निष्ठा पूर्ण भक्ति-योग के दो खतरे
[स्वामी विवेकानन्द द्वारा न्यू यॉर्क में सोमवार सुबह, 20 जनवरी, 1896 को दिया गया भक्ति-योग में निष्ठा विषय का क्लास श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया]
[A bhakti-yoga class delivered in New York, Monday morning, January 20, 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin]
Bhakti Yoga - Class #7: "Nishtha" by Swami Vivekananda
हमने अपनी पिछली कक्षा में हमने वैधी भक्ति (preparatory Bhakti) के अन्तर्गत - प्रतिकों के बारे में विषय समाप्त कर लिया है। प्रारंभिक भक्ति का एक और भाव - 'निष्ठा' एक मात्र आदर्श के प्रति समर्पण पर चर्चा करने के बाद हम परा भक्ति, परम भक्ति ( Parâ, the Supreme) की ओर बढ़ेंगे।
[ महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पण रखना -इसे निष्ठा कहते हैं। पर इसमें दो खतरे भी हैं, जिसके प्रति सावधान रहना चाहिए। : "This is Nishtha — knowing that all these different forms of worship are right, yet sticking to one and rejecting the others. We must not worship the others at all; we must not hate or criticize them, but respect them.
" यह जानते हुए कि पूजा के ये सभी अलग-अलग तरीके सही हैं, फिर भी एक पर अड़े रहना और बाकी को अस्वीकार करना- इसी को निष्ठा कहते हैं। हमें दूसरों की पूजा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए; परन्तु हमें उनसे नफरत या आलोचना भी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनका सम्मान करना चाहिए।"
उद्देश्य -'भारत का कल्याण' करने के कई उपाय हैं, सभी अलग अलग उपाय सही हैं , फिरभी महामण्डल के उपाय -चरित्रनिर्माण, आदर्श -स्वामी विवेकानन्द, आदर्श वाक्य -Be and Make, और अभियान-मंत्र 'चरैवेति, चरैवेति' पर अड़े रहना और बाकी (राजीनीतिक, खिचड़ी भोज) को अस्वीकार करना, किन्तु किसी अन्य उपाय से घृणा नहीं करना, अन्य सभी उपाय और आदर्श के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना - इसे महामण्डल संगठन के प्रति निष्ठा कहते हैं।
इस विचार को 'निष्ठा ' कहा जाता है, एक (आदर्श और उद्देश्य) विचार के प्रति समर्पण। तथाकथित उदार सनातनी लोग जो कुम्भस्नान तो कर लेते हैं, किन्तु विवेकानन्द को राष्ट्रीय युवा आदर्श मानकर, उनके चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के आलोक में - (Be and Make' परम्परा में) अपने जीवन का गठन नहीं करते, उनमें एक प्रवृत्ति आम तौर से दिखाई देती है - "वे हर काम में माहिर होने का दिखावा करते हैं, किन्तु किसी भी काम में माहिर नहीं होते "- (It is a great tendency among liberal people to become a jack-of-all-trades and master of none — nothing.)
