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गुरुवार, 18 अगस्त 2016

श्रीलंका का अनुराधापुर प्राचीन आर्यों का लन्दन था !

आर्य जाति की महान सभ्यता का रहस्य: वर्णाश्रम धर्म और सतीत्व है!
"आर्य और तमिल इन दोनों के बीच विभाजक रेखा प्राचीनतम काल से भाषा रही है, रक्त नहीं। यह आर्य जाति जो स्वयं संस्कृत-भाषी और तमिल भाषी दो महान जातियों का सम्मिश्रण है, समस्त हिन्दुओं को समान रूप से अपने वृत्त में ले लेती है। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि कुछ स्मृतियों में शूद्रों को इस उपाधि - 'आर्य '- से वंचित रखा गया है, क्योंकि उस समय वे सम्भाव्य आर्य थे और आज भी भावी आर्य हैं।" शुद्राज वेयर ऐंड आर ओनली दी वोटिंग आर्या'ज- आर्या'ज इन नोविशीइट", (मनःसंयोग का प्रशिक्षणार्थी या शिक्षार्थी या नौसिखुआ ट्रेनीज़-  वुड बी आर्य -वुड बी लीडर्स  ?), "९/२८६ 
भारत की जाति-प्रथा पुत्र द्वारा सदा ही पिता के व्यवसाय को अपनाने से बढ़ी। १०/ ११२"किस वेद में तुमने यह देखा कि आर्य किसी दूसरे देश से भारत में आये ?  इस बात का तुम्हें प्रमाण कहाँ से मिला कि आर्य जाति ने जंगली जातियों को मारकाट कर यहाँ निवास किया ? यूरोपीय लोगों को जिस देश में अवसर मिलता वे वहाँ के आदिवासियों को मारकर स्वयं मौज से रहने लगते थे, इसीलिए वे हमारे बच्चों को पढ़ाने लगे कि आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया होगा।(जेएनयू में आज भी पढ़ाया जाता है कि) 'रामायण' -आर्यों के द्वारा दक्षिणी जंगली जातियों पर विजय की दास्तान है? लंका का राजा रावण शूद्र नहीं था -रावण का राज्य सभ्यता में राम के देश से बढ़ा-चढ़ा था कम नहीं !" (प्राच्य और पाश्चात्य १०/११०)
[" जब आर्य भारत पहुँचे" १/ २८६ -कहाँ से पहुँचे? पहले कहाँ रहते थे ? लंकावासी भी द्राविड़ नहीं हैं, बल्कि विशुद्ध आर्य हैं ।५/४०५  श्रीलंका का अनुराधापुर प्राचीन आर्यों का लन्दन था, बंगाल के लोग वहाँ जाकर बस गए। ]    
"रामायण और महाभारत प्राचीन आर्य-जीवन और ज्ञान के दो ऐसे विश्वकोष हैं, जिनमें एक ऐसी उन्नत सभ्यता का चित्र खींचा गया है, जो मानवजाति को अब भी प्राप्त करनी है। "७/१६८ 
" यूरोप में जाति से राष्ट्र बनता है, किन्तु एशिया में विभिन्न मूल और विभिन्न भाषाओँ के लोग, यदि उनका धर्म एक हो तो राष्ट्र बन जाते हैं। उत्तरी भारत के लोग उसी महान आर्य जाति के हैं, जितने फिनलैण्ड-वालों को छोड़कर बाकी सब यूरोप वाले माने जाते हैं। 
" यूरोप का उद्देश्य है -दूसरों का नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना। आर्यों का उद्देश्य है -सबको अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा करना। यूरोपीय सभ्यता का साधन है तलवार, और आर्यों की सभ्यता का उपाय है -'वर्णाश्रम धर्म'!  शिक्षा और अधिकार (योग्यता) के तारतम्य के अनुसार सभ्यता सीखने की सीढ़ी का नाम है -वर्णविभाग !प्रत्येक देश में सर्वोच्च-सम्मान जिसके हाथ में तलवार हो, उन क्षत्रियों को दिया गया है, किन्तु आर्यों की सर्वोच्च जाति ब्राह्मण है। जब किसी भी जाति में जन्मे मनुष्य के पास शस्त्र-बल आता है, वह क्षत्रिय हो जाती है। जब किसी में ज्ञान-बल आता है, वह ब्राह्मण हो जाती है; और जिस जाति में धन-बल आता है, वह वैश्य हो जाती है। "९/२८३  
"आर्य जाति के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद संहिता में 'पितर-पूजा' का कोई उल्लेख नहीं है। २/१९२"
भारत की आर्य अर्थात हिन्दू जनता का यह दृढ़ विश्वास है कि " आत्मा का अस्तित्व पूर्व से ही रहता है और वह अनेक जन्म धारण करती है। प्रत्येक नवजात प्राणी नए जीवन में ताजा और प्रफुल्लित होकर आता है और समझता है यह जीवन उसे मुफ्त में मिल गया है, इसका चाहे जैसा उपभोग मैं कर सकता हूँ। किन्तु
इस ताजे जीवन का मूल्य उसे बुढ़ापा और जीर्ण जीवन की मृत्यु के द्वारा देना पड़ता है। जिस जीवन का नाश तो हो गया, परन्तु उसके भीतर वह अविनाशी बीज था, जिसमें पुनः नया जीवन अंकुरित हुआ है। वे दोनों जीवन एक ही हैं। ९/२४२ " 
"हमारे कर्म यद्यपि देखने में लुप्त से हो जाते हैं, तथापि 'अदृष्ट' (भाग्य) बन जाते हैं, और अपने परिणाम में 'प्रव्रत्ति' का रूप धारण करके पुनः प्रकट होते हैं। छोटे छोटे बच्चे भी कुछ प्रवृत्तियों को -उदाहरणार्थ, मृत्यु का भय -अपने साथ लेकर आते हैं। सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा (अहं) में संगृहीत रहते है और उस अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जन्म द्वारा संक्रमित किये जाते हैं। प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है -यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है।" ९/२४६  
 "आर्यों ने योगाभ्यास पद्धति का आविष्कार करके (मन को वश में लाने उसे एकाग्र करने)- यह सीखा कि इसी ढाँचें के भीतर, जिसे हम मनुष्य कहते हैं, कोई अनन्त शक्ति भी कुण्डलीकृत है, जो स्वयं को अभिव्यक्त करने खोज में है। इसका विकास करना उसका परम् लक्ष्य हो गया। आर्यों की दूसरी शाखा यूनान गयी, उनका कार्य बहिर्मुखी हो उठा, अतः उन्होंने बाह्यकला और राजनितिक स्वतन्त्रता का विकास किया। यूनानी राजनितिक स्वतंत्रता की खोज में था, आर्य (हिन्दू) ने सदैव आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की खोज की। दोनों एक पक्षीय हैं। १/२८६ " 
किसी भी नेता (गुरु) को वैद्य होना चाहिये। उसे अपने शिष्य के स्वभाव (यूरोपीय या भारतीय मानसिकता 
के अंतर) को समझना और उसे वही मार्ग बतलाना चाहिये, जो उसके सर्वथा अनुकूल हो। हिन्दू राष्ट्र की रक्षा या देश-भक्ति की अधिक चिंता नहीं करता, वह केवल अपने धर्म की रक्षा करेगा, जबकि यूनानी सभ्यता में पहले देश आता है। केवल आध्यात्मिक स्वतंत्रता (Heart) की रक्षा करना और सामाजिक-न्याय या राजनितिक स्वतंत्रता (Head and Head ) की चिंता न करना, बहुत बड़ी भूल है। किन्तु इसका उल्टा होना तो और भी बड़ा दोष है। आत्मा, मन और शरीर - '3H' तीनों की स्वतन्त्रता या विकास के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिये! " ८/९४ 
जर्मन दार्शनिक शॉपेनहॉवर अपनी पुस्तक 'दी वर्ल्ड ऐज वील ऐंड रेप्रज़ेन्टैशन' (The World as Will and Representation (German: Die Welt als Wille und Vorstellung)  " इच्छाशक्ति और उसके प्रतिनिधित्व के जैसा विश्व"  में पुनर्जन्म के विषय में कहते हैं - " किसी व्यक्ति के लिये जैसी नींद है, उसी तरह 'इच्छा-शक्ति' के लिये मृत्यु है। 
यदि स्मृति और व्यक्तित्व कायम रहें (अपना सच्चिदानन्दत्व कभी न भूले),तो उन्हीं कर्मों को करना और उन्हीं दुःखों को भोगना, वह भी सदा अनन्त काल तक, बिना लाभ के करते रहना (एक्जिमा की खुजलाते रहना) उसे कभी सहन नहीं हो सकता।
वह उन्हें दूर फेंक देती है और यही 'लेथी' [वैतरणी का यूनानी प्रतिरूप लेथी नदी] है, जिसमें मृत्यु 
(समाधि के बाद भी) के बाद स्नान करने पर आत्मा अपनी स्मृति खो देती है। और इस मृत्युरूपी नींद से नया प्राणी बनकर दूसरी बुद्धि-इन्द्रिय के साथ पुनः प्रकट होता है; नया दिवस उसे नये तटों की ओर ललचाता है। 
जन्मान्तर की प्राप्ति उस अविनाशी इच्छाशक्ति के जीवन-स्वप्न की लगातार श्रृंखला हैं। यह तब तक चलेगा, जबतक कि बारम्बार के नये शरीरों में अधिकाधिक और भिन्न भिन्न प्रकार के ज्ञान द्वारा शिक्षित और उन्नत होकर वह स्वयं को (मिथ्या अहं को) निर्मूल और विलुप्त न कर दे। " ९/२४१-४२ 
" आर्यों में ही पुनर्जन्म, अमरत्व और आत्मा के स्वतंत्र व्यक्तित्व का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रकट हुआ। ईसाई धर्म में आत्मा की देहान्तर-प्राप्ति (metempsychosis- मेटम्सचोसिस) का सिद्धान्त भारत से ही प्राप्त हुआ, ईसा मसीह जोर देकर कहते थे-कि पैगम्बर इलियास ही जॉन बैप्टिस्ट बनकर पुनः आये थे। 'यदि आप इसे मानें, तो यह इलियास ही है, जो आने वाला था'-मैथ्यू ११/१४" 
पाइथागोरस भारत आये थे वहाँ के ब्राह्मणों से शिक्षा करके यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धान्त सिखाया। आर्य-प्रथा में मृत शरीर को जला देने का विधान इसीलिए है कि आत्मा शरीर से एक स्वतन्त्र वस्तु है, और शव के नष्ट कर दिए जाने पर भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचती
जिन राष्ट्रों ने आत्मा के स्वतंत्र व्यक्तित्व को माना, उन्होंने मृतक शरीर को जलाकर अपने उस विश्वास को बाह्यरूप से सदैव प्रकट भी किया। आर्यकुल के ईरानी (पारसी ?) लोग मृत शरीर को एक टॉवर पर रख देते हैं जिसका नाम दख्म या दह (जलाना) धातु से बना है।" ९/२३९-४०    
" ऊँची जातियों को नीची करने, मनचाहा आहार-विहार करने के उद्देश्य से अन्तर्जातीय विवाह करने और क्षणिक सुख-भोग लिये अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म की मर्यादा तोड़ने से इस जातिभेद की समस्या हल नहीं होगी। जब जातिभेद का होना अनिवार्य है, तब उसे धन पर खड़ा करने की अपेक्षा पवित्रता और आत्मत्याग के ऊपर खड़ा करना कहीं अच्छा है।"  जातिभेद समस्या की वास्तविक मीमांसा तभी होगी जब हर कोई सच्चा धार्मिक होने (जब प्रत्येक व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने) की चेष्टा करेगा और प्रत्येक व्यक्ति आदर्श मनुष्य बन जायेगा। मनःसंयोग को सीखकर पशुमानव- मनुष्य में और मनुष्य; देवमानव में रूपान्तरित हो जायेगा।  भविष्य में जो सत्ययुग आने वाला है उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ ब्राह्मण ही हो जायेंगे। हमारे जातिभेद का लक्ष्य यही है, कि धीरे धीरे सारी मनुष्यजाति आध्यात्मिक मनुष्य बनने के लिये, महान आदर्श (श्रीठाकुर) के साँचे में स्वयं को ढाल लेने के लिए अग्रसर हो। नीची से नीची जाति के पैरिया(दलितों) लोगों को भी ब्राह्मण बनने की चेष्टा करनी होगी। (व्यावहारिक) वेदान्त का यह आदर्श केवल भारतवर्ष के लिये ही नहीं, वरन सारे संसार के लिये उपयुक्त है। "
इस उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत करने का उपाय क्या है ? .... तुम लोगों में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। व्यावहारिक वेदान्त के आलोक (ऋषित्व प्राप्त करने की पद्धति) को घर घर ले जाओ, प्रत्येक जीवात्मा में जो ईश्वरत्व अन्तर्निहित है, उसे जगाओ। तब तुम्हारी सफलता का परिमाण जो भी हो, तुम्हें इस बात का सन्तोष होगा कि तुमने एक महान उद्देश्य की सिद्धि में ही अपना जीवन बिताया है, कर्म किया है और भारत माता की सेवा में अपने प्राणों को उत्सर्ग किया है। " ५/९४-९५  
