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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

"आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति में बाधक तत्व और उन्हें दूर करने का उपाय "

किसी अपने प्रियजन को खोने के डर पर कैसे काबू पायें ?


मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है - आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना। कोविड 19 के समय हर व्यक्ति अपने प्रिय जन (पत्नी ,भाई या बहन) को खोने के भय से डरा हुआ था। मृत्यु भय पर विजय पाने का एकमात्र उपाय है- शरीर में रहते हुए ही  आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेना। अतएव मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है - आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है - अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेना। बस इतना -इससे ज्यादा नहीं। -आचार्य शंकर ने कहा है - त्रय दुर्लभं ! मनुष्यत्वं - अर्थात मानव-जन्म या मनुष्य योनि में जन्म लेना अत्यंत दुर्लभ है। मुमुक्षुत्वं - फिर मोक्ष की इच्छा का होना दुर्लभ है। सबसे दुर्लभ है -महापुरुष अर्थात सतगुरु या स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का आदर्श समझ लेना भी दुर्लभ है।  केनोपनिषद (२.५) में कहा गया है - 

इह चेदवेदीथ सत्यमस्ति ने चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ 

अर्थ:-- जिसने इस मानव देह में परब्रह्म को जान लिया, वह सब प्रकार से कुशल है। उसका मानव-जन्म सार्थक हुआ है। यदि इस देह में रहते हुए परब्रह्म को नहीं जाना, वह घोर विनाश हो जायेगा -बार बार मृत्यु रूप संसार के प्रवाह में बहना पड़ेगा। फिर , रो-रोकर पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कुछ न रह जायेगा। जो धीर अर्थात विवेकी लोग इसी देह में रहते हुए प्राणिमात्र में परब्रह्म (आत्मा) को देख कर इस लोक से जाते हैं, वे इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।

अतएव इन तीनों दुर्लभ वस्तु को पाकर भी जो मनुष्य अपने अंतर्निहित दिव्यता - अविनाशी आत्मा को जानने की साधना , या मन को एकाग्र करने की साधना में नहीं लग जाता वह बहुत बड़ी भूल करता है।  अतएव श्रुति कहती है कि 'जबतक देवदुर्लभ मानव-शरीर विद्यमान है , ठकुर -माँ -स्वामीजी की कृपा से - मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रणाली Be and Make ' उपलब्ध है , तभी तक शीघ्रताशीघ्र अपने यथार्थ स्वरुप को, अविनाशी आत्मा को जान लेना चाहिए। 

हमारा स्वरुप है कि हम शाश्वत मुक्त अजर , अमर , अनंत आत्मा है। लेकिन वह सबसे बड़ी बाधा क्या है ? जो हमें आत्मानुभूति नहीं हो पाती ? योगशास्त्र के अनुसार 5 बाधक तत्व हमें आत्मनुभूति नहीं करने देते है। योगदर्शन के अनुसार- अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष ,अभिनिवेश- पंचक्लेश ! आत्मानुभूति नहीं होने के ये 5 ही कारण हैं।  

'अविद्याऽस्मिता रागद्वेषभिनिवेशा: पंच क्लेशा: (योगदर्शन २.३)। 

 इन सभी क्लेशों का सामान्य लक्षण है - कष्टदायिकता इनके रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता। इन पांच बाधाओं के रहते आध्यात्मिक ज्ञान नहीं हो सकता। 

अविद्या - नश्वर को अविनाशी मानना मूर्खता (अज्ञान) है। दृष्टिगोचर जगत की हर वस्तु क्षणस्थायी है। क्षणभंगुर देह-मन को शाश्वत समझना अविद्या है। अपवित्र (अशुचि ) को पवित्र (शुचि) समझना अविद्या है। अर्थात्‌ अनेक अपवित्रताओं और मलों के गेह (निवास्थान या घर) शरीर को पवित्र मानना अविद्या है। दुःख को सुख समझना अविद्या है। अनात्मा (जड़-शरीर) को चैतन्य आत्मा समझ लेना अविद्या है। दूसरे शब्दों में अविद्या वह भ्रांत ज्ञान है जिसके द्वारा अनित्य (देह-मन) नित्य प्रतीत होते हैं। इसके कारण हम रज्जु को सर्प समझते रहते हैं। आत्मानुभूति प्राप्त सद्गुरु के सिवा हममें से किसी भी व्यक्ति ने 'परम् सत्य' (अपरिवर्तनीय सत्य) का दर्शन,  साक्षात्कार, या अनुभूति प्राप्त नहीं किया है किन्तु उच्च-डिग्री या ऊँचा पोस्ट प्राप्त होने के कारण हममें से कोई यह स्वीकार नहीं करते कि हम अविद्या-ग्रस्त है। हम केवल परिवर्तनीय और नश्वर चीजों को ही देखते रहते हैं। इसका फल दुःख तो होना ही है। अविद्या ही आत्मज्ञान का प्रमुख बाधक है। 

अस्मिता -अर्थात्‌ हमारा काचा आमी - मिथ्या अहं (M/F देहाध्यास में अहंकार बुद्धि ) को और आत्मा को एक मान लेना- दूसरा क्लेश है। हमलोगों ने अपने नाम-रूप M/F शरीर को ही अपना यथार्थ स्वरुप समझ लिया है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ की अनुभूति का ही नाम अस्मिता है। हमलोग जिंदगी भर 'मैं ' का अर्थ यह देह-मन ही समझते हैं। लेकिन इस 'मैं ' को खोजने से यह अनंत हो जाता है। 

राग ॥ सुखानुशयी रागः।। सुख - सुख (की प्रतीति के) अनुशयी -अर्थात् पीछे (सुख को भोगने की इच्छा- रागः (क्लेश है)। इन्द्रिय विषयों के सुख और उसके साधनों के प्रति आकर्षण, तृष्णा और लोभ का नाम राग हैं; यह तीसरा क्लेश है।  तीनों ऐषणाओं में आसक्ति से निर्देशित रहकर काम करने की मजबूरी , बाध्यता ही राग है।  

द्वेष दुःखानुशयी द्वेषः।। उस वस्तु से घृणा जो मुझे पसंद नहीं है। सबके जीवन में अलग अलग दुख आते रहते हैं, जब दुख भोग लिया जाता है या आकर चला जाता है, तो उसके बाद दुख और जिनके कारण से दुख मिला था उन्हें दूर करने की इच्छा संस्कार रूप में चित्त में अंकित रह जाती है, जिसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं। द्वेष का क्लेश बढ़ने से, व्यक्ति लगातार नकारात्मक भाव से भरने लग जाता है। स्वभाव से चिड़चिड़ा और शिकायती होने लग जाता है।

द्वेष नामक क्लेश से अनेक दुर्गुण  जैसे किसी व्यक्ति के प्रति मानसिक एवं प्रकट क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, उत्पन्न होते हैं। द्वेष नामक क्लेश जब जीवन में अधिक बढ़ जाता है तो निरंतर संशय की स्थिति बना देता है, जिसके कारण व्यक्ति किसी पर भी सहजता से विश्वास नहीं कर पाता है। यदि कोई व्यक्ति निरंतर संशय की स्थिति में जीता है तो वह अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। एक प्रकार से वह केवल शरीर भाव से ही जी रहा है, जीवन के असली तत्त्व, यह आध्यात्मिक ज्ञान कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', उसे बहुत अधिक भूलने लग जाता है। यह स्थिति अत्यंत भयावह है।

राग और द्वेष दो विपरीत क्लेश हैं लेकिन दोनों की उत्पत्ति के क्रम एवं प्रक्रिया में एक जैसी समानता है। राग अलग तरह से व्यक्ति को दुखी करता है और द्वेष अलग तरह से। द्वेष, व्यक्ति को पाप और हिंसा में प्रवृत्त करता है। बुरे कर्माशयों की ओर - अर्थात बदला लेने की भावना की ओर लेकर जाता है।  और फिर पूरे मानव जीवन को जन्मजन्मांतरों में भटकाता है। इसलिए दैनिक जीवन में राग और द्वेष को ठीक ठीक समझकर इनका प्रयोग केवल स्वयं के जीवन के उत्थान में लगाना चाहिए।

द्वेष क्लेश होने के साथ साथ एक शक्ति भी है। ऐसी शक्ति जो हमें हटाने की, निवृत्ति की शक्ति देती है। अतः इसका प्रयोग हमें स्वयं के जीवन से दोषों और दुर्गुणों को हटाने के लिए करना चाहिए ,तो यही शक्ति सात्विक शक्ति बन जाएगी। ईश्वर ने जो कुछ बनाया है उसमें अच्छाई और बुराई दोनों डालकर भेजी हुई है, अब यह आपका विवेक-प्रयोग या चुनाव है कि आप उस शक्ति का प्रयोग अच्छाई के लिए करते हैं या स्वयं उसकी चपेट में आकर स्वयं को नष्ट करते हैं।

अभिनिवेश - और अधिक जीने की इच्छा - इसी जीवन को कसकर पकड़े रहना। इसके माने हर जीव मरने से भयभीत रहता है। प्रत्येक प्राणी-विद्वान्‌, अविद्वान्‌ सभी की आकांक्षा रही है कि उसका नाश न हो, वह चिरजीवी रहे। इसी जिजीविषा के वशीभूत होकर मनुष्य न्याय- अन्याय, कर्म- कुकर्म सभी कुछ करता है। और ऊँच नीच का विचार न कर पाने के कारण नित्य नए क्लेशों में बँधता जाता है। अभिनिवेश को संस्कृत में कहते हैं - मरण त्रास। अर्थात मृत्यु का भय। हमलोग केवल जीवन चाहते हैं  मरना नहीं चाहते। बड़े-बड़े विद्वान् भी मरने से डरते हैं। ब्रह्मविद या आत्मविद व्यक्ति के सिवा कोई भी मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त नहीं है। इसीको अभिनिवेश कहते हैं। 

न 5 बाधाओं को हटाया कैसे जाये ? योग शास्त्र में उसका उपाय बताया है - तपः, स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधानं ! (योगसूत्र के साधनपाद का पहला ही सूत्र है - तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।। साधना पाद: सूत्र 2.1इन्द्रियों का कष्टपूर्वक शुद्धिकरण और प्रशिक्षण, आत्म-अध्ययन, तथा कर्मों के फलों को ईश्वर को समर्पित करना ही क्रिया योग है।

जिन समाधियों के साथ हमने अपना पिछला अध्याय समाप्त किया था, उन्हें प्राप्त करना बहुत कठिन है; इसलिए हमें उन्हें धीरे-धीरे अपनाना चाहिए। प्रथम चरण, प्रारंभिक चरण, क्रिया योग कहलाता है। वस्तुतः इसका अर्थ है कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। 

   इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, आत्मा सवार है, और यह शरीर रथ है। घर का स्वामी, राजा, मनुष्य की आत्मा इस रथ पर बैठा है। यदि घोड़े बहुत बलवान हैं और लगाम का पालन नहीं करते, यदि सारथी, बुद्धि, घोड़ों को नियंत्रित करना नहीं जानता, तो यह रथ दुर्घटना-ग्रस्त हो जाएगा। लेकिन यदि इन्द्रियाँ, घोड़े, अच्छी तरह से नियंत्रित हैं, और यदि लगाम, मन, सारथी के हाथों में अच्छी तरह से है, तो बुद्धि, रथ, लक्ष्य तक पहुँच जाता है। इसलिए, तपः का क्या अर्थ है? इस शरीर और इन्द्रियों को चलाते समय लगाम (मन) को अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं करने देकर अपने वश में किये रहना।  

यही उपाय है अपने नजदीकी प्रिय जन के खोने के भय पर विजय प्राप्त करना। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने मृत्यु का भय ही सबसे बड़ी बाधा है। और इस पर विजय पाने का उपाय है - तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधानं ! मन को जीत लेना ही सबसे बड़ा तप है।  मनसः च इन्द्रियाणां 'मन और इन्द्रियों का संयम सबसे बड़ा तप है। महाभारत में कहा गया है - इन्द्रियाणां च मनस ऐकाग्रयं परमं तपः ॥ स्वयं को कष्ट देना तप नहीं है। शरीर और मन को सदा अपने लक्ष्य पर स्थिर रखना। वर्तमान समय में हमलोग इस तपस से एकदम कट गए हैं। लेकिन मृत्यु भय को जितना चाहते हैं।

 स्वाध्याय - पवित्र शब्द ॐ आदि का जप करना स्वाध्याय है। अर्थात गुरुदेव से प्राप्त इष्ट मंत्र का या ॐ प्रणव का निरंतर जप करना स्वाध्याय है । या मोक्ष शास्त्र का अध्यन करना स्वाध्याय है। निरंतर आत्मविश्लेषण , आत्मनिरीक्षण करते रहना। शास्त्र का अर्थ सद्गुरु या अवतार के उपदेश।

 ईश्वरप्रणिधानं- का अर्थ है अपने अहं को प्रभु (अपने इष्टदेव या अवतार वरिष्ठ) के श्री चरणों में पूर्णतया निवेदित कर देना ब्रह्मविद सदगुरुदेव से अपने इष्टदेव या अवतार वरिष्ठ के नाम-जप की पद्धति सीखकर उनकी भक्ति करने से यह सब क्लेश समाप्त हो जाते हैं। इन तीनों का अभ्यास - करने से मूल अविद्या बाधा सहित सभी 5 बाधाएँ समाप्त होकर आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। (पंचकोशों में क्लेशों का मुख्य कारण रूप अविद्या में रहने वाला रज और तम के संयोग से मलिन सत्व के कारण कुंठित वृत्ति वाला कोश ही आनन्दमय कोश है।) 

तपस से शरीर पर नियंत्रण होता है , स्वाध्याय से मन पर नियंत्रण होता है , और ईश्वर प्रणिधान से अहं को (अविद्याग्रस्त अहं को) 'दासो अहं' बनाया जा सकता है। जब हमोग इस प्रकार का संयमित जीवन जीते हैं तब मृत्यु के भय को , निज जन के खोने के भय को भी जीत सकते हैं। 

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सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

नचिकेता की कथा - कठोपनिषद

 नचिकेता में आत्मश्रद्धा का जागरण कठोपनिषद 

 कठोपनिषद में दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। इसमें 119 श्लोक हैं। यम-नचिकेता संवाद में मानव जीवन के गुह्यतम् रहस्यों के बारे में विवेचना हुई है। अतः सभी से अनुरोध है कि इस उपनिषद कथा का बार-बार मनन, चिंतन एवं स्मरण करें तभी परमात्मा इस रहस्य को प्रकाशित करेंगे। 

आचार्य शंकर कहते हैं, तीन चीजें दुर्लभ हैं- मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय:॥ यह तीन दुर्लभ हैं और देवताओं की कृपा से ही मिलते हैं - मनुष्य योनि में जन्म, मोक्ष की इच्छा और सद्गुरु या महापुरुष का आश्रय ॥ ये तीन चीजें केवल ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं, क्योंकि ये तीनों मनुष्य जीवन को सार्थक बना देती हैं। नचिकेता के चरित्र में आपको ये तीनों चीजें मिलेंगी, इसीलिए स्वामी विवेकानन्द को नचिकेता का व्यक्तित्व बहुत पसंद था। (28.03) नचिकेता के व्यक्तित्व में वे तीन चीजे क्या थीं ? पहला सबसे महत्वपूर्ण गुण था -श्रद्धा ! श्रद्धा क्या है - इसको ध्यान से समझना चाहिए। आमतौर से श्रद्धा का अर्थ शास्त्र और गुरु पर विश्वास समझते हैं , किन्तु इसका वास्तविक अर्थ अंग्रेजी का faith नहीं, संस्कृत का आस्तिक्य-बुद्धि है! अपनी आत्मा में विश्वास। श्रद्धा का अर्थ है कि हम सब में प्रत्येक के भीतर एक अंतर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) है या  (Infinite Reality) है जो मृत्यु से परे है। जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है , उसका कोई अर्थ जरूर है, जीवन का एक उद्देश्य है। आत्मश्रद्धावान मनुष्य हमेशा सकारात्मक सोंच रखता है। श्रद्धा मानव मन का वैसा गठन है जो उस अंतर्निहित दिव्यता या परम सत्य पर अटूट विश्वास रखता है जो मृत्यु से परे है। और इसके विपरीत यदि हममें श्रद्धा न हो , तब क्या होता है ? तब मनुष्य में  'cynicism and escapism' निराशावाद और पलायनवाद की मनोवृत्ति (कोविड-19 से भी खतरनाक रोग) हावी हो जाती है। कोरोना काल में हमने इसका अनुभव किया है। यह विश्वास हमें सफल बनाता है, नीडर बनाता कि हमारे भीतर एक ऐसी दिव्यता है जो अविनाशी है। कहानी कहती है कि नचिकेता में श्रद्धा का प्रवेश हुआ। हमारी शिक्षा-व्यवस्था में आत्मश्रद्धा बढ़ाने के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं है, हमलोग भौतिक जगत से परे किसी आध्यात्मिक जगत की बात सुने ही नहीं हैं। तो श्रद्धा बढ़ाने का उपाय क्या है, हममें नचिकेता जैसा विश्वास कैसे आ सकता है ? पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था गुरु-शिष्य वेदांत परम्परा में आधारित थी,.....  नचिकेता को याद हो आया , मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ। स्वामीजी कहते थे -वह अंतर्निहित दिव्यता जो मृत्यु से परे है; उस पर समाज को श्रद्धा रखना ही होगा , और जो समाज मानवमात्र में अंतर्निहित दिव्यता पर श्रद्धा नहीं रखेगा , वह समाज विनष्ट हो जायेगा। अर्थात 2H को 3rdH' पर श्रद्धा रखना होगा। 3rdH को 2H पर श्रद्धा नहीं रखना है , बॉडी-माइंड कम्प्लेक्स को अपने अंतर्निहित अविनाशी स्वरूप पर श्रद्धा रखना होगा। आज की शिक्षा-व्यवस्था में यह श्रद्धा बिल्कुल गायब है। नचिकेता को वह साहस कहाँ से मिला कि वह बिना डरे यमराज के घर पहुँच गया ? (42.35) श्रद्धावान मनुष्य के लिए मृत्यु भी बहुत छोटी बात हो जाती है। क्योंकि उसमें यह अटल विश्वास था कि मेरे अंदर वह ब्रह्मत्व अंतर्निहित है जो मृत्यु से परे है ! श्रद्धा रहने से ही विवेक-जाग्रत हो जाता है। ( 46.00) God gifted capacity to differentiate -what is permanent what is transient?  शाश्वत -नश्वर विवेक जाग्रत हो जाता है कि द्रष्टा शाश्वत है , दृश्य नश्वर है। लेकिन यदि आप में श्रद्धा नहीं हो- कि मेरे भीतर वह आत्मा है जो मृत्यु से परे है , जो अपरिवर्तनीय है, परिवर्तनशील देह-मन से पृथक है तो यह विवेक जाग्रत नहीं होगा। विवेक को क्रियाशील बनाने वाली पहली चीज है श्रद्धा। विवेक आते ही दूसरी चीज आएगी वैराग्य -हर क्षणिक सुख के प्रति अरुचि होगी (कामिनी-कांचन में लालच कम होगा।) जो शाश्वत है उसके प्रति तीव्र प्रेम उत्पन्न होगा। 'distaste for everything that is transient , intense love for that which is permanent! शाश्वत सत्य ठाकुर-माँ -स्वामीजी के प्रति उसी प्रेम को भक्ति कहते हैं। यह भक्ति ही श्रद्धा का प्रारम्भ बिंदु है। यह भक्ति हमें आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाएगी जिसका अनुभव हम सभी को होना सम्भव है। इसलिए भगवत गीता में कहा गया है - श्रद्धावान लभते ज्ञानं (४/३९) जो साधक और साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करके वह स्थायी परम शांति को प्राप्त करता है। वह समाज श्रेष्ठ है जिसमें सर्वोच्च सत्य को अभ्यास में उतारा जाता है। स्वामीजी कहते थे - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसको अभिव्यक्त करना जीवन का उद्देश्य है। श्रद्धा से विवेक-वैराग्य कैसे मिले ? 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥

वचनामृत: यह आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। अर्थात यह आत्मा उस व्यक्ति के समक्ष  अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है, जो अपने लक्ष्य के रूप में नश्वर संसार को नहीं शाश्वत आत्मा का चयन करता है। मनुष्य के रूप में जन्म लेकर हम चाहते क्या हैं ? पशु जैसा क्षणिक सुख देने  संसार -या शाश्वत अमरत्व ? जो व्यक्ति सांसारिक सुख को जीवन का लक्ष्य के रूप में चुनेगा, क्या आत्मा उसके समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट करेगा ? और जीवन-लक्ष्य के रूप में आत्मा को चुनना -श्रद्धा से ही शुरू होता है। 