हमारे एक पुराने भक्त संत तुलसीदास जी कहा है-
सबसे बसिए सबसे रसिये, सबका लीजिये नाम।
हाँ जी हाँ जी करते रहिये, बैठिये अपने ठाम।।
"सभी फूलों से शहद लीजिये, सभी के साथ सम्मानपूर्वक घुलमिल जाएँ, सभी को हाँ, हाँ कहें, लेकिन अपना आदर्श कभी न छोड़ें"। अपना आदर्श न छोड़ना ही निष्ठा कहलाता है। ऐसा नहीं है कि किसी को दूसरों के आदर्शों से घृणा करनी चाहिए या उनकी आलोचना भी करनी चाहिए; वह जानता है कि वे सभी सही हैं। लेकिन, साथ ही, उसे अपने आदर्श पर बहुत सख्ती से अडिग रहना चाहिए।
हाथी के दो दाँत खाने के अलग , दिखाने के अलग। इसलिए सभी से घुल-मिल जाओ, सभी से हाँ-हाँ कहो, लेकिन किसी से न जुड़ो। अपने जीवन के आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) पर टिके रहो। जब तुम पूजा करो, तो भगवान के उस आदर्श की पूजा करो जो तुम्हारा अपना इष्ट (श्रीरामकृष्ण देव) है, तुम्हारा अपना चुना हुआ आदर्श है।
[सोमवार, 4 जनवरी 2010/' विवेकानन्द की निवेदिता ' (Character Building Education)https://vivek-jivan.blogspot.com/2010/01/character-building-education.html]
एक बार हनुमानजी से भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा परमपुरुष के तो अनेक नाम हैं, पर तुम केवल राम-राम क्यों करते हो। राम तुम्हारे इष्ट हैं, किन्तु और नामों का भी तो महत्व है। हनुमानजी ने उत्तर दिया,
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि।
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः॥
' यद्दपि परमात्मदृष्टि से लक्ष्मीपति और सीतापति दोनों एक हैं, तथापि मेरे सर्वस्व तो वे ही कमल लोचन श्री राम हैं।'
अर्थात मैं जानता हूं कि दार्शनिक विचार के अनुसार श्रीनाथ अर्थात् लक्ष्मी -नारायण और जानकीनाथ अर्थात् राम इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, मगर मैं अनेक नामों के पीछे नहीं दौड़ना चाहता। मैं एक नाव पर रहना चाहता हूं और मेरे लिए दुनिया में सिर्फ राम ही हैं और कोई नहीं। साधना मार्ग में भी मनुष्य को एक आदर्श पर ही टिके रहना है। एक अखण्ड अविनश्वर परमपुरुष (सच्चिदानन्द अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) से प्रेम करनी है। अगर परमपुरुष तुम्हें नहीं चाहते हैं, तब भी तुम उन्हें मत छोड़ो। अगर परमपुरुष कहते हैं, ' तुम दुश्चरित्र हो, मूर्ख व पतित हो, मैं तुमसे प्रेम करना नहीं चाहता तो तुम कहो, 'हाँ ठाकुरदेव (परमपुरुष), मैं हीन हूं, दुष्चरित से विरत नहीं हुआ हूँ , मैं पतित हूं मगर मैं तुम्हारा और माँ सारदा का बेटा हूं, स्वामीजी -नवनीदा का भाई हूँ । "
Two Dangers in Nishthâ Bhakti —1. Becoming fanatic: (पहला खतरा- धर्मान्ध या कट्टरपंथी बन जाना।) : भारत की धरती रत्नगर्भा है - यहाँ कई महापुरुष हर जाति -हर धर्म में आते रहते हैं ! अपने धर्म, भाषा, राज्य से या अपने आदर्श से प्रेम करने का अर्थ दूसरे राज्य के धर्म, भाषा या आदर्श से घृणा करना नहीं है। जब एक (परमात्मा) ही अनेक बन गया है, तब श्रीनाथ और जानकीनाथ में भेद कहाँ है ? कौन पराया है ? सभी को मेरा सादर नमन है, किन्तु भारत साकार ने स्वामीजी को ही राष्ट्रीय युवा आदर्श घोषित किया है। अतः युवाओं को उन्हें ही अपना आदर्श मानकर अपना जीवन गठन और चरित्र-निर्माण करना चाहिए। इस खतरे से बचने हेतु अपने आदर्श (आध्यात्मिक नेता) पर निष्ठा रखो, और दूसरों के आदर्श (पैगम्बर-मुनि-ज्ञानी ) का भी उचित सम्मान प्रदर्शित करते रहो।
[ It is very easy to hate (other) . The generality of mankind gets so weak that in order to love one, they must hate another . This characteristic is in every part of our nature, and so in our religion. The ordinary, undeveloped weak brain of mankind cannot love one without hating another. This very [characteristic] becomes fanaticism in religion. Loving their own ideal is synonymous with hating every other idea.]
-2nd-गहराई (गहरी निष्ठा) के बिना ह्रदय विस्तार : Becoming too Liberal (expansion without depth) :You see that in these days religion has become to many merely a means of doing a little charity work, just to amuse them after a hard day's labour — they get five minutes religion to amuse them.
