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सोमवार, 17 जून 2024

🕊🏹$$$(16) धर्म प्रचार 🏹 (17) 🕊 विविध ~ कांच की चूड़ियाँ और सोने का कंगन 🕊 [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -16,17 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

🕊🏹16.धर्म प्रचार 🕊🏹   

1.वास्तविक धर्म-प्रचार कैसे किया जाता है, जानते हो ? 'भगवान को जानो, उनका भजन करो' -ये सब बातें दूसरों से कहने के बजाए, स्वयं उनका भजन किया जाए तो यथेष्ट प्रचार हो जाता है। जो व्यक्ति मन और इन्द्रियों की गुलामी से स्वयं मुक्त होने प्रयत्न करता है, वही ठीक -ठीक प्रचार करता है। जो व्यक्ति स्वयं मुक्त हो जाता है (मन -इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त या देहध्यास से मुक्त हो जाता है),उसके पास जाने कहाँ -कहाँ से सैकड़ों लोग स्वयं आकर शिक्षा लेते हैं। इसका उदाहरण देते हुए ठाकुर कहते थे - " फूल खिल जाने से भँवरे स्वयं उसके पास चले आते हैं।" 

১। প্রকৃত প্রচার কি রকম জান? লোককে না ভজিয়ে আপনি ভজলে যথেষ্ট প্রচার হয়। যে আপনি মুক্ত হতে চেষ্টা করে, সে যথার্থ প্রচার করে। যে আপনি মুক্ত, শত শত লোক কোথা হতে আপনি এসে তার কাছে শিক্ষা লয়। দৃষ্টান্তস্বরূপ ঠাকুর বলতেন, "ফুল ফুটলে ভ্রমর আপনি এসে জোটে।"

2. बज्रबांटुल के बीज (बिनौला-cotton seed ?) पेड़ों के नीचे नहीं गिरते, वे उड़ जाते हैं और दूर के किसी स्थान में गिरकर पेड़ बन जाते हैं। वैसे ही धर्म-प्रचारकों के विचार (Gospel-धार्मिक उपदेश) सुदूर स्थानों में ही प्रकाशित होते हैं, और लोग उनकी प्रसंशा करते हैं।    

২। বজ্রবাঁটুলের বীচি গাছের তলায় পড়ে না, উড়ে গিয়ে দূরে পড়ে ও সেখানে গাছ হয়। সেই রকম ধর্মপ্রচারকদিগের ভাব দূরেতেই প্রকাশ হয় ও লোকে আদর করে।

3. जैसे लालटेन के नीचे अंधेरा रहता है, उसका प्रकाश दूर जाकर गिरता है। उसी प्रकार  संत महापुरुषों को उसके सगे सम्बन्धी (उसके परिवार के लोग) समझ नहीं पाते, दूर के लोग उनकी शिक्षाओं पर मोहित हो जाते हैं।

৩। লণ্ঠনের নীচে অন্ধকার থাকে, দূরে আলো পড়ে। সেই রকম সাধু মহাপুরুষদের নিকটের লোকেরা বুঝতে পারে না, দূরের লোকেরা তাঁদের ভাবে মুগ্ধ হয়।

4. यदि खुद को मारना हो तो एक नरहनी काफी है; लेकिन दूसरों को मारने के लिए ढाल-तलवार की जरूरत होती है। इसी प्रकार, यदि तुम लोगों को शिक्षा देना चाहते हो, तो युक्ति-तर्क द्वारा तुम्हें उन्हें समझाना पड़ेगा, कई शास्त्रों को पढ़ना होगा। लेकिन यदि स्वयं धर्म की उपलब्धि करनी हो तो गुरुमुख से सुने केवल एक शब्द - 'I am He' पर विश्वास करना यथेष्ट है !     

৪। আপনাকে মারতে হলে একটি নরুন দিয়ে হয়; কিন্তু অপরকে মারতে গেলে, ঢাল-তরবারের দরকার হয়। তেমনি লোকশিক্ষা দিতে হলে অনেক শাস্ত্র পড়তে হয় ও অনেক তর্ক-যুক্তি ক'রে বোঝাতে হয়, কিন্তু আপনার ধর্মলাভ কেবল একটি কথায় বিশ্বাস করলেই হয়

5.  उस देश में (कामारपुकुर ठाकुर के जन्मस्थान में) जब लोग धान नापने की पैली से धान मापते हैं, तो एक नापता जाता है और दूसरा उसके पीछे खड़ा रहता है। जैसे ही धान का ढेर कम पड़ने लगता है, उसके पीछे जो धान का विशाल पुंज पड़ा रहता है, उससे एक अंश को ठेल कर उसके सामने रख देता है। इसी प्रकार जो लोग सच्चे संत और ईश्वर के भक्त होते हैं, जिनके पास ईश्वर के सन्देश का प्रचार-प्रसार करने की जिम्मेदारी और ईश्वर (गुरु) से उसका चपरास प्राप्त रहता है, वे ईश्वरीय वाणी का बखान करना कभी बंद नहीं करते, उन्हें निरंतर अपने ही भीतर से प्रेरणा मिलती रहती है। उनके विचारों का कभी अंत नहीं होता। 

৫। ও দেশেতে লোকে যখন ধান মাপে, একজন মাপতে থাকে আর একজন পেছনে দাঁড়িয়ে থাকে; যেই কম পড়ে আসে, পেছনে যে গাদা করা থাকে, তা থেকে ঠেলে দিয়ে তার সামনে যুগিয়ে দেয়। তেমনি যারা ঠিক ঠিক সাধু ভক্ত, ঈশ্বরীয় কথা বলা ফুরাতে না ফুরাতে তাদের ভেতর থেকে ভাব যুগিয়ে আসে। তাদের ভাব আর ফুরোয় না।

6. जैसे ठंढ के दिनों में कोई मनुष्य जब लकड़ी आदि इकट्ठा करके आग जलाकर बैठ जाता है, तो और भी पांच व्यक्ति बिना बुलाये आकर वहां बैठ जाते हैं, और आग तापने लगते हैं। इसी प्रकार साधु-संन्यासी लोग कठोर तपस्या करके जब भगवान को जान लेते हैं, तो अन्य पाँच लोग आकर उनके सतसंग का लाभ उठाते हैं, और उनके उपदेशों को सुनकर [मूर्तमान सच्चिदानन्द को -माँ आनन्दमयी के अवतार वरिष्ठ को पहचान लेते है,और तब साक्षात्] भगवान में अपने मन को स्थिर करने का अभ्यास करते हैं।  

৬। যেমন একজন কাঠ ইত্যাদি সংগ্রহ ক'রে আগুন জ্বেলে বসে থাকে, আর পাঁচজনেও এসে বসে পোহায়; তেমনি সাধু-সন্ন্যাসীরা কঠোর তপস্যা ক'রে ভগবানকে জানেন, আর পাঁচজন এসে তাঁদের সঙ্গ করে, তাঁদের উপদেশ শুনে ভগবানে চিত্ত স্থির করে।

7. संतों और महापुरुषों की उनके सगे संबंधियों द्वारा उपेक्षा की जाती है, वहीं दूर के लोग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं, इसका कारण क्या है ? जैसे जादूगर के जादू को उसके नजदीकी रिश्तेदार नहीं देखते, दूर के लोग देखकर अवाक हो जाते हैं।  

৭। সাধু-মহাপুরুষদিগকে নিকটস্থ আত্মীয় লোকেরা অগ্রাহ্য করে, দূরের লোকদিগের নিকট তাঁদের আদর হয়, এর কারণ কি? - যেমন বাজিকরের বাজি, তাদের কাছের আত্মীয় লোকেরা দেখে না, দূরের লোকেরা দেখে অবাক হয়ে যায়।

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विविध 

 🕊क्षणभंगुर देह और शाश्वत आत्मा~  कांच की चूड़ियाँ और सोने का कंगन 🕊 

1. कलकत्ता का एक धनी और विख्यात व्यक्ति ठाकुर का दर्शन करने गया,तो तरह-तरह के मिथ्या तर्क उठाने लगा। ठाकुर उससे बोले, "व्यर्थ में तर्क-कुतर्क करने से क्या लाभ? सरलता से भगवान को पुकारते रहो, तो तुम्हारा अपना काम बन जाएगा।" ठाकुर का उत्तर मन मुताबिक नहीं होने से, उस दम्भी व्यक्ति ने चिढ़ कर कहा - " आपने क्या सब कुछ जान लिया है ?" ठाकुर ने बहुत विनम्रता से हाथ जोड़कर उस व्यक्ति से कहा - " यह सत्य है कि मैं कुछ भी नहीं जान सका, किन्तु झाड़ू स्वयं अपवित्र होने से भी, जिस स्थान को बुहारती है, उस स्थान को पवित्र बना देती है। "    

১। কলিকাতার কোন বিখ্যাত ধনী ঠাকুরকে দর্শন করতে এসে নানা প্রকার কূট তর্ক উত্থাপন করতে আরম্ভ করলেন। ঠাকুর তাঁকে বললেন, "বৃথা তর্কে লাভ কি? সরলতার সঙ্গে ভগবানকে ডেকে যাও, তা হলে তোমার নিজের কাজ হবে।" কথাগুলি সেই দাম্ভিক ব্যক্তির মনোমত না হওয়ায় তিনি বলে উঠলেন, "আপনি কি সব জানতে পেরেছেন?" ঠাকুর অতি বিনীতভাবে হাতজোড় ক'রে তাঁকে বললেন, "আমি কিছু জানতে পারিনি সত্য, কিন্তু ঝাঁটা নিজে অপবিত্র হলেও যে স্থান ঝাঁট দেয়, সে স্থানকে পবিত্র করে।"

2. वन में भ्रमण करते समय राम पंपा सरोवर में पानी पीने के लिए,अपना धनुष किनारे पर  गाड़कर पानी में उतर गए। पानी से निकलकर ऊपर आकर देखा कि उनके धनुष से एक मेंढक बिंध गया है, और उनके धनुष में उसका खून लगा हुआ है। राम ने बहुत दुःखी होकर उस मेढ़क से कहा - "तुम ने शब्द क्यों नहीं किया ? अगर तुम आवाज निकालते, तो हमें पता चल जाता, और तुम्हारी यह दशा नहीं होती। " मेंढक ने कहा, "राम, जब मैं किसी खतरे में घिर जाता हूं, तो तुम्हें पुकार कर कहता हूँ 'राम मुझे बचाओ'; लेकिन जब राम ही मुझे मार रहे हों, तो मैं और किसे बुलाऊं?"

২। বনে ভ্রমণ করতে করতে রাম পম্পা সরোবরে জল পান করতে নেমেছিলেন, ধারে তীরধনুক মাটিতে পুঁতে জলে নেমেছিলেন। উঠে এসে দেখেন ধনুকে বিদ্ধ হয়ে একটি ব্যাঙ রক্তাক্ত হয়ে পড়ে আছে। রাম মহা দুঃখিত হয়ে তাকে বললেন, "তুমি শব্দ করলে না কেন? শব্দ করলে, আমরা জানতে পারতাম, তা হলে আর তোমার এদশা হতো না।" ব্যাঙটা বললে, "রাম, যখন বিপদে পড়ি, তখন 'রাম রক্ষা কর' বলে ডাকি; এখন রামই যখন মারছেন তখন আর কাকে ডাকব?"