 जब आत्मा (ब्रह्म) अपने ही ह्रदय में हैं , तब सभी लोग उन्हें अपनी बुद्धि रूपी नेत्रों द्वारा देख क्यों नहीं पाते ? अधिकांश मनुष्य जीवन-लक्ष्य के रूप में आत्मा को क्यों नहीं चुनता ? उस पर एक महत्वपूर्ण श्लोक है -  पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः, तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । - काठकोपनिषत् २-१-१, स्वयंभू भगवान (T) ने रूप, रस, शब्द , गंध और स्पर्श की सभी इन्द्रियां बहिर्मुख इसलिए बनाई कि मनुष्य विवेक द्वारा उनका यथायोग्य त्याग और ग्रहण कर सकेगा, और सुखमय जीवन बिताते हुए परमात्मा की ओर अग्रसर होगा। परन्तु विवेक के अभाव से अधिकांश मनुष्य इस बात को नहीं जानते। और इन्द्रिय-भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं। "कश्चित् धीरः अमृत-त्वम् इच्छन् आवृत्तचक्षुः प्रत्यगात्मानम् ऐक्षत् ॥ कोई विरला - ऊँगली पर गिनने योग्य जिनकी संख्या होती है , ऐसे थोड़े से धीर मनुष्य- आवृत्तचक्षुः' जिस पर ठाकुर -माँ -स्वामीजी की विशेष कृपा होती है, भोगों (Bh) के परिणाम को जानकर - आत्मा को प्राप्त करने की इच्छा से मन -इन्द्रियों को अंतर्मुखी करके आत्मा को देखता है। मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य दो विभिन्न दिशाओं में बना सकता है। इसलिए स्वामीजी कहते थे - उठो , जागो - अविद्या, अज्ञान की  मोहनिद्रा से जागो ! और लक्ष्य प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो!  "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति ॥" सद्गुरु के पास जाओ, यमराज यहाँ गुरु हैं -उनसे जाकर लक्ष्य को समझो ! प्रश्न उठता है -स्वयं आत्मा का अनुभव किये बिना श्रद्धा कैसे समझें ? ठकुर कहते थे दिन में सूर्योदय के बाद आसमान में तारे नहीं दीखते , तो क्या तारे नहीं होते ? (105. 50) अतएव हमलोगों को गुरु वाक्य या चार महावाक्यों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। ठीक है अभी हम तारों को नहीं देख रहे हैं , लेकिन मेरे गुरु देव ने उन्हें देखा है , इस पर पूरी श्रद्धा रहे। यदि हमें आत्मसाक्षात्कार हो गया है , तब विश्वास करने की जरूरत ही नहीं है। विवेक-चूड़ामणि में आचार्य शंकर कहते हैं - "शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुध्यवधारणम्। सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तुपलभ्यते।। आत्मा मैंने नहीं देखा पर मेरे गुरु देव ने देखा है , शास्त्र भी यही कहते हैं। मैं कौन हूँ - मैं क्या हूँ ? मेरी सही पहचान क्या है ? जो देख रहे हैं वो माया है - सत्य है पर मिथ्या है, अनिवर्चनीय है। स्वप्न में देख रहे हैं - पूर्णमदः पूर्णमिदं ! स्थूल अन्नमय कोष-आनंदमय कोष से अत्यंत सूक्ष्म आत्मा को अलग कैसे करें?   

शतं चैका च हृदयस्य नाद्य- स्तासासं मूर्धनमभिनिःश्रितैका।

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्न्या उत्कमने भवन्ति।। 16।।

हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमें से एक सिर की ओर उठती है। उसी के साथ ऊपर जाने पर मनुष्य अमरत्व प्राप्त करता है। बाकी नाड़ियाँ विभिन्न दिशाओं में जाने के लिए हैं ।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।

तं स्वच्छरिरात् प्रवृहेंमुञ्जादिवेषिकन् गाम्भीर्येण।

तं विद्याच्छुक्रममृतं तंच्छ विद्याच्छुक्रममृतमिति।। 17।।

[अङ्गुष्ठमात्रः of the size of a thumb पुरुष: the Puruṣa अन्तरात्मा the inner soul सदा always जनानाम् of beings हृदये in the heart सन्निविष्ठः dwelling: मुञ्जात् from the rush इषीकाम् the central stalk इव like स्वात् one’s own शरीरात् from the body तम् him धैर्येण with perseverance प्रवृहेत् should separate; तम् him शुक्रम् pure अमृतम् immortal विद्यात् know. 

The Purusha of the size of a thumb, the inner soul dwells always in the heart of beings. One should separate Him from the body as the stalk from a grass. Know Him to be the pure, the immortal, yea, the pure, the immortal.

 One should extricate the element of absolute consciousness—the pure chit—in him from his consciousness of the body by assiduous discrimination (Vichara) and meditation. The simile of stalk and grass is very apt.]  (121. 36)   

अंगूठे के आकार का पुरुष , आंतरिक आत्मा, हमेशा मनुष्य के हृदय में निवास करती है। आत्मा सबसे सूक्ष्मतम वस्तु है जिसको पंच-कोशों से वैसे ही अलग करना पड़ेगा जैसे बहुत अध्यवसाय (परिश्रम) और ध्यान से मुंज के सींक (डंठल) को कास के घास से अलग किया जाता है , यह उपमा बहुत उपयुक्त है। मनुष्य को अपने भीतर के उस परम चेतना के तत्व (absolute consciousness-शाश्वत चैतन्य को) - अंतर्निहित शुद्ध  चित् - को अध्यवसाय के साथ विवेक ( शाश्वत-नश्वर विवेक)  और ध्यान द्वारा - मन-बुद्धि को तीक्ष्ण बनाकर, अर्थात मन को पूर्णतया पवित्र बनाकर ( चित्' को चित्त या मन वस्तु बंनने से) स्वयं को परिवर्तनशील देह-मन समझने से उसी प्रकार अलग करना चाहिए।

[मूंज, सींक, कास!

मूंज से सींक कैसे निकालें? ये ढूंढते ढूंढते ये पोस्ट मिली। कठोपनिषद में ब्रह्म प्राप्ति का ऐसा एक तरीका बताया है कि हृदयाकाश में अवस्थित 'पुरुष' को सर के ऊपर ऐसे निकालना होता है जैसे मूंज से सींक। अति दुष्कर कार्य।

प्रयागराज भारत के सबसे पुराने शहरों में से एक है। यह तीन नदियों- गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर स्थित है। प्रयागराज (संगम) में हर छह साल में आयोजित होने वाला कुंभ मेला और हर 12 साल में होने वाला महाकुंभ इस धरती पर तीर्थयात्रियों की सबसे बड़ी भीड़ का गवाह बनता है। उत्तर प्रदेश में मूंज नामक घास की बाहरी परतों को लपेटकर रोजमर्रा के इस्तेमाल और विशेष अवसरों के लिए टोकरियाँ बनाने की परंपरा है।

मूंज (सरकंडा) या 'सरपत' एक प्रकार की घास है जो १०-१५ फुट उँची होती है। इसकी पत्तियाँ पतली एवं लम्बी होती हैं जिनके किनारे छोटे-छोटे कांटे होते हैं।  मूंज और कासा जंगली घास के प्रकार हैं जो प्रयागराज के विशाल क्षेत्रों में और उसके आसपास नदी के किनारों के पास प्रचुर मात्रा में उगते हैं। प्रयागराज का नैनी इलाका मूंज शिल्प के लिए जाना जाता है। यह प्रायः नदियों के किनारे बलुई जमीन पर अधिक उगती है। इसको लोग खेतों की मेड़ पर भी लगाते हैं।यह शिल्प ज्यादातर महिलाओं द्वारा किया जाता है। 

     कच्चे माल की आसान उपलब्धता ने इस शिल्प को जिले में फलने-फूलने में सक्षम बनाया है। बाजार मूंज से बने विभिन्न उत्पादों जैसे टोकरी (डलिया), कोस्टर स्टैंड, बैग, सजावटी सामान और बहुत कुछ से भरा पड़ा है। कितना भी पैसा वाले हों खास कर रोटियां सेंकने के बाद इसी में ही रखीं जाती थीं। शाम तक क्या अगले दिन तक भी रोटियां तरोताजा और महक से भरीं रहतीं थीं ।  कास और मूंज की मदद से रंग बिरंगी, नई नई डिजाइन की वाडिया, सिकौहुली, मौनी, डलवा, डलिया, पिटारा, पिटारी बनाई जाती थी।मूंज,काश का हमारें धर्म में बड़ा ही महत्व है। जब दुल्हन विदाई करके ससुलाल आती तो जमीन पर मौनी (डलवा) रखा जाता है और दुल्हन अपने कदम उसमें रखते हुए प्रथम गृहप्रवेश करती है,अभी ये रसम हमारें यहां निभाई जाती है,  मूंज की रस्सी शादी के मंडप बनाने में भी काम आती और अर्थी बांधने में भी, शुभ अशुभ दोनों में काम आती है। इससे डालिआ और मौनी भी बिनी जाती है। हाथों से बने ये बर्तन बेटी के विवाह में ग्यारह, इक्कीस, इक्कावन के हिसाब से दिए जाते थे। जो बहुरिया जितना अधिक डलवा, मौनी लेकर आती थी उसे उतना ही सुघड़ माना जाता था। विवाह में शामिल होने आई रिश्तेदार महिलाएं बहु के साथ आए इन डलवा में से अपनी पसंद का डलवा उपहार स्वरूप अपने साथ अपने घर ले जाती थी।  और फिर घर पर बखान करती थीं कि बड़ी सुघर दुलहिन है डलवा, सिकौहिली से घर भर दी है!  बेटी के विवाह में जो रिश्तेदार शामिल होने आते थे वो भी अपने घर से एक सिकौहुली, बेना बेटी के विदाई के समय देने के लिए लाते थे ताकि बिटिया के घर वालों की मदद हो सके और बेटी संग खूब डलवा सिकौहुली विदाई में ससुराल जाए।  अब इन्हें बनाने वाले, सीखने वाले लोग कम हो गए हैं।

पर्यावरण के अनुकूल मूंज उत्पादों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता है। प्रयागराज में मूंज और कासा घास का मिश्रण घास के उत्पाद बनाने के लिए लोकप्रिय है क्योंकि इस क्षेत्र में दोनों घास बहुतायत में उगती हैं। कच्चा माल साल में एक बार उपलब्ध होता है, इसलिए कारीगर पूरे साल की मांग को पूरा करने के लिए इसे खरीदते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के स्वदेशी शिल्प को बढ़ावा देने के लिए " एक जिला एक उत्पाद " योजना शुरू की है। प्रयागराज के लिए ODOP योजना के तहत मूंज उत्पादों को मान्यता दी गई है।]

नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ।

अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।। १२ ।। 

[(स आत्मा the Ātman) वाचा by speech न एव verily not, मनसा by mind न एव not even, चक्षुषा by eyes न एव not also प्राप्तुम् to attain (realize) शक्यः can be; (आत्मा Ātman) अस्ति is इति thus ब्रुवतः from those who speak अन्यत्र besides तत् That कथम् how उपलभ्यते is comprehended.]

अतएव आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम उस गुरु (सद्गुरु यमराज) के वचनों पर विश्वास करना है, जिसने वास्तव में आत्मा का साक्षात्कार किया है। 

(This Atman) can never be reached by speech, nor even by mind, nor eyes. How can it be realised otherwise than from those who say that It exists?] 