'विस्तार ही जीवन है, और संकोच मृत्यु है। लेकिन ह्रदय के विस्तार के साथ आदर्श और उद्देश्य के प्रति ह्रदय की गहराई तक (निष्ठा) भी रहनी चाहिए। स्वामीजी ने कहा था - उदारवादियों के साथ खतरा यह है कि वे बहुत विस्तारवादी हैं और उनमें कोई गहराई (निष्ठा) नहीं है। आप देख रहे हैं कि आजकल धर्म बहुत से लोगों के लिए केवल थोड़ा दान-पुण्य करने का साधन बन गया है, दिन भर की मेहनत के बाद बस उन्हें मनोरंजन के लिए - उन्हें मनोरंजन के लिए पाँच मिनट का धर्म मिलता है। दूसरी ओर, कट्टरपंथियों (आतंकवादियों) में गहराई है, तीव्रता है, किन्तु विस्तार नहीं है, और तीव्रता बहुत संकीर्ण है। वे बहुत गहरे हैं, लेकिन उसमें कोई चौड़ाई नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यह हर किसी के लिए घृणा को जन्म देता है।
"Stick to your own ideal of worship-. When you worship, worship that ideal of God which is your own Ishta, your own Chosen Ideal. If you do not, you will have nothing.
(युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आदेश- आदर्श वाक्य : Be and Make, और अभियान मंत्र - 'चरैवेति, चरैवेति' अर्थात संगठन का प्रचार-प्रसार करते समय शाम का अधिवेशन या सेमिनार में स्त्री-पुरुष दोनों शामिल हो सकते हैं , किन्तु प्रशिक्षण- देते समय नारी संगठन की आदर्श माँ सारदा रहेंगी, स्वामीजी के आदेश महिला कार्यक्रमों से महामण्डल बाहर से सहायता देगा , किन्तु प्रशिक्षण से अलग रहेगा, इस आदेश का पालन हर हाल में करना होगा।)
>> पौधे के बढ़ते समय बाड़ लगाना क्यों आवश्यक होता है, नहीं तो पशु चर जायेंगे? अपना जीवनगठन और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण पूरा हो जाने तक - वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आग और घी को अलग रखें !-Nothing will grow. When a plant is growing, it is necessary that it should be hedged round lest any animal should eat it up. But when it has become strong and a huge gigantic tree, do not care for any hedges — it is perfect in itself.
"जब कोई पौधा बढ़ रहा होता है, तो यह जरूरी है कि उसके चारों ओर बाड़ लगाई जाए, ताकि कोई जानवर उसे खा न जाए।" -श्रीरामकृष्ण
Then, after a long course of training the mind in this Ishta — when this plant of spirituality has grown and the soul has become strong and you begin to realize that your Ishta is everywhere — [then] naturally all these bondages will fall down.
फिर, जब अपने इस इष्ट (आदर्श) पर मन को लम्बे समय तक एकाग्र रखने का प्रशिक्षण के लंबे कोर्स के बाद - जब आध्यात्मिकता का यह पौधा बड़ा हो गया है और आत्मविश्वास और आत्म-श्रद्धा मजबूत हो गया, M/F देह भाव कम हुआ है और तुमको यह एहसास होने लगा कि तुम्हारे इष्ट ही हर किसी में हैं - [तब] स्वाभाविक रूप से ये सभी बंधन टूट जाएँगे। जब फल पक जाता है, तो वह अपने वजन से गिरता है। अगर आप कच्चा फल तोड़ते हैं तो वह कड़वा होता है, खट्टा होता है। इसलिए हमें इस विचार को धीरे -धीरे क्रमशः बढ़ना होगा।
Take up one idea,... 'Be and Make' as your Ishta, and let the whole soul be devoted to it. Practise this from day to day until you see the result, until the soul grows.
