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सोमवार, 20 जनवरी 2025

🔱पंचदशी-7 🔱 तृप्ति दीप - पूर्ण सन्तुष्टि का दीपक [ Lamp of Satisfaction :शुद्ध चेतना की अनुभूति ही पूर्णता : Fulfillment on Realization of Pure Consciousness]

 तृप्तिदीपोनाम - सप्तमः परिच्छेदः ।[297-श्लोक ]  

पंचदशी 

अध्याय 7

[297 -श्लोक ]

तृप्ति दीप - पूर्ण सन्तुष्टि का दीपक 

शुद्ध चेतना की अनुभूति ही पूर्णता 

 आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मिति पुरुषः।

किमिच्छनकस्य कामाय शरीरमानुसंज्वेरेत् ॥ 1 ॥

 बृहदारण्यक उपनिषद (4.4.12) में कहा गया है कि जो मनुष्य (श्रुतिसिद्ध - जो शिष्य अपने गुरुदेव से प्राप्त इष्टदेव के नाम मंत्र को जप कर सिद्ध हो गया और उसने ) यह जान लिया है कि वह शरीर नहीं  शुद्ध आत्मा  है, तो फिर किस वस्तु को पाने की इच्छा से, किस कामना से, अपने शरीर के रुग्ण होने पर शरीर के साथ साथ खुद भी कष्ट का अनुभव करेगा ?

‘When a man (Purusha) has realised the identity of his own Self with the Paramatman, desiring what and for whose sake should he allow himself to be afflicted following the body’s affliction?’ 1.

अस्याः श्रुतेरभिप्रायः सम्यगत्र विचार्यते ।

जीवन्मुक्तस्य या तृप्तिः सा तेन विशदायते ॥ २॥

 इस अध्याय में इस कथन का गहन विश्लेषण किया गया है ताकि हम जीवन्मुक्त मनुष्य के पूर्ण आनंद की स्थिति को समझ सकें।  इस अध्याय में हम इस श्रुति के अर्थ का विस्तृत विश्लेषण करेंगे। जिससे हमें भी श्रुति-सिद्ध मनुष्य या जीवनमुक्ति का आनन्द लेने वाले उस मुक्त मनुष्य की पूर्ण संतुष्टि स्पष्ट रूप से ज्ञात होगी। 

2.In this chapter we exhaustively analyse the meaning of this Shruti. Thereby the perfect satisfaction of a man liberated in this life will be clearly known. 2.

मायाभासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतत्वतः ।

कल्पितावेव जीवेशौ ताभ्यां सर्वं प्रकल्पितम् ॥ ३॥

श्रुति कहती है कि ब्रह्म को प्रतिबिंबित करने वाली माया जीव और ईश्वर दोनों का निर्माण करती है। जीव और ईश्वर, अपनी बारी में, शेष ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं।

The Shruti says that Maya reflecting Brahman, creates both Jiva and Ishvara. Jiva and Ishvara, in their turn, create the whole of the rest of the universe. 3.

 तात्पर्य : ईश्वर और जीव दोनों ही माया  में ब्रह्म के प्रतिबिम्ब हैं।(=जगतउपादान रूपा त्रिगुणात्मिका प्रकृति सत्वगुण की शुद्धि और अशुद्धि के कारण दो प्रकार से विभक्त होकर माया और अविद्या के नाम के नाम से जानी जाती हैं। उसी माया और अविद्या में प्रतिबिंबित ब्रह्मचैतन्य ही क्रमशः समष्टि रूपी ईश्वर और व्यष्टि रूपी जीव नाम से जाने जाते हैं। इस प्रकार ईश्वर और जीव दोनों माया और अविद्या में ब्रह्म के प्रतिबिम्ब हैं। [#चिदानन्दमयब्रह्मप्रतिबिम्बसमन्विता ।तमोरजःसत्त्वगुणा प्रकृतिर्द्विविधा च सा ॥सत्त्वशुद्धाविशुद्धिभ्यां मायाऽविद्ये च ते मते ।मायाबिम्बोवशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः ॥अविद्यावशगस्त्वन्यस्तद्वैचित्र्यादनेकधा ।सा कारणशरीरं स्यात्प्राज्ञस्तत्राभिमानवान् ॥ (पंचदशी १/ १५/१६/ १७॥)] 

संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर और जीव दोनों की रचना है। # ईश्वर के सृजन करने के संकल्प से लेकर निर्मित वस्तुओं में उसके प्रवेश तक, ईश्वर की रचना है। (प्रवेश शब्द का अर्थ केवल ईश्वर की अंतर्यामी या सभी जीवों में आंतरिक नियंत्रक के रूप में उपस्थिति है)। जाग्रत आदि अवस्था अवस्था से मोक्ष प्राप्त होने तक मुक्ति तक, जो 'संसार' का निर्माण करती है, जीव की रचना है।

   ब्रह्माण्ड मूल ब्रह्म पर प्रकट होता है जो शुद्ध चेतना है, सभी प्राणियों की आत्मा है और अपरिवर्तनीय है। बुद्धि में ब्रह्म का प्रतिबिंब चिदाभास कहलाता है। ब्रह्म और बुद्धि के बीच परस्पर अधिरोपण के कारण चिदाभास स्वयं को बुद्धि के साथ तादात्म्य स्थापित करता है। बुद्धि के साथ तादात्म्य स्थापित करने वाला चिदाभास जीव है जीव स्वयं को एक कर्ता और भोक्ता के रूप में देखता है। स्थूल (अन्नमय) और सूक्ष्म शरीरों (प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आदि ) के साथ तादात्म्य स्थापित करने के कारण जीव स्वयं को उन सुखों और दुखों का श्रेय देता है जो केवल शरीरों से संबंधित हैं। जब जीव M/F शरीरों के साथ अपने तादात्म्य (अहं) का त्याग कर देता (या दासोअहं) मान लेताहै तो उसे पता चलता है कि वह मूल ब्रह्म है जो शुद्ध चेतना (आत्मा)  है और किसी भी चीज़ से उसका कोई संबंध नहीं है।

परोक्षमपरोक्षं च ज्ञानमज्ञानमित्यदः ।

नित्यापरोक्षरूपेऽपि द्वयं स्याद्दशमे यथा ॥ २२॥

'परोक्षत्व और अपरोक्षत्व', एवं 'ज्ञान और अज्ञान' [व्यावहारिक मनुष्य (ज्ञात) और वास्तविक मनुष्य (अज्ञात)] इस प्रकार के दो पहचान जैसे वेदान्त की कहानी 'दसवें व्यक्ति' के लिए होना सम्भव है , उसी प्रकार नित्य अपरोक्ष ब्रह्म के लिए (अद्वितीय peerless) और असङ्ग  (कूटस्थ, independent ) साक्षी चैतन्य बने रहना सम्भव है।  

The Self is ever cognized. We speak of Its being known directly or indirectly, being known or unknown, as in the illustration of the tenth man. 22.

   वेदांतिक ग्रंथों में एक कहानी - "दसम त्वमसि !" - बताई गई है जो यह स्पष्ट करती है कि गुरु से महावाक्य 'तत्त्वमसि' सुनने के परिणामस्वरूप सत्य का ज्ञान कैसे होता है दस अज्ञानी ग्रामीण किसी नदी को पार कर लिए । और दूसरे किनारे पर पहुँचकर उनमें से एक (नेता) ने यह देखने के लिए उनकी संख्या गिनी कि क्या वे सभी सुरक्षित पहुँच गए हैं या नहीं ? उसने केवल नौ गिने और महसूस किया कि उनमें से एक नदी में डूब गया होगा। फिर बाकी सभी ने गिने लेकिन परिणाम वही निकला। तब वे सभी उनमें से एक के डूब जाने पर शोक करने  लगे। तो एक सहानुभूति पूर्ण यात्री जो वहाँ से गुजर रहा था, उसने उनके रोने का कारण पूछा, फिर पूरी कहानी सुनी और सामने दस लोगों को देखकर उसे अंदाज हो गया कि वास्तव में क्या हुआ होगा ? उन्हें यह अहसास कराने के लिए वे वास्तव में दस ही थे और सभी सुरक्षित नदी पार कर लिए हैं ; उसने उनकी संख्या गिनने की पेशकश की। नौ गिनने के बाद, जब वह आखिरी आदमी के पास आया तो उसने धीरे उसके हाथ को दूसरे से मोड़कर  वापस उसके हृदय की ओर घुमा दिया  और कहा '"दसम त्वमसि !" - दसवें व्यक्ति तुम ही हो ”। वे लोग   बहुत खुश हुए और उन्होंने बुद्धिमान व्यक्ति को उनके द्वारा किए गए चमत्कार के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। तब प्रत्येक को एहसास हुआ कि वह अपनी अज्ञानता के कारण गिनते समय खुद को भूल गया था । [इसी तरह मैं भी भूल गया था कि मैं M/F देह नहीं हूँ -मेरी दो पहचान है , एक तो व्यावहारिक मनुष्य (Apparent Man)है नाम-रूप की उपाधि वाला-आधार कार्ड की पहचान वाला जो यहाँ PC में बैठा है, दूसरा वास्तविक मनुष्य (Real Man) वह साक्षी चैतन्यजो इस आधारकार्ड धारी या  देहधारी आत्मा के शरीर में निरंतर हो रहे परिवर्तनों को देखता है।]  इसी तरह, हममें से प्रत्येक मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है।  

अज्ञान अवृतिविक्षेप द्विविधा ज्ञान तृप्तयः ।

शोकापगम इत्येते योजनीयाश्चिदात्मनि ॥ २८॥

स्वयं के संबंध में ज्ञान या आत्मज्ञान को सात चरणों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है: अज्ञान (ignorance), अस्पष्टता (obscuration-ग्रहण जैसा आच्छादन), अधिरोपण (superimposition-अध्यास), अप्रत्यक्ष ज्ञान (indirect knowledge) , प्रत्यक्ष ज्ञान (direct knowledge), दुःख की समाप्ति (cessation of grief) और पूर्ण संतुष्टि (perfect satisfaction) का उदय। 28.

Seven stages can be distinguished in respect of the Self: ignorance, obscuration, superimposition, indirect knowledge, direct knowledge, cessation of grief and the rise of perfect satisfaction. 

   आत्मानुभूति की प्रक्रिया में सात चरण हैं। वे हैं, अज्ञान, अंधकार, आरोपण, अप्रत्यक्ष या मध्यस्थ ज्ञान, प्रत्यक्ष या तत्काल ज्ञान, दुःख का निवारण और   परम तृप्ति की भावना। जीव इस सत्य से अनभिज्ञ है कि वह तत्वतः ब्रह्म है। इस अज्ञान के कारण वह कहता है कि ब्रह्म प्रकट नहीं है और उसका अस्तित्व नहीं है। यह अंधकार है। वह अपने शरीर और मन (M/F शरीर मिथ्या अहं) के साथ तादात्म्य होने के कारण अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है। यह आरोपण है।

अस्ति कूटस्थ इत्यादौ परोक्षं वेत्ति वार्त्तया ।

पश्चात्कूटस्थ एवास्मीत्येवं वेत्ति विचारतः ॥ ३१॥

सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द जैसे किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु [श्री रामकृष्ण ] को खोजकर, उनसे श्रवण-मनन -निदिध्यान पद्धति में परोक्ष रूप से यह सुनना होगा कि 'कूटस्थ का अस्तित्व' है; उसके बाद यह विवेक-प्रयोग करते रहने से कि मैं मरणधर्मा नश्वर शरीर नहीं , अविनाशी आत्मा हूँ, और प्रलय होने या शरीर की मृत्यु होने से भी मेरी मृत्यु नहीं होती है, ऐसा अपरोक्ष रूप से ज्ञान होता है। - या 'मैं ही कूटस्थ (आत्मा) हूँ !' ऐसी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।

 [14 -4 -1986 कुम्भ, बनारस -ऊँच 1992 में माँ सारदा देवी की कृपा से ज्ञान होता है कि 'मैं ही कूटस्थ-शाश्वत चैतन्य स्पंदन हूँ !' ऐसी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।]            

From the teacher he comes to know of the existence of Kutastha indirectly. Then, by means of discrimination, he directly realises ’I am Kutastha’. 31.

 कर्ता भोक्तेत्येवमादिशोकजातं प्रमुञ्चति ।

कृतं कृत्यं प्रापणीयं प्राप्तमित्येव तुष्यति ॥ ३२॥

जब उसे योग्य गुरु द्वारा उपदेश दिया जाता है, तब उसे ब्रह्म के अस्तित्व का ज्ञान होता है। यह अप्रत्यक्ष या मध्यस्थ ज्ञान है। फिर वैराग्य आदि अपेक्षित गुणों को प्राप्त करके और शिक्षाओं पर चिंतन और मनन करके वह अनुभव करता है कि वह ब्रह्म है और उसी अनुभव में स्थित रहता है। यह प्रत्यक्ष या तत्काल ज्ञान है। अब वह इस गलत धारणा से मुक्त हो जाता है कि 'मैं कर्ता हूँ' और 'मैं भोक्ता हूँ '। इससे उसके सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। तब उसे लगता है कि उसने जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त कर लिया है और उसे परम तृप्ति का अहसास हो रहा है।

अब वह इस गलत विचार से मुक्त हो गया है कि वह अपने कर्मों का कर्ता और फल का भोक्ता है। इस दृढ़ विश्वास के साथ उसका दुःख समाप्त हो जाता है। उसे लगता है कि उसने वह सब पूरा कर लिया है जो उसे करना था और पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करता है। 32.

