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महावाक्य विवेक- महावाक्यों से उत्पन्न ज्ञान के महत्व को समझना
[Understanding the import of the Mahavakyas]
इस अध्याय में चारों वेदों के चार महावाक्यों का अर्थ समझाया गया है।
येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च ।
स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ॥ १॥
1. जिस चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा मनुष्य देखता है, सुनता है, सूंघता है, बोलता है तथा मीठे-कड़वे रस का स्वाद आदि में भेद करता है, उसे प्रज्ञान अर्थात चेतना कहते हैं। ['प्रज्ञानं ब्रह्म' - ऐतरेय उपनिषद तृतीय-1-1]
चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वश्वगवादिशु।
चैतन्यमेकं ब्रह्मातः प्रज्ञानं ब्रह्ममय्यपि ॥ 2॥
2. ब्रह्मा, इन्द्र आदि उत्तम जीव (देवताओं) में, तथा मनुष्य आदि मध्यम जीव में , एवं घोड़े, गाय आदि अधम जीवों में जो चेतना है, वही ब्रह्म है। वही चेतना देवताओं, मनुष्यों तथा अन्य सभी प्राणियों को जीवन प्रदान करती है। इसी लिये मुझमें भी जो चेतना अंतर्निहित है, वही ब्रह्म है।
व्याख्या के लिए लिया गया पहला महावाक्य है'प्रज्ञानं ब्रह्म' (ऋग्वेद में ऐतरेय उपनिषद, 3.1.3)।
3. अनंत, परमसत्ता आत्मा ही इस मायामय जगत में शरीर में बुद्धि के कार्यों का साक्षी होकर, आत्मज्ञान के योग्य होकर, वे ही 'अहम' या 'मैं' नाम से अभिहित रहती है।
स्वतः पूर्णः परमात्मात्र ब्रह्मशब्देन वर्णितः।
अस्मित्यैक्यपरमर्षस्तेन ब्रह्म भवाम्यहम् ॥ 4॥
4 स्वभावतः अनंत, परम आत्मा को यहाँ ब्रह्म शब्द से वर्णित किया गया है। 'अस्मि' (हूँ) शब्द 'अहम्' (मैं) और 'ब्रह्म्' की पहचान को दर्शाता है। इसलिए 'मैं ब्रह्म हूँ' (यह पाठ का अर्थ है)। ['अहम् ब्रह्मास्मि' - बृहदारण्यक उपनिषद I-IV-10
अगला महावाक्य है 'अहम् ब्रह्म अस्मि' (बृहदारण्यक उपनिषद, शुक्ल यजुर्वेद में 1.4.10), जिसका अर्थ है 'मैं ब्रह्म हूँ'। अनंत, सर्वोच्च ब्रह्म, जो सभी के भीतर रहने वाला आत्मा है, बुद्धि के सभी कार्यों का साक्षी है, उसे 'मैं' के रूप में जाना जाता है।
जिस व्यक्ति ने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण, तथा इन्द्रियविषयों के सभी सुखों के प्रति पूर्ण अनासक्ति और मुक्ति की तीव्र इच्छा जैसी आवश्यक योग्यताएँ हासिल कर ली हैं, वह इस आत्मा के साथ अपनी तादात्म्य का अनुभव करने के योग्य बन जाता है।
एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्।
सृष्टेः पुराधुनाप्यस्य तादृक्त्वं तदितिर्यते ॥ 5॥
सृष्टि के पहले जो एक अद्वितीय सत्ता (ब्रह्म या सच्चिदानन्द) है, वह नाम-रूप से रहित है, दूसरा नहीं है। जो सृष्टि के बाद भी वह सत्ता उसी अवस्था में विद्यमान है, उसे तत ' यानि वही -'वह' और 'तू' की पहचान 'असि' शब्द से व्यक्त की जाती है।'तत्त्वमसि' शब्द से सूचित किया जाता है। ['तत्त्वमसि' - छान्दोग्य उपनिषद् VI-viii-15]
सामवेद के छांदोग्य उपनिषद (6.8.15) में महावाक्य है 'तत् त्वम् असि', जिसका अर्थ है 'वह तुम हो'। ब्रह्मांड की रचना से पहले नाम और रूप के बिना केवल एक अद्वैत अस्तित्व था। अब भी यह उसी स्थिति में मौजूद है (लेकिन माया द्वारा उस पर आरोपित नामों और रूपों के ब्रह्मांड के साथ)। प्रत्येक प्राणी में निवास करने वाली आत्मा जो शरीर, मन और इंद्रियों से परे है, उसे 'तू' शब्द से दर्शाया जाता है। इस अस्तित्व को 'वह' शब्द से दर्शाया गया है।
श्रोतुर्देहेन्द्रियतीतं वस्तुत्र त्वं पदेरिटम्।
एकात्म गृह्यतेऽसीति तदैक्यामनुभूयताम् ॥ 6॥
6. श्रोता के शरीर -इन्द्रिय और मन से परे जो वस्तु है वही आत्मा है। चेतना का वह तत्व जो जिज्ञासु के शरीर, इन्द्रियों और मन से परे है, उसे यहाँ 'तू' शब्द से दर्शाया गया है। 'असि' (पद ) के द्वारा उनके साथ एकत्व की अनुभूति दर्शाती है। शब्द उनकी पहचान दर्शाता है। उस पहचान को अनुभव करना होगा।
स्वप्रकाशाप्रोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम्।
अहंकारादिदेहान्तात्प्रत्यगात्मेति गीयते ॥ 7॥
7. अयम - 'यह' शब्द का उच्चारण करने से तात्पर्य है कि आत्मा स्वयं प्रकाशमान है और प्रत्यक्ष अनुभव की जाने वाली है। उसे प्रत्यगत्मा कहते हैं जो अहंकार और शरीर के बीच की सभी चीजों को समाहित करने वाला अन्तर्यामी तत्त्व है। ['अयमात्मा ब्रह्म' - माण्डूक्य उपनिषद् 2]अथर्ववेद के अनुसार मांडूक्य उपनिषद में महावाक्य ‘अयं आत्मा ब्रह्म’ है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित आत्मा ही ब्रह्म है।
दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते।
ब्रह्मशब्देन तद्ब्रह्म स्वप्रकाशात्मरूपकम् ॥ 8॥
8. सम्पूर्ण दृश्यमान ब्रह्माण्ड का सार ब्रह्म शब्द से सूचित होता है। वह ब्रह्म स्वयंप्रकाश आत्मा के समान प्रकृति का है।
उपर्युक्त महावाक्यों में घोषित पहचान शब्दों के प्राथमिक अर्थों के संदर्भ में नहीं है, बल्कि केवल उनके निहित अर्थों के संदर्भ में है। इसे अध्याय 1 के सारांश में विस्तृत रूप से बताया गया है, जिसका संदर्भ लिया जा सकता है।
महावाक्य से ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है - दो सिद्धांत।
एक ज्ञात सिद्धांत के अनुसार,मंडण मिश्र द्वारा बताए गए प्रसंख्यान (=ध्यान) सिद्धांत के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान संबंधपरक और मध्यस्थ होता है, जैसे वाक्य से उत्पन्न होने वाला कोई भी अन्य ज्ञान। ऐसा ज्ञान ब्रह्म को नहीं समझ सकता जो गैर-संबंधपरक और तात्कालिक है। ध्यान ( प्रसंख्यान) एक अन्य ज्ञान को जन्म देता है जो गैर-संबंधपरक और तात्कालिक होता है। यह वह ज्ञान है जो अज्ञान को नष्ट करता है।
सुरेश्वर का मत उपरोक्त के विपरीत है। ब्रह्म का ज्ञान सीधे महावाक्यों से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार भी ध्यान आवश्यक है, लेकिन यह केवल श्रवण को पूर्ण करने के लिए है। दोनों सिद्धांतों के बीच अंतर यह है कि, सुरेश्वर के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान तात्कालिक और गैर-संबंधपरक है, जबकि दूसरे सिद्धांत के अनुसार यह ज्ञान केवल मध्यस्थ और संबंधपरक है। विस्तृत चर्चा के लिए सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि का संदर्भ लिया जा सकता है।
मंडन के दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए, वाचस्पति मिश्र का मानना है कि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए मन ही साधन है। ऊपर बताए गए दूसरे दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए, विवरण के लेखक प्रकाशमण कहते हैं कि महावाक्य स्वयं साधन है, हालांकि ज्ञान निस्संदेह मन में ही उत्पन्न होता है।
महावाक्य मन को ब्रह्म का रूप प्रदान करके आत्मज्ञान को जन्म देता है। प्रश्न उठता है कि जब ब्रह्म का कोई रूप नहीं है, तो मन को ब्रह्म का रूप ( अखंड-आकार-वृत्ति) कहने का क्या अर्थ है ? इसे विद्यारण्य ने जीवनमुक्ति-विवेक के अध्याय 3 में एक उदाहरण लेकर समझाया है। मिट्टी का बना घड़ा बनते ही सर्वव्यापी आकाश से भर जाता है। बाद में उसमें जल, चावल या अन्य पदार्थ भरना मनुष्य के प्रयास के कारण होता है। घड़े में भरा जल आदि तो निकाला जा सकता है, परंतु अंदर का स्थान कभी नहीं निकाला जा सकता। घड़े का मुंह वायुरोधी ढंग से बंद कर देने पर भी वह वहीं रहता है।
इसी प्रकार मन भी जन्म लेते समय आत्मा की चेतना से भरा हुआ अस्तित्व में आता है। जन्म के पश्चात् वह गुण-दोष के प्रभाव से बर्तन, वस्त्र, रंग, रस, सुख, दुःख आदि रूपों को उसी प्रकार धारण कर लेता है, जैसे पिघले हुए ताँबे को साँचों में ढाला जाता है। इनमें से रंग, रस आदि जो परिवर्तन अनात्म हैं, उन्हें मन से हटाया जा सकता है, परन्तु आत्मा का रूप, जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर नहीं है, उसे हटाया नहीं जा सकता। इस प्रकार जब मन से अन्य सब विचार हट जाते हैं, तब आत्मा का साक्षात्कार बिना किसी बाधा के हो जाता है। कहा गया है- "मन जो स्वभाव से ही आत्मा और अनात्म दोनों में से किसी एक रूप को धारण करने को प्रवृत्त रहता है, उसे केवल आत्मा का रूप धारण करके अनात्म के बोध को पृष्ठभूमि में डाल देना चाहिए।" और साथ ही...मन गुण-दोष के प्रभाव से सुख, दुःख आदि रूपों को धारण करता है, जबकि मन का रूप, अपने मूल रूप में, किसी बाह्य कारण से बद्ध नहीं होता। समस्त विकारों से रहित मन में परम आनन्द का प्रकाश होता है। इस प्रकार, जब मन अन्य सभी विचारों से शून्य हो जाता है, तो आत्म-ज्ञान उत्पन्न होता है।
