नचिकेता में आत्मश्रद्धा का जागरण - कठोपनिषद
कठोपनिषद में दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। इसमें 119 श्लोक हैं। यम-नचिकेता संवाद में मानव जीवन के गुह्यतम् रहस्यों के बारे में विवेचना हुई है। अतः सभी से अनुरोध है कि इस उपनिषद कथा का बार-बार मनन, चिंतन एवं स्मरण करें तभी परमात्मा इस रहस्य को प्रकाशित करेंगे।
आचार्य शंकर कहते हैं, तीन चीजें दुर्लभ हैं- मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय:॥ यह तीन दुर्लभ हैं और देवताओं की कृपा से ही मिलते हैं - मनुष्य योनि में जन्म, मोक्ष की इच्छा और सद्गुरु या महापुरुष का आश्रय ॥ ये तीन चीजें केवल ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं, क्योंकि ये तीनों मनुष्य जीवन को सार्थक बना देती हैं। नचिकेता के चरित्र में आपको ये तीनों चीजें मिलेंगी, इसीलिए स्वामी विवेकानन्द को नचिकेता का व्यक्तित्व बहुत पसंद था। (28.03) नचिकेता के व्यक्तित्व में वे तीन चीजे क्या थीं ? पहला सबसे महत्वपूर्ण गुण था -श्रद्धा ! श्रद्धा क्या है - इसको ध्यान से समझना चाहिए। आमतौर से श्रद्धा का अर्थ शास्त्र और गुरु पर विश्वास समझते हैं , किन्तु इसका वास्तविक अर्थ अंग्रेजी का faith नहीं, संस्कृत का आस्तिक्य-बुद्धि है! अपनी आत्मा में विश्वास। श्रद्धा का अर्थ है कि हम सब में प्रत्येक के भीतर एक अंतर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) है या (Infinite Reality) है जो मृत्यु से परे है। जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है , उसका कोई अर्थ जरूर है, जीवन का एक उद्देश्य है। आत्मश्रद्धावान मनुष्य हमेशा सकारात्मक सोंच रखता है। श्रद्धा मानव मन का वैसा गठन है जो उस अंतर्निहित दिव्यता या परम सत्य पर अटूट विश्वास रखता है जो मृत्यु से परे है। और इसके विपरीत यदि हममें श्रद्धा न हो , तब क्या होता है ? तब मनुष्य में 'cynicism and escapism' निराशावाद और पलायनवाद की मनोवृत्ति (कोविड-19 से भी खतरनाक रोग) हावी हो जाती है। कोरोना काल में हमने इसका अनुभव किया है। यह विश्वास हमें सफल बनाता है, नीडर बनाता कि हमारे भीतर एक ऐसी दिव्यता है जो अविनाशी है। कहानी कहती है कि नचिकेता में श्रद्धा का प्रवेश हुआ। हमारी शिक्षा-व्यवस्था में आत्मश्रद्धा बढ़ाने के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं है, हमलोग भौतिक जगत से परे किसी आध्यात्मिक जगत की बात सुने ही नहीं हैं। तो श्रद्धा बढ़ाने का उपाय क्या है, हममें नचिकेता जैसा विश्वास कैसे आ सकता है ? पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था गुरु-शिष्य वेदांत परम्परा में आधारित थी,..... नचिकेता को याद हो आया , मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ। स्वामीजी कहते थे -वह अंतर्निहित दिव्यता जो मृत्यु से परे है; उस पर समाज को श्रद्धा रखना ही होगा , और जो समाज मानवमात्र में अंतर्निहित दिव्यता पर श्रद्धा नहीं रखेगा , वह समाज विनष्ट हो जायेगा। अर्थात 2H को 3rdH' पर श्रद्धा रखना होगा। 