" और मैं चुनौती देता हूँ कि कोई व्यक्ति भारत के राष्ट्रीय जीवन में कोई भी ऐसा समय दिखला दे, जब यहाँ समस्त संसार को हिला देने की क्षमता रखने वाले आध्यात्मिक नेताओं का अभाव रहा हो ? पर भारत का कार्य आध्यात्मिक है, और यह कार्य युद्धोन्माद के शोर और फाइटर जेट के बम्बार्डमेन्ट से पूरा नहीं किया जा सकता। भारत का प्रभाव धरती पर सर्वदा मृदुल ओस-कणों की भाँति बरसा है, बेआवाज और अव्यक्त, पर सर्वदा धरती के सुन्दरतम पुष्पों को विकसित करने वाला। केवल वेदान्त (के चार महावाक्य) ही अपने सर्वोच्च रूप में सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिकता प्रदान कर सकता है। प्रत्येक सभ्य देश में लाखों व्यक्ति उस सन्देश (रामकृष्ण-विवेकानन्द व्यावहारिक वेदान्त परम्परा में पाँच अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करने की ) की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्हें भौतिकता के घृणित गर्त में गिरने से गिरने से बचा लेगी! जिसकी और आधुनिक धन-पाशविकता उन्हें आँख मूंद कर अग्रसर होने पर बाध्य कर रही है। " ९/३०० 
" मैं यहाँ (अमेरिका में) एक भारतीय दर्शन, जिसे वेदान्त कहते हैं, का प्रतिनिधित्व करने आया था। यह दर्शन उस विशाल पुरातन आर्य साहित्य से उद्गत हुआ है जिसे वेदों के नाम से पुकारते हैं। इसकी उत्पत्ति किसी व्यक्तिविशेष या धर्मगुरु से नहीं हुई है। इस वेदान्त दर्शन का एक सिद्धान्त -जो विश्व के सभी धर्मों में पाया जाता है वह यह कि 'प्रत्येक मनुष्य दिव्य' है। यह दिव्यता बहुतों में अव्यक्त रह जाती है, किन्तु मूलतः मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी समान रूप से दिव्य हैं। इसीलिये किसी धर्मशिक्षक या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता को किसी भी मनुष्य की जाति-धर्म के नाम पर भर्त्सना नहीं करनी चाहिये बल्कि उसमें अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में उसकी सहायता करनी चाहिये। " ९/११८ 
अतएव हे आर्य-सन्तान, आलसी होकर बैठे मत रहो -जागो, उठो और जब तक इस चरम लक्ष्य तक न पहुँच जाओ तबतक मत रुको। अब अद्वैतवाद को व्यावहारिक क्षेत्र में प्रयोग करने का समय आ गया है। उसे अब स्वर्ग से पृथ्वी पर ले आना होगा। ताकि वेदान्त के उपदेश समाज के प्रत्येक मनुष्य की वह साधारण सम्पत्ति हो जाय, हमारी नस नस में, रक्त के प्रत्येक कण में उसका प्रवाह हो जाय। इस समय विधाता का यही विधान है। " ५/३१८
" आजकल प्रत्येक व्यक्ति 'नेता' (गुरु) बनना चाहता है। स्वयं कंगाल होकर भी लाख रूपये का दान करना चाहता है। किन्तु नेता केवल वही व्यक्ति हो सकता है, नाम-यश के लिए अथवा किसी स्वार्थ-सिद्धि के लिये मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निमार्ण का प्रशिक्षण नहीं बतलाता हो। जो परम-सत्य या ब्रह्म को भली भाँति जान चुका हो, अर्थात जिसने ब्रह्म-साक्षात्कार कर लिया हो। नेता से नेतृत्व का प्रशिक्षण लेने के बाद किसी भावी नेता या सत्यार्थी साधक के लिये आवश्यकता पड़ती है अभ्यास की। ५/३४२  
" मानव-जाति के आचार्य अथवा नेता के रूप में विवाहित और ब्रह्मचारी दोनों ही पथप्रदर्शक उतने प्राचीन हैं, जितने वेद! ब्रह्मचारी मार्गदर्शक नेता, विवाहित नेताओं से एक सर्वथा पृथक धरातल पर थे, और यह पार्थक्य था पूर्ण पवित्रता का ब्रह्मचर्य का। यदि वेदों के कर्मकाण्ड का मूलाधार बलिप्रथा का यज्ञ है, तो उनके ज्ञानकाण्ड की आधारशिला ब्रह्मचर्य है। उपनिषदों की व्याख्या (द्वासुपर्णा की व्याख्या करने वाले नेता के लिये) करने वाले मार्गदर्शक नेता को पवित्र बनना अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य ही आध्यात्मिकता की अनिवार्य शर्त है। पथभ्रष्ट संन्यासी भी देश के किसी गृहस्थ से कहीं अधिक उच्चतर भूमि पर हैं। उस कायर की तुलना में जिसने कभी प्रयत्न ही नहीं किया-(पूर्णपवित्रता के लिए), वह शूरवीर है। क्योंकि वह भगवान का सैनिक है -उसने धर्म को पुनर्संस्थापित करने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया है ! कौन सा धर्म मर सकता है, जब तक उसमें (गृहस्थ होकर भी त्यागियों के बादशाह श्रीठाकुर देव और परमपूज्य नवनी दा जैसे) श्रद्धालु संन्यासियों का समुदाय बना रहता है ? " ९/२९१ 
" हमारा ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों है ; निर्गुण रूप में ब्रह्म पुरुष है, और सगुण रूप में नारी है!
 भारत में माँ परिवार का केन्द्र है और हमारा उच्चतम आदर्श है। वह हमारे लिये ईश्वर की प्रतिनिधि है, क्योंकि ईश्वर ब्रह्माण्ड की माँ है। ईश्वर की प्रथम अभिव्यक्ति वह हाथ है-जो पालना झुलाता है। जो प्रार्थना के द्वारा जन्म पाता है, वह आर्य है; और जिसका जन्म कामुकता से होता है, वह अनार्य है। जन्मगत प्रभाव के इस सिद्धान्त को संसार के सभी धर्म और विज्ञान भी धीरे धीरे स्वीकार करने लगे हैं। मेरा और प्रत्येक अच्छे हिन्दू का यह विश्वास है कि मेरी माँ शुद्ध और पवित्र थी, और इसीलिये आज मैं जो कुछ हूँ -उस सबके लिए उसका ही ऋणी हूँ ! यही है आर्य जाति का रहस्य -सतीत्व !  " १०/३०२ 
"भारतीय नारियों से हमारी राष्ट्रीय देवी सीता के चरण-चिन्हों का अनुसरण कराकर अपने राष्ट्र के उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है। " ५/१५० यदि हर एक स्त्री-पुरुष को जिस किसी पुरुष या स्त्री को पति अथवा पत्नी के रूप में ग्रहण करने की स्वाधीनता दी जाय, यदि केवल इन्द्रिय-भोगों और पाशविक प्रवृत्तियों की परितृप्ति को समाज में बढ़ावा दिया जाय-तो उसका फल अवश्य अशुभ होगा। उससे दुष्ट प्रकृति और आसुरी स्वभाव की सन्तान उत्पन्न होगी। आज एक ओर मनुष्य इस तरह की पशु प्रकृति की सन्तान उत्पन्न कर रहे हैं, दूसरी ओर इनके दमन के लिये पुलिस की संख्या बढ़ा रहे हैं। अतएव तुम्हें किस प्रकार का विवाह करना चाहिये किस प्रकार नहीं, इस पर तुम्हें आदेश देने का अधिकार समाज को है। जन्मपत्री में वर-कन्या की जैसी जाति, गण आदि लिखे रहते हैं, आज भी हिन्दू समाज में उन्हीं के अनुसार विवाह होते हैं।" ५/२९९ 
" जहाँ तक शिक्षा की बात है, ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा स्थापित स्कूल कॉलेज हैं, वे सब ठीक चल रहे हैं। किन्तु धर्म के मामले में बात दूसरी है। जो धर्म-परिवर्तित ईसाई भारत में अंग्रेज सरकार की नौकरी में नहीं लिये जाते, वे परिवर्तित धर्म में नहीं रहते। हिन्दू चतुर होता है, वह चारा तो लील जाता है, पर काँटा वैसे ही छोड़ देता है। ईसाई को अपने धर्म की आवश्यकता है, हिन्दू को अपने धर्म की। सभी धर्म अच्छे हैं, क्योंकि सारभूत बातें समान हैं।" 
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सोमवार, 15 अगस्त 2016

卐卐 18. 'युवाओं से अपेक्षा '- 'Work more than paid for'--Spirituality is the Law of Success' [एक नया युवा आन्दोलन -18.What is Wanted ]

'देश के युवाओं से क्या अपेक्षा की जाती है ? '
       [>>The Mahamandal is a working device to practice  the teachings of Swami Vivekananda. स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अभ्यास करने के लिए महामंडल एक कार्यशील उपकरण है।]
         इस बात को उच्च स्वर में और पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम स्वयं स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही निर्धारित किया गया है। महामण्डल किसी एक (चतुर सुजान) व्यक्ति या कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों की कल्पना से उपजा हुआ संगठन नहीं है। महामण्डल एक ऐसी कार्य युक्ति (working device) है जो न केवल भारत की पतनोन्मुखी गति को रोकने, बल्कि उसे सम्पूर्ण रूप से पुनरुज्जीवित करने में सक्षम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को कार्यरूप देने में लगी हुई है। स्वामी जी की यह तीव्र इच्छा थी,  कि भारत के सभी युवा आलस्य , निराशा , अवसाद और अपमानजनक विचारों को पीछे छोड़कर आगे आयें जो उनके अंग-प्रत्यंग को शक्तिहीन बना देती है, उनके कद को छोटा कर देता है और उनकी आत्मा को उत्साहहीन कर कर देता है।  
>>Waking dream of Swami Vivekananda: (स्वामी विवेकानंद का जाग्रत स्वप्न) 
         स्वामीजी चाहते थे कि भारत के युवा सभी सुस्ती, निराशा, निराशा और हर दूसरे अपमानजनक विचार को छोड़कर आगे आएं जो उनके अंगों को सुन्न कर देता है, उनके कद को छोटा कर देता है और उनकी आत्मा को नम कर देता है। हमारे देश में बहुत लम्बे समय से, विशेषकर विगत लगभग एक हजार वर्षों से ऐसा होता ही चला आ रहा था। स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं को प्रेरित (आत्मविभोर) करने, उनमें एक नई भावना (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) पैदा करने, राष्ट्रीय जीवन को नये जोश से भर देने के लिये आये थे, ताकि हमारी मातृभूमि एक बार फिर श्रेष्ठता की उस ऊँचाई को छू ले, जिसके चकाचौंध कर देने वाली रौशनी के आगे इसके अतीत का गौरवशाली इतिहास भी मंद टिमटिमाते तारे जैसा प्रतीत होगा। ऐसे महिमामण्डित भारत को बनते हुए देखना स्वामी विवेकानन्द का स्वप्न था। लेकिन स्वामी विवेकानन्द के लिये यह जाग्रत स्वप्न था, जागते समय खुली आँखों से स्वप्न देखने जैसा था, उन स्वप्नों की तरह नहीं जो हम सोते समय नींद में देखते हैं। स्वामी विवेकानन्द इस लक्ष्य के प्रति (भारत को विश्वगुरु के आसन पर बैठे देखना के प्रति) हमेशा जागते ही रहते थे। वे कभी सोये नहीं थे। यह सपना बिल्कुल जीवन्त और सुस्पष्ट था और इसलिए वास्तव में यह सपना नहीं था, बल्कि यह एक ऋषि की दृष्टि थी। 
     स्वामी विवेकानन्द अपनी ऋषि-दृष्टि से अतीत के इतिहास को, बनते हुए इतिहास को और उस इतिहास को भी देखने में सक्षम थे, जो अभी भविष्य के गर्भ में है, जिसे बनना अभी बाकी है! उन्होंने ने स्वयं कहा था कि वे 1500 वर्ष बाद घटित होते हुए इतिहास को भी देखने में समर्थ थे।उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को पूर्णता के पथ पर अग्रसर होते हुए देखा था, और उन्होंने यह भी देखा था कि भारत पुनः उन्नत हो रहा है, भारत माता जाग उठी है ! और ये भारत के युवा ही हैं, जो उसे फिर प्रतिष्ठित करेंगे। [ध्यातव्य - आज 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध और विश्व के दो तिहाई युवा जिनकी संख्या 80 करोड़ और औसत आयु 29 वर्ष है , भारत में ही निवास करती है।]      
>>The Mahamandal came into being to do a little like the squirrels who helped Sri Ramachandra (Sri Ramakrishna) to build the bridge to Lanka from the main land.
