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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025
भक्त का वैराग्य -प्रेमजन्य है ! प्रारम्भिक त्याग : (कर्मयोग/राजयोग/ ज्ञानयोग में त्याग) खण्ड ४/४५-५१ ) [Bhakti Yoga - Class #8: "The Preparatory Renunciation" by Swami Vivekananda.
[भक्ति योग - कक्षा #8: स्वामी विवेकानंद द्वारा "प्रारंभिक त्याग" (कर्मयोग/राजयोग/ ज्ञानयोग में त्याग)।
[Swami Vivekananda's first advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 27 January 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]
Bhakti Yoga - Class #8: "The Preparatory Renunciation"
by Swami Vivekananda.
>>आत्मा की शुद्धि के लिए, (शुद्धबुद्धि की प्राप्ति के लिए) वैधी भक्ति पहली आवश्यकता है। The repetition of names, the rituals, the forms, and the symbols, all these various things are for the purification of the soul. The greatest purifier among all such things, a purifier without which no one can enter the regions of this higher devotion (Para-Bhakti), is renunciation.
नाम जप, अनुष्ठान, रूप, प्रतीक, ये सभी विभिन्न चीजें आत्मा की शुद्धि के लिए हैं (बुद्धि को शुद्धबुद्धि बनाने के लिए हैं।) इन सभी चीजों में सबसे बड़ा शोधक (purifier), एक ऐसा शोधक जिसके बिना कोई भी इस उच्च भक्ति (रागानुराग भक्ति या परा-भक्ति) के क्षेत्रों में प्रवेश नहीं कर सकता, वह है त्याग।In all our Yogas this renunciation is necessary. This is the stepping-stone and the real centre and the real heart of all spiritual culture — renunciation.This is religion — renunciation.
यह बहुतों को भयभीत करता है; फिर भी, इसके बिना कोई आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। हमारे सभी चार योगों में यह त्याग आवश्यक है। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका यथार्थ केंद्र उसका सार है। यह त्याग ही वास्तविक धर्म है ।
" When the human soul draws back from the things of the world and tries to go into deeper things; when man, the spirit which has here somehow become concretised and materialised, understands that he is thereby going to be destroyed and to be reduced almost into mere matter, and turns his face away from matter — then begins renunciation, then begins real spiritual growth."
" जब किसी जीवात्मा का 'when Man, the Spirit' -[व्यावहारिक मनुष्य नहीं यथार्थ मनुष्य का विवेक जाग्रत हो जाता है; और वह अहंबुद्धि नहीं मानवात्मा (human soul=शुद्ध बुद्धि) जब संसार के समस्त भोगों की निस्सारता का अनुभव करके, उनसे विमुख होकर शाश्वत सत्य -(ईश्वर,परमात्मा या ब्रह्म) की खोज में लग जाती है; और वह यह समझ लेती है कि मोहनिद्रा में पड़कर,अविद्या-ग्रस्त (पंचक्लेश ग्रस्त) होकर, मैं शाश्वत चैतन्य होकर भीनश्वर जड़ शरीर के साथ तादात्म्य करके - (सिंह शावक होकर भी स्वयं को भेंड़ मानने के कारण) क्रमशः विनष्ट होने की ओर बढ़ रही हूँ, और ऐसा समझकर जब वह नश्वर जड़पदार्थ की आसक्ति (या तीनो ऐषणाओं में आसक्त होने) से अपना मुँह मोड़ लेती है, तभी त्याग का प्रारम्भ होता है। और तभी आध्यात्मिकता का विकास प्रारम्भ होता है। " (2.05 m)
कर्मयोग में त्याग : कर्मयोगी का त्याग उसके कर्म के सभी फलों को त्यागने के रूप में होता है; वह- not attached to the results of his labour अपने श्रम के परिणामों में आसक्त नहीं होता; वह इस लोक या परलोक में किसी पुरस्कार की परवाह नहीं करता।
राजयोग (स्वामीजी) में भोग के अनुभवों के बाद त्याग या ऐषणाओं से वैराग्य होता है :राजयोगी जानता है कि सारी प्रकृति (देह-मन) का लक्ष्य आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव कराकर यह समझा देना है कि वह इस परिवर्तनशील प्रकृति (देह-मन -इन्द्रियों) से पृथक, स्वतंत्र निश्चल साक्षी तत्व है। मानव आत्मा को यह भलीभाँति जान लेना होगा कि वह अनंतकाल से आत्मा (ब्रह्म-सच्चिदानन्द शाश्वत चैतन्य) ही रही है -तथा देह-मन-इन्द्रियों के साथ उसका संयोग (पंचभूतों के फंदे में फंसना) केवल सामयिक है, क्षणिक है (प्रारब्ध या इस शरीर के उम्र के क्षय होने तक है) राजयोगी प्रकृति के अपने अनुभवों से (देह-मन के साथ तादात्म्य करके सुख-दुःख के अपने अनुभवों से) वैराग्य की शिक्षा पाता है।
[The Râja-Yogi knows that the whole of nature is intended for the soul to acquire experience, and that the result of all the experiences of the soul is for it to become aware of its eternal separateness from nature. The Raja-Yogi learns the lesson of renunciation through his own experience of nature.]
