प्रतीकों की आवश्यकता - (खण्ड ९/३४)
( वैधी भक्ति के लिए सगुण आदर्श की आवश्यकता)
[Swami Vivekananda's fourth Bhakti Yoga class for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday evening, 23 December 1895, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]
भक्ति के दो विभाग हैं। एक है वैधी भक्ति जो विधि-विधानपूर्वक अनुष्ठानिक ढंग से की जाती है। दूसरी है मुख्या या पराभक्ति। The external part of Bhakti is absolutely necessary to help the soul onward. मनुष्य बनने ,आत्मविकास करने या शिक्षक (आचार्य-नेता ) के रूप में जीवनगठन करने सहायता देने के लिए वैधी भक्ति -से होकर आगे बढ़ना अनिवार्य है। कोई सोचे कि शिक्षक के जैसा जीवनगठन किये बिना -मैं कूदकर उच्चतम अवस्था , (भक्ति मार्ग के आचार्य नवनीदा -स्वामीजी - जगतगुरु ठाकुर जैसी उच्चतम अवस्था-या महामण्डल जैसे शैक्षणिक संगठन का सचिव, अध्यक्ष पद प्राप्त कर लूँगा।) तो यह उसकी बड़ी भूल है।
Religion itself consists in realization....of Mahavakya ! धर्म न तो शास्त्रों में है, न धार्मिक अनुष्ठान में न महावाक्य से बौद्धिक सहमति में, न तर्क-विवाद में, सद्शास्त्र अध्यन, वैदिक सिद्धांत ये सभी धर्म के सहायक होते हैं, पर असली धर्म तो 'साक्षात्कार' (आत्मानुभूति) ही है।
हम सभी कहते हैं, "ईश्वर (आत्मा) है।" क्या आपने ईश्वर को देखा है? यही सवाल है। आप किसी व्यक्ति को यह कहते हुए सुनते हैं, "स्वर्ग में ईश्वर है।" आप उससे पूछते हैं कि क्या उसने उसे देखा है, और यदि वह कहता है कि उसने देखा है, तो आप उस पर हंसेंगे और कहेंगे कि वह पागल है।
ज़्यादातर लोगों के लिए धर्म एक तरह की बौद्धिक सहमति देने मात्र में है, और यह किसी सिद्धान्त से आगे नहीं जाता। मैं इसे धर्म नहीं कहूँगा। इस तरह के धर्म को मानने से नास्तिक होना बेहतर है। धर्म महावाक्य पर हमारी बौद्धिक सहमति या असहमति पर निर्भर नहीं करता। आप कहते हैं- कि आत्मा है ! (अहं ब्रह्मास्मि) क्या आपने आत्मा देखी है? ऐसा कैसे है कि हम सभी में आत्मा है और हम उसे नहीं देख पाते, यह कैसी बात है ? आपको इस प्रश्न का उत्तर देना होगा और आत्मा को देखने का मार्ग /उपाय खोजना होगा। (गुरु श्रीरामकृष्ण-शिष्य स्वामी विवेकानंद वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make 'में मनःसंयोग सीखना होगा।) यदि नहीं, तो धर्म की बात करना बेकार है।
The proof of Religion is in direct perception. धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत करता है। अतएव यदि कोई धर्म (गुरु-शिष्य परम्परा) सत्य है, तो उसे हमें अपनी अंतर्निहित दिव्यता (आत्मा या ब्रह्मत्व) दिखाने में (अनुभव करवाने में) सक्षम होना चाहिए; और हमें ईश्वर और हमारे भीतर सत्य दिखाने में सक्षम- चरित्रवान मनुष्य बनना चाहिए। यदि आप और मैं इनमें से किसी एक महावाक्य-अहं ब्रह्मास्मि या अन्य धार्मिक सिद्धांत -'अल्लाहोअकबर' कौन सही है ? को लेकर अनंत काल तक लड़ते रहें, तो हम कभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। लोग सदियों से लड़ते आ रहे हैं, और नतीजा क्या है?Intellect cannot reach there at all. We have to go beyond the intellect; बुद्धि (मन या अहं) वहाँ तक - इन्द्रियातीत सत्य (ईश्वर,आत्मा, सच्चिदानंद तक) बिल्कुल नहीं पहुँच सकती। हमें मन -बुद्धि से परे जाना होगा;(निर्विकल्प समाधि में जाना और लौट के आना होगा या नहीं आना होगा ?)The proof of Religion is in direct perception. धर्म का प्रमाण प्रत्यक्ष अनुभूति में है। (९/३५)
