मन (व्यष्टि अहं) का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है। जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं-- तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली कर्मों की प्रेरक, इच्छा- 'milk chocolate' और विक्षेपों को-(M/F) को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।

>>>Life-building :  यद्यपि  जीवन-गठन, नैतिकता, सदाचार के समस्त कर्तव्य (3H विकास के 5 अभ्यास) , श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण (भारत का कल्याण) की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है।  तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है।  'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' द्वारा सदाचारी मनुष्य बनने और बनाने को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को (यम-नियम-आसन,प्रत्याहार और धारणा आदि)  धर्म की संज्ञा दी गयी है जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं

इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कुछ अन्य श्लोकों में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है, और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे।  उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है। इस अध्याय में सम्पूर्ण गीताशास्त्र के तत्त्वज्ञान का उपसंहार किया गया है। 

श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द भारतीय /हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की

>>>भेद-प्रतीति (M/F में भेद, ब्रह्म और शक्ति में भेद ?) का निवर्तक : यह विचार करना चाहिये कि इस गीताशास्त्र में निश्चय किया हुआ परम कल्याण ( मोक्ष ) का साधन ज्ञान है या कर्म अथवा दोनों ? उपर्युक्त वाक्य में 'तु' शब्द दोनों पक्षों की निवृत्ति के लिये है अर्थात् मोक्ष न तो केवल कर्म से मिलता है और न ज्ञान- कर्म के समुच्चय से ही। इस प्रकार तु शब्द दोनों पक्षोंका खण्डन करता है। मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतःसिद्ध है।  इसलिये कर्मों को उसका साधन मानना नहीं बन सकता क्योंकि कोई भी नित्य वस्तु (स्वतःसिद्ध वस्तु) कर्म या ज्ञान से उत्पन्न नहीं की जाती

 नित्यकर्मोंका आचरण करनेसे तो प्रत्यवाय न होगा,  निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग कर देनेसे अनिष्ट ( बुरे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी? काम्य कर्मोंका त्याग कर देने के कारण इष्ट ( अच्छे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी तथा वर्तमान शरीर को उत्पन्न करने वाले कर्मों का फलके उपभोग से क्षय हो जानेपर।  इस शरीर का नाश हो जाने के पश्चात् दूसरे शरीर की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं रहने से तथा शरीर सम्बन्धी आसक्ति आदिके न करनेसे,  जो स्वरूप में स्थित हो जाना है वही कैवल्य है ! अतः बिना प्रयत्न के ही कैवल्य सिद्ध हो जायगा।

यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं, जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा (राज-योगविज्ञान या मनःसंयोग के द्वारा) अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में  यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है। इसके विपरीत,  जिस साधक का मन (पितृ-हीन, मातृ हीन ~ टूअर होने,  दरीद्रता, सन्तान हीनता, आदि के कारण)  नैराश्य और रुदन, विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर पाता है।  और स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूर-दूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।

भेद-प्रतीति (M/F में भेद, ब्रह्म और शक्ति में भेद ?)  का निवर्तक होने के कारण केवल आत्मज्ञान ही परम कल्याण (मोक्ष) का हेतु ( साधन ) है ! कैवल्य ( मोक्ष ) की प्राप्ति ही उसकी अवधि है। अर्थात् जैसे दीपक के प्रकाश का रज्जु आदि वस्तुओं में होनेवाली सर्पादि (M/F-पैन्ट टी-शर्ट में आने वाला /वाली ?) की भ्रान्ति को और अन्धकार को नष्ट कर देना ही फल है।  और जैसे उस प्रकाश का फल सर्पविषयक विकल्प को हटाकर केवल रज्जु को प्रत्यक्ष कराके समाप्त हो जाता है।  वैसे ही अविद्या रूप अन्धकार के नाशक आत्मज्ञान का भी फल केवल,आत्म-स्वरूप को प्रत्यक्ष कराके ही समाप्त होता देखा गया है।  क्योंकि ज्ञान अविद्या का नाशक है इसलिये उसका कर्मों से विरोध है। यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकार का नाशक अन्धकार नहीं हो सकता। इसलिये केवल ज्ञान ही परम कल्याण का साधन है।

कर्म मेरे हैं, मैं उनका कर्त्ता हूँ।  मैं अमुक फल के लिये यह कर्म करता हूँ यह अविद्या अनादिकाल से प्रवृत्त हो रही है। यह केवल ( एकमात्र ) अकर्ता  क्रियारहित और फल से रहित आत्मा मैं हूँ, मुझसे भिन्न और कोई भी नहीं है ऐसा आत्मविषयक ज्ञान इस अविद्या का नाशक है।  क्योंकि यह उत्पन्न होते ही , कर्म-प्रवृत्ति की हेतुरूप भेद-बुद्धि का नाश करने वाला है। 

( भगवान् ) बोले -- समस्त धर्मों को अर्थात् जितने भी धर्म हैं उन सबको  यहाँ नैष्कर्म्य ( कर्माभाव ) का प्रतिपादन करना है।   इसलिये धर्म शब्द से अधर्म का भी ग्रहण किया जाता है। जो बुरे चरित्रों से विरक्त नहीं हुआ धर्म और अधर्म दोनों को छोड़ इत्यादि श्रुति-स्मृतियों से भी यही सिद्ध होता है। सब धर्मों को छोड़कर -- सर्व कर्मों का संन्यास करके 'मुझ एक' की शरण में आ।अर्थात् मैं  जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म,  जरा और मरण से रहित हूँ उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह कि मुझ परमेश्वर से (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव से ) अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय-वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष करा के  समस्त धर्माधर्म-बन्धनरूप पापों से मुक्त कर दूँगा। 

साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं। भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है।

एकाग्रता (समाधि जन्य ज्ञान) के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं :  

(1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा (मनःसंयोग के अभ्यास और वैराग्य के द्वारा) सब धर्मों का त्याग। 

 (2) मेरी (ईश्वर की- वर्तमान युग के अवतार वरिष्ठ को पहचानकर केवल उनकी) ही शरण में आना और

 (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। 

इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है। 

 भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं- तुम मेरी शरण में आओ,  मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मा शुच (तुम शोक मत करो। )  उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। 

गीता की तरह 'Be and Make' भी एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है, मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है। परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। ]

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मंगलवार, 8 अगस्त 2023

🔱" श्री रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह " (Sri Ramanujacharya Millennium Celebrations!) के अवसर पर 'समता की मूर्ति' (statue of equality) का अनावरण !🙏भारत में भक्ति का मार्ग दक्षिण से उत्तर की ओर जाता है 🔱🙏 सनातन धर्म का पनुर्जागरण - 1

 🔱🙏 भारत में भक्ति का मार्ग दक्षिण से उत्तर की ओर जाता है 🔱🙏 

The path of devotion in India goes from south to north.