महावाक्य �अहं ब्रह्म अस्मि� का अर्थ
इस महावाक्य की व्याख्या सुरेश्वर ने नैष्कर्म्यसिद्धि, 2.29 में इस प्रकार की है:--जैसे वाक्य में, 'यह पद पुरुष है', पहले का बोध कि पद है, बाद के बोध से कि यह पुरुष है (पद नहीं), 'मैं ब्रह्म हूँ' बोध 'मैं' बोध को पूर्णतया हटा देता है। सुरेश्वर अहम् ब्रह्म अस्मि, (मैं ब्रह्म हूँ) कथन की व्याख्या 'बाधायाम् समानाधिकारणम्' के नाम से करते हैं। संस्कृत के वाक्य में, जो शब्द, एक ही कारक-अंत होने पर भी एक ही बात को सूचित करते हैं, उन्हें समानाधिकारणम् कहा जाता है। शब्दों के बीच के संबंध को समानाधिकारणम् कहते हैं। यह संबंध दो प्रकार का होता है, मुख्य समानाधिकारणम् और बाधायाम् समानाधिकारणम्। पूर्व में, शब्दों द्वारा निरूपित वस्तुओं की एक ही सत्तामूलक स्थिति (या वास्तविकता का एक ही क्रम) होगी। उदाहरण के लिए, वाक्य में, बर्तन-स्थान केवल महान (बाहरी) स्थान है, बर्तन के भीतर का स्थान और महान स्थान दोनों ही अनुभवजन्य रूप से वास्तविक हैं ( व्यवहारिक सत्यम्)। उनके बीच का अंतर केवल बर्तन के रूप में उपाधि के कारण है। जब उपाधि हटा दी जाती है, तो वे एक हो जाते हैं, जो वे वास्तव में पहले से ही हैं। लेकिन यदि वाक्य के शब्द, एक ही मामले के अंत में, उन वस्तुओं को दर्शाते हैं जिनकी अलग-अलग सत्तामूलक स्थिति है, और यदि वे केवल एक विचार व्यक्त करने का दावा करते हैं, तो वे बाधयाम समानाधिकरणम् में हैं। उदाहरण के लिए, कथन में 'यह पद एक आदमी है', 'पद' और 'आदमी' शब्दों की अलग-अलग सत्तामूलक स्थिति है। चूँकि जो विद्यमान है वह मनुष्य है, पद नहीं, अतः 'मनुष्य' अनुभवजन्य रूप से वास्तविक ( व्यवहारिक) है और 'पद' केवल प्रत्यक्षतः वास्तविक ( प्रतिभासिक) है। इस प्रकार, जिस प्रकार 'यह पद मनुष्य है' कथन सुनकर यह विचार दूर हो जाता है कि जो दिखाई देता है वह पद है, उसी प्रकार 'मैं मनुष्य हूँ', 'मैं सुखी हूँ' आदि रूपों का गलत ज्ञान भी दूर हो जाता है जब व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वह ' अहम् ब्रह्म अस्मि' कथन सुनकर ब्रह्म है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सार ब्रह्म है। वही ब्रह्म स्वयं प्रकाशमान अन्तर्निहित आत्मा है।
[माया (Matter) उनकी शक्ति (ऊर्जा-Energy) का विस्तार है। ]
Dvaita Viveka-- Discrimination of Duality
इस अध्याय में ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत और जीव द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन और विभेद किया गया है। इससे पता चलेगा कि बंधन का कारण क्या है और मोक्ष के आकांक्षी को किसका त्याग करना चाहिए।
ईश्वरेणापि जीवनेन सृष्टं द्वैतं प्रपञ्च्यते।
विवेके सति जीवने हेयो बंधः स्फुटीभवेत् ॥ (1)
इस खंड में हम ईश्वर और जीव द्वारा निर्मित द्वैत रूप जगत संसार पर चर्चा करेंगे। इस प्रकार की आलोचनात्मक चर्चा से, द्वैत की वह सीमा स्पष्ट हो जाएगी जो बंधन का कारण बनती है, जिसका त्याग जीव को करना होगा।
इस खंड में हम ईश्वर और जीव द्वारा निर्मित द्वैत के जगत पर चर्चा करेंगे। इस प्रकार की विवेक-प्रयोग करके हमलोग वास्तव में देह हैं या देहधारी आत्मा हैं ? पर आलोचनात्मक चर्चा से, द्वैत की वह सीमा (मिथ्या अहं) स्पष्ट हो जाएगी जो बंधन का कारण बनती है, जिसका विवेक-प्रयोग शक्ति द्वारा जीव को मिथ्या देहाध्यास का त्याग करना होगा।
In this section we will discuss the world of duality created by God and the soul. Through such critical discussion, the extent of duality that causes bondage will become clear, which the living being will have to renounce.
[विवेक = भली बुरी वस्तु का ज्ञान । सत्- असत्-मिथ्या का ज्ञान । मन की वह शक्ति जिससे भले बुरे का ज्ञान होता हो । अच्छे और बुरे को पहचानने की शक्ति ।सत्य ज्ञान ।प्रकृत्ति और पुरुष की विभिन्नता का ज्ञान ।]
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।
स मइ सृजतीयाहुः श्वेताश्वतर शाखिनः ॥ 2॥
श्वेताश्वतर उपनिषद शाखा के ऋषि कहते हैं : 'माया को प्रकृति समझना और उसके अधिष्ठान रूपी ब्रह्म को महेश्वर [महादेव या महान ईश्वर] समझना। (जो इसे अस्तित्व और चेतना प्रदान करता है और इसका मार्गदर्शन करता है)। वही मायी अर्थात माया उपाधि विशिष्ट ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण) संसार का सृजन/प्रक्षेपण करता है।
Shvetashvatara Upanishad states: 'Know Maya to be nature and Brahman associated with Maya to be the great God (who gives it existence and consciousness and guides it). He is the one who creates the world.
आत्मा वा इदम्ग्रेऽभूत्स अक्षत् सृजा इति।
सङ्कल्पेनासृज्जलोकांस एतानिति भवृचाः ॥ 3॥
ऐतरेय उपनिषद् में कहा गया है कि सृष्टि के पहले केवल आत्मा थी, और उसने सोचा, 'मैं संसार की रचना करूँ', और फिर उसने अपनी इच्छा से संसार की रचना की। 3.
ऐतरेय उपनिषद १/१ कहता है कि सृष्टि से पहले केवल आत्मा (यानी ब्रह्म) ही था। उसने इच्छा की - " स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ।"- तब उस (ब्रह्म) ने सोचा की मैं लोकों का सृजन करुं।), और उसने अपनी इच्छा से, अपने संकल्प मात्र से जगत- ब्रह्माण्ड का निर्माण किया।
खंवायवग्निज्लोरव्योषध्यन्नदेहाः क्रमादमि।
संभूता ब्राह्मणस्तस्मादेत्समादात्मनोऽखिलाः ॥ 4॥
तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा या ब्रह्म से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति, अन्न और शरीर सहित सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई।
बहुसंयमेवतः प्रजायेयेति कामतः।
सृजित्सर्वं तपस्तप्त्वाऽतप्तिरः॥ 5॥
तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि 'मैं अनेक हो जाऊँगा, इसलिए मैं सृष्टि करूँगा' यह इच्छा रखते हुए भगवान ने ध्यान किया और इस प्रकार उन्होंने संसार की रचना की।
तैत्तिरीय उपनिषद (२/६) कहता है -सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।इदं सर्वमसृजत। यदिदं किञ्च। तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्च त्यच्चाभवत्। कि आत्मा या ब्रह्म से क्रमिक रूप से आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति, भोजन और शरीर उत्पन्न हुए। ईश्वर ने इच्छा की, "मुझे अनेक होने दो, मुझे बनाने दो", और ध्यान किया और इस प्रकार ब्रह्मांड का निर्माण किया।
इदम्ग्रे सदेहवासीद्बहुत्वय तदैक्षत्।
तेजोऽवन्नन्दजादिनि ससर्जेति च समागाः ॥ 6॥
छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है --एको अहं बहुस्याम। ' अर्थात सृष्टि से पहले केवल ब्रह्म या आत्मा ही अस्तित्व में थी, और उसका स्वभाव शुद्ध अस्तित्व था। उसने अनेक रूप धारण करने की इच्छा की और अग्नि, जल, भोजन और अंडों से उत्पन्न प्राणियों सहित सभी चीजों की रचना की।
विस्फुल्लिङ्गा यथा वह्नेर्जायन्तेऽक्षरतस्तथा।
विविधाश्चिज्दा भव इत्याथर्वणिकी श्रुतिः ॥ 7॥
मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से (धधकती हुई आग से) चिंगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार अपरिवर्तनशील ब्रह्म (परम् सत्य) से विभिन्न सजीव तथा अचेतन वस्तुएं उत्पन्न हुईं।
जगदव्याकृतं पूर्वमासीद्वयक्रियतेऽधुना।
दृश्याभ्यां नामरूपाभ्यां विराददिषु ते स्फुटकाः ॥ 8॥
वृहदारण्यक उपनिषद में यह भी कहा गया है कि अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व सम्पूर्ण जगत ब्रह्म में ही संभाव्य रूप में- अव्यक्त अवस्था में विद्यमान था; तत्पश्चात् नाम और रूप धारण करके वह विराट् रूप में अस्तित्व में आया।
वीराननुर्नरो गावः खरश्वजावयस्तथा।
पिपीलिकपूर्णद्वन्द्वमिति वाजसनेयिनः ॥ 9॥
ब्रह्म (या विराट) से ही प्राचीन विधि-निर्माताओं 'मनु' -महाराज , मनुष्य, गाय, गधे, घोड़े, बकरी आदि का जन्म हुआ, नर और मादा (M/F) दोनों ही प्राणियों से लेकर चींटियों तक का जन्म हुआ। बृहदारण्यक उपनिषद् में ऐसा कहा गया है।
कृत्वा रूपान्तरं जन्मं देहे प्रविषदीश्वरः।
इति ताः श्रुतयः प्राहु जीवत्वं प्राणधारणात् ॥ 10॥
इन श्रुतियों के अनुसार ब्रह्म या आत्मा स्वयं जीवों के रूप में अनेक रूप धारण करके इन सभी शरीरों में जीव के रूप में प्रविष्ट हुए। जीव इसलिए कहा गया है क्योंकि वह (शरीर में) प्राणों को या महत्वपूर्ण वायु को धारण करता है।