Now he is free from the erroneous idea that he is a doer and an enjoyer of the fruit of his actions. With this conviction his grief comes to an end. He feels that he has accomplished all that was to be accomplished and experiences perfect satisfaction. 32

जन्मादिकारान्त्वाक्यलक्षणेन भृगुः पुरा।

परोक्षेण गृहीत्वथ विचारात् व्यक्तिमक्षत् ॥ 63॥

प्राचीन काल में महर्षि भृगु ने ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का कारण ब्रह्म का चिन्तन करके अप्रत्यक्ष ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने आत्मा को पंचकोशों से पृथक करके प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया था।

   उपनिषद में यह कथन कि सृष्टि से पहले केवल ब्रह्म ही था (अध्याय 6.2.1) ब्रह्म का अप्रत्यक्ष ज्ञान (परोक्ष ज्ञान) देता है। यह कथन कि तू ही है (अध्याय 6.8.7) ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान (अपरोक्ष ज्ञान) देता है। ऋषि भृगु ने इस सूचक कथन से ब्रह्म का अप्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया कि ब्रह्म वह है जिससे ब्रह्मांड उत्पन्न होता है, जिससे वह संचालित होता है और जिसमें वह विलीन हो जाता है। उन्होंने पाँच कोशों की जाँच करके ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। (तैत्तिरीय उपनिषद, भृगु वल्ली)

 'वह तू है' कथन में, 'तू' शब्द मुख्य रूप से मन द्वारा सीमित शुद्ध चेतना या ब्रह्म को दर्शाता है, जिसे 'मैं' शब्द से दर्शाया गया है। माया द्वारा बद्ध शुद्ध चेतना ईश्वर है जो सर्वज्ञ है और ब्रह्मांड का कारण है। उसे मुख्य रूप से 'वह' शब्द से दर्शाया गया है। इन दो शब्दों के प्राथमिक अर्थों द्वारा निरूपित संस्थाओं में पूरी तरह से विरोधाभासी गुण होते हैं और इसलिए उनके बीच कोई पहचान नहीं हो सकती। पहचान केवल निहित अर्थों के बीच होती है। इस बिंदु पर अध्याय 1 में विस्तार से चर्चा की गई है।

   जब जीव और ब्रह्म के बीच यह तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तब केवल शुद्ध चेतना ही शेष रह जाती है जो परम आनन्द है। कुछ मतों का यह मत कि महावाक्य ब्रह्म का केवल अप्रत्यक्ष ज्ञान ही दे सकता है, गलत है।


   जीव और ब्रह्म के बीच अंतर केवल इस तथ्य में निहित है कि पूर्व में मन के रूप में उपाधि या सीमित सहायक है, जबकि बाद में नहीं है। लेकिन इस सहायक के लिए दोनों एक समान हैं। जिस तरह प्रतिबिंब केवल तब तक मौजूद रहता है जब तक कोई परावर्तक माध्यम मौजूद रहता है, जीवत्व केवल तब तक मौजूद रहता है जब तक मन, जो कि परावर्तक माध्यम है, मौजूद रहता है

अहमार्थपरित्यगदहं ब्रह्मेति धीः कुतः।

नैवांंशस्य हि त्यागो भागलक्षणयोदितः ॥ 88॥

(शंका) यदि 'मैं' का भाव त्याग दिया जाए तो 'मैं ब्रह्म हूँ' यह ज्ञान कैसे संभव है? (उत्तर) 'मैं' के मिथ्या भाग को त्यागना चाहिए तथा सत्य भाग को रखना चाहिए, ऐसा आंशिक निष्कासन के तार्किक नियम के अनुसार करना चाहिए।

अन्तःकरणसन्त्यगादवशिष्टे चिदात्मनि।

अहं ब्रह्मेति वाक्येन ब्रह्मत्वं साक्षिनक्ष्यते ॥ 89॥

जब आंतरिक इन्द्रिय का निषेध हो जाता है, तब केवल आंतरिक चेतना, साक्षी शेष रह जाता है। इसमें 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्य के अनुसार ब्रह्म को पहचाना जाता है।

   महावाक्य में, 'अहम् ब्रह्म अस्मि', जिसका अर्थ है 'मैं ब्रह्म हूँ', 'मैं' का प्राथमिक अर्थ शुद्ध आत्मा और मन का मिश्रण है। 'मैं' का निहित अर्थ केवल शुद्ध आत्मा है। इस प्रकार पहचान इस शुद्ध आत्मा और ब्रह्म के बीच है।

   किसी बाह्य वस्तु जैसे घड़े का ज्ञान, जो 'यह घड़ा है' के रूप का होता है, तथा ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान, जो 'मैं ब्रह्म हूँ' के रूप का होता है, इन दोनों में अंतर है। पहले मामले में, मन पहले घड़े के रूप में परिवर्तित होता है। इस परिवर्तन को वृत्ति कहते हैं। यह वृत्ति घड़े को ढके हुए अज्ञान को हटा देती है। फिर वृत्ति पर ब्रह्म या शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब पड़ने से 'यह घड़ा है' का ज्ञान उत्पन्न होता है। ब्रह्म के ज्ञान के मामले में भी ब्रह्म के रूप में एक वृत्ति होती है, जिसे अखंड-आकार-वृत्ति कहते हैं। इसके बाद वृत्ति पर ब्रह्म के प्रतिबिंब के दूसरे चरण की यहाँ आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ब्रह्म जड़ वस्तुओं के विपरीत स्वयं प्रकाशमान है। 

चक्षुरदीपावपेक्ष्यते घटदेरदर्शने तथा।

न दीपदर्शने बौद्ध चक्षुरेकमपेक्ष्यते ॥ 93॥

घड़े को देखने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं, आँख और दीपक का प्रकाश; लेकिन दीपक के प्रकाश को देखने के लिए केवल आँख की आवश्यकता है।

    यह घड़े को देखने तथा जलते हुए दीपक को देखने के बीच के अंतर के समान है। पहले मामले में आँख और प्रकाश दोनों आवश्यक हैं, लेकिन दूसरे मामले में दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, जहाँ बाहरी वस्तुओं के मामले में वृत्ति में ब्रह्म का प्रतिबिंब आवश्यक है, वहीं ब्रह्म की प्राप्ति के मामले में यह आवश्यक नहीं है। वृत्ति में ब्रह्म या चेतना का प्रतिबिंब 'फल' कहलाता है। इस प्रकार बाहरी वस्तु का ज्ञान 'फल' द्वारा होता है, लेकिन ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान (जिसे प्राप्ति कहते हैं) बिना किसी फल की सहायता के वृत्ति द्वारा ही होता है। इसलिए वेदांत में कहा गया है कि सभी वस्तुएँ 'फल व्याप्य' हैं, जबकि ब्रह्म 'वृत्ति व्याप्य' है

   ऊपर कहा जा चुका है कि मन ब्रह्म का रूप धारण करता है। अब प्रश्न उठता है कि जब ब्रह्म का कोई रूप नहीं है, तो मन को ब्रह्म का रूप धारण करने का क्या अर्थ है? इसका स्पष्टीकरण स्वामी विद्यारण्य ने स्वयं जीवनमुक्तिविवेक के अध्याय 3 में एक उदाहरण देकर किया है।

    मिट्टी का घड़ा बनते ही सर्वव्यापी आकाश से भर जाता है। फिर उसमें जल, चावल या अन्य पदार्थ भरना मनुष्य के प्रयत्न के कारण होता है। घड़े का जल आदि तो निकाला जा सकता है, परन्तु भीतर का आकाश कभी नहीं निकाला जा सकता। घड़े का मुँह बंद करने पर भी वह वहाँ बना रहता है। इसी प्रकार मन भी जन्म लेते समय आत्मचेतना से पूर्ण होकर अस्तित्व में आता है। जन्म के पश्चात वह गुण-दोष के प्रभाव से बर्तन, वस्त्र, रंग, स्वाद, सुख, दुःख आदि का रूप धारण कर लेता है, जैसे पिघले हुए ताँबे को साँचे में ढाला जाता है। इनमें से रंग, स्वाद आदि जो परिवर्तन अनात्म हैं, उन्हें मन से हटाया जा सकता है, परन्तु आत्मा का स्वरूप, जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर नहीं है, उसे हटाया नहीं जा सकता। इस प्रकार जब मन से अन्य सभी विचार हट जाते हैं, तब आत्मा का साक्षात्कार बिना किसी बाधा के हो जाता है। कहा गया है - "मन जो स्वभाव से ही आत्मा और अनात्म दोनों में से किसी एक रूप को धारण करने को प्रवृत्त रहता है, उसे आत्मा का ही रूप धारण करके अनात्म के बोध को पृष्ठभूमि में डाल देना चाहिए।" और यह भी कि - "मन पुण्य और पाप के प्रभाव से सुख, दुःख आदि का रूप धारण करता है, जबकि मन का स्वरूप, अपने मूल रूप में, किसी बाह्य कारण से बद्ध नहीं होता। सभी परिवर्तनों से रहित मन में परम आनन्द प्रकट होता है।" इस प्रकार जब मन अन्य सभी विचारों से शून्य हो जाता है, तब आत्मज्ञान उत्पन्न होता है।   

अस्तु बोधोऽपरोक्षोऽत्र महावाक्यात् तथाप्यसौ।

न दृढः श्रवणदीनमाचार्यैः पुनरीरानात् ॥ 97॥

सद्गुरु के मुख से महा वाक्यों का श्रवण करने  से ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, किन्तु वह तुरन्त ही दृढ़ नहीं हो जाता। इसलिए श्री शंकराचार्य ने बार-बार श्रवण, मनन और निदध्यासन के महत्व पर बल दिया है।              

   'वह तू ही है' जैसे महावाक्यों से ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, किन्तु मन में संशय और मिथ्या धारणाओं जैसे दोषों के कारण यह ज्ञान दृढ़ नहीं हो पाता। इसलिए शास्त्रों का श्रवण करना, उन पर मनन करना और उनके तात्पर्य पर बार-बार ध्यान करना तथा इन्द्रिय-निग्रह, मन-निग्रह आदि साधनाओं का अभ्यास करना आवश्यक है।  

अहं ब्रह्मेति वाक्यार्थबोधो यावदृधिभवेत्।

शमादिसहितस्तावदाभ्यसेच्छ्रवाणादिकम् ॥ 98॥

"जब तक 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्य के अर्थ की सही समझ पूरी तरह से दृढ़ न हो जाए, तब तक श्रुति का अध्ययन करते रहना चाहिए, उसके अर्थ पर गहराई से विचार करते रहना चाहिए, साथ ही आंतरिक संयम और अन्य गुणों का अभ्यास करते रहना चाहिए।" 

वेदान्तानामशेषषाणामादिमध्यावसानतः।

ब्रह्मात्मन्येव तरंगमितिधीः श्रवणं भवेत् ॥ 101॥

'श्रवण' वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा यह विश्वास हो जाता है कि वेद अपने आदि, मध्य तथा अन्त में जीव और ब्रह्म की एकता का उपदेश देते हैं और यही वेदान्त का सार है।

'श्रवण' वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा यह विश्वास प्राप्त होता है कि वेदों में जीव और ब्रह्म की एकता घोषित की गई है 'मनन ' का अर्थ है तर्क की कसौटी पर कस कर सुनी गई बातों की सत्यता के बारे में स्वयं को संतुष्ट करना। 

बहुजन्मदृधाभ्यासदेहादिश्वत्मधीः क्षणात्।

पुनःपुनरुदेत्येवं जगत्सत्यत्वधीरपि ॥ 103॥

जीव अनेक जन्मों के दृढ़ अभ्यास के कारण बार-बार, क्षण-क्षण में यह सोचता है कि यह शरीर ही आत्मा है और यह जगत् सत्य है। 103. 

निदिध्यासन करते रहने से असंख्य जन्मों से अर्जित गलत धारणा को दूर करता है कि शरीर ही आत्मा है और संसार सत्य है।

विपरीत भावनायेमकाग्र्यत्सा निवर्तते।

तत्त्वोपदेशात् प्रागेव भवत्येत्दुपासनात् ॥ 104॥

इसे भ्रांतिपूर्ण विचार कहते हैं। यह एकाग्रचित्त ध्यान के अभ्यास से दूर हो जाता है। यह एकाग्रता निर्गुण ब्रह्म के संबंध में दीक्षा से भी पहले ईश्वर की उपासना से उत्पन्न होती है। 

उपस्तयोऽत एवत्र ब्रह्मशास्त्रेऽपि चिन्तिताः।

प्राग्नाभ्यासिनः पश्चादब्रह्माभ्यसेन तद्भवेत् ॥ 105॥

इसलिए वेदान्त के ग्रन्थों में ईश्वर की अनेक प्रकार की उपासना की चर्चा की गई है। जिन लोगों ने ब्रह्म दीक्षा से पहले उपासना नहीं की है, उन्हें ब्रह्म ध्यान के अभ्यास द्वारा एकाग्रता की यह शक्ति प्राप्त करनी होगी। ईश्वर की आराधना से मन की एकाग्रता प्राप्त होती है।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 108॥

गीता कहती है: 'जो लोग एकाग्रचित्त होकर मुझमें मन लगाते हैं और मुझे ही अपना स्वरूप मानकर ध्यान करते हैं, मैं उन भक्तों को उनकी आवश्यकता की पूर्ति करता हूँ और उनके पास जो कुछ है उसकी रक्षा करता हूँ।' 108.

इति श्रुतिस्मृति नित्यमात्मन्येकग्रतां धीयः।

विधत्तो विपरीतया भावनायाः क्षयाय हि ॥ 109॥

इस प्रकार श्रुति और स्मृति दोनों ही आत्मा और जगत् के विषय में भ्रांतिपूर्ण धारणा को दूर करने के लिए मन को आत्मा पर निरंतर एकाग्र करने का आदेश देती हैं

आत्मा देहादिभेदोऽयं मिथ्या चेदं जगत् तयोः।

देहाद्यात्मत्वसत्यत्वधीर्विपर्ययभावन ॥१११ ॥

भ्रान्तिपूर्ण धारणा यह है कि शरीर को आत्मा और जगत् को सत्य मान लिया जाता है, जबकि सत्य यह है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जगत् मिथ्या है

मूर्तिप्रत्ययसान्तत्यमन्यानन्तरितं धीयः।

ध्यानं तत्रातिनिर्बंधो मनसश्चञ्चलात्मनः ॥ 119॥

ध्यान का अर्थ है किसी अन्य विचार के हस्तक्षेप के बिना किसी देवता के स्वरूप का निरंतर चिंतन करना। ऐसे ध्यान से मन जो स्वाभाविक रूप से चंचल है, उसे पूर्णतः वश में किया जाना चाहिए। 119.

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृधम्।

तस्याहं निग्रहं मनये वयोरिव सुदुष्करम् ॥ 20॥

गीता में अर्जुन कहते हैं: 'हे कृष्ण! मन चंचल, वेगवान, असाध्य और प्रबल आसक्त है। मैं इसे वायु के समान वश में करना कठिन समझता हूँ।' 120.

अप्यब्धिपानान्महतः सुमेरुन्मूलानादपि।

अपि वह्न्याश्नात् साधो विमोश्चित्तनिग्रहः ॥ 121॥

योग-वासिष्ठ में कहा गया है: 'मन को वश में करना, सम्पूर्ण समुद्र को पी जाने, मेरु पर्वत को हटा देने, अथवा अग्नि को भस्म कर देने से भी अधिक कठिन है।' 121.

तमेवैकं विजानीत ह्यन्या वाचो विमुञ्चथ।

इति श्रुतं तत्न्यात्र वाचो विग्लापनन्तविति ॥ 128॥

श्रुति कहती है कि 'उस एक को जानो और सब व्यर्थ की बातें छोड़ दो' और फिर 'तर्क और बातें केवल वाणी की शक्ति को थका देती हैं।' 128.

आहारादि त्यजन्नैव जीवेच्छस्त्रान्तरं त्यजन्।

किं न जीवसि येनैवं करोश्यत्र दुराग्रहम् ॥ 129॥

यदि तुम भोजन छोड़ दोगे तो जीवित नहीं रहोगे; किन्तु यदि तुम (शास्त्रों के अतिरिक्त) अध्ययन छोड़ दोगे तो क्या तुम जीवित नहीं रहोगे? तो फिर ऐसे स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन) पर इतना जोर क्यों दिया जाता है? 129.

जनकादेः कथं राज्यमिति चेद्यदृबोधतः।

तथा तवापि चेत्तर्कं पत् यद्वा कृषिं कुरु ॥ 130॥

(शंका) - फिर राजर्षि जनक आदि प्राचीन ज्ञानी लोग राज्य कैसे चलाते थे ? 

