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🔱🕊🏹सिद्ध अवस्था~ सच्चिदानन्द की प्राप्ति 🔱🕊🏹
1. परमहंस अवस्था किसे कहते हैं , जानते हो? जैसे किसी हंस को यदि दूध और पानी एक साथ मिलाकर दिया जाए तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। इसी प्रकार, परमहंस भी इस जगत का जो मूलवस्तु (essence,सार) -सच्चिदानन्द हैं (ऊपरी नाम-रूप M/F नहीं), उन्हें अंगीकार (accept या ग्रहण) कर लेते हैं और सांसारिक वस्तुओं (कामिनी -कांचन), नाते -रिश्तों में जो व्यर्थ की आसक्ति है, उसको त्याग देते हैं।
১. পরমহংস অবস্থা কাকে বলে জান? যেমন হাঁসকে দুধে-জলে এক সঙ্গে দিলে, দুধ খেয়ে জলটি ফেলে রাখে। তাঁরা তেমনি সংসারে সার যে সচ্চিদানন্দ, তাঁকে গ্রহণ করেন, আর অসার যে সংসার, তাকে ত্যাগ করেন।
2. पहले अज्ञान (देहाध्यास M/F भाव के कारण पहले - भोग) , फिर ज्ञान (आत्मज्ञान के बाद देहाध्यास का त्याग-जाति अभिमान का त्याग ) -Ignorance (अविद्या), followed by knowledge (विद्या)। अन्ततः जब किसी को सच्चिदानंद की प्राप्त हो जाती है, तब वह ज्ञान और अज्ञान दोनों के परे चला जाता है। जैसे शरीर में यदि काँटा चुभ जाता है, तब बाहर से एक काँटा लेकर गड़े हुए काँटे को निकाल दिया जाता है ; फिर दोनों काँटों को फेंक दिया जाता है।
২। প্রথমতঃ অজ্ঞান, তার পরে জ্ঞান। পরিশেষে যখন সচ্চিদানন্দ লাভ হয়, তখন জ্ঞান ও অজ্ঞানের পারে চলে যায়। যেমন গায়ে কাঁটা ফুটলে বাইরে থেকে যত্ন ক'রে আর একটি কাঁটা এনে কাঁটাটিকে তুলে ফেলে তারপর দুটি কাঁটাই ফেলে দেয়।
3. एक व्यक्ति ने परमहंसदेव से पूछा - 'सिद्धपुरुष' (अर्थात जिसे सच्चिदानन्द की अनुभूति हो गयी हो, वैसा व्यक्ति) की पहचान क्या है ? उत्तर में उन्होंने कहा- जैसे आलू और बैंगन सिद्ध होने या सीझ जाने पर नरम हो जाते हैं, वैसे ही सिद्धपुरुष का स्वभाव नरम हो जाता है। उसका सारा अहंकार नष्ट हो जाता है !-(नहीं, दासो अहं वाला-अहं रहता है !)
৩। কোন ব্যক্তি পরমহংসদেবের নিকট জিজ্ঞাসা করলেন - সিদ্ধপুরুষ হলে কিরূপ অবস্থা হয়? উত্তরে তিনি বললেন - যেমন আলু-বেগুন সিদ্ধ হলে নরম হয়, তেমনি সিদ্ধপুরুষের স্বভাব নরম হয়ে থাকে। তাঁর সব অভিমান চলে যায়।
4. परमहंसदेव अपने शरीर की ओर इशारा करके कहते थे, "यह केवल एक आवरण (cover) है,इसके भीतर माँ ब्रह्ममयी खेल रही हैं।"
৪। পরমহংসদেব নিজের শরীরের দিকে দেখিয়ে বলতেন, "এ একটা খোলমাত্র, মা ব্রহ্মময়ী একে আশ্রয় ক'রে খেলছেন।"
5. जब भी मैं रामप्रसादी संगीत (श्यामा संगीत) सुनता हूं तो मुझे उसमें नयापन महसूस होता है।इसका कारण जानते हो? जब रामप्रसाद गाते थे, माँ ब्रह्ममयी उनके हृदय में विद्यमान रहती थीं।
৫। রামপ্রসাদী গান যখনই শোন, তখনই নূতন বলে বোধ হয়। তার কারণ জান? রাম- প্রসাদ যখন গান বাঁধতেন, মা ব্রহ্মময়ী তাঁর হৃদয়মধ্যে বিরাজ করতেন।
6. संसार में सिद्ध अवस्था की प्राप्ति कई प्रकार से होती है, जैसे स्वप्न-सिद्ध, मंत्र-सिद्ध, हठात् सिद्ध और नित्य-सिद्ध।
৬। সংসারে অনেক প্রকারে সিদ্ধ অবস্থা লাভ হয়, যেমন - স্বপ্ন-সিদ্ধ, মন্ত্র-সিদ্ধ, হঠাৎ-সিদ্ধ ও নিত্য-সিদ্ধ।
7. कुछ लोगों को स्वप्न में इष्टमंत्र मिल जाता है और उसका जाप करके वे सिद्ध हो जाते हैं। मंत्र-सिद्ध -वे हैं, जो सद्गुरु से मंत्र प्राप्त करके साधना द्वारा सिद्ध हुए हैं। जो सत्यार्थी दैव योग से किसी महापुरुष की कृपा प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसे हठात्-सिद्ध कहते हैं। नित्य-सिद्ध वे हैं, जो बचपन से ही धर्म में आस्था रखते हैं। उदाहरण के लिए कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जिसमें फल पहले लगता है, फूल बाद में उगता है; जैसे लौकी और कद्दू पहले फल देते हैं, फिर फूल। [सच्चिदानन्द की प्राप्ति पहले हो जाती है, माँ ब्रह्ममयी साधना बाद में करवा लेती हैं !]
৭। স্বপ্নেতে কেহ কেহ ইষ্টমন্ত্র পেয়ে তাই জপ ক'রে সিদ্ধ হয়। মন্ত্র-সিদ্ধ - সদ্গুরুর নিকট মন্ত্রগ্রহণ ক'রে সাধনার দ্বারা সিদ্ধ হয়। হঠাৎ-সিদ্ধ - দৈবযোগে কোন মহাপুরুষের কৃপালাভ ক'রে যে সিদ্ধ হয়, তাকে হঠাৎ-সিদ্ধ বলে। নিত্য-সিদ্ধ - তাদের বালককাল থেকেই ধর্মে মতি থাকে। যেমন লাউ, কুমড়ো গাছে আগে ফল হয়, পরে ফুল ফোটে।
[हठात्-सिद्ध/नित्य-सिद्ध वह सत्यार्थी जो माँ तारा /जगदम्बा की कृपा से, किसी महापुरुष (12 जनवरी, 1985, 14 अप्रैल 1986 हरिद्वार कुम्भ, 14 अप्रैल, 1992, ऊँच बनारस एक्सिडेंट में को स्वामी विवेकानन्द, गुरुदेव, नवनीदा)- की कृपा से सच्चिदानन्द की प्राप्ति, उसे हठात् -सिद्ध कहा जाता है। जननी तारा की कृपा से बचपन से ही कृष्ण उपासना-जन्माष्टमी को जन्म -जन्म के पहले माँ के स्वप्न में साधु कौन ?)]