चैतन्यं यद्धिष्ठानं लिंगदेहश्च यः पुनः आरंभ।
चिच्चया लिंगदेहस्थत तत्संघोजीव उच्यते ॥ ॥॥
मूलाधार या शुद्ध चेतना, सूक्ष्म शरीर तथा सूक्ष्म शरीर पर शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब - ये तीनों मिलकर जीव बनते हैं।
[ 1. भौतिक शरीर (भौतिक शरीर) जो अन्नमयकोश या स्थूल शरीर से मेल खाता है।
2. सूक्ष्म शरीर (सूक्ष्म शरीर) जो एक से मेल खाता है। प्राणमय कोष। बी. मनोमय कोष। सी. विज्ञानमयकोश।
3. कारण शरीर (करण शरीर) जो आनन्दमय कोष से मेल खाता है।
भौतिक शरीर (Physical Body)- मूलाधार चक्र - अन्नमयकोश। जब भौतिक शरीर मूलाधार चक्र से जुड़ा होता है, तो दो विपरीत दिशाओं में दो संभावनाएँ होती हैं। एक संभावना है कि शरीर का सेक्स की ओर झुकाव और दूसरी संभावना है कि उसी ऊर्जा का सुपर चेतना की ओर रूपांतरण हो। यह रूपांतरण ध्यान के माध्यम से होता है। सेक्स एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य) के माध्यम से यौन ऊर्जा का रूपांतरण सुपर चेतना की ओर ले जाता है। इस शरीर के स्तर पर दमन बदसूरत और तनावपूर्ण है लेकिन रूपांतरण आनंद है।]
माहेश्वरी तु या माया तस्या निर्माण शक्तिवत्।
विद्यते मोहशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसौ ॥ 12 ॥
[तु (और) माहेश्वरी (परमेश्वर की उपाधि रूपा ) या माया (जो माया ) तस्याः (उसकी ) निर्माण-शक्ति -वत (= जगत ब्रह्माण्ड सृजन करने का सामर्थ्य जैसी ) मोहशक्तिः च (मोहशक्ति भी ) विद्यते (है !), असौ ( वही भ्रमित करने की शक्ति ) तं जीवं(पूर्वोक्त जीव को ) मोह्यति (मोहग्रस्त करती है। ] )
और महादेव की उपाधिरूपा जो माया शक्ति [माहेश्वरी] हैं उनमें जैसे अनन्त ब्रह्माण्डों का सृजन/प्रक्षेपण करने की शक्ति रहती है, उसी प्रकार उनमें जीव को मोहग्रस्त कर देने की शक्ति भी रहती है, जो सबको मोह में डाल देती है। वही शक्ति पूर्वोक्त जीव को मोह में (M/F वाले देहभाव में) डाल कर आत्मस्वरूप को विस्मृत करवा देती है। माया, जो ईश्वर की शक्ति है, में सृजन करने की शक्ति के अलावा, भ्रमित करने की शक्ति भी है। [पंचदशी/4-12]
श्वेताश्वतर उपनिषद (4.10) कहता है: माया को प्रकृति जानो और माया से जुड़े ब्रह्म को ईश्वर जानो"। ईश्वर (मायापति ईश्वर) ब्रह्मांड का निर्माता है।
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मयिनं च महेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥
तू माया (तीनों गुणों) को प्रकृति की शक्ति जान और माया के स्वामी को महान् 'ईश्वर'(अवतार वरिष्ठ) जान; यह सम्पूर्ण जगत् उसी के अस्तित्व से व्याप्त है, जो उसके अंग हैं।"
कुछ लोग दावा करते हैं कि माया (आवरण और विक्षेप शक्ति -तीनों गुण) मिथ्या (जगत न सत है, न असत है - परवर्तनशील होने से मिथ्या या अस्तित्वहीन) है। वे कहते हैं कि भौतिक ऊर्जा माया हमारी अज्ञानता के कारण निर्मित एक धारणा है। अगर कोई आध्यात्मिक ज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त कर लेता है, तो माया का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। आत्मा ही परम सत्य है, और एक बार जब हम इसे समझ लेते हैं, तो सभी भ्रम दूर हो जाते हैं।
[स्वयं को शरीर समझकर शरीर -धारण किये रहने तक या - माया के राज्य में रहते हुए (E =MC2 > M/F शरीर के आकर्षण को ) को भ्रम नहीं कहना चाहिए) 'माया' को ईश्वर की शक्ति मानकर उनका पुत्र बने रहना चाहिए।] श्रीकृष्ण ने पहले ही कहा है कि माया (Matter) उनकी शक्ति (ऊर्जा-Energy) का विस्तार है और(E =MC2) > M/F शरीर का आकर्षण) भ्रम नहीं है।"कुछ लोग सोचते हैं कि माया (शक्ति) मिथ्या है (अस्तित्वहीन है), लेकिन वास्तव में यह ईश्वर की सेवा में लगी एक ऊर्जा है।" कागभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद (रामचरितमानस : उत्तरकाण्ड) में एक दोहा है-
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥
This Maya is maidservant of Shri Raghuveer. Although this maya is false when understood, but without the grace of Shri Ram, this maya cannot be avoided.
यह माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर यह माया मिथ्या है, किंतु श्री राम की कृपा के बिना इस माया से नहीं बचा जा सकता। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण ने भीइस सिद्धांत को भगवद गीता (7: 14,15,16 श्लोक) में स्वीकार किया है - यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दूर्त्या |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || 7 /14||
BG 7.14 : मेरी दिव्य शक्ति माया, जो प्रकृति के तीन गुणों से युक्त है, मेरी शक्ति है - इसीलिए इस पर विजय पाना बहुत कठिन है। किन्तु जो लोग मेरी शरण में आते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।
श्री कृष्ण ने यहाँ उल्लेख किया है कि चूँकि माया (M/F शरीर का आकर्षण) उनकी शक्ति है, इसलिए इसे जीतना कठिन है। यदि कोई दावा करता है कि उसने माया को हरा दिया है, तो इसका अर्थ है कि उसने भगवान को हरा दिया है। कोई भी भगवान को नहीं जीत सकता; इसलिए माया भी उतनी ही अजेय है। मनुष्य का मन भी माया से बना है, इसीलिए, ईश्वर प्रणिधान का अभ्यास किये बिना- केवल आत्म-प्रयास सेकोई भी योगी , ज्ञानी, तपस्वी या कर्मी अपने मन को सफलतापूर्वक नियंत्रित नहीं कर सकता।
तब कोई पूछ सकता है, "क्या माया पर विजय पाना असंभव है?" इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में इस प्रश्न का उत्तर है। श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो लोग मुझ परमेश्वर को समर्पित हो जाते हैं, वे मेरी कृपा से भवसागर को आसानी से पार कर लेंगे।मैं माया को आदेश दूंगा कि वह इस आत्मा को छोड़ दे, क्योंकि अब यह मेरी हो गई है।"
भगवान के निर्देश पर माया, भगवान की भौतिक ऊर्जा, समर्पित आत्मा को अपने चंगुल से मुक्त कर देती है। ईश्वर की शक्ति [(E =MC2) > M/F शरीर का आकर्षण शक्ति) यह कहती है, "मेरा काम आत्मा को तब तक परेशान करना है जब तक वह भगवान के चरणों में समर्पित न हो जाए; एक बार आत्मा वहां पहुंच जाती है, तो मेरा काम पूरा हो जाता है।"
यहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी से एक उदाहरण है। मान लीजिए कि आप अपने किसी दोस्त से मिलने जाते हैं, जिसका घर बहुत बड़ा है। गेट के बाहर एक बोर्ड लगा है, जिस पर लिखा है, “कुत्तों से सावधान रहें।” जब आप अंदर देखते हैं, तो लॉन पर एक प्रशिक्षित गार्ड कुत्ता खड़ा होता है। जैसे ही वह आपको देखता है, वह डरकर, ख़तरनाक ढंग से गुर्राना शुरू कर देता है; आप पीछे के गेट से जाने का फ़ैसला करते हैं। लेकिन इससे पहले कि आप घर के पीछे पहुँचें, वह वहाँ आपका इंतज़ार कर रहा होता है और बहुत तेज़ी से गुर्राता है, मानो कह रहा हो, “तुमने इस घर में कदम रखने की हिम्मत की।” आपके पास कोई विकल्प नहीं होता, और आप अपने दोस्त का नाम ज़ोर से पुकारते हैं। सारा शोर सुनकर, आपका दोस्त आता है और आपको गेट पर अपने कुत्ते से परेशान पाता है। वह कुत्ते से सख्ती से कहता है, “नहीं, टॉमी, वह दोस्त है, हमें उसे अंदर आने देना चाहिए, आओ और यहाँ बैठो।” अपने मालिक की आज्ञा सुनकर, कुत्ता चुपचाप उसके पास जाकर बैठ जाता है। अब आप गेट खोल सकते हैं और बिना किसी डर के अंदर जा सकते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष के लिए मेरी माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर है। उसी अहं के कारण हम अपने परमात्म स्वरूप को भूलकर संसारी जीवभाव (M/F देह भाव) को प्राप्त हो गये हैं रोग तथा उपचार को बताकर भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण स्वास्थ्य का आश्वासन भी देते हैं। जो साधक मेरी शरण में आते हैं वे माया को तर जाते हैं। शरण में आने से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है। एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप का ध्यान करना(तीनों ऐषणाओं से अनासक्त बना देने में समर्थ इष्टदेव -अवतार वरिष्ठ को खोजकर उनका ध्यान करना) यह साक्षात् साधन है और ध्यान के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने के उपाय मनःसंयोग (अष्टांयोग) भी पहले बताये गये हैं।