(उत्तर) - वे 'सत्य' के प्रति अपने विश्वास के कारण ही राज्य चलाने में समर्थ थे। यदि तुममें भी वह विश्वास है, तो तुम तर्क करो, कृषि करो अथवा जो भी तुम्हें अच्छा लगे, करो।

मिथ्यात्ववासनादार्ध्यये प्रारब्धक्षायकाङ्क्षया।

अक्लिष्यन्तः प्रवर्तन्ते स्वस्वकर्म ऑफरः ॥133 ॥

एक बार जब ज्ञानी को संसार की मिथ्याता का बोध हो जाता है, तब वह अविचल मन से अपने कर्मफल (प्रारब्ध ?)  को क्षीण होने देता है और तद्नुसार सांसारिक कार्यों में लग जाता है। 

ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चात्र समेऽप्यारबभाकर्मणि।

न क्लेषो ज्ञानिनो गाधिरामान्मूढः क्लिष्यत्यधैर्यतः ॥134॥

अपने कर्मफल के अनुभव में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के पास कोई विकल्प नहीं होता; किन्तु ज्ञानी धैर्यवान और अविचलित रहता है, जबकि अज्ञानी अधीर रहता है और दुःख और पीड़ा सहता है। 

मार्गे गन्त्रोर्द्वयोः श्रान्तौ समायामप्यदूरताम्।

जानन्धैर्याद्रुतं गच्छेदन्यास्तिष्ठति दीनधिः ॥ 135॥

यात्रा पर निकले दो यात्री समान रूप से थके हुए हो सकते हैं, लेकिन जो जानता है कि उसकी मंजिल अधिक दूर नहीं है, वह धैर्य के साथ तेजी से आगे बढ़ता है, जबकि अज्ञानी निराश होकर रास्ते में अधिक समय तक रुका रहता है।

जगन्मिथ्यात्वधीभाववादाकशिपतौ काम्यकामुकौ।

तयोरभावे सन्तपः शामेन्निःस्नेहदीपवत् ॥ 136॥

जब संसार की मिथ्याता का बोध हो जाता है, तब न तो इच्छा रहती है, न ही इच्छा करने वाला। इनके अभाव में अतृप्त इच्छाओं से होने वाला दुःख, तेल के बिना दीपक की लौ की तरह समाप्त हो जाता है।

प्रारब्धकर्मप्रबल्याद्भोगेश्विच्छा भवेद्यदि।

क्लिश्ण्येव तदाप्येष भुङ्क्ते विष्टिगृहीतवत् ॥ 143॥

यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपने कर्मफल के बल से कामनाओं का फल भोगने के लिए विवश हो जाए, तो वह उस व्यक्ति के समान उदासीनता और बड़ी अनिच्छा के साथ ऐसा करता है, जो श्रम करने के लिए प्रेरित होता है।

भुञ्जानास्तापि बुधाः श्रद्धावन्तः कुटुम्बिनः।

नाद्यापि कर्म नश्चिन्नमिति क्लिश्यन्ति सन्ततः ॥ 144॥

ज्ञानी पुरुष जो आध्यात्मिक श्रद्धा रखते हैं, यदि उन्हें कर्मफल के कारण अनेक सम्बन्धियों के साथ गृहस्थ जीवन व्यतीत करना पड़े, तो वे सदैव दुःखपूर्वक सोचते हैं कि 'अहा! मेरे कर्म-बन्धन अभी भी नहीं टूटे हैं।' 144.

   जिस व्यक्ति ने यह जान लिया है कि वह स्वयं ही आत्मा है, वह जानता है कि संसार केवल माया के कारण ब्रह्म का आभास मात्र है, उसकी कोई पूर्ण वास्तविकता नहीं है। इसलिए वह संसार के सुख-दुःखों से प्रभावित नहीं होता। परंतु वह अपने कर्मानुसार संसार के कल्याण के लिए ही विभिन्न कार्यों में संलग्न रहता है। 

जिस कर्म के कारण यह वर्तमान जन्म हुआ है (प्रारब्ध कर्म) वह आत्मज्ञान के बाद भी जारी रहता है, परंतु आत्मज्ञानी व्यक्ति जो कुछ भी होता है, उससे अविचलित रहता है, जबकि अज्ञानी व्यक्ति कुछ भी प्रतिकूल होने पर दुःख भोगता है। जब यह बोध दृढ़ हो जाता है कि संसार सत्य नहीं है, तब न तो इच्छाएं रहती हैं, न ही इच्छा करने वाला। परिणामस्वरूप सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं, जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक की लौ बुझ जाती है। 

गंधर्वपत्तने किंचिन्नेन्द्रजालिकनिर्मितम्।

जानन् कामयते बुरा जिहासति हसन्निदम् ॥ 137॥

जब आगंतुक जादूगर के गंधर्व नगर और उसकी वस्तुओं को मिथ्या जानता है, तो वह किसी भी चीज की इच्छा नहीं करता तथा उसकी भ्रामक प्रकृति पर हंसता है। 137.

जादू के खेल में देखने वाला दर्शक यदि यह जानता है कि जादूगर द्वारा निर्मित वस्तुएं वास्तविक नहीं हैं, तो वह केवल खेल का आनंद लेता है और उन वस्तुओं की इच्छा नहीं करता। इसी प्रकार आत्मज्ञानी व्यक्ति को सभी सांसारिक वस्तुओं की असत्यता का विश्वास हो जाता है और वह उनके लिए कोई इच्छा नहीं रखता। 

अर्थानामर्जने क्लेशस्तथैव परिरक्षणे।

नाशे दुःखं व्यये दुःखं धीरथन्क्लेशकारिणः ॥ 139॥

'धन कमाने में चिन्ता, पालन-पोषण में चिन्ता, हानि में दुःख तथा व्यय में दुःख लाता है। इस दुःख-उत्पादक धन पर धिक्कार है!'। 139.

धन कमाने के प्रयास दुःख का कारण बनते हैं; धन की रक्षा के लिए सदैव चिंता बनी रहती है और जब वह खर्च हो जाता है या खो जाता है तो दुःख होता है। इस प्रकार धन प्रत्येक अवस्था में दुःख देता है। संसार में जो भी वस्तुएँ हैं, जिनसे लोग सुख पाने की आशा करते हैं, उनमें कुछ दोष अवश्य होते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वे दोषों को देखकर उनकी इच्छा का त्याग कर दें। संसार में जो वस्तुएँ और घटनाएँ हैं, उन्हें सत्य मानने की भ्रांति के कारण ही सभी दुःख होते हैं। भोगों से कामनाएँ कभी शांत नहीं होतीं, वे केवल बढ़ती ही हैं, जैसे घी से अग्नि बढ़ती है। लेकिन जब सांसारिक सुखों की अनित्यता का बोध हो जाता है, तो कामनाओं की पूर्ति से कामना का अंत हो जाता है। 

विवेकेन परिक्लिश्यन्नल्पभोगेन तृप्यति।

अन्यथानन्तभोगेऽपि नैव तृप्यति करहिचित् ॥ 146॥

विवेक संपन्न मनुष्य भोगों के दोषों को देखकर थोड़े से भोगों से भी संतुष्ट हो जाता है, जबकि मोहग्रस्त मनुष्य अनंत भोगों से भी संतुष्ट नहीं होता। 146.

मनसो निगृहितस्य लीलाभोगोऽल्पकोऽपि यः।

तमेवल्लब्धविस्तारं क्लिष्टत्वाद्भु मन्यते ॥ 149॥

जो मनुष्य अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह थोड़े से सुख से भी संतुष्ट हो जाता है। वह भली-भाँति जानता है कि सुख अनित्य हैं और उसके बाद दुःख आते हैं। उसके लिए थोड़ा-सा सुख भी पर्याप्त है। 149

जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह थोड़े से भोग से भी संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि सुख अनित्य हैं और उसके बाद दुःख आता है। 

बद्ध्मुक्तो महिपालो ग्राममात्रेण तुष्यति।

परैर्न बद्धो नाक्रान्तो न राष्ट्रं बहु मन्यते ॥ 150॥

जेल से मुक्त होने पर राजा एक गांव पर राज्य करके संतुष्ट रहता है, जबकि जब वह न तो जेल गया था और न ही जीता गया था, तब वह राज्य को भी अधिक महत्व नहीं देता था।शत्रु द्वारा बंदी बनाए गए राजा को यदि मुक्त कर दिया जाए, तो वह एक गाँव का भी शासक बनकर संतुष्ट हो जाएगा, जबकि जिस राजा पर कभी किसी ने विजय प्राप्त नहीं की, वह अपने राज्य से भी संतुष्ट नहीं होता।

विवेके जाग्रति सति दोषदर्शनलक्षणे।

कत्थमारब्धकर्मापि भोगेच्छं जनयिष्यति ॥ 151॥

(शंका) - जब भोगों के दोषों के विषय में विवेक सदैव जागृत रहता है, तब उसके कर्मफल द्वारा भोगों की इच्छा उसमें कैसे उत्पन्न हो सकती है? 151.

नैष दोषो यतोऽनेकविधं प्रारब्धमीक्ष्यते।

इच्छानिच्छा परेच्छा च प्रारब्धं त्रिविधं स्मृतम् ॥ 152॥

(उत्तर) यहाँ कोई असंगति नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध कर्म अनेक प्रकार से भोग उत्पन्न करता है। प्रारब्ध कर्म तीन प्रकार के होते हैं - 'इच्छा सहित', 'इच्छा के अभाव में' तथा 'किसी अन्य की इच्छा से'। 152.

   प्रारब्ध कर्म तीन तरह से काम करता है- अपनी इच्छा से प्रेरित होकर कार्य करना, इच्छा के बिना कार्य करना और किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा से कार्य करना। पहला प्रकार वह है जहाँ प्रारब्ध कर्म स्वयं इच्छा उत्पन्न करता है और व्यक्ति को उसकी पूर्ति के लिए कार्य करने के लिए मजबूर करता है। दूसरा वह है जहाँ इच्छा के बिना भी व्यक्ति परिस्थितियों के कारण किसी विशेष कार्य को करने के लिए मजबूर होता है। तीसरे प्रकार का कर्म एक उदाहरण एक आत्मज्ञानी व्यक्ति का अपने शिष्यों की सच्ची विनती के जवाब में उन्हें शिक्षा देना है। यहाँ शिष्यों का कर्म ही है जो उन्हें शिक्षा देने का कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।

अपथ्यसेविन्श्चौरा राजदार्रता अपि।

जानन्त एव स्वनार्थमिच्छन्त्यर्ब्धकर्मतः ॥ 153॥

हानिकारक भोजन के प्रति आसक्त रोगी, चोर तथा राजा की पत्नियों के साथ अवैध सम्बन्ध रखने वाले लोग अपने कर्मों के परिणाम को भली-भाँति जानते हैं, फिर भी वे अपने कर्मफल के कारण ऐसा करने के लिए विवश होते हैं। 153.

यथासं भाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि।

तदा दु:खैर्न लिप्येर्न नल-राम-युधिष्ठिरः ॥ 156॥

यदि कर्मफल को टालना सम्भव होता तो नल, राम और युधिष्ठिर को ये दुःख न भोगने पड़ते। 156.

यद्भावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा।

इति चिंताविष्णोऽयं बोधो ब्रह्मानिवर्तकः ॥ 168॥

जो हमारे पूर्व कर्मों के कारण होने वाला नहीं है, वह नहीं होगा; जो होने वाला है, वह अवश्य होगा। ऐसा ज्ञान चिंता रूपी विष का निश्चित प्रतिकारक है; यह शोक रूपी मोह को दूर करता है।

   जो होना तय है वह अवश्य होगा और जो नहीं होना तय है वह सभी प्रयासों के बावजूद कभी नहीं होगा। इस सत्य का बोध व्यक्ति को चिंता और शोक से मुक्त कर देगा।

   प्रारब्ध कर्म का प्रभाव प्रबुद्ध व्यक्ति के साथ-साथ अज्ञानी व्यक्ति पर भी पड़ता है। लेकिन अज्ञानी व्यक्ति जहां परिणामों को वास्तविक मानता है और उसका आनंद उठाता है या उसे कष्ट होता है, वहीं प्रबुद्ध व्यक्ति परिणाम के प्रति उदासीन रहता है और इसलिए वह कभी भी दुःख या निराशा से प्रभावित नहीं होता।

स्वप्नेन्द्रजालसदृशमचिन्त्यरचनात्मकम्।

दृष्टनष्टं जगत्पश्यन्कथं तत्रानुर्जति ॥ 171॥

बुद्धिमान व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि सांसारिक इच्छाएँ स्वप्न की वस्तुओं या जादुई रचनाओं के समान हैं। वह यह भी जानता है कि संसार का स्वरूप अज्ञेय है और इसकी वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं। फिर वह उनमें कैसे आसक्त हो सकता है?

  चिरं तयोः सर्वसाम्यमनुसंध्या जागरे।

सत्यत्वबुद्धिं संत्यज्य नानुर्जति पूर्ववत् ॥ 173॥

साधक को चाहिए कि वह दीर्घकाल तक निरीक्षण करके स्वप्न और जाग्रत जगत की मूल समानता को खोजे। फिर उसे सांसारिक वस्तुओं की वास्तविकता की धारणा को त्याग देना चाहिए और उनसे आसक्त होना छोड़ देना चाहिए। 173. यदि कोई व्यक्ति अपने जाग्रत और स्वप्न के अनुभवों की सावधानीपूर्वक जांच करे, तो उसे पता चलेगा कि वे बहुत समान हैं। तब उसे यह धारणा छोड़ देनी चाहिए कि संसार की वस्तुएं वास्तविक हैं और उनके प्रति आसक्ति से मुक्त हो जाना चाहिए

इन्द्रजालमिदं द्वैतमचिन्त्यरचनात्वतः।

इत्यविस्मृतो हानिः का वा प्रारब्धभोगः ॥ 174॥

यह द्वैतमय जगत् एक मायावी सृष्टि के समान है, जिसका कारण समझ से परे है। जो बुद्धिमान् मनुष्य इस बात को नहीं भूलता, उसे इससे क्या फर्क पड़ता है कि उसके पूर्व कर्म उसे फलित करते हैं ? 174.

द्वैत का यह संसार जादू से निर्मित किसी वस्तु के समान है। इसे तर्क से नहीं समझाया जा सकता। जो बुद्धिमान व्यक्ति इसे याद रखता है, वह अपने प्रारब्ध कर्म के प्रभावों से प्रभावित नहीं होगा। ब्रह्म की प्राप्ति से निरपेक्ष दृष्टिकोण से संसार की अवास्तविकता का बोध होता है। लेकिन इससे प्रारब्ध कर्म नष्ट नहीं होता जो तब तक अपना प्रभाव देता रहता है जब तक कि वह समाप्त न हो जाए।

अनपह्नुत्य लोकास्तदिन्द्रजालमिदं त्वति।

जानन्त्येवन्पह्नुत्य भोगं मायात्वधीस्तथा ॥ 180॥

लोग जादुई तमाशे को मिथ्या जानते हैं, परन्तु इस ज्ञान में तमाशे का नाश नहीं होता। अतः बाह्य वस्तुओं को लुप्त किये बिना अथवा उनसे आनन्द का अन्त किये बिना उनकी मिथ्याता को जानना सम्भव है। 180.

ज्ञान और प्रारब्ध कर्म के प्रभाव एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं और सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, जैसे कोई  दर्शक जादू के शो का आनंद तब भी ले सकता है जब उसे पूरी तरह पता हो कि वह जो देख रहा है वह वास्तविक नहीं है। 

तदिष्टमेष्टव्यमायामयत्वस्य समीक्षात्।

इच्छन्नप्यज्ञवन्नेच्छेत्किमिच्छन्निति हि श्रुतम् ॥ 190॥

हमें भी यह पसंद है, क्योंकि संसार के मायावी स्वरूप को समझने के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। लेकिन यद्यपि बुद्धिमान व्यक्ति की इच्छाएँ हो सकती हैं, फिर भी वे अज्ञानी व्यक्ति की इच्छाओं की तरह बाध्यकारी नहीं होतीं। 'क्या चाहते हैं' पाठ का यही आशय है। 190.

संसार की असत्यता को समझने के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। भले ही ज्ञानी व्यक्ति के मन में इच्छाएँ उठती हों, लेकिन वे उसे अज्ञानी व्यक्ति की तरह नहीं बांधतीं, क्योंकि वह सभी आसक्तियों से मुक्त होता है।

जगन्मिथ्यात्वात् स्वात्मासङ्गत्वस्य समीक्षणात्।

कस्य कामयेति वाचो भोक्त्रभावविवक्षया ॥ 192॥

क्योंकि वह जगत् की भ्रांति के समान आत्मा के भी असंयोग को मानता है, इसलिए ज्ञाता को अपने कर्ता और भोक्ता होने का भान नहीं रहता। इस अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया श्लोक 'वह किसकी कामना करे?' उसी पर लागू होता है। 192.