🔱 देशप्रेमियों के लिए एक उत्साहवर्धक समाचार : Unveiling of 'Statue of Equality' :श्री रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह :'समता की मूर्ति का अनावरण। शनिवार, 5 फरवरी, 2022 को हैदराबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्टैच्यू ऑफ इक्‍वालिटी’ (Statue of Equality) समानता (समता) की प्रतिमा का अनावरण किया। उन्होंने बताया कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद 13 फरवरी को 120 किलो सोने की प्रतिमा का अनावरण करेंगे। 'समता  की मूर्ति' का उद्घाटन स्वामी रामानुजाचार्य की वर्तमान में जारी 1000 वीं जयंती के अवसर पर आयोजित होने वाले 'बारह दिवसीय सहस्राब्दी समारोह' का का हिस्सा है। इस दौरान उनके साथ श्री चिन्ना जीयर स्वामी भी मौजूद रहे। 

प्रधानमंत्री मोदी ने भक्ति शाखा के संत श्री रामानुजाचार्य की सोने की मूर्ति के चरणों में पुष्पांजलि देते हुए कहा कि “मनुष्य के जीवन में गुरु की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है”-  उन्होंने कहा कि इसीलिए  हम गुरु की तुलना ईश्वर के साथ करते  हैं --यह हमारे भारत की महानता है।" 

ध्याम मूलं गुरुर मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।

मन्त्र मूलं गुरुर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥  

अर्थ: ध्यान का मूल गुरु के  रूप पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना है।  पत्र-पुष्प से गुरु की पूजा कहाँ करें ? तो कहा पूजा-ध्यान करने का मूल स्थान श्री    गुरु के चरण हैं। और मंत्र का मूल है- गुरु के मुख से निकला ईश्वर के अवतार वरिष्ठ के उच्चारण को गुरु-परम्परा में सीखकर - हिन्दी में नहीं पुकार कर बंगाली भाषा में तीन बार पुकारो - रामोकृष्णो! और मोक्ष -अर्थात 'भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति' का मूल गुरु/नेता-वरिष्ठ की कृपा है

 आज मां सरस्वती की आराधना के पावन पर्व, बसंत पंचमी का शुभ अवसर है।  माँ  सारदा के विशेष कृपा अवतार श्री रामानुजाचार्य जी की प्रतिमा का अनावरण इस अवसर पर किया जा रहा है !  मैं आप सभी को बसंत पंचमी की विशेष शुभकामनाएं देता हूं। श्री रामानुजाचार्य का ज्ञान , सम्पूर्ण दुनिया का मार्गदर्शन करे ! 

अतः हमारे लिए जरूरी ये है कि हम अपनी प्राचीन सर्वसमावेशी भारतीय संस्कृति से जुड़ें , अपने असली जड़ो से जुड़ें और  अपनी वास्तविक शक्ति से परिचित हों।  आज जब दुनिया में सामाजिक सुधारों की बात होती है, प्रगतिशीलता की बात होती है, तो माना जाता है कि सुधार जड़ों से दूर जाकर होगा. लेकिन, जब हम रामानुजाचार्य जी को देखते हैं, तो हमें अहसास होता है कि प्रगतिशीलता और प्राचीनता में कोई विरोध नहीं है। रामानुजाचार्य जी ने दलितों को पूजा का हक दिया।  उन्होंने दलितों और पिछड़ों को गले लगाया। पीएम मोदी ने कहा, भारत एक ऐसा देश है, जिसके मनीषियों ने ज्ञान को खंडन-मंडन, स्वीकृति-अस्वीकृति से ऊपर उठकर देखा है।  हमारे यहां अद्वैत भी है, द्वैत भी है।  और, इन द्वैत-अद्वैत को समाहित करते हुये श्री रामानुजाचार्य जी का विशिष्टा-द्वैत भी है। 

रामानुजाचार्य जी का प्रभाव पूरे देश में : लोगों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, रामानुजाचार्य जी भारत की एकता और अखंडता का भी एक प्रदीप्त प्रेरणा हैं। रामानुजाचार्य ने राष्ट्रीयता, लिंग, नस्ल, जाति या पंथ की परवाह किए बिना हर इंसान की भावना के साथ लोगों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किया था। उन्होंने श्री रामानुजाचार्य को भारत की एकता और अखंडता की प्रेरणा करार देते हुए कहा कि उनका जन्म भले ही देश के दक्षिणी हिस्से में हुआ हो लेकिन उनका प्रभाव पूरे भारत पर है। आज रामानुजाचार्य जी की विशाल मूर्ति स्टैच्यू ऑफ इक्‍वालिटी के रूप में हमें समानता का संदेश दे रही है। एक ओर रामानुजाचार्य जी के भाष्यों में ज्ञान की पराकाष्ठा है, तो दूसरी ओर वो भक्तिमार्ग के जनक भी हैं।  एक ओर वो समृद्ध सन्यास परंपरा (निवृत्ति मार्ग)  के संत भी हैं, और दूसरी ओर गीता भाष्य में कर्म (प्रवृत्ति मार्ग) के महत्व को भी प्रस्तुत करते हैं। स्वामी विवेकानन्द की तरह वो खुद भी अपना पूरा जीवन (120 वर्ष)  कर्म के लिए समर्पित करते हैं

आज का बदलता हुआ भारत, एकजुट प्रयास कर रहा : विकास हो, सबका हो, बिना भेदभाव हो. सामाजिक न्याय, सबको मिले, बिना भेदभाव मिले।  जिन्हें सदियों तक प्रताड़ित किया गया, वो पूरी गरिमा के साथ विकास के भागीदार बनें, इसके लिए आज का बदलता हुआ भारत, एकजुट प्रयास कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 फरवरी को 216 फीट की इस मूर्ति का अनावरण किया। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि , श्री रामानुजाचार्य ने हजारों साल पहले वेदान्ती समानता या (साम्यभाव) की अवधारणा बताई थी। कई सदियों पहले संत रामानुजाचार्य ने सभी मनुष्यों के बीच समानता स्थापित करने का पाठ पढ़ाया। क्योंकि संत रामानुजाचार्य समानता पर ज़ोर देते थे, दृढ़ विश्वास करते थे इसीलिये उनकी मूर्ति का नाम स्टैच्यू ऑफ़ इक्वैलिटी रखा गया है। आज भी भारतवर्ष जाति की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है और सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही संत रामानुजाचार्य ने सभी जातियों के लिए मंदिर के दरवाज़ें खोलने पर ज़ोर दिया। हर तरह से विभाजित देशवासियों को  उन्होंने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का मतलब समझाया। संत रामानुजाचार्य मंदिरों से लोगों को भाईचारे का ज्ञान देते।  उन्होंने राजवंशों को अर्थात क्षत्रियों को भी सबसे पिछड़े लोगों को अपनाने की सीख दी।  उन्होंने जातिगत-भेदभाव के खिलाफ आध्यात्मिक आंदोलन को बढ़ावा दिया और हजारों वर्ष पहले ही बता दिया कि ईश्वर ही मानवरूप में हैं, जीव ही शिव है! दार्शनिक संत रामानुजाचार्य का कहना था कि हम एक-दूसरे को सम्मान देकर, एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द की भावना रखकर ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। 