इसी तरह हम भी माया नामक भौतिक शक्ति [(E =MC2) >तीनो ऐषणा कामिनी -कांचन , नामयश या (M/F शरीर का आकर्षण शक्ति) के चंगुल में फंसे हुए हैं। यद्यपि यह भगवान के अधीन है, फिर भी यह हमें परेशान करती रहती है ताकि हम भगवान (परम् सत्य को खोजने युगावतार -श्रीरामकृष्ण देव) की ओर बढ़ते रहें। हम अपने प्रयासों से माया को नहीं हरा सकते; केवल तभी जब हम भगवान (बादशाही अमल का सिक्का - अयोध्या, मथुरा, काशी के अवतार वरिष्ठ) के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाएँ, उनकी (ठाकुर देव की ) कृपा से हम भवसागर को पार कर सकते हैं।
हमारे मन में अगला प्रश्न यह होगा कि, "यदि माया को हराना इतना आसान है, तो हममें से अधिकांश लोग असफल क्यों हो जाते हैं?" यदि आपकी शरण में आने से माया को पार किया जा सकता है तो फिर सब लोग आपकी शरण में क्यों नहीं आते हैं इस पर कहते हैं-
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।
दुष्कृत्य करने वाले, मूढ, नराधम पुरुष मुझे नहीं भजते हैं; माया के द्वारा जिनका विवेक-प्रयोग शक्ति (आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, आत्मसंयम, निःस्वार्थपरता आदि सद्गुण ) हर लिया गया है, वे हिंसा मिथ्याभाषण आदि आसुरी भावों के आश्रित हुए मनुष्य मुझ परमेश्वर की शरणमें नहीं आते।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चार प्रकार के लोग हैं जो उनकी शरण में नहीं आते:
1. अज्ञानी। ऐसे लोग जिनके पास आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है और जो आत्मा के शाश्वत होने और उसका अंतिम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है, के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उन्होंने इन अवधारणाओं के बारे में कभी नहीं सुना है या ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रक्रिया के बारे में नहीं जानते हैं।
2. आलसी। ये वे लोग हैं जिन्हें यह तो पता है कि उन्हें क्या करना है, लेकिन अपने आलसी स्वभाव के कारण वे समर्पण करने की कोई पहल नहीं करना चाहते। आलस्य आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक बड़ा नुकसान हो सकता है। संस्कृत में एक कहावत है:
अलस्य हि मनुष्याणां शरीररस्थो महान् रिपुः
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यम नवासिदति।
"आलस्य एक बड़ा दुश्मन है, और यह हमारे शरीर में ही रहता है। काम मनुष्य का अच्छा मित्र है, जो कभी पतन की ओर नहीं ले जाता।"
3. भ्रमित बुद्धि - ऐसे लोग जो अपनी बुद्धि पर इतने गर्वित होते हैं कि उन्हें शास्त्रों और संतों की शिक्षाओं पर कोई विश्वास नहीं होता। क्योंकि उनमें विश्वास नहीं होता, वे समर्पण का अभ्यास करने या ईश्वर प्राप्ति की अवधारणाओं को समझने में असमर्थ होते हैं।
4. राक्षसी स्वभाव। ये वे लोग हैं जो ईश्वर और दुनिया के लिए उनके उद्देश्य के बारे में जानते हैं लेकिन फिर भी उनके खिलाफ काम करते हैं। यह उनके राक्षसी स्वभाव के कारण है; उन्हें ईश्वर और उनकी महिमा पसंद नहीं है। वे खुद भक्ति से दूर हैं और आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले अन्य लोगों को परेशान करने की कोशिश करते हैं। उनसे ईश्वर के प्रति समर्पण की बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं की जाती है।
विवेक-प्रयोग शक्ति के आनंद का माया द्वारा हरण : दुष्कृत्य करने वाले मूढ नराधम लोग ईश्वर की भक्ति नहीं करते हैं जिसका कारण यह है कि उनके विवेक का माया द्वारा हरण कर लिया जाता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य के उच्च विकास का लक्षण उसकी विवेकसम्पन्न बुद्धि है। इस बुद्धि के द्वारा वह अच्छा-बुरा उच्च-नीच नैतिक-अनैतिक, शाश्वत-नश्वर, का विवेक कर पाता है। विवेक-सम्पन्न बुद्धि ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञानजनित जीवभाव के स्वप्न (स्वयं को M/F देह समझने) से जागकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप (आत्मा) का साक्षात् अनुभव कर सकता है।
विषयों के द्वारा (= तीनो ऐषणाओं के द्वारा) जो व्यक्ति क्षुब्ध नहीं होता उसमें ही यह विवेक-प्रयोग शक्ति (विवेकसंपन्न बुद्धि) प्रभावशाली ढंग से कार्य कर पाती है। मनुष्य में देहात्मभाव (स्वयं को M/F देह समझने का भाव ) जितना अधिक दृढ़ होगा उतनी ही अधिक विषयाभिमुखी उसकी प्रवृत्ति होगी। अत विषयभोग की कामना को पूर्ण करने हेतु वह निंद्य कर्म में भी प्रवृत्त होगा। इस दृष्टि से पाप कर्म का अर्थ है मनुष्यत्व की उच्च स्थिति को पाकर भी स्वस्वरूप के प्रतिकूल किये गये कर्म।स्थूल देह को अपना स्वरूप समझकर मोहित हुए पुरुष ही पापकर्म करते हैं। ऐसे लोगों को यहाँ मूढ़ और आसुरी भाव का मनुष्य कहा गया है। गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरीभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। परन्तु जो पुण्यकर्मी लोग हैं वे चार प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। भगवान् कहते हैं
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || 16||
।।7.16।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।
समस्त पदार्थ एवं ऊर्जा का स्रोत आत्मा ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा [(E =MC2) >तीनो ऐषणा कामिनी -कांचन , नामयश या (M/F शरीर का आकर्षण शक्ति का प्रेरक स्रोत ) ही होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य के कारण ही संभव होता है। योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य का ही आह्वान करना पड़ता है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर मन या बुद्धि से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा आह्वान करना पड़ता है। एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है।
इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।(ख) जिज्ञासु जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु भक्त हैं।
(ग) अर्थार्थी किसी न किसी कार्यक्षेत्र में इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।
(घ) ज्ञानी -4. ज्ञान में स्थित लोग। अंत में, वे आत्माएँ जिन्होंने यह सत्य समझ लिया है कि वे भगवान के छोटे अंश हैं। [हनुमान जैसे ज्ञानी - देहबुद्ध्या तु दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः। आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥] ऐसे लोग इस भावना से भक्ति में लीन रहते हैं कि उनसे प्रेम करना और उनकी सेवा करना उनका शाश्वत कर्तव्य है। श्रीकृष्ण उन्हें चौथे प्रकार के भक्त कहते हैं।उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।
मोहाद्निष्ठां प्राप्य मग्नो वपुषि शोचति।
ईशसृष्टमिदं द्वैतं सर्वमुक्तं समासतः ॥ 13॥
यह शक्ति जीव को भ्रमित करती है।इस प्रकार भ्रमित होकर जीव स्वयं को शरीर (M/F) के साथ तादात्म्य कर लेता है, स्वयं को सीमित, असहाय प्राणी (मरणधर्मा -शरीर) मानता है और इस प्रकार दुःख का शिकार हो जाता है। इस प्रकार अब तक -समासतः -संक्षेप में जो वर्णन किया गया है, वहईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन है।
सप्तन्नब्राह्मणे द्वैतं जीवसृष्टं प्रपञ्चितम्।
अन्नानि सप्तज्ञानेन कर्मणाजनयत् पिता ॥ 14॥
जीव द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद के सप्त-अन्न ब्राह्मण नामक खंड में किया गया है। जीव अपने कर्मों और ध्यान द्वारा सात प्रकार के भोजन (या अनुभव की वस्तुएं) बनाता है।
मर्त्यनामेकं देवन्ने द्वे पश्वान्नं चतुर्थकम्।
अन्नत्रितयमात्मामन्नानां विनियोजनम् ॥ 15॥
एक प्रकार का भोजन मनुष्यों के लिए, दो प्रकार का भोजन देवों के लिए, चौथा भोजन अधम प्राणियों के लिए तथा शेष तीन भोजन आत्मा के लिए है। इस प्रकार भोजन विभाजित किया जाता है।
'यत् सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत् पिता' (बृ० 1/5/1) इस श्रुति वाले सप्तान्न ब्राह्मण में जीव के बनाये हुए द्वैत का प्रपंच किया है कि पिता [अर्थात् अदृष्ट रूपी भाग (अपना हिस्सा) दे कर उसके द्वारा इस जगत् को उत्पन्न करके सकल लोक के पालने वाले इस जीव] ने ज्ञान और अपने कर्म के द्वारा सात अन्नों को उत्पन्न किया। 'एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत् त्रीण्यात्मनेकुरुत पशुभ्य एकं प्रायच्छत्' (बृ० 1/5/2) इस वाक्य में उन सातों अन्नों का विनियोग यों किया गया है कि - उनमें से एक मर्त्यान्न है। दो देवताओं के अन्न हैं। एक पशुओं का अन्न है।शेष तीन को उसने केवल आत्मा के लिये रख लिया है। इन सात में से एक प्रकार सामान्य रूप से मनुष्यों के लिए है, दो देवताओं के लिए, एक पशुओं के लिए और शेष तीन उस जीवात्मा के लिए हैं। इस प्रकार भोजन विभाजित किया जाता है।