8. ढालू नाले के नीचे पानी आसानी से निकल जाता है, जमा नहीं होता; इसी प्रकार मुक्त पुरुषों के हाथ में जो धन आता है, वह रहता नहीं है-(बैंक में फिक्स्ड नहीं होता)। जैसे आता है, वैसे ही खर्च हो जाता है। उनमें विषय-बुद्धि [भोग में आसक्ति] बिल्कुल नहीं रहती।
৮। সাঁকোর নিচে জল সহজে বেরিয়ে যায়, জমে না; তেমনি মুক্ত পুরুষদিগের হাতে যে টাকা-পয়সা আসে তা থাকে না, অমনি খরচ হয়ে যায়। তাঁদের বিষয়-বুদ্ধি একেবারেই নেই।
9. "जो पुरुष ध्यान-सिद्ध है, वह मुक्ति में प्रतिष्ठित है।" जानते हो ध्यानसिद्ध किसे कहते हैं ? जो ध्यान के लिए बैठते ही भगवान के भाव में विभोर हो जाते हैं।
৯। "ধ্যান-সিদ্ধ যেই জন, মুক্তি তার ঠাঁই।" ধ্যান-সিদ্ধ কাদের বলে জান? যাঁরা ধ্যান করতে বসলেই ভগবানের ভাবে বিভোর হয়ে যায়।
10. जानते हो मुक्त पुरुष संसार में कैसे रहते हैं ? जैसे बत्तक (পান কৌড়ি) जल में रहती है, परन्तु उनके शरीर में जल चिपकता नहीं है, कभी गीला हो भी गया, एक बार शरीर झाड़ देने से, सब पानी नीचे गिर जाता है।
১০। মুক্ত পুরুষ সংসারে কি রকম থাকেন জান? যেমন পানকৌড়ি জলে থাকে, কিন্তু তাদের গায়ে জল লাগে না; যদিও গায়ে একটু জল লাগে, তা হলে একবার গা ঝেড়ে ফেললে তখনই সব চলে যায়।
11। जहाज चाहे किसी भी दिशा में क्यों न जाए, कम्पास की सुई हमेशा उत्तर की ओर ही होती है, इसलिए जहाज की दिशा गलत नहीं होती; उसी तरह यदि मनुष्य का मन हमेशा 'ईश्वर' में (उत्तरदिशा ? में) लगा रहे तो उसे कोई भय नहीं रहता।
১১। জাহাজ যে দিকে যাক্ না কেন কম্পাসের কাঁটা উত্তর দিকেই থাকে, তাই জাহাজের দিক ভুল হয় না;মানুষের মন যদি ঈশ্বরের দিকে থাকে, তা হলে আর তার কোন ভয় থাকে না।
12. चकमक पत्थर (Flint) सैकड़ों वर्ष तक पानी में पड़ा रहने पर भी उसकी अग्नि नष्ट नहीं होती, उसे उठाकर लोहे पर चोट करते ही अग्नि निकलती है। कोई निष्ठावान भक्त (सत्यार्थी) हजारों कुसंग में घिर जाए, लेकिन उसका विश्वास -भक्ति किसी चीज से नष्ट नहीं होता। भगवान की चर्चा होते ही वह फिर ईश्वर-प्रेम (स्वामी जी के प्रेम) में पागल हो जाता है।
১২। চকমকি পাথর শত বৎসর জলের ভেতর পড়ে থাকলেও তার আগুন নষ্ট হয় না, তুলে লোহার ঘা মারবামাত্রই আগুন বেরোয়। ঠিক বিশ্বাসী ভক্ত হাজার হাজার কুসঙ্গের মধ্যে পড়ে থাকলেও তার বিশ্বাস-ভক্তি কিছুতেই নষ্ট হয় না, ভগবৎ-কথা হলে তখনি আবার সে ঈশ্বর-প্রেমে উন্মত্ত হয়।
13. जो व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसी ही उसकी उपलब्धि होती है। जैसा कि दृष्टान्त में कहा गया है, झींगुर भँवरे के बारे में इतना सोचता है कि वह भँवरा ही बन जाता है। इसी प्रकार जो हमेशा सच्चिदानंद का चिंतन करता है, वह भी आनन्दमय हो जाता है।
১৩। যে যেরূপ ভাবনা ক'রে থাকে, তার সিদ্ধিও সেইরকম হয়ে থাকে। যেমন দৃষ্টান্ততে বলে, আরসোলা কাঁচপোকাকে ভেবে ভেবে কাঁচপোকা হয়ে যায়। তেমনি যে সচ্চিদানন্দকে ভাবনা করে, সেও আনন্দময় হয়ে যায়।
14. जिस प्रकार शराबी नशे के झोंक में पहनने के कपड़े को कभी सिर पर बाँध लेता है, कभी बगल में दबाकर घूमता रहता है ; सिद्ध महापुरुष की वाह्य अवस्था भी लगभग वैसी ही होती है।
১৪। মাতালেরা যেমন নেশার ঝোঁকে পরনের কাপড় কখনও মাথায় বাঁধে এবং কখনও বগলে নিয়ে বেড়ায়, তেমনি সিদ্ধ মহাপুরুষদেরও বাহ্য অবস্থা প্রায় সেইরূপই হয়ে থাকে।
15. साधु का अहंकार कैसा होता है जानते हो ? जैसे कमल का पत्ता और नारियल पेड़ का झाड़, गिर भी जाए तो एक दाग रह जाता है। इसी प्रकार, जब अहंकार बिल्कुल चला जाता है, तो भी उसका कुछ न कुछ दाग रह ही जाता है। लेकिन उस अहं से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता। उसके द्वारा खाने-पीने, सोने आदि के अतिरिक्त उसके द्वारा कोई कार्य नहीं किया जाता।