       जिस प्रकार, छोटी-छोटी गिलहरीयों ने भी 'मुख्य भूमि' से श्रीलंका तक पहुँचने के लिये पुल का निर्माण करने में श्रीरामचन्द्र जी की सहायता की थी, ठीक उसी प्रकार महामण्डल भी भारत के पुनरुत्थान (स्वर्णयुग की स्थापना) में थोड़ी सी सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से अस्तित्व में आया है। जैसा स्वामी विवेकानन्द कहते थे, हम भारत के युवा अत्यन्त विनम्र लोग हैं, हमलोग साधारण मनुष्य हैं, किन्तु ये सामान्य लोग ही विश्व की सबसे शक्तिशाली प्राणियों का समूह हैं।  क्योंकि हम अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति में विश्वास करते हैं, और हम यह भी जानते हैं कि सभी प्रकार के भय (मृत्यु-भय) पर विजय कैसे प्राप्त किया जाता है ? महामण्डल यह भी जानता है कि युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर पूर्णत्व प्राप्त की दिशा में , अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने की दिशा में  कैसे आगे बढ़ा जाता है? 
    >>We have a tendency nowadays to trifle with everything : 
          स्वामी विवेकानन्द की यह तीव्र इच्छा थी कि भारत के युवा मनुष्य बन जायें, और हम भारत के युवा 'मनुष्य' बनना चाहते हैं। यदि हमलोग भी भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। तो हमें उन समस्त कारणों को अवश्य दूर करना चाहिये, जो हमारे वर्तमान अधःपतन के लिये उत्तरदायी है। और वे कारण क्या हैं ? कई कारणों में से एक  है, 'गंभीरता का आभाव '। स्वामी जी कहते हैं, "हमलोगों में आजकल यह प्रवृत्ति घर कर गयी है कि हमलोग हर बात को मजाक में उड़ा देना चाहते हैं, और किसी भी बात के महत्व को समझना नहीं चाहते।" हम लोग उस प्रत्येक परामर्श को बड़े हल्के ढंग से लेते हैं, जिसके आधार पर हमारे राष्ट्र का भविष्य निर्मित होने वाला है। हमलोग इस दुर्लभ मनुष्य जीवन के महत्व को समझना नहीं चाहते। हमलोग अपने आचरण, शिक्षा, अपने विचार और अन्य सभी जरुरी बातों को हल्के ढंग से ही लेते हैं। यही पहला कारण है जिसने देश को पतनोन्मुख बना दिया है। इसलिये हमे अब थोड़ी गंभीरता और विवेकशीलता का परिचय देना चाहिये। 
>>You can transcend your body and your mind.
     किन्तु गंभीर होने का अर्थ यह नहीं है कि हमें हर समय अपना मुखड़ा लटकाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -'हर समय तुमलोग अपने चेहरे पर उदासी की परत मत चढ़ाये रहो। क्यों ? क्योंकि निरानन्द रहना तो तुम्हारा स्वभाव में है ही नहीं। तुम तो वीर हो ! असाधारण शक्तिसम्पन्न हो, बलशाली हो ,तुम तो 'भय-मुक्त' हो। दूसरों के कल्याण के लिए तुम अपना सब कुछ त्याग सकते हो ! तब तुम दूसरों की सेवा भी कर सकते हो। तुम इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा पर विजय प्राप्त कर सकते हो। तुम इस जड़ शरीर और मन के परे जा सकते हो। देह और मन से ऊपर उठ जाना ही तो आध्यात्मिकता है! स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं को यही आध्यात्मिकता विरासत में सौंप देना चाहते थे! क्योंकि तभी वे भारत का कल्याण करने के योग्य बन सकेंगे। 
  >>Deluge the country with spiritual ideas first of all. 
  इसीलिये तो उन्होंने कहा था, 'सबसे पहले इस देश को आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो !' किन्तु (स्वाधीनता प्राप्ति के बाद) हमलोगों ने सबसे पहले ठीक इसका उल्टा किया है। 
हमलोगों ने आध्यात्मिक सिद्धान्तों (चार महावाक्यों) और आध्यात्मिकता विकसित करने की प्रणाली-(चरित्रनिर्माण की पद्धति या 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति) को ही अलमारी में बन्द करके उस पर ताला लगा दिया है। भारत का कल्याण करने के लिए स्वामीजी के परामर्श के अनुसार, "भारत को सबसे पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित करने "  के बजाए हमने समाज के कल्याण के लिए कई  योजनाएं और कार्यक्रम तैयार किए हैं। हमें उन योजनाओं पर बहुत गर्व भी है कि हमने ऐसा (20 सूत्री, मनरेगा,food security bill, RTI आदि ) कर दिया है।  हम इन योजनाओं पर सैकड़ों और हजारों करोड़ रूपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि उसका लाभ भारत के करोड़ों निर्धन-गरीबों और दबे-कुचले आबादी तक नहीं पहुँच पाता है। वे भूख से मर जाते हैं,या उन्हें असह्य तकलीफ झेलनी पड़ती है। हमलोग स्वयं को शिक्षित तथा बुद्धिमान समझते हैं, लेकिन उन्हें (पार्थो चटर्जी जैसे राजनीतिज्ञों को) धोखा देने की अनुमति दे रखी है और हम लगातार ठगे जा रहे हैं।   
       >>'Rejuvenate India by infusing it with spirituality' ( 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर दो !)
क्योंकि हम देश की समस्याओं को उसके सही कारणों के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखना नहीं जानते। हमें तो इसका एहसास भी नहीं होता, कि जिन आपदाओं को, दुःख-कष्टों को हम झेल रहे हैं, वह हमारी ही लापरवाही, हमलोगों की गंभीरता में कमी, जनसामान्य के लिये हमारे प्रेम में कमी, सर्वसाधारण के लिये हमारी त्याग की भावना में कमी, हमारे चरित्र में सेवापरायणता आदि के गुणों का अभाव, एवं हमारी घोर स्वार्थपरता के कारण है । सीधे शब्दों में कहें, तो हम लोग अपने (जड़) शरीर और मन के गुलाम बन गए हैं। हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से केवल शारीरिक सुख और आराम का भोग करना चाहते हैं।  स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों को देह और मन की इन सभी निम्न स्तर की तृष्णाओं से ऊपर उठ जाने का निर्देश दिया है। इनसे ऊपर उठ जाना आध्यात्मिकता (spirituality) है।  वे चाहते थे कि इस आध्यात्मिकता को भारतवर्ष में फिर से पुनरुज्जीवित कर दिया जाय। वे चाहते थे कि हम अपने दैनन्दिन जीवन में इस आध्यात्मिकता का अभ्यास करें। वे गीता-उपनिषद के महान विचारों को हल चलाने वालों, मछुआरों , गृहस्थों, श्रमिकों- समाज के सभी वर्गों तक पहुँचा देना चाहते थे। यही उनका उद्देश्य था और महामण्डल उसी उद्देश्य को कार्यरूप देने के क्षेत्र में कार्य करना चाहता है। 
          यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी (Task) है, एक बहुत बड़ा कार्य है, और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिए। भारत के सभी युवाओं को इस कार्य को पूरा करने के लिये कमर कस कर खड़े हो जाना चाहिये। युवाओं (यविष्ठ) के आलावा और कौन इस जिम्मेवारी  (Task) को पूरा करने में समर्थ हो सकता है ? बुजुर्ग, दुर्बल, कमजोर या 'sleeping minds ' जिनका मन अभी तक सोया हुआ है, वे भी इस कार्य को नहीं कर सकते। भारत के सम्पूर्ण पुनरुत्थान के इस महान कार्य को सिर्फ वैसे भारतीय युवा ही पूर्ण कर सकते हैं, जिनके पास बलवान शरीर, उन्नत मन और एक विशाल हृदय है, जो ऊर्जा से भरपूर हैं, साथ ही जिनमें अनुशासन, गम्भीरता और प्रेम की भावना भी हैं। 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर देना ' --युवाओं के करने योग्य यही सबसे महान कार्य है ! 
 >>Two ways of doing something.