व्रीह्यादिकं दर्शपूर्णमासौ क्षीरं तथा मनः।
वाक् प्राणश्चेति सप्तत्व मन्नाना मवगम्यताम्।।
[पंचदशी /4-16]
व्रीह्यादिक, दर्श, पूर्णमास, दुग्ध, मन, वाक् तथा प्राण ये सात अन्न कहाते हैं।। गेहूं जैसे अनाज मनुष्यों के लिए हैं। पूर्णिमा और अमावस्या के यज्ञ की सामग्री देवताओं के लिए है। दूध पशुओं के लिए है। मन, वाणी और प्राण स्वयं जीव के लिए हैं। ये जीव द्वारा बनाए गए सात प्रकार के भोजन हैं।
ईशेन यद्यप्येतानि निर्मितानि स्वरूपतः।
तथापि ज्ञानकर्मभ्यां जीवोकार्षीत्तदन्नताम्।।
(17)
ईश्वर ने यद्यपि इनका स्वरूप ही बनाया था। परन्तु इनका अन्नपन अर्थात् भोग्याकार तो जीव ने ही बना लिया है। उसने ज्ञान और कर्म के सहारे से इन व्रीही आदि प्राणान्त पदार्थों को अपना अन्न किंवा भोग्य बना डाला है।
ईशाकार्यं जीवभोग्यं जगद्वाभ्यां समन्वितम्।
पितृजन्य भर्तृभोग्य यथा योशित्तथेश्यताम् ॥ १८ ॥
[सप्तान्नरूप में वर्णन किया हुआ] जगत् ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ है और जीव का भोग्य है। यों यह जगत् ईश्वर और जीव दो से सम्बद्ध है। एक तो इस जगत् का बनाने वाला है और दूसरा इसको भोगने वाला है [एक चीज़ दो से सम्बद्ध रहती है इसके लिये दृष्टान्त यह है कि] जैसे स्त्री अपने पिता से तो उत्पन्न होती है और पति की भोग्य होती है। इसी तरह इस जगत् को भी दो से सम्बद्ध समझ लेना चाहिये।
इसी प्रकार एक ही स्त्री के प्रति विभिन्न व्यक्तियों का दृष्टिकोण भिन्न होता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि वह उसका पिता है, भाई है, पति है या कोई अजनबी है। इसी प्रकार एक ही स्त्री का इन विभिन्न व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण भी भिन्न होगा, जो उनके साथ उसके संबंधों पर निर्भर करता है। चूँकि वे ईश्वर द्वारा निर्मित हैं और जीव के लिए अनुभव और आनंद की वस्तुएँ बन जाती हैं, इसलिए वे दोनों से संबंधित हैं, जैसे एक स्त्री अपने माता-पिता से संबंधित होती है जिन्होंने उसे जन्म दिया है और अपने पति से जो उससे प्रेम करता है।
जब उस जीव को देवता-ध्यान आदि शास्त्र विहित ज्ञान तथा परस्त्रीध्यानादि शास्त्र निषिद्ध ज्ञान होता है, जब यह जीव यज्ञादि शास्त्र विहित कर्म और हिंसा आदि शास्त्र निषिद्ध कर्म कर बैठता है। तब ईश्वर की बनाई ये वस्तुयें उसके भोग के साधन बन जाती हैं। फिर ये चीज़ें भोग्य बन कर उसके काम में आने लगती हैं। यदि उस जीव को वैसा ज्ञान न हो और उस ज्ञान से वह जीव वैसे-वैसे कर्म न करे तो ये वस्तुयें उसकी भोग्य किंवा उस के अन्न कदापि न बनें। इसी से कहा गया है कि ईश्वर ने तो इनका केवल स्वरूप ही बनाया था। अपने ज्ञानों से और अपने कर्मों से जीव ने इन को अपना अन्न बना लिया है।। अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का कारण यह अन्न ही है अर्थात् ये भोग्य पदार्थ ही हैं।
मायावृत्तंत्यो ह्यसंकल्पः साधनं जनौ।
मनो योंवृत्तो जीवो संकल्पो भोगसाधनम् ॥ 19॥
जब ईश्वर मायावृत्यात्मक संकल्प करता है, तब तो यह जगत् उत्पन्न हुआ करता है। जब यह जीव मनोवृत्ति नाम का संकल्प करता है, तब यह जगत् उस का भोग्य बन जाता है [यों ईश्वर और जीव के संकल्प से ही इस जगत् का सर्जन और भोग होता है। अज्ञान से यह जगत् बनता है और मन से यह जगत् भोगा जाता है।।
वस्तुओं की वास्तविक सृष्टि में भगवान की शक्ति माया की प्रवृत्तियाँ या कार्य ही कारण हैं; जबकि उन वस्तुओं के वास्तविक भोग के लिए जीवों की आंतरिक इन्द्रियों की प्रवृत्तियाँ या कार्य ही उत्तरदायी हैं।
यद्यपि ये वस्तुएं भी ईश्वर द्वारा बनाई गई हैं, लेकिन जीव उन्हें अपने लिए आनंद की वस्तुओं में बदल देता है और इसलिए उन्हें यहां जीव की रचना कहा जाता है। विचार यह है कि प्रत्येक जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मों और विचारों द्वारा अपना संसार बनाता है और इसलिए वह जो भी वस्तुएं अनुभव करता है, जो भी सुख भोगता है और जो भी दुख भोगता है, वे सभी उसके अपने कर्मों और विचारों का परिणाम हैं।
ईशनिर्मितमण्यादौ वस्तुन्येकविधे स्थिते।
भोक्तृधिवृत्तिनानात्वत्तद्भोगो बहुधेष्यते ॥ 20॥
ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुएं (जैसे रत्न) बदलती नहीं हैं; वे एक जैसी ही रहती हैं। लेकिन रत्न अलग-अलग लोगों पर उनकी मानसिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग प्रभाव डाल सकते हैं।
ईश्वर द्वारा निर्मित मणि जैसी वस्तु हमेशा एक समान रहती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य का उसके प्रति दृष्टिकोण भिन्न होता है।
हृष्येको मणिं लब्ध्वा क्रुद्धद्यत्यन्यो ह्यलाभतः।
पश्यतेव विरक्तोऽत्र न हृष्यति न कुप्यति ॥ 21॥
एक व्यक्ति रत्न प्राप्त करके खुश हो सकता है, जबकि दूसरा उसे प्राप्त न कर पाने पर निराश हो सकता है। और एक व्यक्ति जो उसमें रुचि नहीं रखता, वह केवल देखता रह सकता है और न तो खुश होता है और न ही निराश।
प्रियोऽप्रिय उपेक्ष्यश्चेत्यकारा मणिगास्त्रयः।
सृष्टा जीवैरिशसृष्टं रूपं साधारणं त्रिषु ॥ 22॥
जीव रत्न के संबंध में प्रसन्नता, निराशा या उदासीनता - ये तीन भावनाएँ उत्पन्न करता है, किन्तु ईश्वर द्वारा निर्मित रत्न की प्रकृति सर्वत्र एक समान रहती है।
जिस व्यक्ति को वह प्राप्त हो जाती है, वह सुखी होता है, जबकि जिस व्यक्ति को वह प्राप्त नहीं होती, वह दुःखी होता है। तीसरा व्यक्ति, जो ऐसी वस्तुओं के प्रति उदासीन रहता है, वह न तो सुखी होता है, न दुःखी। मणि के प्रति सुख, दुःख और उदासीनता की भावनाएँ संबंधित जीवों द्वारा उत्पन्न की जाती हैं, लेकिन ईश्वर द्वारा निर्मित मणि की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
भार्या स्नुषा नन्दन च याता मतेत्यनेकधा।
प्रतियोगिध्य योशिद्भिद्यते न स्वरूपतः ॥ 30॥
व्यक्तिगत संबंधों के माध्यम से एक ही स्त्री पत्नी, पुत्रवधू, भाभी, चचेरी बहन और मां के रूप में अलग-अलग रूप में प्रकट होती है; लेकिन वह स्वयं अपरिवर्तित रहती है।
ननु ज्ञानानि भिद्यन्तमाकारस्तु न भिद्यते।
योशिद्वपुष्यतिषयो न दृष्टो जीवनिर्मितः ॥ 24॥
(आपत्ति): ये अलग-अलग रिश्ते तो देखे जा सकते हैं, लेकिन महिला के स्वरूप में कोई भी परिवर्तन उसके बारे में अन्य लोगों के विचारों के परिणामस्वरूप नहीं देखा जाता है। 24.
मैवं मांसमयी योषिताचिदन्या मनोमयी।
मांसमैया अभेदेऽपि भिद्यतेऽत्र मनोमयी॥ 25॥
(उत्तर) ऐसा नहीं है। स्त्री के पास सूक्ष्म शरीर के साथ-साथ मांस आदि से बना स्थूल शरीर भी होता है। यद्यपि उसके बारे में अन्य लोगों के विचार उसके स्थूल शरीर को प्रभावित नहीं कर सकते, फिर भी वे उसकी मानसिक स्थिति को बदल सकते हैं। 25.
भ्रांतिस्वप्नमानोराज्यस्मृतिश्वस्तु मनोमयम्।
जाग्रन्मानेन मेयस्य न मनोमयतेति चेत् ॥ 26॥
(आपत्ति): यद्यपि मन मोह, स्वप्न, स्मरण और कल्पना की अवस्थाओं में देखी गई वस्तुओं को प्रभावित कर सकता है, किन्तु मन जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों द्वारा देखी गई वस्तुओं को प्रभावित नहीं कर सकता। 26.
सपने में व्यक्ति मन द्वारा उत्पन्न वस्तुओं के कारण खुशी और दुख का अनुभव करता है, हालांकि कोई बाहरी वस्तु नहीं होती है। गहरी नींद में, जब मन काम नहीं करता है, तो व्यक्ति को कोई खुशी या दुख महसूस नहीं होता है, भले ही उसके पास ऐसी वस्तुएं हों जो खुशी, दुख, भय, क्रोध आदि का कारण बन सकती हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह मन ही है जो खुशी और दुख का कारण है, न कि अन्य व्यक्ति या वस्तुएं।
इस प्रकार, जबकि स्त्री और अन्य पुरुषों का भौतिक शरीर एक जैसा रहता है, उनमें से प्रत्येक का मन उनके संबंधों के अनुसार परिवर्तन से गुजरता है। ये परिवर्तन जीवों द्वारा निर्मित होते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दो प्रकार की वस्तुएँ हैं, 'भौतिक' और 'मानसिक'। 'भौतिक' वह वस्तु है जिसे मन द्वारा भौतिक वस्तु के रूप के अनुसार जाना जाता है। और 'मानसिक' को साक्षी-चेतना द्वारा जाना जाता है (जैसा कि जीव 'भौतिक' द्वारा प्रभावित होकर मन के संपर्क में आता है और भोग के लिए अपनी अव्यक्त इच्छा को जागृत करता है)। 31.
