भक्तियोग पर प्रवचन
[विवेकानन्द साहित्य के दो खण्डों [खण्ड ९/पृष्ठ ३ -६०/ तथा खण्ड ४/ पराभक्ति पृष्ठ ४५-७६] में स्वामी विवेकानन्द द्वारा 228 West 39th Street,न्यूयॉर्क में 16 दिसंबर, 1895 से मार्च 1896 तक भक्तियोग पर अंग्रेजी में ली गयी 11 कक्षाओं की श्रृंखला को जेजे गुडविन ने रिकॉर्ड किया था। उसी प्रवचन श्रृंखला को यूट्यूब पर श्री वरुण नारायण के शब्दों में प्रकाशित किया है। स्वामीजी द्वारा भक्तियोग पर दिए गए सभी प्रवचनों को दोनों खंडों से निकाल कर भक्तियोग पर क्रमानुसार उन 11 कक्षाओं की श्रृंखला के सार संक्षेप का हिन्दी अनुवाद एक साथ मिलाकर-आचार्य रामानुज द्वारा निर्दिष्ट पराभक्ति प्राप्त करने के निमित्त आवश्यक साधनायें; लिखने की चेष्टा झुमरी-तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग द्वारा की जा रही है।
Swami Vivekananda’s first Bhakti Yoga class #1 for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 16 December 1895, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan. This is the first of a series of eleven (11) classes that Swami Vivekananda gave on Bhakti Yoga in New York City, 1895-96.]
1. भक्त के जीवनगठन की पूर्व साधना :खण्ड-९/३-१२
[The Preparation for getting 'that' Intense love for God.]
भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा भक्त प्रह्लाद के द्वारा की गयी इस प्रार्थना में निहित है-
या प्रीतिर् अविवेकानां विषयेष्व् अनपायिनी ।
त्वाम् अनुस्मरतः सा मे हृदयान् नापसर्पतु ॥
(विष्णुपुराण :1-20-19)
‘‘हे नाथ ! अविवेकी पुरुषों की (अर्थात पंचक्लेश-ग्रस्त पुरुषोंकी) जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के नाशवान् भोग के पदार्थों पर रहती है, वैसी ही प्रीति आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय में हो, और तेरी सतत कामना करते हुए वह गाढ़ी प्रीति मेरे हृदय से कभी दूर न होवे ।’’
हमलोग इन्द्रिय विषयों से, (या तीनों ऐषणाओं से) - गाढ़ी प्रीति किये बिना रह ही नहीं सकते, क्योंकि वे हमारे लिए, एकदम वास्तविक हैं! ["How naturally we love objects of the senses! We cannot but do so, because they are so real to us. क्योंकि सदगुरुदेव (या अवतार वरिष्ठ) के आलावा हममें से किसी ने - इन्द्रियातीत सत्य का (ईश्वर, परम सत्य या माँ काली का) दर्शन नहीं किया है , इसीलिए इन्द्रिय-ग्राह्य क्षणिक सुख से भी उच्चतर आनन्द, भूमा या अनन्त आनन्द देने वाली कोई वस्तु हो सकती है, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ( the idea is that he can have a strong attachment, only it should be transferred to the object beyond the senses, which is God.) पर जब कोई मनुष्य सद्गुरु की कृपा से (ठाकुर-माँ स्वामीजी की कृपा से) इन्द्रियों के ब्रह्माण्ड से परे - किसी अपरिवर्तनीय सत्य -परम् सत्य वस्तु (सच्चिदानन्द) को देख लेता है - (विवेक-श्रोत को उद्घाटित कर लेता है) तब वह यदि ऐषणाओं के प्रति अपनी गाढ़ी आसक्ति को, संसार से हटाकर उस इन्द्रियातीत वस्तु (शाश्वत चैतन्य, सच्चिदानन्द,-परम् सत्य) में लगा दे, जो एकमात्र भगवान हैं; तब वह भगवान से भी वैसी ही गाढ़ी प्रीति करने में समर्थ हो जाता है , जैसी वह पहले- अज्ञानावस्था (अविवेक की अवस्था में) ऐषणाओं से करता था। और जब इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों से सम्बद्ध वह प्रेम- (ऐषणाओं वाली गाढ़ी प्रीति या आसक्ति) भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है, तब उसको भक्ति कहते हैं।
हम जानते हैं कि हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं , उनके पांच विषय है - रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श। इन सभी इन्द्रिय-विषयों के प्रति सभी जीवों में - 'अली-मृग-मीन -पतंग -गज' जरै एक ही आँच ; एक -एक इन्द्रिय विषयों में कितनी स्वाभाविक प्रीति/ आसक्ति रहती है- क्योंकि पशुओं में विवेक नहीं होता। पशु की ही तरह अविवेकी मनुष्यों को भी इन्द्रिय विषयों में मिलने वाला क्षणभंगुर सुख- आहार, निद्रा , भय , मैथुन एकदम वास्तविक लगता है ?
किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र से, कामिनी -कांचन और नाम-यश आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है । किन्तु उतना तीव्र आसक्ति जितना तीनों ऐषणाओं में है, उस इन्द्रियातीत सत्य -या सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान से हो जाये, तो वही प्रेम या आसक्ति हमें मुक्त कर देता है। यदि यही प्रेम/आसक्ति/ गाढ़ी प्रीति परमात्मा से हो जाय तो वह आसक्ति भी मुक्तिदाता बन जाता है । ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव/प्रीति /आसक्ति बढ़ती है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से (तीनों ऐषणाओं से) लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता । पराभक्ति ही भक्तियोग की परिधि के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती । भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए । वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है, और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है । 2.09m]
The preparations for getting 'that' Intense love.(2.20) अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है-'That Intense love'- वैसी गाढ़ी प्रीति / पराभक्ति ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के सच्चिदानन्द स्वरुप के प्रति प्राप्ति के लिए भक्तिमार्ग के आधुनिक आचार्य नवनीदा द्वारा निर्दिष्ट आवश्यक साधनायें।
१.'विवेक'- (उचित -अनुचित विवेक, श्रेय-प्रेय विवेक , शाश्वत -नश्वर विवेक , सत -असत -मिथ्या विवेक, नाम-रूप मिथ्या विवेक , बुलबुला -जल विवेक होता है।) किन्तु आचार्य रामानुज के अनुसार खाद्य- अखाद्य विवेक (निर्णय) "Discrimination of Food"- ही प्रथम साधना है। हमारा स्थूल शरीर अन्नमय कोष है। आहार का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। उत्तेजक आहार, शराब आदि पीया जाये तो मन पर नियंत्रण नहीं रहता। हम जिन दुःखो को भोग रहे हैं, उनका अधिकांश हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन के कारण होता है। मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जो बॉर्डर पर तैनात हैं , या कठिन परिश्रम करते हैं। या जिन्हें भक्त नहीं बनना है। निम्बू अँचार छोड़कर अन्य सड़ा भोजन ठीक नहीं है। जब भोजन में इन चीजों का त्याग कर दिया जाता है, तो वह शुद्ध हो जाता है; शुद्ध भोजन से शुद्ध मन प्राप्त होता है, और शुद्ध मन में ईश्वर का निरंतर स्मरण होता है। "आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।" (छान्दोग्य उप. ७.२६.२) 'हाथ' (Hand) हमेशा देने के लिए बना है। अपनी रोटी का आखिरी टुकड़ा भी दे दो, चाहे तुम खुद भूखे ही क्यों न हो।
आचार्य शंकर के अनुसार सभी पाँच इन्द्रियों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुद्ध रहने से मन ऐषणाओं से अनासक्त हो जाता है , तब ईर्ष्या-द्वेष रहित शुद्ध-मन में ईश्वर की स्मृति (इन्द्रियातीत सत्य-सच्चिदानन्द स्वरुप , प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की स्मृति) जाग्रत रहती है। मन (Head) को प्रसन्नचित्त, लेकिन शांत रखें। Let the mind be cheerful, but calm. Never let it run into excesses, because every excess will be followed by a reaction. मन को कभी भी राग-द्वेष के प्रति अति न करने दें, क्योंकि हर अति के बाद प्रतिक्रिया होगी। रामानुज के अनुसार, ये पराभक्ति प्राप्ति के निमित्त की जाने वाली साधनायें हैं।मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जिन्हें भक्त नहीं बनना है।
हम सभी यहाँ पंचक्लेशों की जंजीरों से बन्धे है, उसको तोड़ने का उपाय है योगसूत्र के अनुसार क्रियायोग। शारीरिक-मानसिक साधना साथ साथ चलने से आध्यात्मिक शक्ति- आत्मा की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती है, और भौतिक प्रवृत्ति -आहार,निद्रा , भय और मैथुन -की इच्छा कम प्रभाव शील होती जाएगी। हम यहाँ पंचक्लेश की जंजीरों से बंधे हुए हैं, और हमें धीरे धीरे अपनी ही जंजीरों को तोडना है। इसका ही नाम है -विवेक। ९/पेज ७)
[These are the preparations for Bhakti, according to Ramanuja : যা প্রীতির্ অবিবেকানাং বিষযেষ্ব্ অনপাযিনী । ত্বাম্ অনুস্মরতঃ সা মে হৃদযান্ নাপসর্পতু ॥
महामण्डल के प्रत्येक भावी नेता को विवेक-वाहिनी के उम्र से ही (बालक ध्रुव और भक्त प्रह्लाद से अनुप्रेरित होने की उम्र से ही) अपने जीवन को यथासम्भव आचार्य नवनीदा (दादा) के साँचे में ढलकर एक भक्त-शिक्षक के रूप में गठित करना होगा। क्योंकि दादा (नवनीदा) का जीवन-गठन भी उनकी माताजी के निर्देशानुसार एक भक्त के रूप में -बालकध्रुव की भक्ति तथा भक्त प्रह्लाद की नृसिंह भक्ति के अनुरूप हुआ था। इसीलिए महामण्डल रूपी चरित्र-निर्माण की प्राथमिक पाठशाला में प्रत्येक नेता या भावी शिक्षक के जैसा भक्त के रूप मेंअपना जीवन गठित करने के लिए शुरुआत में मछली -अंडा छात्रों की रूचि के अनुसार दिया जाता है, तथा एक दिन 'हविष्यान्न' खिलाकर शाकाहारी भोजन के महत्व की शिक्षा भी दी जाती है। दादा का निर्देश कैम्प में बालक ध्रुव के अनुरूप जीवनगठन के लिए पहले बताओ श्रद्धा क्या है , विवेक या धर्म, पूर्णता निःस्वार्थपरता क्या है।]
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