मृत्युप्रोक्तान्नाचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।

ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ।। 2.3.18 ।।


अथ then नाचिकेतः Naciketas मृत्युप्रोक्ताम् told by Death एताम् this विद्याम् knowledge कृत्स्नम् whole योगविधिम् process of Yoga च and लब्ध्वा having got, विरजः free from all impurities विमृत्युः free from death (i.e., desires, passions etc.) (भूत्वा having become), ब्रह्मप्राप्तः realised Brahman (अभूत् was). अन्ये other यः who अपि एव also thus अध्यात्मम् the inner self एवंवित् knows thus (ब्रह्मपाप्तो भवति attains Brahman).

अथ फिर नाचिकेत: नचिकेतस मृत्युप्रोक्ताम् मृत्यु द्वारा बताया गया एतम् यह विद्याम् ज्ञान कृत्स्नम् संपूर्ण योगविधिम् योग की प्रक्रिया च और लब्ध्वा को पाकर, विरजाः सभी अशुद्धियों से मुक्त विमृत्युः मृत्यु से मुक्त (अर्थात, इच्छाएं, जुनून आदि) (भूत्वा बन गया), ब्रह्मप्राप्तः ब्रह्म का एहसास हुआ (अभूत था)। अन्ये अन्य यः जो अपि एव भी इस प्रकार अध्यात्मम् आंतरिक स्व एववित् इस प्रकार जानता है (ब्रह्मपाप्तो भवति ब्रह्म को प्राप्त करता है)।

Nachiketas having been so instructed by Death in this Knowledge and in the whole process of Yoga, became free from all impurities and death, and attained Brahman; and so also attain all others who know thus the inner-self.

ॐ। सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।।

ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।।

 नेति -नेति द्वारा आत्मा को अनात्म तत्वों से अलग करना होगा। अर्थात परिवर्तनीय (देह-मन -बुद्धि) से अपरिवर्तनीय (आत्मा-साक्षी या द्रष्टा) को  अलग करना होगा। जब आप सीढ़ियों से होते हुए छत पर पहुँच जाते हैं , तब सीढियाँ भी एक ही तत्व प्रतीत होती हैं। आत्मसाक्षात्कार होने के बाद यह समझ में आता है कि जिस देह-मन इन्द्रियों को मैंने जड़ समझकर स्वयं से अलग किया था वे सब आत्मा की ही अभिव्यक्ति थे। ब्रह्म या आत्मा ही देह- मन के रूप में भासता है। महावाक्य - सर्वं खलु इदं ब्रह्म ! हमलोग ब्रह्म को ही जगत समझ रहे थे- भाई , बेटा, पुतोह , मित्र -शत्रु समझ रहे थे ! प्रश्न : श्रद्धा से यदि अधिक विवेक , अधिक वैराग्य मिलता है , तो हमें और अधिक श्रद्धा कैसे मिलेगा ? (127. 23)  

सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।

निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥

भज गोविन्दम भज गोविन्दम ,गोविन्दम भज मूढ़ मते। 

~अधिकाधिक आत्मश्रद्धा की प्राप्ति नियमित पाठचक्र में जाने से होगी अर्थात  सत्संग से होगी , सत्संग से ही वैराग्य होगा ,वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर -या अपरिवर्तनीय  तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है॥

 श्रद्धा पाने का प्रारम्भ बिन्दु है साप्ताहिक पाठचक्र , मतलब ये कि जब तक हम सत्संग नहीं करते हैं - [सद्गुरु (विवेकानन्द) महाराज की शरण नहीं जाते हैं)] तब तक हमारा बुरी बातों से निसंग नहीं हो पाता। यदि हम तमो रजो गुणी खाना ही खाते रहेंगे  तो सतो गुणी खाने के आनन्द का अनुभव कैसे कर सकते हैं ? सत्संग से आनन्द का अनुभव जैसे जैसे बढ़ता जाता है, अनावश्यक बेकार कि बातों से छुटकारा मिलता जाता है। सत्संग से कितनें लोगों को बुरी आदतों जैसे स्मोकिंग, शराब, गुस्सा करना आदि से छुटकारा पाते हुए मैंने देखा है।  जैसे जैसे बुरी बातों से निसंग होता जाता है ,मन में मोह यानि अज्ञान का विनाश हो ज्ञान का प्रकाश होता जाता है।  ज्ञान के उदय होने से ही विवेक का उदय होता है।  विवेक के द्वारा ही निश्चल तत्व समझने में  आने लगता है कि जीवन में क्या करना है और क्या नहीं ?  ऐसा समझ आते ही तो फिर  जीवन  निश्चल तत्व  की  प्राप्ति की  ओर अग्रसर हो जाता है।  यदि ऐसा जीवन में घटित होता है और सभी  भ्रमों से छुटकारा मिल जाये तो यही जीवन मुक्ति है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने अपने मोह-मुद्गर में लिखा है।       

[ जन्म-मृत्यु के रहस्य को समझो और दूसरों को बताओ ! इसलिए दादा कहते थे -लड़कों को तीन चीजें बताओ- श्रद्धा क्या है, विवेक (सतसत-मिथ्या) क्या है और मनुष्य का जीवन 'meaningful' या सार्थक कैसे होता है ?]

तो फिर मुक्ति के लिए उलझन और भटकन कैसी?  मुक्ति तो आप-हम सब का इन्तजार कर रही है, बस जरा सत्संग जमा लीजिए।  लेकिन थोडा रुकिए, राम कृपा को भी तो समझ लेते हैं।  राम कृपा हमारे पिछले और वर्तमान कर्मों का ही तो समग्र रूप है।  भूतकाल में यदि हमने अच्छे विचारों, भावों और कर्मों का संग किया हो तो सत्संग हमे कभी न कभी  दैव योग से मिल ही  जाता है। और यदि वर्तमान में  ही अच्छे विचारों, भावों और  कर्मों का संग करें तो तत्काल  राम कृपा हो  जाती है और सत्संग सहज रूप से सदा उपलब्ध रहता है।  पिछले का पछताना क्या,अब तो वर्तमान की ही सोचें।  कहा भी  गया है- बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेई !

(130. 50) - बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने के लिए यदि मन की पवित्रता जरुरी है , तो संसारी मनुष्यों की बुद्धि भी तो बहुत तीक्ष्ण होती है , फिर रजोगुणी व्यक्ति से सतोगुणी बनना क्यों अनिवार्य है ?क्योंकि आध्यात्मिकता को सतोगुणी व्यक्ति ही समझ सकता है। इन्द्रियातीत सत्य को भौतिक स्तर की बुद्धि नहीं समझ सकती। साधारण मनुष्यों की बुद्धि 'governed by ' राग और द्वेष से प्रेरित/शासित होकर कार्य करती है। एक शक्ति है जो हमें किसी से घृणा करने के लिए मजबूर कर देती है, या किसी के प्रति तीव्र आकर्षण का अनुभव करने के लिए मजबूर कर देती है। यह शक्ति मनुष्य के मन को दो विपरीत दिशाओं में खींच लेती है। इससे मन को पवित्र रखना है। इन्द्रिय ग्राह्य जगत में भ्रमण करते समय भी मन को राग-द्वेष से -neutral' तटस्थ रखना है। इस अवस्था में प्रशिक्षित मन अंतर्निहित देवत्व की अनुभूति कर सकता है। राग-द्वेष से वशीभूत बुद्धि तीक्ष्ण होते हुए भी आध्यात्मिक सत्य तक नहीं पहुँच सकती। 

श्रेय-प्रेय विवेक क्या है ? (137.06) जो चीजें इन्द्रियों के लिए मजेदार नहीं हों , किन्तु हितकारी हों वे श्रेय हैं। आँवला -इमली विवेक केवल मनुष्य कर सकता है। पशु के पास यह विवेक नहीं होता। विवेक-रहित मनुष्य भी पाशविक बुद्धि से या आहार, निद्रा , भय , मैथुन से निर्देशित रहता है। क्षणिक भोगों के सुख में केवल दुःख मिलता है। जो सचमुच श्रेयस है , शुरू में तकलीफ देह लग सकता है , किन्तु वही लाभदायक है। ध्यान करना , मनःसंयोग के लिए 5 मिनट बैठना भी बहुत पीड़ादायक लगता है , किन्तु लगे रहने से एक दिन आत्मा के अमृत का आनन्द देता है।

(141. 37) लॉकडाउन में कैसे रहें ? भगवान के तरफ से वरदान समझें कि अभी हम जीवन का उद्देश्य समझ सकते हैं। हमलोग अभी तक क्या पाने के लिए दौड़ रहे थे ? मशीन की तरह कोई शक्ति हमें दौड़ने के लिए मजबूर करती है। जब अपने घर में रहना कठिन लगता है , तो मन की सीमा से अंतर्मुखी होकर ध्यान कितना कठिन होगा ? हमें अभी नचिकेता की तरह जीवन का उद्देश्य पूछना चाहिए। महाभारत में युधिष्ठिर भी यक्ष-प्रश्न का उत्तर देता है।- सृष्टि में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है ? हर स्त्री-पुरुष रोज अपने सामने व्यक्ति को मरते देखता हैं , किन्तु उसे भी एक दिन मरना होगा , नहीं सोचता। कोरोना युग में हमने मृत्यु का नृत्य देखा है -एक निश्चित दिन और समय हमें भी शरीर छोड़ना है , कोई नहीं सोचता।   यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि हर रोज हमारी आंखों के सामने न जाने कितने लोग मृत्यु के मुख में समा जाते हैं, फिर भी हममें से बचे हुए लोग यही कामना करते हैं कि हम अमर रहें। यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। इस संसार में जो आया है उसे एक न एक दिन यहां से जाना ही होगा। फिर भी वे इस प्रकार आचरण करते हैं जैसे उन्हें सदा ही यहां रहना है और मृत्यु उनके लिए नहीं है। हमें सभी के आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। 

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बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

आकाश और प्राण अलग नहीं हैं - एक शक्ति है जो आकाश और प्राण को संयुक्त करती है। "सत्व, रज और तम गुण नहीं, जगत के उपादान हैं !"