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां धीमयो जीवबन्धकृत्।
सत्यस्मिन्नसुखदुःखे स्त स्तस्मिन्नसति न द्वयम् ॥ 32॥
सहमति और भेद की दोहरी विधि के प्रयोग से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह 'मानसिक' सृष्टि ही है जो जीव को बन्धन में डालती है, क्योंकि जब ये 'मानसिक' विषय होते हैं, तब सुख और दुःख भी होते हैं; जब ये नहीं होते, तब न तो सुख होता है, न दुःख।
इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य या जीव के दो पहलू होते हैं, भौतिक और मानसिक। यह मानसिक पहलू, जो प्रत्येक जीव का निर्माण है, बंधन का कारण है। प्रत्येक जीव अपने मानसिक दृष्टिकोण के आधार पर विभिन्न वस्तुओं के प्रति पसंद और नापसंद विकसित करता है, जो उसके अपने पिछले कार्यों द्वारा छोड़े गए प्रभावों (जिन्हें वासना कहा जाता है) द्वारा नियंत्रित होता है। ये पसंद और नापसंद खुशी और दुख का कारण हैं।
दूरदेशं गते पुत्रे जीवत्येवात्र तत्पिता।
विप्रलम्भवाक्येन मृतं मत्वा प्ररोदिति ॥ 34॥
एक झूठे व्यक्ति ने एक व्यक्ति से, जिसका बेटा दूर देश चला गया था, कहा कि लड़का मर चुका है, यद्यपि वह अभी जीवित था। पिता ने उस पर विश्वास कर लिया और बहुत दुःखी हुआ। 34.
मृतेऽपि तस्मिन् लक्षणयामश्रुतयां न रोदिति।
मूलतः सर्वस्य जीवस्य बंधकृन्मानस जगत् ॥ 35
इसके विपरीत यदि उसका पुत्र सचमुच विदेश में मर जाता और उस तक कोई समाचार नहीं पहुंचता तो भी उसे कोई दुःख नहीं होता। इससे पता चलता है कि मनुष्य के बंधन का वास्तविक कारण उसका अपना मानसिक संसार ही है। वहीं, उसका पड़ोसी, जिसका बेटा विदेश में मर गया था, यह मानकर शांत रहा कि उसका बेटा सुरक्षित है। इससे पता चलता है कि मनुष्य के बंधन और दुःख का असली कारण मन है, न कि कोईवास्तविक घटना।
विज्ञानवादो व्यापकार्थवैयर्थ्यत्स्यदिहेति चेत्।
न हृदयकर्मधातुं बाह्यस्यापेक्षितत्त्वतः ॥ 36॥
(आपत्ति): यह शुद्ध आदर्शवाद है और यह बाह्य वस्तुओं को सभी महत्व से वंचित करता है। (उत्तर): नहीं, क्योंकि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि बाह्य वस्तुएं मन की वृत्तियों को आकार देती हैं (जो मानसिक दुनिया का निर्माण करती हैं)।
बौद्ध विज्ञानवादियों के विपरीत,अद्वैत बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करता है और मानता है कि, अनुभूति में, मन बाह्य वस्तु का रूप ले लेता है।
तत्काल द्वैतशान्तावप्यागामीजनीक्षयः।
ब्रह्मज्ञानं विना न स्यादित वेदान्त डिंडिमः ॥ 39॥
(उत्तर) : यह तर्क दिया जा सकता है कि, चूँकि यह मन ही है जो प्रत्यक्ष जगत को प्रक्षेपित करके बंधन का कारण बनता है, इसलिए योग के अभ्यास के माध्यम से मन को नियंत्रित करके संसार को गायब किया जा सकता है। यद्यपि मन को वश में करके द्वैत को अस्थायी रूप से समाप्त किया जा सकता है, किन्तु ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना मानसिक सृष्टि का पूर्ण और अंतिम विनाश संभव नहीं है। ऐसा वेदान्त में कहा गया है।
इसका उत्तर यह है कि यद्यपि मन के नियंत्रण से द्वैत को अस्थायी रूप से गायब किया जा सकता है, लेकिन ब्रह्म की प्राप्ति के बिना बंधन का अंतिम उन्मूलन संभव नहीं है, जो अकेले ही अविद्या को नष्ट कर देगा।
ब्रह्म-साक्षात्कार के बाद भी ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत का ज्ञानी को बोध होता रहेगा, लेकिन वह इससे प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि उसे उनकी मिथ्याता का बोध हो गया है। एक बार जब किसी व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि मृगतृष्णा में दिखाई देने वाला जल भ्रामक है, तो वह उसके पीछे नहीं जाएगा, यद्यपि दूर से देखने पर जल पहले जैसा ही दिखाई देता रहेगा। ब्रह्म-साक्षात्कार के बिना द्वैत के मिट जाने मात्र से बंधन समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मांड के प्रलय के समय सभी वस्तुओं का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, लेकिन जब सृष्टि का अगला चक्र प्रारंभ होगा, तब वे पुनः प्रकट हो जाएंगी। उस समय वे सभी जीव, जिन्होंने सृष्टि के पिछले चक्र में ब्रह्म का बोध नहीं किया है, पुनः जन्म लेंगे। इस प्रकार पुनर्जन्म से पूर्ण मुक्ति केवल ब्रह्म-साक्षात्कार द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।
जीवद्वैतं तु शास्त्रीयमशास्त्रीयमिति द्विधा।
उपादिता क्लासिकमत्तत्त्वस्यावबोधनात् ॥ 43॥
जीव द्वारा रचित द्वैतमय जगत् दो प्रकार का है: एक जो शास्त्र के आदेश के अनुरूप है और दूसरा जो उसके अनुरूप नहीं है। ब्रह्म की प्राप्ति होने तक पहले वाले को ध्यान में रखना चाहिए।
भगवान द्वारा रचित पदार्थ जगत अद्वैत के साक्षात्कार में सहायक है, बाधक नहीं। अद्वैत ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी यह नष्ट नहीं होता। जीव द्वारा रचित द्वैत ही आत्मज्ञान में बाधक है।जीव द्वारा रचित द्वैत दो प्रकार का है - एक जो शास्त्रानुकूल है और दूसरा जो शास्त्र निषिद्ध है। पहला द्वैत तब तक स्वीकार करना चाहिए और उसका अभ्यास करना चाहिए जब तक आत्मज्ञान न हो जाए।
आत्मब्रह्मविचाराख्यां शास्त्रीयं मनसं जगत्।
बुद्धे तत्त्वे तच्च हेयमिति श्रुत्यनुशासनम् ॥ 44॥
ब्रह्मस्वरूप आत्मा का चिन्तन ही वह मानसिक जगत है जो शास्त्र-विधि के अनुरूप है। ब्रह्मसाक्षात्कार हो जाने पर शास्त्र-विधि के अनुरूप इस द्वैतभाव का भी त्याग कर देना चाहिए। यही श्रुति का निर्देश है। 44।
श्रवण -मनन -निदिध्यासन गुरु से शास्त्र सुनकर, उनकी शिक्षाओं पर विचार करके और उनका ध्यान करके ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा करना ही शास्त्रानुकूल द्वैत है। इस जिज्ञासा में गुरु, शिष्य और शास्त्र जैसी भिन्न सत्ताओं को स्वीकार करना आवश्यक है, परंतु शिष्य को ब्रह्म की जिज्ञासा करने के लिए यह द्वैत आवश्यक है, इसलिए यह स्वीकार्य है। परंतु ब्रह्म की प्राप्ति के बाद यह भेद (या द्वैत) भी त्याग देना पड़ता है, क्योंकि तब ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता।
शास्त्रान्यधीत्य मेधावी अभ्यास्य च पुनः पुनः आरंभ।
परमं ब्रह्म विज्ञाय उल्कावतन्यथोत्सृजेत् ॥ 45॥
अमृतानन्द उपनिषद में कहा गया है: "एक बुद्धिमान व्यक्ति को शास्त्रों का अध्ययन करके तथा उनकी शिक्षाओं का बार-बार अभ्यास करके, उसे परब्रह्म को जानने के बाद उनका त्याग कर देना चाहिए, जैसे कोई व्यक्ति अपनी यात्रा के अंत में जलती हुई मशाल को फेंक देता है।' ब्रह्म को प्राप्त करने के बाद उनका त्याग कर देना चाहिए, जैसे एक यात्री अपने गंतव्य पर पहुंचने के बाद जलती हुई मशाल को फेंक देता है, या जैसे कोई व्यक्ति अनाज लेने के बाद भूसी को फेंक देता है"। इसके बाद उसे अपना मन ब्रह्म पर स्थिर रखना चाहिए और अपने मन को केवल शब्दों से बोझिल नहीं बनाना चाहिए (ब्रह्म उपनिषद 4.4.21)।
श्रुति में स्पष्ट कहा गया है: 'उस एक को जानो और अन्य बातों को त्याग दो' [मुण्डकोपनिषद्] तथा 'बुद्धिमान पुरुष को अपनी वाणी को रोककर मन में ही रखना चाहिए' [कठकोपनिषद्] 48.