১৫। অহঙ্কার কি রকম জান? যেমন পদ্মের পাঁপড়ি ও নারকেল সুপারির বালতো, খসে গেলেও সেস্থানে একটা দাগ থাকে; তেমনি অহঙ্কার গেলে তাতে একটু দাগের চিহ্ন থাকেই থাকে। তবে সে অহঙ্কারে কারও কিছু অনিষ্ট করতে পারে না। তার দ্বারা খাওয়া-দাওয়া, শোয়া ইত্যাদি ছাড়া অন্য কোন কর্ম চলে না।
16. जैसे जब आम पक जाता है तो, डाली से टूट कर खुद गिर जाता है। उसी तरह ज्ञान-प्राप्त होते ही जाति का मिथ्याभिमान (vanity) आदि दुर्गुण स्वयं चले जाते हैं। लेकिन जबरन जाति का त्याग करना अच्छा नहीं है।
১৬। যেমন আম পাকলে বোঁটা থেকে আপনি খসে পড়ে, তেমনি জ্ঞানলাভ হলে আত্মাভিমান প্রভৃতি আপনি চলে যায়। জোর ক'রে জাতি ত্যাগ করা ঠিক নয়।
17. गुण तीन प्रकार के होते हैं - सत्त्व, रजः और तमः। इन तीनों गुणों में से कोई भी उनके निकट (ईश्वर) तक नहीं पहुँच सकता। एक मनुष्य जंगल के मार्ग से जा रहा था, कि तीन डैकतों ने आकर उसे पकड़ लिया, और जो कुछ उसके पास था सब छीन लिया; लुटेरों में से एक ने उससे कहा, "इस आदमी को जिन्दा रखने से क्या लाभ है ? यह कह कर उसने कटार उठाया और उसे काटने आया। तभी एक डाकू आया और बोला, "अरे नहीं, इसे मत काटो, इसको मार देने से क्या मिलेगा?" उसके हाथ-पैर बांध कर उसे यहीं छोड़ दो।'' फिर उन सभी ने मिलकर उसके हाथ-पैर बांध दिए और उसे वहीं छोड़ कर चले गए। थोड़ी देर बाद उनमें से एक डकैत वापस आया और बोला, "ओह, तुम्हें कितना चोट लगा, आओ मैं तुम्हारे बन्धन अभी खोल देता हूँ।" डाकू ने तब बंधन खोल दिया और कहा, "मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें जंगल से बाहर जाने का रास्ता दिखा देता हूँ ।" बाद में सड़क के पास आकर बोला, "यदि तुम उस सड़क से सीधे चले जाओगे तो घर पहुँच जाओगे।"तब उस आदमी ने उस डकैत से कहा, "अपने मुझे नया जीवन दिया है, आप मेरे घर तक चलिए ।" उत्तर में डाकू ने कहा, "मैं वहां नहीं जा सकता, लोगों को पता चल जाएगा - मैंने तो तुम्हें केवल रास्ता दिखा दिया, अब मैं जा रहा हूं।"
১৭। গুণ তিন রকমের - সত্ত্ব, রজঃ ও তমঃ। এই তিন গুণের কেউ তাঁর নিকট পর্যন্ত পৌঁছুতে পারে না। যেমন একজন লোক বনের পথ দিয়ে চলে যাচ্ছিল, এমন সময় তিনজন ডাকাত এসে তাকে ধরলে ও তার যা-কিছু ছিল সর্বস্ব কেড়ে-কুড়ে নিলে; তার ভেতর একজন ডাকাত বললে, "এ লোকটাকে রেখে আর কি হবে?" এই কথা বলেই, খাঁড়া উঁচিয়ে তাকে কাটতে এল। আর একজন ডাকাত এসে বললে, "না হে, একে কেটো না, কেটে কি হবে? এর হাত-পা বেঁধে এইখানেই ফেলে রেখে যাও।" পরে সকলে মিলে তার হাত-পা বেঁধে সেখানে রেখে চলে গেল। কিছুক্ষণ পরে তাদের মধ্যে একজন ফিরে এসে বললে, "আহা, তোমার কত লেগেছে, এস আমি এখন তোমার বন্ধন খুলে দিই।" ডাকাতটি তখন বন্ধন খুলে দিয়ে বললে, "আমার সঙ্গে সঙ্গে এস তোমায় রাস্তা দেখিয়ে দিচ্ছি।" পরে রাস্তার নিকটবর্তী হয়ে বললে, "ঐ রাস্তা ধরে চলে গেলে তুমি বাড়ি পৌঁছুবে।" লোকটি তখন তাকে বলতে লাগল, "আপনি আমার প্রাণদান করলেন, আপনি আমার বাড়ি পর্যন্ত আসুন।" ডাকাত তখন বললে, "আমি সেখানে যেতে পারব না, লোকে টের পাবে - আমি কেবল তোমাকে রাস্তা দেখিয়ে চললুম।"
18. मुक्त पुरुष संसार में किस प्रकार रहता है, जानते हो ? आँधी में डाल से टूटे पत्तों की तरह। अपनी कोई इच्छा या अहंकार नहीं रहता। हवा उसे जहाँ भी उड़ा ले जाती है, वह उधर ही चला जाता है - कभी किसी झोपडी में, कभी किसी शानदार जगह पर।
১৮। মুক্ত পুরুষ সংসারে কিরূপ অবস্থায় থাকে জান? যেমন ঝড়ের এঁটো পাতা। নিজের কোন ইচ্ছা বা অভিমান থাকে না। বাতাসে তাকে উড়িয়ে যে দিকে নিয়ে যায়, সেই দিকে যায় - কখনও বা আস্তাকুঁড়ে, কখনও বা ভাল জায়গায়।
19. परमहंसदेव कहते थे, "गुरु, कर्ता (home ruler घर का मालिक) , बाबा (पिताजी) - ये तीन सम्बोधन मेरे शरीर में कांटा जैसे चुभते हैं। भगवान कर्ता (doer) है, मैं अकर्ता (non-doer) हूं, वे सारथि (charioteer) हैं, मैं रथ (chariot)हूँ।"