ज्ञानी व्यक्ति अपने आपको कर्ता या भोक्ता नहीं मानता। इस अध्याय के प्रथम श्लोक में दिए गए कथन का यही अर्थ है कि "जिस व्यक्ति ने यह जान लिया है कि वह शुद्ध आत्मा (ब्रह्म) है, वह किसी भी इच्छा की पूर्ति के लिए अपने शरीर को कष्ट नहीं देगा"।   

किं कूटस्थश्चिदाभासोऽथ वा किमुभयात्मक:।

भोक्ता तत्र न कूटस्थोऽसङगत्वाद्भोक्तृतं व्रजेत् ॥ 194॥

 अब इस प्रश्न की जांच की जा रही है कि कर्ता और भोक्ता कौन है ?क्या वह अपरिवर्तनीय कूटस्थ (ब्रह्म) है या प्रतिबिंबित चेतना (चिदाभास) है या दोनों का मिश्रण है? कूटस्थ भोक्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह संगतिहीन है।  भोग का तात्पर्य सुख और दुख के अनुभव के साथ तादात्म्य के परिणामस्वरूप परिवर्तन से है। 

उभयात्मक एवतो लोके भोक्ता निगद्यते।

तदृगात्मानमारभ्यो कूटस्थः शेषितः श्रुतौ ॥ 197॥

अतः सामान्य भाषा में चिदाभास को कूटस्थ के साथ मिलकर भोक्ता माना जाता है। किन्तु श्रुति दोनों प्रकार के आत्म से आरम्भ करती है और निष्कर्ष निकालती है कि केवल कूटस्थ ही शेष रहता है। 197.चूंकि ब्रह्म अपरिवर्तनीय है, इसलिए वह भोक्ता नहीं हो सकता। चेतना के प्रतिबिंब का शुद्ध चेतना से अलग कोई अलग अस्तित्व नहीं है और इसलिए वह भी भोक्ता नहीं हो सकता। इसलिए आमतौर पर यह सोचा जाता है कि दोनों का मिश्रण ही भोक्ता है। लेकिन यह भी सही नहीं हो सकता क्योंकि श्रुति कहती है कि वास्तविकता में केवल कूटस्थ या शुद्ध चेतना ही विद्यमान है।

कोटस्थसत्यं स्वस्मिन्नध्यस्यात्मा विवेकतः।

तात्विकिं भोक्तृतं मत्वा न कदाचिज्जिहसति ॥ 200॥

अज्ञान के कारण भोक्ता कूटस्थ की वास्तविकता को अपने ऊपर आरोपित कर लेता है। फलस्वरूप वह अपने भोग को ही वास्तविक मान लेता है और उसे छोड़ना नहीं चाहता। 200.

अज्ञानता के कारण जीव अपने आप को वास्तविकता मानता है जो कि केवल कूटस्थ की प्रकृति है। परिणामस्वरूप वह सोचता है कि उसका भोग वास्तविक है और वह इसे छोड़ना नहीं चाहता।

भोक्ता स्वस्यैव भोगाय पतिजायादिमिच्छति।

एष लोकवृत्तान्तान्तः श्रुत्या सम्यग्नुदितः ॥ 201॥

भोगी अपने सुख के लिए पत्नी आदि की इच्छा रखता है। इस प्रचलित धारणा का वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद में बहुत अच्छे ढंग से किया गया है।

वह अपने भोग के लिए पत्नी, पुत्र, संपत्ति आदि चाहता है। 2.4.5 में कहा गया है कि पत्नी, पुत्र और अन्य सभी को जीव केवल अपने लिए ही प्रेम करता है, पत्नी, पुत्र आदि के लिए नहीं। व्यक्ति अपनी पत्नी, पुत्र आदि से तभी तक प्रेम करता है, जब तक वे उसे सुख देते हैं। 

इति न्यायेन सर्वसमाद्भोग्यजाताद्विरक्तधीः।

उपसंहृत्य तं प्रियं भोक्त्र्येवं बुभुत्सते ॥ 204॥

इस विधि का पालन करते हुए साधक को बाह्य जगत के सभी आनन्ददायक पदार्थों के प्रति उदासीन हो जाना चाहिए तथा उनके प्रति जो प्रेम वह अनुभव करता है उसे आत्मा की ओर लगाना चाहिए तथा उसे जानने की इच्छा करनी चाहिए।इस प्रकार व्यक्ति का स्वयं का आत्म ही निःस्वार्थ प्रेम का विषय है। इसलिए आध्यात्मिक साधक को संसार के सभी भोगों के प्रति वैराग्य प्राप्त करना चाहिए और अपने प्रेम को आत्मा की ओर लगाना चाहिए, जो कि उसका स्वयं का आत्म है। उसे अपना ध्यान हर समय आत्मा पर ही केन्द्रित रखना चाहिए और शरीर को आत्मा से अलग रखना चाहिए

   यत्र यद्दर्शते दृष्टा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।

तत्रैव तन्नेतरत्रेत्यनुभूतिर्हि संमता॥ 211॥

यह सामान्य अनुभव है कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं एक दूसरे से भिन्न हैं, लेकिन अनुभव करने वाली चेतना एक ही है। 211.यह सामान्य अनुभव है कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। प्रत्येक अवस्था में होने वाले अनुभव अन्य दो अवस्थाओं के अनुभवों से सर्वथा भिन्न होते हैं। लेकिन चेतना, जो भोक्ता है, सभी अवस्थाओं में एक समान है। 

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि प्रपञ्चं यत्प्रकाशते।

तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्व बंधैः प्रमुच्यते ॥ 213॥

'जब मनुष्य उस ब्रह्म के साथ अपनी एकता को जान लेता है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों लोकों को प्रकाशित करता है, तब वह सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।'

एक एव आत्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।

स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते ॥ 214॥

'जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में आत्मा को एक ही समझना चाहिए। जो आत्मा अपने को इन तीनों अवस्थाओं से परे जानता है, वह पुनर्जन्म से मुक्त है।' 

जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा की इस शुद्ध चेतना, जो ब्रह्म है, के साथ एकरूपता का बोध कर लेता है, तो वह अज्ञानजनित बंधन से मुक्त हो जाता है। 

एवं विवेचिते तत्त्वे विज्ञामयशब्दितः।

चिदाभासो विकारी यो भोक्तृत्वं तस्य शिष्यते ॥ 216॥

जब आत्मा इस प्रकार भेद कर ली जाती है, तब जो भोक्ता शेष रह जाता है, वह चिदाभास या जीव है, जिसे बुद्धि का आवरण भी कहते हैं और जो परिवर्तनशील है।यह आत्मा, जो ब्रह्म है, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से परे है। यह साक्षी है, सदा आनंदमय है, और न तो भोक्ता है, न भोग है, न भोग का विषय है। जब आत्मा को इस प्रकार भेद कर दिया जाता है, तो भोक्ता के रूप में जो शेष रह जाता है, वह चिदाभास या जीव है, जिसे बुद्धि-कोश भी कहते हैं और जो निरंतर परिवर्तनशील है

मायकोऽयं चिदाभासः श्रुतेरनुभवादपि।

इन्द्रजालं जगत्प्रोक्तं तदन्तःपतियं यतः ॥ 217॥

यह चिदाभास माया की उपज है। श्रुति और अनुभव दोनों ही इसे प्रमाणित करते हैं। संसार एक जादुई तमाशा है और चिदाभास भी इसमें सम्मिलित है। 217.

यह संसार जादू की रचना है और चिदाभास इसका एक भाग है। चिदाभास को शुद्ध चेतना से बार-बार भेद करने पर व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि कूटस्थ के अलावा जीव का कोई अस्तित्व नहीं है और जीव कूटस्थ के अलावा और कुछ नहीं है। तब बाह्य वस्तुओं के भोग की सारी इच्छा समाप्त हो जाती है। 

विविच्य नाशं निश्चित्य पुनर्भोगं न वाञ्चति।

मुमूर्षुः शयितो भूमौ विवाहं कोऽभिवाञ्चति ॥ 219॥

जब चिदाभास या जीव को यह विश्वास हो जाता है कि वह नाश को प्राप्त हो सकता है, तब उसे भोग की इच्छा नहीं रहती। क्या मृत्यु-शय्या पर पड़ा हुआ मनुष्य विवाह की इच्छा रखता है? 219.

व्यक्ति केवल उन्हीं वस्तुओं की इच्छा रखता है जो उससे भिन्न समझी जाती हैं। जब व्यक्ति को यह एहसास हो जाता है कि वह कूटस्थ या ब्रह्म है, तो उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं रह जाती, क्योंकि सब कुछ ब्रह्म ही है। तब वह अपने आप को सुख का भोक्ता या दुख का भोगी नहीं मानता।

स्थूलं सूक्ष्मरं कारणं च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।

यथासं त्रिविधोऽस्त्येव तत्र तत्रोचितो ज्वरः ॥ 223॥

शरीर तीन प्रकार के माने गए हैं - स्थूल, सूक्ष्म और कारण। और ​​तदनुसार क्लेश या वासनाएं भी तीन प्रकार की होती हैं।

   स्थूल शरीर अनेक रोगों से ग्रसित रहता है। सूक्ष्म शरीर काम, क्रोध, लोभ आदि से ग्रसित रहता है।   दूसरी ओर, मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण होने पर उसे सुख का अनुभव होता है। सुषुप्ति में जीव न तो स्वयं को जानता है, न ही दूसरों को। यह वह अवस्था है, जिसमें कारण शरीर प्रबल होता है। कारण शरीर ही इस जन्म में तथा भविष्य के जन्मों में दुःख का बीज है।

स्वं परं च न वेत्त्यात्मा विनाष्ट इव कारणे।

आगमिदुःखबीजं चेत्येतदिन्द्रेण दर्शितम् ॥ 226॥

गहरी नींद में, कारण शरीर की अवस्था में, जीव न तो स्वयं को जानता है और न ही दूसरों को, और ऐसा प्रतीत होता है मानो वह मरा हुआ हो। कारण शरीर ही भावी जन्मों और उनके दुखों का बीज है। ऐसा इंद्र ने देखा, जैसा कि छांदोग्य उपनिषद में घोषित किया गया है। 226.

साक्षिसत्यत्वमध्यस्य स्वेनोपते वपुस्त्रये।

तत्सर्वं वास्तवं स्वस्य स्वरूपमिति मन्यते ॥ 231॥

चिदाभास तीनों शरीरों पर कूटस्थ की वास्तविकता आरोपित करते हैं और कल्पना करते हैं कि ये तीनों शरीर ही उनकी वास्तविक आत्मा हैं। 231.

एतस्मिन्भ्रान्तिकालेऽयं शरीरेषु ज्वरत्स्वतः।

स्वयमेव ज्वरामेति मन्यते हि कुटुम्बिवत् ॥ 232॥

जब तक यह मोह बना रहता है, तब तक चिदाभास शरीरों की सभी अवस्थाओं को अपने ऊपर ले लेता है और उनसे प्रभावित होता है, जैसे कि मोहित व्यक्ति अपने परिवार को प्रभावित करने वाली किसी भी वस्तु से स्वयं प्रभावित होता है।

पुत्रदारेषु तृप्यत्सु तृप्यामेति यथा वृथा।

मन्यते पुरुषस्तद्वदाभासोऽप्यभिमन्यते ॥ 232॥

साधारण मनुष्य अपने पुत्र या पत्नी के दुःख से दुःखी हो जाता है; उसी प्रकार चिदाभास भी अनुचित रूप से यह सोचते हैं कि मैं शारीरिक व्याधियों से दुःखी हूँ।

मिथ्याभियोगदोषस्य प्रायश्चित्तत्वसिद्धये।

क्षमापयन्निवात्मानं साक्षिणं शरणं गतः ॥ 136॥

जैसे अज्ञानवश किसी को कष्ट पहुँचाने वाला मनुष्य अपनी भूल का ज्ञान होने पर विनम्रतापूर्वक उससे क्षमा माँगता है, उसी प्रकार चिदाभास कूटस्थ के अधीन हो जाता है।

ये दुःख इन शरीरों के लिए स्वाभाविक हैं। चिदाभास, जो मन में शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब है, इन सभी दुःखों से मुक्त है। लेकिन अज्ञानता के कारण चिदाभास अपने को तीनों शरीरों के साथ पहचान लेता है और अपने को दुःखी मानता है। जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि वह शरीर नहीं, बल्कि कूटस्थ है, तो वह सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है। 

यो ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवत्येवेति श्रुतिम्।

श्रुत्वा तदेक्चित्तः सन्ब्रह्म वेत्ति न चेत्रत् ॥ 241॥

जिसने श्रुति की यह घोषणा सुन ली है कि 'ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है', वह अपना सम्पूर्ण मन ब्रह्म में लगा देता है और अन्त में अपने को ब्रह्म ही जान लेता है।

श्रुति कहती है: "ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है"। केवल ब्रह्म पर अपना मन स्थिर करने से जीव को यह ज्ञात होता है कि वह ब्रह्म है। 

एवमारब्धभोगोऽपि शनैः शाम्यति नो हतात्।

भोगकाले कदाचित्तु मर्त्योऽहमिति भासते ॥ 245॥

नैतावतापराधेन तत्त्वज्ञानं विनश्यति।

जीवन्मुक्तिव्रतं नेदं मित्र वस्तुस्थितिः खलु ॥ 246॥

इसी प्रकार फलदायक कर्म अचानक समाप्त नहीं होता, अपितु धीरे-धीरे समाप्त होता है। अपने फलों को भोगते समय, ज्ञाता के मन में कभी-कभी 'मैं नश्वर हूँ' जैसे विचार आते हैं।

व्रताभावाद्याद्यासस्तदा भूयो विविच्यताम्।

रससेवी दिने भुक्त्ते भूयो भूयो यथा तथा ॥ 249॥

क्योंकि यह कोई व्रत नहीं है और इसके भंग होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, अतः जब भी भ्रम उत्पन्न हो, तो उसे दूर करने के लिए मनुष्य को बार-बार सत्य का चिन्तन करना चाहिए, जैसे कोई व्यक्ति किसी रोग को ठीक करने के लिए पारे का सेवन करता है, तथा पारे के कारण उत्पन्न भूख को शांत करने के लिए दिन में बार-बार खाता है।इस प्रकार की चूक सत्य की प्राप्ति को नष्ट नहीं करती। जीवन्मुक्ति कोई व्रत नहीं है, बल्कि ब्रह्मज्ञान में आत्मा की स्थापना है।

शमयत्यौषधेनायं दशमः स्वव्रणं यथा।

भोगेन शमयित्वैतत्प्रारब्धं मुच्यते तथा ॥ 250॥

जैसे दसवाँ मनुष्य औषधि लगाकर अपने घावों को ठीक कर लेता है, वैसे ही ज्ञानी भोगों द्वारा अपने फलदायक कर्मों को समाप्त कर लेता है और अन्त में मुक्त हो जाता है। 250.