3. एक साध्वी भगवत्परायण स्त्री परिवार में रहते हुए अपने पति और पुत्र की सेवा करती थीं और साथ-साथ भगवान का चिंतन भी करती रहती थीं। एक दिन रोग से ग्रस्त होकर उसके पति की मृत्यु हो गयी। अपने पति का दाहसंस्कार आदि समाप्त होने के बाद उन्होंने कांच की चूड़ियों को तोड़ दिया और अपने हाथ में सोने की चूड़ियाँ पहन लीं। सभी के पूछने पर उन्होंने कहा, " इतने दिनों तक मेरे पति का शरीर  इस कांच की चूड़ी की तरह बहुत क्षणभंगुर थाउनका नश्वर शरीर चला गया है। अब वे क्षणभंगुर नहीं हैं, वे शाश्वत अखण्ड स्वरूप हैं। इसलिए मैंने कांच की चूड़ियाँ छोड़ दी हैं और सोने का कंगन धारण कर लिए हैं।”

৩। একটি সাধ্বী ভগবৎপরায়ণা স্ত্রীলোক সংসারে থেকে পতি-পুত্রের সেবা করতেন আর ভগবানের চিন্তা করতেন। একদিন রোগাক্রান্ত হয়ে তাঁর পতি প্রাণত্যাগ করেন। পতির সত্কারাদি শেষ ক'রে তিনি হাতের কাচের চুড়ি ভেঙ্গে ফেলে সোনার বালা পরলেন। সবাই জিজ্ঞাসা করায় বললেন, "আমার স্বামীর দেহ এতদিন এই কাচের চুড়ির মতো ক্ষণভঙ্গুর ছিল। তাঁর অনিত্য দেহ চলে গিয়েছে। এখন আর তিনি ক্ষণভঙ্গুর নন, তিনি নিত্য অখণ্ডস্বরূপ। তাই আমি কাচের চুড়ি ছেড়ে পাকা গয়না পরেছি।"

4. गंगा -जल' जल की गिनती में नहीं आता, श्री वृन्दावन की रज- धूल की गिनती में नहीं आता, और श्री श्रीजगन्नाथदेव का महाप्रसाद अन्न की श्रेणी में नहीं है। ये तीनों ब्रह्म के ही रूप हैं।

৪। গঙ্গাজল জলের মধ্যে নয়, শ্রীবৃন্দাবনের রজঃ ধুলোর মধ্যে নয়, আর শ্রীশ্রী জগন্নাথ দেবের মহাপ্রসাদ অন্নের মধ্যে নয়। এই তিন ব্রহ্মের স্বরূপ।

5. माया किसे कहते हैं, जानते हो ? ये अपने पिता-माता, भाई- बहन, पत्नी-पुत्र, भगना-भगनी, भतीजा- भतीजी - इन सभी रिश्तेदारों के प्रति आकर्षण और प्रेम को माया कहते हैं। और दया का अर्थ है - सभी प्राणियों में मेरे हरि हैं, यह जानकर सभी से समान रूप से प्रेम करना।

৫। মায়া কাকে বলে জান? - বাপ, মা, ভাই, ভগ্নী, স্ত্রী, পুত্র, ভাগ্নে, ভাইপো, ভাইঝি - এই সব আত্মীয়দের প্রতি টান ও ভালবাসা; আর দয়া মানে - সর্বভূতে আমার হরি আছেন এই জেনে সকলকে সমান ভালবাসা।

6. मनुष्य दो तरह के होते हैं- आदमी और मनुष्य (इंसान)।  जो लोग ईश्वर के लिए (परमसत्य को जानने के लिए) व्याकुल हैं उन्हें मनुष्य (मान-हुंश) कहा जाता है; और जो लोग कामिनी-कांचन जैसी चीजों को लेकर मतवाले हैं वे लोग साधारण आदमी  हैं। 

৬। মানুষ দুরকম - মানুষ ও মানহুঁশ। যাঁরা ভগবানের জন্য ব্যাকুল তাঁদের মানহুঁশ বলে; আর যারা কামিনী-কাঞ্চনরূপ বিষয় নিয়ে মত্ত, তারা সব সাধারণ মানুষ।

7. यदि विवेक-वैराग्य नहीं हो, तो धर्मग्रंथ पढ़ना व्यर्थ है। विवेक -वैराग्य के बिना धर्म की उपलब्धि नहीं होती। क्या सत (शाश्वत) है और क्या असत (नश्वर) है - इस पर विवेक-विचार सदवस्तु को ग्रहण करना , और शरीर परिवर्तनशील होने के कारण, नश्वर है अतएव मिथ्या है। शरीर अलग और अविनाशी आत्मा अलग है - इस प्रकार विचार करने वाली बुद्धि का नाम विवेक है। इन्द्रिय विषयों से वितृष्णा का नाम वैराग्य है।    

৭. বিবেক-বৈরাগ্য না থাকলে শাস্ত্র পড়া মিছে। বিবেক-বৈরাগ্য ছাড়া ধর্মলাভও হয় না। এইটি সৎ আর এইটি অসৎ বিচার ক'রে সদ্বস্তু গ্রহণ করা, আর দেহ আলাদা আর আত্মা আলাদা - এইরূপ বিচার-বুদ্ধির নাম বিবেক; বিষয়ে বিতৃষ্ণার নাম বৈরাগ্য।

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🕊🏹$$$(14) कर्मफल :वैराग्यमेवाभयम् 🏹 (15) 🕊युगधर्म-श्री रामकृष्ण के नाम का महातम्य 🕊 [श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -14,15 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

 14. कर्मफल 

1. पाप (sin) और पारा (mercury) कोई पचा नहीं सकता। यदि कोई छिपा कर पारा खा ले तो देर -सवेर शरीर पर उसका असर अवश्य दिखेगा। उसी तरह, पाप करने से तुम्हें एक दिन उसका फल भुगतना ही पड़ेगा।     

 পাপ আর পারা কেউ হজম করতে পারে না। যদি কেউ লুকিয়ে পারা খায়, তা হলে কোন দিন না কোন দিন গায়ে ফুটে বেরোবে। পাপ করলেও তেমনি তার ফল একদিন না একদিন নিশ্চয় ভোগ করতে হবে।

2. जिस प्रकार कोई सिल्क का कीट (silk worm) अपने ही लार से घर बनाकर खुद उसमें बद्ध हो जाता है। लेकिन बाद में तितली बनकर (cocoon) से उड़ जाता है, उसी प्रकार जब जीवन में विवेक-वैराग्य आ जाता है, तब बद्धजीव मुक्त हो जाता है।    

২। গুটিপোকা যেমন আপনারই নালে ঘর ক'রে আপনি বদ্ধ হয়, তেমনি সংসারী জীব আপনার কর্মে আপনি বদ্ধ হয়। যখন প্রজাপতি হয়, তখন কিন্তু ঘর কেটে বেরোয়, তেমনি বিবেক-বৈরাগ্য হলে বদ্ধজীব মুক্ত হয়ে যায়।

[भोगे रोगभयं, कुले च्युतिभयं, वित्ते नृपालात् भयं, माने दैन्यभयं, बले रिपुभयं, रूपे जराया भयम्, शास्त्रे वादिभयं, गुणे खलभयं, काये कृतान्तात् भयम् । नृणां भुवि सर्वं वस्तु भयान्वितम् । वैराग्यं एव अभयम् ।]

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15. 

🕊युगधर्म-श्री रामकृष्ण के नाम का महातम्य 🕊  

1. परमहंसदेव हमेशा कहते थे - "सुबह और शाम ताली बजाकर यदि हरिनाम जपा करो, तो सभी पाप दूर हो जाएंगे। जैसे अगर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर ताली बजा दिया जाय, तो पेड़ की डाल पर बैठे सारे पंछी उड़ जाते हैं।"  उसी प्रकार ताली बजाकर हरिनाम जपने से शरीर-वृक्ष से सभी अविद्या (अज्ञान रूपी) पंछी उड़ जाते हैं।"

১। পরমহংসদেব সর্বদা বলতেন - "হাততালি দিয়ে সকালে ও সন্ধ্যাকালে হরিনাম করো, তা হলে সব পাপতাপ চলে যাবে। যেমন গাছের তলায় দাঁড়িয়ে হাততালি দিলে গাছের সব পাখী উড়ে যায়, তেমনি হাততালি দিয়ে হরিনাম করলে দেহ-গাছ থেকে সব অবিদ্যারূপ পাখী উড়ে পালায়।"

2. पहले के जमाने में साधारण बुखार होता था, तो एक पुड़िया जोशन्दा फाँक लेने से उतर जाता था। अभी जैसे किसी को मलेरिया हो जाये तो डी.गुप्त की दवा से ठीक हो जाता है। पहले के लोग योगासन, व्यायाम , उपवास- तपस्या आदि करते थे, अभी कलिकाल है, जीव का प्राण अन्नगत है, मन दुर्बल है- इसीलिए यदि मन को एकाग्र रखकर केवल हरिनाम किया जाए तो संसार के सारे रोग नष्ट हो जायेंगे।

২। আগে সাদাসিধে জ্বর হোত, সামান্য পাঁচন ইত্যাদিতে সেরে যেত; এখন যেমন ম্যালেরিয়া জ্বর, তেমনি ডি. গুপ্ত ঔষধ। আগে লোকে যোগযাগ, তপস্যা করত; এখন কলির জীব অন্নগত প্রাণ, দুর্বল মন, এক হরিনামই একাগ্র হয়ে করলে সব সংসারব্যাধি নাশ পায়।

3. चाहे जान-बूझकर हो, कि अनजाने में हो या भूल से हो, ईश्वर का नाम लेने से ही फल प्राप्त होगा। जैसे कोई तेल लगाकर नहाने जाता है, उसका जैसे स्नान हो जाता है, और किसी को पानी में धक्का दे दिया जाये, तो उसका भी जैसे स्नान हो जाता  है। या जैसे कोई अपने कमरे में सोया हुआ हो, और उसके शरीर पर पानी डाल दिया जाए, तो उसका भी स्नान का कार्य पूरा हो जाता है।

৩। জান্তে, অজান্তে বা ভ্রান্তে যে কোন ভাবেই হোক না কেন, তাঁর নাম করলেই ফল হবে। কেউ তেল মেখে নাইতে যায়, তারও যেমন স্নান হয়, আর যদি কাউকে জলে ঠেলে ফেলে দেওয়া যায়, তারও তেমনি স্নাने ন হয় - আর কেউ ঘরে শুয়ে আছে, তার গায়ে জল ঢেলে দিলে তারও স্নানের কাজ হয়ে যায়।

4. चाहे जिस प्रकार हो, एक बार अमृतकुंड में गिर पड़ने से ही अमर हुआ जा सकता है; कोई यदि ईश्वर का भजन-कीर्तन करते या सुनते हुए गिर पड़े तो वह अमर होता है। और यदि किसी को किसी प्रकार अमृतकुंड में धकेल कर गिरा दिया जाये, तो वह भी अमर हो जाता है।इसी प्रकार भगवान का नाम जाने-अनजाने या गलती से, किसी भी तरह से लेने से उसका फल होगा ही होगा

৪। অমৃতকুণ্ডে যে কোন প্রকারে হোক, একবার পড়তে পারলেই অমর হওয়া যায়; কেউ যদি স্তবস্তুতি ক'রে পড়ে, সেও অমর হয়, আর কাউকে যদি কোন রকমে ঠেলে সেই অমৃতকুণ্ডে ফেলে দেওয়া যায়, সেও অমর হয়; তেমনি ভগবানের নাম (चिदानन्द रूपः शिवोहं -शिवोहं) জান্তে অজান্তে বা ভ্রান্তে যে প্রকারে হোক, নিলে তার ফল হবেই হবে।

5. इस कलियुग में नारदीय भक्ति मार्ग ही विस्तीर्ण (ample) पथ है। दूसरे युगों में विभिन्न प्रकार की कठोर साधना करने का नियम था; लेकिन इस युग में उन सभी कठोर साधनाओं में सिद्धि पाना बहुत कठिन है। एक तो जीव अल्पायु है, उसपर यह मालोयारी (मलेरिया) अपने चँगुल में फँसा लेती है, कठोर तपस्या करोगे कैसे ?  

৫। এই কলিযুগে নারদীয় ভক্তিমতই প্রশস্ত। অন্য অন্য যুগে নানা রকমের কঠোর সাধনের নিয়ম ছিল; সে সকল সাধনে এ যুগে সিদ্ধিলাভ করা বড় কঠিন। একে জীবের অল্প পরমায়ু, তাতে মালোয়ারী (ম্যালেরিয়া) রোগে কাবু ক'রে ফেলে, কঠোর তপস্যা কেমন ক'রে করবে?

