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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

"आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति में बाधक तत्व और उन्हें दूर करने का उपाय "

किसी अपने प्रियजन को खोने के डर पर कैसे काबू पायें ?


मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है - आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना। कोविड 19 के समय हर व्यक्ति अपने प्रिय जन (पत्नी ,भाई या बहन) को खोने के भय से डरा हुआ था। मृत्यु भय पर विजय पाने का एकमात्र उपाय है- शरीर में रहते हुए ही  आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेना। अतएव मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है - आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है - अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेना। बस इतना -इससे ज्यादा नहीं। -आचार्य शंकर ने कहा है - त्रय दुर्लभं ! मनुष्यत्वं - अर्थात मानव-जन्म या मनुष्य योनि में जन्म लेना अत्यंत दुर्लभ है। मुमुक्षुत्वं - फिर मोक्ष की इच्छा का होना दुर्लभ है। सबसे दुर्लभ है -महापुरुष अर्थात सतगुरु या स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का आदर्श समझ लेना भी दुर्लभ है।  केनोपनिषद (२.५) में कहा गया है - 

इह चेदवेदीथ सत्यमस्ति ने चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ 

अर्थ:-- जिसने इस मानव देह में परब्रह्म को जान लिया, वह सब प्रकार से कुशल है। उसका मानव-जन्म सार्थक हुआ है। यदि इस देह में रहते हुए परब्रह्म को नहीं जाना, वह घोर विनाश हो जायेगा -बार बार मृत्यु रूप संसार के प्रवाह में बहना पड़ेगा। फिर , रो-रोकर पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कुछ न रह जायेगा। जो धीर अर्थात विवेकी लोग इसी देह में रहते हुए प्राणिमात्र में परब्रह्म (आत्मा) को देख कर इस लोक से जाते हैं, वे इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।

अतएव इन तीनों दुर्लभ वस्तु को पाकर भी जो मनुष्य अपने अंतर्निहित दिव्यता - अविनाशी आत्मा को जानने की साधना , या मन को एकाग्र करने की साधना में नहीं लग जाता वह बहुत बड़ी भूल करता है।  अतएव श्रुति कहती है कि 'जबतक देवदुर्लभ मानव-शरीर विद्यमान है , ठकुर -माँ -स्वामीजी की कृपा से - मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रणाली Be and Make ' उपलब्ध है , तभी तक शीघ्रताशीघ्र अपने यथार्थ स्वरुप को, अविनाशी आत्मा को जान लेना चाहिए। 

हमारा स्वरुप है कि हम शाश्वत मुक्त अजर , अमर , अनंत आत्मा है। लेकिन वह सबसे बड़ी बाधा क्या है ? जो हमें आत्मानुभूति नहीं हो पाती ? योगशास्त्र के अनुसार 5 बाधक तत्व हमें आत्मनुभूति नहीं करने देते है। योगदर्शन के अनुसार- अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष ,अभिनिवेश- पंचक्लेश ! आत्मानुभूति नहीं होने के ये 5 ही कारण हैं।  

'अविद्याऽस्मिता रागद्वेषभिनिवेशा: पंच क्लेशा: (योगदर्शन २.३)। 

 इन सभी क्लेशों का सामान्य लक्षण है - कष्टदायिकता इनके रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता। इन पांच बाधाओं के रहते आध्यात्मिक ज्ञान नहीं हो सकता। 

अविद्या - नश्वर को अविनाशी मानना मूर्खता (अज्ञान) है। दृष्टिगोचर जगत की हर वस्तु क्षणस्थायी है। क्षणभंगुर देह-मन को शाश्वत समझना अविद्या है। अपवित्र (अशुचि ) को पवित्र (शुचि) समझना अविद्या है। अर्थात्‌ अनेक अपवित्रताओं और मलों के गेह (निवास्थान या घर) शरीर को पवित्र मानना अविद्या है। दुःख को सुख समझना अविद्या है। अनात्मा (जड़-शरीर) को चैतन्य आत्मा समझ लेना अविद्या है। दूसरे शब्दों में अविद्या वह भ्रांत ज्ञान है जिसके द्वारा अनित्य (देह-मन) नित्य प्रतीत होते हैं। इसके कारण हम रज्जु को सर्प समझते रहते हैं। आत्मानुभूति प्राप्त सद्गुरु के सिवा हममें से किसी भी व्यक्ति ने 'परम् सत्य' (अपरिवर्तनीय सत्य) का दर्शन,  साक्षात्कार, या अनुभूति प्राप्त नहीं किया है किन्तु उच्च-डिग्री या ऊँचा पोस्ट प्राप्त होने के कारण हममें से कोई यह स्वीकार नहीं करते कि हम अविद्या-ग्रस्त है। हम केवल परिवर्तनीय और नश्वर चीजों को ही देखते रहते हैं। इसका फल दुःख तो होना ही है। अविद्या ही आत्मज्ञान का प्रमुख बाधक है। 