>>>'Colonial Mindset' and  'Live and Let Live - Mindset' : पाश्चात्य शिक्षा के गुलामों की मानसिकता- survival of the fittest' और 'सनातन मानसिकता - जीओ और जीनेदो !   समानता की मूर्ति का अनावरण करते हुए, पी.एम. मोदी ने कहा कि भारत का स्वाधीनता संग्राम केवल अपनी सत्ता और अपने अधिकारों की लड़ाई भर नहीं था। भारत के स्वाधीनता संग्राम दो विचारधारा -'Colonial Mindset तथा Live and let Live' के बीच संघर्ष था। इस लड़ाई में एक तरफ ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ (Colonial Mindset) थी, तो दूसरी ओर ‘जियो और जीने दो’ (Live and let Live) की अवधारणा थी। भारत का स्वाधीनता संग्राम केवल अधिकारों की लड़ाई भर नहीं था ; इसमें एक ओर, ये  'Survival of the fittest ' योग्यतम की उत्तरजीविता का समर्थन करने वाली पाश्चात्य नस्लीय श्रेष्ठता और भौतिकवाद या चार्वाक*दर्शन की विलासी मानसिकता का उन्माद था, तो दूसरी ओर मानवता और आध्यात्म (spirituality-पुनर्जन्म) में आस्था थी !

 प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि, जब-जब धर्म की हानि होती है , उस समय जो सुधार निकलता है , वह समाज के लोगों के बीच से ही निकलता है।  ये जरूरी नहीं है कि गुलामी की मानसिकता से प्रेरित होकर सुधार के लिए अपनी जड़ों से दूर जाकर पाश्चात्य देशों का अनुकरण करना पड़े। बुराई से लड़ने वालों को ही सम्मान मिलता है।  सुधार समाज के लोगों से ही निकलता है।

भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य परम्परा तथा पुनर्जन्म पर आस्था रखने वाले हजारों युवाओं ने भारतमाता की बलिवेदी पर अपना बलिदान दिया और इस लड़ाई में भारत विजयी हुआ ! भारत की आध्यात्मिक परंपरा विजयी हुई।

भारत के एक अन्य आचार्य (भगवान) महावीर स्वामी ने ‘जियो और जीने दो’ (Live and let Live) की शिक्षा देते हुए कहा था -"इस पृत्वी  पर मनुष्य जीवन सर्वोपरि है, क्योंकि  उसके पास विवेक - प्रयोग शक्ति है, इसलिए केवल उसे ही स्वतंत्र इच्छा से कर्म करने का अधिकार प्राप्त हुआ है। मनुष्य को विवेक -विचार से ऐसा कर्म करना चाहिए जिसके अच्छे कर्मों से ईश्वर खुश हो जाते हैं। सभी मनुष्यों व जीवों को जीने का समानाधिकार है ! अतः इस शरीर का प्रयोग निर्बल जीवों की रक्षा करने हेतु किया जाना चाहिए।  ईश्वर द्वारा दिए गए इस जीवन को किस तरह व्यतीत करना है यह सबका निजी अधिकार है। हमें उन्हें दुःख पहुँचाकर इस अधिकार का हनन नही करना है,  इसके विपरीत हमें स्वयं के जीवन पर ध्यान केंद्रित करना है। अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु प्रयत्नशील होना है। स्वयं जीना है और अन्य जीवों को स्वतंत्र रूप से जीने देना है। किसी से कोई ईर्ष्या द्वेष न रखकर आत्म विकास पर केंद्रित होना है। जब सभी मनुष्य ऐसा कर सकने में समर्थ हो जाएंगे, तो सम्पूर्ण संसार मे शांति होगी व सब जीव धरती पर ही स्वर्ग का >रामराज्य का अनुभव करने लगेंगे!"

>>> राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (President Ram Nath Kovind) ने रविवार को रामानुजाचार्य जी की स्वर्ण प्रतिमा का अनावरण किया। मुचिन्तल में रामानुजाचार्य सहस्राब्दी का भव्य समारोह 12वें दिन चल रहा है।  राष्ट्रपति ने स्वर्ण प्रतिमा के अनावरण पर प्रसन्नता व्यक्त की है और लोगों को बधाई दी।

चिन्ना जीयर स्वामी ने किया राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का स्वागत : श्री श्री त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी ने कहा, ‘मैं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का हृदय पूर्वक स्वागत करते हैं।  इस देश में वेदों को बुनियाद बनाकर जितने प्रकार के लोग रहते हैं वे एक ही भगवान की संतान हैं।  सब लोगों को भगवान का मंत्र मिलना चाहिए, केवल श्रद्धा की जरूरत है।  यह बात 1000 साल पहले रामानुजाचार्य स्वामी ने कही थी और यही उन्होंने सिद्धांत दिया। 

  उन्होंने कहा कि भविष्य में मुचिन्तल आध्यात्मिक स्थल बनेगा।  श्रीराम नगरम अद्वैत और समानता के केंद्र के रूप में चमकेगा।  इस दौरान उन्होंने कहा कि रामानुजाचार्य जी की स्वर्णिम प्रतिमा का अनावरण करना मेरा परम सौभाग्य है।  राष्ट्रपति ने कहा कि इस देश में रामानुजाचार्य जी की भव्य प्रतिमा को स्थापित कर चिन्ना जीयर स्वामी ने इतिहास रचा है। भारत के गौरवशाली इतिहास में भक्ति और समता के सबसे महान ध्वजवाहक भगवत श्री रामानुजाचार्य सहस्राब्दी स्मृति महामहोत्सव के शुभअवसर पर सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई देता हूं।  बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां वसंत पंचमी के दिन पांच फरवरी, 2022 को, 11वीं सदी के संत श्री रामानुजाचार्य की 216 फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया था; जिसे ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी’ कहा जाता है। 