১৯। পরমহংসদেব বলতেন, "গুরু, কর্তা, বাবা - এই তিন কথায় আমার গায়ে কাঁটা বেঁধে। ঈশ্বর কর্তা, আমি অকর্তা, তিনি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র।"
20. जब तक धान की अवस्था है, जमीन में गाड़ देने से ही पौधा बन जायेगा। लेकिन उसी धान को यदि उसन देने के बाद रोपा जाये तो, उससे पौधा नहीं उग पाता; इसी प्रकार, जो लोग पूर्ण, सिद्ध (100 निःस्वार्थपर) हो जाते हैं उन्हें दोबारा इस दुनिया में जन्म नहीं लेना पड़ता।
২০। যতদিন শুধু ধান থাকে, পুঁতে দিলেই গাছ হয়। কিন্তু সেই ধানকে সিদ্ধ ক'রে পুঁতলে আর গাছ হয় না; তেমনি যাঁরা সিদ্ধ হয়েছেন, তাঁদের আর এ সংসারে জন্মগ্রহণ করতে হয় না।
21. यदि लोहा एक बार पारस मणि को छूकर सोना बन जाए तो उसे जमीन में गाड़कर रखें या कूड़े में रख दो, वह सोना है। जिन्हें सच्चिदानन्द की प्राप्ति (अनुभूति) हो गयी है, उनकी भी यही अवस्था है। चाहे वे संसार में रहें या वन रहें, उससे फिर कोई दोष नहीं छू पाता है।
২১। লোহা যদি একবার স্পর্শমণি ছুঁয়ে সোনা হয়, তাকে মাটির ভেতর চাপা রাখ আর আস্তাকুঁড়ে ফেলে রাখ, সে সোনা। যিনি সচ্চিদানন্দ লাভ করেছেন, তাঁর অবস্থাও সেই রকম। তিনি সংসারেই থাকুন, আর বনেই থাকুন, তাতে তাঁর দোষস্পর্শ হয় না।
$$$22.जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहे की तलवार सोने की तलवार बन जाती है, आकार वही रहता है, किन्तु उससे फिर हिंसा का कार्य नहीं किया जा सकता। उसी तरह भगवान (नेता, सद्गुरु) के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद उससे कोई दुराचार (wrongdoing) नहीं होता।
২২। যেমন লোহার তলোয়ার স্পর্শমণি ছোঁয়ালে সোনার তলোয়ার হয়, আকার-প্রকার সেই রকমই থাকে, কিন্তু তাতে আর হিংসার কাজ চলে না; সেই রকম ভগবানের পাদপদ্ম স্পর্শ করলে তার দ্বারা আর কোন অন্যায় কাজ হয় না।
23. जिस व्यक्ति ने सिद्धि प्राप्त कर ली हो, अर्थात जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया हो, उसके द्वारा फिर कोई गलत काम हो ही नहीं हो सकता। जैसे जो शास्त्रीय नृत्य में प्रशिक्षित हो जाता है , उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते।
২৩। যে ব্যক্তি সিদ্ধিলাভ করেছেন অর্থাৎ যাঁর ঈশ্বর-সাক্ষাৎকার হয়েছে, তাঁর দ্বারা আর কোনরূপ অন্যায় কার্য হতে পারে না; যেমন যে নাচতে জানে, তার পা কখনো বেতালে পড়ে না।
24 देवगुरु बृहस्पति के पुत्र 'कच' एकबार समाधि में चले गए थे, व्युत्थान होने पर जब उनका मन वाह्य जगत में उतर रहा था, तब ऋषियों ने उनसे पूछा - समाधि से उतर आने के बाद अब आपको कैसा अनुभव हो रहा है ? इसके उत्तर में कच ने कहा था -"सर्वं ब्रह्ममयं" - मुझे सच्चिदानन्द के सिवा और कुछ नहीं दिख रहा है।
২৪। বৃহস্পতির পুত্র কচের সমাধিভঙ্গের পর যখন মন বহির্জগতে নেমে আসছিল, তখন ঋষিরা তাঁকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন, "এখন তোমার কিরূপ অনুভূতি হচ্ছে?" তাতে তিনি বলেছিলেন, "সর্বং ব্রহ্মময়ং - তিনি ছাড়া আর কিছুই দেখতে পাচ্ছি না।"
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[श्रीसदाशिवब्रह्मेन्द्राणां कृतिषु अन्यतमैका –श्री सदाशिव ब्रह्मेन्द्र द्वारा रचित गीतो में से एक -One of the works of Sri Sadashiva Brahmendra ]
🕊🏹 रे रे सर्वं ब्रह्ममयम्🕊🏹
(सब कुछ बस सर्वशक्तिमान की उपस्थिति है)
सर्वं ब्रह्ममयं रे रे सर्वं ब्रह्ममयम् ॥ सर्वं.,॥
किं वचनीयम् ? किमवचनीयम् ?
किं रचनीयम् ? किमरचनीयम् ? ॥ सर्वं.,॥
किं पठनीयम् ? किमपठनीयम् ?
किं भजनीयम् ? किमभजनीयम् ? ॥ सर्वं.,॥
किं बोद्धव्यम् ? किमबोद्धव्यम् ?
किं भोक्तव्यम् ? किमभोक्तव्यम् ?
