जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है, तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है। यह मन ही है जो हमारे जीवभाव के परिच्छेदों का आभास निर्माण करता है और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है। आत्मा तो नित्यमुक्त है कदापि बद्ध नहीं। बद्ध तो मन (अहं) है जो नवनीदा/महामण्डल का दासो मैं नहीं बनता। ]
केवल अवतार या नेता ही ज्ञानयोग का अभ्यास करने के अधिकारी हैं। भक्ति योग स्वाभाविक है। गोपीप्रेम सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। पैसे का दुःख नहीं ईश्वर को नहीं प्राप्त करने का दुःख सही मार्ग है। (5.58 मिनट)
भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप-खण्ड ४/ ५४
[THE FORMS OF LOVE — MANIFESTATION]
भक्ति जिन विविध रूपों में प्रकाशित होती है, उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं :
पहला है Reverence 'श्रद्धा।' आस्तिक्य-बुद्धि। लोग मन्दिरों, नदियों और तीर्थस्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ भगवान की पूजा होती है, ऐसे सभी स्थानों में उनकी सत्ता अधिक जाग्रत रहती है। शास्त्रों और आचार्यों (सदगुरुदेव और नवनीदा ) के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं ? क्योंकि शास्त्र और आचार्य उन्हें मनुष्य जीवन के लक्ष्य -ईश्वरप्राप्ति या भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। नवनीदा के प्रति इस श्रद्धा 'Reverence' का मूल है -प्रेम। संसार माया है, उस परमात्मा की ही लीला, उसकी ही ऊर्जा। और संसार तुम्हारे लिए एक शिक्षण का अवसर है। सीखो। संसार प्रेम को निखारने की प्रक्रिया है। फूलों के प्रति, चांद—तारों के प्रति, सूरज के प्रति, नदी—पहाड़ों के प्रति, क्योंकि यह सब उसी विराट की लीला है। इन सब मे वही एक —अनेक रूपों में आया है। सम्मान पैदा होगा। रिवरेंस-महापुरुषों के प्रति श्रद्धा। इसलिए तुम्हें प्रेम इतने जोर से पकड़ता है। प्रेम से बड़ी कोई शक्ति है इस जगत में? आदमी प्रेम के लिए जीवन भी दे देता है।
दूसरा, बहुमान। शांडिल्य तृप्त नहीं हुए सिर्फ 'सम्मान'-श्रद्धा से। सम्मान साधारण है। बहुमान भी पैदा होगा। अपार कृतज्ञता का भाव पैदा होगा। जितना करेगा उतना ही थोड़ा लगेगा। इतना दिया है परमात्मा ने, इतना दिए जाता है, कैसे उऋण हो सकता हूं। बहुमान पैदा होगा। भक्त सब जगह झुका होगा। देखा न, जैसे वृक्ष जब फलो से लद जाते हैं तो झुक जाते हैं। वृक्षों के चरण छू लेगा। नदियों की पूजा कर लेगा। पर्वतों की श्रद्धा करेगा। सूरज को नमस्कार करेगा। सारा जगत देवी—देवताओं मे परिवर्तित हो जाएगा—यही हुआ था। जो लोग इस सत्य को नहीं जानते हैं, नहीं पहचानते हैं, उन्हें बहुत हैरानी होती है कि क्यूं इस देश में लोग सूरज को पूजते हैं? सूरज भी कोई पूजने की बात है! सूरज कोई देवता है! चांद को पूजते हैं! चांद में क्या रखा है, अब तो आदमी भी उस पर चल लिया! उन्हें पता नहीं है कि भक्त सब तरफ भगवान को देखता है। प्रत्येक चीज दिव्य हो जाती है, देवता हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक चीज में परमात्मा का प्रतिफलन होने लगता है। प्रत्येक चीज दर्पण हो जाती है, उसी का रूप झलकता है।