        किसी भी कार्य को करने के दो तरीके हैं। एक है,'नाम-यश' पाने की इच्छा से काम को बड़े ताम-झाम के साथ आडम्बर-पूर्ण तरीके से, बड़ी-बड़ी योजनाओं के साथ, एक बहुत बड़ी राशि आदि खर्च करते हुए करना। और दूसरा तरीका है, यशगान सुनने या कुछ पाने की अपेक्षा रखे बिना कार्य को इतने सादगीपूर्ण तरीके से करना कि उस कार्य की तरफ लोगों का ध्यान भी न जाये। किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के कार्य को हमलोग अपने दैनन्दिन जीवन के कार्यों को करते हुए, किसी छोटे संगठन के माध्यम से बहुत सादगी के साथ भी सम्पन्न कर सकते हैं । महामण्डल की कार्य-पद्धति भी यही है। भारत को पुनरुज्जीवित करने में समर्थ स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने आचरण में रूपान्तरित कर लेना ही महामण्डल का लक्ष्य है। 
         >>Mahamandal  has one merit- 'A fund of will ':   
     महामण्डल अपने लिए नाम या प्रसिद्धि नहीं चाहता, सम्पत्ति अर्जित नहीं करना चाहता, किसी के भी द्वारा अपना यशगान सुनने या प्रशंसा प्राप्त करने की कामना नहीं करता, या बड़ी धनराशि भी नहीं जुटाना चाहता है । महामण्डल की एक खूबी है- 'इच्छाशक्ति का कोष'   हमारे कुछ युवा कर्मियों के 'दृढ़ संकल्पों का संचित कोष'। वे कोई गणमान्य व्यक्ति नहीं हैं, उनके पास बहुत बड़ी- बड़ी डिग्रियाँ भी नहीं हैं, वास्तव में वे बिल्कुल सामान्य लोग हैं। बस उनका केवल यह दृढ़ संकल्प है - " हम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने आचरण में रूपायित करेंगे, हमलोग पूरे देश का सम्पूर्ण रूप से पुनरुत्थान करेंगे! " सबसे पहले हम पवित्र बनेंगे। हमारी साधनायें  पवित्र होंगी, हमारी योजनायें पवित्र होंगी , हमारा उद्देश्य पवित्र होगा, हमारी कार्यपद्धति पवित्र होगी। इसी पवित्रता को सम्बल बना कर हम आगे बढ़ेंगे और स्वामी विवेकानन्द विचारों (महावाक्यों) को आचरण में उतार कर पूरे भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करेंगे। यह महान कार्य हम कैसे करेंगे ? हमें बड़े कार्यक्रमों या विशाल प्रचार-तंत्र की जरूरत नहीं है, जिस पर आजकल लोग अधिक विश्वास करते हैं , और झट से आकर्षित हो जाते हैं। बल्कि यह कार्य देशवासियों के प्रति अटूट प्रेम, आदर्श और उद्देश्य के प्रति अटल विश्वास तथा इन्हें कार्यान्वित करने के दृढ़ संकल्प के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। महामण्डल यही करने का प्रयास (55 वर्षों से) कर रहा है।         
         >>The nation can be raised only by men of character.[राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है।] 
    'हमारा यह महान देश विभिन्न कारणों से पतन की ओर अग्रसर है।' क्या हम इसको सहन कर सकते हैं ? क्या भारत के युवा ऐसा होने दे सकते हैं ? हम इसे रोक सकते हैं और कुछ ऐसा कर सकते हैं जो अधोपतन की प्रक्रिया को उल्टा घुमा दे। ऐसा हमलोग किस प्रकार कर सकते हैं?  हमलोग केवल अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करके, केवल अपने चरित्र का निर्माण करके ही इस कार्य को कर सकते हैं ! क्योंकि राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है। यदि हमारे भीतर चरित्र की शक्ति है, तो हमारा जो भी संकल्प हो उसे हम अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। 
            >>Character is the capacity to overcome all misery.  
              यह चरित्र क्या है ? यह विवेक पूर्वक निर्णय लेने, और उसे अमल में उतारने की  इच्छाशक्ति है। यह केवल अपने क्षुद्र-स्वार्थ को पूरा करने की इच्छाशक्ति नहीं, बल्कि सबों का कल्याण करने की इच्छाशक्ति है। जो हमें 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से जोड़ती है, और हमें संसार के सभी मनुष्यों की मंगल कामना में विभोर रखती है। इसीको चरित्र कहते हैं। चरित्र वह वस्तु है जो दैहिक सुख-भोग की इच्छा, इन्द्रियों के तुष्टिकरण की इच्छा और कामना-वासना के आवेग पर विजय प्राप्त के लेने की क्षमता प्रदान करती है। यह है चरित्र। दूसरों के कल्याण के लिये स्वयं कष्ट उठाने की क्षमता को चरित्र कहते हैं। सभी प्रकार की दयनीयता (misery या अभाग्य) पर विजय प्राप्त कर लेने की क्षमता का नाम है-चरित्र।  ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें साथ-साथ मिलाकर चरित्र के नाम से जाना जाता है। चरित्रवान मनुष्य बनने का अर्थ इन सभी गुणों से विभूषित हो जाना है। चरित्रवान मनुष्य बनने का यही अर्थ होता है। 
     जब तक हम स्वयं इस तरह के चरित्रवान-मनुष्य नहीं बन जाते, तब तक क्या हम किसी भी समस्या को हल कर सकते हैं? क्या हम सचमुच दूसरों की मदद कर सकते हैं, क्या हम सचमुच समाज की सेवा कर सकते हैं ? नहीं, हम नहीं कर सकते। इसीलिये यदि हमलोग राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपने चरित्र का निर्माण अवश्य करना चाहिये।
यदि हम अपना सुंदर चरित्र गढ़े बिना ही समाज-सेवा करने, गरीबों और अशिक्षितों की मदद करने जायेंगे, तो हमारे सभी प्रयास अन्ततोगत्वा व्यर्थ सिद्ध होंगे। क्योंकि यदि चरित्रहीन मनुष्य लोगों की सेवा करेंगे तो हो सकता है कि जिन अभावग्रस्त लोगों की सेवा करने वे गए हैं, उनका अभाव कुछ समय के लिए दूर हो जाये, या कुछ दिनों के लिये उनकी भूख शांत हो जाये, या हो सकता है कि उस गाँव के लोग समाचार-पत्र और पुस्तक पढ़ने में सक्षम हो जायें, या सामान्य पत्राचार करना भी सीख लें, किन्तु अन्ततः उन्हीं चरित्रहीन समाजसेवकों की भाँति- वे लोग स्वयं भी चरित्रहीन मनुष्य (पार्थो -इरफ़ान) ही बने रहेंगे। वे वहाँ भी उसी प्रकार का हर काम करेंगे जो समाज की भलाई के अनुकूल तो नहीं ही हों, बल्कि अशोभनीय भी हों। वे वहाँ भी ऐसी चीजों को उत्पन्न कर देंगे, जो समाज के लिए हानिकारक होगा।
          जनता का पैसा उड़ाया जा रहा है। रिश्वतखोरी का बोलबाला है। अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उसे कम काम करना पड़े, उसके ऊपर कोई उत्तरदायित्व न हो पर कमाई इतनी अधिक हो कि वह आराम से सुख-भोग करता रहे। जनसंचार माध्यम, साहित्य, शिक्षा - चाहे घर में हो या संस्थानों में, वे भी जिन्हें घर-समाज का अभिभावक समझा जाता है, सभी अपनी निम्नतर  वासनाओं को ही संतुष्ट करने में व्यस्त दिखाई देते हैं। समाज के नामी-गिरामी कहे जाने वाले व्यक्तियों के जीवन में लालच और लोभ को बढ़ता देखकर किशोरों, युवाओं में भी स्वार्थपरता की भावना बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है। हर जगह की स्थिति ऐसी ही है। 
        >>आध्यात्मिक-क्षमता का प्रयोग :We must 'learn to do more than paid for '.
किन्तु, इस संधिबेला में जब हमें एक विकसित राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनानी है,
(इक्कीसवीं सदी में-जब भारत विश्व का केन्द्र बनने जा रहा है), हम इस सर्वनाशी भोग-विलास को और बर्दाश्त नहीं कर सकते। जनसाधारण के चिरकालीन अज्ञान और दरिद्रता दूर करने के लिये, हमें भारत का पुनर्निर्माण युवाओं के चरित्र निर्माण की चट्टानी बुनियाद पर ही करना होगा। हमारे पास सही ढंग से सोच-विचार करने या विवेक-प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। हमने वह क्षमता खो दी है। बस हम भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग रहे हैं , जिसका उल्लेख स्वामी विवेकानन्द ने अपनी सिंह -शावक की कथा में बार-बार किया था।  
     बेशर्म लोग कम विशेषाधिकार प्राप्त साधारण जनता की कीमत पर अपने क्षुद्र स्वार्थों, को पूरा करने में लगे हुए हैं। और साधारण जनता जिनके पास सही शिक्षा और समझ की कमी हैं, वे सोचते हैं- ये लोग उनकी मदद करने के लिये काम कर रहे हैं। वे अक्सर उन उन तथाकथित जनसेवकों का अनुसरण करते हैं और धीरे-धीरे अपने चरित्र को खो देते हैं , भ्रष्ट हो जाते हैं, यहाँ तक कि ऐसे युवा अपने काम करने की क्षमता भी खो देते हैं। हमारा देश तो कठोर परिश्रम करना ही भूल गया है। जबकि दूसरे देशों के लोग क्या कर रहे हैं ? यहाँ हमलोग सिर्फ दूसरे देशों के लोगों की प्रशंसा करने नहीं जा रहे हैं, किन्तु लगभग हर जगह के पश्चमी लोग अधिक कर्मशील (hardworking) लोग हैं। यह परिश्रमशीलता या कर्मठता हमें भी सीखनी होगी।अर्थात हमलोगों को भी जीवन के सफल होने के 16  नियमों में से एक नियम -We must 'learn to do more than paid for '-" भुगतान की तुलना में अधिक कार्य करना " सीखना होगा। 
          जैसे मानलो कि मैं किसी  फैक्ट्री में आठ घंटे काम करता हूँ, और प्रति दिन किसी उत्पाद के सात पीस बनाने का काम करता  हूँ, और मुझे एक निश्चित राशि के रूप में वेतन मिलता है। यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में बारह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे बड़ा सन्तोष मिलता है। यदि मैं बारह पीस की बजाय चौदह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे अलग से प्रोत्साहन भत्ता (incentive bonus) भी मिलता है। किन्तु मुझे स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये कि " क्या मैं पंद्रह या सोलह पीस नहीं निकाल सकता ? और अपने लिए तय की गई मासिक भुगतान के अतिरिक्त राशि बोनस के रूप में पाने के अपने दावे को क्या मैं नहीं छोड़ सकता ? हाँ, मैं यह कर सकता हूँ, और अवश्य करूंगा।
     हाँ , यह ठीक है कि मैं अपने काम से अपनी आजीविका कमाता हूँ। लेकिन मेरा देश भी मेरे सामने है। मैं अपने देश के कल्याण में भी अपना योगदान दे सकता हूँ। यह ठीक है कि मैं इस फैक्ट्री में काम करता हूँ, किन्तु जिन वस्तुओं का उत्पादन मैं करता हूँ, उससे मेरा देश भी तो समृद्ध बनता है। इस काम को करने से मेरी जितनी कमाई हो जाती है, उतना मेरे  परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है। उतना पर्याप्त है। किन्तु, यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में पंद्रह पीस का उत्पादन करने में सक्षम हूँ, तो मुझे सिर्फ अपनी मजदूरी कमाने के लिए दस पीस बनाने के बाद उत्पादन-कार्य को रोक क्यों देना चाहिये ?  
           >>Spiritual capacity can be used everywhere:
क्या मैं अपने श्रम के माध्यम से, अपने राष्ट्र के लिए कुछ योगदान नहीं कर सकता, भले इस शर्म के एक हिस्से के लिए मुझे अतिरिक्त राशि नहीं मिले ? मेरे देश के कई लोग बेरोजगार हैं, उन्हें भी पैसों की जरुरत है। मेरे द्वारा अतिरिक्त उत्पादन किये जाने से देश आय में कुछ वृद्धि अवश्य होगी, जिसे उनके लिए रोजगार पैदा करने हेतु वापस निवेश किया जा सकता है। क्या मैं अपनी परिस्थिति के साथ उन बेरोजगारों की परिस्थिति की तुलना नहीं कर सकता ? [अपने दिल से जानो दूसरों के दिल का हाल। ] इसी को तो आध्यात्मिक क्षमता कहते हैं ! और आध्यात्मिक क्षमता ( spiritual capacity) का प्रयोग हर जगह किया जा सकता है।  जैसे मान लो कि- मैं एक शिक्षक हूँ, और किसी स्कूल में चार घन्टे पढ़ाता हूँ, तो मुझे वेतन के रूप में एक निश्चित राशि प्राप्त होती है। अब यदि स्कूल में पढ़ाये जाने वाले विषय को सिलेबस के अनुसार चार घन्टे तक पढ़ा देने के बाद, यदि मैं छात्रों के साथ क्लास में एक घन्टा अधिक बैठकर उन्हें कुछ ऐसे उन्नत विचार बतलाने की चेष्टा करूँ जिससे वे अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर सकें, तो ऐसा करके मैं सचमुच अपने देश की सेवा में बहुत बड़ा योगदान दूँगा। 
या मान लो कि मैं किसी अस्पताल में डॉक्टर हूँ।  मैं जब अस्पताल जाता हूँ, तो मेरे काम के निश्चित घन्टे होते हैं। मान लो मैं रोजाना सौ लोगों का इलाज करता हूँ, जिसके लिए मुझे मेरा वेतन मिल रहा है। क्या मैं एक घन्टा और काम नहीं कर सकता और दस गरीब लोगों का इलाज नहीं कर सकता ? किन्तु हम लोग वैसा नहीं करते हैं।स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -  " जब तक करोड़ों अशिक्षित रहेंगे और भूखों मरते रहेंगे, तब तक मैं उस प्रत्येक आदमी को देशद्रोही (traitor) समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। "३/३४५  आज हमारे देश के अधिकांश शिक्षित लोग क्या इसी श्रेणी में नहीं आते ? 