परन्तु जीव तब तक शरीर में रहता है जब तक प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं हो जाता। फिर भी वह जीवन्मुक्त है और इस ज्ञान में स्थित रहता है कि वह ब्रह्म है। वह पूर्ण तृप्ति का आनन्द लेता है।   बाह्य पदार्थों से उत्पन्न होने वाली तृप्ति सीमित होती है, परन्तु ब्रह्म के प्रत्यक्ष साक्षात्कार से उत्पन्न होने वाली तृप्ति असीमित और निरपेक्ष होती है। 

अहिकामुष्मिकव्रतसिद्ध्यै मुक्तेश सिद्धये।

बहु कृत्यं पुरास्याभूतत्सर्वमधुना कृतम् ॥ 253॥

ब्रह्मज्ञान प्राप्ति से पूर्व मनुष्य को लौकिक तथा पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के लिए तथा परम मोक्ष प्राप्ति के लिए अनेक कर्तव्य करने होते हैं; किन्तु ब्रह्मज्ञान हो जाने पर वे सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि उसके बाद कुछ भी करने को शेष नहीं रहता।

गुञ्जापुंजदि दह्येत् नान्यरोपितवह्निना।

नान्यरोपितसंसारधर्मणेवमहं भजे ॥ 259॥

दूर से लाल गुंजा जामुन की झाड़ी को देखकर कोई यह मान सकता है कि उसमें आग लगी है, परन्तु ऐसी काल्पनिक आग झाड़ी को प्रभावित नहीं करती। इसी प्रकार दूसरों द्वारा मुझ पर आरोपित किए गए सांसारिक कर्तव्य और गुण मुझ पर प्रभाव नहीं डालते।

साक्षात्कारी व्यक्ति को और कोई कर्तव्य नहीं करना होता, तथा उसे और कुछ प्राप्त नहीं करना होता। देखने वाले अज्ञानवश उसमें सांसारिक कर्म और गुण आरोपित कर सकते हैं, परन्तु वह ऐसे आरोपितों से तनिक भी प्रभावित नहीं होता, जैसे लाल गुंजा जामुन की झाड़ी को दूर से देखने वाला व्यक्ति उसे धधकती हुई आग समझ सकता है, परन्तु ऐसी काल्पनिक आग झाड़ी को तनिक भी प्रभावित नहीं करती। उसके लिए शास्त्र भी अब आवश्यक नहीं रह जाते। 

विपर्यस्तो निदिध्यसेत्किं ध्यानमविपर्यये।

ईश्वरत्वविपर्यसं न कदाचिद्भजाम्यहम् ॥ 261॥

जो व्यक्ति भ्रांतिग्रस्त है, वह ध्यान का अभ्यास कर सकता है। मैं आत्मा को शरीर नहीं मानता। अतः ऐसी भ्रांति के अभाव में मैं ध्यान क्यों करूँ? 261।

प्रवृत्त्वाग्रहो न्याययो बोधिनस्य सर्वथा।

स्वर्गाय वापवर्गाय योजित्व्यं यतो नृभिः ॥ 284॥

जो मनुष्य सत्य को नहीं जानता, उसे सदैव कर्म में उत्सुक रहना चाहिए, क्योंकि स्वर्ग या मोक्ष के लिए प्रयत्न करना ही मनुष्य का कर्तव्य है।

ध्यान या समाधि की अब कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जो कुछ उसे प्राप्त करना था, वह उसने पा लिया है और जो कुछ उसे करना था, वह उसने कर लिया है। वह अभी भी संसार के कल्याण के लिए कर्म में संलग्न हो सकता है। 

उसकी इंद्रियाँ अभी भी द्वैत को समझ सकती हैं, लेकिन वह जानता है कि यह वास्तविक नहीं है और इसलिए वह प्रभावित नहीं होता।

अविद्वद् अनुपरेण वृत्तिबुद्धस्य युज्यते।

यथातथ्येण वर्तते तत्पिता यतः ॥ 287॥

यह उचित है कि बुद्धिमान व्यक्ति अज्ञानियों के साथ रहते हुए उनके कर्मों के अनुरूप ही आचरण करे, जैसे एक प्रेममय पिता अपने छोटे बच्चों की इच्छा के अनुसार आचरण करता है।जब वह सामान्य लोगों के बीच होता है तो वह उनके जैसा व्यवहार कर सकता है, जैसे एक पिता अपने बच्चे के साथ खेलता है, उसके जैसा होने का दिखावा करता है। 

निन्दितः स्तुयमानो वा विद्वान्ज्ञेर्न निन्दति।

न स्तुति सौर्य तेषां स्याद्यथा बोधस्तथा चरेत् ॥ 289॥

ज्ञानी पुरुष जब अज्ञानी लोगों द्वारा प्रशंसा या निन्दा की जाती है, तब वह बदले में उनकी प्रशंसा या निन्दा नहीं करता। वह इस प्रकार आचरण करता है कि उनमें वास्तविक सत्ता का ज्ञान जागृत हो जाए।जब दूसरे लोग उसकी प्रशंसा या निंदा करते हैं, तो वह बदले में उनकी प्रशंसा या निंदा नहीं करता, बल्कि इस तरह से व्यवहार करता है कि उनमें परम सत्य का ज्ञान जागृत हो।

येनायं नत्नेनात्र बुध्यते कार्यमेव तत्।

अज्ञप्रबोधन्नैवान्यकार्यमस्त्यत्र तद्विदः ॥ 290॥

ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह अज्ञानियों के साथ ऐसा व्यवहार करे जिससे उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो सके। इस संसार में अज्ञानियों को जागृत करने के अतिरिक्त उसका कोई अन्य कर्तव्य नहीं है।प्रबुद्ध व्यक्ति का अज्ञानी को वास्तविकता से अवगत कराने के अलावा कोई अन्य कर्तव्य नहीं है।

कृत्यकृतया तृप्तः प्राप्तप्राप्तया पुनःप्राप्ति।

तृप्यनेवं स्वमनसा मन्यतेऽसौ सारंगम् ॥ 291॥

चूँकि उसने वह सब प्राप्त कर लिया है जो उसे प्राप्त करना था और अब उसके लिए करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा है, इसलिए वह संतुष्ट महसूस करता है और हमेशा ऐसा ही सोचता है: 291.

धन्योऽहं धन्योऽहं कर्तव्यं मे न विद्यते किञ्चित्।

धन्योऽहं धन्योऽहं प्राप्तव्यं सर्वमाद्य संग्रहम् ॥ 294॥

धन्य हूँ मैं, धन्य हूँ मैं, क्योंकि अब मुझे कोई और कर्तव्य नहीं निभाना है। धन्य हूँ मैं, धन्य हूँ मैं, क्योंकि अब मैंने वह सर्वोच्च उपलब्धि प्राप्त कर ली है जिसकी कोई आकांक्षा कर सकता है। 294।

अहो शास्त्रमहो शास्त्रमहो गुरुरहो गुरु:।

अहो ज्ञानमहो ज्ञानमहो सुखमहो सुखम् ॥ 297॥

हे शास्त्र कितने महान और सत्य हैं, हे मेरे गुरु, मेरे गुरु कितने महान और महान हैं ! हे यह प्रकाश, यह प्रकाश, हे यह आनंद, यह आनंद कितना महान है ! 297.

तृप्तिदीपमिमं नित्यं येऽनुसन्धते बुधाः।

ब्रह्मानन्दे निमज्जन्तस्ते तृप्यन्ति संगमम् ॥ 298॥

   जो बुद्धिमान् मनुष्य इस 'पूर्ण तृप्ति रूपी दीपक' नामक अध्याय का बार-बार अध्ययन करेंगे, वे ब्रह्म को प्राप्त करेंगे और पूर्ण आनन्द के लक्ष्य में स्थित रहेंगे। 

अध्याय 7 का अंत 

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🔱पंचदशी- 6🔱चित्रदीप - शुद्ध चेतना रूपी (सिनेमा) परदे पर चित्रांकन [The Picture on Pure Consciousness]

 चित्रदीपोनाम - षष्ठः परिच्छेदः । [290-श्लोक] 

पंचदशी

अध्याय 6

[290 -श्लोक ]

चित्रदीप - शुद्ध चेतना रूपी (सिनेमा) परदे पर चित्रांकन 

The Picture on Pure Consciousness

    अध्याय 6 से 10 के शीर्षकों में 'दीप' शब्द है जिसका अर्थ है 'दीपक'। यह शब्द ब्रह्म के चेतना पहलू को दर्शाता है जिसकी चर्चा इन अध्यायों में की गई है।

यथा चित्रपटे दृष्टमवस्थानां चतुष्टयम् ।

परमात्मनि विज्ञेयं तथावस्थाचतुष्टयम् ॥ १॥

जैसे किसी चित्र के चित्रण में चार चरण होते हैं, वैसे ही परमात्मा को समझने में भी चार चरण होते हैं। 1.

स्वतः शुभ्रोऽत्र धौतः स्याद्घट्टितोऽन्नविलेपनात् ।

मस्याकारैर्लाञ्छितः स्याद्रञ्जितो वर्णपूरणात् ॥ ३॥

प्राकृतिक रूप से सफेद कपड़ा (कैनवास) जैसे चित्रपट (या सिनेमा के पर्दे का) का आधार है; और माड़ी के प्रयोग से यह सख्त हो जाता है; उस पर नक्शा -रूपरेखा एक काली पेंसिल से खींची जाती है;फिर जब उस पर उपयुक्त रंग लगाए जाते हैं, तो रंगीन चित्र पूरा हो जाता है।

स्वतश्चिदन्तर्यामी तु मायावी सूक्ष्मसृष्टितः ।

सूत्रात्मा स्थूलसृष्ट्यैष विराडित्युच्यते परः ॥ ४॥

ब्रह्म (सच्चिदानन्द ) को स्वरूपतः 'चित' (Pure consciousness-शुद्ध चैतन्य) -शब्द द्वारा उल्लिखित किया जाता है। माया की उपाधि के साथ युक्त चित्त को अन्तर्यामी (dwelling spirit आत्मा) कहा जाता है; समष्टि सूक्ष्म शरीरों (subtle bodies प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय)  के साथ युक्त होने के कारण उन्हें सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ (totality of souls) कहा जाता है। और स्थूल शरीर के साथ समग्रता के साथ तादाम्य करने वाला व्यक्ति को विराट आदि नाम से कहा जाता है 

   सर्वोच्च आत्मा की व्याख्या उस कैनवास (चित्रकारी के पर्दे-canvas) से की जाती है जिस पर चित्र बनाया जाता है। जिस तरह चित्र बनाने में चार चरण होते हैं, उसी तरह सर्वोच्च आत्मा के प्रत्यक्ष परिवर्तन में भी चार चरण होते हैं। चित्र बनाने में चार चरण होते हैं, एक साफ सफेद कैनवासस्टार्च (माड़ी) से कड़ा किया गया कैनवास, काली पेंसिल से खींची गई रूपरेखा वाला कैनवास और चित्र पर लगाए गए रंगों वाला ("Eastman color movie" )  चित्रपट कैनवास। आत्मा के संबंध में संगत चार चरण हैं, शुद्ध चेतना  (pure consciousness), सभी प्राणियों में अंतर्निहित चेतना ( in-dwelling consciousness), सूक्ष्म शरीरों (subtle bodies-प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) की समग्रता से जुड़ी चेतना और स्थूल शरीरों (physical bodies) की समग्रता से जुड़ी चेतना। 

ब्रह्माद्याःस्तम्बपर्यन्ताः प्राणिनोऽत्र जडा अपि ।

उत्तमाधमभावेन वर्तन्ते पटचित्रवत् ॥ ५॥

जिस प्रकार चित्रपट (कैनवास) पर अंकित चित्र में श्रेष्ठ और निम्न प्रकार की वस्तुओं का तारतम्य होता है - [कौन अच्छा, कौन खराब] ,वैसे ही परमात्मा में उत्तम और अधम क्रम में -ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त चेतन (सभी सजीव प्राणी -ब्रह्मा, इन्द्र आदि अन्य देवताओं से लेकर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विभिन्न कोटि के प्राणी हैंऔर जड़ (पहाड़, नदी, मिट्टी आदि निर्जीव ) पदार्थ अध्यस्त रहते हैं। 

चित्रार्पितमनुष्याणां वस्त्राभासाः पृथक्पृथक् ।

चित्राधारेण वस्त्रेण सदृशा इव कल्पिताः ॥ ६॥

जैसे किसी चित्र में मनुष्यों के शरीर पर , विभिन्न अंगों पर अलग प्रकार के कपड़े पहने हुए चित्रित किया है और रंगीन कपड़े इतने कुशलता से चित्रित किए गए हैं कि वे चित्र के आधार पट (कैनवास) के ऊपर अंकित के समान एकदम वास्तविक प्रतीत होते हैं। 6.एक चित्र में मनुष्यों को विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए दिखाया गया है, और चित्रित वस्त्र उतने ही वास्तविक प्रतीत होते हैं, जितने कि वह कैनवास जिस पर चित्र चित्रित किए गए हैं।

पृथक पृथक चिदाभासाश्चैतन्याध्यस्तदेहिनाम् ।

कल्पान्ते जीवनामानो बहुधा संसरन्त्यमी ॥ ७॥

उसी प्रकार चैतन्य (consciousness) पर देव-मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़ आदि अध्यस्त (superimposed) आरोपित हैं। उनमें से प्रत्येक अलग अलग चिदाभास यानि प्रतिबिंब है, (वास्तविक चेतना का आभास) एक विशेष कार्य। उन्हें जीव के रूप में जाना जाता है और वे जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया के अधीन हैं। 7.ब्रह्माण्ड में सभी रूप ब्रह्म पर आरोपित हैं, जो कि शुद्ध चेतना है। यह चेतना इन रूपों में प्रतिबिंबित होती है और जिन रूपों में चेतना का प्रतिबिंब होता है, उन्हें जीव कहा जाता है। जीव बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरते हैं

वस्त्राभासस्थितान्वर्णान्यद्वदाधारवस्त्रगान् ।

वदन्त्यज्ञास्तथा जीवसंसारं चिद्गतं विदुः ॥ ८॥

जैसे साधारण मनुष्य  चित्रपट पर अंकित विभिन्न रंगों को आधारवस्त्र -असली पर्दे का ही रंग समझते हैं , इसी प्रकार अज्ञानी लोग जीव के संसार-गति को [जन्म और मृत्यु को ] साक्षीचैतन्य की संसार- गति समझ लेते हैं। अज्ञानी लोग सोचेंगे कि चित्र में चित्रित वस्त्र कैनवास के समान ही वास्तविक हैं। इसी प्रकार, अज्ञानी लोग सोचते हैं कि जीवों का देहान्तरण शुद्ध चेतना द्वारा ही होता है। 

चित्रस्थ पर्वतादीनां वस्त्राभासो न लिख्यते ।

सृष्टिस्थमृत्तिकादीनां चिदाभासास्तथा न हि ॥ ९॥

जिस प्रकार चित्र में पर्वत, नदी आदि वस्त्र पहने हुए चित्रित नहीं होते, उसी प्रकार सृष्टि में स्थित मिट्टी आदि जड़ वस्तुओं में चिदाभास अर्थात जीवन की कल्पना नहीं होती। पृथ्वी आदि जड़ वस्तुएँ चेतना के प्रतिबिम्ब से युक्त नहीं होतीं। 9.जिस प्रकार एक चित्र में निर्जीव वस्तुओं को वस्त्र पहने हुए नहीं दिखाया गया है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में निर्जीव वस्तुओं में चेतना का प्रतिबिंब नहीं होता है।

संसारः परमार्थोऽयं संलग्नः स्वात्मवस्तुनि ।

इति भ्रान्तिरविद्या स्याद्विद्ययैषा निवर्तते ॥ १०॥

 सभी प्रकार के सुख-दुःख के साथ इस देहान्तर या  संसार को परमार्थतः आत्मा से युक्त समझ लेना , ऐसी जो भ्रान्ति है , उसे अविद्या (अज्ञानता) कहा जाता है। विद्या [इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान या आत्मज्ञान] द्वारा ही अविद्या की निवृत्ति होती है।  यह गलत धारणा कि देहांतरण वास्तविक है और आत्मा, जो शुद्ध चेतना है, उसके अधीन है, उसे 'अविद्या' कहते हैं। आत्मा के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान से यह अविद्या दूर हो जाती है।

आत्माभासस्य जीवस्य संसारो नात्मवस्तुनः ।

इति बोधो भवेद्विद्या लभ्यतेऽसौ विचारणात् ॥ ११॥

"आत्मा का प्रतिबिम्ब स्वरूप जो जीव है, उसीका देहान्तरण होता है, वास्तविक साक्षी चैतन्य या आत्मा का नहीं " --इस प्रकार के समझ को विद्या (आत्मज्ञान) कहा जाता है।  यह विद्या (नित्य-अनित्य -मिथ्या, शाश्वत-नश्वर) विवेक-प्रयोग द्वारा प्राप्त होती है। देहांतरण केवल जीव के लिए है, जो आत्मा का प्रतिबिंब है, आत्मा के लिए नहीं। इसी समझ को ज्ञान (आत्मज्ञान) कहते हैं और यह आत्मबोध आत्म -अनात्म विवेक-प्रयोग से प्राप्त होती है। 

सदा विचारयेत्तस्माज्जगत्ज्जीवपरात्मनः ।

जीवभावजगद्भावबाधे स्वात्मैव शिष्यते ॥ १२॥

इसलिए मनुष्य को सर्वदा जीव,जगत और ईश्वर के ऊपर विवेकपूर्वक चिंतन-मनन करते रहना चाहिए। जीवभाव और जगतभाव की निवृत्ति होने पर - [मैं स्वप्न में भेंड़ बना था और शेर मुझे खाने के लिए पीछा कर रहा था , स्वप्न से जग गया तो  - शेर भी नहीं था, भेंड़ भी नहीं था] -केवल साक्षी चैतन्य, तो केवल शुद्ध आत्मा ही बचता है। 12.