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🕊🏹$$$(13) सर्वधर्म-समन्वय : ('तुरीय' में पहुँचकर या देहाध्यास से मुक्त होने की साधना:आत्मज्ञान के अभाव में देहाध्यास 🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -13 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹जितने मत, उतने पथ =अलग-अलग मार्गों से सच्चिदानंद की प्राप्ति

 (13) 

सर्वधर्म समन्वय 

[समन्वय नहीं होने का कारण >आत्मज्ञान के अभाव में देहाध्यास]

1. माँ का प्यार सभी लड़कों के प्रति एक समान होता है, लेकिन सभी बच्चों की रूचि और आवश्यकता के अनुसार किसी लड़के के लिए पूड़ी-सब्जी, किसी के लिए मुढ़ी की लाई, आदि की व्यवस्था करती है। इसी प्रकार भगवान अलग-अलग साधकों की शक्ति और अवस्था के अनुसार साधना # की व्यवस्था करते हैं।

[साधना =जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से 'तुरीय' में पहुँचकर या देहाध्यास से  मुक्त होने की साधना। या श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द Be and Make वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में "आत्मा" होकर भी  'M/F ' होने या भेंड़ होने के देहाध्यास या स्वप्न से जागृत होने -dehypnotized की साधना की व्यवस्था।]   

 মার ভালবাসা সব ছেলের প্রতি সমান, কিন্তু কোন ছেলের জন্য লুচি, কারও জন্য খই-বাতাসা প্রভৃতি যার যেমন আবশ্যক বোঝেন, সেই রকমেরই ব্যবস্থা ক'রে থাকেন। সেইরূপ ভগবানও বিভিন্ন সাধকের শক্তি ও অবস্থানুযায়ী সাধনের ব্যবস্থা করেন।

2. आचार्य केशवचंद्र सेन ने ठाकुर से पूछा, "ईश्वर एक है, तो धर्मों के बीच इतने विवाद क्यों हैं?" परमहंसदेव ने उत्तर दिया, "जैसे कोई व्यक्ति इस पृथ्वी पर, थोड़ी जमीन घेरकर सोचता है यह मेरी जमीन है और यह मेरा घर है। लेकिन ऊपर जो अनन्त आकाश है, उसको कोई घेर नहीं सकता है। उसी तरह मनुष्य अज्ञान में (आत्मज्ञान के अभाव में देहाध्यास के कारण) अपने -अपने धर्म को श्रेष्ठ कहकर व्यर्थ शोर मचाते हैं। जब सही रूप से ज्ञान होता है (यानि आत्म-साक्षात्कार-होता है, या मनुष्य जब अपने सच्चिदानन्द स्वरुप को पहचान लेता है), तब आपस में कोई झगड़ा नहीं रहता।  

 মহাত্মা কেশবচন্দ্র সেন ঠাকুরকে জিজ্ঞাসা করলেন, "ভগবান্ এক, তবে ধর্মসম্প্রদায়ের মধ্যে পরস্পর এত বাদ-বিসংবাদ দেখা যায় কেন?" উত্তরে পরমহংসদেব বললেন, "যেমন এই পৃথিবীতে এটা আমার জমি ও এই আমার বাড়ি বলে ঘিরে বসে থাকে; কিন্তু ওপরে সেই এক অনন্ত আকাশ, সেখানে যেমন কেউ ঘিরতে পারে না, তেমনি মানুষ অজ্ঞানে আপনার আপনার ধর্মকে শ্রেষ্ঠ বলে বৃথা গোলমাল করে। যখন ঠিক ঠিক জ্ঞানলাভ হয়, তখন আর পরস্পরের মধ্যে বিবাদ থাকে না।" 

3. जब  हिन्दू धर्म में भी हम अलग-अलग मत, जैसे वैष्णव, शैव और शाक्त आदि की बात सुनते हैं- तो हमारे लिए कौन सा मत श्रेष्ठतर (better) है ? हमलोगों को कौन मत ग्रहण करना चाहिए? एक बार माता पार्वती ने महादेव से पूछा, "प्रभु, सच्चिदानन्द नाम की जड़ कहाँ है?" महादेव ने कहा, "विश्वास" में। मत का नाम क्या है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो व्यक्ति जिस किसी भी मंत्र में दीक्षित क्यों न हुआ हो, उसे पूरे विश्वास के साथ उसी मंत्र का जप और रूप का ध्यान करना चाहिए।   

 হিন্দুদের মধ্যে যখন নানা মতের কথা শুনতে পাওয়া যায়, তখন আমাদের পক্ষে কোন্ মত শ্রেয়? আমরা কোন্ মত গ্রহণ করব? পার্বতী মহাদেবকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন, "ঠাকুর, সচ্চিদানন্দরূপের খেই কোথায়?" মহাদেব বললেন, "বিশ্বাস।" মতে কিছু আসে যায় না। যিনি যে মন্ত্রে দীক্ষিত হন না কেন, বিশ্বাসের সহিত তিনি তারই সাধন করুন।

4. जो लोग संकीर्ण मानसिकता के होते हैं, वे ही दूसरों के धर्म की निंदा करते हैं और अपने धर्म को श्रेष्ठ कहकर गुट बना लेते हैं। और जो लोग ईश्वर (आदर्श) से प्रेम करते हैं, वे केवल साधना-भजन करते हैं, उनके भीतर कोई गुटबाजी/दलबंदी नहीं होती। जैसे पुष्करिणी और तालाबों में ही जलकुम्भी के पत्ते उगते हैं, किन्तु नदियों में कभी नहीं।    

 যাদের সঙ্কীর্ণ ভাব, তারাই অন্যের ধর্মকে নিন্দা করে ও আপনার ধর্মকে শ্রেষ্ঠ বলে দল পাকায়;আর যারা ঈশ্বরানুরাগী - কেবল সাধন-ভজন করতে থাকে, তাদের ভেতর কোনরূপ দলাদলি থাকে না; যেমন পুষ্করিণী বা গেড়ে ডোবায় দল জন্মায়, নদীতে কখনও জন্মায় না।

5. भगवान एक हैं, लेकिन संत और भक्त अलग-अलग तरीकों से और रुचि के अनुसार उनकी पूजा करते हैं। जैसे किसी गृहस्थ परिवार में जब बड़ी मछली आती है, तो कोई झोलदार मछली बनाते हैं। कोई मछली को तल कर (fish fry) खाते हैं, कोई तेल-हल्दी में लपेट कर चड़चड़ी बनाते हैं, कोई मछली-भात खाते हैं।  किसी-किसी को तलीमछलि खाकर सीने में जलन होती है, तोभी वही खाते हैं। उसी प्रकार जिसकी जैसी रुचि होती है, वे भगवान की पूजा-जपध्यान भी उसी मार्ग से  करते हैं।            

 ভগবান্ এক, সাধক ও ভক্তেরা ভিন্ন ভিন্ন ভাবে ও রুচি অনুসারে তাঁর উপাসনা ক'রে থাকে। যেমন গৃহস্থেরা একটা বড় মাছ বাড়িতে এলে কেউ ঝোল করে, কেউ ভাজে, কেউ তেল-হলুদে চচ্চড়ি করে, কেউ ভাতে দিয়ে, কেউ কেউ বা অম্বল ক'রে খেয়ে থাকে। সেইরূপ যাদের যেমন রুচি, তারা সেই রকম ভাবে ভগবানের সাধন-ভজন-উপাসনা ক'রে থাকে।

6.उदाहरण के लिए, जल एक पदार्थ है - देश, काल और पात्र के अनुसार इसके अलग-अलग नाम हैं। बांग्ला में इसे जल, हिन्दी में पानी, अंग्रेजी में इसे वाटर या एक्वा कहते हैं। यदि बातचीत क्रम में हम एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते, तो कोई किसी की बातें नहीं समझ सकता, लेकिन यदि एक-दूसरे की भाषा जानते हों, तो कोई छोड़ाव (exclusion-अपवाद, वहिष्करण) नहीं रह जायेगा।

 যেমন জল এক পদার্থ - দেশ, কাল, পাত্র-ভেদে তার ভিন্ন ভিন্ন নাম হয়। বাঙ্গালা দেশে জল বলে, হিন্দিতে পানি বলে, ইংরাজীতে ওয়াটার বা একোয়া বলে। পরস্পরের ভাষা না জানা থাকলে কারুর কথা কেউ বুঝতে পারে না, কিন্তু জানলে আর ভাবের কোনরূপ ব্যতিক্রম হয় না।

7. भगवान के नाम का जप-ध्यान कैसे भी करो, कल्याण ही होगा। यदि तुम चीनी-भरी हुई रोटी सीधी खाओ या तिरछी करके खाओ, खाने से तो मीठा ही लगेगा।  

 ভগবানের নাম ও চিন্তা যে রকম করেই কর না কেন, তাতেই কল্যাণ হবে। যেমন মিছরির রুটি সিধে করে খাও বা আড় করেই খাও খেলে মিষ্টি লাগবেই লাগবে।

8. ईश्वर एक है, उसके असंख्य नाम और असंख्य रूप हैं। जिसे जो रूप पसन्द हो और जिस नाम से पुकारना अच्छा लगता हो, उसे उसी नाम से और उसी रूप में पुकारने से वह उन्हें देख सकता है।

 ঈশ্বর এক, তাঁর অনন্ত নাম ও অনন্ত ভাব। যার যে নামে ও যে ভাবে ডাকতে ভাল লাগে, সে সেই নামে ও সেই ভাবে ডাকলে দেখা পায়।

9. कोई व्यक्ति किसी भी तरीके से, किसी भी नाम से यदि ईश्वर को एक और अद्वितीय सच्चिदानन्द समझकर साधन-भजन करता है, तो उसे ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी।

 কোন ব্যক্তি যে ভাবে, যে নামে ও যে রূপেই হোক না কেন সেই এক অদ্বিতীয় সচ্চিদানন্দ-জ্ঞানে যদি সাধন-ভজন করে, তবে তার ভগবানলাভ নিশ্চয়ই হবে।

10. जितने मत, उतने पथ। जैसे कि इस कालीबाड़ी में आने के लिए कोई नाव से आता है, कोई कार से, कोई पैदल, ऐसे ही अलग-अलग लोगों को अलग-अलग मार्गों से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है।

যত মত, তত পথ। যেমন এই কালীবাড়িতে আসতে হলে কেউ নৌকায়, কেউ গাড়ীতে, কেউ বা হেঁটে আসে, সেইরূপ ভিন্ন ভিন্ন মতের দ্বারা ভিন্ন ভিন্ন লোকের সচ্চিদানন্দ লাভ হয়ে থাকে।

11. जिस प्रकार गैस की बत्ती एक ही स्थान से आती है और नगर में भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जलती है, उसी प्रकार विभिन्न देशों, विभिन्न जातियों के धार्मिक लोग उस एक ईश्वर से ही आते हैं।

 যেমন গ্যাসের আলো এক স্থান হতে এসে শহরে নানা স্থানে নানা ভাবে জ্বলছে, তেমনি নানা দেশের নানা জাতের ধার্মিক লোক সেই এক ভগবান্ হতে আসছে।

12. जैसे छत पर जाने के लिए कई उपाय हैं, सीढ़ि, बाँस, लकड़ी की नसैनी आदि, वैसे ही एक ईश्वर के पास जाने के कई रास्ते हैं, हर धर्म का एक-एक उपाय है। 

 ছাতের উপর উঠতে হলে মই, বাঁশ, সিঁড়ি ইত্যাদি নানা উপায়ে যেমন ওঠা যায়, তেমনি এক ঈশ্বরের কাছে যাবার অনেক উপায় আছে। প্রত্যেক ধর্মই এক-একটি উপায়।

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रविवार, 16 जून 2024

🕊🏹$$$$(12) सिद्ध अवस्था ~ परमहंस अवस्था ~ सर्वं ब्रह्ममयं रे रे सर्वं ब्रह्ममयम् ।🔱🕊🏹>>"जय श्री सच्चिदानन्द ! " का अर्थ क्या है? 🕊🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -12 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

 (12) 

🔱🕊🏹सिद्ध अवस्था~ सच्चिदानन्द की प्राप्ति 🔱🕊🏹

1. परमहंस अवस्था किसे कहते हैं , जानते हो? जैसे किसी हंस को यदि दूध और पानी एक साथ मिलाकर दिया जाए तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। इसी प्रकार, परमहंस भी इस जगत का जो मूलवस्तु (essence,सार) -सच्चिदानन्द हैं (ऊपरी नाम-रूप M/F नहीं), उन्हें अंगीकार (accept या ग्रहण) कर लेते हैं और सांसारिक वस्तुओं (कामिनी -कांचन), नाते -रिश्तों में जो व्यर्थ की आसक्ति है, उसको त्याग देते हैं।   

. পরমহংস অবস্থা কাকে বলে জান? যেমন হাঁসকে দুধে-জলে এক সঙ্গে দিলে, দুধ খেয়ে জলটি ফেলে রাখে। তাঁরা তেমনি সংসারে সার যে সচ্চিদানন্দ, তাঁকে গ্রহণ করেন, আর অসার যে সংসার, তাকে ত্যাগ করেন। 

2.  पहले अज्ञान (देहाध्यास M/F भाव के कारण पहले - भोग) , फिर ज्ञान (आत्मज्ञान के बाद देहाध्यास का त्याग-जाति अभिमान का त्याग ) -Ignorance (अविद्या), followed by knowledge (विद्या)। अन्ततः जब किसी को सच्चिदानंद की प्राप्त हो जाती है, तब वह ज्ञान और अज्ञान दोनों के परे चला जाता है। जैसे शरीर में यदि काँटा चुभ जाता है, तब बाहर से एक काँटा लेकर गड़े हुए काँटे को निकाल दिया जाता है ; फिर दोनों काँटों को फेंक दिया जाता है।  

২। প্রথমতঃ অজ্ঞান, তার পরে জ্ঞান। পরিশেষে যখন সচ্চিদানন্দ লাভ হয়, তখন জ্ঞান ও অজ্ঞানের পারে চলে যায়। যেমন গায়ে কাঁটা ফুটলে বাইরে থেকে যত্ন ক'রে আর একটি কাঁটা এনে কাঁটাটিকে তুলে ফেলে তারপর দুটি কাঁটাই ফেলে দেয়।

3. एक व्यक्ति ने परमहंसदेव से पूछा - 'सिद्धपुरुष' (अर्थात जिसे सच्चिदानन्द की अनुभूति हो गयी हो, वैसा व्यक्ति) की पहचान क्या है उत्तर में उन्होंने कहा- जैसे आलू और बैंगन सिद्ध होने या सीझ जाने पर नरम हो जाते हैं, वैसे ही सिद्धपुरुष का स्वभाव नरम हो जाता है। उसका सारा अहंकार नष्ट हो जाता है !-(नहीं, दासो अहं वाला-अहं रहता है !)  