इस दीवाल के अस्तित्व का प्रमाण यह है कि हम इसे देखते हैं। यदि आप बैठ कर सदियों तक इसके अस्तित्व या गैर-अस्तित्व के बारे में बहस करते रहें, तो आप कभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते; लेकिन यदि आप इसे प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, तो उतना ही पर्याप्त है। फिर यदि संसार के सारे मनुष्य आपसे कहें कि इसका अस्तित्व नहीं है, तो आप उनका कभी विश्वास नहीं करेंगे। क्योंकि आप जानते हैं कि अपनी आंखों से देखा गया प्रमाण संसार के सभी सिद्धांतों और सूत्रों से श्रेष्ठ है।
आप जितनी कम किताबें पढ़ेंगे, आपके लिए उतना ही बेहतर होगा; एक समय में एक ही काम करें। फिर कुछ लोग सनसनी चाहते हैं। यह पागलखाने का रास्ता है, धर्म का नहीं। भगवान तक कमज़ोर लोग नहीं पहुँच सकते, और ये सभी अजीबोगरीब चीज़ें- (बिल्ली, टोना-टोटका) हमें दुर्बल बनाती हैं।
आपको यह याद रखना चाहिए कि धर्म शास्त्रों में या सिद्धान्त बघारने में नहीं है, बल्कि अनुभूति में है; धर्म का अर्थ श्लोक या सिद्धांत रटना नहीं है,it is not learning, but 'being' - बल्कि वैसा 'होना' है। हर कोई जानता है, "चोरी मत करो", लेकिन इससे क्या? वह आदमी वास्तव में जानता है जो कभी चोरी नहीं करता। हर कोई जानता है, "दूसरों के दिल को चोट मत पहुँचाओ", लेकिन इसे ही यदि रटते रहें तो क्या लाभ; यदि हमने इसे महसूस किया है, और इसीलिए हमने और इसके आधार पर अपने चरित्र का निर्माण नहीं किया है ? इसलिए हमें धर्म का बोध करना होगा और धर्म का बोध होना एक लंबी प्रक्रिया है। जब लोग किसी बहुत ऊंची और अद्भुत विषय (महावाक्य आदि) के बारे में सुनते हैं, तब वे यह समझने लगते हैं कि वे उस अवस्था को तुरंत प्राप्त कर लेंगे। एक क्षण के लिए भी यह सोचने में नहीं रुकते कि उन्हें इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी; वे सभी वहां एकदम कूद कर पहुँच जाना चाहते हैं।
The first part of Religion is Vaidhi Bhakti (मनःसंयोग) : यदि 'गुरु' या नेता का पद सर्वोच्च है -तो हम खुद को योग्य मान लेते हैं। हम कभी यह विचार करने के लिए रुकते नहीं कि हमारे पास शक्ति है या नहीं, और इसका परिणाम यह होता है कि हम कुछ नहीं कर पाते । आप किसी व्यक्ति को जबरदस्ती धकेल कर ऊँचा नहीं उठा सकते। हम सबको क्रमशः प्रयत्न करके पहले 'मनुष्य' (चरित्रवान शिक्षक) बनना पड़ता है, इसलिए धर्म का पहला चरण वैधी भक्ति है, जो उपासना (शिवज्ञान से जीव सेवा) की निचली श्रेणी है।
उपासना के ये निम्न चरण क्या हैं? हमें भी मूर्त (सगुण) से अमूर्त (निर्गुण) की ओर जाना चाहिए , जैसे बच्चे सीखते हैं। अब हमें 3H विकास के 5 अभ्यास द्वारा सगुण आदर्श , एक पवित्र नाम-रूप (गुरु-परम्परा जैसे स्वामी विवेकानन्द-नवनीदा ) के साँचे में अपने जीवन को गठित करने का अभ्यास करना होगा। हर किसी के लिए एक ही मूर्त आदर्श होना ज़रूरी नहीं है।
Again, there are other forms, known as symbols. प्रतीकों का मानव मन पर बहुत प्रभाव होता है। मुसलमान भाई काबा, पर मन को एकाग्र करें। अपना मार्ग (आदर्श-चार योग के आचार्य) स्वयं अपनी पसंद से चुन लेने को भक्ति की भाषा में 'इष्ट' (चुना हुआ मार्ग-भक्तिमार्ग) कहा जाता है। परन्तु स्वास्थ्य या धन के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं है, यह सब कर्म या पुण्य कर्म है। जो व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करना चाहता है, जो व्यक्ति भक्त (जीवनमुक्त आचार्य) बनना चाहता है, उसे ऐसी सभी प्रार्थनाओं को त्याग देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि आप जो प्रार्थना करते हैं वह आपको नहीं मिलता; आपको सब कुछ मिलता है, लेकिन ऐसी प्रार्थना करना भिखारी का धर्म है।