इसलिए 'व्यक्ति' [एथेंस का सत्यार्थी] को हमेशा जीव, जगत ब्रह्मांड और ईश्वर (परम्-सत्य) के स्वरूप के बारे में अनुसन्धान करते रहना चाहिए जब ​​जीव और जगत-ब्रह्मांड का निषेध हो जाता है, तो परम्-सत्य  के रूप में केवल द्रष्टा, साक्षी चैतन्य या 'शुद्ध आत्मा' (सच्चिदानन्द) ही एकमात्र शेष रह जाते हैं। 

नाप्रतीतिस्तयोर्बाधः किन्तु मिथ्यात्वनिश्चयः ।

नो चेत्सुषुप्तिमूर्च्छादौ मुच्येता यत्नतो जनः ॥ १३॥

 जीव और जगत का निषेध / अप्रतीति होने का अर्थ यह नहीं है कि जीव और इन्द्रियगोचर जगत का दिखना बन्द हो जाता है, क्योंकि ऐसा गहरी नींद या बेहोशी में भी होता है, तबतो  बेहोशी के समय बिना कोई प्रयत्न किये ही अनेक लोग मुक्त हो गए होते। निषेध का अर्थ यह निश्चित धारणा है कि जीव और जगत, पूर्ण सत्य नहीं है और परिवर्तनशील होने से वे केवल 'मिथ्या' हैं, यानी, उनके पास केवल इन्द्रियग्राह्य (अनुभवजन्य) सत्यता है। निषेध से इसका मतलब यह नहीं है कि संसार और जीव इंद्रियों के लिए बोधगम्य होना बंद हो जाते हैं, इसका मतलब है-इन्द्रिय गोचर जीवजगत के भ्रामक होने पर दृढ़ विश्वास। अन्यथा गहरी नींद या बेहोशी में लोग स्वतः ही मुक्त हो जायेंगे। 13. 

परमात्मावशेषोऽपि तत्सत्यत्वविनिश्चयः ।

न जगद्विस्मृतिर्नो चेज्जीवन्मुक्तिर्न सम्भवेत् ॥ १४॥

पूर्ण में से पूर्ण को हटा देने पर,'केवल परमात्मा ही शेष रहते हैं "  वह परमात्मा ही एक मात्र सत्य हैं - इस प्रकार का दृढ़ निश्चय ; किन्तु जगत की विस्मृति हो जायगी के अर्थ में नहीं। बल्कि जो कुछ भी देख रहा हूँ - सो तू ही है। अन्यथा जीवन-मुक्ति की अवस्था में पहुंचना सम्भव नहीं होता।  

परोक्षा चापरोक्षेति विद्या द्वेधा विचारजा ।

तत्रापरोक्ष विद्याप्तौ विचारोऽयं समाप्यते ॥ १५॥

विवेक -प्रयोग करने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है , वह अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है। उनमें से प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि- 'अहं ब्रह्मास्मि ' का बोध हो जाने पर यह 'विवेक-प्रयोग की प्रक्रिया' समाप्त हो जाती  है। 15.  

अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद परोक्षज्ञानमेव तत् ।

अहं ब्रह्मेति चेद्वेद साक्षात्कारः स उच्यते ॥ १६॥

सुना हुआ यह ज्ञान कि - ‘Brahman is’ 'ब्रह्म है' अप्रत्यक्ष ( indirect) है, और अनुभव किया हुआ यह ज्ञान कि  ‘I am Brahman’ 'मैं ब्रह्म हूं' प्रत्यक्ष (direct) है। 'मैं ब्रह्म हूँ' यह ज्ञान ही साक्षात्कार (अपरोक्षज्ञान) कहलाता है।  [16.The knowledge that ‘Brahman is’ is indirect, the knowledge that ‘I am Brahman’ is direct. 16.] 

तत्साक्षात्कारसिद्ध्यर्थमात्मतत्त्वं विविच्यते ।

येनायं सर्वसंसारात्सद्य एव विमुच्यते ॥ १७॥

जिस साक्षात्कार के द्वारा मुमुक्षु जीव सभी सांसारिक बंधनों से तुरंत मुक्त हो जाता है; अब हम स्वयं आत्मा के उस स्वरुप का साक्षात्कार करने, उसके प्रत्यक्ष अनुभव की दृष्टि से विचार करते हैं।17.अब आत्मा के स्वरूप का चिंतन इस उद्देश्य से किया जाता है कि प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सके, ताकि जीव भौतिक संसार की सीमाओं से मुक्त हो सके।

कूटस्थो ब्रह्मजीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधा ।

घटाकाशमहाकाशौ जलाकाशाभ्रखे यथा ॥ १८॥

  एक ही ब्रह्म या चैतन्य को कूटस्थ (अपरिवर्तनीय), ब्रह्म, जीव और ईश्वर के रूप में - वैसे चार प्रकार से कहा जाता है, जैसे एक ही आकाश को महाकाश (सर्वव्यापी स्थान),घटाकाश (घड़ा में व्याप्त स्थान), जलाकाश (Akasa conditioned by water)और मेघाकाश (Akasa conditioned by a cloud)  कहा जाता है।  

घटावच्छिन्नखे नीरं यत्तत्र प्रतिबिम्बितः ।

साभ्रनक्षत्र-आकाशो जलाकाश-उदीर्यते ॥ १९॥

घड़े के द्वारा अवच्छिन्न आकाश को घटाकाश कहते हैं, उसके भीतर रखे जल पर प्रतिबिंबित बादलों और तारों वाले आकाश को 'जल में आकाश' (Akasa in water) के नाम से जाना जाता है। 

महाकाशस्य मध्ये यन्मेघमण्डलमीक्ष्यते ।

प्रतिबिम्बतया तत्र मेघाकाशो जले स्थितः ॥ २०॥

बादल में जल कणों में प्रतिबिंबित आकाश को 'बादल में आकाश'  स्थान कहते हैं।

20.The sky reflected in water particles forming a cloud suspended in space is known as ‘Akasa in a cloud’. 20

अधिष्ठानतया देहद्वयावच्छिन्नचेतनः ।

कूटवन्निर्विकारेण स्थितः कूटस्थ-उच्यते ॥ २२॥

वह चेतना जो देहद्वय द्वारा - यानि  स्थूल और सूक्ष्म शरीरों द्वारा अनुकूलित होती है, जिस पर वे आरोपित होती हैं और जो कोई परिवर्तन नहीं जानती, कूटस्थ कहलाती है।  आत्मा या शुद्ध चेतना जो वह आधार है जिस पर स्थूल और सूक्ष्म शरीर आरोपित हैं, और जो दोनों शरीरों में किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती है, उसे 'कूटस्थ' या अपरिवर्तनीय के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह अपरिवर्तनीय है, 'कूट' या 'निहाई' की तरह जिस पर सुनार अपने आभूषण गढ़ता है

कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित् प्रतिबिम्बकः ।

प्राणानां धारणाज्जीवः संसारेण स युज्यते ॥ २३॥

कूटस्थ में कल्पित बुद्धि पर चैतन्य का जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह प्राण संज्ञक वाणी आदि इन्द्रियों से अनुप्राणित जीव कहलाता है - जन्म-मृत्यु के संसार में बद्ध रहता है।  

 सूक्ष्म शरीर में आत्मा का प्रतिबिंब जीव या व्यक्ति है जो एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है (स्थानांतरित होता है)। उसे जीव के रूप में जाना जाता है क्योंकि वह प्राण (महत्वपूर्ण वायु) से जीवंत है। (मौखिक मूल 'जीव' का अर्थ है 'प्राण या महत्वपूर्ण वायु से संपन्न होना)। अनादि अज्ञान के कारण जीव स्वयं को शरीर से पहचानता है और यह नहीं जानता कि वह वास्तव में कूटस्थ या ब्रह्म है। 

विक्षेपावृतिरूपाभ्यां द्विधाविद्या प्रकल्पिता ।

न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृतिः ॥ २६॥

अविद्या की शक्ति दो प्रकार की है - विक्षेप शक्ति (power to project) और आवरण शक्ति (power to conceal) ! अर्थात अन्य रूप में प्रक्षेपण करने की शक्ति, और इस प्रकार के विचार उत्पन्न करती है कि चैतन्य (कूटस्थ या ब्रह्म) का अस्तित्व ही नहीं है, न वह अपने को अभिव्यक्त कर रहा है।    

इस अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं; ब्रह्म को छिपाने की शक्ति, जिसे आवरण शक्ति के रूप में जाना जाता है और ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करने की शक्ति, जिसे विक्षेप शक्ति के रूप में जाना जाता है। ब्रह्म को छिपाने की शक्ति जीव को ब्रह्म के अस्तित्व से पूरी तरह अनभिज्ञ बना देती है। प्रक्षेपण की शक्ति के कारण, जीव सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का अनुभव करता है और उन्हें वास्तविक मानता है। इसे ही इन शरीरों का ब्रह्म पर आरोपित होना कहते हैं। यह अविद्या माया उस कुण्डलीकृत  रस्सी के समान है जिसे मंद प्रकाश में साँप समझ लिया जाता है जब रस्सी स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती। 

अज्ञानता के कारण हुए ऐसे आरोपित होने के कारण, मन, जिसमें चेतना का प्रतिबिंब होता है, गलती से शुद्ध आत्मा या स्वयं चेतना समझ लिया जाता है। चेतना के प्रतिबिम्ब से युक्त मन को 'अहंकार' कहते हैं

आरोपितस्य दृष्टान्ते रूप्यं नाम यथा तथा ।

कूटस्थाध्यस्तविक्षेपनामाहमिति निश्चयः ॥ ३६॥

शुक्ति (सीपी) और रजत के दृष्टान्त में जैसे कि जड़ पदार्थ का नाम 'रूप्य' (चाँदी) होता है, उसी प्रकार के कूटस्थ (चैतन्य) में कल्पित जो विक्षेप [चिदाभास] होता है, उसका ही नाम 'अहम्' होता है।

[दृष्टांत में जो आरोपित किया गया है उसे चांदी या सर्प कहा गया है; अतः विक्षेप शक्ति भ्रामक प्रक्षेपण की शक्ति से कूटस्थ पर जो आरोपित किया जाता है उसे 'मैं', अहंकार या व्यक्तित्व की भावना कहा जाता है।]

   ब्रह्म या शुद्ध चेतना वह आधार है जिस पर सभी सजीव प्राणी तथा निर्जीव वस्तुएं प्रक्षेपित होती हैं। सजीव प्राणियों में जीवन होता है तथा वे कार्य करने में सक्षम होते हैं क्योंकि उनके पास एक सूक्ष्म शरीर होता है जो शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। चेतना के इस प्रतिबिंब के कारण वे स्वयं भी चेतनायुक्त प्रतीत होते हैं, जैसे चंद्रमा सूर्य के प्रकाश के प्रतिबिंब के कारण चमकता है। 

निर्जीव वस्तुओं के पास चेतना का प्रतिबिंब प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म शरीर नहीं होता। मृत्यु सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से अलग होना है। जब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है, तो जीव निर्जीव हो जाता है।

मायात्वमेव निश्चेयमिति चेत्तर्हि निश्चिनु ।

लोकप्रसिद्धमायाया लक्षणं यत्तदीक्ष्यताम् ॥ १४०॥

(संशय): लेकिन माया को मिटाने का प्रयास करने से पहले उसका स्वरूप निश्चित कर लेना चाहिए। (उत्तर): ठीक है, ऐसा करो! माया पर जादू की लोकप्रिय परिभाषा लागू करें। 140

(Doubt): But the nature of Maya must be determined before trying to eradicate it. (Reply): All right, do so ! Apply the popular definition of magic on Maya. 140

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ १७१॥

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: 'हे अर्जुन, भगवान सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं और उन्हें अपनी माया से चक्र की तरह घुमाते हैं।' [गीता: XVIII-61] 171.

In the Gita Sri Krishna says: ‘O Arjuna, the Lord abides in the hearts of all beings and makes them revolve by His Maya as if mounted on a wheel’. [Gita: XVIII-61] 171.

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

18.61 हे अर्जुन! भगवान् समस्त प्राणियों के हृदयों में निवास करते हैं और अपनी माया से समस्त प्राणियों को इस प्रकार घुमाते हैं, मानो वे यंत्र पर आरूढ़ हों।

18.61 The Lord dwells in the hearts of all beings, O Arjuna, causing all beings, by His illusive power, to revolve as if mounted on a machine.

जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैं -हृदय ! ह्रदय  शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय (Blood pumping machine) से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं,  प्रेम, करुणा, सहानुभूति ,  धृति, उत्साह,  स्नेह, कोमलता, क्षमा,  उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। 

परमेश्वर ही चेतनता और शक्ति का स्रोत है, जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। समस्त प्राणी ईश्वर के ही चारों ओर इस प्रकार घूमते रहते हैं,  जैसे कठपुतलियां किसी के हाथों में बन्धी खेल करती है। कठपुतलियों की अपनी कोई सार्मथ्य, शक्ति या भावना नहीं होती।  वे जो कुछ खेल करती दिखाई देती हैं,  वह सब अदृश्य हाथ की शक्ति है जो उन कठपुतलियों को धारण किये रहता है।

 पारमर्थिक दृष्टि से ईश्वर का अर्थ चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है। इस चैतन्य के सम्बन्ध से ही शरीर मन आदि जड़ उपाधियाँ कार्य करने में सक्षम होती हैं। अन्यथा जड़ पदार्थ में स्वयं न कर्म करने की शक्ति है और न वस्तुओं को जानने की।  इस दृष्टि से इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपस्थिति में प्राणीमात्र अपनेअपने स्वभाव के अनुसार यत्रतत्र भ्रमण करते रहते हैं। इसी तथ्य को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि ईश्वर अपनी माया से भूतमात्र को घुमाता है

इसी श्लोक का दूसरा अर्थ निम्न प्रकार से होगा। समष्टि माया में व्यक्त चैतन्यस्वरूप परमात्मा ही ईश्वर कहलाता है जो सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान् है। वह ईश्वर अपनी माया से समस्त जीवों को घुमाता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह ईश्वर समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है

 ईश्वर के बिना व्यष्टि जीवों का अस्तित्व संभव ही नहीं है। समस्त जीवों को कर्म और ज्ञान की शक्तियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। इस प्रकार वेदान्त के सिद्धांत को समझकर इस श्लोक के अध्ययन से यहाँ प्रयुक्त रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

 श्रीकृष्ण कहते हैं- "अर्जुन! भले ही तुम मेरी आज्ञा का पालन करो या न करो, स्थापित स्थिति हमेशा मेरे प्रभुत्व में रहेगी। जिस शरीर में तुम जीवित हो वह यंत्र मेरी माया शक्ति से निर्मित है।"

"मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं? अन्यथा नहीं।

ईश्वर का स्मरण केवल सगुणसाकार अर्थात् शक्ति के मानवीय रूप में ही नहीं करना चाहिये, जैसे कैलाशपति, शिवजी या वैकुण्ठवासी विष्णु या (अवतारवरिष्ठ के मानवीय रूप ठाकुरदेव स्वर्ग में स्थित पिता के) रूप में ही नहीं करना चाहिये ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। इसकी पहचान हृदय में ही हो सकती है

सर्वभूतानि विज्ञानमयास्ते हृदये स्थिताः ।

तदुपादानभूतेशस्तत्र विक्रियते खलु ॥ १७२॥

उपरोक्त श्लोक में सर्वभूत या समस्त जीव शब्द का तात्पर्य विज्ञानमय कोष (प्राणमय, मनोमय , विज्ञानमय तीनों सूक्ष्म शरीर) से है। ये तीनों कोष जीव के ह्रदय में अवस्थित है। भगवान उसी विज्ञानमय कोष समूह के उपादान कारण ( material cause) होने कारण उसी ह्रदय के विज्ञानमय (बुद्धि के आवरण) के विकार/ परिवर्तन (अहं) के परिवर्तनों से गुजरते हुए प्रतीत होते हैं।  .