৩। কোন ব্যক্তি পরমহংসদেবের নিকট জিজ্ঞাসা করলেন - সিদ্ধপুরুষ হলে কিরূপ অবস্থা হয়? উত্তরে তিনি বললেন - যেমন আলু-বেগুন সিদ্ধ হলে নরম হয়, তেমনি সিদ্ধপুরুষের স্বভাব নরম হয়ে থাকে। তাঁর সব অভিমান চলে যায়।

4. परमहंसदेव अपने शरीर की ओर इशारा करके कहते थे, "यह केवल एक आवरण (cover) है,इसके भीतर माँ ब्रह्ममयी खेल रही हैं।"

৪। পরমহংসদেব নিজের শরীরের দিকে দেখিয়ে বলতেন, "এ একটা খোলমাত্র, মা ব্রহ্মময়ী একে আশ্রয় ক'রে খেলছেন।"

5. जब भी मैं रामप्रसादी संगीत (श्यामा संगीत) सुनता हूं तो मुझे उसमें नयापन महसूस होता है।इसका कारण जानते हो? जब रामप्रसाद गाते थे, माँ ब्रह्ममयी उनके हृदय में विद्यमान रहती थीं।

৫। রামপ্রসাদী গান যখনই শোন, তখনই নূতন বলে বোধ হয়। তার কারণ জান? রাম- প্রসাদ যখন গান বাঁধতেন, মা ব্রহ্মময়ী তাঁর হৃদয়মধ্যে বিরাজ করতেন।

6. संसार में सिद्ध अवस्था की प्राप्ति कई प्रकार से होती है, जैसे स्वप्न-सिद्ध, मंत्र-सिद्ध, हठात् सिद्ध और नित्य-सिद्ध।

৬। সংসারে অনেক প্রকারে সিদ্ধ অবস্থা লাভ হয়, যেমন - স্বপ্ন-সিদ্ধ, মন্ত্র-সিদ্ধ, হঠাৎ-সিদ্ধ ও নিত্য-সিদ্ধ।

7. कुछ लोगों को स्वप्न में इष्टमंत्र मिल जाता है और उसका जाप करके वे सिद्ध हो जाते हैं। मंत्र-सिद्ध -वे हैं, जो सद्गुरु से मंत्र प्राप्त करके साधना द्वारा सिद्ध हुए हैं। जो सत्यार्थी दैव योग से किसी महापुरुष की कृपा प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसे हठात्-सिद्ध कहते हैं। नित्य-सिद्ध वे हैं, जो बचपन से ही धर्म  में आस्था रखते हैं। उदाहरण के लिए कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जिसमें फल पहले लगता है, फूल बाद में उगता है; जैसे लौकी और कद्दू पहले फल देते हैं, फिर फूल। [सच्चिदानन्द की प्राप्ति पहले हो जाती है, माँ ब्रह्ममयी साधना बाद में करवा लेती हैं !] 

৭। স্বপ্নেতে কেহ কেহ ইষ্টমন্ত্র পেয়ে তাই জপ ক'রে সিদ্ধ হয়। মন্ত্র-সিদ্ধ - সদ্গুরুর নিকট মন্ত্রগ্রহণ ক'রে সাধনার দ্বারা সিদ্ধ হয়। হঠাৎ-সিদ্ধ - দৈবযোগে কোন মহাপুরুষের কৃপালাভ ক'রে যে সিদ্ধ হয়, তাকে হঠাৎ-সিদ্ধ বলে। নিত্য-সিদ্ধ - তাদের বালককাল থেকেই ধর্মে মতি থাকে। যেমন লাউ, কুমড়ো গাছে আগে ফল হয়, পরে ফুল ফোটে।

[हठात्-सिद्ध/नित्य-सिद्ध वह सत्यार्थी जो माँ तारा /जगदम्बा की कृपा से, किसी महापुरुष (12 जनवरी, 1985,  14 अप्रैल 1986 हरिद्वार कुम्भ, 14 अप्रैल, 1992, ऊँच बनारस एक्सिडेंट में को स्वामी विवेकानन्द, गुरुदेव, नवनीदा)- की कृपा से सच्चिदानन्द की प्राप्ति, उसे हठात् -सिद्ध कहा जाता है। जननी तारा की कृपा से बचपन से ही कृष्ण उपासना-जन्माष्टमी को जन्म -जन्म के पहले माँ के स्वप्न में साधु कौन ?)]

8. ढालू नाले के नीचे पानी आसानी से निकल जाता है, जमा नहीं होता; इसी प्रकार मुक्त पुरुषों के हाथ में जो धन आता है, वह रहता नहीं है-(बैंक में फिक्स्ड नहीं होता)। जैसे आता है, वैसे ही खर्च हो जाता है। उनमें विषय-बुद्धि [भोग में आसक्ति] बिल्कुल नहीं रहती।  

৮। সাঁকোর নিচে জল সহজে বেরিয়ে যায়, জমে না; তেমনি মুক্ত পুরুষদিগের হাতে যে টাকা-পয়সা আসে তা থাকে না, অমনি খরচ হয়ে যায়। তাঁদের বিষয়-বুদ্ধি একেবারেই নেই।

9. "जो पुरुष ध्यान-सिद्ध है, वह मुक्ति में प्रतिष्ठित है।" जानते हो ध्यानसिद्ध किसे कहते हैं ? जो ध्यान के लिए बैठते ही भगवान के भाव में विभोर हो जाते हैं। 

৯। "ধ্যান-সিদ্ধ যেই জন, মুক্তি তার ঠাঁই।" ধ্যান-সিদ্ধ কাদের বলে জান? যাঁরা ধ্যান করতে বসলেই ভগবানের ভাবে বিভোর হয়ে যায়।

10. जानते हो मुक्त पुरुष संसार में कैसे रहते हैं ? जैसे बत्तक (পান কৌড়ি) जल में रहती है, परन्तु उनके शरीर में जल चिपकता नहीं है, कभी गीला हो भी गया, एक बार शरीर झाड़ देने से, सब पानी नीचे गिर जाता है।     

১০। মুক্ত পুরুষ সংসারে কি রকম থাকেন জান? যেমন পানকৌড়ি জলে থাকে, কিন্তু তাদের গায়ে জল লাগে না; যদিও গায়ে একটু জল লাগে, তা হলে একবার গা ঝেড়ে ফেললে তখনই সব চলে যায়।

11। जहाज चाहे किसी भी दिशा में क्यों न जाए, कम्पास की सुई हमेशा उत्तर की ओर ही होती है, इसलिए जहाज की दिशा गलत नहीं होती; उसी तरह यदि मनुष्य का मन हमेशा 'ईश्वर' में  (उत्तरदिशा ? में) लगा रहे तो उसे कोई भय नहीं रहता।

১১। জাহাজ যে দিকে যাক্ না কেন কম্পাসের কাঁটা উত্তর দিকেই থাকে, তাই জাহাজের দিক ভুল হয় না;মানুষের মন যদি ঈশ্বরের দিকে থাকে, তা হলে আর তার কোন ভয় থাকে না।

12. चकमक पत्थर (Flint) सैकड़ों वर्ष तक पानी में पड़ा रहने पर भी उसकी अग्नि नष्ट नहीं होती, उसे उठाकर लोहे पर चोट करते ही अग्नि निकलती है। कोई निष्ठावान भक्त (सत्यार्थी) हजारों कुसंग में घिर जाए, लेकिन उसका विश्वास -भक्ति किसी चीज से नष्ट नहीं होता। भगवान की चर्चा होते ही वह फिर ईश्वर-प्रेम (स्वामी जी के प्रेम) में पागल हो जाता है।  

১২। চকমকি পাথর শত বৎসর জলের ভেতর পড়ে থাকলেও তার আগুন নষ্ট হয় না, তুলে লোহার ঘা মারবামাত্রই আগুন বেরোয়। ঠিক বিশ্বাসী ভক্ত হাজার হাজার কুসঙ্গের মধ্যে পড়ে থাকলেও তার বিশ্বাস-ভক্তি কিছুতেই নষ্ট হয় না, ভগবৎ-কথা হলে তখনি আবার সে ঈশ্বর-প্রেমে উন্মত্ত হয়।

13. जो व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसी ही उसकी उपलब्धि होती है। जैसा कि दृष्टान्त में कहा गया है, झींगुर भँवरे के बारे में इतना सोचता है कि वह भँवरा ही बन जाता है। इसी प्रकार जो हमेशा  सच्चिदानंद का चिंतन करता है, वह भी आनन्दमय हो जाता है

১৩। যে যেরূপ ভাবনা ক'রে থাকে, তার সিদ্ধিও সেইরকম হয়ে থাকে। যেমন দৃষ্টান্ততে বলে, আরসোলা কাঁচপোকাকে ভেবে ভেবে কাঁচপোকা হয়ে যায়। তেমনি যে সচ্চিদানন্দকে ভাবনা করে, সেও আনন্দময় হয়ে যায়।

14. जिस प्रकार शराबी नशे के झोंक में पहनने के कपड़े को कभी सिर पर बाँध लेता है, कभी बगल में दबाकर घूमता रहता है ; सिद्ध महापुरुष की वाह्य अवस्था भी लगभग वैसी ही होती है।

১৪। মাতালেরা যেমন নেশার ঝোঁকে পরনের কাপড় কখনও মাথায় বাঁধে এবং কখনও বগলে নিয়ে বেড়ায়, তেমনি সিদ্ধ মহাপুরুষদেরও বাহ্য অবস্থা প্রায় সেইরূপই হয়ে থাকে।

15. साधु का अहंकार कैसा होता है जानते हो ? जैसे कमल का पत्ता और नारियल पेड़ का झाड़, गिर भी जाए तो एक दाग रह जाता है। इसी प्रकार, जब अहंकार बिल्कुल चला जाता है, तो भी उसका कुछ न कुछ दाग रह ही जाता है। लेकिन उस अहं से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता। उसके द्वारा खाने-पीने, सोने आदि के अतिरिक्त उसके द्वारा कोई कार्य नहीं किया जाता।

১৫। অহঙ্কার কি রকম জান? যেমন পদ্মের পাঁপড়ি ও নারকেল সুপারির বালতো, খসে গেলেও সেস্থানে একটা দাগ থাকে; তেমনি অহঙ্কার গেলে তাতে একটু দাগের চিহ্ন থাকেই থাকে। তবে সে অহঙ্কারে কারও কিছু অনিষ্ট করতে পারে না। তার দ্বারা খাওয়া-দাওয়া, শোয়া ইত্যাদি ছাড়া অন্য কোন কর্ম চলে না।

16. जैसे जब आम पक जाता है तो, डाली से टूट कर खुद गिर जाता है। उसी तरह ज्ञान-प्राप्त होते ही जाति का मिथ्याभिमान (vanity) आदि दुर्गुण स्वयं चले जाते हैं। लेकिन जबरन जाति का त्याग करना अच्छा नहीं है।   

১৬। যেমন আম পাকলে বোঁটা থেকে আপনি খসে পড়ে, তেমনি জ্ঞানলাভ হলে আত্মাভিমান প্রভৃতি আপনি চলে যায়। জোর ক'রে জাতি ত্যাগ করা ঠিক নয়।

17. गुण तीन प्रकार के होते हैं - सत्त्व, रजः और तमः। इन तीनों गुणों में से कोई भी उनके निकट (ईश्वर) तक नहीं पहुँच सकता। एक मनुष्य जंगल के मार्ग से जा रहा था, कि तीन डैकतों ने आकर उसे पकड़ लिया, और जो कुछ उसके पास था सब छीन लिया; लुटेरों में से एक ने उससे कहा, "इस आदमी को जिन्दा रखने से क्या लाभ है ? यह कह कर उसने कटार उठाया और उसे काटने आया। तभी एक डाकू आया और बोला, "अरे नहीं, इसे मत काटो, इसको मार देने से क्या मिलेगा?" उसके हाथ-पैर बांध कर उसे यहीं छोड़ दो।'' फिर उन सभी ने मिलकर उसके हाथ-पैर बांध दिए और उसे वहीं छोड़ कर चले गए। थोड़ी देर बाद उनमें से एक डकैत  वापस आया और बोला, "ओह, तुम्हें कितना चोट लगा, आओ मैं तुम्हारे बन्धन अभी खोल देता हूँ।" डाकू ने तब बंधन खोल दिया और कहा, "मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें जंगल से बाहर जाने का रास्ता दिखा देता हूँ ।" बाद में सड़क के पास आकर बोला, "यदि तुम उस सड़क से सीधे चले जाओगे तो घर पहुँच जाओगे।"तब उस आदमी ने उस डकैत से कहा, "अपने मुझे नया जीवन दिया है, आप मेरे घर तक चलिए ।" उत्तर में डाकू ने कहा, "मैं वहां नहीं जा सकता, लोगों को पता चल जाएगा - मैंने तो तुम्हें केवल रास्ता दिखा दिया, अब मैं जा रहा हूं।"