3rdH को 2H पर श्रद्धा नहीं रखना है , बॉडी-माइंड कम्प्लेक्स को अपने अंतर्निहित अविनाशी स्वरूप पर श्रद्धा रखना होगा। आज की शिक्षा-व्यवस्था में यह श्रद्धा बिल्कुल गायब है। नचिकेता को वह साहस कहाँ से मिला कि वह बिना डरे यमराज के घर पहुँच गया ? (42.35) श्रद्धावान मनुष्य के लिए मृत्यु भी बहुत छोटी बात हो जाती है। क्योंकि उसमें यह अटल विश्वास था कि मेरे अंदर वह ब्रह्मत्व अंतर्निहित है जो मृत्यु से परे है ! श्रद्धा रहने से ही विवेक-जाग्रत हो जाता है। ( 46.00) God gifted capacity to differentiate -what is permanent what is transient? शाश्वत -नश्वर विवेक जाग्रत हो जाता है कि द्रष्टा शाश्वत है , दृश्य नश्वर है। लेकिन यदि आप में श्रद्धा नहीं हो- कि मेरे भीतर वह आत्मा है जो मृत्यु से परे है , जो अपरिवर्तनीय है, परिवर्तनशील देह-मन से पृथक है तो यह विवेक जाग्रत नहीं होगा। विवेक को क्रियाशील बनाने वाली पहली चीज है श्रद्धा। विवेक आते ही दूसरी चीज आएगी वैराग्य -हर क्षणिक सुख के प्रति अरुचि होगी (कामिनी-कांचन में लालच कम होगा।) जो शाश्वत है उसके प्रति तीव्र प्रेम उत्पन्न होगा। 'distaste for everything that is transient , intense love for that which is permanent! शाश्वत सत्य ठाकुर-माँ -स्वामीजी के प्रति उसी प्रेम को भक्ति कहते हैं। यह भक्ति ही श्रद्धा का प्रारम्भ बिंदु है। यह भक्ति हमें आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाएगी जिसका अनुभव हम सभी को होना सम्भव है। इसलिए भगवत गीता में कहा गया है - श्रद्धावान लभते ज्ञानं (४/३९) जो साधक और साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करके वह स्थायी परम शांति को प्राप्त करता है। वह समाज श्रेष्ठ है जिसमें सर्वोच्च सत्य को अभ्यास में उतारा जाता है। स्वामीजी कहते थे - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसको अभिव्यक्त करना जीवन का उद्देश्य है। श्रद्धा से विवेक-वैराग्य कैसे मिले ?
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥
वचनामृत: यह आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। अर्थात यह आत्मा उस व्यक्ति के समक्ष अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है, जो अपने लक्ष्य के रूप में नश्वर संसार को नहीं शाश्वत आत्मा का चयन करता है। मनुष्य के रूप में जन्म लेकर हम चाहते क्या हैं ? पशु जैसा क्षणिक सुख देने संसार -या शाश्वत अमरत्व ? जो व्यक्ति सांसारिक सुख को जीवन का लक्ष्य के रूप में चुनेगा, क्या आत्मा उसके समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट करेगा ? और जीवन-लक्ष्य के रूप में आत्मा को चुनना -श्रद्धा से ही शुरू होता है।
जब आत्मा (ब्रह्म) अपने ही ह्रदय में हैं , तब सभी लोग उन्हें अपनी बुद्धि रूपी नेत्रों द्वारा देख क्यों नहीं पाते ? अधिकांश मनुष्य जीवन-लक्ष्य के रूप में आत्मा को क्यों नहीं चुनता ? उस पर एक महत्वपूर्ण श्लोक है - पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः, तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । - काठकोपनिषत् २-१-१, स्वयंभू भगवान (T) ने रूप, रस, शब्द , गंध और स्पर्श की सभी इन्द्रियां बहिर्मुख इसलिए बनाई कि मनुष्य विवेक द्वारा उनका यथायोग्य त्याग और ग्रहण कर सकेगा, और सुखमय जीवन बिताते हुए परमात्मा की ओर अग्रसर होगा। परन्तु विवेक के अभाव से अधिकांश मनुष्य इस बात को नहीं जानते। और इन्द्रिय-भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं। "कश्चित् धीरः अमृत-त्वम् इच्छन् आवृत्तचक्षुः प्रत्यगात्मानम् ऐक्षत् ॥ " कोई विरला - ऊँगली पर गिनने योग्य जिनकी संख्या होती है , ऐसे थोड़े से धीर मनुष्य- आवृत्तचक्षुः' जिस पर ठाकुर -माँ -स्वामीजी की विशेष कृपा होती है, भोगों (Bh) के परिणाम को जानकर - आत्मा को प्राप्त करने की इच्छा से मन -इन्द्रियों को अंतर्मुखी करके आत्मा को देखता है। मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य दो विभिन्न दिशाओं में बना सकता है। इसलिए स्वामीजी कहते थे - उठो , जागो - अविद्या, अज्ञान की मोहनिद्रा से जागो ! और लक्ष्य प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो! "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति ॥" सद्गुरु के पास जाओ, यमराज यहाँ गुरु हैं -उनसे जाकर लक्ष्य को समझो ! प्रश्न उठता है -स्वयं आत्मा का अनुभव किये बिना श्रद्धा कैसे समझें ? ठकुर कहते थे दिन में सूर्योदय के बाद आसमान में तारे नहीं दीखते , तो क्या तारे नहीं होते ? (105. 50) अतएव हमलोगों को गुरु वाक्य या चार महावाक्यों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। ठीक है अभी हम तारों को नहीं देख रहे हैं , लेकिन मेरे गुरु देव ने उन्हें देखा है , इस पर पूरी श्रद्धा रहे। यदि हमें आत्मसाक्षात्कार हो गया है , तब विश्वास करने की जरूरत ही नहीं है। विवेक-चूड़ामणि में आचार्य शंकर कहते हैं - "शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुध्यवधारणम्। सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तुपलभ्यते।। आत्मा मैंने नहीं देखा पर मेरे गुरु देव ने देखा है , शास्त्र भी यही कहते हैं। मैं कौन हूँ - मैं क्या हूँ ? मेरी सही पहचान क्या है ? जो देख रहे हैं वो माया है - सत्य है पर मिथ्या है, अनिवर्चनीय है। स्वप्न में देख रहे हैं - पूर्णमदः पूर्णमिदं ! स्थूल अन्नमय कोष-आनंदमय कोष से अत्यंत सूक्ष्म आत्मा को अलग कैसे करें?
शतं चैका च हृदयस्य नाद्य- स्तासासं मूर्धनमभिनिःश्रितैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्न्या उत्कमने भवन्ति।। 16।।
हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमें से एक सिर की ओर उठती है। उसी के साथ ऊपर जाने पर मनुष्य अमरत्व प्राप्त करता है। बाकी नाड़ियाँ विभिन्न दिशाओं में जाने के लिए हैं ।
अंगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
तं स्वच्छरिरात् प्रवृहेंमुञ्जादिवेषिकन् गाम्भीर्येण।
तं विद्याच्छुक्रममृतं तंच्छ विद्याच्छुक्रममृतमिति।। 17।।
[अङ्गुष्ठमात्रः of the size of a thumb पुरुष: the Puruṣa अन्तरात्मा the inner soul सदा always जनानाम् of beings हृदये in the heart सन्निविष्ठः dwelling: मुञ्जात् from the rush इषीकाम् the central stalk इव like स्वात् one’s own शरीरात् from the body तम् him धैर्येण with perseverance प्रवृहेत् should separate; तम् him शुक्रम् pure अमृतम् immortal विद्यात् know.
The Purusha of the size of a thumb, the inner soul dwells always in the heart of beings. One should separate Him from the body as the stalk from a grass. Know Him to be the pure, the immortal, yea, the pure, the immortal.]