एक विचार - आदर्श विवेकानन्द के साँचे में 'मनुष्य बनो और बनाओ' - इसी एक विचार को अपना इष्ट बना लो, और पूरी आत्मा को उसमें समर्पित कर दो। इसका अभ्यास दिन-प्रतिदिन करो जब तक कि तुम परिणाम न देख लो, जब तक कि आत्मा विकसित न हो जाए। और अगर यह सच्चा और अच्छा है, तो यही विचार पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। इसे अपने आप फैलने दो; यह सब अंदर से बाहर की ओर आएगा। तब तुम कहोगे कि तुम्हारा इष्ट सर्वत्र है (अग्रवाल-DN) और वह सबमें है। बेशक, वचनामृत पाठ करने के साथ ही साथ, हमें हमेशा हमें बंगाली समिति के इष्टों को भी पहचानना (कविगुरु) चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए - भगवान की आराधना के दूसरे विचार - अन्यथा पूजा कट्टरता में बदल जाएगी।
Let it spread by itself; it will all come from the inside out. Then you will say that your Ishta is everywhere and that He is in everything. Of course, at the same time, we must always remember that we must recognize the Ishtas of others and respect them — the other ideas of God — or else worship will degenerate into fanaticism.
"जहाँ वक्ता अद्भुत है, वहाँ श्रोता भी अद्भुत है। जब नेता (शिक्षक) अद्भुत है, तो शिष्य या भावी नेता भी अद्भुत होना जरुरी है। तभी यह आध्यात्मिकता आएगी"।
बहुत कम लोग समझते हैं कि वे शिष्य बनने (भावी नेता बनने) के योग्य नहीं हैं। शिष्य में सबसे पहले यह आवश्यक है: कि उसे चाहना चाहिए -ज्ञान पिपासु होना चाहिए , उसे वास्तव में आध्यात्मिकता चाहिए। 3P -पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय !
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।
(कठोपनिषद्-1.2.7)
"एक आत्मज्ञानी गुरु (स्वामी विवेकानन्द) को पाना अत्यंत दुर्लभ है। आत्म ज्ञान के विषय में ऐसे गुरु का उपदेश सुनने का अवसर भी बहुत कम मिलता है। यदि परम सौभाग्य से ऐसा अवसर मिलता भी है तब ऐसे शिष्य बहुत कम मिलते हैं जो आत्मा के विषय को समझ सकें।"
ऐसी अवस्था में महामण्डल को कभी निराश नहीं होना चाहिए , यदि उनके अथक प्रयासों के पश्चात् भी जब बहुसंख्यक लोग आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने या इसको समझने के इच्छुक न हो तब सिद्ध पुरुषों को कभी निराश नहीं होना चाहिए।
क्यों ? Religion is a necessary thing to very few; and to the vast mass of mankind it is a luxury. धर्म बहुत कम लोगों के लिए ज़रूरी चीज़ है; और ज़्यादातर लोगों के लिए यह एक विलासिता है। लेकिन अगर वे सोचते हैं कि वे भगवान/आत्मा को मूर्ख बना सकते हैं तो वे पूरी तरह से गलत हैं। उन्हें मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। वे केवल खुद को मूर्ख बनाएंगे और नीचे और नीचे गिरेंगे जब तक कि वे पशुओं की तरह न हो जाएं।
भक्ति योग क्लास में दूसरी आवश्यकता गुरु की थी। The teacher (नेता-विवेकानन्द) is not a talker, but the transmitter of spiritual force which he has received from his teacher, and 'HE' ठाकुर देव from others, (जगतगुरु श्री रामकृष्ण की गुरु माँ जगदम्बा हैं !)गुरु केवल बात करने वाला नहीं होता, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति का संचारक होता है, 'transmitter of spiritual force' उसे अपने गुरु से, दूसरों से, और इसी तरह, एक अखंड धारा -in an unbroken current. में प्राप्त होती है। उसे उस आध्यात्मिक धारा को संचारित करने में सक्षम होना चाहिए।
जब शिक्षक और शिष्य दोनों तैयार हो जाते हैं, तब भक्ति-योग का पहला चरण आता है। भक्ति-योग का पहला भाग वह है जिसे प्रारंभिक भक्ति [-वैधी भक्ति !] कहा जाता है, जिसमें आप ईश्वर के मूर्त रूपों के माध्यम से काम करते हैं।
The next lecture was on the Name — भक्ति-योगी को हमेशा यह सोचना चाहिए कि नाम ही ईश्वर है - ईश्वर से अलग कुछ नहीं। नाम और ईश्वर एक हैं। नाम और नामी एक हैं !