सर्वत्र सदा हंसध्यानं कर्तव्यं भो मुक्तिनिदानम् ॥ सर्वं.,॥
इस जगत में सब कुछ ब्रह्ममय है; सब कुछ केवल सर्व-शक्तिमान ब्रह्म - माँ ब्रह्ममयी /माँ आनन्दमयी की उपस्थिति है।
1. क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं कहा जा सकता, क्या नहीं बनाया जा सकता है और क्या बनाया जा सकता है - (कविता के संबंध में या अन्यथा)।
2. किमवचनीयं = किं अवचनीयं ? क्या अध्ययन किया जा सकता है और अध्ययन नहीं किया जा सकता, अर्थात क्या क्या पढ़ा जाना चाहिए और क्या नहीं पढ़ा जाना चाहिए।
3. क्या सिखाया जा सकता है और क्या नहीं सिखाया जा सकता है; क्या सिखाया जा सकता है किसका भोग सुख लिया जा सकता है और किसका भोगसुख नहीं लिया जा सकता का विचार कैसा ? जबकि सृष्टि और उसका कार्य, सब कुछ तो उसका ही है।
4. " सर्वत्र सदा हंस ध्यानम् । कर्तव्यं भो मुक्तिनिदानम् ॥"
इसलिए, हमेशा अपने आप को उनके ध्यान में - परमहंस श्रीरामकृष्ण देव के ध्यान में डुबोएं रहना आपका एकमात्र कर्तव्य है , इस कर्तव्य का पालन करने से आपको 'मोक्ष' की प्राप्ति होगी। इस गीत का संक्षिप्त संदेश यही है कि व्यर्थ के बहस में मत पड़ो, और क्या सही है और क्या गलत है इस पर कोई चर्चा करना ; अर्थहीन और अनावश्यक होगा। और सार्थक यही है कि 'उससे प्रार्थना करो' और 'उसमें विलीन हो जाओ !' सोहम् या हंस ध्यान ही एक मात्र कर्तव्य है।
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>>>सच्चिदानन्द : सत् का अर्थ है भाव, अर्थात् विद्यमानता। वेदान्तियों के मत में अभाव जैसी कोई चीज़ नहीं है- जिसमें प्रमाण है गीता का श्लोक “नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः।” असत् जैसी कोई चीज़ नहीं होती और सत् का अभाव हो नहीं सकता।ऐसा कोई कालविशेष या स्थान विशेष है ही नहीं, जहाँ सत् न हो। इसलिए जो विद्यमान है, वो सत्य है, और कोई अविद्यमान है, वो असत्य है। लेकिन जब कुछ अविद्यमान है ही नहीं, तो वह असत्य भी नहीं। सर्वं खल्विदं ब्रह्म, तो जब सब कुछ ब्रह्मस्वरूप ही है,तो कुछ भी असत्य कैसे हो सकता है? इसलिए जगत् आदि सब कुछ सत्य है। वेदान्तियों की भाषा में कहें तो. "सर्वं सत्।"
अब आते हैं चित् पे। चित् स्वरूप है चैतन्य का। चित् ब्रह्म का वो स्वरूप है जिससे अहङ्कार की उत्पत्ति होती है। चित् का अर्थ है जिसमें किसी प्रकार की चेतनता दिखे, जैसे कोई स्थावर वस्तु, जैसे पत्थर को देखकर कहते हैं कि यह जड़ है। इसलिए उस जड़ वास्तु में हम चैतन्य का अभावः मान लेते हैं। हम मनुष्य जैसे लोगों को हम चेतन कहते हैं, इसलिए क्योंकि हममे जड़ता नहीं।
आनन्द क्या है ? आनन्द तो अगोचर है, बुद्धिगम्य नहीं। यह भी सर्वत्र विद्यमान है, क्योंकि सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म भी सर्वत्र है। लेकिन यह आनन्द की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञानियों को होती है। जैसे प्रह्लाद को परानन्द की अनुभूति सदा सर्वदा होती थी, तभी तो उन्हें स्तम्भ (खम्भा) भी ब्रह्मात्मक लगा। ऐसे लोगों को इन्द्रियाध्यास / देहाध्यास (M/F) नहीं होता, यह अहन्ता और ममता से परे, सदैव ब्रह्मानन्द में लीन रहते हैं। यद्यपि इनका शरीर यहाँ ही है, और ये सामान्य नर के समान प्रतीत होते हैं, खातेपीते सब कुछ करते हैं, लेकिन इनका सबकुछ ब्रह्मार्पित ही होता है। जैसे कृष्ण का वह श्लोक, “यत् करोषि यज्जुहोषि यदशनासि ददासि यत्….तत् कुरुष्व मदर्पणम्।” अथवा “मय्येव मन आधात्स्व ….अत ऊर्ध्वं न संशयः।”ऐसे लोगों को सदैव और सर्वत्र परमानन्द की ही प्रतीति होती है। यह उसके अलावा न कुछ सोचते हैं, नाहीं इनके मुख से ब्रह्म के अलावा किसी और का नाम निकलता है। आनन्द तो बस ब्रह्म का अनुभव करने वाला ही बता सकता है, हम जैसे प्राकृत लोग पोथी पढ़के आनन्द को क्या समझेंगे। यह तो बस ब्रह्म की कृपा का प्रसादस्वरूप है।
>>>प्रभु के अनेकानेक नाम हैं, लेकिन उनमें सबसे सार्थक व सुबोध नाम है- सच्चिदानंद। सत् का अर्थ है-शाश्वत, टिकाऊ, न परिवर्तित होने वाला और न समाप्त होने वाला। इस तथ्य पर मात्र परब्रह्म ही खरा उतरता है। उसका नियम, अनुशासन, विधान और प्रयास सुस्थिर है। सृष्टि के मूल में वही है। परिवर्तन का सूत्र संचालक भी वही है। उसी के गर्भ में यह संपूर्ण ब्रह्मांड पलता है। सृष्टि तो महाप्रलय की स्थिति में बदल जाती है और फिर कालांतर में नवीन सज्जा लेकर प्रकट भी होती रहती है, किंतु नियंता की सत्ता में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इसलिए परब्रह्म को 'सत्' कहा गया है।
चित् का भाव है-विचारणा, चेतना। मान्यता, भावना, जानकारी आदि इसी के स्वरूप हैं। मानवी अंत:करण में इसे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में देखा जाता है। मनोविज्ञानिक इसका वर्गीकरण चेतन, अचेतन और विशिष्ट चेतन के रूप में करते हैं। सत्, रज, तम् प्रकृति में भी वही चेतना प्रकट और प्रत्यक्ष होती रहती है। मृत्यु के बाद भी उसका अंत नहीं होता। विद्वान और मूर्ख आदि में अपने विभिन्न स्तरों के अनुरूप वह विद्यमान रहती है। जड़ पदार्थ और प्राणि समुदाय के मध्य मौलिक अंतर एक ही है-चेतना का न होना। जड़ पदार्थो के परमाणु भी गतिशील रहते हैं। उनमें भी उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है, किंतु निजी ज्ञान का सर्वथा अभाव रहता है। किसी शक्ति की प्रेरणा से प्रभावित होकर वे ग्रह-नक्षत्रों की भांति धुरी और कक्षा में घूमते तो रहते हैं, पर इस संदर्भ में अपना कोई स्वयं का निर्धारण कर सकने की स्थिति में नहीं होते, जबकि मनुष्य अपनी इच्छानुसार गतिविधियों का निर्धारण करते हैं।
विश्व का सबसे बड़ा आकर्षण 'आनंद' है। आनंद जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। जिसको जिस क्षेत्र में आनंद मिलने लगता है उसे किसी दूसरी वस्तु में मन नहीं लगता। वह अपने प्रिय में आनन्द मग्न रहता है, लेकिन शाश्वत आनंद की प्रकृति ऐसी नहीं। उसमें नीरसता और एकरसता जैसी शिकायत नहीं होती। उस परम आनंद की प्रकृति ऐसी नहीं। उस परम आनंद में मन नशे की तरह डूबा रहता है और वह बाहर नहीं निकलना चाहता, किंतु सांसारिक क्रिया-कलापों के निमित्त उसे हठपूर्वक बाहर लाना पड़ता है।
>>"जय श्री सच्चिदानन्द ! " का अर्थ क्या है?