[Swami Vivekananda’s Search for a Mathematical Demonstration of the Unity of Existence ! (Written By Swami Tathagatananda) ]


स्वामी विवेकानंद ने अस्तित्व का एकत्व (oneness of existence) या  (oneness of matter and energy) पदार्थ और ऊर्जा का एकत्व, अथवा ईश्वर, मनुष्य और प्रकृति (oneness of 3H) में परम एकत्व का या अंतर्निहित दिव्यता - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है'-का उपदेश दिया था , जो वेदांत का मुख्य सिद्धांत (keynote principle) है।

इस दृश्य जगत ब्रह्माण्ड (phenomenal world) में प्रत्येक वस्तु के पीछे एक एकजुट करने की शक्ति (unifying energy-गुरुत्वाकर्षण ? महत्') है जो पूरे ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है और जिस पर सभी सजीव (animate-living) और निर्जीव (inanimate-lifeless) वस्तुएँ अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं। यह शक्ति 'ब्रह्म' (परम सत्य- परमात्मा) से प्रकट होती है। यह शक्ति (महत्) (pure Consciousness -शाश्वत प्राण स्पंदन] ही जगत ब्रह्माण्ड की समस्त घटनाओं का आधार है ['It' (=सिनेमा का पर्दा -जिस पर फिल्म महाभारत या शोले चल रही है) -projects, manifests, sustains, penetrates, permeates, observes, regulates and ultimately absorbs within Itself the objective world. ] और यह शक्ति ही इस भौतिक जगत को प्रक्षेपित करती है, या अभिव्यक्त करती है , पालन करती  है,उसमें प्रविष्ट हो जाती है, व्याप्त हो जाती है, निरीक्षण करती है, और अन्ततः इस भौतिक जगत को अपने भीतर समाहित कर लेती है। 

वेदांत के मतानुसार आकाश और प्राण दोनों ब्रह्मांडीय एकत्व (महत या Cosmic Oneness) से उत्पन्न सूक्ष्म ऊर्जा (Microscopic Energy- chi, aura, spiritual energy-जैसे मूलाधार चक्र आदि की ऊर्जाके अलावा कुछ नहीं हैं। 'Modern science suggests the world is made of Matter and Energy. ' और मॉडर्न साइंस भी कहता है कि भौतिक जगत पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) से मिलकर बना है। उस वस्तु को पदार्थ कहते हैं -जो जगह स्थान (space-देश) घेरता है। 'Matter is anything that takes up space.' हमलोग जानते हैं कि पदार्थ की तीन अवस्था है - ठोस, तरल और गैस। और जिसमें गतिशीलता उत्पन्न करने की क्षमता हो उसे ऊर्जा (Energy) कहते हैं। 

   यह समझ लेना कि ऊर्जा क्या है और यह शरीर में कैसे काम करती है, हमें अपने दैनिक जीवन में व्यावहारिक लाभ प्रदान कर सकती है। उस समय की बात याद करें जब सीढ़ी से पहाड़ चढ़ते समय आप महसूस करते हैं कि , अब शरीर में एक डेग आगे रखने की क्षमता नहीं बची हो तब , हम कहते है -मेरे पास अब कोई ऊर्जा नहीं बची है !  "I just don't have the energy." उस समय हम कॉफी पीने या कैडबरी चॉकलेट खाने के बदले कुछ योगासन या प्राणायाम के द्वारा अपने आंतरिक ऊर्जा केंद्रों को विकसित कर अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त कर सकते है। "Or think of a time you felt a sudden burst of high energy and didn't know what to do with yourself. " या उस अवस्था को याद कीजिये जब आपको अचानक बहुत अधिक ऊर्जा की अनुभूति हुई हो , और आपको समझ नहीं आया कि अभी क्या करना चाहिए ?  हम उस ऊर्जा को संयमित कर , उसे पूरे शरीर में वितरित कर सकते हैं, और अपने लाभ के लिए उसका उपयोग कर सकते हैं। ऊर्जा शरीर में उसी तरह प्रवाहित होती है जैसे बिजली तारों के माध्यम से या हवा के माध्यम से भी प्रवाहित होती है। (Energy flows through the body in the same way that electricity flows through wires or even through the air. बी.के.एस. अयंगर ( B.K.S. Iyengar) ने अपनी पुस्तक "Light on Yoga' नाड़ियों और चक्रों का वर्णन किया है, जो शरीर के ऊर्जा नेटवर्क के घटक हैं। साभार -https://www.eomega.org/article/an-introduction-to-subtle-energy] गीता में भगवान कहते हैं - 

अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपेरे।

प्राणापंगति रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।।

।।4.29।। तथा ( कोई ) अपान वायु में प्राणवायु का हवन करते हैं अर्थात् पूरक नामक प्राणायाम किया करते हैं। वैसे ही अन्य कोई प्राण में अपान का हवन करते हैं अर्थात् रेचक नामक प्राणायाम किया करते हैं। मुख और नासिका के द्वारा वायु का बाहर निकलना प्राणकी गति है और उसके विपरीत ( पेटमें ) नीचेकी और जाना अपान की गति है। उन प्राण और अपान दोनों की गतियोंको रोककर कोई अन्य लोग प्राणायाम परायण होते हैं अर्थात् प्राणायाम में तत्पर हुए वे केवल कुम्भक नामक प्राणायाम किया करते हैं।

 जैसी कि सामान्य धारणा है प्राण का अर्थ केवल वायु अथवा श्वास नहीं है। हिन्दु शास्त्रों में प्रयुक्त प्राण शब्द का अभिप्राय जीवन शक्ति के उन कार्यो से है जो एक जीवित व्यक्ति के शरीर में होते रहते हैं। शास्त्रों में वर्णित पंचप्राणों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे शरीर धारणा के पाँच प्रकार के कार्य हैं। वे पंचप्राण हैं प्राण अपान व्यान समान और उदान जो क्रमश विषय ग्रहण मलविसर्जन शरीर में रक्त प्रवाह अन्नपाचन एवं विचार की क्षमताओं को इंगित करते हैं।सामान्यतः  मनुष्य को इन क्रियायों का कोई भान नहीं रहता परन्तु प्राणायाम के अभ्यास से इन सबको अपने वश में रखा जा सकता है। 

प्राणायाम को यज्ञ समझ कर जो व्यक्ति इसका अभ्यास करता है वह अन्य उप-प्राणों को मुख्य प्राण में हवन करना भी सीख लेता है। इस श्लोक में क्रमश रेचक पूरक और कुम्भक का उल्लेख है। इस श्लोक में आत्मसंयम के लिये उपयोगी प्राणायाम विधि का वर्णन किया गया है जिसका अभ्यास कुछ साधकगण करते हैं। सामान्यतः हमारी श्वसन क्रिया नियमबद्ध नहीं होती। अत पूरक-कुम्भक-रेचक- प्राणायाम की विधि का उपदिष्ट अनुपात में अभ्यास करने से प्राण को संयमित किया जा सकता है जो मनसंयम के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है।] 

प्राण भौतिक शक्ति ( physical force) के रूप में प्रकट होता है; आकाश संवेदी (sensible या व्यावहारिक) पदार्थ के रूप में। यह संसार केवल अणुओं की एक व्यवस्था मात्र नहीं है जिसके पीछे कोई एकीकृत शक्ति (unifying force) नहीं है। [इस संसार की भी एक माँ है !!] आकाश और प्राण अलग नहीं हैं - एक शक्ति (energy) है जो आकाश और प्राण को संयुक्त करती  है (Akasha and Prana are not separate— there is one power or force that unites Akasha and Prana. )

In 1895, in his London lecture, “The Real Nature of Man,” Swamiji emphasized the unity of power or energy (“force”) with matter:  

स्वामी विवेकानन्द 1895 में लंदन में 'मनुष्य का यथार्थ स्वरुप' विषय पर बोलते हुए पदार्थ के साथ ऊर्जा (शक्ति) के एकत्व बल देते हुए कहते हैं - "What makes the body? What force combines the molecules into the body form? What force is there which takes up material from the mass of matter around and forms my body one way, another body another way, and so on? What makes these infinite distinctions?"

" शरीर की रचना कौन करता है ? कौन सी शक्ति इन भौतिक अणुओं को शरीर के रूप में परिणत करती है ? कौन सी शक्ति प्रकृति में पड़ी हुई जड़ वस्तु के ढेर में से कुछ अंश लेकर तुम्हारा शरीर एक प्रकार का और मेरा शरीर दूसरे प्रकार का बना डालती है ? ये सब अनन्त विभेद (distinctions-पार्थक्य ) कैसे होते हैं ? ..... 'the force which takes up the matter and forms the body is the same which manifests through that body'. जो शक्ति जड़ तत्व को लेकर उससे शरीर का निर्माण करती है, और जो शक्ति शरीर के भीतर व्याप्त है, वे दोनों एक ही हैं। अतः यह कहना कि 'जो चिंतन-शक्ति ( thought forces) हमारे शरीर में व्यक्त है, वह केवल जड़ अणुओं के संयोग से उत्पन्न होती है और इस लिए शरीर से पृथक उसका कोई अस्तित्व नहीं' बिल्कुल निरर्थक है - इस कथन में कोई तत्व नहीं है। फिर शक्ति कभी जड़ तत्व से (evolve out-बीज से वृक्ष ?)  उत्पन्न नहीं -  हो सकती(Rather is it possible to demonstrate that what we call matter does not exist at all. It is only a certain state of force. ) बल्कि यह प्रमाणित करना अधिक सम्भव है कि हम जिसे जड़ कहकर पुकारते हैं , उसका अस्तित्व ही नहीं है, वह केवल शक्ति की एक विशेष अवस्था है। यह सिद्ध किया जा सकता है कि ठोसपन (Solidity) , कठोरता (hardness) आदि जो सब जड़ के गुण हैं , वे गति के फल हैं। वायुपुंज में यदि (vortex motion-भँवर गति) उत्पन्न कर दी जाये, जैसे तूफान में, तो वह ठोस सा हो जाता है, और अपने आघात से ठोस पदार्थो को (बड़े-बड़े वृक्षों को) उखाड़ या काट सकता है। यदि मकड़ी के एक तंतु को अनंत वेग दिया जाये , तो वह लोहे की जंजीर जैसा सशक्त हो जायेगा और ओक के पेड़ को काटकर पार हो जायेगा। " २/९ )

Swamiji then went on to identify this force or energy and explain its relevance in human life: इसके बाद स्वामीजी ने इस शक्ति या ऊर्जा की पहचान की तथा मानव जीवन में इसकी प्रासंगिकता के बारे में बताया: Whatsoever has form must be the result of combinations of particles 