         क्या आज का युवा शिक्षित होने के बाद भी एक देशद्रोही (traitor) बनना चाहेगा ?  स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार की शिक्षा को व्यर्थ कहा था और इसे रोकने का आह्वान किया था।महामण्डल भी ऐसी शिक्षा पर अंकुश लगाना चाहता है। थोड़ा सा किताबी ज्ञान प्राप्त करते ही, हम लोग सोचने लगते हैं, कि 'मैं तो सचमुच में सुशिक्षित मनुष्य बन गया हूँ, मुझे असली शिक्षा प्राप्त हो चुकी है। किन्तु सच्ची शिक्षा की पहचान यह कि वह तुम्हारे ह्रदय को विस्तृत करेगी, तुम्हारे शरीर और मन को शक्तिशाली बना देगी!
        >>The Benediction: Become a serious and hard-working, heart-whole man.
        अपने देश से प्यार करो, अपने देशवासियों को प्यार करो। अपने भाइयों से प्यार करो, देशवासियों की रगों में बह रहे अपने ही खून प्रेम करो। स्पष्ट रूप से विवेक-विचार करो, कठोर परिश्रम करो। मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो ! अपने मन को नियंत्रित करने की तकनीक  (trick) को सीख लो। राष्ट्र की मूल समस्या पर , और अपने जीवन की छोटी छोटी समस्याओं पर अपने मन को एकाग्र करो। उन समस्याओं के मूल कारण  को ढूंढ़ निकालो, और दृढ़ निश्चय तथा दृढ़ संकल्प के साथ उसका समाधान करो , और एक गंभीर, परिश्रमी तथा किसी प्रकार की आसक्ति से आजाद (दिलबस्तगी से आजाद) एक 'heart-whole man ' पूर्णहृदयवान मनुष्य (100 %निःस्वार्थी) बन जाओ ! देशवासियों के विषय में सोचो और अपने देश को उन्नत करो। स्वामी विवेकानन्द भारत के युवकों से यही चाहते थे, और विवेकानन्द युवा महामण्डल भी यही अपेक्षा रखता है। स्वामी विवेकानन्द का जो आदर्श और उद्देश्य है ,हमलोग उसी आदर्श और उद्देश्य को अपने आचरण में रूपायित करना चाहते हैं।और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिये। 
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भारत के युवाओं का कर्तव्य 
>>" आज तो समस्त संसार आध्यात्मिक सहायता के लिये भारत-भूमि की ओर ताक रहा है, और भारत को ही यह (विद्या) प्रत्येक राष्ट्र को देना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह भली भाँति समझ लेना चाहिये कि जब तक हम अपनी वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर लेते , तब तक हमारी किसी प्रकार मुक्ति सम्भव नहीं। जो मनुष्य प्रकृति का दास है , वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। यह महान सत्य - " निवृत्ति अस्तु महाफला " आज संसार की सब जातियाँ धीरे धीरे समझने लगीं हैं तथा उसका आदर करने लगी हैं। जब शिष्य इस सत्य की धारणा के योग्य बन जाता है, तभी उस पर गुरु की कृपा होती है। आज कितनी ही पाश्चात्य जातियाँ हमारे पास आध्यात्मिक सहायता के लिये आ रही हैं। आज भारत की सन्तान के ऊपर यह महान नैतिक दायित्व है कि वे मानवीय अस्तित्व की समस्या के विषय में संसार के पथ-प्रदर्शन के लिए अपने को पूरी तरह तैयार कर लें।" (पांबन भाषण ५ /३६)  
उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुगमन करने के लिए मुक्त रही है, और राष्ट्रिय जीवनधारा कभी मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है। उन बीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट शृंखला के सम्मुख मैं तो विस्मयाकुल -खड़ा हूँ; जिनके बीच यहाँ- वहां एकाध धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है।  मेरी यह जन्म-भूमि अपने यशोपुरित लक्ष्य- " पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने की सिद्धि" के लिये अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ निरंतर प्रगतिशील है !
         हाँ, मेरे बन्धुओं , यही गौरवमय भाग्य हमारे देश का है ! क्योंकि हमने उपनिषद-युगीन सुदूर अतीत में , हमने इस संसार को चुनौती दी थी - " न प्रजया न धनेन त्यागेनैके अमृतत्वं आनशुः। " --न तो संतति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।  एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया। ....  संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं -पुरानी जातियां तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पीस-मिट गयी, और नयी जातियां गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी युद्ध की ? सहिष्णुता (टॉलरेन्स) की विजय होगी या असहिष्णुता (इनटॉलरेन्स)  की ? शुभ की विजय होगी अशुभ की ? शरीर की विजय होगी या बुद्धि की ? सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की ? हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूँढ लिया था, और हमारा समाधान है - असंसारिकता, त्याग ! 
"त्याग और सेवा " ही भारत के राष्ट्रिय आदर्श हैं -भारतीय जीवन-रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है, उसके अस्तित्व का यही मेरुदण्ड है, उसके जीवन की यही आधारशिला है,  भारत के अस्तित्व का एकमात्र हेतु है - मानवजाति का आध्यात्मीकरण ! 
      अपने इस लम्बे जीवन -प्रवाह में ( जीवन नदी के हर मोड़ पर ) भारत अपने इस मार्ग से कभी कभी भी विचलित नहीं हुआ , चाहे ततारों का शासन रहा हो चाहे तुर्कों का, चाहे मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने!   (विश्व को भारत का सन्देश - ९/२९९) 
 इसीलिये उन्होंने कहा था -" आर्यों के हे पावन देश ! तू कभी पतित नहीं हुआ।  राजदण्ड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कंदुक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजदरबारों और राजाओं का प्रभाव सर्वदा थोड़े से लोगों को (लालबत्ती गाड़ियों की चाटुकारिता करने वाले थोड़े से छुटभइये नेताओं को ) ही छू सका है।  
     
        वे २० अगस्त १८९३ को अलासिंगा को लिखे अपने पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जाड़े का मौसम आ रहा है। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु, युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पित करता हूँ! जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में , जो गोकुल के दिन-हीन ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने से नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा। जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महा बलि दो, अपने जीवन की बलि दो -उन दीन-हीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब शपथ लो - कि तुम अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ (आज सवा-सौ करोड़) लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। यह एक दिन का काम नहीं, और रास्ता भी अत्यन्त भयंकर कंटकों से आकीर्ण है। परन्तु पार्थसारथी हमारे भी सारथी होने के लिये तैयार हैं - और  हम यह जानते हैं। 
उनका नाम लेकर और उनपर अनन्त विश्वास रख कर (किनका नाम ? जो पहले राम बने थे, फिर कृष्ण बने थे और अभी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण बने हैं; किन्तु उनके वेदान्त की दृष्टि से नहीं-साक्षात्!)   भारत के युगों से संचित (विगत हजार वर्षों से संचित) पर्वताकाय अनन्त दुःख राशि में आग लगा दो --वह जलकर राख हो ही जायेगी। तो आओ भाइयों, साहस पूर्वक इसका सामना करो। कार्य गुरुतर है और हमलोग साधनहीन हैं। तो भी हम अमृतपुत्र और ईश्वर की सन्तान हैं। प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैंकड़ों खेत रहेंगे, पर सैंकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। सम्भव है कि मैं यहाँ विफल होकर मर जाऊँ, पर कोई और यह काम जारी रखेगा। तुम लोगों ने रोग जान लिया है और दवा भी, अब बस, विश्वास रखो। 
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र (???) से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश, सेवा के सन्देश, सामाजिक उत्थान के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "
" भगवान की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य सम्पन्न होंगे। विश्वास करो, हमीं बड़े बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग -जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है।" (" वी आर पुअर, मायी ब्रदर्स , वी आर नोबॉडीज, बट सच हैव बीन ऑलवेज दी इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ़ दी मोस्ट हाई.")  
स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था- " लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर, इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश, सेवा के सन्देश, सामाजिक उत्थान के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।"  
[नेपोलियन हिल की पुस्तक प्रसिद्द पुस्तक 'Law of Success' के अनुसार यह 'Work more than paid for'' -- सफलता प्राप्त करने का विज्ञान-सम्मत नियम' है जो वेदान्त के आध्यात्मिक पहलु (चार महावाक्यों) पर आधारित है, तथा यह नियम भी 'Newton's Law of Motion' या 'Law of Gravitation' के जैसा व्यावहारिक जीवन के हर क्षेत्र में कार्य करती  है!]
`स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (या अचिन्त्य-भेदाभेद परम्परा- "ईश्वर एक साथ अपनी रचना के साथ एक और अलग भी है") में आधारित महामण्डल का यह 'नया युवा आन्दोलन' - किसी एक चतुरसुजान व्यक्ति या कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों की कल्पना से उपजा हुआ संगठन नहीं है !
कबीर भजन : 'निगुरे नहीं रहना'
सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना..
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।
पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना..
गुरु बिन माला क्या सटकावे मनवा चहुँ दिश फिरता जावे।
यम का बने मेहमान निगुरे नहीं रहना..सुन लो..
हीरा जैसी सुंदर काया हरि भजन बिन जनम गँवाया।
कैसे हो कल्याण निगुरे नहीं रहना..सुन लो..
निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।
क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना। 
सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना। 
[note: Two more chapters may be included in this book from ' Swami Vivekananda aur hmari sambhavna'  SV-HS  [73] भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण/' & " प्रलय या गहरी समाधि "/ [ ***22 परिप्रश्नेन] लेख पर आधारित. 
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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

卐卐 17. "हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य " - "Our Duties- 'First be men' ! 卐卐 महामण्डल ने स्वामी विवेकानन्द के सबसे महत्वपूर्ण शिक्षण -'Be and Make' को अभ्यास में लाने का बीड़ा उठा लिया है।' [एक नया युवा आन्दोलन -17.Our Duties]

"हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य : Our Duties- 'First be men' !
       >>What do we want ? and what is wanted from us ? 
       हम क्या चाहते हैं ? हम खुश रहना चाहते हैं। ख़ुशी क्या है ? सामान्य रूप से हम यह नहीं जानते। हम खुशियों की तलाश में इधर-उधर, हर चीज के पीछे भागते हैं। और इस भाग-दौड़ में हम यह भूल जाते हैं कि कुछ चीजें हमसे भी अपेक्षित हैं। हमसे क्या अपेक्षित है ? हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हमलोग कर्तव्यपरायण बनें। किसके प्रति कर्तव्यपरायण बनें ? हमलोगों को स्वय के प्रति , अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति , देश के प्रति और क्रमशः सम्पूर्ण मानवता के प्रति कर्तव्यपराण बनना चाहिये। 
     >>What could be our duty to ourselves, society or the country?
        हम जानते हैं कि परिवार के प्रति कर्तव्य कहने से आपका तात्पर्य क्या है। आपका तात्पर्य है यह है कि हमें कम से कम आराम और अधिक से अधिक परिश्रम करके जितना सम्भव उतना कमाना चाहिये और अपने ऊपर कम से कम खर्च करना चाहिये और सबकुछ परिवार को सौंप देना चाहिये। लेकिन स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? समाज के प्रति कर्तव्य तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का है , एवं देश के प्रति कर्तव्य राजनेताओं तथा उन जनप्रतिनिधियों का है जो इसी कार्य के लिये चुने गये हैं। फिर, समाज या देश के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? 