ज्ञानयोगी (ठाकुरदेव) का त्याग/वैराग्य सबसे कठिन : ज्ञान-योगी (अवतार -गुरु )को सबसे कठोर त्याग/वैराग्य से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उसे शुरू से ही यह समझना पड़ता है कि यह ठोस दिखने वाली पूरी प्रकृति एक भ्रम (illusion-माया, मरीचिका) है। उसे प्रारम्भ में ही यह समझना होगा कि प्रकृति में जो भी शक्ति की अभिव्यक्ति (आकर्षण) है वह आत्मा की ही शक्ति है, प्रकृति की नहीं। He lets nature and all that belongs to her go, he lets them vanish and tries to stand alone!वह प्रकृति और उससे जुड़ी सभी चीज़ों की और देखता तक नहीं, वे सब सिनेमा के चलचित्र की तरह उसके सामने से गायब हो जाते हैं। और वह कैवल्य में स्थित रहने का प्रयत्न करता है। (3.50 m : 4/45-46)
भक्ति योग में त्याग और वैराग्य सबसे अधिक स्वाभाविक है :वर्णाश्रम धर्म Be and Make में - यहाँ कोई कठोरता नहीं है, कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ता, बलपूर्वक किसी आसक्ति से अपने को अलग नहीं करना पड़ता। M/F लव खुद समाप्त हो जाता है , अपने शहर का प्यार , देश प्रेम में दब जाता है। विश्वप्रेम में कट्टर देशभक्ति दब जाती है। पशुमानव इन्द्रियभोग से क्रमशः बौद्धिक आनंद में , फिर आध्यात्मिक आनंद -bliss में स्वतः स्थित होता जाता है।
यही ईश्वर-प्रेम क्रमशः बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है जिसे पराभक्ति कहते हैं। तब उस प्रेमी के किये कर्मकाण्ड अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह जाती। शास्त्रों की जरूरत नहीं रहती। प्रतिमा, मंदिर, गिरजाघर, विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय, देश और राष्ट्रीयताएँ - ये सब छोटे-छोटे सिमित भाव और बंधन स्वतः चले जाते हैं। जो इस भगवद्प्रेम को जानता है। उसे बाँधने या उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालने के लिए कुछ नहीं रहता।
जिस प्रकार किसीचुंबक की चट्टान के पास एक जहाज के आने से, उस जहाज की सारी कीलें तथा लोहे की छड़ें खींचकर निकल जाती हैं, और जहाज के तख्ते आदि खुलकर पानी पर तैरने लगते हैं,उसी प्रकार ठाकुरदेव की कृपा से आत्मा के सारे बंधन दूर हो जाते हैं, और वह मुक्त हो जाती है। अतएव भक्ति-लाभ के उपाय स्वरुप इस वैराग्य-साधना में न तो कोई शुष्कता न जबरदस्ती है। भक्त को अपनी किसी भी भावना का दमन नहीं करता, बल्कि सब भावों को प्रबल करके उन्हें ठाकुर की ओर लगा देता है। (8.56m) ४/४७
भक्त का वैराग्य -प्रेमजन्य है !
हम प्रकृति में हर जगह प्रेम देखते हैं। प्रेम ही दो व्यक्तियों को एकप्राण हो जाने के लिए प्रेरित करता है। oneness प्राप्त करने उस 'एक' आत्मा (सच्चिदानन्दमयी-माँ सारदा) जिससे सब कुछ निकला है, जिसमें स्थित है और अंत जिसमें सबकुछ विलीन हो जाता है, उसी माँ-सारदा के पास लौट जाने की इच्छा उत्तम या अधम रूप में सर्वत्र प्रकाशित है।
भक्ति-योग [Be and Make] कुछ छोड़ने की शिक्षा नहीं देता वह केवल कहता है -ठाकुर माँ स्वामीजी में आसक्त होओ - पूर्ण निःस्वार्थी बनो और जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त करो !
जिसने पराभक्ति के राज्य में प्रवेश किया है, उसे मनुष्य में मनुष्य नहीं दीखता, वरन सर्वत्र उसे अपना प्रियतम - इष्टदेव ही दिखाई देते हैं !