" जिस किसी वस्तु की आकृति है, वह बहुत से  परमाणुओं की एक संहति मात्र है , अतएव उसको चलाने के लिए कोई दूसरी चीज चाहिए। यह 'अन्य कोई वस्तु ' ही संस्कृत में आत्मा नाम से सम्बोधित हुई हुई है।   So 'that something ' was called the soul, the Atman in Sanskrit. . . . भिन्न भिन्न दर्शनों में इस विषय में मतैक्य देखा जाता है कि आत्मा का स्वरुप जो कुछ भी हो , उसका कोई रूपाकार नहीं होता , और जिसका रूपाकार नहीं वह अवश्य सर्वव्यापी (omnipresent) होगा। 'Time' begins with mind, 'space' also is in the mind... काल का आरम्भ मन से होता है - देश भी मन के अंतर्गत है। " Causation cannot stand without time. काल को छोड़कर कार्य-कारणवाद नहीं रह सकता।' क्रम की भावना (succession ) के बिना कार्य-कारणवाद (idea of causation) नहीं रह सकता। (बीता हुआ क्षण और आने वाले क्षण के क्रम के बीच में गए बिना-कार्य-कारणवाद नहीं रह सकता।अतएव देश-काल-निमित्त मन के अंतर्गत हैं और यह आत्मा ,मन से अतीत ( beyond the mind) और निराकार (formless) होने के कारण, देश-काल -निमित्त (Time, space, and causation) के परे है।  और जब आत्मा देश-काल-निमित्त से परे है , तब अवश्य अनंत होगी।  Then comes the highest speculation in our philosophy. --" यहाँ पर हमारे दर्शन का (वेदान्त का) उच्चतम विचार सामने आता है। - "The infinite cannot be two." अनन्त कभी दो नहीं हो सकता। यदि आत्मा अनंत है, तो केवल एक ही आत्मा हो सकती है; और यह जो अनेक आत्माओं की धारणा है - तुम्हारी एक आत्मा , मेरी दूसरी आत्मा -यह सत्य नहीं है। If the soul is infinite, there can be only one Soul .....(२/१०)  

"To say that the infinite changes in any way is absurd; it cannot be." अनन्त में किसी प्रकार का परिवर्तन हो, यह एक असंभव बात है। यह कभी नहीं हो सकता। शरीर की दृष्टि से तुम और मैं एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं। जगत का प्रत्येक अनु-परमाणु नित्य परिणामशील है ; पर जगत को एक समष्टि के रूप में लेने पर उसमें गति या परिवर्तन असम्भव है। गति सर्वत्र सापेक्ष है।  मैं जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता हूँ, तब किसी वस्तु के सन्दर्भ में ही। जगत का कोई एक परमाणु किसी दूसरे परमाणु की तुलना में ही परिणाम को प्राप्त हो सकता है ; किन्तु सम्पूर्ण जगत को समष्टि रूप में लेने पर किसकी तुलना में उसका स्थान -परिवर्तन होगा ? इस समष्टि के अतिरिक्त कुछ तो है नहीं। अतएव यह अनन्त इकाई अपरिणामी , अचल और निरपेक्ष है , और यही पारमार्थिक सत्ता है। (२/१२) 

So this infinite Unit is unchangeable, immovable, absolute, and this is the Real Man..... " यदि किसी से कहो कि 'तुम सर्वव्यापी, अनन्त पुरुष हो ' तो वह घबड़ा जायेगा। यदि कहो कि सबके माध्यम से तुम कार्य कर रहे हो, सब के पैरों द्वारा तुम चल रहे हो, सब मुखों से तुम बातचीत कर रहे हो, सब हृदयों से अनुभव कर रहे हो, तो वह डर जायेगा। तुमसे बार बार पूछेगा कि क्या फिर उसका अपना व्यक्तित्व नहीं रह जायेगा ? क्या मैं (बूँद) नहीं रह जाऊँगा ? छोटे बालक की मूँछें नहीं होतीं। बड़े होने पर उसके दाढ़ी -मूँछें निकल आती हैं। यदि 'अहं' शरीर में रहा होता, तब तो बालक का 'व्यक्तित्व ' नष्ट हो गया होता। ... फिर तो चोर का साधु बनना भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे वह अपना व्यक्तित्व खो बैठेगा ! पर बात यह है कि अनंत को छोड़कर और किसी में व्यक्तित्व है नहीं। केवल इस अनंत का ही परिवर्तन नहीं होता, और शेष सभी का परिवर्तन होता रहता है। ... हम अभीतक व्यक्ति नहीं हैं। हम इसी 'व्यक्तित्व ' को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और वह अनंत है , वही मनुष्य का यथार्थ स्वरुप है। जिनका जीवन सम्पूर्ण जगत को व्याप्त किये हुए है, वे ही जीवित हैं ,... जितने क्षण हमारा जीवन समस्त जगत में व्याप्त रहता है, दूसरों में व्याप्त रहता है - उतने ही क्षण हम जीवित रहते हैं। इस क्षुद्रजीवन में अपने को बद्ध रखना [ सिद्धि को काकविष्ठा समझकर -प्रत्येक मनुष्य में अव्यक्त देवत्व को नहीं देखना] तो मृत्यु है और इसी कारण हमें मृत्यु- भय होता है। मृत्यु-भय तो तभी जीता जा सकता है, जब मनुष्य यह समझ ले कि जब तक जगत में एक भी जीवन शेष है , तब तक वह भी जीवित है। अब वह कह सकता है कि 'मैं सब वस्तुओं में, सब देहों में, सब प्राणियों में वर्तमान हूँ ; मैं ही सब जगत हूँ , सम्पूर्ण जगत मेरा शरीर है। .... तब ऐसे व्यक्ति निर्भय हो जाते हैं -तभी निर्भीक अवस्था आती है। ... अनंत का विभाजन नहीं किया जा सकता -अनंत को खण्ड -खण्ड नहीं किया जा सकता। वह सदा एक अविभक्त समष्टिस्वरूप अनंत आत्मा ही है, और वही मनुष्य का यथार्थ 'व्यक्तित्व' है , वही यथार्थ मनुष्य है। (२/१३)    

16 फरवरी, 1896 को स्वामीजी ने न्यूयॉर्क शहर के मैडिसन स्क्वायर गार्डन के कॉन्सर्ट हॉल में अपना व्याख्यान, " वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य" (The Real and Apparent Man) दिया। उन्होंने कहा: ' हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सबकुछ जाना जा सके। हमने समस्त जगत को 'पदार्थ और ऊर्जा' में या प्राचीन भारतीय ऋषियों के शब्दों में 'आकाश (matter) और प्राण (energy)' में पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में पर्यवसित करना होगा। उन्हें 'मन' नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन - 'महत्' अथवा 'universally existing thought-power,' सार्वभौमिक विचार-शक्ति से प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। प्राण या आकाश की अपेक्षा 'विचार' सत्ता (अंतर्निहित दिव्यता) की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वव्यापी मन ही था , और इसने स्वयं व्यक्त , परिवर्तित और विकसित होकर आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना। " (२/२३)  

पुनः, 1897 में कुंभकोणम में दिए अपने ' वेदान्त का उद्देश्य' नामक भाषण में स्वामीजी ने कहा," संसार भर के लोगों को वेदांत के विषय में ध्यान देने का दूसरा कारण यह है कि संसार के समस्त धर्म ग्रंथों में एकमात्र वेदांत ही ऐसा धर्म ग्रन्थ है जिसकी शिक्षाओं के साथ बाह्य प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसन्धान से प्राप्त परिणामों का पूरा सामंजस्य है।.... हमें और उन सबको जो जानने की चेष्टा करते हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आधुनिक भौतिक विज्ञान उन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचा है , जिन तक वेदांत युगों पहले पहुँच चुका था। अन्तर केवल इतना है कि मॉर्डर्न साइंस में ये सिद्धांत जड़ शक्ति की भाषा में लिखे गए हैं। (५/८१ )

 [“It seems to us, and to all who care to know, that the conclusions of modern science are the very conclusions of the Vedanta reached ages ago; only, in modern science they are written in the language of matter” (C. W., III: 185). ]

12 नवम्बर, 1897 को लाहौर के भाषण में 'वेदान्त ' के विषय में स्वामीजी कहते हैं - " हमने देखा कि सम्पूर्ण संसार केवल दो तत्वों में पर्यवसित किया गया है , अभी तक चरम एकत्व पर हम नहीं पहुंचे। शक्ति तत्व के एकत्व को प्राण , और जड़तत्व के एकत्व को आकाश कहा गया है। क्या इन दोनों में भी कोई एकत्व पाया जा सकता है ? ये भी क्या एक तत्व में पर्यवसित किये जा सकते हैं ? हमारा आधुनिक विज्ञानं यहाँ मूक है , वह किसी तरह की मीमांसा नहीं कर सका है।और यदि उसे इसकी मीमांसा करनी ही पड़े तो जैसे उसने प्राचीन ऋषियों की तरह आकाश और प्राणों का अविष्कार किया है , उसी तरह उनके मार्ग पर उसे आगे भी चलना होगा। .. जो कुछ व्यष्टि में हो रहा है वही समष्टि में भी होता है - यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। " ५/२९१-९२ )   

There is the unity of force, Prana; there is the unity of matter, called Akasha. Is there any unity to be found among them again? Can they be melted into one? Our modern science is mute here, it has not yet found its way out. (C. W., III: 400) 

ई.टी. स्टर्डी को 13 फरवरी, 1896 में लिखित एक पत्र (खंड ४/३८४) में वेदान्तिक कल्प का सिद्धांत (सृष्टि-प्रलय चक्र) के आधुनिक विज्ञान का सामंजस्य दिखाने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने निम्न प्रकार से रेखाचित्र बनाया था -- 

पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं।

The Matter and Energy are Interconvertible.

(The Oneness of Matter and Energy)

 

 File:Cosmology Vedanta.svg

No scientist has been able to provide the mathematical interpretation of the Truth of Vedanta that is expressed in its most essential principle, the principle of unity- (एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति :Oneness of Existence) .

अभीतक कोई भी वैज्ञानिक वेदांत के सत्य (इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य)  की गणितीय व्याख्या नहीं कर पाया है, जो इसके सबसे प्रमुख सिद्धांत (महावाक्य -एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति :Oneness of Existence) के एकता सूत्र में व्यक्त की गई है।

 Though Einstein brilliantly demonstrated that energy and mass are equivalent energies differing only in their physical state, his unsuccessful struggle to arrive at a unified field theory pained him till his death.

हालाँकि आइंस्टीन ने शानदार ढंग से प्रदर्शित किया कि ऊर्जा और पदार्थ समान ऊर्जाएँ हैं, जो केवल अपनी भौतिक अवस्था में भिन्न हैं, लेकिन एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत ( unified field theory) पर पहुँचने के उनके असफल संघर्ष ने उन्हें उनकी मृत्यु तक पीड़ा दी।  His comments about his attempt are meaningful: “The years of searching in the dark for a truth that one feels, but cannot express, the intense desire and the alterations of confidence and misgiving, until one breaks through to clarity and understanding, are only known to him who himself experienced them” (Robert B. Downs, Books That Changed the World (Mentor, 1964), p. 192.)

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सांख्य एवं वेदान्त 

 (सत्व, रज और तम गुण नहीं, जगत के उपादान हैं !) 