১৭। গুণ তিন রকমের - সত্ত্ব, রজঃ ও তমঃ। এই তিন গুণের কেউ তাঁর নিকট পর্যন্ত পৌঁছুতে পারে না। যেমন একজন লোক বনের পথ দিয়ে চলে যাচ্ছিল, এমন সময় তিনজন ডাকাত এসে তাকে ধরলে ও তার যা-কিছু ছিল সর্বস্ব কেড়ে-কুড়ে নিলে; তার ভেতর একজন ডাকাত বললে, "এ লোকটাকে রেখে আর কি হবে?" এই কথা বলেই, খাঁড়া উঁচিয়ে তাকে কাটতে এল। আর একজন ডাকাত এসে বললে, "না হে, একে কেটো না, কেটে কি হবে? এর হাত-পা বেঁধে এইখানেই ফেলে রেখে যাও।" পরে সকলে মিলে তার হাত-পা বেঁধে সেখানে রেখে চলে গেল। কিছুক্ষণ পরে তাদের মধ্যে একজন ফিরে এসে বললে, "আহা, তোমার কত লেগেছে, এস আমি এখন তোমার বন্ধন খুলে দিই।" ডাকাতটি তখন বন্ধন খুলে দিয়ে বললে, "আমার সঙ্গে সঙ্গে এস তোমায় রাস্তা দেখিয়ে দিচ্ছি।" পরে রাস্তার নিকটবর্তী হয়ে বললে, "ঐ রাস্তা ধরে চলে গেলে তুমি বাড়ি পৌঁছুবে।" লোকটি তখন তাকে বলতে লাগল, "আপনি আমার প্রাণদান করলেন, আপনি আমার বাড়ি পর্যন্ত আসুন।" ডাকাত তখন বললে, "আমি সেখানে যেতে পারব না, লোকে টের পাবে - আমি কেবল তোমাকে রাস্তা দেখিয়ে চললুম।"

18. मुक्त पुरुष संसार में किस प्रकार रहता है, जानते हो ? आँधी में डाल से टूटे पत्तों की तरह।  अपनी कोई इच्छा या अहंकार नहीं रहता। हवा उसे जहाँ भी उड़ा ले जाती है, वह उधर ही चला जाता है - कभी किसी झोपडी में, कभी किसी शानदार जगह पर।

১৮। মুক্ত পুরুষ সংসারে কিরূপ অবস্থায় থাকে জান? যেমন ঝড়ের এঁটো পাতা। নিজের কোন ইচ্ছা বা অভিমান থাকে না। বাতাসে তাকে উড়িয়ে যে দিকে নিয়ে যায়, সেই দিকে যায় - কখনও বা আস্তাকুঁড়ে, কখনও বা ভাল জায়গায়।

19. परमहंसदेव कहते थे, "गुरु, कर्ता (home ruler घर का मालिक) , बाबा (पिताजी)  - ये तीन सम्बोधन मेरे शरीर में कांटा जैसे चुभते हैं। भगवान कर्ता (doer) है, मैं अकर्ता (non-doer) हूं, वे सारथि (charioteer) हैं, मैं रथ (chariot)हूँ।"

১৯। পরমহংসদেব বলতেন, "গুরু, কর্তা, বাবা - এই তিন কথায় আমার গায়ে কাঁটা বেঁধে। ঈশ্বর কর্তা, আমি অকর্তা, তিনি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র।"

20. जब तक धान की अवस्था है, जमीन में गाड़ देने से ही पौधा बन जायेगा। लेकिन उसी धान को यदि उसन देने के बाद रोपा जाये तो, उससे पौधा नहीं उग पाता; इसी प्रकार, जो लोग पूर्ण,  सिद्ध (100 निःस्वार्थपर) हो जाते हैं उन्हें दोबारा इस दुनिया में जन्म नहीं लेना पड़ता।

২০। যতদিন শুধু ধান থাকে, পুঁতে দিলেই গাছ হয়। কিন্তু সেই ধানকে সিদ্ধ ক'রে পুঁতলে আর গাছ হয় না; তেমনি যাঁরা সিদ্ধ হয়েছেন, তাঁদের আর এ সংসারে জন্মগ্রহণ করতে হয় না।

21. यदि लोहा एक बार पारस मणि को छूकर सोना बन जाए तो उसे जमीन में गाड़कर रखें या कूड़े  में रख दो, वह सोना है। जिन्हें सच्चिदानन्द की प्राप्ति (अनुभूति) हो गयी है, उनकी भी यही अवस्था है। चाहे वे संसार में रहें या वन रहें, उससे फिर कोई दोष नहीं छू पाता है।        

২১। লোহা যদি একবার স্পর্শমণি ছুঁয়ে সোনা হয়, তাকে মাটির ভেতর চাপা রাখ আর আস্তাকুঁড়ে ফেলে রাখ, সে সোনা। যিনি সচ্চিদানন্দ লাভ করেছেন, তাঁর অবস্থাও সেই রকম। তিনি সংসারেই থাকুন, আর বনেই থাকুন, তাতে তাঁর দোষস্পর্শ হয় না।

$$$22.जैसे  पारस मणि के स्पर्श से लोहे की तलवार सोने की तलवार बन जाती है, आकार वही रहता है, किन्तु उससे फिर हिंसा का कार्य नहीं किया जा सकता। उसी तरह भगवान (नेता, सद्गुरु) के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद उससे कोई दुराचार (wrongdoing) नहीं होता।     

২২। যেমন লোহার তলোয়ার স্পর্শমণি ছোঁয়ালে সোনার তলোয়ার হয়, আকার-প্রকার সেই রকমই থাকে, কিন্তু তাতে আর হিংসার কাজ চলে না; সেই রকম ভগবানের পাদপদ্ম স্পর্শ করলে তার দ্বারা আর কোন অন্যায় কাজ হয় না।

23. जिस व्यक्ति ने सिद्धि प्राप्त कर ली हो, अर्थात जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया हो, उसके द्वारा फिर कोई गलत काम हो ही नहीं हो सकता। जैसे जो शास्त्रीय नृत्य में प्रशिक्षित हो जाता है , उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते। 

২৩। যে ব্যক্তি সিদ্ধিলাভ করেছেন অর্থাৎ যাঁর ঈশ্বর-সাক্ষাৎকার হয়েছে, তাঁর দ্বারা আর কোনরূপ অন্যায় কার্য হতে পারে না; যেমন যে নাচতে জানে, তার পা কখনো বেতালে পড়ে না।

24 देवगुरु बृहस्पति के पुत्र 'कच' एकबार समाधि में चले गए थे, व्युत्थान होने पर जब उनका मन वाह्य जगत में उतर रहा था, तब ऋषियों ने उनसे पूछा - समाधि से उतर आने के बाद अब आपको कैसा अनुभव हो रहा है ? इसके उत्तर में कच ने कहा था -"सर्वं ब्रह्ममयं"  - मुझे सच्चिदानन्द के सिवा और कुछ नहीं दिख रहा है।   

২৪। বৃহস্পতির পুত্র কচের সমাধিভঙ্গের পর যখন মন বহির্জগতে নেমে আসছিল, তখন ঋষিরা তাঁকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন, "এখন তোমার কিরূপ অনুভূতি হচ্ছে?" তাতে তিনি বলেছিলেন, "সর্বং ব্রহ্মময়ং - তিনি ছাড়া আর কিছুই দেখতে পাচ্ছি না।"

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[श्रीसदाशिवब्रह्मेन्द्राणां कृतिषु अन्यतमैका –श्री सदाशिव ब्रह्मेन्द्र द्वारा रचित गीतो में से एक -One of the works of Sri Sadashiva Brahmendra ] 

🕊🏹 रे रे सर्वं ब्रह्ममयम्🕊🏹

(सब कुछ बस सर्वशक्तिमान की उपस्थिति है)

सर्वं ब्रह्ममयं रे रे सर्वं ब्रह्ममयम्    ॥ सर्वं.,॥

किं वचनीयम् ? किमवचनीयम् ?

किं रचनीयम् ? किमरचनीयम् ?  ॥ सर्वं.,॥

किं पठनीयम् ? किमपठनीयम् ?

किं भजनीयम् ? किमभजनीयम् ? ॥ सर्वं.,॥

किं बोद्धव्यम् ? किमबोद्धव्यम् ?

किं भोक्तव्यम् ? किमभोक्तव्यम् ? 

सर्वत्र सदा हंसध्यानं कर्तव्यं भो मुक्तिनिदानम् ॥ सर्वं.,॥ 

इस जगत में सब कुछ ब्रह्ममय है; सब कुछ केवल सर्व-शक्तिमान ब्रह्म - माँ ब्रह्ममयी /माँ आनन्दमयी की उपस्थिति है।

1. क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं कहा जा सकता, क्या नहीं बनाया जा सकता है और क्या बनाया जा सकता है - (कविता के संबंध में या अन्यथा)।

2. किमवचनीयं = किं अवचनीयं ?  क्या अध्ययन किया जा सकता है और अध्ययन नहीं किया जा सकता, अर्थात क्या  क्या पढ़ा जाना चाहिए और क्या नहीं पढ़ा जाना चाहिए।

3. क्या सिखाया जा सकता है और क्या नहीं सिखाया जा सकता है; क्या सिखाया जा सकता है किसका भोग सुख लिया जा सकता है और किसका भोगसुख नहीं लिया जा सकता का विचार कैसा ? जबकि सृष्टि और उसका कार्य, सब कुछ तो उसका ही है। 

4. " सर्वत्र सदा हंस ध्यानम् । कर्तव्यं भो मुक्तिनिदानम् ॥"  

इसलिए, हमेशा अपने आप को उनके ध्यान में - परमहंस श्रीरामकृष्ण देव के ध्यान में डुबोएं रहना आपका एकमात्र कर्तव्य है , इस कर्तव्य का पालन करने से आपको 'मोक्ष' की प्राप्ति होगी।        इस गीत का संक्षिप्त संदेश यही है कि व्यर्थ के बहस में मत पड़ोऔर क्या सही है और क्या गलत है इस पर कोई चर्चा करना ; अर्थहीन और अनावश्यक होगा। और सार्थक यही है कि 'उससे प्रार्थना करो' और 'उसमें विलीन हो जाओ !' सोहम् या हंस ध्यान ही एक मात्र कर्तव्य है। 

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>>>सच्चिदानन्द सत् का अर्थ है भाव, अर्थात् विद्यमानता।  वेदान्तियों के मत में अभाव जैसी कोई चीज़ नहीं है- जिसमें प्रमाण है गीता का श्लोक “नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः।” असत् जैसी कोई चीज़ नहीं होती और सत् का अभाव हो नहीं सकता।ऐसा कोई कालविशेष या स्थान विशेष है ही नहीं, जहाँ सत् न हो। इसलिए जो विद्यमान है, वो सत्य है, और कोई अविद्यमान है, वो असत्य है। लेकिन जब कुछ अविद्यमान है ही नहीं, तो वह असत्य भी नहीं। सर्वं खल्विदं ब्रह्म, तो जब सब कुछ ब्रह्मस्वरूप ही है,तो कुछ भी असत्य कैसे हो सकता है? इसलिए जगत् आदि सब कुछ सत्य है। वेदान्तियों की भाषा में कहें तो. "सर्वं सत्।"

       अब आते हैं चित् पे। चित् स्वरूप है चैतन्य का। चित् ब्रह्म का वो स्वरूप है जिससे अहङ्कार की उत्पत्ति होती है। चित् का अर्थ है जिसमें किसी प्रकार की चेतनता दिखे, जैसे कोई स्थावर वस्तु, जैसे पत्थर को देखकर कहते हैं कि यह जड़ है। इसलिए उस जड़ वास्तु में हम चैतन्य का अभावः मान लेते हैं। हम मनुष्य जैसे लोगों को हम चेतन कहते हैं, इसलिए क्योंकि हममे जड़ता  नहीं।

     आनन्द क्या है ? आनन्द तो अगोचर है, बुद्धिगम्य नहीं। यह भी सर्वत्र विद्यमान है, क्योंकि सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म भी सर्वत्र है। लेकिन यह आनन्द की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञानियों को होती है। जैसे प्रह्लाद को परानन्द की अनुभूति सदा सर्वदा होती थी, तभी तो उन्हें स्तम्भ (खम्भा) भी ब्रह्मात्मक लगा। ऐसे लोगों को इन्द्रियाध्यास / देहाध्यास (M/F) नहीं होता, यह अहन्ता और ममता से परे, सदैव ब्रह्मानन्द में लीन रहते हैं। यद्यपि इनका शरीर यहाँ ही है, और ये सामान्य नर के समान प्रतीत होते हैं, खातेपीते सब कुछ करते हैं, लेकिन इनका सबकुछ ब्रह्मार्पित ही होता है। जैसे कृष्ण का वह श्लोक, “यत् करोषि यज्जुहोषि यदशनासि ददासि यत्….तत् कुरुष्व मदर्पणम्।” अथवा “मय्येव मन आधात्स्व ….अत ऊर्ध्वं न संशयः।”ऐसे लोगों को सदैव और सर्वत्र परमानन्द  की ही प्रतीति होती है। यह उसके अलावा न कुछ सोचते हैं, नाहीं इनके मुख से ब्रह्म के अलावा किसी और का नाम निकलता है। आनन्द तो बस ब्रह्म का अनुभव करने वाला ही बता सकता है, हम जैसे प्राकृत लोग पोथी पढ़के आनन्द को क्या समझेंगे। यह तो बस ब्रह्म की कृपा का प्रसादस्वरूप है।