3. प्रीति, अर्थात ईश्वर-चिंतन में आनंद - गहन प्रीति पैदा होगी। मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में कितना तीव्र आनंद अनुभव करता है। भक्त भगवान के प्रति उतनी ही तीव्रता से प्रेम करता है। उस व्यक्ति के जीवन में प्रीति ही प्रीति की तरंगें होंगी। उठेगा, बैठेगा, चलेगा, सोएगा, और तुम पाओगे उसके चारों तरफ प्रीति का एक सागर लहराता। तुम उसके पास भी आ जाओगे तो उसकी प्रीति से भर जाओगे। तुम उसके पास आ जाओगे, तुम्हारी हृदय—वीणा झंकार करने लगेगी।
4. विरह - उसके जीवन में, विरह पैदा होगा। और जितना—जितना भगवान की पहचान होगी, उतने ही विरह की भावदशा बनेगी। जितनी पहचान होगी, उतनी ही पाने की आकांक्षा जगेगी। जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी—विरह का मतलब होता है, जितने करीब आएगा उतनी ही दूरी मालूम होगी। जब पता ही नहीं था तब तो दूरी भी नहीं थी। तब तो खोजते ही नहीं थे तो दूरी कैसे होती? अब जैसे—जैसे करीब आएगा, जैसे—जैसे झलक मिलेगी, वैसे—वैसे लगेगा—कितनी दूरी है! जैसे साधारण प्रेमी मे विरह होता है, वही विरह विराट होकर भक्त में प्रकट होगा।
5. इतर विचिकित्सा - अन्या वाचो विमुंचथ। —परमात्मा के अतिरिक्त उसे और सब चीजों में अरुचि हो जाएगी—स्वाभाविक अरुचि। विराग नहीं, अरुचि। चेष्टा नहीं होगी उसकी, लेकिन उसे और किसी चीज में रुचि नहीं रह जाएगी—कहीं लोग बैठकर धन की बात करते हैं, तो वह बैठा रहे वहा लेकिन उसे रुचि नहीं होगी। कहीं कोई किसी की बात करते हैं कि हत्या हो गई, वह बैठा भी रहे वहा तो उसे रुचि नहीं होगी। हा, कहीं कोई प्रभु का गुणगान करता हो तो वह एकदम सजग हो जाएगा, एकदम लपट आ जाएगी।
6. महिमा कीर्तन (ख्याति)- भक्त को बड़ा आनंद आता है प्रभु की महिमा गाने में। क्योंकि जब भी वह उसकी महिमा का गुणगान करता है तभी अपने को भूल जाता है। उसकी महिमा का गुणगान अपने अहंकार से मुक्त होने का उपाय है। तुमने देखा, लोग अपनी ही महिमा का गुणगान करते हैं। लोगों को बातें सुनो। जरा गौर करो उनकी सारी बातों का निचोड़ क्या है? वे यही कह रहे हैं कि मेरे जैसा आदमी दुनिया में कोई दूसरा नहीं; सारी बातों का निचोड़ यही है। कोई कह रहा है, मैं जंगल शिकार करने गया, ऐसा शेर मारा कि किसी ने क्या मारा होगा! कोई मछली पकड़ लाया है तो उसका वजन बढ़ा—चढ़ा कर बता रहा है कि उसका वजन इतना है। कोई चुनाव जीत लिया है, कोई ताश के पत्तों में जीत लिया है। लोग सारे खेल कर रहे हैं, बात सिर्फ एक है कि मेरा जैसा कोई भी नहीं। मैं विशिष्ट हूं मैं असाधारण हूं। सब दूसरों को छोटा करने में लगे हैं, अपने को बड़ा करने में लगे हैं। आदमी की सामान्य स्थिति क्या है? वह अहंकारी आत्म—स्तुति में लगा है।
भक्त भगवान (गुरु-नेता) की स्तुति में लगता है। उस स्तुति में ही लगते—लगते भगवान हो जाता है। अपनी स्तुति में जो लगेगा, वह भगवान से छिटकता जाएगा और जो भगवान की स्तुति में लग जाएगा, एक दिन भगवान हो जाएगा। वह जो विशिष्ट होने की आकांक्षा थी, उसी दिन पूरी होती है जब कोई बिलकुल सामान्य हो जाता है। प्रीतम के अर्थ जीना। भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले। थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।