सांख्य दर्शन के अनुसार , जिसे हम विचार, बुद्धि , तर्क, राग-द्वेष , स्पर्श, स्वाद , और जड़ पदार्थ (matter-जो स्थान घेरता हो) कहते हैं ; इन सभी अभिव्यक्तियों का कारण प्रकृति (nature) है। यह प्रकृति -सत्व, रज और तम नामक तीन प्रकार के उपादानों से गठित है। ये तीनों गुण नहीं हैं , जगत के उपादान हैं , जिनसे समग्र विश्व विकसित (evolved-क्रमविकसित ?) हुआ है। कल्प (Cycle, सृष्टि-प्रलय चक्र) के प्रारम्भ में ये तीनों साम्य अवस्था में रहते हैं। सृष्टि का आरम्भ होने पर ये उपादान परस्पर अनंत प्रकार से संयुक्त होकर इस ब्रह्माण्ड के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। " इसका प्रथम विकास 'महत्' (अर्थात सर्वव्यापी बुद्धि-Omnipresent intelligence) है और उससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार (consciousness-होश या स्वबोध) को सांख्य एक तत्व मानता है, और उससे मन अथवा सर्वव्यापी मनसतत्व (Mind stuff) का उद्भव होता है। इस अहंकार (consciousness) से ही 5 ज्ञानेन्द्रिय , 5 कर्मेन्द्रिय तथा तन्मात्रा अर्थात रूप, रस, गंध , शब्द और स्पर्श आदि इन्द्रियविषय के रूप में सूक्ष्म परमाणुओं (Microscopic atoms) की उत्पत्ति होती है ; और इन सूक्ष्म परमाणुओं से ही स्थूल परमाणुओं (gross elements) की उत्पत्ति होती है, जिसे हम पदार्थ (Matter-जो स्थान घेरती हो) कहते हैं।  The Tanmatras cannot be perceived; but when they become gross particles, we can feel and sense them. तन्मात्राओं को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता , किन्तु जब वे स्थूल परमाणु बन जाती हैं , तब हम अनुभव और इन्द्रियगोचर कर सकते हैं। बुद्धि, अहंकार और मन, इन तीन माध्यमों से कार्य करनेवाला 'चित्त' (मन-वस्तु), प्राण नामक शक्तियों की सृष्टि करके उन्हें परिचालित कर रहा है।... ये प्राण ही vital forces (जीवन-शक्तियाँ) हैं, जो समस्त शरीर पर कार्य कर रहे हैं, और वे (प्राण) मन तथा अन्य शारीरिक अवयवों द्वारा परिचालित होते हैं।" ४/२११-१२)  ...  By itself the mind has no light; but ate see it reasons. Therefore there must be some one behind it, whose light is percolating through Mahat and consciousness, and subsequent modifications, and this is what Kapila calls the Purusha, the Self of the Vedantin. 

स्वरूपतः मन में चैतन्य नहीं है, किन्तु हम देखते हैं कि वह तर्क करता है , अतएव उसके परे निश्चित रूप से ऐसी कोई सत्ता होनी चाहिए जिसका आलोक 'महत्' अहंज्ञान (होश consciousness) और अन्य परवर्ती परिणामों में व्याप्त है। इस सत्ता को कपिल पुरुष कहते हैं , वेदान्ती उसे आत्मा कहते हैं। -वह यौगिक पदार्थ नहीं , वही एकमात्र अभौतिक (immaterial, मूर्त नहीं है, निराकार) पदार्थ है , और सब प्रपंच विकार जड़ हैं।  " ४/२१२। .. Buddhi cannot act; the action comes, as it were, from the Purusha behind. 

 बुद्धि (जो निर्णय लेती है ?) स्वतः कार्यशील नहीं है - उसके पीछे जो पुरुष विद्यमान है , उसीसे मानो कार्यशीलता आती है (निर्णय-लेने की शक्ति श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग शक्ति आती है) शरीर यदि रथ है तो रथी या सिंहासन पर बैठा हुआ राजा, मनुष्य की आत्मा है , और वह अभौतिक (निराकार है मूर्त नहीं है) है। ...और चूँकि वह अमूर्त है निराकार है , उसी कारण वह असीम है ,...इसलिए हम सब सर्वव्यापी हैं -किन्तु हम लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) के माध्यम से ही कार्य कर सकते हैं। 'The mind, the self-consciousness, the organs, and the vital forces compose the fine body or sheath' ---मन, अहंज्ञान (M/F शरीर हूँ?), मस्तिष्क-केंद्र अथवा इन्द्रिय और प्राण - इन सबके संयोग से सूक्ष्म शरीर अथवा पंचकोष बनता है। इस अन्नमय कोष आदि देह को ही उद्धार अथवा दण्ड प्राप्त होता है , इसका ही बार बार जन्म और पुनर्जन्म होता है , क्योंकि पुरुष अथवा निराकार आत्मा के लिए आवागमन असम्भव हैगति का अर्थ है आना -जाना,और जो एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता है , वह कभी सर्वव्यापी नहीं हो सकता। 3H में आत्मा (Heart -प्रेम,सहानुभूति, निःस्वार्थपरता) अनंत है और एकमात्र वही प्रकृति का परिणाम नहीं है। एक मात्र आत्मा (Heart) ही प्रकृति (2H) से बाहर (परे) है, किन्तु वह प्रकृति में बद्ध होकर (तीन ऐषणाओं में बद्ध होकर?) विद्यमान है- ऐसा प्रतीत होता है।  "Nature is around him, and he has identified himself with it." प्रकृति (2H) ने आत्मा(Heart) को घेर लिया है और आत्मा या पुरुष ने प्रकृति के साथ (M/F शरीर के साथ) तादात्म्य कर लिया है। पुरुष (पुर रूपी शरीर के शरीरी) सोचते हैं , 'हम लिंग शरीर हैं ', 'हम स्थूल शरीर हैं ', इसीलिए के सुख दुःख भोग रहे हैं ; किन्तु वास्तव में सुख-दुःख पुरुष का नहीं है, वह लिंग शरीर अथवा सूक्ष्म शरीर का है। ४/२१३ ) 

" वेदान्त कहता है आत्मा स्वरूपतः सच्चिदानन्द है - परम सत्', परम चित और परम आनन्द है ; किन्तु ये आत्मा के लक्षण नहीं हैं ; वे तीन नहीं , एक हैं -आत्मा का सार-तत्व है। (२/२१४" वेदांत के अनुसार चेतना (consciousness ) के तीन मूलभूत तथ्य है - मैं सत् हूँ , मैं चित् हूँ , और मैं आनंदस्वरूप हूँ ! यह भाव जो कभी कभी आता है , कि मुझे कोई अभाव नहीं है ; मैं विश्रामपूर्ण , शांतिपूर्ण हूँ , मुझे कोई भी विचलित नहीं कर सकता। ....यही हमारे अस्तित्व का केंद्रीय तथ्य है। ..... और जब भाव सीमित बन जाता है एवं यौगिक बन जाता है, तब यह जगातिक अस्तित्व (M/F) , जगातिक ज्ञान और शारीरिक प्रेम के रूप में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व है , प्रत्येक मनुष्य अवश्य जानता है , और पत्येक मनुष्य प्रेम के निमित्त पागल है। मनुष्य प्रेम किये बिना नहीं रह सकता। " ४/२१५ ) 

"लेकिन प्रेम में परिच्छिन्नता है। किसी दिन मैं तुमसे प्रेम करता हूँ , और दूसरे दिन घृणा। मेरा प्रेम एक दिन बढ़ता है और दूसरे दिन घटता है ; क्योंकि यह केवल अभिव्यक्ति है। " ४/२१६ ) तुम काल का परित्याग करके कदापि विचार नहीं कर सकते , देश (आकार) को छोड़कर किसी वस्तु की धारणा नहीं कर सकते , एवं निमित्त अथवा कार्य-कारण का सम्बन्ध छोड़कर किसी वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते। ये सब मन के ही रूप हैं। इन्हें हटा लो , और मन का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। अतः सब विभेद का कारण है मन। ४/२१७ 

" समग्र ब्रह्माण्ड एक है। जगत में केवल एक आत्मा है , एक सत्ता है ; और वही एक सत्ता जब देश-काल -निमित्त के माध्यम से रूपों में पड़ती है , त्यों ही उसे बुद्धि , अहं ज्ञान , सूक्ष्म भूत, स्थूल भूत आदि की संज्ञा दी जाती है। इस समग्र ब्रह्माण्ड में सब कुछ वह एक वस्तु है , जो विभिन्न रूपों में प्रतिभासित मात्र हो रही है। जब उसका कुछ अंश मानो इस देश-काल -निमित्त के जाल में पड़ता है , तब यह विभिन्न रूप ग्रहण करती है। उस जाल को हटा दो , सभी एक है। अतः अद्वैत दर्शन के अनुसार समग्र विश्व आत्मा में एक है और यह आत्मा ही ब्रह्म है। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड की पृष्ठभूमि पर प्रतीयमान होने लगता है , तब उसे हम ईश्वर कहते हैं। जब वह इस क्षुद्र ब्रह्माण्ड के पश्चात प्रतीयमान होने लगता है, तब उसे आत्मा कहते हैं। अतः यह आत्मा ही मनुष्य का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। " ४/२१८ )            

अतएव यह बात कि तुम 'श्री फलाना' हो , कभी सत्य नहीं हो सकती, यह केवल दिवा स्वप्न है। यह जान लो और मुक्त हो जाओ। (जब आदि गुरु शंकराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा । बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।)   यही अद्वैत-वेदान्त का निष्कर्ष है -

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं,

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे।  

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:,

       चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम।।    

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...

यही यथार्थ ज्ञान है, तर्क तथा बुद्धि तथा अन्य सब डिग्री -पोस्ट अज्ञान है। मैं तब कौन सा ज्ञान-लाभ करूँगा ? मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप हूँ ! मैं कौन सा जीवन प्राप्त करूँगा ? मैं स्वयं जीवन स्वरुप हूँ ! मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि मैं नहीं मरूँगा , क्योंकि मैं शाश्वत जीवन स्वरुप हूँ। एक सदवस्तु हूँ और ऐसी कोई वस्तु नहीं है , जो मेरे द्वारा प्रकाशित नहीं है, जो मुझमें नहीं है और जो मेरे स्वरुप में अवस्थित नहीं है। मैं ही पदार्थ रूप में अभिव्यक्त हुआ हूँ। किन्तु मैं एक मुक्तस्वरूप हूँ। कौन मुक्ति चाहता है ? कोई भी नहीं।

       यदि तुम अपने को बद्ध सोचो , तो बद्ध ही रहोगे , तुम स्वतः ही अपने बंधन का कारण होओगे। यदि तुम अनुभव करो कि तुम मुक्त हो , तो इसी क्षण तुम मुक्त हो। यही ज्ञान है - मुक्तिप्रद ज्ञान ज्ञान। समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है।' ४/२१९ )  

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[साभार (https://navbharattimes.indiatimes.com/education/]   

जानें, क्या है गॉड पार्टिकल और कैसे बनी हमारी दुनिया ? 