      आम जनता की सोच ऐसी ही होती है। लेकिन यह गलत है। जब तक कि कर्तव्य को उसकी समग्रता में नहीं समझा जाता, तब तक कोई भी कर्तव्य  ठीक से नहीं किया जा सकता है। परिवार के प्रति कर्तव्य को वही बेहतर ढंग से निभा सकता है, जो अपने प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझता है। क्योंकि परिवार भी तो समाज की ही एक इकाई है , और व्यक्ति परिवार का सदस्य है। और व्यक्ति, परिवार , समाज और देश ये सभी मिलकर मानवता को आकार देते हैं। इस दृष्टि से देखने पर यह समझा जा सकता है कि स्वयं के प्रति या परिवार के प्रति कर्तव्य भी मानवता के प्रति कर्तव्य का ही एक अंग है। हमें अपने सभी कर्तव्यों को इसी आलोक में समझना होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार इस  विश्व-रंगमंच पर केवल मनुष्य बनने का एक नाटक (drama) चल रहा है, और हमलोग इस नाटक के केवल दर्शक भर ही नहीं हैं; बल्कि इस विश्व-रंगमंच के अभिनेता भी हैं [हमारे युग के प्रसिद्द वैज्ञानिक नील्स बोहोर (Niels Bohr, 1885 –1962) के अनुसार]; जो मानवता की भलाई के लिये अपने-अपने अंश का योगदान कर रहे हैं। 
>>Our duty to ourselves is to bring out the best in ourselves .
    अपने भीतर निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने के लिए स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हैं ?   स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य केवल अपने भीतर अन्तर्निहित में सर्वश्रेष्ठ (दिव्यता) को प्रकट करने के लिए प्रयास करना है। हमारे भीतर चरित्र के सभी अच्छे गुण , और उन्हें उपयोग में लाने की क्षमता हममें पहले से ही है, किन्तु सुषुप्त (dormant) हैं। उन्हें जाग्रत करना है , बाहर लाना है और आत्मप्रयास के द्वारा अपने आचरण में अभिव्यक्त करना है। हमलोगों का स्वयं के प्रति सबसे पवित्र कर्तव्य यही है जिसका पालन करना हमारा दायित्व है। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसी भावना अपने 'मनुष्य जीवन ' को देवदुर्लभ कहे जाने के महत्व को समझ लेने के बाद प्राप्त होती है। यदि हम इस कर्तव्य की अनदेखी कर देते हैं तो हम न केवल अपना नुकसान करते हैं, बल्कि मानव जाति के कल्याण में भी बाधा डालते हैं। और जो व्यक्ति अपने अन्तर्निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है , वह अपने परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में अधिक दक्षता प्राप्त कर लेता है। 
        समाज और देश के प्रति कर्तव्यों का पालन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है। इस तरह के कार्य को ही कोई व्यक्ति अपने जीवन का एकमात्र  व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी अतिरिक्त ऊर्जा, समय और धन का निवेश कर सकता है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें कोई इनके लिये कार्य कर सकता है। इसके विभिन्न क्षेत्र के रूप में लोकहितैषी कार्य, समाज सेवा, शिक्षा , सामाजिक सुधर , (वंशगत?) राजनीति , धर्म आदि हो सकते हैं। सभी देशों में इन क्षेत्रों में ऐसे कार्यों का एक लम्बा इतिहास रहा है। अतीत में ऐसे कार्य अधिकतर व्यक्तिगत रूप से किये जाते थे। बाद इन लोकहितैषी कार्यों को गैर सरकारी संगठन (NGO) बनाकर संगठनात्मक तरीके से किया जाने लगा है। आगे चलकर राजनितिक संरक्षण में सरकारों ने धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू कर दिया, जिसमें गैर-सरकारी संस्थाओं के लिए कुछ क्षेत्र के कार्यों को तो छोड़ दिया गया , किन्तु व्यक्तिगत प्रयासों के लिये थोड़ा ही कार्य शेष रहा।  सभी समाजों में तेजी से बदलती हुई आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में  ऐसा होना आम तौर पर बिल्कुल स्वाभाविक है।
      >>>onerous duty of serving others : (दूसरों की सेवा करने का कठिन कर्तव्य:)
        प्रश्न उठ सकता है कि क्या ये बदलती हुई परिस्थितियाँ किसी व्यक्ति को समाज और देश के प्रति उसके कर्तव्यों से मुक्त कर देती हैं ? तो उत्तर होगा- नहीं। इसके विपरीत, बदली हुई  परिस्थितियों ने किसी व्यक्ति को उसके कुछ पुराने सामाजिक दायित्वों के बोझ से तो मुक्त कर दिया है, लेकिन उसके बदले एक अधिक कठिन कर्तव्य को सौंप दिया है, - दूसरों की सेवा हमें इस तरह से करनी होगी कि वे 'स्वयं के प्रति किये जाने वाले उन कर्तव्यों के विषय में  जागरूक हो सकें जो अंततः उन्हें समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्यों का पालन करने के योग्य बना देते हैं। इस कार्य को भी व्यक्तिगत रूप से या फिर संगठित तरीके से भी किया जा सकता है। 
     >>The duty to oneself : (स्वयं के प्रति हमारे कर्तव्य)  
     स्वयं के प्रति हमारा कर्त्तव्य है पहले से विद्यमान अपनी शक्तियों और गुणों में से सर्वश्रेष्ठ को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करना है। इस कार्य को  'होना' (Being) और 'बनना' (Becoming) कहा जा सकता है। इससे हम स्वामी विवेकानन्द के नीति-वाक्य (motto) -'Be and Make' में कहे गए 'Be' के अभिप्राय को समझ सकते हैं। तथा दूसरों को समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्य के विषय में , और उनकी अपनी मनुष्योचित गरिमा , उसकी संभाव्यता और उन्हें प्रकट करने के कर्तव्य के प्रति जागरूक होने में सहायता करना है।  ताकि वे भी उनके भीतर जो सर्वोत्कृष्ट गुण हैं उन्हें अपने आचरण में अभिव्यक्त करके वे वह 'बन सकें' (Become-ब्रह्मविद) जो वे वास्तव में हैं। इससे स्वामी जी के उपरोक्त आदर्श वाक्य में कहे गए 'Make' का तात्पर्य समझा जा सकता है। 
      >>Mahamandal has chosen to translate this central teaching of Swami Vivekananda, 'Be and Make'  into practice         
       स्वामी विवेकानंद ने धर्म, समाजशास्त्र, राजनीति, इतिहास, शिक्षा, भौतिक वस्तुओं में छिपे सौन्दर्य को देखने की विद्या -एस्थेटिक्स (aesthetics-सौंदर्यशास्त्र)  इत्यादि जैसे कई विषयों पर बहुत कुछ बोला है। लेकिन बार-बार वे उसी एक सरल कर्त्तव्यनिर्देश प्रस्ताव (proposition) पर लौट आए हैं ,जिसका नाम है 'पहले मनुष्य बनो', पहले हमें ईश्वर (100 % निःस्वार्थी मनुष्य) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनने में देंगे।  'बनो और बनाओ ' -यही तुम्हारा मूलमंत्र हो।"  उन्होंने बार बार यह आश्वासन दिया है कि, यदि ऐसा किया जा सके ; अर्थात यदि भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' की भावना में तीव्रता लायी जा सके, तो बाकी सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा ! 
       यही वह कार्य है जिसे महामंडल ने चुन लिया है। समाज के प्रति दूसरे अन्य कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करने के लिए तो बहुत सारी संस्थायें हैं। ऐसे सभी कार्यों में विशेष धन व्यय करने की आवश्यकता रहती है। जबकि महामंडल के पास निवेश करने के लिए पूँजी के रूप में केवल ऊर्जा, (त्याग और सेवा की) भावना और कार्य करने का दृढ़ संकल्प है ! और महामण्डल ने इसी पूँजी का उपयोग करके स्वामी विवेकानन्द की इस मनुष्य निर्माणकारी मुख्य शिक्षा को अभ्यास में लाने के लिए, भारत के गाँव -गाँव , शहरों -शहरों में इसका प्रचार-प्रसार व्यक्तिगत रूप से और संगठित तरीके से करने का बीड़ा उठा लिया है ! 
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पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बना कैसे जाता है ? विश्व-रंगमंच पर केवल 'हृदयवान मनुष्य ' बनने का नाटक चल रहा है !' विश्व-रंगमंच पर केवल एक ही नाटक चल रहा है, और वह है 'सम्पूर्ण हृदय वाला' मनुष्य बनना!










卐卐卐卐16. 'स्वयं से बात करना ' --'धरती पर देवता' (Divinities upon earth !) [एक नया युवा आन्दोलन -16-Speaking to Ourselves ]

स्वयं से बात करना

      >>
 Real religion makes man a real Man.'   
        साधारण अर्थों में महामण्डल एक धार्मिक संगठन नहीं है। उसी प्रकार सामान्यतौर पर  यह एक सामाज-सेवी  संगठन भी नहीं है। और साधारण अर्थ में यह कोई शैक्षिक संस्थान भी नहीं है। लेकिन यह एक ऐसा संगठन है जो प्रत्येक युवा तक चाहे उसका जन्मजात धर्म कुछ भी क्यों न हो , या वो स्वयं को किसी भी धर्म का अनुयायी न मानने का दावा करता हो, -इन सब बातों की परवाह किये बिना, वास्तविक धर्म को पहुँचा देना चाहता है ! कोई युवा यह कह सकता है वह किसी भी साम्प्रदायिक धर्म (sectarian religion) से सम्बन्ध नहीं रखता ! किन्तु हमें उससे यह अवश्य कहना चाहिये - " भाई , वास्तव में तुम्हारी आवश्यकता तो एक अलग प्रकार के धर्म की है, वह धर्म जो मनुष्य को 'सच्चा मनुष्य' बना देता है , वह धर्म जो इंसान को 'सच्चा इंसान ' बना  देता है।  
           >>Mahamandal  does not believe in charity from a high pedestal, but with ratiocination. 
       गहरे अर्थों में महामण्डल एक समाज-सेवी संगठन भी है। लेकिन, यह ऊँचा आसन ग्रहण करके दान-पुण्य (charity) करने में विश्वास नहीं रखता बल्कि एक पूर्वनिर्धारित प्रेरणा- वेदान्ती विवेक (वसुधैव कुटुम्बकम, जीव ही शिव है) की सही समझ से अनुप्रेरित होकर पूरी विनम्रता के साथ समाजसेवा का उपयोग अपने हृदय को विस्तृत करने के लिए करता है। वास्तव में धर्म एक ऐसी वस्तु है जो - पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर देता है ! और मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये ऐसा होना अपरिहार्य है। एवं प्रत्येक मनुष्य के तीन प्रमुख अंग हैं- उसका शरीर, उसका मन और उसका हृदय (3H)।
       किसी व्यक्ति के लिये व्यायाम और पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से अपने शरीर को विकसित कर लेना किंचित सरल कार्य है। उसी प्रकार किसी मनुष्य के लिये अपने मन और बुद्धि को विकसित कर लेना थोड़ा कठिन तो अवश्य है किन्तु असम्भव भी नहीं है। अभ्यास के द्वारा मन पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु जो व्यक्ति केवल शरीर और मन से शक्तिशाली है तो क्या उसे इतने से ही सन्तुष्ट हो जाना चाहिये ? क्या वह एक 'सच्चा मनुष्य' होगा, जो किसी भी समाज के लिये एक परिसंपत्ति हो ? नहीं ! क्योंकि वह अपने शरीर और मस्तिष्क की शक्तियों का यथोचित उपयोग नहीं कर पायेगा। क्योंकि जब तक किसी मनुष्य के पास सच्ची सहानुभूति और दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने वाला हृदय नहीं होगा, तो उसकी शारीरिक और मानसिक उर्जायें वैसा सर्वोत्तम परिणाम और उच्चतम लाभ नहीं दे सकेंगी जैसा वे दे सकती थीं।  
 किन्तु मन एक सूक्ष्म भौतिक पदार्थ (fine Matter) है और शरीर एक स्थूल भौतिक पदार्थ (gross-Matterहै। इसीलिये शरीर को विकसित करना आसान है, किन्तु मन को विकसित करना थोड़ा कठिन है। लेकिन फिर भी ये दोनों चूँकि भौतिक पदार्थ हैं, इसलिये इन्हें सावधानी, जानकारी और प्रयास से विकसित किया जा सकता है, और यथोचित ज्ञान की सहायता से हम उनको सम्भाल भी सकते हैं।     
>> We cannot reach the heart easily by any means. 