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा, ‘यह भव्य और विशाल प्रतिमा पंच धातु से निर्मित एक मूर्ति मात्र नहीं है।  यह प्रतिमा भारत की संत परंपरा (गुरु-शिष्य परम्परा) का मूर्तिमान स्वरूप है।  यह प्रतिमा भारत के समता मूलक समाज, 'वसुधैव कुटुंबकम' के स्वप्न का मूर्तिमान स्वरूप है। उन्होंने कहा, ‘लोगों में भक्ति और समानता का संदेश प्रसारित करने के लिए श्री रामानुजाचार्य ने श्री रंगम कांचीपुरम, तिरुपति, सिघांचलम और आंध्र प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के साथ बद्रीनाथ, नैमशारण्य, द्वारिका, प्रयाग, मथुरा, अयोध्या, गया, पुष्कर और नेपाल तक की यात्रा की।  श्री रामानुजाचार्य ने दक्षिण की भक्ति परंपरा को बौद्धिक आधार प्रदान किया है। ’

 हैदराबाद में 11वीं सदी के संत रामानुजाचार्य की सहस्राब्दि जयंती समारोह  में शामिल होने के बाद एक सभा को संबोधित करते हुए कोविंद ने कहा कि रामानुजाचार्य जैसे संतों ने सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित राष्ट्र की अवधारणा का निर्माण किया।  कोविंद ने कहा कि भारत वर्ष की यह संस्कृति-आधारित राष्ट्र की अवधारणा पश्चिमी विचारों में परिभाषित तरीके से भिन्न है।  सदियों पहले एक सूत्र में भारत को एकजुट करने वाली भक्ति परंपरा के संदर्भ पुराणों में पाए जाते हैं। 

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा, ‘स्वामी रामानुज जी की प्रतिमा से इस क्षेत्र में विशेष अध्यात्मिक ऊर्जा का सदैव संचार होता रहेगा।  यह एक दैवीय संयोग है कि इस क्षेत्र का नाम "राम नगर" है , यह क्षेत्र भक्ति भूमि है। श्री रामानुजाचार्य के 100 वर्षों से अधिक अपनी जीवन यात्रा के दौरान स्वामी जी ने आध्यात्मिक और सामाजिक स्वरूप को वैभव प्रदान किया। 

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत न केवल दर्शन में एक योगदान है, बल्कि रोजमर्रा के जीवन में भी इसकी प्रासंगिकता को दर्शाता है। राष्ट्रपति ने कहा कि जिसे पश्चिम में दर्शनशास्त्र कहा जाता है, वह केवल अध्ययन के विषय में सिमट गया है।  हालांकि, जिसे हम दर्शन कहते हैं, वह केवल शुष्क विश्लेषण का विषय नहीं बल्कि दुनिया और जीवन को देखने का एक तरीका भी है। 

उन्होंने कहा कि इस प्रकार, समानता की हमारी अवधारणा पश्चिमी देशों से नहीं ली गई है।  यह भारत की सांस्कृतिक मिट्टी में विकसित हुई है। रामानुजाचार्य ने समाज में असमानता को मिटाने के प्रयास किए थे।  उन्होंने मंदिरों में निचली जातियों को अनुमति दी थी। रामानुजाचार्य ने लोगों में समानता फैलाई थी।  रामानुजाचार्य ने लोगों के बीच भक्ति और समानता के लिए काम किया और अपने संदेशों से देश के कई हिस्सों को प्रेरित किया।

"वसुधैव कुटुम्बकम" का हमारा दृष्टिकोण समानता पर आधारित है।  समानता हमारे लोकतंत्र की आधारशिला है। राष्ट्रपति ने कहा कि  रामानुजाचार्य का महात्मा गांधी पर भी प्रभाव था।  उन्होंने टिप्पणी की है कि भारत में भक्ति का मार्ग दक्षिण से उत्तर की ओर जाता है।  भारत में यह हमेशा प्रासंगिक रहा है, जिसके लिए रामानुजाचार्य जैसे दार्शनिक-संतों का आभार।  बाबा साहेब आंबेडकर ने भी रामानुजाचार्य के समतावादी आदर्शों का पूरे सम्मान के साथ उल्लेख किया था। संत-कवियों और दार्शनिकों ने सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित राष्ट्र की अवधारणा का निर्माण किया है। 

वैष्णव परंपरा में सबके कल्याण के लिए काम करने को सर्वाधिक महत्व दिया गया है- राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा, ‘वैष्णव परंपरा में लोक संग्रह अर्थात सबके कल्याण के लिए काम करने को सर्वाधिक महत्व दिया गया है।  मैं चाहूंगा कि जिस निष्ठा के साथ आप सबने इस मूर्ति का निर्माण किया है, उसी भावना के साथ आप सब नर-नारयणी की सेवा तथा कल्याण हेतु देशव्यापी योजनाओं की परिकल्पना करें।  मुझे विश्वास है कि इस संस्था द्वारा लोक कल्याण के प्रभावशाली कार्य किए जा रहे हैं और आगे भी किए जाएंगे।  ऐसे कामों से समता मूलक समाज के हमारे राष्ट्रीय प्रयासों को बल मिलेगा। 


>>>हैदराबाद (प्राचीन नाम भाग्य नगर)> का नया आकर्षण केन्द्र :अपने संबोधन में पीएम मोदी ने कहा, आज विशेष रूप से हैदराबाद (प्राचीन नाम भाग्य नगर) देश में एक ओर सरदार साहब की ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ (Statue of Unity) जहाँ राष्ट्रिय एकता और अखण्डता की शपथ दोहरा रही है, तो रामानुजाचार्य जी की ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी’ (Statue of Equality) हमें समानता का संदेश दे रही है। वैष्णव परम्परा में भगवान विष्णु के 108 अवतार :  हैदराबाद आने वाले पर्यटकों का लिए रामानुजम की प्रतिमा एक नया आकर्षण होगी।

>>>‘स्टैच्यू ऑफ इक्वलिटी’ हैदराबाद के बाहरी इलाके शमशाबाद के मुचिन्तल में 200 एकड़ से अधिक भूमि पर बनाई गई है।  ‘स्टैच्यू ऑफ इक्‍वालिटी’ मेगा प्रोजेक्ट पर 1000 करोड़ रुपये की लागत आई है। आयोजकों का कहना है कि इस मूर्ति में 7000 टन पंच धातुओं का इस्तेमाल किया गया है। इसमें सोना, चांदी, तांबा, पीतल और जस्ते का इस्तेमाल भी किया गया है। जिसमें 120 किलो सोना लगा है। 120 किलो सोना लेने की वजह ये है कि रामानुजाचार्य 120 सालों तक जीवित रहे थे। 