हम अपने आस-पास पेड़-पौधे, जीव-जंतु के अलावा तरह-तरह की चीजें देखते हैं। हम आसमान में सूर्य, चांद और तारे देखते हैं। लेकिन एक समय था जब यह चीजें नहीं थीं। वह समय था बिग बैंग की घटना से पहले का। उस समय न तो समय और न ही स्थान नाम की कोई चीज होती थी। 12 से 14 अरब वर्ष पहले हमारा पूरा ब्रह्मांड एक बिंदु में सिमटा हुआ था। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि दुनिया में जब कुछ मौजूद ही नहीं था, इतनी सारी चीजें अस्तित्व में कैसे आईं ?  इन्हीं सवालों का हम बिग बैंग और हिग्स बोसन यानी गॉड पार्टिकल के जरिए जवाब देने की कोशिश करेंगे। आइए आज जानते हैं कि कैसे एक जगह सिमटी हुई एक इकाई से दुनिया का वजूद संभव हुआ...

बिग बैंग

1927 में जॉर्जिस लेमाइटर ने बिग बैंग (Big Bang) के सिद्धांत का प्रस्ताव रखा था। 1929 में ऐडविन हबल (Edwin Hubble) नाम के वैज्ञानिक ने इस सिद्धांत का विश्लेषण और अध्ययन किया। नास्तिक साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग (Stephen Hawking) ने इसे यूं समझाया, करीब 15 अरब साल पहले पूरा ब्रह्मांड एक बिंदु के रूप में सिमटा हुआ था। या यूं समझ लीजिए कि जगत-ब्रह्माण्ड की रचना जिन सूक्ष्म कणों (microscopic particles) और ऊर्जा (energy) के के कारण संभव हुई, वह एक छोटे से गेंद जैसी चीज में समाए हुए थे। फिर अचानक से एक घटना हुई और बिंदु में मौजूदा कण हर तरफ फैल गए। ये कण तेजी से एक-दूसरे से दूर भागने लगे। इस घटना को ही बिग बैंग के नाम से जाना जाता है।  हकीकत यह है कि, कोई घटना घटी और  अचानक ब्रह्मांड के सिमटे हुए बिंदु का विस्तार शुरू हो गया था जो अब तक जारी है

हिग्स बोसोन

दुनिया में मौजूद सभी चीजों का निर्माण कणों से हुआ है। कणों ने मिलकर चीजों को बनाया। बात इस तरह से है, हमारे ब्रह्मांड में मौजूद सभी चीजें ऐटम से मिलकर बनी हैं। एक ऐटम इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन नाम के तीन कणों से बना होता है। ये कण भी सबऐटॉमिक पार्टिकल से मिलकर बने होते हैं जिनको क्वार्क कहा जाता है। इन कणों का द्रव्यमान अब तक रहस्य बना रहा है। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे कणों में द्रव्यमान यानी वजन होता है जबकि फोटॉन में नहीं होता है। यह एक गुत्थी थी कि आखिर कुछ कणों में वजन (mass i.e. weight) होता है जबकि कुछ में नहीं। आखिर ऐसा क्यों होता है, इस गुत्थी को पीटर हिग्स और पांच अन्य वैज्ञानिकों ने साल 2012 में सुलझाने की कोशिश की। उन्होंने हिग्स बोसोन (Higgs Boson.) का सिद्धांत दिया। उनके सिद्धांत के मुताबिक, बिग बैंग के तुरंत बाद किसी भी कण में कोई वजन नहीं था। जब ब्रह्मांड ठंडा हुआ और तापमान एक निश्चित सीमा के नीचे गिरता चला गया तो शक्ति की एक फील्ड पूरे ब्रह्मांड में बनती चली गई। उस फील्ड के अंदर बल था और उसे हिग्स फील्ड के नाम से जाना गया। उन फील्ड्स के बीच कुछ कण थे जिनको पीटर हिग्स के सम्मान में हिग्स बोसोन के नाम से जाना गया। इसे ही गॉड पार्टिकल भी कहा जाता है। उस सिद्धांत के मुताबिक, जब कोई कण हिग्स फील्ड (Higgs field) के प्रभाव में आता है तो हिग्स बोसोन (Higgs boson)  के माध्यम से उसमें वजन आ जाता है। जो कण सबसे ज्यादा प्रभाव में आता है, उसमें सबसे ज्यादा वजन होता है और जो प्रभाव में नहीं आता है, उसमें वजन नहीं होता है। उस समय तक सिर्फ यह अनुमान था कि हिग्स बोसोन नाम का कण ब्रह्मांड में मौजूद है लेकिन जुलाई 2012 में स्विटजरलैंड में वैज्ञानिकों ने हिग्स कण के खोजने की घोषणा की।

गॉड पार्टिकल क्यों अहम है?

हमारी इस दुनिया की रचना में भार या द्रव्यमान का खास महत्व है। भार या द्रव्यमान वह चीज है जिसको किसी चीज के अंदर रखा जा सकता है। अगर कोई चीज खाली रहेगी तो उसके परमाणु अंदर में घूमते रहेंगे और आपस में जुड़ेंगे नहीं। जब परमाणु आपस में जुड़ेंगे नहीं तो कोई चीज बनेगी नहीं। जब भार आता है तो कण एक-दूसरे से जुड़ता है जिससे चीजें बनती हैं। ऐसा मानना है कि इन कणों के आपस में जुड़ने से ही चांद, तारे, आकाशगंगा और हमारे ब्रह्मांड की अन्य चीजों का निर्माण हुआ है। अगर कण आपस में नहीं मिलते तो इन चीजों का अस्तित्व नहीं होता और कणों को आपस में मिलाने के लिए भार जरूरी है

क्या है गॉड पार्टिकल

बिग बैंग के बाद जब ब्रह्मांड धीरे-धीरे ठंडा होने लगा। उस दौरान अचानक हिग्स फील्ड अस्तित्व में आ गई। मानो कुदरत ने किसी बड़े मैकेनिज्म के एक लीवर को खींच दिया हो, जिसके चलते हिग्स फील्ड हमारे यूनिवर्स में काम करने लगी। हिग्स फील्ड आने के बाद भार रहित (Mass Less) यानी प्रकाश की गति से चलने वाले कुछ कण इस फील्ड से इंटरैक्ट करने लगे। इस इंटरेक्शन के कारण उनमें भार (Mass) आने लगा। वहीं फोटोन जैसे कुछ कण अभी भी हिग्स फील्ड के साथ इंटरैक्ट नहीं कर रहे थे। वे अभी भी ऊर्जा के बंडल ही थे।

हिग्स फील्ड के साथ इंटरेक्शन से बड़े पैमाने पर ब्रह्मांड में पदार्थ (Matter) बनने लगे। बाद में आगे चलकर इन्हीं पदार्थों से ग्रहों, तारों, निहारिकाएं आदि का निर्माण हुआ। अगर उस समय हिग्स फील्ड अस्तित्व में न आई होती, तो इस जगत में किसी कण (Particles) में भार (Mass) नहीं होता। भार न होने के कारण वे सभी लाइट की स्पीड पर गति कर रहे होते। ऐसे में न पदार्थ का निर्माण होता और न ही तारे या आकाशगंगाएं होतीं। ऐसा कहें कि आज हमारे होनेे के पीछ हिग्स फील्ड का बहुत बड़ा हाथ है।

जेनेवा के सर्न में वैज्ञानिक गॉड पार्टिकल की खोज में ठीक उन्हीं परिस्थितियों को पैदा कर रहे हैं, जिस समय ब्रह्मांड बिग-बैंग के बाद ठंडा हुआ था और ऊर्जा के कुछ पार्टिकल्स में हिग्स फील्ड के साथ इंटरैक्ट करने के बाद भार आ रहा था। इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक खास मशीन बनाई जिसका नाम द लार्ज हेड्रोन कोलाइडर है। वैज्ञानिकों का मानना था कि अगर प्रोटोन जैसे चार्ज्ड पार्टिकल्स को भारी ऊर्जा के साथ टकराया जाए, तो इनके टाकराने से हिग्स फिल्ड में हलचल पैदा होगी। इस हलचल में जन्म लेगा हिग्स बोसोन(God Particle)। 

साल 2012 में जेनेवा के CERN में 27 किलोमीटर लंबी मशीन द लार्ज हेड्रोन कोलाइडर में प्रोटोन के पार्टिकल्स को प्रकाश की 99.99 प्रतिशत गति के साथ टकराया गया। इस टक्कर में जबरदस्त मात्रा में ऊर्जा निकली। इसी दौरान वैज्ञानिकों को पहली बार हिग्स बोसोन के बारे में पता चला। इस एक्सपेरिमेंट ने हिग्स फील्ड के सिद्धांत को प्रमाणित कर दिया। हिग्स फील्ड के सिद्धांत को साल 1964 में पीटर हिग्स ने दिया था। इस थ्योरी के सच साबित होने के बाद साल 2013 में पीटर हिग्स को भौतिकीशास्त्र के नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया।

हिग्स बोसोन और सत्येंद्र नाथ बोस

विज्ञान के क्षेत्र में हुई इस क्रांतिकारी खोज का एक बड़ा नाता भारत से जुड़ा है। हिग्स बोसोन पार्टिकल का नाम दो बड़े वैज्ञानिकों के नाम से मिलकर बना है। इसमें पहला नाम पीटर हिग्स का शामिल है। वहीं दूसरा नाम भारत के महान वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस का है।

सत्येंद्र नाथ बोस बचपन से ही काफी होनहार छात्र थे। उन्होंने अपनी युवावस्था के दौरान गर्म गैसों के बर्ताव के उपलब्ध आंकड़ों में कई तरह की त्रुटियां पाईं और इसको लेकर बोस ने कई नए तर्क दिए। हालांकि, शुरुआत में वैज्ञानिक समूह ने उनके इस तर्क को स्वीकार नहीं किया। वहीं सत्येंद्र नाथ बोस ने जब अपने शोध को अल्बर्ट आइंस्टीन के पास भेजा, तो उन्होंने इसे जर्मन में अनुवाद करके इस पर अपनी स्वीकृती दे दी। आइंस्टीन द्वारा मुहर लगने के बाद इस शोध को दुनिया भर में बोस आइंस्टीन स्टैटिक्स के नाम से जाना जाने लगा। वहीं शोध में जिन कणों का उल्लेख था। उसे बोसोन का नाम दिया गया। हिग्स फील्ड में वैज्ञानिकों ने जिस हिग्स बोसोन की खोज की है। वह भी बोसोन श्रृंखला का ही कण है। 

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कठोपनिषद -श्लोक 1.2.24

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥

 जो व्यक्ति बुरे आचरण से - अर्थात शास्त्र-निषिद्ध कर्मों से विमुख नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, जिसका मन एकाग्र नहीं है, अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ केवल प्रज्ञा (बुद्धि)  द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। 

[https://tantraphilosophy.blogspot.com/2009/02/blog-post_8407.html] 

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