       किन्तु 'हृदय' सबसे अधिक सूक्ष्म वस्तु है और किसी भी अर्थ में भौतिक पदार्थ नहीं है। इसीलिए हमलोग किसी भी (द्रुत) साधन का उपयोग करके ह्रदय तक नहीं पहुँच सकते। हम जानते हैं कि मन एक साधन (instrument) है, जिसका उपयोग हम स्वयं मन को ही देखने (या पकड़ने) के लिये कर सकते हैं। किन्तु ह्रदय को देखने या छूने के लिये इस प्रकार कोई दूसरा साधन (यंत्र) हमारे पास नहीं है। एक हृदय दूसरे हृदय को - केवल दूर से ही, प्रत्युत्तर भेज सकता है। यह कुछ- कुछ अनुकम्पन या अनुनाद (resonance) जैसी वस्तु है। जैसे रेडियो तरंगों को एक स्थान से भेजा जाता है, और दूसरे छोर पर एक इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर होता है जो  तरंगों को डिटेक्ट कर लेता है या पकड़ लेता है, और हमलोग घर बैठे रेडिओ प्रसारण केन्द्र से प्रसारित होने वाले भाषण या विविध संगीत को सुन सकते हैं। हमारा हृदय भी ठीक उसी प्रकार से कार्य करता है।
       >>Attune your heart to the heart beats of others.(डकैत और माँ सारदा पद्धति)
      हमलोग फिजिक्स में ' प्रतिध्वनि की घटना' (Phenomenon of Resonance) के विषय में पढ़ते हैं। किसी तार वाले वाद्य यंत्र जैसे गिटार के एक तार को एक विशेष आवृत्ति (Frequency) पर ट्यून कर दें -जैसे 240। और गिटार के एक अन्य तार को भी उसी समान आवृत्ति 240 पर सेट कर दो । और बस एक तार को छेड़ दो, pluck कर दो । यदि तुम इस प्रयोग को करते हो, तो तुम देखेंगे कि दूसरा तार भी स्वतः कंपन करना शुरू देता है, और वही स्वर (ध्वनि) उत्पन्न कर रहा है, जो स्वर पहले वाले तार से बहार निकल रहा है। ठीक इसी प्रकार-तुम अपने हृदय  को दूसरों के हृदय की धड़कन या फीलींग्स (सुख-दुःख के कम्पन)  के साथ अट्यून करके, उस हृदय के सुर के साथ अपने हृदय के सुर को मिला सकते हो ! किसी भी प्राणी के हृदय पर कार्य करने की यही एकमात्र पद्धति है [That is the only method to work upon one's heart.] और यह कार्य हमलोग सही उद्देश्य के साथ समाज-सेवा करते समय कर सकते हैं। यही कारण है कि महामण्डल के कर्मियों को अपने हृदय का विकास करने के उद्देश्य ही समाज में दूसरों की सहायता और सेवा करने के लिये जाना चाहिये। और भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं,सच्चा योगी वही है (माँ सारदा) जो दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है, और समान रूप से शोकाकुल हो जाता है, और दूसरों के आनन्द को भी ठीक उसी के समान महसूस करके, उसके आनन्द में सहभागी बन सकता है। स्वामी विवेकानन्द भी एक महान और बड़े योगी थे, किन्तु हमलोगों को भी कम से कम छोटा योगी तो अवश्य बनना चाहिये। 
         हमें भी दूसरे के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में थोड़ा बहुत अवश्य महसूस करना चाहिये, और उस परिस्थिति  का उपयोग अपने हृदय को विकसित करने में करना चाहिये। ऐसा महसूस करने के बाद भी , क्या हमलोगों को केवल हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना चाहिये ? नहीं, बल्कि उसकी सहायता और सेवा के लिये अपने हाथों को आगे बढ़ा देना चाहिये। तुम उनके दुःख को कम (mitigate) करने का प्रयत्न करो, और वैसा करने के बाद तुम्हें जो ज्ञान प्राप्त होगा वह स्थाई बन जायेगा, तुम्हारे हृदय में बस जायेगा, और तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा (अद्वैत वेदान्त -कोई पराया नहीं सभी अपने हैं -या ईश्वरत्व का बोध तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा।) तो यह है महामण्डल में समाजसेवा का स्थान, तथा आत्मविकास  के भिन्न-भिन्न मार्गों  एवं कार्यप्रणालियों में समन्वय लाने की युक्ति भी यही है।
 >>Four Traditional Great Paths for selfdevelopment.
 स्वामी जी जैसे कहते हैं धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य बना देता है, उसी प्रकार वे कहते हैं , तुम अपने शरीर, मन और हृदय को विकसित करने का प्रयास करते रहो, और यदि तुम  इन्हें पूर्ण रूप से विकसित कर सके, तो तुम एक पूर्ण मनुष्य बन जाओगे। और उसके बाद वे कहते हैं, " जिस व्यक्ति ने अपनी अन्तःप्रकृति के साथ-साथ बाह्य- प्रकृति पर भी विजय कर लिया है - वही सच्चा धार्मिक मनुष्य है। " किन्तु दोनों -अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय पाया कैसे जाता है ? स्वामी जी इसकी युक्ति बतलाते हुए कहते हैं, " इस उद्देश्य के लिये तुम एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा ले सकते हो, और फिर वे आत्म विकास के लिये चार महान  पारम्परिक मार्गों  का उल्लेख करते हैं। इन पारम्परिक मार्गों (आत्मविकास के लिए 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -परम्परा' सम्बन्धी चार महान मार्गों- Four Traditional Great Paths for self-development.का एक सामन्य नाम है - और वह है योगवे चार मार्ग हैं, 'ज्ञानयोग' -अर्थात ज्ञान का मार्ग; 'राजयोग' - मन पर नियंत्रण करने का मार्ग, फिर 'भक्तियोग'- उपासना का मार्ग, और 'कर्मयोग'-निष्काम कर्म का मार्ग। ये ही वे चार पारम्परिक मार्ग (These are four traditional paths) हैं जिसका अनुसरण करने से हम अपना विकास कर सकते हैं, और सम्पूर्ण मनुष्य बन सकते हैं। वैसा मनुष्य जिसने अपने (भौतिक) शरीर और मन को तो  विकसित किया ही है, लेकिन उसके साथ-साथ हृदय को भी विस्तृत करके अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर लिया है, जो अपनी पाशविक-दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करके दिव्य प्रकाश युक्त (प्रभा-वलय से युक्त) मनुष्य बन गया हो।
      ज्ञान के मार्ग का पथिक या ज्ञानयोगी भले और बुरे, शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करता है, और निरन्तर परिवर्तनशील, क्षणस्थायी, अनित्य वस्तुओं में आसक्ति को त्याग करता  जाता है, एवं चिरस्थायी, शास्वत, नित्य या सत्य वस्तु के साथ लगातार जुड़ा रहता है, और धीरे धीरे यथार्थ सत्य (ultimate truth, इन्द्रियातीत सत्य) की अनुभूति प्राप्त कर लेता है। राजयोगी कहता है, इसी जीवन में परिपूर्णता प्राप्त करने के लिये, पूर्णतः विकसित होने के लिये, या अपनी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को साकार करने के लिये,हमें केवल एक काम करना है- और वह है, अपने मन को पूर्णतया अपने वश में कर लेना। तुम इसे अष्टांग योग स्टेप्स  यम (शम), नियम (दम), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि  की सहायता से कर सकते हो । अतएव हमलोगों इस साधन-मार्ग से थोड़ा परिचित (कम से कम 5 अंग से परिचित) तो अवश्य होना चाहिये। 
          महामण्डल इन चारो योग-मार्गों के आवश्यक अंशों का उपयोग करना चाहता है। 
और स्वामी जी कहते थे कि समाज का लगभग प्रत्येक मनुष्य, अपने व्यक्तिगत विकास के लिए इनमें से कम से कम एक मार्ग का चयन तो अवश्य करता है। स्वामी जी कहते थे, मेरे लिए  आदर्श मनुष्य वही है जिसके चरित्र में सभी सच्चे गुण समान रूप से और पूर्ण मात्रा में उपस्थित हों। मेरी दृष्टि में आदर्श मनुष्य तो वही है, जो अपनी साधना में इन चारो योग-मार्गों का सम्मिश्रण करने में सक्षम हो, अपने दैनन्दिन जीवन में उसका अभ्यास करके स्वयं को पूर्णतः विकसित कर सके। वही वास्तव में एक पूर्ण विकसित मनुष्य है, और हमलोग भी ऐसा ही पूर्ण मनुष्य बनना चाहते हैं। 
          'भक्तियोगी', जो उपासना के मार्ग को ग्रहण करता है, का कहना है, " मैंने ढूंढ़ निकाला है कि प्रेम मेरे भीतर है, और ऐसा प्रतीत होता कि, यह कोई ऐसी वस्तु है जो विस्तारशील है। मानो यह नित्य विस्तार-शील ब्रह्माण्ड हो। यह प्रतिपल विस्तारित होने का प्रयास करता है। यदि यह एकाकी हो जाय, तो परितृप्त नहीं होता। यह उमड़ता हुआ प्रेम दूसरों का स्पर्श करना चाहता है, उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, और सम्पूर्ण विश्व को आत्मसात कर  लेना चाहता है। वह 'प्रेम' जिसका अनुभव मैं अपने हृदय में करता हूँ, मुझे बतलाता है कि इस ब्रह्माण्ड में और इस ब्रह्माण्ड से परे कोई वस्तु ऐसी है जिसका स्वभाव ही विशुद्ध प्रेम है; जो प्रेमस्वरूप है। और मेरी तीव्र इच्छा (hankering) है कि मेरा यह बून्द भर प्रेम, उस प्रेम के सागर से संयुक्त हो जाये।" और वह उसी पथ में आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। वह अश्रु बहता है, वह मिलने की तड़प का अनुभव करता है। वह मंदिर जाता है, जब मूर्तियों को चंदन लगाता है,तो उसे उसी प्रेम का अनुभव होता है। कड़े पत्थर या सख्त लकड़ी से बनी मूर्तियों में भी वह प्रेम का ही दर्शन करता  है। वह अनुभव करता है कि  मूर्तियों की उस कठोर स्तब्धता के पीछे, कोई सबसे कोमल, प्रेम-स्वरूप वस्तु छुपी हुई है ! वह ऐसा अनुभव करता है, और उसी को पाने का प्रयास करता है। 
        वाह, ये तो बड़ी अच्छी बात है। हर मनुष्य यही तो है। किन्तु वैसा अनुभव करने के लिये सबसे पहले दूसरों के प्रति सहानुभूति की आवश्यकता है। केवल इसी की सहायता से हम अपने ह्रदय को विकसित कर सकते हैं। लेकिन, हम देख सकते हैं कि भले ही हम पूरे तौर से ज्ञान का उपयोग  कर सकते हैं, भले ही हम अपने मन पर हमारे नियंत्रण का उपयोग  कर सकते हैं, और साथ ही दूसरों के प्रति  सहानुभूति का अनुभव भी करते हैं;  पर इतना सब रहने से भी होता क्या है ? कुछ भी नहीं ! 