‘All beings’ in the above passage means the Jivas or the sheaths of intellect which abide in the hearts of all beings. Being their material cause, the Lord appears to undergo changes with them. 172.

देहादिपञ्जरं यन्त्रं तदारोहोऽभिमानिता ।

विहितप्रतिसिद्धेषु प्रवृत्तिर्भ्रमणं भवेत् ॥ १७३॥

शरीर रूपी पिंजर (आवरण) को भगवान यंत्र कहते हैं।  यह कहने का अर्थ है कि सभी प्राणी 'शरीर रूपी पिंजर पर आरूढ़' हैं, इसका अर्थ यह है कि वे शरीर (M/F) शरीर के साथ तादात्म्य को अहंकार मानने लगे हैं। परिभ्रमण शब्द से अभिप्राय शास्त्र विहित कर्म (अच्छे)  तथा शास्त्रनिषिद्ध कर्म  (बुरे) कर्मों के सम्पादन से है। 

173.By the word ‘wheel’ is meant the cage of the body with sheaths etc. By saying that all beings are ‘mounted on the wheel’ is meant that they have come to consider the body as the ego. By the word ‘revolve’ is meant the performance of good and bad deeds. 173.

विज्ञानमयरूपेण तत्प्रवृत्तिस्वरूपतः ।

स्वशक्त्येशो विक्रियते मायया भ्रामणं हि तत् ॥ १७४॥

विज्ञानमय रूप में एवं उसी  विज्ञानमय के विहित और निषिद्ध कर्मों की प्रवृत्ति के अनुरूप भगवान अपनी ही माया शक्ति के द्वारा बदलते हुए प्रतीत होते हैं। इसी को यहां  'भगवान अपनी माया से उन्हें घुमाते हैं' कहा जा रहा है। [इस उक्ति का अर्थ यह है कि भगवान अपनी माया की शक्ति से बुद्धि-कोश में समाहित हो जाते हैं और बुद्धि के संचालन के साथ बदलते प्रतीत होते हैं।]  174.

The meaning of the expression ‘The Lord makes them revolve by His Maya’, is that the Lord by his power of Maya becomes involved in the intellect-sheath and seems to change with the operations of the intellect. 174.

अन्तर्यमयतीत्युक्त्या यमेवार्थः श्रुतौ श्रुतः ।

पृथिव्यादिषु सर्वत्र न्यायोऽयं योज्यतां धिया ॥ १७५॥

श्रुति ('यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति' बृ० उपनिषद ३/७/१५) ने यही अर्थ व्यक्त करते हुए कहा है कि भगवान स्वयं ह्रदय में बैठकर , भीतर से प्रेरणा देते हैं। श्रुति इस उक्ति से भ्रमण कराते हैं कह रही है। इसलिए उनको आंतरिक नियंता कहा जाता है। केवल जीवों के अन्तर में नहीं , पृथ्वी आदि समस्त पदार्थों की अन्तर्यामी सत्ता हैं। इसी उपादान  कारण को लागू करके भौतिक तत्वों और अन्य सभी वस्तुओं के संबंध में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। 

The same meaning is expressed by the Shruti saying that the Lord is called the inner controller. By applying this reason one can come to the same conclusion with regard to the physical elements and all other objects. 175.

[साभार https://janamejayans.home.blog/pancadasi-of-swamy-vidyaranya-8/]

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति-

र्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन

यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ १७६॥

आप इसको दुर्योधन सिंड्रोम मान लीजिए --'मैं जानता हूं कि धर्म [24 सद्गुण (शास्त्र विहित कर्म समूह)]  क्या है, लेकिन उसका अभ्यास करने की मेरी प्रवृत्ति नहीं है; मैं जानता हूं कि अधर्म [ 12 दुर्गुण (शास्त्र निषिद्ध कर्म -बुरे कर्म] क्या है, लेकिन उससे विरत रहना मेरे वश में नहीं बल्कि उसके वश में है। मैं वैसा ही करता हूं जैसा मेरे हृदय में विराजमान कोई देवता {??तीनों ऐषणाओं में आसक्ति ??} मुझे प्रेरित करता है।' 176.

‘I know what is virtue, but my inclination is not mine to practise it; I know what is vice, but my desisting from it is not mine but His. I do as I am prompted by some god seated in my heart.’ 176.

नार्थः पुरुषकारेणेत्येवं मा शंक्यतां यतः ।

ईशः पुरुषकारस्य रूपेणापि विवर्तते ॥ १७७॥

उपरोक्त श्लोक से यह मत सोचिए कि व्यक्तिगत प्रयास (मानवीय प्रयत्न )आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि भगवान स्वयं को उन प्रयासों [चार पुरुषार्थ ?] के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। 177.

From the above verse do not think that individual efforts are not necessary, for the Lord transforms Himself as those efforts. 177

एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासन इति श्रुतिः ।

अन्तः प्रविष्टः शास्तायं जनानामिति च श्रुतिः ॥ १८१॥

एक श्रुति परिच्छेद में कहा गया है कि सूर्य और ग्रह भगवान के आदेश पर चलते हैं। एक अन्य श्रुति परिच्छेद में कहा गया है कि भगवान मानव शरीर में प्रवेश करके इसे भीतर से नियंत्रित करते हैं। 181.(एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत् एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासन गार्गी द्यावापृथिवौ विधृते तिष्ठत एतस्य  (बृहदारण्यक  उप० ३।८।९ )  ।

One Shruti passage says that the suns and planets move at the command of the Lord. Another Shruti passage says that the Lord entering the human body controls it from within. 181.


आविर्भावतिरोभावशक्तिमत्त्वेन हेतुना ।

आरम्भपरिणामादिचोद्यानां नात्र सम्भवः ॥ १८६॥

ईश्वर की यह जो आविर्भाव और तिरोभाव होने की शक्ति है (उसको माया कहकर) वे माया सामर्थ्य से युक्त हैं इसीलिए वेदान्त (सनातन हिन्दू धर्म) में आरम्भवाद, परिणामवाद एवं विवर्तवाद जैसे मतवादों की सम्भावना नहीं हैं।    

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म तस्मात्समुत्थिताः ।

खं वाय्वग्निजलोर्व्योषध्यन्नदेहाः इति श्रुतिः ॥ १९१॥

श्रुति (तैत्तिरीय उपनिषद -2.1.1 )स्पष्ट रूप से बताती है कि ब्रह्म से, जो सत्य, ज्ञान और अनंत है, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, जड़ी-बूटियाँ, भोजन, शरीर आदि उत्पन्न हुए। 191.

The Shruti explains clearly that from Brahman, who is truth, knowledge and infinity, arose Akasa, air, fire, water, earth, herbs, food, bodies and so forth. 191.

उपक्रमादिभिर्लिङ्गैस्तात्पर्यस्य विचारणात् ।

असङ्गं ब्रह्म मायावी सृजत्येष महेश्वरः ॥ १९५॥

गहरी जांच से और वैदिक पाठ की व्याख्या के नियमों को लागू करने से हमें पता चलता है कि ब्राह्मण माया से संबद्ध और बिना शर्त है, जबकि ईश्वर माया से बंधा हुआ निर्माता है। 195

ब्रह्म माया से असंबद्ध है, जबकि ईश्वर माया से बद्ध है और वह ब्रह्माण्ड का निर्माता है। उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म सत्य है, चेतना है और अनंत है। इन्द्रियाँ और मन उसे समझ नहीं सकते।

.By deep enquiry and by the application of the rules of interpretation to the Vedic text we come to know that Brahman is associationless and unconditioned by Maya, whereas Ishvara is the creator conditioned by Maya. 195.


सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्युपक्रम्योपसंहृतः ।

यतो वाचो निवर्तन्ते इत्यसङ्गत्वनिर्णयः ॥ १९६॥

उपनिषद या वेदान्त (तैत्तिरीय-२-९) ब्रह्म को सत्य, ज्ञान और अनंत बताते हैं और यह भी घोषित करते हैं कि- यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनंदं ब्राह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।  वाणी और अन्य अंग इसे ग्रहण नहीं कर सकते। इस प्रकार यह निश्चित है कि ब्रह्म संग-रहित है

आनन्दमय ईशोऽयं बहु स्यामित्यवैक्षत ।

हिरण्यगर्भरूपोऽभूत्सुप्तिः स्वप्नो यथा भवेत् ॥ १९८॥

उसी एक आनन्दमय ब्रह्म ईश्वर ने इच्छा किया कि -' मैं अनेक बन जाऊँगा। ' इस प्रकार संकल्प करके वे हिरण्यगर्भ में वैसे ही रूपांतरित हो गए ; जैसे सुषुप्ति (deep sleep) ही स्वप्न अवस्था (dream state) में बदल जाती है। 

.As the deep sleep state passes into dream state, so Ishvara who is known as the sheath of bliss, transforms Himself into Hiranyagarbha, when He, the one, wills to be many. 198.

मुक्तिस्तु ब्रह्मतत्त्वस्य ज्ञानादेव न चान्यथा ।

स्वप्रबोधं विना नैव स्वस्वप्नं हीयते यथा ॥ २१०॥

हालाँकि, मुक्ति केवल ब्रह्म तत्व  के ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, अन्यथा नहीं। जैसे जब तक स्वप्न देखने वाला स्वयं जाग नहीं जाता तब तक उसका स्वप्न समाप्त नहीं होता। 210.

The Liberation, however, can be obtained through the knowledge of reality and not otherwise. The dreaming does not end until the dreamer awakes. 210.

आनन्दमयविज्ञानमयावीश्वरजीवकौ ।

मायया कल्पितावेतौ ताभ्यां सर्वं प्रकल्पितम् ॥ २१२॥

 आनन्दमय ईश्वर और विज्ञानमय जीव दोनों का निर्माण माया ने किया है, दोनों माया के द्वारा कल्पित हैं। और दोनों के द्वारा सम्पूर्ण जगत कल्पित हुआ है। इसप्रकार संपूर्ण बोधगम्य जगत ईश्वर और जीव की रचना है। 212.

Maya has created Ishvara and Jiva, represented by the sheath of bliss and the sheath of intellect respectively. The whole perceptible world is a creation of Ishvara and Jiva. 212.

ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता ।

जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ २१३॥

 संपूर्ण जगत ईश्वर और जीव की रचना है। ईश्वर के सृजन के संकल्प से लेकर निर्मित वस्तुओं में आंतरिक नियंत्रक के रूप में प्रविष्ट होने तक ईश्वर की रचना है। जाग्रत (स्वप्न-सुषुप्ति आदि)  अवस्था से मोक्ष (मुक्ति) तक संसार जीव की रचना है।

ईश्वर के सृजन के संकल्प से लेकर, निर्मित वस्तुओं में - सृष्टि में उसके प्रवेश तक, ईश्वर की रचना है।  जाग्रत अवस्था (hypnotized-अवस्था स्वयं को M/F देह समझने की अवस्था) से मोक्ष होने तक [D-hypnotized, देहधारी आत्मा -चैतन्य या सादा पर्दा]  परम मुक्ति तक, सभी सुखों और दुखों का कारण, जीव की रचना है। 213.

[जाग्रत अवस्था (=सम्मोहित अवस्था) से मोक्ष होने तक (विसम्मोहित होने तक), जगत के सारे सुख-दुःख जन्म-मृत्यु जीव के द्वारा कल्पित हुई है।  इसका अर्थ यही है कि जीव स्थूलशरीर धारणकर, माता के पेट से निकलकर मरणपर्यन्त 'मेरा - मेरा' करता. हुआ प्राणी- पदार्थोंका संग्रह करता है, बार -बार देहान्तरण या पुनर्जन्म यह जीव की कल्पना का संसार है

From the determination of Ishvara to create, down to His entrance into the created objects, is the creation of Ishvara. From the waking state to ultimate release, the cause of all pleasures and pains, is the creation of Jiva. 213.

अद्वितीयं ब्रह्मतत्त्वमसङ्गं तन्न जानते ।

जीवएशयोर्मायिकयोर्वृथैव कलहं ययुः ॥ २१४॥

जो लोग ब्रह्म के अद्वितीय (peerless, unparalleled) और असङ्ग  (कूटस्थ, independent, associationless) स्वरुप को नहीं जानते, वैसे वादी (Plaintiffs) लोग मायाकल्पित जीव और ईश्वर के स्वरुप  को लेकर, जो माया की रचनाएं हैं,  निरर्थक झगड़ा करते हैं। 

214.Those who do not know the nature of Brahman, who is secondless and associationless, fruitlessly quarrel over Jiva and Ishvara, which are creations of Maya. 214.

 वेदान्ती मानते हैं कि आत्मा शुद्ध चेतना है, अनंत है, खण्ड-रहित है और सर्वव्यापी है। माया या प्रकृति, जो ब्रह्म की शक्ति है, न तो वास्तविक है और न ही अवास्तविक; यह अनिर्धारित है। माया को तीन तरह से देखा जा सकता है। आम लोगों के लिए यह वास्तविक है। प्रबुद्ध व्यक्ति (ज्ञानी) के लिए इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। जो लोग तर्क के माध्यम से माया को समझने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह अनिर्धारित है।

दुर्घटं घटयामीति विरुद्धं किं न पश्यसि ।

वास्तवौ बन्धमोक्षौ तु श्रुतिर्न सहतेतराम् ॥ २३४॥

क्या तुम नहीं देखते कि माया (माँ सारदा देवी) असंभव को भी संभव बना सकती है? वास्तव में, श्रुति वास्तविक रूप में न तो बंधन और न ही मुक्ति को सहन कर सकती है।  माया ब्रह्म को किसी भी तरह से प्रभावित किए बिना ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है। असंभव को संभव बनाना माया का स्वभाव है

 234.Don’t you see that Maya can make the impossible appear possible? In fact, the Shruti can tolerate neither bondage nor release as real. 234.

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।

न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ २३५॥

श्रुति (ब्रह्मबिन्दु उपनिषद -१०) में यही घोषणा करती है कि वास्तव में न तो कोई प्रलय या विनाश है और न ही कोई उत्पत्ति या जन्म होता है ; कोई भी जीव बंधन में नहीं है और कोई भी साधक (श्रवण आदि द्वारा) मुक्ति के लिए अभ्यास में संलग्न नहीं है; न कोई मुक्ति का आकांक्षी और न कोई मुक्त। यह पारलौकिक सत्य (transcendental truth) है. 