One should extricate the element of absolute consciousness—the pure chit—in him from his consciousness of the body by assiduous discrimination (Vichara) and meditation. The simile of stalk and grass is very apt.] (121. 36)
अंगूठे के आकार का पुरुष , आंतरिक आत्मा, हमेशा मनुष्य के हृदय में निवास करती है। आत्मा सबसे सूक्ष्मतम वस्तु है जिसको पंच-कोशों से वैसे ही अलग करना पड़ेगा जैसे बहुत अध्यवसाय (परिश्रम) और ध्यान से मुंज के सींक (डंठल) को कास के घास से अलग किया जाता है , यह उपमा बहुत उपयुक्त है। मनुष्य को अपने भीतर के उस परम चेतना के तत्व (absolute consciousness-शाश्वत चैतन्य को) - अंतर्निहित शुद्ध चित् - को अध्यवसाय के साथ विवेक ( शाश्वत-नश्वर विवेक) और ध्यान द्वारा - मन-बुद्धि को तीक्ष्ण बनाकर, अर्थात मन को पूर्णतया पवित्र बनाकर ( चित्' को चित्त या मन वस्तु बंनने से) स्वयं को परिवर्तनशील देह-मन समझने से उसी प्रकार अलग करना चाहिए।
[मूंज, सींक, कास!
मूंज से सींक कैसे निकालें? ये ढूंढते ढूंढते ये पोस्ट मिली। कठोपनिषद में ब्रह्म प्राप्ति का ऐसा एक तरीका बताया है कि हृदयाकाश में अवस्थित 'पुरुष' को सर के ऊपर ऐसे निकालना होता है जैसे मूंज से सींक। अति दुष्कर कार्य।
प्रयागराज भारत के सबसे पुराने शहरों में से एक है। यह तीन नदियों- गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर स्थित है। प्रयागराज (संगम) में हर छह साल में आयोजित होने वाला कुंभ मेला और हर 12 साल में होने वाला महाकुंभ इस धरती पर तीर्थयात्रियों की सबसे बड़ी भीड़ का गवाह बनता है। उत्तर प्रदेश में मूंज नामक घास की बाहरी परतों को लपेटकर रोजमर्रा के इस्तेमाल और विशेष अवसरों के लिए टोकरियाँ बनाने की परंपरा है।
मूंज (सरकंडा) या 'सरपत' एक प्रकार की घास है जो १०-१५ फुट उँची होती है। इसकी पत्तियाँ पतली एवं लम्बी होती हैं जिनके किनारे छोटे-छोटे कांटे होते हैं। मूंज और कासा जंगली घास के प्रकार हैं जो प्रयागराज के विशाल क्षेत्रों में और उसके आसपास नदी के किनारों के पास प्रचुर मात्रा में उगते हैं। प्रयागराज का नैनी इलाका मूंज शिल्प के लिए जाना जाता है। यह प्रायः नदियों के किनारे बलुई जमीन पर अधिक उगती है। इसको लोग खेतों की मेड़ पर भी लगाते हैं।यह शिल्प ज्यादातर महिलाओं द्वारा किया जाता है।
कच्चे माल की आसान उपलब्धता ने इस शिल्प को जिले में फलने-फूलने में सक्षम बनाया है। बाजार मूंज से बने विभिन्न उत्पादों जैसे टोकरी (डलिया), कोस्टर स्टैंड, बैग, सजावटी सामान और बहुत कुछ से भरा पड़ा है। कितना भी पैसा वाले हों खास कर रोटियां सेंकने के बाद इसी में ही रखीं जाती थीं। शाम तक क्या अगले दिन तक भी रोटियां तरोताजा और महक से भरीं रहतीं थीं । कास और मूंज की मदद से रंग बिरंगी, नई नई डिजाइन की वाडिया, सिकौहुली, मौनी, डलवा, डलिया, पिटारा, पिटारी बनाई जाती थी।मूंज,काश का हमारें धर्म में बड़ा ही महत्व है। जब दुल्हन विदाई करके ससुलाल आती तो जमीन पर मौनी (डलवा) रखा जाता है और दुल्हन अपने कदम उसमें रखते हुए प्रथम गृहप्रवेश करती है,अभी ये रसम हमारें यहां निभाई जाती है, मूंज की रस्सी शादी के मंडप बनाने में भी काम आती और अर्थी बांधने में भी, शुभ अशुभ दोनों में काम आती है। इससे डालिआ और मौनी भी बिनी जाती है। हाथों से बने ये बर्तन बेटी के विवाह में ग्यारह, इक्कीस, इक्कावन के हिसाब से दिए जाते थे। जो बहुरिया जितना