>>>प्रभु के अनेकानेक नाम हैं, लेकिन उनमें सबसे सार्थक व सुबोध नाम है- सच्चिदानंद। सत् का अर्थ है-शाश्वत, टिकाऊ, न परिवर्तित होने वाला और न समाप्त होने वाला। इस तथ्य पर मात्र परब्रह्म ही खरा उतरता है। उसका नियम, अनुशासन, विधान और प्रयास सुस्थिर है। सृष्टि के मूल में वही है। परिवर्तन का सूत्र संचालक भी वही है। उसी के गर्भ में यह संपूर्ण ब्रह्मांड पलता है। सृष्टि तो महाप्रलय की स्थिति में बदल जाती है और फिर कालांतर में नवीन सज्जा लेकर प्रकट भी होती रहती है, किंतु नियंता की सत्ता में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इसलिए परब्रह्म को 'सत्' कहा गया है।

चित् का भाव है-विचारणा, चेतना। मान्यता, भावना, जानकारी आदि इसी के स्वरूप हैं। मानवी अंत:करण में इसे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में देखा जाता है। मनोविज्ञानिक इसका वर्गीकरण चेतन, अचेतन और विशिष्ट चेतन के रूप में करते हैं। सत्, रज, तम् प्रकृति में भी वही चेतना प्रकट और प्रत्यक्ष होती रहती है। मृत्यु के बाद भी उसका अंत नहीं होता। विद्वान और मूर्ख आदि में अपने विभिन्न स्तरों के अनुरूप वह विद्यमान रहती है। जड़ पदार्थ और प्राणि समुदाय के मध्य मौलिक अंतर एक ही है-चेतना का न होना। जड़ पदार्थो के परमाणु भी गतिशील रहते हैं। उनमें भी उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है, किंतु निजी ज्ञान का सर्वथा अभाव रहता है। किसी शक्ति की प्रेरणा से प्रभावित होकर वे ग्रह-नक्षत्रों की भांति धुरी और कक्षा में घूमते तो रहते हैं, पर इस संदर्भ में अपना कोई स्वयं का निर्धारण कर सकने की स्थिति में नहीं होते, जबकि मनुष्य अपनी इच्छानुसार गतिविधियों का निर्धारण करते हैं।

      विश्व का सबसे बड़ा आकर्षण 'आनंद' है। आनंद जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। जिसको जिस क्षेत्र में आनंद मिलने लगता है उसे किसी दूसरी वस्तु में मन नहीं लगता। वह अपने प्रिय में आनन्द मग्न रहता है, लेकिन शाश्वत आनंद की प्रकृति ऐसी नहीं। उसमें नीरसता और एकरसता जैसी शिकायत नहीं होती। उस परम आनंद की प्रकृति ऐसी नहीं। उस परम आनंद में मन नशे की तरह डूबा रहता है और वह बाहर नहीं निकलना चाहता, किंतु सांसारिक क्रिया-कलापों के निमित्त उसे हठपूर्वक बाहर लाना पड़ता है।

>>"जय श्री सच्चिदानन्द ! " का अर्थ क्या है? 

    यह त्रिमंत्र है यानी सच्चिदानंद में तो 'हिन्दू','मुस्लिम', 'विदेशी' इन सभी लोगों के मंत्र आ गए । जो किसी एक मत से बन्धे पड़े हुए हों यह मंत्र उनके  काम का नहीं है। जो पूर्वाग्रह के मत (हिन्दू या मुस्लिम ब्राण्ड) में से बाहर निकलेंगे, जो धर्म को सनातन (eternal) मानेंगे (अर्थात किसी एक व्यक्ति से या अंतिम पैगम्बर से उपजा हुआ नहीं मानेंगे) यह मंत्र तब उनके काम का है। इस  मंत्रों को सभी भक्त एक साथ बोलें, इस मंत्र को यदि निष्पक्षपता पूर्वक  बोलें तब भगवान हम पर खुश होते हैं। हम किसी एक व्यक्ति का पक्ष लें और, 'ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय' सिर्फ यही बोला करें, तो अन्य देव हमसे खुश नहीं होंगे। इससे तो सभी देव खुश हो जाते हैं।

 तो चलिए समझाते हैं इस त्रिमंत्र का अर्थ। इसमें अच्छे अच्छे मनुष्य और सबसे उच्च कोटि के जीव हैं, उन्हें नमस्कार करना सिखाया है। 

नमो अरिहंताणम - जिन्होंने सभी दुश्मनों का नाश कर दिया है, क्रोध-मान-माया-लोभ, राग-द्वेष, रूपी दुश्मनों का नाश कर दिया है वे अरिहंत कहलाते हैं। दुश्मनों का नाश किया वहाँ से पूर्णाहुति होने तक अरिहंत कहलाते हैं। वे पूर्ण स्वरूप भगवान कहे जाते हैं! वे फिर चाहे किसी भी धर्म के हों, हिंदू हों या जैन हों या किसी भी जाति के हों, इस ब्रह्मांड में कहीं भी हों, लेकिन वे अरिहंत भगवान जहां भी हैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। सीमंधर स्वामी भगवान अरिहंत भगवान कहलाते हैं।

नमो सिद्धाणं - जो यहाँ से सिद्ध हो गए हैं, जिनका यहाँ से शरीर भी छूट गया है और फिर शरीर नहीं मिलता और सिद्ध गति में निरंतर सिद्ध भगवान की स्थिति में रहते हैं, ऐसे सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। भगवान रामचंद्रजी, ऋषभदेव भगवान, महावीर भगवान, ये सभी सिद्ध भगवंत कहलाते हैं।

नमो आयरियाणं - अर्थात अरिहंत भगवान के कहे हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचार का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य  भगवान को नमस्कार करता हूँ। उन्होंने ख़ुद आत्मा प्राप्त कर लिया है, आत्म दशा प्रकट हो गई है, जैसे कि, श्री मदजी और परम पूज्य दादा भगवान

नमो उवज्जायाणम - जिन्हें आत्मा प्राप्त हो गया है और जो ख़ुद आत्मा जानने के बाद शास्त्र सब पढ़ते हैं और फिर दूसरों को पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ। उपाध्याय अर्थात आत्मा जानते हैं, कर्तव्य जानते हैं, आचार भी जानते हैं, फिर भी कितने ही आचार आ गए होते हैं और कितने ही आचार नहीं आए होते। अंदर सम्पूर्ण आचार नहीं होने की वजह से वे उपाध्याय पद में हैं। अर्थात ख़ुद अभी पढ रहे हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं। उनमें आत्माज्ञानी पूज्य नीरूमा और पूज्यश्री दीपकभाई का समावेश होता है।

नमो लोए सव्व साहूणम - लोए अर्थात लोक, तो इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हुँ। संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न कर रहे हैं और आत्म दशा में रहते हैं उन सभी को नमस्कार करता हूँ। अर्थात देहाध्यास नहीं, बिल्कुल देहाध्यास नहीं ऐसे साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। जिसमें सभी ज्ञान लिए हुए महात्माओं को नमस्कार पहुँचता है।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय - वासुदेव भगवान! अर्थात जो वासुदेव भगवान नर में से नारायण हुए, उन्हें मैं नमस्कार करता  हूँ। इस काल के वासुदेव अर्थात कौन? कृष्ण भगवान। इसलिए यह नमस्कार कृष्ण भगवान को पहुँचता है। 

ॐ नमः शिवाय - इस दुनिया में जो कल्याण स्वरूप हो गए हैं और जो जीवित हैं, जिनका अहंकार खत्म हो गया है, वे सभी शिव कहलाते हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। इसमें सभी ज्ञानियों को नमस्कार पहुँचता है।

[साभार /https://hindi.dadabhagwan.org/path-to-happiness/spiritual-science/auspicious-mantra/purpose-three-mantras/

   >>>शलाका पुरुष : जो पुरुष पीड़ित किये जाने पर भी अपशब्द या कठोर वचन नहीं बोलते हैं और रत्न-त्रय [सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीन गुणों को रत्नत्रय कहते हैं] धारण करके अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं, वे महापुरुष-'शलाका पुरुष' कहलाते हैं। भारत (India या हिन्दुस्तान) में -गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेगबहादुर सिंह कैसे-कैसे 'मनुष्य' हो चुके हैं, और अभी भी हैं, जिसके कारण हजारों वर्षों तक गुलाम रहने के बाद भी जीवित और प्राणवंत बना रहा है ! पूरा भारत  खत्म नहीं हो गया। (हमारे पूर्वजों ने नाम परिवर्तन - भारतवर्ष से हिन्दुस्तान- और India कहा जाना स्वीकार किया लेकिन सनातन धर्म  खत्म नहीं हो गया। ) यह भारत वर्ष (हिन्दुस्तान)  पूरा खत्म कभी नहीं हो सकता। यह तो मूलतः आर्यों की भूमि है। और जिस भूमि पर ऋषियों,  तीर्थंकरों, गुरुनानक के "सत श्री अकाल' नाम से सिख (शिष्य) का जन्म हुआ! सिर्फ तीर्थंकर ही नहीं, तिरसठ 'शलाका पुरुष' जिस देश में जन्म लेते हैं, वह देश है यह!

[गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: पौषशुक्ल सप्तमी 22 दिसम्बर 1666- 7 अक्टूबर 1708 ) सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के उपरान्त 11 नवम्बर सन् 1675 को 10 वें गुरू बने। आप एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे।  मुगल शासक औरंगज़ेब ने उन्हे इस्लाम स्वीकार करने को कहा। पर गुरु साहब ने कहा कि "सीस कटा सकते हैं, केश नहीं।"  इस पर औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। गुरुजी के जन्म की 400 वीं जयन्ती 21 अप्रैल 2022  को विशेष रूप से मनायी गयी। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को लाल किले पर आयोजित सिख गुरु तेग बहादुर के 400 वें प्रकाश पर्व समारोह में भाग लिया। प्रधानमन्त्री मोदी ने अपने सम्बोधन में कहा कि उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर साहब के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, 'हिन्द दी चादर' बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे। औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिर को धड़ से अलग किया हो लेकिन वह हमारी आस्था को हमसे अलग नहीं कर सका। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने, भारत की अनेक पीढ़ियों को अपनी संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए, उसके मान-सम्मान के लिए जीने और मर-मिट जाने की प्रेरणा दी। बड़ी-बड़ी सत्ताएँ मिट गईं, बड़े-बड़े तूफान शांत हो गए पर भारत आज भी अमर खड़ा है, आगे बढ़ रहा है।]

प्रश्न : सर्वदा सच्चिदानन्द (दिव्यानन्द) में स्थित रहने के लिए वह कौन सा उचित प्रश्न है, जिसे हमें अपने स्वयं से पूछना चाहिए, जिसपर विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए और उसको कार्यान्वित करना चाहिए

उस प्रत्येक व्यक्ति को, जो " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित और 'Leader' का चपरास प्राप्त नेता से मनुष्य बनने के लिए, मनुष्य तीन प्रमुख अवयव : 3'H'- Hand, Head and Heart को विकसित करने का प्रशिक्षण लेकर अपने स्थूल देह की देखभाल कर रहे हैं, उनको स्वयं से यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि, “तुम किस उद्देश्य से इस शरीर की देखभाल कर रहे हो ? पौष्टिक आहार और व्यायाम के द्वारा तुम क्या प्राप्त करने की आशा करते हो?” जिस प्रकार तलवार के लिए म्यान है, उसी प्रकार जीवी (देही -आत्मा) अर्थात 'पक्का मैं' के लिए देह एक कोश (म्यान) है, जिसमें यह स्थित है, परन्तु यह उसका (देह) का नहीं है। 

    इस म्यान का उद्देश्य ब्रह्माण्ड के एकत्व की खोज करना है। तुम कहते हो कि हम अभी जहाँ बैठे हैं वो एक सभागार -'Auditorium' है। तुम इस ऑडिटोरीअम को इकाई (unit)के रूप में देखते हो, किन्तु यह वास्तव में कई बाँस के खम्भों, ढांचों, तिरपाल के चादरों और कपड़ों का बना हुआ है, या पक्का ऑडिटोरीअम हुआ तो ईंटों, सीमेण्ट, बालू आदि से मिश्रित गारा का बना और नट, बोल्ट और पेंट का एकत्रित समुच्च है!