235.The Shruti declares that in fact there is no destruction and no origination; none in bondage and none engaged in practice for liberation; no aspirant for liberation and none liberated. This is the transcendental truth. 235.

मायाख्याया कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ ।

यथेच्छं पिबतां द्वैतं तत्त्वं त्वद्वैतमेव हि ॥ २३६॥

माया को इच्छा पूरी करने वाली गाय (कामधेनु) कहा गया है। जीव और ईश्वर इसके दो बछड़े हैं। जीव और ईश्वर इसका द्वैत रूपी दूध जितना चाहे पीते रहें, लेकिन सत्य तो अद्वैत ही है। 236.

\Maya is said to be the desire-fulfilling cow. Jiva and Ishvara are its two calves. Drink of its milk of duality as much as you like, but the truth is non-duality. 236.

कूटस्थब्रह्मणोर्भेदो नाममात्रादृते न हि ।

घटाकाशमहाकाशौ वियुज्येते न हि क्वचित् ॥ २३७॥

कूटस्थ (आत्मा-निहाई) और ब्रह्म (परमात्मा) में केवल नाम का अंतर है; हकीकत में कोई अंतर नहीं है. घटाकाश और असीमित आकाश (महाकाश) एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। 237.

The difference between Kutastha and Brahman is only in name; in reality there is no difference. The Akasa in the pot and the unlimited Akasa are not distinct from one another. 237.

यदद्वैतं श्रुतं सृष्टेः प्राक्तदेवाद्य चोपरि ।

मुक्तावपि वृथा माया भ्रामयत्यखिलान् जनान् ॥ २३८॥

जैसा कि श्रुति में घोषित किया गया है, [सदेव सोम्य इदमग्र आसीत् एकमेव अद्वितीयम् । - छान्दोग्योपनिषत् ६-२-१]  अद्वैत सत्य सृष्टि से पहले अस्तित्व में था , अब सृष्टि में भी मौजूद है और प्रलय के समय में भी मौजूद रहेगी; और मुक्ति में भी वही हैं ; किन्तु माया लोगों को व्यर्थ ही भ्रमित करती है। 

238.The non-dual reality, as declared in the Shruti, existed before creation, exists now and will continue to exist in dissolution; and after liberation Maya deludes the people in vain. 238.

ये वदन्तीत्थमेतेऽपि भ्राम्यन्तेऽविद्ययात्र किम् ।

न यथा पूर्वमेतेषामत्र भ्रान्तेरदर्शनात् ॥ २३९॥

(शंका): संसार को माया बताने वाले ज्ञानी भी सांसारिक कार्यों में [BHd तीनों ऐषणाओं में ?] लगे हुए देखे जाते हैं। तो फिर बोध (आत्मज्ञान -विसम्मोहित या जाग्रत होनेका ) का क्या उपयोग? (उत्तर): नहीं, वह ज्ञानी व्यक्ति पहले की तरह भ्रमित नहीं है। 239.

(Doubt): Even the knowers, who attribute the world to Maya, are seen to be engaged in worldly pursuits. So what is the use of realisation ? (Reply): No, he is not deluded as before. 239

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।

इति श्रौतं फलं दृष्टं नेति चेद्दृष्टमेव तत् ॥ २५९॥ 

[कठ० उप ०- २/३/१४]    

श्रुति (कठोपनिषद) कहती है कि जिसने अपने हृदय से सभी अंतर्निहित इच्छाओं (ऐषणाओं में आसक्ति)  को निकाल दिया है, वह अमरत्व प्राप्त करता है, और देह में रहते हुए ही ब्रह्मभाव का आनन्द लेता है । यह महज एक बयान नहीं है; एक ज्ञाता का वास्तविक अनुभव इसे सिद्ध करता है। 259.

The Shruti says that he who has banished from his heart all indwelling desires attains immortality. This is not merely a statement; a knower’s actual experience proves it. 259.

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयग्रन्थयस्त्विति ।

कामा ग्रन्थिस्वरूपेण व्याख्याता वाक्यशेषतः ॥ २६०॥

एक अन्य परिच्छेद में कहा गया है कि सच्चे ज्ञान के उदय से हृदय की सभी गांठें खुल जाती हैं। टिप्पणी में 'हृदय की ग्रन्थि (गांठें) ' /‘चेतन और अचेतन की गाँठ’। / 262.शब्द की व्याख्या हृदय की ऐषणाओं (अभिलाषाओं) के अर्थ में की गई है। 260.

In another passage it is stated that all the knots of the heart are loosened at the rise of true knowledge. The term ‘knots of the heart’ has been explained in the commentary to mean the desires of the heart. 260.

   माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म ईश्वर है। ईश्वर माया को नियंत्रित करता है, लेकिन जीव माया के नियंत्रण में है। ईश्वर प्रत्येक जीव में अन्तर्यामी और अन्तर्यामी है। वह सर्वज्ञ है और ब्रह्माण्ड का कारण है। वह ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति का कारण बनता है और प्राणियों को उनके पिछले कर्मों के अनुसार बनाता है। सृष्टि एक चित्रित कैनवास को खोलने के समान है। यदि चित्रित कैनवास को लपेट दिया जाए, तो चित्र दिखाई नहीं देता। उसी तरह, जब जीवों के कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो ईश्वर ब्रह्माण्ड को अपने में वापस ले लेते हैं। तब ब्रह्माण्ड और सभी प्राणी सृष्टि के अगले चक्र के प्रारंभ होने तक अव्यक्त रूप में रहते हैं। ईश्वर माया के तामसिक पहलू के माध्यम से निर्जीव वस्तुओं का कारण है। वह माया में शुद्ध चेतना के प्रतिबिंब के माध्यम से जीवों का कारण है।

यह अज्ञान ही है जो आत्मा (=ईश्वर)  के वास्तविक स्वरूप को छिपाता है और जीव को शरीर के साथ अपनी पहचान कराता है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह छिपाव और गलत पहचान समाप्त हो जाती है।

ग्रन्थिभेदेऽपि सम्भाव्या इच्छाः प्रारब्धदोषतः ।

बुध्वापि पापबाहुल्यादसन्तोषो यथा तव ॥ २६३॥

फलदायी कर्म के बल से, एक ज्ञाता इच्छाओं के अधीन हो सकता है, क्योंकि सैद्धांतिक रूप से सत्य जानने के बावजूद आप संतुष्ट नहीं हैं। 263.

\By the force of the fructifying Karma, a knower may be subject to desires, as in spite of theoretically knowing the truth you are not satisfied. 263.

 लेकिन जब तक प्रारब्ध कर्म, जिसने वर्तमान शरीर को जन्म दिया है, कायम रहता है, तब तक मन और शरीर, जो अज्ञान के प्रभाव हैं, कायम रहते हैं।  

   वेदांत में 'कर्म' शब्द का प्रयोग दो अलग-अलग अर्थों में किया जाता है---(1) किए गए कार्यों के परिणाम, पुण्य और पाप के रूप में , जो बाद में अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं, सामान्यतः दूसरे जन्म में, और (2) स्वयं कार्य, चाहे वह धर्मनिरपेक्ष हो या धार्मिक। यहां हम पहले अर्थ में कर्म की बात कर रहे हैं। यह कर्म तीन प्रकार का होता है� जिसे संचित, प्रारब्ध और आगामी कहते हैं। असंख्य पिछले जन्मों में संचित कर्म संचित कर्म कहलाते हैं। इसमें से एक भाग वर्तमान जन्म को जन्म देता है। इस भाग को प्रारब्ध कर्म कहते हैं, जिसका अर्थ है 'जो पहले ही शुरू हो चुका है (आरंभ) उसका प्रभाव देना'। इस जीवन में किए गए कार्यों के परिणामस्वरूप जो कर्म मिलता है उसे आगामी कर्म कहते हैं। यह संचित कर्म में जुड़ जाता है। ब्रह्मज्ञान के उदय होने पर उस समय का सारा संचित कर्म नष्ट हो जाता है। ज्ञानोदय के पश्चात किए गए कर्म कोई कर्म उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि शरीर-मन के साथ तादात्म्य, जो कर्म का कारण है, समाप्त हो जाता है। इस प्रकार आगे कोई आगामी कर्म नहीं होता। लेकिन प्रारब्ध कर्म ज्ञान से नष्ट नहीं होता। यह तब तक अपना फल देता रहता है, जब तक कि यह समाप्त न हो जाए। इसलिए वर्तमान शरीर-मन तादात्म्य प्रारब्ध कर्म के समाप्त होने तक विद्यमान रहता है। लेकिन चूँकि ज्ञानी अपने शरीर और मन के साथ अपनी पहचान नहीं बनाता, इसलिए उन पर जो कुछ भी घटित होता है, उससे वह प्रभावित नहीं होता, बल्कि अपने वास्तविक तत्व ब्रह्म में स्थित रहता है। यह अवस्था 'जीवनमुक्ति' या जीवन-मुक्ति कहलाती है। (इस संदर्भ में निम्नलिखित पर श्री शंकर के भाष्य का संदर्भ लिया जा सकता है: - ब्र.उप.1.4.7., ब्र.उप.1.4.10., अ.उप.6.14.2., ब्र.उप.4.4.22., भगवद्गीता, 4.37)।

   आत्मा के बारे में विभिन्न विचारधाराओं में विभिन्न मत हैं। लोकायतों (भौतिकवादियों) का एक समूह भौतिक शरीर को आत्मा मानता है। दूसरा समूह इंद्रियों को आत्मा मानता है, दूसरा प्राण को, तीसरा मन को, और तीसरा बुद्धि को। ये सभी निरंतर परिवर्तन से गुजरते रहते हैं, इसलिए ये आत्मा नहीं हो सकते जो अपरिवर्तनीय है। बौद्ध कहते हैं कि अनुभूति और अनुभूति के विषय दोनों ही भ्रम की रचनाएँ हैं। 

वेदान्ती इस दृष्टिकोण को यह कहकर अस्वीकार करते हैं कि बिना आधार के भ्रम नहीं हो सकता। बिना आधार के रस्सी के साँप का भ्रम नहीं हो सकता। बौद्ध मानते हैं कि केवल शून्य है, लेकिन शून्य का भी कोई साक्षी होना चाहिए; अन्यथा यह कहना असंभव होगा कि शून्य है।       

      इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवर्तनशील ब्रह्मांड के लिए एक अपरिवर्तनीय आधार अवश्य होना चाहिए। वह आधार ब्रह्म या आत्मा है। आत्मा के आकार के बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग मानते हैं कि यह अणु है, कुछ कहते हैं कि यह सर्वव्यापी है और कुछ कहते हैं कि यह मध्यम आकार का है।

   हिरण्यगर्भ सभी जीवों के सूक्ष्म शरीरों की समग्रता है। विराट सभी स्थूल शरीरों की समग्रता है।   जिस व्यक्ति ने अपने अपरिवर्तनशील स्व अर्थात् शुद्ध चेतना के साथ अपनी पहचान कर ली है, उस पर शरीर में होने वाली किसी भी घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

वैराग्य, सत्त्वज्ञान और कामना-प्रेरित कर्मों का त्याग, ये तीनों एक दूसरे के सहायक हैं। विषयों से उत्पन्न होने वाले सुख अनित्य हैं, यह बोध होने से वैराग्य उत्पन्न होता है। शास्त्रों के श्रवण, मनन और ध्यान से सत्त्वज्ञान प्राप्त होता है।

ब्रह्मलोकतृणीकारो वैराग्यस्यावधिर्मतः ।

देहात्मवत्परात्मत्वदार्ढ्ये बोधः समाप्यते ॥ २८५॥

वैराग्य की पराकाष्ठा सभी इच्छाओं की व्यर्थता का ऐसा दृढ़ विश्वास है कि व्यक्ति ब्रह्मलोक  की स्वर्ग के उच्चतम सुखों को भी तिनके के समान मानता है; और आध्यात्मिक ज्ञान की ऊंचाई तब पहुंचती है जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च स्व के साथ अपनी पहचान को उसी दृढ़ता से महसूस करता है जैसे एक सामान्य व्यक्ति सहज रूप से भौतिक शरीर के साथ अपनी पहचान महसूस करता है। 285.

The height of detachment is such a conviction of the futility of all desires that one considers like straw even the highest pleasures of the world of Brahma; and the height of spiritual knowledge is reached when one feels one’s identity with the supreme Self as firmly as an ordinary man instinctively feels his identity with the physical body. 285.

कामना-प्रेरित कर्मों का निरोध मन के संयम से होता है। इन तीनों में सत्त्वज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है। ये तीनों उस व्यक्ति को प्राप्त होते हैं, जिसने असंख्य जन्मों में बहुत सारा पुण्य अर्जित किया है। वैराग्य की पराकाष्ठा ब्रह्म लोक के सुखों की भी इच्छा का पूर्णतया अभाव है। 

सत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा तब प्राप्त होती है, जब व्यक्ति अपने को परम आत्मा के साथ उसी प्रकार दृढ़ता से अनुभव करता है, जिस प्रकार एक साधारण व्यक्ति अपने को अपने भौतिक शरीर के साथ पहचानता है। कामना-प्रेरित कर्मों के निरोध की पराकाष्ठा, सुषुप्ति की तरह जागृत अवस्था में भी सभी सांसारिक कार्यों का पूर्णतया विस्मरण है

   प्रबुद्ध लोग अपने कर्मफल के अनुसार अलग-अलग तरीकों से व्यवहार कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता के बारे में उनके ज्ञान या उनकी मुक्ति की प्रकृति में कोई अंतर नहीं होता है।

जगच्चित्रं स्वचैतन्ये पटे चित्रमिवार्पितम् ।

मायया तदपेक्षैव चैतन्ये परिशिष्यताम् ॥ २८९॥

जिस प्रकार परम चैतन्य पर कैनवास पर (आत्मा या ब्रह्म रूपी सिनेमा के परदे पर) जगत (ब्रह्माण्ड) चित्र (शोले और महाभारत फिल्म) की तरह चित्रित है; इस प्रकार माया भी चैतन्य पर आरोपित है। जब हम माया के कारण होने वाले भेदों (M/F शरीर) आदि आकस्मिक भेदों को अनदेखा कर देते हैं, तो केवल चेतना (आत्मा) ही शेष रह जाती है। 289.   ब्रह्माण्ड परम ब्रह्म पर खींचे गए चित्र के समान है। जब हम माया के कारण होने वाले भेदों को अनदेखा कर देते हैं, तो केवल शुद्ध चेतना ही शेष रह जाती है।

On the supreme consciousness the world is drawn like a picture on canvas; thus is Maya superimposed on consciousness. When we forget the adventitious distinctions, consciousness alone remains. 289.

चित्रदीपमिमं नित्यं येऽनुसन्दधते बुधाः ।

पश्यन्तोऽपि जगच्चित्रं ते मुह्यन्ति न पूर्ववत् ॥ २९०॥

 'चित्र का दीपक' [=सिनेमा का रुपहला पर्दा] ‘Lamp of the Picture’,नामक  इस अध्याय का नियमित अध्ययन करने से बुद्धिमान साधक को इस भ्रम से मुक्ति मिल जाती है कि संसार वास्तविक है, भले ही वह संसार को पहले जैसा ही देखता रहे।      

यह अध्याय, जब नियमित रूप से अध्ययन किया जाता है, तो एक बुद्धिमान साधक को मायावी दिखावे के कारण होने वाले भ्रम से मुक्ति मिलती है, भले ही वह उन्हें पहले की तरह ही देख सके। 290.

This chapter called the ‘Lamp of the Picture’, when regularly studied, gives an intelligent aspirant freedom from the delusion due to illusive appearances, even though he may see them as before. 290.

अध्याय 6 का अंत

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