वैष्णव परंपरा के मुताबिक भगवान विष्णु के 108 अवतार (प्रेम स्वरुप भगवान शाक्य मुनि जैसे अवतार) और मंदिर माने जाते हैं। इसीलिये इस मूर्ति के साथ-साथ परिसर में चारों ओर स्मारक तिरुमाला, श्रीरंगम, कांची, अहोभिलम, बद्री नाथ, मुक्तिनाथ, अयोध्या, बृंदावन, कुंभकोणम के जैसे और श्री वैष्णववाद परंपरा अन्य 108 दिव्य देशम (सजावटी रूप से नक्काशीदार मंदिर या मॉडल मंदिर) बनाए गए हैं।  परिसर में बने 108 मंदिर इन्ही दिव्यदेशों के प्रतिरूप हैं। इनका निर्माण होयसल शैली में किया गया है। इसमें कुल 468 स्तंभ हैं। विभिन्न स्थानों के मूर्तिकारों और विशेषज्ञों ने इसके लिए काम किया है। पत्थर के खंभों को राजस्थान में विशेष रूप से तराशा गया है। 

 >>>समता (पूर्णता) की प्रतिमा का 9 से है खास कनेक्शन : (पूर्णत्व की यानि 100 % निःस्वार्थपरता की प्रतिमा का 9 से है खास कनेक्शन :)  ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी’ को संत रामानुजाचार्य के जन्म के 1,000 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बनाया गया है। नीचे की सतह को मिलाकर इस मूर्ति की कुल ऊँचाई 216 फीट है। 216 के अंकों को आप जोड़ेंगे तो 2+1+6 बराबर 9 होगा।  9 को पूर्ण अंक कहा जाता है और सनातन परंपरा में इसे शुभ अंक भी माना जाता है। 

ये प्रतिमा 11वीं सदी के भक्ति शाखा (विशिष्टाद्वैत मार्ग) के संत श्री रामानुजाचार्य की स्मृति में तैयार की गई है। अब यहीं पर आपको यह बता दें कि इस प्रतिमा का 9 अंक से गहरा सम्बद्ध है। यह भद्रवेदी नामक 54 फीट ऊंचे भवन (पूर्णांक 9) पर निर्मित की गयी है।  जिस सतह पर मूर्ति बनी है उसकी ऊंचाई 54 फीट है। पद्म (कमल) पीतम /पीठम जिस पर मूर्ति बनाई गई है, उसकी ऊंचाई 27 फीट है।उस कमल में 54 पंखुड़ियां हैं और उसके नीचे 36 हाथियों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। कमल की पत्तियों पर 18 शंख और 18 चक्र बने हैं। इस मूर्ति तक पहुंचने के लिए 108 सीढ़ियां हैं। इस सतह को भद्र पीतम के नाम से जाना जाता है। मूर्ति की ऊँचाई 108 फीट है। पद्मासन पर बैठने की मुद्रा में निर्मित यह मूर्ति दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है।  उनके हाथ में लिया गया त्रिदण्डम (जिसे वैष्णव पीठाधिपति अपने साथ रखते हैं) 135 फीट ऊंचा है।   श्री रामानुजाचार्य का जन्म 1017 में श्रीपेरुंबदूर में हुआ। उनके जन्म वर्ष का भी योग निकालेंगे तो 1+0+1+7 बराबर 9 निकलता है। 

आर्किटेक्ट आनंद साईं इस मंदिर के आर्किटेक्ट हैं।  यदाद्रि मंदिर के अलावा यह प्रतिमा विष्णु भक्तों और अन्य पर्यटकों को आर्कषित करेगी।  इस वजह से हैदराबाद में पर्यटकों की तादाद भी बढ़ेगी। प्रतिमा की ऊंचाई 216 फुट है। रामानुजाचार्य की यह प्रतिमा पांच धातुओं सोना, चांदी, तांबा, पीतल और जस्ता से बनी है। पांच धातुओं से बनी यह मूर्ति दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति है। इस मूर्ति में विभिन्न द्रविड़ साम्राज्यों की मूर्तिकला से जुड़ी चित्रकारी की गई है। 

 मूर्ति के नाखूनों से लेकर त्रिदंडम तक को बहुत सावधानी से बनाया गया है। इस मूर्ति में रामानुजाचार्य ध्यान-मुद्रा में बैठे हैं।  इसके अलावा, ये प्रतिमा दुनिया में बैठी अवस्था में सबसे ऊंची धातु की प्रतिमाओं में से एक है।  इस मूर्ति को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में भी  शामिल किया गया है।

 यह प्रतिमा 54-फीट ऊंचे आधार भवन पर स्थापित है, जिसका नाम ‘भद्र वेदी’ है। मूर्ति और मंदिरों के अलावा यहां रामानुजम की ज़िंदगी को दिखाती एक शैक्षणिक -गैलरी भी है , जिसमें  एक डिजिटल वैदिक पुस्तकालय और प्राचीन भारतीय लेखन -अनुसंधान केंद्र, सेमिनार के लिए ऑडिटोरियम और विशेषज्ञों की बैठकें और एक ओमनिमैक्स थियेटर भी है।  यहां पर एक संगीतमय फव्वारा भी लगाया गया है।  यहां हर दिन नित्य अभिषेक की व्यवस्था भी की गयी है।

>>>त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी (Chinna Jeeyar Swami) :इस भव्य मूर्ति को तेलुगू भाषी राज्यों में लोकप्रिय वैष्णव संप्रदाय के संन्यासी त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी के आश्रम में  लगाया गया है। रामानुजाचार्य की प्रतिमा की कल्पना रामानुजाचार्य आश्रम के सचिव श्री चिन्ना जियर स्वामी ने ही की थी।  चिन्ना जियार स्वामी  ने ने बताया कि , " हम रामानुजाचार्य की 1000वीं जयंती इस तरह मना रहे हैं ताकि वसुधैव कुटुंबकम का विचार आगे बढ़ सके।  रामानुजम ने सामाजिक असमानता से लाखों लोगों को आज़ाद करवाया था। श्री रामानुजाचार्य ने राष्ट्रीयता, लिंग, नस्ल, जाति या पंथ की परवाह किए बिना हर इंसान की भावना के साथ लोगों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किया था। इसीलिए इस मूर्ति का नाम समता मूर्ति (अंग्रेज़ी में स्टैच्यू ऑफ़ इक्वैलिटी) रखा गया है। 'हम इस समानता की मूर्ति को सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में भव्य रूप से बनाए रखने की योजना बना रहे हैं;  ताकि दुनिया को सभी के लिए बराबरी वाली जगह को बनाने के लिए प्रेरित किया जा सके।

>>>Zeer Integrated Vedic Academics (Jiva)" : "जीवा " जीयर इंटीग्रेटेड वैदिक एकेडमिक  के आयोजनकर्ता ने बताया कि  इस परियोजना पर कुल 1000 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। तथा यह पूरी राशि- 1000 करोड़ रुपये उन्होंने भक्त जनों के द्वारा दिये दान से एकत्रित किये हैं। जीयर इंटीग्रेटेड वैदिक एकेडमिक (जीवा) का पूरा परिसर 45 एकड़ के इलाके में फैला हुआ   है। जाने-माने उद्योगपति ''My Homes'' समूह के मालिक जुपल्ली रामेश्वर राव ने ये ज़मीन दान की है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि 'माय होम्स' समूह के मालिक श्री जुपल्ली रामेश्वर राव, राज्य की सत्ताधारी पार्टी के काफ़ी करीबी हैं