अस्मिता -अर्थात्‌ हमारा काचा आमी - मिथ्या अहं (M/F देहाध्यास में अहंकार बुद्धि ) को और आत्मा को एक मान लेना- दूसरा क्लेश है। हमलोगों ने अपने नाम-रूप M/F शरीर को ही अपना यथार्थ स्वरुप समझ लिया है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ की अनुभूति का ही नाम अस्मिता है। हमलोग जिंदगी भर 'मैं ' का अर्थ यह देह-मन ही समझते हैं। लेकिन इस 'मैं ' को खोजने से यह अनंत हो जाता है। 

राग ॥ सुखानुशयी रागः।। सुख - सुख (की प्रतीति के) अनुशयी -अर्थात् पीछे (सुख को भोगने की इच्छा- रागः (क्लेश है)। इन्द्रिय विषयों के सुख और उसके साधनों के प्रति आकर्षण, तृष्णा और लोभ का नाम राग हैं; यह तीसरा क्लेश है।  तीनों ऐषणाओं में आसक्ति से निर्देशित रहकर काम करने की मजबूरी , बाध्यता ही राग है।  

द्वेष दुःखानुशयी द्वेषः।। उस वस्तु से घृणा जो मुझे पसंद नहीं है। सबके जीवन में अलग अलग दुख आते रहते हैं, जब दुख भोग लिया जाता है या आकर चला जाता है, तो उसके बाद दुख और जिनके कारण से दुख मिला था उन्हें दूर करने की इच्छा संस्कार रूप में चित्त में अंकित रह जाती है, जिसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं। द्वेष का क्लेश बढ़ने से, व्यक्ति लगातार नकारात्मक भाव से भरने लग जाता है। स्वभाव से चिड़चिड़ा और शिकायती होने लग जाता है।

द्वेष नामक क्लेश से अनेक दुर्गुण  जैसे किसी व्यक्ति के प्रति मानसिक एवं प्रकट क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, उत्पन्न होते हैं। द्वेष नामक क्लेश जब जीवन में अधिक बढ़ जाता है तो निरंतर संशय की स्थिति बना देता है, जिसके कारण व्यक्ति किसी पर भी सहजता से विश्वास नहीं कर पाता है। यदि कोई व्यक्ति निरंतर संशय की स्थिति में जीता है तो वह अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। एक प्रकार से वह केवल शरीर भाव से ही जी रहा है, जीवन के असली तत्त्व, यह आध्यात्मिक ज्ञान कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', उसे बहुत अधिक भूलने लग जाता है। यह स्थिति अत्यंत भयावह है।

राग और द्वेष दो विपरीत क्लेश हैं लेकिन दोनों की उत्पत्ति के क्रम एवं प्रक्रिया में एक जैसी समानता है। राग अलग तरह से व्यक्ति को दुखी करता है और द्वेष अलग तरह से। द्वेष, व्यक्ति को पाप और हिंसा में प्रवृत्त करता है। बुरे कर्माशयों की ओर - अर्थात बदला लेने की भावना की ओर लेकर जाता है।  और फिर पूरे मानव जीवन को जन्मजन्मांतरों में भटकाता है। इसलिए दैनिक जीवन में राग और द्वेष को ठीक ठीक समझकर इनका प्रयोग केवल स्वयं के जीवन के उत्थान में लगाना चाहिए।

द्वेष क्लेश होने के साथ साथ एक शक्ति भी है। ऐसी शक्ति जो हमें हटाने की, निवृत्ति की शक्ति देती है। अतः इसका प्रयोग हमें स्वयं के जीवन से दोषों और दुर्गुणों को हटाने के लिए करना चाहिए ,तो यही शक्ति सात्विक शक्ति बन जाएगी। ईश्वर ने जो कुछ बनाया है उसमें अच्छाई और बुराई दोनों डालकर भेजी हुई है, अब यह आपका विवेक-प्रयोग या चुनाव है कि आप उस शक्ति का प्रयोग अच्छाई के लिए करते हैं या स्वयं उसकी चपेट में आकर स्वयं को नष्ट करते हैं।

अभिनिवेश - और अधिक जीने की इच्छा - इसी जीवन को कसकर पकड़े रहना। इसके माने हर जीव मरने से भयभीत रहता है। प्रत्येक प्राणी-विद्वान्‌, अविद्वान्‌ सभी की आकांक्षा रही है कि उसका नाश न हो, वह चिरजीवी रहे। इसी जिजीविषा के वशीभूत होकर मनुष्य न्याय- अन्याय, कर्म- कुकर्म सभी कुछ करता है। और ऊँच नीच का विचार न कर पाने के कारण नित्य नए क्लेशों में बँधता जाता है। अभिनिवेश को संस्कृत में कहते हैं - मरण त्रास। अर्थात मृत्यु का भय। हमलोग केवल जीवन चाहते हैं  मरना नहीं चाहते। बड़े-बड़े विद्वान् भी मरने से डरते हैं। ब्रह्मविद या आत्मविद व्यक्ति के सिवा कोई भी मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त नहीं है। इसीको अभिनिवेश कहते हैं। 