7. तदर्थ प्राणसंस्थान : तुम्हारा रोआ—रोआ उसे पुकार सके, तुम्हारा कण—कण उसकी प्यास से भर सके, एक ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम्हारे भीतर उसकी प्यास के अतिरिक्त कुछ भी न बचे, ऐसी त्वरा हो, ऐसी तीव्रता हो, बस उसी तीव्रता में, उसी त्वरा में घटना घट जाती है। कुछ टूट जाता। कुछ यानी तुम्हारा अहंकार।और जहां तुम्हारा अहंकार टूटा कि तुम चकित होकर पाते हों—परमात्मा सदा से मौजूद था, तुम्हारी आंखों पर अहंकार का धुंध था, वह टूट गया है।
परमात्मा कभी खोया नहीं था—मिला भी नहीं है, सिर्फ बीच में तुम सो गए थे, अहंकार की नींद में खो गए थे, नींद टूट गई है, संसार का सपना विदा हो गया है। तब भी यही वृक्ष होंगे, तब भी यही लोग होंगे, सब ऐसा ही होगा, और फिर भी सब नया हो जाएगा क्योंकि तुम नए हो गए। फिर पत्थर में वही सोया मालूम होगा। फिर तुम्हारी पत्नी में भी वही है और पति में भी वही है और बेटे में भी वही है और पिता में भी वही है। भक्त के लिए सारा अस्तित्व मंदिर हो जाता है।
प्रीतम के अर्थ जीना। भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले। थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।
तदीयता। वह ही है, मैं नहीं हूं ऐसी भक्त की भावदशा होती है। सर्वं तदभाव। वही सब में है, सब में वही है, ऐसी उसकी प्रतीति होती है। इन्हीं तरंगों में वह रंगता जाता अपने को, इन्हीं भावों से भरता जाता अपने को।
अप्रातीकूल्य। और भगवान के प्रतिकूल आचरण का उसमें अभाव होता है। वह कुछ भी नहीं कर सकता जो भगवान के प्रतिकूल हो, विपरीत हो। ऐसी कोई बात उससे नहीं हो सकती जो इस विराट अस्तित्व के विपरीत जाती हो। होगी भी कैसे? तदीयता पैदा हो गई—तू ही है, मैं नहीं हूं। तदभाव पैदा हो गया—सब में तू ही है। जो कुछ है सो तू ही है !
नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्चेति (Nri. Tap. Up.)
(साभार https://oshoganga.blogspot.com/2014/10/1-17_25.html/)
[सम्मान- बहुमान- प्रीति- विरह -इतर विचिकित्सा- महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान तदीयता सर्व तद्भावा प्रातिकूल्यादीनि स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।। ४४
(अनवस्था-दोष): न एव श्रद्धा तु साधारण्यात्।। तस्यां तत्वे च अनवस्थानात्।। २५
शंका : जैसे संसार को किसी (सृष्टिकर्त्ता) ने तो बनाया होगा! समाधान - यदि ऐसा हो तो प्रश्न उठता है कि फिर उस सृष्टिकर्त्ता को भी किसी न किसी ने बनाया होगा ? इसे ही तर्कशास्त्र में --"अनवस्था-दोष" कहा जाता है। इसलिए सृष्टि का अर्थ निर्माण नहीं, प्रकृति (जीव तथा जगत्) का अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करना और पुनः व्यक्त से अव्यक्त में लौट जाना है। इति महर्षि श्री शाण्डिल्य कृत भक्ति दर्शनम् ।।]
विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय-खण्ड ४/५६ ????
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