अशास्त्रीयमपि द्वैतं गतिं मंदमिति द्विधा।
कामक्रोधादिकं गतिं मनोराज्यं तथेतरत् ॥ 49॥
मनुष्य की मानसिक सृष्टि का द्वैत जो शास्त्र के अनुकूल नहीं है, वह दो प्रकार का है - हिंसक और मंद। जो काम, क्रोध आदि वासनाओं को जन्म देता है, उसे हिंसक कहते हैं और जो दिवास्वप्न को जन्म देता है, उसे मंद कहते हैं।
शास्त्र निषिद्ध द्वैत = शास्त्रों के विपरीत द्वैत (अथवा अनेकता) वह है जो सभी जीवों और वस्तुओं को एक दूसरे से भिन्न मानने से उत्पन्न होता है। यह मानसिक वृत्ति ही राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि भावनाओं को जन्म देती है। राग, क्रोध आदि भावनाओं को जन्म देने वाली मानसिक वृत्ति को 'हिंसक' कहते हैं। जो कल्पित विचारों को जन्म देती है उसे 'मृदु' कहते हैं।
उभयं तत्त्वबोधात्प्राङ्निवार्यं बोधसिद्धये।
समः सम्मिलितत्वं च साधनेषु श्रुतं यतः ॥ 50॥
ब्रह्म के स्वरूप का अध्ययन आरम्भ करने से पहले दोनों का त्याग करना आवश्यक है; क्योंकि ब्रह्म के अध्ययन के लिए मानसिक संतुलन और एकाग्रता दो पूर्वापेक्षित बातें हैं, ऐसा श्रुति कहती है।साधक को इन दोनों का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि मन की शांति और एकाग्रता साधक के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं।
बोधादूर्ध्वं च तद्धेयं जीवन्मुक्तिप्रसिद्धये।
कामादिक्लेशबन्धेन युक्तस्य न हि मुक्तता ॥ 51॥
मोक्ष की प्राप्ति और उसमें स्थित होने के लिए इन दोनों का त्याग करना आवश्यक है। जो व्यक्ति काम और अन्य वासनाओं के वशीभूत है, वह जीवन में मोक्ष पाने के लिए अयोग्य है।
मनुष्य तभी मोक्ष का अधिकारी हो सकता है, जब वह इन्द्रिय-विषयों की इच्छा को त्याग दे। ऐसा करने का उपाय है कि इन्द्रिय-सुखों के भोग के दुष्परिणामों को सदैव स्मरण रखना चाहिए। कामनाओं के विषयों में मानसिक लीनता भी त्याग देनी चाहिए, क्योंकि वह सभी बुराइयों का बीज है।
बुद्धाद्वैतसत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि।
शुनां तत्त्वदर्शं चैव कोभेदोऽशुचिभक्षणे ॥ 55॥
श्री सुरेश्वर कहते हैं कि जो व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी होने का दिखावा करता है, किन्तु फिर भी नैतिक संयम के बिना रहता है, वह उस कुत्ते के समान है जो अशुद्ध वस्तुएँ खाता है। [नैष्कर्म्यसिद्धि-IV-62].
ध्यायते विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषुपजायते।
सङ्गात्संजयते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ 60॥
'यदि मनुष्य किसी भी इच्छित विषय पर मनन करता है, तो वह उसमें आसक्त हो जाता है। आसक्ति से उसके प्रति लालसा उत्पन्न होती है और कामना की कुंठा से क्रोध उत्पन्न होता है।' [ गीता-II.62 ] 60.भगवद्गीता में कहा गया है कि विषयों पर मनन करने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से विषय की लालसा उत्पन्न होती है। इच्छा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के कारण व्यक्ति अपनी सारी अच्छी बातें भूल जाता है, और परिणामस्वरूप विवेक-प्रयोग करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। अंततः वह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अयोग्य हो जाता है। (गीता, 2.62-63)
बुद्धत्त्वेन धीदोषशून्येनैकान्तवासिना।
दीर्घं प्रणवमुच्चराय मनोराज्यं विजीयते ॥ 63॥
जो मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से परब्रह्म के स्वरूप को समझ गया है तथा बुद्धि के दोषों से मुक्त है, उसे चाहिए कि वह एकान्त में रहकर दीर्घकाल तक ओम् का जप करे तथा इस प्रकार मन की चंचलता को वश में करे।
जिते तस्मिन् वृत्तिशून्यं मनस्तिष्ठति मुखवत्।
एतत्पादं प्लास्टिकेन रामाय बहुधेरितम् ॥ 64॥
जब इस प्रकार 'मानसिक जगत' पर विजय प्राप्त हो जाती है, तब मन की (अन्य) वृत्तियाँ (धीरे-धीरे) समाप्त हो जाती हैं - मन गूंगे की भाँति मौन हो जाता है। इस विधि को वसिष्ठ ने राम को अनेक प्रकार से समझाया है।
विक्षिप्यते कदाचिधिः कर्मणा भोगदायिनः।
पुनः सम्मिलिता सा स्यात्तदैवाभ्यासपात्वात् ॥ 67॥
यदि कभी पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के कारण चिंतनशील मनुष्य का मन कामनाओं से विचलित हो जाता है, तो आध्यात्मिक ध्यान के निरंतर अभ्यास से उसे पुनः शांत अवस्था में लाया जा सकता है।
विक्षेपो यस्य नास्त्यस्य ब्रह्मवित्त्वं न मन्यते ।
ब्रह्मैवायमिति प्राहुर्मुनयः पारदर्शिनः ॥ ६८॥
That man whose mind is not subject to distraction is not merely a knower of Brahman but Brahman Itself – so declare the sages versed in the scriptures of Vedanta. 68.
वह मनुष्य जिसका मन विचलित नहीं होता, वह न केवल ब्रह्म का ज्ञाता है, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है - ऐसा वेदान्त में पारंगत ऋषियों का कथन है। 68.
दर्शनदर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।
यस्तिष्ठति स तु ब्रह्मन्ब्रह्म न ब्रह्मवित्स्वयम् ॥ 69॥
जिसका मन इस बात पर विचार नहीं करता कि वह ब्रह्म को जानता है या नहीं, बल्कि जो शुद्ध चेतना या ज्ञान के साथ तादात्म्य रखता है, वह केवल ब्रह्म का ज्ञाता नहीं, अपितु स्वयं ब्रह्म ही है। 69।
अद्वितीयज्ञानरूपेण यस्तिष्ठति स ब्रह्मैव । न तु ब्रह्मवित्। जानामीति व्यव- हारस्य ज्ञातृज्ञानज्ञेयभावसापेक्षत्वेन तद्व्यवहारत्यागस्य ज्ञातृज्ञेयभावपरित्यागपूर्वकतया तदानीं ज्ञातृज्ञेयभावयोर्नष्टत्वेन तत्सापेक्षो ब्रह्मविदिति व्यवहारो न स्वारसिक उपपद्यते । तथा चाह श्रुतिः “परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवती"ति (मुं. ३.२.९) ॥६८॥
ईश्वर का ध्यान करने से इच्छा की वस्तुओं के बारे में सोचने की प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है, जो निर्गुण ब्रह्म के ध्यान और मुक्ति की ओर ले जाएगा। जब मन इस प्रकार नियंत्रित हो जाता है, तो वह शांत हो जाता है और सभी परिवर्तनों से मुक्त हो जाता है। जब कोई यह समझ जाता है कि इस भौतिक दुनिया में कोई पूर्ण वास्तविकता नहीं है, तो वह निर्वाण के आनंद का अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति केवल ब्रह्म का ज्ञाता नहीं होता; वह स्वयं ब्रह्म होता है।
जीवन्मुक्तेः पराकाष्ठाजीवद्वैतविवर्जनात् ।
लभ्यतेऽसावतोऽत्रेदमीशद्वैताद्विवेचितम् ॥ ६९ ॥
जीवन में यह मुक्ति, ईश्वर के जगत पर प्रक्षेपित जीव की मानसिक स्थितियों को समाप्त करने या हटाने से प्राप्त होने वाली अंतिम अवस्था है। अतः इस अध्याय में हमने बताया है कि जीव द्वारा निर्मित द्वैत ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत से किस प्रकार भिन्न है। 70.
This librtion in life is the final step attained by sublating or removing the mental conditions of the Jiva (projected on the world of Isvara). So in this chapter we have described how the duality created by the Jiva differs from that created by Isvara. 70.