यह त्रिमंत्र है यानी सच्चिदानंद में तो 'हिन्दू','मुस्लिम', 'विदेशी' इन सभी लोगों के मंत्र आ गए । जो किसी एक मत से बन्धे पड़े हुए हों यह मंत्र उनके काम का नहीं है। जो पूर्वाग्रह के मत (हिन्दू या मुस्लिम ब्राण्ड) में से बाहर निकलेंगे, जो धर्म को सनातन (eternal) मानेंगे (अर्थात किसी एक व्यक्ति से या अंतिम पैगम्बर से उपजा हुआ नहीं मानेंगे) यह मंत्र तब उनके काम का है। इस मंत्रों को सभी भक्त एक साथ बोलें, इस मंत्र को यदि निष्पक्षपता पूर्वक बोलें तब भगवान हम पर खुश होते हैं। हम किसी एक व्यक्ति का पक्ष लें और, 'ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय' सिर्फ यही बोला करें, तो अन्य देव हमसे खुश नहीं होंगे। इससे तो सभी देव खुश हो जाते हैं।
तो चलिए समझाते हैं इस त्रिमंत्र का अर्थ। इसमें अच्छे अच्छे मनुष्य और सबसे उच्च कोटि के जीव हैं, उन्हें नमस्कार करना सिखाया है।
नमो अरिहंताणम - जिन्होंने सभी दुश्मनों का नाश कर दिया है, क्रोध-मान-माया-लोभ, राग-द्वेष, रूपी दुश्मनों का नाश कर दिया है वे अरिहंत कहलाते हैं। दुश्मनों का नाश किया वहाँ से पूर्णाहुति होने तक अरिहंत कहलाते हैं। वे पूर्ण स्वरूप भगवान कहे जाते हैं! वे फिर चाहे किसी भी धर्म के हों, हिंदू हों या जैन हों या किसी भी जाति के हों, इस ब्रह्मांड में कहीं भी हों, लेकिन वे अरिहंत भगवान जहां भी हैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। सीमंधर स्वामी भगवान अरिहंत भगवान कहलाते हैं।
नमो सिद्धाणं - जो यहाँ से सिद्ध हो गए हैं, जिनका यहाँ से शरीर भी छूट गया है और फिर शरीर नहीं मिलता और सिद्ध गति में निरंतर सिद्ध भगवान की स्थिति में रहते हैं, ऐसे सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। भगवान रामचंद्रजी, ऋषभदेव भगवान, महावीर भगवान, ये सभी सिद्ध भगवंत कहलाते हैं।
नमो आयरियाणं - अर्थात अरिहंत भगवान के कहे हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचार का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। उन्होंने ख़ुद आत्मा प्राप्त कर लिया है, आत्म दशा प्रकट हो गई है, जैसे कि, श्री मदजी और परम पूज्य दादा भगवान।
नमो उवज्जायाणम - जिन्हें आत्मा प्राप्त हो गया है और जो ख़ुद आत्मा जानने के बाद शास्त्र सब पढ़ते हैं और फिर दूसरों को पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ। उपाध्याय अर्थात आत्मा जानते हैं, कर्तव्य जानते हैं, आचार भी जानते हैं, फिर भी कितने ही आचार आ गए होते हैं और कितने ही आचार नहीं आए होते। अंदर सम्पूर्ण आचार नहीं होने की वजह से वे उपाध्याय पद में हैं। अर्थात ख़ुद अभी पढ रहे हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं। उनमें आत्माज्ञानी पूज्य नीरूमा और पूज्यश्री दीपकभाई का समावेश होता है।
नमो लोए सव्व साहूणम - लोए अर्थात लोक, तो इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हुँ। संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न कर रहे हैं और आत्म दशा में रहते हैं उन सभी को नमस्कार करता हूँ। अर्थात देहाध्यास नहीं, बिल्कुल देहाध्यास नहीं ऐसे साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। जिसमें सभी ज्ञान लिए हुए महात्माओं को नमस्कार पहुँचता है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय - वासुदेव भगवान! अर्थात जो वासुदेव भगवान नर में से नारायण हुए, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। इस काल के वासुदेव अर्थात कौन? कृष्ण भगवान। इसलिए यह नमस्कार कृष्ण भगवान को पहुँचता है।
ॐ नमः शिवाय - इस दुनिया में जो कल्याण स्वरूप हो गए हैं और जो जीवित हैं, जिनका अहंकार खत्म हो गया है, वे सभी शिव कहलाते हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। इसमें सभी ज्ञानियों को नमस्कार पहुँचता है।
[साभार /https://hindi.dadabhagwan.org/path-to-happiness/spiritual-science/auspicious-mantra/purpose-three-mantras/
>>>शलाका पुरुष : जो पुरुष पीड़ित किये जाने पर भी अपशब्द या कठोर वचन नहीं बोलते हैं और रत्न-त्रय [सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीन गुणों को रत्नत्रय कहते हैं] धारण करके अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं, वे महापुरुष-'शलाका पुरुष' कहलाते हैं। भारत (India या हिन्दुस्तान) में -गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेगबहादुर सिंह। कैसे-कैसे 'मनुष्य' हो चुके हैं, और अभी भी हैं, जिसके कारण हजारों वर्षों तक गुलाम रहने के बाद भी जीवित और प्राणवंत बना रहा है ! पूरा भारत खत्म नहीं हो गया। (हमारे पूर्वजों ने नाम परिवर्तन - भारतवर्ष से हिन्दुस्तान- और India कहा जाना स्वीकार किया लेकिन सनातन धर्म खत्म नहीं हो गया। ) यह भारत वर्ष (हिन्दुस्तान) पूरा खत्म कभी नहीं हो सकता। यह तो मूलतः आर्यों की भूमि है। और जिस भूमि पर ऋषियों, तीर्थंकरों, गुरुनानक के "सत श्री अकाल' नाम से सिख (शिष्य) का जन्म हुआ! सिर्फ तीर्थंकर ही नहीं, तिरसठ 'शलाका पुरुष' जिस देश में जन्म लेते हैं, वह देश है यह!
[गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: पौषशुक्ल सप्तमी 22 दिसम्बर 1666- 7 अक्टूबर 1708 ) सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के उपरान्त 11 नवम्बर सन् 1675 को 10 वें गुरू बने। आप एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। मुगल शासक औरंगज़ेब ने उन्हे इस्लाम स्वीकार करने को कहा। पर गुरु साहब ने कहा कि "सीस कटा सकते हैं, केश नहीं।" इस पर औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। गुरुजी के जन्म की 400 वीं जयन्ती 21 अप्रैल 2022 को विशेष रूप से मनायी गयी। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को लाल किले पर आयोजित सिख गुरु तेग बहादुर के 400 वें प्रकाश पर्व समारोह में भाग लिया। प्रधानमन्त्री मोदी ने अपने सम्बोधन में कहा कि उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर साहब के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, 'हिन्द दी चादर' बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे। औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिर को धड़ से अलग किया हो लेकिन वह हमारी आस्था को हमसे अलग नहीं कर सका। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने, भारत की अनेक पीढ़ियों को अपनी संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए, उसके मान-सम्मान के लिए जीने और मर-मिट जाने की प्रेरणा दी। बड़ी-बड़ी सत्ताएँ मिट गईं, बड़े-बड़े तूफान शांत हो गए पर भारत आज भी अमर खड़ा है, आगे बढ़ रहा है।]
प्रश्न : सर्वदा सच्चिदानन्द (दिव्यानन्द) में स्थित रहने के लिए वह कौन सा उचित प्रश्न है, जिसे हमें अपने स्वयं से पूछना चाहिए, जिसपर विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए और उसको कार्यान्वित करना चाहिए?
उस प्रत्येक व्यक्ति को, जो " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित और 'Leader' का चपरास प्राप्त नेता से मनुष्य बनने के लिए, मनुष्य तीन प्रमुख अवयव : 3'H'- Hand, Head and Heart को विकसित करने का प्रशिक्षण लेकर अपने स्थूल देह की देखभाल कर रहे हैं, उनको स्वयं से यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि, “तुम किस उद्देश्य से इस शरीर की देखभाल कर रहे हो ? पौष्टिक आहार और व्यायाम के द्वारा तुम क्या प्राप्त करने की आशा करते हो?” जिस प्रकार तलवार के लिए म्यान है, उसी प्रकार जीवी (देही -आत्मा) अर्थात 'पक्का मैं' के लिए देह एक कोश (म्यान) है, जिसमें यह स्थित है, परन्तु यह उसका (देह) का नहीं है।
इस म्यान का उद्देश्य ब्रह्माण्ड के एकत्व की खोज करना है। तुम कहते हो कि हम अभी जहाँ बैठे हैं वो एक सभागार -'Auditorium' है। तुम इस ऑडिटोरीअम को इकाई (unit)के रूप में देखते हो, किन्तु यह वास्तव में कई बाँस के खम्भों, ढांचों, तिरपाल के चादरों और कपड़ों का बना हुआ है, या पक्का ऑडिटोरीअम हुआ तो ईंटों, सीमेण्ट, बालू आदि से मिश्रित गारा का बना और नट, बोल्ट और पेंट का एकत्रित समुच्च है!
उसी प्रकार तुम अनुभव करते हो कि तुम एक 'मनुष्य' हो, यद्यपि तुम कई अवयवों हाथ, पैर, सिर या 3H का एक समुच्च (union-संघटन) हो। (तुम कई अंगों-मांसपेशियों, तंत्रिकाओं, आंख, जीभ, दांत ज्ञान आदि के उपकरणों का एक समुच्च (संघटन) हो। उसी प्रकार से, यह विश्व ब्रह्मांड भी केवल एक ही है, यद्यपि तुम इसमें से तारों और ग्रहों तथा चट्टान, वृक्ष, पक्षी, झाड़ी, चींटी और विशाल डायनासोर, सींग वाले जंतु, डंक मारने वाले, उड़ने वाले, में अन्तर करने में सक्षम हो सकते हो।
किन्तु इस जगत में जो कुछ भी है, वह सर्वं ब्रह्ममयं अर्थात सब ब्रह्म है। यह सब सत् चित् आनंद है, न अधिक, न कम। इस महान सत्य की अनुभूति (बोध) प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।
(साभार /प्रशांति रिपोर्टर: सर्वं ब्रह्म मयम्)
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बृहस्पति का पुत्र कच की कहानी।
प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों के बीच तीनों लोकों की सत्ता के लिए आए दिन संघर्ष होता रहता था । इस संघर्ष में असुरों के गुरु शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या का अथवा मृतक को फिर से जिलाने का ज्ञान था ।
देवताओं के गुरु बृहस्पति को इस विद्या का ज्ञान नहीं था । अतः देवता जिन असुरों को मारते थे शुक्राचार्य उन्हें फिर से जिन्दा कर देते थे । इससे देवताओं के हाथ से जीती बाजी निकल जाती थी। देवता किसी तरह मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे ।
इसके लिए उन्होंने बृहस्पति के पुत्र कच को विद्याध्ययन के लिए शुक्राचार्य के पास भेजने की योजना बनाई । उन दिनों कोई गुरु विद्याध्ययन के लिए घर आए किसी छात्र को मना नहीं कर सकता था । देवताओं ने कच से कहा, ” आप हर तरह से विद्या सीखने के सुपात्र हैं । अतः शुक्राचार्य का शिष्यत्व स्वीकार कर उनकी और उनकी पुत्री देवयानी की सेवा कर मृतसंजीवनी विद्या सीख कर हमारी सहायता कीजिए । शुक्राचार्य तुम्हें मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्रदान कर देंगे । ” देवताओं के अनुरोध पर कच शुक्राचार्य के पास गया ।
अपना परिचय देते हुए उसने शुक्राचार्य से कहा , ” मैं अंगीरा ऋषि का पौत्र और बृहस्पति का पुत्र हूं । भगवन् , आप मुझे अपना शिष्य बना लें । ” शुक्राचार्य कच को शिष्य बनाने पर सहमत हो गए । कच निर्धारित पठन पाठन के अलावा शुक्राचार्य और उनकी पुत्री देवयानी की जी जान से सेवा करता था । वह देवयानी के लिए फल – फूल आदि लाने के अलावा गायन – नृत्य से उसका मनोविनोद करता था । अत : वह शीघ्र ही शुक्राचार्य और देवयानी दोनों का प्रिय हो गया । उधर जब असुरों को पता चला कि कच शुक्राचार्य का शिष्य हो गया है और कालान्तर में अपने गुरु से मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्राप्त कर सकता है तो वह चिन्तित हो गए ।