    उसी प्रकार तुम अनुभव करते हो कि तुम एक 'मनुष्य' हो, यद्यपि तुम कई अवयवों हाथ, पैर, सिर या 3H का एक समुच्च (union-संघटन) हो। (तुम कई अंगों-मांसपेशियों, तंत्रिकाओं, आंख, जीभ, दांत ज्ञान आदि के उपकरणों का एक समुच्च (संघटन) हो।  उसी प्रकार से, यह विश्व ब्रह्मांड भी केवल एक ही है, यद्यपि तुम इसमें से तारों और ग्रहों तथा चट्टान, वृक्ष, पक्षी, झाड़ी, चींटी और विशाल डायनासोर, सींग वाले जंतु, डंक मारने वाले, उड़ने वाले, में अन्तर करने में सक्षम हो सकते हो। 

    किन्तु इस जगत में जो कुछ भी है, वह सर्वं ब्रह्ममयं अर्थात सब ब्रह्म है। यह सब सत् चित् आनंद है, न अधिक, न कम। इस महान सत्य की अनुभूति (बोध) प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवन  का एकमात्र उद्देश्य है। 

(साभार /प्रशांति रिपोर्टर: सर्वं ब्रह्म मयम्) 

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बृहस्पति का पुत्र कच की कहानी।

प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों के बीच तीनों लोकों की सत्ता के लिए आए दिन संघर्ष होता रहता था । इस संघर्ष में असुरों के गुरु शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या का अथवा मृतक को फिर से जिलाने का ज्ञान था ।

देवताओं के गुरु बृहस्पति को इस विद्या का ज्ञान नहीं था । अतः देवता जिन असुरों को मारते थे शुक्राचार्य उन्हें फिर से जिन्दा कर देते थे । इससे देवताओं के हाथ से जीती बाजी निकल जाती थी। देवता किसी तरह मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे ।

इसके लिए उन्होंने बृहस्पति के पुत्र कच को विद्याध्ययन के लिए शुक्राचार्य के पास भेजने की योजना बनाई । उन दिनों कोई गुरु विद्याध्ययन के लिए घर आए किसी छात्र को मना नहीं कर सकता था । देवताओं ने कच से कहा, ” आप हर तरह से विद्या सीखने के सुपात्र हैं । अतः शुक्राचार्य का शिष्यत्व स्वीकार कर उनकी और उनकी पुत्री देवयानी की सेवा कर मृतसंजीवनी विद्या सीख कर हमारी सहायता कीजिए । शुक्राचार्य तुम्हें मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्रदान कर देंगे । ” देवताओं के अनुरोध पर कच शुक्राचार्य के पास गया ।

अपना परिचय देते हुए उसने शुक्राचार्य से कहा , ” मैं अंगीरा ऋषि का पौत्र और बृहस्पति का पुत्र हूं । भगवन् , आप मुझे अपना शिष्य बना लें । ” शुक्राचार्य कच को शिष्य बनाने पर सहमत हो गए । कच निर्धारित पठन पाठन के अलावा शुक्राचार्य और उनकी पुत्री देवयानी की जी जान से सेवा करता था । वह देवयानी के लिए फल – फूल आदि लाने के अलावा गायन – नृत्य से उसका मनोविनोद करता था । अत : वह शीघ्र ही शुक्राचार्य और देवयानी दोनों का प्रिय हो गया । उधर जब असुरों को पता चला कि कच शुक्राचार्य का शिष्य हो गया है और कालान्तर में अपने गुरु से मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान प्राप्त कर सकता है तो वह चिन्तित हो गए ।

एक दिन शाम को गायों को चराकर लौटते समय जब कच विश्राम करने एक पेड़ के नीचे कुछ देर के लिए रुका तो असुरों ने उसकी हत्या कर दी । इसके बाद उन्होंने कच के शरीर के टुकड़े कर उन्हें कुत्तों और सियारों को खिला दिया । गायों के अकेले लौटने पर देवयानी ने अपने पिता से कहा , ” पिताजी सूर्य अस्त हो गया है , गायें बिना कच के लौट आई हैं । लेकिन कच अभी तक नहीं आए । लगता है कि कच या तो मारे गए हैं या मर गए हैं । मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती ।

” शुक्राचार्य अपनी बेटी को बहुत प्यार करते थे । उन्होंने कहा , “ बेटी चिन्ता न करो । मैं अभी आओ कह कर कच को जीवित कर देता हूं । ” यह कह कर उन्होंने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और कच को पुकारा । गुरु के पुकारने पर संजीवनी विद्या के प्रभाव से कच कुत्तों और सियारों का पेट फाड़कर बाहर निकल आया और गुरु के सामने उपस्थित हो गया ।

देवयानी ने कच से देर में आने का कारण पूछा । कच ने बताया , “ लौटते समय मैं थोड़ा विश्राम करने के लिए एक पेड़ के नीचे रुका । मेरे साथ ही गायें भी वहां बैठ कर जुगाली करने लगी । कुछ देर बाद वहां कुछ असुर आए । उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा । परिचय मिलने के बाद उन्होंने मुझे मार दिया और मेरे शव के टुकड़े टुकड़े कर कुत्तों और सियारों को खिला दिया । गुरु महाराज ने मुझे फिर से जीवित कर दिया । तब मैं यहां आया हूं । इसके बाद एक दिन जब कच वन में देवयानी के लिए फल – फूल लेने गया हुआ था , असुरों ने फिर उसकी हत्या कर दी । इसके बाद उन्होंने कच के शव को पीस कर समुद्र में डाल दिया । कच के आश्रम न पहुंचने पर देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य ने उसे फिर जीवित कर दिया ।

   असुरों ने तीसरी बार फिर कच की हत्या की हत्या के बाद उन्होंने कच को जलाया और उसकी लाश का चूरन बनाकर मदिरा में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया । इस बार शुक्राचार्य ने देवयानी को समझाने का प्रयास किया कि असुर् कच के पीछे पड़े हैं । वे फिर उसकी हत्या कर देते हैं । मैं अगर उसे जिन्दा कर दूंगा तो असुर उसे फिर मार देंगे । अतः अब तुम उसके लिए शोक मत करो । देवयानी के यह कहने पर कि मैं कच के बिना जीवित नहीं रह सकती।  यह सुनकर शुक्राचार्य ने फिर कच को बुलाया । कच ने शुक्राचार्य के पेट से धीमे स्वर में कहा , ” गुरुदेव मैं आपको प्रणाम करता हूं । ”

   अपने पेट से कच की आवाज सुनकर शुक्राचार्य आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने कच से पूछा ! “ शिष्य तुम मेरे पेट में कैसे पहुंच गए ? ” कच ने बताया , “ असुरों ने मुझे मार कर मेरे शरीर को जलाया और उसका चूर्ण बना दिया । फिर उसे मदिरा में मिलाकर आपको पिला दिया । ”

यह सुनकर शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा , “ पुत्री ! असुरों ने कच को मार कर मेरे पेट में पहुंचा दिया है । अगर मैं उसे जीवित करता हूं तो वह मेरा पेट फाड़ कर बाहर निकलेगा । उस हालत में मैं जीवित नहीं रहूंगा। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं ? ” देवयानी ने कहा,“ पिताजी! आप और कच मुझे दोनों प्रिय हैं । आप दोनों में से किसी के भी न रहने पर मुझे भयंकर कष्ट होगा और मैं जीवित न रहूंगी। ” 

     इस पर शुक्राचार्य ने कच को पहले मृतसंजीवनी विद्या की शिक्षा दी । फिर कहा मेरे शरीर से जब तुम बाहर निकलोगे तो मेरी मृत्यु हो जाएगी । तुम मुझे फिर जीवित कर देना कच के शुक्राचार्य के पेट से बाहर निकलते समय शुक्राचार्य की मृत्यु हो गई । लेकिन कच ने उन्हें फिर जीवित कर दिया । फिर से जीवित हो जाने पर शुक्राचार्य के मन में मदिरा के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जागा और उन्होंने घोषणा की अगर आज से कोई ब्राह्मण मदिरा पान करेगा तो वह ब्रह्म हत्या के पाप का भागीदार होगा । 

      शुक्राचार्य के पेट से निकलने के बाद कच ने कहा गुरु जो शिक्षा देता है पिता के समान है । अब चूंकि मैं आपके पेट से निकला हूं अत : आप मेरे माता – पिता दोनों हैं । अपनी शिक्षा समाप्त कर जब कच का शुक्राचार्य के आश्रम से जाने का समय निकट आया तो उसने गुरु से जाने की आज्ञा मांगी । शुक्राचार्य ने उसे सहर्ष जाने की आज्ञा प्रदान कर दी । उसी समय देवयानी ने कच से कहा , “ आप हर तरह से योग्य पुरुष हैं । आपका ब्रह्मचर्य जीवन समाप्त हो गया है । मैं आपसे प्रेम करती हूं । कृपया मुझसे विवाह करके मुझे स्वीकार करें । ” कच ने कहा , ” देवयानी गुरु शुक्राचार्य की तरह तुम भी मेरे लिए पूजनीय हो । गुरु पिता के बराबर होता है । अतः गुरु पुत्री बहिन होती है । अत : तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए । ” 

        देवयानी ने कच को समझाने की चेष्टा की कि तुम बृहस्पति के पुत्र हो , शुक्राचार्य के नहीं ।अत : इस संबंध में कोई दोष नहीं है । मैंने बार – बार अपने पिता से अनुरोध करके तुम्हें जीवित कराया , क्योंकि मैं तुमसे प्रेम करती थी । यह उचित नहीं है कि तुम मुझ जैसी निष्पाप , निष्ठावान, निरपराध और प्रेम करने वाली लड़की को त्याग दो । कच ने कहा , “ धर्म की दृष्टि से तुम मेरी बहिन हो । इसलिए मैं तुम्हारी आज्ञा लेकर जाना चाहता हूं । आशीर्वाद दो कि मेरा कल्याण हो । सदा सावधान और सजग रहकर गुरुदेव की सेवा करना । ” यह कह कर कच ने आश्रम छोड़ दिया ।

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शनिवार, 15 जून 2024

🔱🕊🏹(11) भगवान की कृपा 🔱🕊🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -11 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹

 (11)  

भगवान की कृपा 

(Grace of God) 

ভগবৎ-কৃপা

1. जिस प्रकार दियासलाई की काठी जलाते ही, हजारों साल से बंद अँधेरे कमरे में उजियाला हो जाता है, उसी प्रकार एकबार उनकी (स्वामी विवेकानन्द की ?) कृपादृष्टि पड़ते है जन्म-जन्मांतर के सारे पाप भी कट जाते हैं।    

১। হাজার বছরের অন্ধকার ঘর যেমন একবার একটা দেশলাইয়ের কাটি জ্বাললে তখনি আলো হয়, তেমনি জীবের জন্ম-জন্মান্তরের পাপও তাঁর একবার কৃপাদৃষ্টিতে দূর হয়।

2. जब मलय पवन या मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा जिसमें चंदन जैसी खुशबू होती है, चलती है तो जिन पौधों में सार होता है, वे सभी पौधे चन्दन बन जाते हैं।  लेकिन जो पौधे खोखले होते हैं, जैसे बाँस और केला इत्यादि, उनका कुछ नहीं होता। उसी प्रकार जिन मनुष्यों में सार रहता है (ऐषणाओं से अनासक्त रहते हैं), भगवान की कृपा मिलते ही क्षणभर में वे महान सन्त जैसे परिपूर्ण हो जाते हैं। किन्तु विषयों में आसक्त - खोखले लोगों को कुछ भी आसानी से नहीं होता ।  
২। মলয়ের হাওয়া লাগলে যেসব গাছের সার আছে, সেই সব গাছে চন্দন হয়, কিন্তু অসার - যেমন বাঁশ, কলা ইত্যাদি গাছে কিছু হয় না। ভগবৎ-কৃপা পেলে যাঁদের সার আছে, তাঁরাই মুহূর্তের মধ্যে মহা সাধুভাবে পূর্ণ হন, কিন্তু বিষয়াসক্ত অসার মানুষের সহজে কিছু হয় না।

3. छोटे छोटे लड़के बिना किसी डर या चिंता के कमरे के अंदर बैठकर और गुड़ियों से खेलते रहते हैं। लेकिन जैसे ही माँ आई तो सबने गुड़िया फेंक दी और मां, मां कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े। तुमलोग भी इस समय संसार में धन-दौलत, मान-सम्मान और नाम-यश रूपी गुड़ियों के साथ  बिना किसी भय के निश्चिन्त होकर खेल रहे हो। यदि तुम लोग एक बार माँ आनन्दमयी का दर्शन कर लो, तो फिर तुम्हें धन-मान-यश कुछ अच्छा नहीं लगेगा, सब कुछ फेंक कर तुम उनके पास दौड़ पड़ोगे। 