 समता मूर्ति की अनावरण के बाद मुचितल में  चिन्ना जियर स्वामी ने कहा कि भगवान श्रीराम सत्यवचन -व्रत के धनी थे। श्रीराम की तरह ही मोदी भी सभी गुणों से संपन्न है। जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं , तब से देश के लोग गर्व से कह रहे है कि वे हिंदू हैं। मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो कश्मीर में 370 धारा के हटने से भारत माता सिर उठकर मुस्कुरा रही है। 

>>>लक्ष्मी नारायण महायज्ञ~ : मूर्ति के उद्घाटन के दौरान एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। इसे आधुनिक समय का सबसे बड़ा यज्ञ माना जा रहा है।  यहां लक्ष्मी नारायण महायज्ञ हो रहा है।  इसके लिए 144 होमशालाएं, 1035 वेदियां बनाई गई हैं।  500 पंडित मंत्रोच्चार और यज्ञ कराएंगे।  यज्ञ 14 दिनों तक चलेगा। इस दौरान 9 स्कूलों के छात्र वेद मंत्र पढ़ेंगे।  वे एक करोड़ बार अष्टाक्षरी मंत्र पढ़ेंगे।  यज्ञ का आयोजन करने वालों ने डेढ़ लाख किलो गाय के शुद्ध घी का इंतजाम किया है।  यह घी राजस्थान के पथमेढ़ा से मंगाया जा रहा है। घी जुटाने में छह महीने का समय लगा , यज्ञ के लिए चार तरह के पेड़ों की लकड़ी से समिधा इकट्ठा की गई है।  इन पेड़ों की लकड़ियां सिर्फ यज्ञ के लिए ही इस्तेमाल होती हैं। 

रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह का आज 12वां दिन : श्री रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह का आज बारहवां दिन था।  इस महीने की 7 तारीख को 32 मंदिरों, 10 तारीख को 36 मंदिरों , 11 तारीख को 19 मंदिरों और आज 21 मंदिरों का प्राणप्रतिष्ठा किया गया।  आज श्री श्री श्री त्रिदंडी चिन्नाजियार स्वामीजी ने 21 मंदिरों में मूर्तियों का प्राणप्रतिष्ठा, कुम्भाभिषेक, महा संप्रोक्षण किया।  इस कार्यक्रम में होम ग्रुप कंपनियों के चेयरमैन डॉक्टर जुपल्ली रामेश्वर राव ने भाग लिया।  वहीं, टीटीडी के अध्यक्ष वाई.वी सुब्बारेड्डी ने तिरुमाला क्षेत्र प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम में मौजूद रहे। 

>>>विशाल मूर्ति पर 1000 करोड़ खर्च करने को लेकर सोशल मीडिया में चर्चा : 

मूर्ति बनवाने वाले चिन्ना जीयर अपनी पिछली कुछ प्रतिक्रियाओं में कह चुके हैं, '' वर्णाश्रम व्यवस्था खत्म नहीं होनी चाहिए।  उन्हें यहां बरकरार रहना चाहिए।  हर जाति अपना-अपना काम करे, उसी से उनकी आध्यात्मिक उन्नति होगी। '' उनकी इन टिप्पणियों से खासा विवाद हो गया था। भारी खर्च कर इतनी बड़ी मूर्ति स्थापित करने के मुद्दे पर कई राजनितिक दलों के मत भी बंटे हुए हैं। 

हालांकि इस मूर्ति को लेकर 'औपनिवेशिक मानसिकता' (Colonial Mindset) से ग्रस्त सोशल मीडिया में काफी बहस चल रही है। कई वामपंथी लोगों ने इतनी बड़ी मूर्ति स्थापित करने और इसे समानता की मूर्ति कहने पर प्रतिक्रिया जताई है। कुछ लोगों ने अपने पोस्ट में लिखा है कि रामानुजम ने भले ही कुछ प्रगतिशील मूल्यों की शिक्षा दी होगी लेकिन वे ऐसी नहीं थी, जिनसे जाति व्यवस्था पर कोई असर पड़ा।

>>>ओस्मानिया यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर के श्रीनिवासुलु ने बीबीसी ?? से कहा, "मूर्ति बनाना ठीक है।  कोई किसी समाज सुधारक या समाज की बेहतरी करने वालों की मूर्ति बनवा सकता है।  लेकिन इतनी बड़ी मूर्ति इतने ताम-झाम और हजारों करोड़ रुपयों के साजोसामान के साथ स्थापित करने से अच्छा होता कि रामानुजम के नाम से कोई यूनिवर्सिटी बना दी जाती। "  'उन्होंने कहा, ''अच्छा होता अगर 1000 करोड़ रुपये से समाज को सीधे फायदा पहुंचाया जाता। "  

"किसी यूनिवर्सिटी से इस पैसे से रामानुजम फंड या रिसर्च सेंटर स्थापित किया जा सकता था।  अमेरिका और यूरोप में अमीर लोग ऐसा करते हैं। यह रिसर्च उनके नाम से होती है। रामानुजम के समय में उनके सिद्धांत पर समाज की क्या प्रतिक्रिया थी, इसके अध्ययन पर 1000 करोड़ रुपये किए जा सकते थे।  यह जानना ज्यादा लाभकारी होता कि इन सिद्धांतों में क्या परिवर्तन किए गए।  पिछले 1000 साल में यह कैसे विकसित हुआ और उनके दर्शन से क्या सामाजिक बदलाव हुए।"

 इसी क्रम में केंद्रीय मंत्री किशन रेड्डी ने कहा कि -' अनेकता में एकता की खोज करना भारत की विशेषता है', संपूर्ण मानवता के बीच सिर्फ भाईचारा ही नहीं 'वसुधैव कुटुम्बकम ', मानवजाति एक परिवार है। उन्होंने कहा कि चिन्ना जियर स्वामी ने दिव्यक्षेत्र के लिए सभी भक्तों को एकजुट किया।

आयोजित समारोह में , प्रधानमंत्री के साथ तेलंगाना की  माननीय राज्यपाल डॉक्टर श्रीमती तमिलिसाई सौंदरराजन, केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी और अन्य मौजूद थे। इसके साथ अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना, उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू, केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, नीतिन गडकरी और, प्रल्हाद जोशी, आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत भी इस 14 दिनों के समारोह में हिस्सा ले रहे हैं। 

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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

राजयोग अष्टम अध्याय [हिन्दी में] संक्षिप्त राजयोग | कूर्म पुराण से देवर्षि नारद के वैकुण्ठ जाने की कथा