इसके बाद, यह सिखाया गया कि भक्ति-योगी के लिए विनम्रता और श्रद्धा कैसे आवश्यक है। भक्ति-योगी को खुद को एक मृत व्यक्ति के रूप में रखना चाहिए। एक मृत व्यक्ति कभी अपमान नहीं सहता, कभी प्रतिशोध नहीं लेता; वह सभी के लिए मृत है। भक्ति-योगी को सभी अच्छे लोगों, सभी संत लोगों का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि भगवान की महिमा हमेशा उनके बच्चों के माध्यम से चमकती है।
For the Spiritual Leader : आध्यात्मिक नेता (भक्ति-योगी) के लिए विनम्रता (Humility) और श्रद्धा (Reverence) आवश्यक गुण है। Humility and Reverence are necessary For the Spiritual Leader (Bhakti-Yogi)
The next lesson was on the Pratikas. यदि बैल को भी ईश्वर (आत्मा) का प्रतीक मानकर पूजा करें, तो उससे भी सबकुछ मिलता है। Everything is in ourselves, and the external world and the external worship are the forms, the suggestions that call it out. When they become strong, the Lord within awakens. सब कुछ ब्रह्मत्व या दिव्यता हमारे अंदर है, और बाहरी दुनिया और बाहरी पूजा वे रूप हैं, सुझाव हैं जो इसे अभिव्यक्त करने की प्रेरणा देते हैं। जब वे मजबूत हो जाते हैं, तो भीतर का भगवान जाग उठता है।
The external teacher is but the suggestion. When faith in the external teacher is strong, then the Teacher of all teachers within speaks; eternal wisdom speaks in the heart of that man. In every country great saints have been born, wonderful lives have been [lived] — coming out of the sheer power of love.Then alone comes spirituality — when one goes beyond these laws and bounds.
He lives in the temple of all temples, the Soul of man. So this is the goal towards which we are going — the supreme Bhakti — and all that leads up to this is but preparation.
Guru Nanak said, "Give the mullah a piece of the Koran [to swear on]. [In the mosque] when he was saying 'Allah, Allah', he was thinking of some chicken he had left at home".
"And", said the magistrate [to the mullah], "don't go to the mosque again. It is better not to go at all than to commit blasphemy there and hypocrisy.
मुसलमान अपनी प्रार्थनाओं में बहुत नियमित होते हैं। जब समय आता है, वे जहाँ भी होते हैं, वे बस शुरू हो जाते हैं, ज़मीन पर गिरते हैं और उठते हैं और गिरते हैं, और इसी तरह। "हाँ, मैं अपने सांसारिक प्रेमी से मिलने जा रही हूँ, और मैंने तुम्हें वहाँ नहीं देखा। लेकिन तुम अपने स्वर्गीय प्रेमी से मिलने जा रहे हो और तुम्हें यह नहीं पता होना चाहिए कि एक लड़की तुम्हारे शरीर के ऊपर से गुजर रही है।"
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इष्टनिष्ठा - खण्ड ४/३५-३६/ :
जो भक्त होना चाहते हैं, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि 'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !' हम भगवत्प्राप्ति के विभिन्न मार्गों में से किसीके प्रति घृणा नहीं करें, किसी को भी अस्वीकार न करें। फिरभी, जबतक पौधा छोटा रहे , जबतक वह बढ़कर बड़ा पेड़ न हो जाये, तबतक उसे चारोओर से रुंध रखना आवश्यक है।
[श्रीरामकृष्ण वचनामृत : परिच्छेद ~ 59, बुधवार, 28 नवंबर, 1883]
आध्यात्मिक नेता को पहचाने कैसे ?
NEIGHBOUR: "How can one recognize a holy man?"
श्रीरामकृष्ण – जिनका मन, जिनका जीवन, जिनकी अन्तरात्मा ईश्वर में लीन हो गयी है, वही महात्मा हैं। जिन्होंने कामिनी और कांचन का त्याग कर दिया है, वही महात्मा हैं । जो महात्मा हैं, वे स्त्रियों को संसार की दृष्टि से नहीं देखते । यदि स्त्रियों के पास वे कभी जाते हैं तो उन्हें मातृवत् देखते हैं और उनकी पूजा करते हैं । साधु-महात्मा सदा ईश्वर का ही चिन्तन करते हैं । ईश्वरीय प्रसंग के सिवाय और कोई बात उनके मुँह से नहीं निकलती । और सर्वभूतों में ईश्वर का ही वास है यह जानकर वे सब की सेवा करते हैं । संक्षेप में यही साधुओं के लक्षण हैं ।
पड़ोसी – क्या बराबर एकान्त में रहना होगा ?