Brahman, who is, according to Shruti, the non-dual reality, can be known by the process of differentiation from the five elements. So this process is now being discusses in detail. 1.ब्रह्म, जो अद्वैत सत्य है, उसे पाँच तत्वों से अलग करके जाना जा सकता है। ऐसा करने के लिए, पहले पाँच तत्वों का वर्णन किया गया है।
आकाश तत्व में केवल एक गुण है, ध्वनि। वायु तत्व में ध्वनि और स्पर्श गुण हैं। अग्नि तत्व में ध्वनि, स्पर्श और रंग हैं। जल तत्व में ध्वनि, स्पर्श, रंग और स्वाद हैं। पृथ्वी तत्व में ध्वनि, स्पर्श, रंग, स्वाद और गंध हैं। इन तत्वों को संबंधित पाँच इंद्रियों द्वारा माना जाता है।
मनुष्य की सभी क्रियाओं को पाँच समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं वाणी, लोभी, गति, मलत्याग और प्रजनन। ये सभी कार्य पाँच कर्मेन्द्रियों के माध्यम से किए जाते हैं, अर्थात् जीभ, हाथ, पैर, गुदा और जननांग।
सूक्ष्म इंद्रियाँ जो बोध और क्रिया की हैं, उन्हें 'इंद्रियाँ' कहते हैं। ये सूक्ष्म शरीर का हिस्सा हैं। भौतिक या स्थूल शरीर में इसी तरह की इंद्रियाँ 'गोलका' कहलाती हैं। दस इंद्रियों का स्वामी मन है। यह हृदय-कमल में स्थित है। इसे अंतःकरण कहते हैं। यह बाह्य वस्तुओं के संबंध में अपने कार्यों के लिए दस इंद्रियों पर निर्भर करता है। मन तीन गुणों, सत्व, रजस और तम से बना है। मन में परिवर्तन होते रहते हैं जो गुणों के कारण होते हैं। सत्व गुण मन में वैराग्य, क्षमा, उदारता और इसी तरह के गुणों को उत्पन्न करता है।
रजस गुण इच्छा, क्रोध, लोभ जैसी भावनाओं को जन्म देता है और व्यक्ति को विभिन्न कार्यों को करने के लिए प्रेरित करता है।
तमस आलस्य, भ्रम, तंद्रा आदि के लिए जिम्मेदार है। जब मन में सत्व प्रबल होता है, तो पुण्य प्राप्त होता है; जब रजस प्रबल होता है, तो पाप होता है। जब तमोगुण प्रबल होता है तो जीवन व्यर्थ हो जाता है।
संसार की सभी वस्तुएं, साथ ही इंद्रियां और मन भी पांच तत्वों से बने हैं।
भेद तीन प्रकार के होते हैं। एक वृक्ष में तना, शाखाएँ, पत्ते, फूल और फल होते हैं। ये सभी एक दूसरे से भिन्न हैं। ये एक वस्तु अर्थात वृक्ष के भीतर के भेद हैं। ऐसा भेद स्वागतभेद या आंतरिक भेद कहलाता है। एक वृक्ष का दूसरे वृक्ष से भेद ' सज्जायभेद' या एक ही प्रजाति के भीतर का भेद कहलाता है। एक वृक्ष का पत्थर से (या वृक्ष के अलावा किसी अन्य वस्तु से) भेद ' विजातियाभेद' या विभिन्न प्रजातियों की वस्तुओं के बीच का भेद कहलाता है। चूँकि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है, और उसी प्रजाति या भिन्न प्रजाति का कुछ भी नहीं है, इसलिए ब्रह्म में अंतिम दो प्रकार का कोई भेद नहीं हो सकता। चूँकि ब्रह्म एकरूप है और इसमें कोई भाग नहीं है, इसलिए कोई आंतरिक भेद नहीं हो सकता। इसलिए ब्रह्म को 'केवल एक, बिना दूसरे के' (एकम एव अद्वितीयम्) के रूप में वर्णित किया गया है । और 'बिना किसी दूसरे के' शब्द ' विजतिभेद' को नकारते हैं। जब मन पूरी तरह शांत हो जाता है, तब ब्रह्म का अनुभव किया जा सकता है। ब्रह्म स्वयं प्रकट होता है और मन की सभी वृत्तियों की समाप्ति का साक्षी है। माया ब्रह्म की शक्ति है और ब्रह्म से स्वतंत्र उसका कोई अस्तित्व नहीं है। माया को सीधे नहीं जाना जा सकता, बल्कि उसके प्रभाव, ब्रह्मांड से ही उसका अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रह्मांड के प्रकट होने से पहले माया ब्रह्म में एक संभावित रूप में मौजूद थी। माया न तो अस्तित्व है और न ही अस्तित्वहीनता। यह अनिर्वचनीय [अपरिभाषित] है।
श्रुति कहती है कि निर्मित ब्रह्मांड ब्रह्म का ही एक अंश है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "ब्रह्मांड मेरे एक अंश से ही संचालित है।" यद्यपि ब्रह्म बिना भागों वाला है, श्रुति उसे भागों वाला कहती है, जो कि हमारी परिचित भाषा का प्रयोग है। ब्रह्म को आधार मानकर माया स्वयं को संसार की सभी वस्तुओं में रूपांतरित कर लेती है, जैसे कि दीवार पर खींचे गए विभिन्न चित्र। माया का पहला रूप है आकाश। आकाश ब्रह्म से ही अपना अस्तित्व प्राप्त करता है। अर्थात्, आकाश अपने आधार ब्रह्म के कारण ही अस्तित्व में प्रतीत होता है, जो कि स्वयं अस्तित्व है। आकाश में ध्वनि का गुण है। यह ब्रह्म या अस्तित्व ही है जो आकाश के रूप में प्रकट होता है , लेकिन सामान्य लोग और तर्कशास्त्री अस्तित्व को आकाश का गुण मानते हैं। यह गलत धारणा माया के कारण है। ब्रह्म के अलावा आकाश का कोई अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार, अन्य तत्व, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का भी ब्रह्म के अलावा कोई अस्तित्व नहीं है। वे पूर्ण अर्थों में वास्तविक नहीं हैं, लेकिन ब्रह्म के आधार के कारण वास्तविक प्रतीत होते हैं। ब्रह्म सर्वव्यापी है, किन्तु माया का क्षेत्र सीमित है, अंतरिक्ष का क्षेत्र उससे भी अधिक सीमित है तथा वायु का क्षेत्र तो और भी अधिक सीमित है।
अंतरिक्ष में ध्वनि (संचार) करने का गुण है। वायु में स्पर्श की भावना के प्रति बोधगम्यता का गुण है। रंग अग्नि का विशिष्ट गुण है, अंतरिक्ष और वायु के गुणों के अतिरिक्त। पानी का विशिष्ट गुण स्वाद है। इसके अतिरिक्त इसमें अपने पूर्ववर्तियों, अंतरिक्ष, वायु और अग्नि के गुण भी हैं। पृथ्वी में अंतरिक्ष, वायु, अग्नि और जल के गुणों के अतिरिक्त गंध का विशिष्ट गुण है।
ब्रह्म ही परम सत्य है। ब्रह्माण्ड में केवल अनुभवजन्य वास्तविकता है। जब द्वैत, जो वास्तविक नहीं है, का निषेध हो जाता है, तो व्यक्ति अद्वैत ब्रह्म में स्थित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को जीवन्मुक्त (जीवन-मुक्त) कहा जाता है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति मोह से प्रभावित नहीं होता और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह स्वस्थ मरता है या बीमार, ध्यान करते हुए या जमीन पर लोटते हुए, सचेत अवस्था में या अचेतन अवस्था में, क्योंकि वह पहले ही शरीर के साथ अपनी पहचान छोड़ चुका होता है।
इस प्रकार अद्वैत सत्य से तत्वों का विवेक हमें परम आनन्द की प्राप्ति कराता है।
अध्याय 2 का अंत
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पञ्चदशी/तृतीयप्रकरणम् - पञ्चकोशविवेकः
पञ्चकोषविवेकोनाम - तृतीयः परिच्छेदः ।
पंचदशी
अध्याय 3
[43 -श्लोक ]
पंचकोशविवेक - पांच कोशों का विवेक
तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्म या आत्मा को "गुफा में छिपा हुआ" बताया गया है। 'गुफा' पाँच कोश हैं जिन्हें अन्नमयकोश (भौतिक कोश), प्राणमयकोश (प्राण वायु का कोश), मनोमयकोश (मानसिक कोश), विज्ञानमयकोश (बुद्धि का कोश) और आनंदमयकोश (आनंद का कोश) कहा जाता है। सबसे बाहरी कोश भौतिक कोश या स्थूल शरीर या स्थूल शरीर है। इसके भीतर प्राण, मानसिक और बुद्धि के कोश हैं, इसी क्रम में। ये तीनों कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर या सूक्ष्म शरीर बनाते हैं । सबसे भीतरी कोश आनंद का कोश है। यह कारण शरीर या कारण शरीर है।
भौतिक शरीर माता-पिता के बीज और रक्त से उत्पन्न होता है, जो उनके द्वारा खाए गए भोजन से बनता है। यह भोजन से बढ़ता है। यह न तो जन्म से पहले और न ही मृत्यु के बाद मौजूद होता है। यह पिछले कर्मों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है। इसलिए यह आत्मा नहीं हो सकती जो शाश्वत है और जिसका न तो जन्म है और न ही मृत्यु। प्राणमय कोश में पाँच प्राण होते हैं, अर्थात् प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। ये भौतिक शरीर में व्याप्त हैं और इंद्रियों को कार्य करने की शक्ति देते हैं। यह कोश आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि यह चेतना से रहित है। मानसिक कोश वह है जो शरीर, संबंध और संपत्ति के संबंध में 'मैं' और 'मेरा' की धारणाओं को जन्म देता है। यह भी आत्मा नहीं हो सकता क्योंकि इसमें इच्छाएँ होती हैं, यह भ्रम के अधीन है और हमेशा बदलता रहता है। बुद्धि, जिस पर शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब होता है, और जो गहरी नींद की स्थिति में निष्क्रिय होती है, बुद्धि कोश है। यह आत्मा नहीं हो सकती क्योंकि इसमें परिवर्तन होता रहता है।
आंतरिक अंग एक होते हुए भी दो माने जाते हैं, अर्थात बुद्धि और मन। मन इंद्रियों के माध्यम से जानकारी एकत्र करता है और उसे बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करता है, जो निर्णय लेती है। गहरी नींद में आंतरिक अंग निष्क्रिय हो जाता है और आनंद का अनुभव होता है। यह आनंदमय कोश है। यह भी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि यह अनित्य है। इस आनंद का स्रोत आत्मा है। आत्मा हमेशा विषय है और कभी भी अनुभव की वस्तु नहीं हो सकती। आत्मा स्वयं चेतना है और मन तथा शरीर को चेतना प्रदान करती है, जैसे कि चीनी स्वयं मिठास है और सभी मीठे व्यंजनों को मीठा बनाती है। आत्मा का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह कोई वस्तु नहीं है। यह स्वयं को प्रकट करने वाली है। यह आत्मा ब्रह्म है। सर्वव्यापी होने के कारण ब्रह्म स्थान से सीमित नहीं है। शाश्वत होने के कारण यह समय से सीमित नहीं है। संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार होने के कारण यह किसी वस्तु से सीमित नहीं है, जैसे कि रस्सी मायावी सांप से सीमित नहीं है। इस प्रकार ब्रह्म तीनों दृष्टियों से अनंत है।
ब्रह्म जो कि अस्तित्व, चेतना और अनंत है, वही एकमात्र वास्तविकता है। ईश्वर और जीव , ब्रह्म पर क्रमशः माया और अविद्या द्वारा आरोपित मात्र हैं । माया ईश्वर की शक्ति है , जो पूरे ब्रह्मांड को नियंत्रित करती है, लेकिन स्वयं ईश्वर के नियंत्रण में है । ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें ब्रह्म का प्रतिबिंब होने के कारण चेतना है। ब्रह्म शुद्ध चेतना है, जबकि ईश्वर अपनी शक्ति माया के कारण सर्वज्ञ है। ब्रह्म को जब पांच कोशों से संबद्ध देखा जाता है तो उसे जीव कहा जाता है , जैसे कि एक व्यक्ति को उसके बेटे और पोते के संबंध में पिता और दादा कहा जाता है। माया और पांच कोशों से अलग विचार करने पर ब्रह्म न तो ईश्वर है और न ही जीव । जो यह जान लेता है कि वह मूलतः ब्रह्म है (न कि शरीर-मन का मिश्रण), उसका दोबारा जन्म नहीं होता, क्योंकि ब्रह्म का कोई जन्म नहीं है और वह शाश्वत है।