  राजयोग 

अष्टम अध्याय 

 संक्षिप्त राजयोग 

[CHAPTER VIII/RAJA-YOGA IN BRIEF]

राजयोग का सारांश : कूर्म-पुराण से अनुवादित 

[साभार @@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/06/rajyog-chapter-eighth-in-hindi.html]

>>>Yoga is divided into two parts. योगाग्नि मनुष्य के पापपिंजर को दग्ध कर देती है। तब सत्त्वशुद्धि होती है और साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति होती है। योग से ज्ञानलाभ होता है; ज्ञान फिर योगी की मुक्ति के पथ का सहायक है। जिनमें योग और ज्ञान, दोनों ही वर्तमान हैं, ईश्वर उनके प्रति प्रसन्न होता है। जो लोग प्रतिदिन एक बार, दो बार, तीन बार या सारे समय महायोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें देवता समझना चाहिए। योग दो प्रकार के हैं; जैसे- अभावयोग और महायोग। 

जब शून्य तथा सब प्रकार के गुण से रहित (निर्गुण-निराकार) रूप से अपना चिन्तन किया जाता है, (meditated upon as zero) तब उसे अभावयोग कहते हैं; और जिस योग के द्वारा आत्मा आनन्दपूर्ण, पवित्र और ब्रह्म के अभिन्न रूप (अवतार वरिष्ठ के नामरूप) से चिन्तन किया जाता है, उसे महायोग कहते हैं। योगी इनमें से प्रत्येक के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं। हम दूसरे जिन योगों के बारे में शास्त्रों में पढ़ते या सुनते हैं, वे सब योग इस उत्तम महायोग जिसमें योगी अपने को तथा सारे जगत् को साक्षात् भगवत्स्वरूप देखते हैं के साथ एक श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते। यह सारे योगों में श्रेष्ठ है।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये राजयोग के विभिन्न अंग या सोपान हैं। यम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इस यम से चित्तशुद्धि होती है। शरीर, मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना- यह अहिंसा कहलाता है। अहिंसा से बढ़कर और धर्म नहीं। मनुष्य के लिए जीव के प्रति यह अहिंसाभाव रखने से अधिक और कोई उच्चतर सुख नहीं है। सत्य के द्वारा हम कर्मफल के भागी होते हैं; सत्य से सब कुछ मिलता है; सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है। यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं। 

चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज को न लेने का नाम है अस्तेय तन मन वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रह्मचर्य है। अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं। अपरिग्रह साधना के पीछे यह कारण है कि किसी से कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेनेवाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है। निम्नलिखित साधन भी योग में सफलता के लिए सहायक हैं और वे हैं नियम अर्थात् नियमित अभ्यास और व्रतपरिपालन तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान- इन्हें नियम कहते हैं। व्रत उपवास या अन्य उपायों से देहसंयम करना शारीरिक तपस्या कहलाता है। 

वेदपाठ या दूसरे किसी मन्त्रोच्चारण को सत्त्वशुद्धिकर स्वाध्याय कहते हैं। मन्त्र जपने के लिए तीन प्रकार के नियम हैं- वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक से उपांशु जप श्रेष्ठ है और उपांशु से मानस जप। जो जप इतने ऊँचे स्वर से किया जाता है कि सभी सुन सकते हैं, उसे वाचिक जप कहते हैं। जिस जप में ओठों का स्पन्दन मात्र होता है, पर पास रहनेवाला कोई मनुष्य सुन नहीं सकता, उसे उपांशु कहते हैं। और जिसमें किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता, केवल मन ही मन जप किया जाता है और उसके साथ उस मन्त्र का अर्थ स्मरण किया जाता है , उसे मानसिक जप कहते हैं। यह मानसिक जप ही सब से श्रेष्ठ है।

ऋषियों ने कहा है- शौच दो प्रकार के हैं, बाह्य और आभ्यन्तर। मिट्टी, जल या दूसरी वस्तुओं से शरीर को शुद्ध करना बाह्य शौच कहलाता है, जैसे- स्नानादि। सत्य एवं अन्यान्य धर्मों के पालन के द्वारा मन की शुद्धि को आभ्यन्तर शौच कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर, दोनों ही शुद्धि आवश्यक हैं। केवल भीतर पवित्र रहकर बाहर अशुचि रहने से शौच पूरा नहीं हुआ। जब कभी दोनों प्रकार के शौच का अनुष्ठान करना सम्भव न हो, तब आभ्यन्तर शौच का वलम्बन ही श्रेयस्कर है। पर ये दोनों शौच हुए बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता। ईश्वर की स्तुति, स्मरण और पूजाअर्चनारूप भक्ति का नाम ईश्वरप्रणिधान है। 

यह तो यम और नियम के बारे में हुआ। उसके बाद है आसन। आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षःस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छन्द रीति से रखना होगा। 

अब प्राणायाम के बारे में कहा जाएगा। प्राण का अर्थ है, अपने शरीर के भीतर रहनेवाली जीवनीशक्ति, और आयाम का अर्थ है, उसका संयम प्राणायाम तीन प्रकार के हैं- अधम, मध्यम, और उत्तम। वह तीन भागों में विभक्त हैं, जैसे- पूरक, कुम्भक और रेचक। जिस प्राणायाम बारह सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है, उसे अधम प्राणायाम कहते हैं। जिसमें चौबीस सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे मध्यम प्राणायाम और जिसमें छत्तीस सेंकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे उत्तम प्राणायाम कहते हैं। 

अधम प्राणायाम से पसीना, मध्यम प्राणायाम से कम्पन और उत्तम प्रणायाम से उच्छ्वास अर्थात् शरीर का हल्कापन एवं चित्त की प्रसन्नता होती है। गायत्री वेद का पवित्रतम मन्त्र है। उसका अर्थ है, 'हम इस जगत् के जन्मदाता परम देवता के तेज का ध्यान करते हैं, वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।' इस मन्त्र के आदि और अन्त में प्रणव यानी ओंकार लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन ही मन उच्चारण करना पड़ता है। प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तीन अंशों में विभक्त है- जैसे, रेचक अर्थात् श्वासत्याग, पूरक अर्थात् श्वासग्रहण और कुम्भक अर्थात् श्वास की स्थिति या श्वासधारण अनुभवशक्तियुक्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है।

  >>>Mind fixed for twelve seconds it will be a Dharana :  हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्यदेश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है धारणा। मन को एक स्थान में संलग्न करके, फिर उस एकमात्र स्थान को अवलम्बनस्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्तिप्रवाह उठाये जाते हैं; दूसरे प्रकार के वृत्तिप्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते करते वे प्रथमोक्त वृत्तिप्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृत्तिप्रवाह कम होते होते अन्त में बिलकुल चले जाते हैं, फिर बाद में उन प्रथमोक्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृत्ति वर्तमान रह जाती है। इसे 'ध्यान' कहते हैं। 