अधिक डलवा, मौनी लेकर आती थी उसे उतना ही सुघड़ माना जाता था। विवाह में शामिल होने आई रिश्तेदार महिलाएं बहु के साथ आए इन डलवा में से अपनी पसंद का डलवा उपहार स्वरूप अपने साथ अपने घर ले जाती थी। और फिर घर पर बखान करती थीं कि बड़ी सुघर दुलहिन है डलवा, सिकौहिली से घर भर दी है! बेटी के विवाह में जो रिश्तेदार शामिल होने आते थे वो भी अपने घर से एक सिकौहुली, बेना बेटी के विदाई के समय देने के लिए लाते थे ताकि बिटिया के घर वालों की मदद हो सके और बेटी संग खूब डलवा सिकौहुली विदाई में ससुराल जाए। अब इन्हें बनाने वाले, सीखने वाले लोग कम हो गए हैं।
पर्यावरण के अनुकूल मूंज उत्पादों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता है। प्रयागराज में मूंज और कासा घास का मिश्रण घास के उत्पाद बनाने के लिए लोकप्रिय है क्योंकि इस क्षेत्र में दोनों घास बहुतायत में उगती हैं। कच्चा माल साल में एक बार उपलब्ध होता है, इसलिए कारीगर पूरे साल की मांग को पूरा करने के लिए इसे खरीदते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के स्वदेशी शिल्प को बढ़ावा देने के लिए " एक जिला एक उत्पाद " योजना शुरू की है। प्रयागराज के लिए ODOP योजना के तहत मूंज उत्पादों को मान्यता दी गई है।]
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।। १२ ।।
[(स आत्मा the Ātman) वाचा by speech न एव verily not, मनसा by mind न एव not even, चक्षुषा by eyes न एव not also प्राप्तुम् to attain (realize) शक्यः can be; (आत्मा Ātman) अस्ति is इति thus ब्रुवतः from those who speak अन्यत्र besides तत् That कथम् how उपलभ्यते is comprehended.]
अतएव आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम उस गुरु (सद्गुरु यमराज) के वचनों पर विश्वास करना है, जिसने वास्तव में आत्मा का साक्षात्कार किया है।
(This Atman) can never be reached by speech, nor even by mind, nor eyes. How can it be realised otherwise than from those who say that It exists?]
मृत्युप्रोक्तान्नाचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ।। 2.3.18 ।।
अथ then नाचिकेतः Naciketas मृत्युप्रोक्ताम् told by Death एताम् this विद्याम् knowledge कृत्स्नम् whole योगविधिम् process of Yoga च and लब्ध्वा having got, विरजः free from all impurities विमृत्युः free from death (i.e., desires, passions etc.) (भूत्वा having become), ब्रह्मप्राप्तः realised Brahman (अभूत् was). अन्ये other यः who अपि एव also thus अध्यात्मम् the inner self एवंवित् knows thus (ब्रह्मपाप्तो भवति attains Brahman).
अथ फिर नाचिकेत: नचिकेतस मृत्युप्रोक्ताम् मृत्यु द्वारा बताया गया एतम् यह विद्याम् ज्ञान कृत्स्नम् संपूर्ण योगविधिम् योग की प्रक्रिया च और लब्ध्वा को पाकर, विरजाः सभी अशुद्धियों से मुक्त विमृत्युः मृत्यु से मुक्त (अर्थात, इच्छाएं, जुनून आदि) (भूत्वा बन गया), ब्रह्मप्राप्तः ब्रह्म का एहसास हुआ (अभूत था)। अन्ये अन्य यः जो अपि एव भी इस प्रकार अध्यात्मम् आंतरिक स्व एववित् इस प्रकार जानता है (ब्रह्मपाप्तो भवति ब्रह्म को प्राप्त करता है)।
Nachiketas having been so instructed by Death in this Knowledge and in the whole process of Yoga, became free from all impurities and death, and attained Brahman; and so also attain all others who know thus the inner-self.