      मुझे पता है कि  कि धर्म क्या है, मैं जानता हूँ कि दूसरों के सुख-दुःख का अनुभव अपने हृदय में कैसे किया जाता है,  मैं अपने मन को नियंत्रित करना जानता हूँ ; पर दूसरों के लिए मैं करता क्या हूँ -कुछ नहीं।  तो मेरे ज्ञानी-ध्यानी होने से समाज को क्या लाभ हुआ  ? मुझे तो स्वयं आगे बढ़कर दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के कार्य में जुट जाना चाहिये। मुझे प्रेम और सहनुभूति से अनुप्रेरित होकर, किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये,अपने उस ज्ञान का उपयोग करने की  मानसिक क्षमता के साथ, विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए, दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के लिये क्या करना होगा; यह जानने के बाद अवश्य आगे बढ़ कर कार्य में जुट जाना चाहिये। यदि तुम  ऐसी अभिप्रेरणा लेकर समाज-सेवा के कार्य में अपना योगदान करोगे तो तुम्हें उस समाज सेवा  से महान आनन्द की अनुभूति होगी। यही कर्म तुम्हें उस सत्य तक पहुँचा देगा, जहाँ तुम  शाश्वत-नश्वर का विवेक-प्रयोग करते हुए पहुँच सकते हो, मन पर नियंत्रण करने के माध्यम से, या भगवान को प्रेम करते हुए पहुँच सकते हो। अतएव, यदि तुम स्वयं को सम्पूर्ण मनुष्य तक विकसित करने की चेष्टा में किसी भी तरह से इन चारों मार्गों का समन्वय कर सको तो तुम आदर्श मनुष्य बन जाओगे।
           महामण्डल स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'मनुष्य' का यही आदर्श  देश के युवाओं के समक्ष  प्रस्तुत करता है, एवं इन चारो योग मार्गों में समन्वय प्राप्त करने की एक प्रणाली - भी प्रस्तावित करता है। महामण्डल यह कहता है कि हमलोगों को किसी प्राचीन  वेदान्ती की तरह विवेक-प्रयोग नहीं कर सकते हैं,  यह अत्यन्त कठिन भी है। यहाँ तक कि तोतापुरी, जिन्होंने भगवान श्रीरामकृष्ण देव को वेदान्त-मत में दीक्षित किया था, क्या वे स्वयं  प्रत्येक वस्तु में यह समानता (अभेद) को सर्वदा देखने में समर्थ हो सके थे ? जब किसी व्यक्ति ने उनके धूनी की आग को केवल छू लिया था, तब क्या वे क्रोध से नहीं भर गये थे ? और यह देख कर श्रीरामकृष्ण देव जब हँसना शुरू कर दिये, और लोट-पोट होने लगे; तो तोतापुरी जी गुस्सा हो गए, और उनसे पूछा, ' यह क्या है, इतना हँस क्यों रहे हो ?' श्रीरामकृष्ण देव ने कहा,' मुझे तो आपके अद्वैत-वेदान्त के अभेद-ज्ञान को देखकर हँसी आ गयी !  यह मनुष्य जिसने एक निम्न -जाति में जन्म लिया है, आया और आपकी पवित्र अग्नि को छू दिया, और इतने से आप उत्तेजित होकर आगबबूला हो गए !' इसीलिये हमलोग भी वैसे वेदान्ती तो नहीं बनने जा रहे हैं। हमलोग उस प्रकार का विवेक-प्रयोग नहीं करने जा रहे हैं;  बल्कि हम अपनी विवेक-प्रयोग की शक्ति को एक सरल विधि - विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करके विकसित करना चाहते हैं। 'अविनाशी और नश्वर' के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, सही और गलत के बीच अन्तर करने की क्षमता बढ़ाने के लिये इन्हीं बातों पर परस्पर चर्चा करना ही हमलोगों के लिये 'ज्ञानयोग' का मार्ग है।  
      >>No longer ignorantly call a man -man , but try to recognize as God.
      इसी तरह प्रतिदिन मनःसंयोग का अभ्यास  करके हमलोग यह सीख लेंगे कि मन को अपने नियंत्रण में कैसे रखा जाता है। एवं ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम को विकसित करने का  प्रयास हमलोग केवल मंदिरों, मस्जिदों या गिरजाघरों में जाकर नहीं करेंगे। बल्कि हमलोग खेल के मैदान में, सड़क पर गली मुहल्ले में, गरीबों की झोपड़ियों में जायेंगे, और उन सबों में अपने प्रियतम की उपस्थित को अनुभव करने का प्रयास करेंगे। अब हमलोग  जनसाधारण को अपनी अज्ञानता में   'मनुष्य' नहीं कहेंगे, बल्कि आगे से उनको (हरिया को) ईश्वर (श्री हरि जी) के रूप में पहचानने की चेष्टा करेंगे। [आशिक है तो माशूक को हर रूप में पहचान]   
       स्वामी जी ने हमें हर मनुष्य में भगवान को (अपने इष्टदेव को) देखने का निर्देश दिया है। वे कहते हैं, ' मैं ने ईश्वर की खोज में सारा जीवन लगा दिया है, उन्हें ढूँढ़ने की कोशिश मैंने हर जगह की है, किन्तु मैंने भगवान को केवल मनुष्यों में ही पाया है।' हमलोग समाज के लाखों दुःख-कष्ट से पीड़ित 'जनताजनार्दन ' के पास जायेंगे और अपनी सम्पूर्ण भक्ति उनके चरणों में अर्पित कर देंगे। इसी प्रकार हम भक्ति का अभ्यास करेंगे और हमलोग केवल अपने हृदय को विकसित करने के लिये ही समाज-सेवा का कार्य करेंगे।
अपनी अन्तर्निहित सर्वोच्च संभावना को साकार करने के लिये, अपने शरीर, मन और हृदय को विस्तृत करने के लिये हमलोग चारों महान पारम्परिक मार्गों का समन्वय करेंगे। और अभी हममें जितनी भी पाशविक वृत्तियाँ है, अपनी उन समस्त अमानुषिक गुणों पर विजय प्राप्त कर लेंगे, और हमलोग वास्तव में -'धरती पर देवता' (Divinities upon earth !) बन जायेंगे! 

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[अमेरिका के मनुष्यों को भी स्वामीजी ने इसी नाम सम्बोधित करते हुए कहा था -"अमृतस्य पुत्राः" , हे अमृत के पुत्रो ! - कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है  यह ! यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपको इसी मधुर नाम - 'अमर आनंद के उत्तराधिकारी  " से सम्बोधित करूँगा। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी (आतंकवादी) कहना अस्वीकार करता है।- " आप तो इस धरती पर देवता हैं , आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन (libel-अपमान) है। आप उठें ! हे सिंहों ! आयें और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा -जो अजर, अमर और अविनाशी हैं , जिसे कोई शस्त्र नहीं काट सकता , अग्नि नहीं जला सकती , वायु नहीं सुखा सकता , पानी नहीं भिगो सकता। आप जड़ पदार्थ (matter) नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं , शरीर तो आपका यंत्र है , जड़ तो आपका दास है , मन भी जड़ है -इसलिए मन भी आपका दास है , न कि आप अपने जड़ शरीर और मन के  दास हैं !     
" Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." 
  
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं , " एक मनुष्य ज्ञानमार्गी, भक्तिमार्गी, योगमार्गी अथवा कर्ममार्गी हो सकता है। विभिन्न धर्मों में इन्हीं भावों में से किसी एक भाव का प्रधान्य देखा जाता है। परन्तु यह भी सम्भव हो सकता है कि इन चारों भावों का समन्वय  एक ही व्यक्ति में किया जाय। भावी मानव जाति यही करेगी भी। यही मेरे गुरुदेव की धारणा थी। " ७/२५९  
सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का बोध होना - दुर्लभ अवस्था है। ह्रदय का विकास कैसे होता है ? सच्चा योगी  दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है ! दूसरे के पैर में काँटा गड़ गया हो, तो उसकी चुभन का अनुभव अपने हृदय में करते हैं। किन्तु श्रीठाकुर देव की तरह सर्वत्र चैतन्य ही हैंयही विश्व-प्रेम अर्थात आत्मस्वरूप ब्रह्म का सभी प्राणियों में दर्शन को ही- अहं ब्रह्मास्मि कहा जाता है, खुली आँखों से ध्यान करते समय दैनन्दिन जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी को विश्वप्रेमिक बना देती है। ब्रह्म-स्वरुप अहं या 'पक्का मैं' की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; उस अवस्था में योगी भुवनमंगल रूप होकर विराजमान रहते हैं। उनका प्रेम दिखावे वाला बाहरी विश्व-भ्रातृत्व नहीं बल्कि यह प्रेम योगी को आत्मज्ञान से विश्व-सेवा, जीव-सेवा या समाज-सेवा करने के लिये अभिप्रेरित करता है।काशी के मार्ग में जाते हुए, बैद्यनाथ धाम में आकाल-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल समान चेहरे और प्रायः नग्न शरीर को देखकर श्रीरामकृष्ण रो पड़े थे। रानी रासमणि के बड़े दामाद मथुरानाथ विश्वास से उन्होंने रोते हुए कहा -" इन्हें भरपेट खिलाओ, नये वस्त्र दो, सिर पर तेल दो ।" मथुर बाबु कुछ आपत्ति जताकर बोले -" बाबा, तीर्थ में अनेक खर्चे हैं, ये तो बहुत से आदमी हैं, इन्हें खिलाने-पहनाने में रूपये घट जायेंगे।" श्रीरामकृष्ण देव ने रोते हुए कहा - " तुमलोग जाओ, मैं काशी नहीं जाऊँगा, मैं इन्हीं के पास रहूँगा" -इतना कहकर वे दरिद्रों के साथ जाकर बैठ गये। लाचार होकर मथुर बाबु ने उन सबको भरपेट खिलाया, सिर में तेल दिया और हरेक एक-एक नया वस्त्र दिया। इससे उन दरिद्रों के मुख पर हँसी देखकर ठाकुर वहाँ से उठ आये। यही है विश्व को आत्मवत देखना, तथा दूसरों के दुःख से द्रवित होकर  दुःख का अनुभव करना। दक्षिणेश्वर कालीबाड़ी के बाग के नयी दूब के ऊपर से एक व्यक्ति पैदल चला जा रहा था, देखकर श्रीठाकुर असहनीय यन्त्रणा का अनुभव कर एकदम विकल हो पड़े।  बाद में उन्होंने कहा था -" छाती पर से कोई मनुष्य चला जाये तो जैसी वेदना का अनुभव होता है, उस समय मैंने वैसी ही वेदना का अनुभव किया था। " वह अनुभूति दो घन्टे तक थी। कालीबाड़ी के गंगा किनारे एक नाव पर दो माँझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें से जो बलवान था, उसने दुर्बल मांझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा। उसे देखते ही ठाकुर चिल्लाकर रो पड़े। हृदयराम मामाजी की रुलाई सुनकर वहां दौड़ कर आ गये, उनकी पीठ पर बाम उखड़ आया था, उनकी पीठ लाल होकर फूल उठी है देखकर घबड़ाने लगे।  मांझी के पीठ के आघात का चिन्ह श्रीठाकुर के पीठ पर देखकर हृदयराम आश्चर्यचकित हुए।श्रीठाकुर एकदिन पूजा के लिये दूब और बेलपत्र चुनने गए थे। बेलपत्र चुनते समय पत्ती के साथ उस वृक्ष की थोड़ी छाल निकल आयी, उसमें वृक्ष को जो वेदना का अनुभव हो रहा था उसे समझकर वे फिर बेलपत्र नहीं चुन सके।  दूब चुनते हुए उन्हें अनुभव होने लगा सर्वत्र चैतन्य है, दूर्वादल भी छिन्न होकर कष्ट का अनुभव कर रहे हैं! 
[ प्रतिध्वनि क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। [resonance= एक ही आवृत्ति वाले एक समरूप (देखने में हूबहू) कंपनकारी स्रोत से एक ही स्वाभाविक माप के कंपन के उत्प्रेरण को अनुनाद (गूंज) कहते हैं । The inducing of vibrations of a natural rate by a vibrating source having the same frequency. 'हर शय में जलवा तेरा हूबहू है !']  
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