संस्कृत में 'प्रभु' का एक नाम 'हरि' है। इसका अर्थ है वह सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है। निर्जीव जड़ क्या कभी चेतन आत्मा को अपनी ओर खींच सकता है। मानलो एक सुंदर मुखड़ा देखकर कोई उन्मत्त हो गया। तो क्या कुछ जड़ परमाणुओं की समष्टि ने -(पंचभूतों की तन्मात्राओं की समष्टि ने) उसे पागल कर दिया है ? नहीं कभी नहीं , इन जड़ परमाणुओं के पीछे अवश्य ईश्वरीय शक्ति (divine influence) और ईश्वरीय प्रेम (divine love) का खेल चल रहा है।
[Behind those material particles there must be and is the play of divine influence and divine love. So even the lowest forms of attraction derive their power from God Himself.] निम्नतम प्रकार के आकर्षण (तीनों ऐषणा) भी अपनी शक्ति स्वयं भगवान से ही पाते हैं।
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति ।
न वा अरे जायायै कामाय जाया (भार्या-पत्नी) प्रिया भवति, आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ।
न वा अरे पूत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति, आत्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति ।
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति ।
- बृहदारण्यक उपनिषद 2.4.5
कोई भी पति, पत्नी, बाप, बेटा आदि दूसरे के सुख के लिए प्रेम नहीं कर सकते, सभी अपने सुख के लिए ही केवल दूसरे से प्रेम करते हैं। उपनिषदोंसे हमे मिलने वाले तत्व विचार यह भारत की चिरंतन संपत्ती हैं।
भगवान मानो एक बड़ा चुंबक है और हमसब लोहे के कण के समान हैं, सतत उसके द्वारा खींचे जा रहे हैं। [तभी तो 56 करोड़ लोग प्रयागराज कुम्भ 2025 में स्नान करते हैं। 'The Lord is the great magnet, and we are all like iron filings; we are being constantly attracted by Him, and all of us are struggling to reach Him']
हम सभी उसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं -हमारे कठोर जीवनसंग्राम का अंतिम लक्ष्य केवल स्वार्थ नहीं हो सकता। भक्तियोगी इस जीवनसंग्राम का अर्थ भलभाँति जानता है। वह ऐसे संग्रामों की एक लम्बी श्रृंखला से पार हो चुका होता है। और वह जानता है कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है ? भारत कल्याण के सिवा ओर कुछ नहीं है,और वह सीधे समस्त आकर्षणों के मूलकारण-स्वरूप 'हरि' (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण-माँ -स्वामीजी) के निकट चला जाना चाहता है। यही भक्त का त्याग है। अब उसे प्रत्येक मुख में उसे 'हरि' की झलक दिखाई देती है। इसीको विश्वबन्धुत्व (universal brotherhood) में स्थित होना कहते हैं। तब सारा इन्द्रिय ग्राह्य जगत की आसक्ति उनके लिए सदा के लिए लुप्त हो जाता है। (11.21m)
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उपरोक्त बातों का सारांश यह है :
१. सन्त अपरा भक्ति (वैधी भक्ति) को नकारते नहीं हैं पर वे इसे गौण मानते हैं और परा भक्ति पर ज़ोर देते हैं।
२. पूजा, तीर्थयात्रा और इसी प्रकार की भक्ति के तौर-तरीके भक्त के इस विश्वास पर आधारित है कि परमात्मा पूजाघर, मदिरों और तीर्थस्थानों में निवास करता है। उसे इस बात का ज्ञान नहीं है कि परमात्मा उसके अन्दर ही वास करता है। यह भक्ति प्राय सांसारिक इच्छाओं और फल की आशा से की जाती है, इसलिए इस भक्ति को 'सकाम भक्ति' भी कहते हैं।
३. 'अपरा भक्ति' या 'सगुण भक्ति' एक शुरुवात है जिसका उददेश्य प्रभु के लिए प्रेम जाग्रत करना है। यह अंत में परा भक्ति या निर्गुण भक्ति का रूप ले सकती है जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
४. अधिकतर भक्ति संप्रदाय धीरे-धीरे बढ़नेवाली भक्ति यानी अपरा भक्ति से परा भक्ति की ओर बढ़ने का सुझाव देते हैं। परन्तु कुछ आध्यात्मिक विचारधारा के लोग इस बात पर बल देते हैं कि अध्यात्म के खोजी को आरम्भ में ही भक्ति के निचले रूपों में समय न गवाँकर एक गुरु के मार्गदर्शन में परा भक्ति का ही अभ्यास करना चाहिए।
५. पूर्ण समर्पण अर्थात प्रपत्ति या शरणागति जिसमें व्यक्ति असहाय हो जाता है और उसके अहंकार का नाश हो जाता है, परमात्मा को प्रसन्न करने का निश्चित तरीका है।
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