और जब इस अवलम्बन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, सम्पूर्ण मन जब एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है, तब मन की इस एकरूपता का नाम है समाधि। तब किसी विशेष प्रदेश या चक्रविशेष का अवलम्बन करके ध्यानप्रवाह उत्थापित नहीं होता, केवल ध्येय वस्तु का भाव (अर्थ-अवतार वरिष्ठ का अर्थ =सच्चिदानन्द !) मात्र अवशिष्ट रहता है। यदि मन को किसी स्थान में बारह सेकण्ड धारण किया जाए, तो उससे एक धारणा होगी; यह धारणा द्वादशगुणित होने पर एक ध्यान, और यह ध्यान द्वादशगुणित होने पर एक समाधि होगी। 

सूखे पत्तों से ढकी हुई जमीन पर, चौराहे पर, अत्यन्त कोलाहलपूर्ण या डरावने स्थान में, दीमक के ढेर के समीप, अथवा जहाँ अग्नि या जल से किसी भय की आशंका हो, जहाँ जंगली जानवर हों, जो स्थान दुष्ट लोगों से भरा हो- ऐसे स्थानों में योग की साधना करना उचित नहीं। यह बात विशेषकर भारत के बारे में लागू होती है। 

जब शरीर अत्यन्त आलसी या बीमार मालूम होता है अथवा जब मन अत्यन्त दुःखपूर्ण रहता हो, तब भी साधना नहीं करनी चाहिए। किसी गुप्त और निर्जन स्थान में जाकर साधना करो, जहाँ लोग तुम्हें बाधा पहुँचाने न आ सकें। अपवित्र जगह में बैठकर साधना मत करना, वरन् सुन्दर दृश्यवाले स्थान में या अपने घर के एक सुन्दर कमरे में बैठकर साधना करना। साधना में प्रवृत्त होने के पहले समस्त प्राचीन योगियों, अपने गुरुदेव तथा भगवान् को प्रणाम करना और फिर साधना में प्रवृत्त होना। 

ध्यान का विषय पहले ही कहा जा चुका है। अब ध्यान की कुछ प्रणालियाँ वर्णित की जाती हैं। सीधे बैठकर अपनी नाक के ऊपरी भाग पर दृष्टि रखो। तुम देखोगे कि उससे मन की स्थिरता में विशेष रूप से सहायता मिलती है। आँख के दो स्नायुओं को वश में लाने (त्राटक ?) से प्रतिक्रिया के केन्द्रस्थल को काफी वश में लाया जा सकता है, अतः उससे इच्छाशक्ति भी बहुत अधीन हो जाती है। अब ध्यान के कुछ प्रकार कहे जाते हैं। सोचो, सिर के कुछ ऊपर एक कमल है- धर्म उसका मध्यभाग है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी की अष्टसिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं और वैराग्य उसके अन्दर की कर्णिका यानी बीजकोश है। जो योगी अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। 

इसीलिए अष्टसिद्धियों का बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अन्दर की कर्णिका का परवैराग्य अर्थात् अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया गया है। इस कमल के अन्दर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान, अस्पर्श, ओंकारवाच्य, अव्यक्त, किरणों से परिव्याप्त परम ज्योति का चिन्तन करो। पर ध्यान करो।  

और एक प्रकार के ध्यान का विषय बताया जाता है सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो फिर उस ज्योति के अन्दर और एक ज्योतिर्मय आकाश की भावना करो; वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है- परमात्मास्वरूप ईश्वर है। उसका (अवतार वरिष्ठ का)   ध्यान करो। 

ब्रह्मचर्य, अहिंसा, महाशत्रु को भी क्षमा कर देना, सत्य, आस्तिक्य ये सब विभिन्न व्रत हैं। यदि इन सब में तुम सिद्ध न रहो, तो भी दुःखित या भयभीत मत होना। प्रयत्न करो, धीरे धीरे सब हो जाएगा। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़कर जो भगवान् का शरणागत हुआ है, उनमें तन्मय हो गया है, जिसका हृदय पवित्र हो गया है वह भगवान् के पास जो कुछ चाहता है, भगवान् उसी समय उसकी पूर्ति कर देते हैं  अतः ज्ञान, भक्ति या वैराग्य के माध्यम से उनकी उपासना करो। 

जो किसी से घृणा नहीं करता, जो सब का मित्र है, जो सब के प्रति करुणासम्पन्न है, जिसका अहंकार चला गया है, जो सदैव सन्तुष्ट है, जो सर्वदा योगयुक्त, यतात्मा और दृढ़ निश्चयवाला है, जिसका मन और बुद्धि मुझमें अर्पित हो गयी है, वही मेरा प्रिय भक्त है। जिससे लोग उद्विग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्विग्न नहीं होता, जिसने अतिरिक्त हर्ष, दुःख, भय और उद्वेग त्याग दिया है, ऐसा भक्त ही मेरा प्रिय है। 

जो किसी का भरोसा नहीं करता, जो शुचि और दक्ष है, सुख और दुःख में उदासीन है, जिसका दुःख चला गया है, जो निन्दा और स्तुति में समभावापन्न है, मौनी है, जो कुछ पाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, जिसके कोई निर्दिष्ट घर बार नहीं, सारा जगत् ही जिसका घर है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा व्यक्ति ही मेरा प्रिय भक्त है। "ऐसे व्यक्ति ही योगी हो सकते हैं। 

नारद नामक एक महान् देवर्षि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान् योगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। उसने नारद से पूछा, “प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं? " नारदजी ने उत्तर दिया, “ मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ।" तब उसने कहा, अच्छा आप भगवान् से पूछते आएँ, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा। फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूदफाँद रहा था, कभी नाचता था, तो कभी गाता था। उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया। 

उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, चालढाल आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया। वह बोला, “अच्छा, तो भगवान् से पूछते आएँ, मैं कब मुक्त होऊँगा। ”लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, “देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी? ”नारदजी बोले, “हाँ, पूछी थी।” योगी ने पूछा, "तो उन्होंने क्या कहा? ”नारदजी ने उत्तर दिया, “भगवान् ने कहा, 'मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे।" तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, "मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे। 

नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये। उसने भी पूछा, "क्या आपने मेरी बात भगवान् से पूछी थी? "नारदजी बोले, "हाँ, भगवान् ने कहा है, उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा।" यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनन्द से नृत्य करने लगा और बोला, "मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा! "तब एक देववाणी हुई “मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे। "

वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसायसम्पन्न था ! इसीलिए उसे वह पुरस्कार मिला। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था। कुछ भी उसे उद्योगशून्य न कर सका। परन्तु वह प्रथमोक्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबड़ा गया। जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसायसम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है

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