न 5 बाधाओं को हटाया कैसे जाये ? योग शास्त्र में उसका उपाय बताया है - तपः, स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधानं ! (योगसूत्र के साधनपाद का पहला ही सूत्र है - तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।। साधना पाद: सूत्र 2.1इन्द्रियों का कष्टपूर्वक शुद्धिकरण और प्रशिक्षण, आत्म-अध्ययन, तथा कर्मों के फलों को ईश्वर को समर्पित करना ही क्रिया योग है।

जिन समाधियों के साथ हमने अपना पिछला अध्याय समाप्त किया था, उन्हें प्राप्त करना बहुत कठिन है; इसलिए हमें उन्हें धीरे-धीरे अपनाना चाहिए। प्रथम चरण, प्रारंभिक चरण, क्रिया योग कहलाता है। वस्तुतः इसका अर्थ है कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। 

   इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, आत्मा सवार है, और यह शरीर रथ है। घर का स्वामी, राजा, मनुष्य की आत्मा इस रथ पर बैठा है। यदि घोड़े बहुत बलवान हैं और लगाम का पालन नहीं करते, यदि सारथी, बुद्धि, घोड़ों को नियंत्रित करना नहीं जानता, तो यह रथ दुर्घटना-ग्रस्त हो जाएगा। लेकिन यदि इन्द्रियाँ, घोड़े, अच्छी तरह से नियंत्रित हैं, और यदि लगाम, मन, सारथी के हाथों में अच्छी तरह से है, तो बुद्धि, रथ, लक्ष्य तक पहुँच जाता है। इसलिए, तपः का क्या अर्थ है? इस शरीर और इन्द्रियों को चलाते समय लगाम (मन) को अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं करने देकर अपने वश में किये रहना।  

यही उपाय है अपने नजदीकी प्रिय जन के खोने के भय पर विजय प्राप्त करना। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने मृत्यु का भय ही सबसे बड़ी बाधा है। और इस पर विजय पाने का उपाय है - तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधानं ! मन को जीत लेना ही सबसे बड़ा तप है।  मनसः च इन्द्रियाणां 'मन और इन्द्रियों का संयम सबसे बड़ा तप है। महाभारत में कहा गया है - इन्द्रियाणां च मनस ऐकाग्रयं परमं तपः ॥ स्वयं को कष्ट देना तप नहीं है। शरीर और मन को सदा अपने लक्ष्य पर स्थिर रखना। वर्तमान समय में हमलोग इस तपस से एकदम कट गए हैं। लेकिन मृत्यु भय को जितना चाहते हैं।

 स्वाध्याय - पवित्र शब्द ॐ आदि का जप करना स्वाध्याय है। अर्थात गुरुदेव से प्राप्त इष्ट मंत्र का या ॐ प्रणव का निरंतर जप करना स्वाध्याय है । या मोक्ष शास्त्र का अध्यन करना स्वाध्याय है। निरंतर आत्मविश्लेषण , आत्मनिरीक्षण करते रहना। शास्त्र का अर्थ सद्गुरु या अवतार के उपदेश।

 ईश्वरप्रणिधानं- का अर्थ है अपने अहं को प्रभु (अपने इष्टदेव या अवतार वरिष्ठ) के श्री चरणों में पूर्णतया निवेदित कर देना ब्रह्मविद सदगुरुदेव से अपने इष्टदेव या अवतार वरिष्ठ के नाम-जप की पद्धति सीखकर उनकी भक्ति करने से यह सब क्लेश समाप्त हो जाते हैं। इन तीनों का अभ्यास - करने से मूल अविद्या बाधा सहित सभी 5 बाधाएँ समाप्त होकर आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। (पंचकोशों में क्लेशों का मुख्य कारण रूप अविद्या में रहने वाला रज और तम के संयोग से मलिन सत्व के कारण कुंठित वृत्ति वाला कोश ही आनन्दमय कोश है।) 

तपस से शरीर पर नियंत्रण होता है , स्वाध्याय से मन पर नियंत्रण होता है , और ईश्वर प्रणिधान से अहं को (अविद्याग्रस्त अहं को) 'दासो अहं' बनाया जा सकता है। जब हमोग इस प्रकार का संयमित जीवन जीते हैं तब मृत्यु के भय को , निज जन के खोने के भय को भी जीत सकते हैं। 

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