ॐ। सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।।
ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।।
नेति -नेति द्वारा आत्मा को अनात्म तत्वों से अलग करना होगा। अर्थात परिवर्तनीय (देह-मन -बुद्धि) से अपरिवर्तनीय (आत्मा-साक्षी या द्रष्टा) को अलग करना होगा। जब आप सीढ़ियों से होते हुए छत पर पहुँच जाते हैं , तब सीढियाँ भी एक ही तत्व प्रतीत होती हैं। आत्मसाक्षात्कार होने के बाद यह समझ में आता है कि जिस देह-मन इन्द्रियों को मैंने जड़ समझकर स्वयं से अलग किया था वे सब आत्मा की ही अभिव्यक्ति थे। ब्रह्म या आत्मा ही देह- मन के रूप में भासता है। महावाक्य - सर्वं खलु इदं ब्रह्म ! हमलोग ब्रह्म को ही जगत समझ रहे थे- भाई , बेटा, पुतोह , मित्र -शत्रु समझ रहे थे ! प्रश्न : श्रद्धा से यदि अधिक विवेक , अधिक वैराग्य मिलता है , तो हमें और अधिक श्रद्धा कैसे मिलेगा ? (127. 23)
सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥
भज गोविन्दम भज गोविन्दम ,गोविन्दम भज मूढ़ मते।
~अधिकाधिक आत्मश्रद्धा की प्राप्ति नियमित पाठचक्र में जाने से होगी अर्थात सत्संग से होगी , सत्संग से ही वैराग्य होगा ,वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर -या अपरिवर्तनीय तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है॥
श्रद्धा पाने का प्रारम्भ बिन्दु है साप्ताहिक पाठचक्र , मतलब ये कि जब तक हम सत्संग नहीं करते हैं - [सद्गुरु (विवेकानन्द) महाराज की शरण नहीं जाते हैं)] तब तक हमारा बुरी बातों से निसंग नहीं हो पाता। यदि हम तमो रजो गुणी खाना ही खाते रहेंगे तो सतो गुणी खाने के आनन्द का अनुभव कैसे कर सकते हैं ? सत्संग से आनन्द का अनुभव जैसे जैसे बढ़ता जाता है, अनावश्यक बेकार कि बातों से छुटकारा मिलता जाता है। सत्संग से कितनें लोगों को बुरी आदतों जैसे स्मोकिंग, शराब, गुस्सा करना आदि से छुटकारा पाते हुए मैंने देखा है। जैसे जैसे बुरी बातों से निसंग होता जाता है ,मन में मोह यानि अज्ञान का विनाश हो ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। ज्ञान के उदय होने से ही विवेक का उदय होता है। विवेक के द्वारा ही निश्चल तत्व समझने में आने लगता है कि जीवन में क्या करना है और क्या नहीं ? ऐसा समझ आते ही तो फिर जीवन निश्चल तत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। यदि ऐसा जीवन में घटित होता है और सभी भ्रमों से छुटकारा मिल जाये तो यही जीवन मुक्ति है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने अपने मोह-मुद्गर में लिखा है।
[ जन्म-मृत्यु के रहस्य को समझो और दूसरों को बताओ ! इसलिए दादा कहते थे -लड़कों को तीन चीजें बताओ- श्रद्धा क्या है, विवेक (सतसत-मिथ्या) क्या है और मनुष्य का जीवन 'meaningful' या सार्थक कैसे होता है ?]
तो फिर मुक्ति के लिए उलझन और भटकन कैसी? मुक्ति तो आप-हम सब का इन्तजार कर रही है, बस जरा सत्संग जमा लीजिए। लेकिन थोडा रुकिए, राम कृपा को भी तो समझ लेते हैं। राम कृपा हमारे पिछले और वर्तमान कर्मों का ही तो समग्र रूप है। भूतकाल में यदि हमने अच्छे विचारों, भावों और कर्मों का संग किया हो तो सत्संग हमे कभी न कभी दैव योग से मिल ही जाता है। और यदि वर्तमान में ही अच्छे विचारों, भावों और कर्मों का संग करें तो तत्काल राम कृपा हो जाती है और सत्संग सहज रूप से सदा उपलब्ध रहता है। पिछले का पछताना क्या,अब तो वर्तमान की ही सोचें। कहा भी गया है- बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेई !
(130. 50) - बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने के लिए यदि मन की पवित्रता जरुरी है , तो संसारी मनुष्यों की बुद्धि भी तो बहुत तीक्ष्ण होती है , फिर रजोगुणी व्यक्ति से सतोगुणी बनना क्यों अनिवार्य है ?क्योंकि आध्यात्मिकता को सतोगुणी व्यक्ति ही समझ सकता है। इन्द्रियातीत सत्य को भौतिक स्तर की बुद्धि नहीं समझ सकती। साधारण मनुष्यों की बुद्धि 'governed by ' राग और द्वेष से प्रेरित/शासित होकर कार्य करती है। एक शक्ति है जो हमें किसी से घृणा करने के लिए मजबूर कर देती है, या किसी के प्रति तीव्र आकर्षण का अनुभव करने के लिए मजबूर कर देती है। यह शक्ति मनुष्य के मन को दो विपरीत दिशाओं में खींच लेती है। इससे मन को पवित्र रखना है। इन्द्रिय ग्राह्य जगत में भ्रमण करते समय भी मन को राग-द्वेष से -neutral' तटस्थ रखना है। इस अवस्था में प्रशिक्षित मन अंतर्निहित देवत्व की अनुभूति कर सकता है। राग-द्वेष से वशीभूत बुद्धि तीक्ष्ण होते हुए भी आध्यात्मिक सत्य तक नहीं पहुँच सकती।
श्रेय-प्रेय विवेक क्या है ? (137.06) जो चीजें इन्द्रियों के लिए मजेदार नहीं हों , किन्तु हितकारी हों वे श्रेय हैं। आँवला -इमली विवेक केवल मनुष्य कर सकता है। पशु के पास यह विवेक नहीं होता। विवेक-रहित मनुष्य भी पाशविक बुद्धि से या आहार, निद्रा , भय , मैथुन से निर्देशित रहता है। क्षणिक भोगों के सुख में केवल दुःख मिलता है। जो सचमुच श्रेयस है , शुरू में तकलीफ देह लग सकता है , किन्तु वही लाभदायक है। ध्यान करना , मनःसंयोग के लिए 5 मिनट बैठना भी बहुत पीड़ादायक लगता है , किन्तु लगे रहने से एक दिन आत्मा के अमृत का आनन्द देता है।
(141. 37) लॉकडाउन में कैसे रहें ? भगवान के तरफ से वरदान समझें कि अभी हम जीवन का उद्देश्य समझ सकते हैं। हमलोग अभी तक क्या पाने के लिए दौड़ रहे थे ? मशीन की तरह कोई शक्ति हमें दौड़ने के लिए मजबूर करती है। जब अपने घर में रहना कठिन लगता है , तो मन की सीमा से अंतर्मुखी होकर ध्यान कितना कठिन होगा ? हमें अभी नचिकेता की तरह जीवन का उद्देश्य पूछना चाहिए। महाभारत में युधिष्ठिर भी यक्ष-प्रश्न का उत्तर देता है।- सृष्टि में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है ? हर स्त्री-पुरुष रोज अपने सामने व्यक्ति को मरते देखता हैं , किन्तु उसे भी एक दिन मरना होगा , नहीं सोचता। कोरोना युग में हमने मृत्यु का नृत्य देखा है -एक निश्चित दिन और समय हमें भी शरीर छोड़ना है , कोई नहीं सोचता। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि हर रोज हमारी आंखों के सामने न जाने कितने लोग मृत्यु के मुख में समा जाते हैं, फिर भी हममें से बचे हुए लोग यही कामना करते हैं कि हम अमर रहें। यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। इस संसार में जो आया है उसे एक न एक दिन यहां से जाना ही होगा। फिर भी वे इस प्रकार आचरण करते हैं जैसे उन्हें सदा ही यहां रहना है और मृत्यु उनके लिए नहीं है। हमें सभी के आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
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