एक दिन शाम को गायों को चराकर लौटते समय जब कच विश्राम करने एक पेड़ के नीचे कुछ देर के लिए रुका तो असुरों ने उसकी हत्या कर दी । इसके बाद उन्होंने कच के शरीर के टुकड़े कर उन्हें कुत्तों और सियारों को खिला दिया । गायों के अकेले लौटने पर देवयानी ने अपने पिता से कहा , ” पिताजी सूर्य अस्त हो गया है , गायें बिना कच के लौट आई हैं । लेकिन कच अभी तक नहीं आए । लगता है कि कच या तो मारे गए हैं या मर गए हैं । मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती ।
” शुक्राचार्य अपनी बेटी को बहुत प्यार करते थे । उन्होंने कहा , “ बेटी चिन्ता न करो । मैं अभी आओ कह कर कच को जीवित कर देता हूं । ” यह कह कर उन्होंने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और कच को पुकारा । गुरु के पुकारने पर संजीवनी विद्या के प्रभाव से कच कुत्तों और सियारों का पेट फाड़कर बाहर निकल आया और गुरु के सामने उपस्थित हो गया ।
देवयानी ने कच से देर में आने का कारण पूछा । कच ने बताया , “ लौटते समय मैं थोड़ा विश्राम करने के लिए एक पेड़ के नीचे रुका । मेरे साथ ही गायें भी वहां बैठ कर जुगाली करने लगी । कुछ देर बाद वहां कुछ असुर आए । उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा । परिचय मिलने के बाद उन्होंने मुझे मार दिया और मेरे शव के टुकड़े टुकड़े कर कुत्तों और सियारों को खिला दिया । गुरु महाराज ने मुझे फिर से जीवित कर दिया । तब मैं यहां आया हूं । इसके बाद एक दिन जब कच वन में देवयानी के लिए फल – फूल लेने गया हुआ था , असुरों ने फिर उसकी हत्या कर दी । इसके बाद उन्होंने कच के शव को पीस कर समुद्र में डाल दिया । कच के आश्रम न पहुंचने पर देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य ने उसे फिर जीवित कर दिया ।
असुरों ने तीसरी बार फिर कच की हत्या की हत्या के बाद उन्होंने कच को जलाया और उसकी लाश का चूरन बनाकर मदिरा में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया । इस बार शुक्राचार्य ने देवयानी को समझाने का प्रयास किया कि असुर् कच के पीछे पड़े हैं । वे फिर उसकी हत्या कर देते हैं । मैं अगर उसे जिन्दा कर दूंगा तो असुर उसे फिर मार देंगे । अतः अब तुम उसके लिए शोक मत करो । देवयानी के यह कहने पर कि मैं कच के बिना जीवित नहीं रह सकती। यह सुनकर शुक्राचार्य ने फिर कच को बुलाया । कच ने शुक्राचार्य के पेट से धीमे स्वर में कहा , ” गुरुदेव मैं आपको प्रणाम करता हूं । ”
अपने पेट से कच की आवाज सुनकर शुक्राचार्य आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने कच से पूछा ! “ शिष्य तुम मेरे पेट में कैसे पहुंच गए ? ” कच ने बताया , “ असुरों ने मुझे मार कर मेरे शरीर को जलाया और उसका चूर्ण बना दिया । फिर उसे मदिरा में मिलाकर आपको पिला दिया । ”
यह सुनकर शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा , “ पुत्री ! असुरों ने कच को मार कर मेरे पेट में पहुंचा दिया है । अगर मैं उसे जीवित करता हूं तो वह मेरा पेट फाड़ कर बाहर निकलेगा । उस हालत में मैं जीवित नहीं रहूंगा। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं ? ” देवयानी ने कहा,“ पिताजी! आप और कच मुझे दोनों प्रिय हैं । आप दोनों में से किसी के भी न रहने पर मुझे भयंकर कष्ट होगा और मैं जीवित न रहूंगी। ”
इस पर शुक्राचार्य ने कच को पहले मृतसंजीवनी विद्या की शिक्षा दी । फिर कहा मेरे शरीर से जब तुम बाहर निकलोगे तो मेरी मृत्यु हो जाएगी । तुम मुझे फिर जीवित कर देना ।कच के शुक्राचार्य के पेट से बाहर निकलते समय शुक्राचार्य की मृत्यु हो गई । लेकिन कच ने उन्हें फिर जीवित कर दिया । फिर से जीवित हो जाने पर शुक्राचार्य के मन में मदिरा के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जागा और उन्होंने घोषणा की अगर आज से कोई ब्राह्मण मदिरा पान करेगा तो वह ब्रह्म हत्या के पाप का भागीदार होगा ।
शुक्राचार्य के पेट से निकलने के बाद कच ने कहा गुरु जो शिक्षा देता है पिता के समान है । अब चूंकि मैं आपके पेट से निकला हूं अत : आप मेरे माता – पिता दोनों हैं । अपनी शिक्षा समाप्त कर जब कच का शुक्राचार्य के आश्रम से जाने का समय निकट आया तो उसने गुरु से जाने की आज्ञा मांगी । शुक्राचार्य ने उसे सहर्ष जाने की आज्ञा प्रदान कर दी । उसी समय देवयानी ने कच से कहा , “ आप हर तरह से योग्य पुरुष हैं । आपका ब्रह्मचर्य जीवन समाप्त हो गया है । मैं आपसे प्रेम करती हूं । कृपया मुझसे विवाह करके मुझे स्वीकार करें । ” कच ने कहा , ” देवयानी गुरु शुक्राचार्य की तरह तुम भी मेरे लिए पूजनीय हो । गुरु पिता के बराबर होता है । अतः गुरु पुत्री बहिन होती है । अत : तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए । ”
देवयानी ने कच को समझाने की चेष्टा की कि तुम बृहस्पति के पुत्र हो , शुक्राचार्य के नहीं ।अत : इस संबंध में कोई दोष नहीं है । मैंने बार – बार अपने पिता से अनुरोध करके तुम्हें जीवित कराया , क्योंकि मैं तुमसे प्रेम करती थी । यह उचित नहीं है कि तुम मुझ जैसी निष्पाप , निष्ठावान, निरपराध और प्रेम करने वाली लड़की को त्याग दो । कच ने कहा , “ धर्म की दृष्टि से तुम मेरी बहिन हो । इसलिए मैं तुम्हारी आज्ञा लेकर जाना चाहता हूं । आशीर्वाद दो कि मेरा कल्याण हो । सदा सावधान और सजग रहकर गुरुदेव की सेवा करना । ” यह कह कर कच ने आश्रम छोड़ दिया ।
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