NEIGHBOUR: "Must one always live in solitude?"
श्रीरामकृष्ण – फुटपाथ के पेड़ तुमने देखे हैं ? जब तक वे पौधे रहते हैं तब तक चारों ओर से उन्हें घेर रखना पड़ता है । नहीं तो बकरे और चौपाये उन्हें चर जाते हैं । जब पेड़ मोटे हो जाता हैं तब उन्हें घेरने की जरूरत नहीं रहती । तब हाथी बाँध देने पर भी पेड़ नहीं टूट सकता । तैयार पेड़ अगर बना ले सको तो फिर क्या चिन्ता है – क्या भय है ? विवेक लाभ करने की चेष्टा पहले करो। तेल लगाकर कटहल काटो, उससे दूध नहीं चिपक सकता ।
[MASTER: "Haven't you seen the trees on the foot-path along a street? They are fenced around as long as they are very young; otherwise cattle destroy them. But there is no longer any need of fences when their trunks grow thick and strong. Then they won't break even if an elephant is tied to them. Just so, there will be no need for you to worry and fear if you make your mind as strong as a thick tree-trunk. First of all try to acquire discrimination. Break the jack-fruit open only after you have rubbed your hands with oil; then its sticky milk won't smear them."
पड़ोसी – विवेक किसे कहते हैं ?
श्रीरामकृष्ण – ईश्वर (आत्मा) सत् है और सब (देह-मन) असत् – इस विचार का नाम विवेक है । सत् का अर्थ नित्य, असत् का अनित्य । जिसे विवेक हो गया है वह जानता है, ईश्वर ही वस्तु हैं, और सब अवस्तु है । विवेक के उदय होने पर ईश्वर को जानने की इच्छा होती है । असत् को प्यार करने पर – जैसे देहसुख, लोकसम्मान, धन इन्हें प्यार करने पर – सत्स्वरूप ईश्वर (आत्मा) को जानने की इच्छा नहीं होती । सत्-असत् विचार के आने पर ईश्वर (परम् सत्य आत्मा) की ढूँढ़-तलाश की ओर मन जाता है ।
“सुनो यह एक गाना सुनो -
'आय मन बेड़ाते जाबी।
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (ताते) निवृत्तिरे संगे नेबि |
(ओरे) विवेक नामे तार बेटा, तत्वकथा ताय सुनाबि |
(भावार्थ) – “मन आ घूमने चलें । काली (सदगुरु)-कल्पतरु के नीचे, ऐ मन, चारों फल तुझे पड़े हुए मिलेंगे । प्रवृत्ति और निवृत्ति तेरी स्त्रियाँ हैं; उनमें से निवृत्ति को अपने साथ लेना । उसके आत्मज विवेक से तत्त्व की बातें पूछ लेना । शुचि-अशुचि को लेकर दिव्य घर में तू कब सोयेगा ? उन दोनों सौतों में जब प्रीति होगी, तभी तू श्यामा माँ को पाएगा । तेरे पिता माता ये जो अहंकार और अविद्या हैं, इन्हें दूर कर देना । अगर कभी मोहगर्त में तू खिंचकर गिर जाय तो धैर्य का खूँटा पकड़े रहना ।
[क्या अभी तक तेरे माता-पिता अहंकार और अविद्या हैं ? नहीं, ठाकुर देव पिता हैं, माँ सारदा माता है - और स्वामीजी न०दादा हैं !!! बंगाली समिति में सचिव - सपोन ? ठाकुर तिथि पूजा में नाच-गान के /साथ-साथ / या जगह पर श्रीरामकृष्ण वचनामृत : परिच्छेद ~ 59, बुधवार, 28 नवंबर, 1883 के पाठ का आयोजन करो।]
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