This body will go, who cares for these things? यह शरीर कभी न कभी तो मरेगा ही, इसलिए इसके स्वास्थ्य के लिए बार-बार प्रार्थना करने से क्या फायदा? स्वास्थ्य और धन में क्या रखा है? सबसे धनी व्यक्ति अपने धन का केवल थोड़ा सा हिस्सा ही उपयोग और आनंद ले सकता है। हम इस दुनिया की सभी चीजें कभी नहीं पा सकते; और अगर नहीं, तो कौन परवाह करता है? यह शरीर चला जाएगा, इन चीजों की कौन परवाह करता है? अगर अच्छी चीजें आती हैं, तो स्वागत करें; अगर वे चली जाती हैं, तो उन्हें जाने दें। धन्य हैं वे जब आते हैं, और धन्य हैं वे जब जाते हैं।
हम तो 'राजराजेश्वर' के समक्ष - अवतार वरिष्ठ के समक्ष पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं। हम भिखारी के वेश में वहाँ नहीं जा सकते। उत्तम शारीरिक सुख और धन जैसी छोटी-छोटी चीज़ों के लिए प्रार्थना मत करो। अगर तुम सिर्फ़ शारीरिक सुख चाहते हो तो फिर पशु और मनुष्य में अन्तर ही क्या हुआ? अपने को पशु से (घोर स्वार्थी 0 % निःस्वार्थ परता) थोड़ा तो ऊपर (यदि 100 नहीं तो 60 % निःस्वार्थर) समझो।
The first Task in becoming a Bhakta : अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भक्त बनने का पहला कार्य स्वर्ग तथा अन्य वस्तुओं की सभी इच्छाओं (तीनों ऐषणाओं) का त्याग करना है। प्रश्न यह है कि इन इच्छाओं से कैसे छुटकारा पाया जाए। What makes men miserable? मनुष्य को क्या दुःखी बनाता है? क्योंकि वे दास हैं, नियमों से बंधे हैं, प्रकृति के हाथों की कठपुतली हैं, खिलौनों की तरह इधर-उधर लुढ़कते रहते हैं। We are continually taking care of this body that anything can knock down; and so we are living in a constant state of fear. शरीर को स्वस्थ रखना पहला धर्म है , किन्तु भोग-सुख पाने के लिए हम इस शरीर की निरंतर देखभाल करते रहते हैं, जो किसी भी कारण से और कभी भी छूट सकता है। और इसलिए हम निरंतर भय की स्थिति में रहते हैं।
मैंने पढ़ा है कि एक हिरण को हर दिन औसतन 60 या 70 मील दौड़ना पड़ता है, क्योंकि वह डरा हुआ होता है। हमें यह जान लेना चाहिए कि हम हिरण से भी बदतर स्थिति में हैं। हिरण को थोड़ा आराम मिलता है, लेकिन हमें बिल्कुल नहीं। अगर हिरण को पर्याप्त घास मिल जाए तो वह संतुष्ट हो जाता है, लेकिन हम हमेशा अपनी इच्छाओं को बढ़ाते रहते हैं। जहाँ तक डर की बात है, तो हमारा जीवन डर के बंडलों के अलावा और क्या है? हिरण में केवल एक ही प्रकार का डर होता है, जैसे बाघ, भेड़िये आदि से। मनुष्य को पूरे ब्रह्मांड से डरना पड़ता है।
मृत्यु भय से मुक्त होने का उपाय क्या है ? We think that in 'salvation' at least our desires will be fulfilled, so we desire to go to heaven. उपयोगितावादी कहते हैं, "ईश्वर, मृत्यु और परलोक की बात मत करो; हम इन चीजों के बारे में कुछ नहीं जानते, चलो इस दुनिया में खुशी से रहते हैं।" अगर हम कर सकते तो मैं ऐसा करने वाला पहला व्यक्ति होता, लेकिन दुनिया हमें जब ऐसा करने दे तब न ? जब तक तुम प्रकृति के दास हो, तब तक ऐसा कैसे कर सकते हो? स्वर्ग जाने की इच्छा भी और अधिक भोग करने की इच्छा है। इसे त्यागना होगा। [मोक्ष का मतलब स्वर्ग जाना नहीं है , मोक्ष का अर्थ विसम्मोहित होजाना है कि मैं केवल एक नश्वर शरीर हूँ। मैं शाश्वत चैतन्य अमर आत्मा हूँ इसकी अनुभूति करना ही अंतिम पुरुषार्थ है।]
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