৩। ছোট ছোট ছেলেরা একলা ঘরের ভেতরে বসে আপনমনে পুতুল খেলে, কোন ভয়-ভাবনা নেই। কিন্তু যেই মা এল, অমনি সকলে পুতুল ফেলে 'মা' 'মা' বলে কাছে দৌড়ে গেল। তোমরাও এখন ধন-মান-যশের পুতুল লয়ে সংসারে নিশ্চিন্ত হয়ে সুখে খেলা করছ, কোন ভয়-ভাবনা নেই। যদি মা আনন্দময়ীকে তোমরা একবার দেখতে পাও, তা হলে আর তোমাদের ধন-মান-যশ ভাল লাগবে না, সব ফেলে তাঁর কাছে দৌড়ে যাবে।

4. कीचड़ -कादो में खेलना लड़कों की खासियत है; किन्तु माता-पिता उन्हें गन्दा रहने नहीं देते; वैसे ही माया के इस संसार में पड़कर, मनुष्य चाहे कितना भी मलिन क्यों न हो जाये, भगवान उसको शुद्ध होने का उपाय कर ही देते हैं। 

৪। কাদা ঘাঁটাই ছেলেদের স্বভাবসিদ্ধ; কিন্তু মা-বাপ তাদের অপরিষ্কার থাকতে দেন না; সেরূপ জীব এই মায়ার সংসারে পড়ে যতই মলিন হোক না কেন, ভগবান্ তাদের শুদ্ধ হবার উপায় করে দেন।
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शुक्रवार, 14 जून 2024

🔱🕊🏹(10) खान-पान और साधना 🔱🕊🏹[श्री श्री रामकृष्ण उपदेश -10 🔱 स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित ]🕊🏹महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी (1841 - 1899)

 (10) 

🔱🕊🏹खान-पान और साधना 🔱🕊🏹

(Food and meditation) 

সাধন ও আহার

1. जो चाहे सिर्फ हविष्यान्न ही क्यों न खाता हो, परंतु ईश्वर (सत्य) को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं  करता, उसका हविष्यान्न खाना भी गोमांस के समान है। और जो व्यक्ति गोमांस खाता हो परन्तु प्रभु को पाने का प्रयास करता है, उसके लिए गोमांस भी हविष्यान्न के समान हो जाता है। 

2. महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी (1841 - 1899), की सास एक दिन परमहंसदेव के दर्शन के लिए आईं। ठाकुर ने उनसे कहा था, "तुमलोग ही ठीक हो, तुमने अपना मन संसार से खींच कर ईश्वर (सत्य ) में लगा लिया है।" उन्होंने कहा, “कहाँ, हमें तो कुछ लाभ नहीं हुआ, आज भी मैं जिसके-तिसके जूठे अन्न का एक दाना भी नहीं खा सकती ।” ठाकुर ने कहा, "ये क्या बात हुई? क्या जिसका -तिसका जूठा खा लेने से ही सब कुछ हो गया?" कुत्ता, सियार आदि तो सबों का उच्छिष्ट (pickings-जूठा) खा जाते हैं, तो क्या उन्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है ?”

২। স্বর্গীয় মহাত্মা বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী মহাশয়ের শাশুড়ি একদিন পরমহংসদেবকে দর্শন করতে এসেছিলেন। ঠাকুর তাঁকে বলেছিলেন, "তোমরা বেশ আছ, সংসারে থেকে ভগবানেতে মন রেখেছ।" তিনি বললেন, "কই, আমাদের আর কিছুই হল না; এখনও আমি যার-তার এঁটো খেতে পারি না।" ঠাকুর বললেন, "সে কি গো? যার তার এঁটো খেলেই কি সব হল? কুকুর, শেয়াল সবারই এঁটো খায়, তা বলেই কি তাদের ব্রহ্মজ্ঞান লাভ হয়েছে?"

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सिद्ध (सत्यार्थी) संत विजय कृष्ण गोस्वामी जी

माता-पिता की धर्म परायणता का प्रभाव बाल्यावस्था से विजय कृष्ण पर पड़ा। श्री विजय कृष्ण की शिक्षा दिव्य एवं समयानुकूल थी।  इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी लेकिन इन्हें होम्योपैथी की प्रेक्टिस के लिए लाइसेंस मिल गया और फिर शांतिपुर वापस आने के बाद प्रैक्टिस शुरु कर दी। विद्यार्थी जीवन में ही एक दिन उन्होंने अकाशवाणी सुनी - 'परलोक की चिन्ता करो।' इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए अत्यधिक व्यग्र हो गये।

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                 एक जमाना था जब गोस्वामी जी  ब्रह्म समाजी [कम्युनिस्ट ?] थे। उस समय बंगाल में ब्रह्म समाज का जोर शोर था आप भी इसी समाज से जुड़ गये। एक दिन उन्हें पुन:दैवी निर्देश मिला (अंतरात्मा की आवाज सुनाई दी ?) - "किसी प्रकार के बंधन में रहने से धर्म लाभ नहीं होगा" ।

     इसके बाद से उन्हें ब्रह्म समाज में रहते हुए  'मन, कर्म और बचन' एक करके सत्य का अनुसन्धान और अनुसरण करना असंभव प्रतीत हुआ और इसके पश्चात् उन्होंने महान सिद्ध संतों, महात्माओं के साथ सत्संग लाभ किया। उन दिनों गोस्वामी जी के मन में आध्यात्मिक उन्नति व सन्तों के दर्शन की इच्छा उत्पन्न हो रही थी। आप इसकी पूर्ति हेतु काशी आए। प्रथम दर्शन में तैलंग स्वामी ने इनके ऊपर कीचड़ व मेला फेंक दिया ताकि घृणावश वो उनके पास न जाएँ। परन्तु बाद में इनमें आपस में पर्याप्त प्रेम हो गया था।

     एक दिन गोस्वामी जी ने तैलंग स्वामी से पूछा-‘‘मैं अपने गुरु की तलाश में निकला हु। ब्रह्म समाजी होने के कारण कोई मुझे शिष्य नहीं बनाता एवं बिना गुरु के पूर्ण ज्ञान होना सम्भव नहीं है।’’  इसके उत्तर में तैलंग स्वामी जी ने कहा  -‘‘गोस्वामी तुममें वो लक्षण प्रस्फुटित हो रहे हैं जो ईश्वर (अपरिवर्तनीय सत्य) प्राप्ति के लिए आवश्यक है। परन्तु इस तरह गुरु की तलाश करना व्यर्थ है। मैं जानता हूं तुम्हारे वास्तविक गुरु कौन है। समय आने पर वे तुम्हें अपने पास बुला लेगें। उससे पहले तुम्हें स्वयं को उस लायक बनाना होगा। सर्वप्रथम तुम 'गुरु' की महत्ता जानो।  इतना कहने के पश्चात् उन्होंने अपने सेवक मंगल को दरवाजा बन्द करने के लिए कहा जिसमें कोई भीतर न आने पाए। तैलंग स्वामी ने कहा  -‘‘गुरु शब्द का अर्थ है-'ग' से गतिदाता, 'र' शब्द सेे सिद्धिदाता ओर 'उ' शब्द से मुक्तिदाता। अर्थात् जिसके सम्पर्क से साधना में गति मिले, जो साधना के सिद्धि की ओर ले जाए ओर मुक्तिदाता बन अज्ञान (अविद्या) रूपी अन्धकार के जीवन से नष्ट कर सके। शिष्य को भवसागर से पार कराने की पूरी जिम्मेदारी गुरु की हो जाती है।

     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘ऐसे सद्गुरु की पहचान हम कैसे कर सकेंगे? शिष्य तो अज्ञानी होता है सद्गुरु की पहचान कैसे कर सकते है?’’  तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘भगवान के लिए (परम सत्य को जानने के लिए) अगर तुम्हारा हृदय व्याकुल होगा तब निश्चित है कि भगवान (श्रीरामकृष्ण देव) तुम्हारा सहायक बनकर सद्गुरु से मुलाकात करा देंगे। सद्गुरु राह चलते नहीं मिलते। प्राचीन काल में सद्गुरुओं का अभाव नही था। सतशिष्य (true disciple-एथेंस का सत्यार्थी) बिना बने सद्गुरु नहीं मिलते। उपयुक्त गुरु न होने के कारण ही मानव की यह दुर्दशा है। 'सड़े गले बीज से पौधे जन्म’  नहीं लेते, इसलिए बीज (मंत्र-Be and Make) का चुनाव ठीक से करके ही दीक्षा लेनी चाहिए। दीक्षा देना व दीक्षा लेना दोनों ही सहज कार्य नहीं है।’’

 गोस्वामी जी ने कहा- ‘‘फिर तो जैसे सद्गुरु के बारे में आपने बताया है, ऐसे गुरु का मिलना ही असंभव प्रतीत होता है।

     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘बाबा यह बताइये कि मेरे वास्तविक गुरु कहाँ मिलेंगे?’’ 

‘‘यह जानने से कोई लाभ नहीं। समय आने पर वे (नवनीदा) स्वयं तुम्हें बुला लेंगे या तुम्हारे पास चले आयेंगे। अपनी इच्छा से कोशिश करने पर तुम उनके पास नहीं पहुँच सकते। उनसे बीज मन्त्र (Be and Make) पाने के बाद ही तुम्हारा साधक जीवन प्रारम्भ होगा। 

गोस्वामी जी ने कहा-‘‘अर्थात् जब तक मेरे वास्तविक गुरु नहीं मिलेंगे तब तक मुझे इधर उधर भटकते रहना पडेगा।’’

     तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘प्रतीक्षा तो करनी ही पडेगी। लेकिन इस बीच मेरे द्वारा दिए मन्त्र का जप करते रहेगें तो समय की दूरी कम हो जाएगी। सुबह ओर शाम दोनों समय शान्त भाव से बीज मन्त्र का जप करें। अधा घण्टा से प्रारम्भ कर तीन घण्टा तक बढ़ाते जाएँ अथवा तब तक समय बढ़ाएँ जब तक आलोक दर्शन न हो जाए।  मुझसे यह नही हो सकेगा यह कहने से काम नही चल सकेगा। योग साधना सामान्य प्रक्रिया नही है। मुझे जितना करना था उसे पूरा कर दिया।’’ 

 तैलंग स्वामी ने ही विजय कृष्ण गोस्वामी को योग साधना के मार्ग पर लगाया था।  आगे चलकर उन्होंने ब्रह्म समाज छोड़ पूर्ण योगी का जीवन जिया। इसके पश्चात् गोस्वामी जी ब्रह्म समाज के किसी हेतु कार्यक्रम हेतु ' गया ' गए। उनका अतृप्त हृदय बराबर उस गुरु की तलाश में लगा रहा ।

 यहाँ ' गया ' में उनको पता चला कि समीप आकाश गंगा पर्वत पर अनेक सिद्ध योगी रहते है। यहाँ उनकी भेंट एक अद्भुत संन्यासी से हुयी। वो अपने आसन पर ध्यानस्थ है उनके मस्तिष्क से ज्योति निकलकर चारों ओर प्रकाशमान है। यह दृश्य देख वो विस्माभिभूत हो उठे। काफी देर तक वे एकटक दृष्टि से उस योगी को देखते रहे। कुछ देर बाद जब योगी उठे तो उन्हें प्रणाम करने के बाद गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘आपके मस्तिष्क से अद्भुत ज्योति निकल रही थी। इस वक्त वह गायब हो गयी। ऐसा कैसे हुआ?’’

     योगी ने कहा- ‘‘साधना के माध्यम से जब कुण्डलिनी शक्ति षटचक्र भेदन करती हुई मस्तिष्क के सहस्त्रदल कमल में पहुँचती है तब वह ज्योति निकलती है।’’ 

यह सुनने पर गोस्वामी जी समझ गए कि योगी उच्चकोटि के सिद्ध साधक है व इनसे दीक्षा लेनी चाहिए। वो बोले- ‘‘जाने क्यो मुझे शान्ति नहीं मिलती, बार बार बैचेन रहता हूं । 

योगी जी बोले- ‘‘यह बात अपने गुरु से कहो। वे इसका उपाय बतायेंगे।’’

     गोस्वामी जी बोले-‘‘ मेरा कोई गुरु नहीं है मैं गुरु बनाना चाहता हू, कृपया मुझे गुरु दीक्षा दें।’’

     उनका मतव्य सुनकर योगी ने कहा- ‘‘मुझे अभी दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है।

इस प्रकार भटकते-भटकते एक दिन उनके हृदय की तृष्णा शान्त हुई। रामशिला पर्वत पर उन्हें अपने गुरु के दर्शन हुए। आँखे चार होते ही उनके हृदय में भक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा। फूट-फूट कर रोने लगे। गोस्वामी जी का हाथ पकड़कर वो बोले- ‘‘मेरे लिए इतना व्याकुल होने की जरूरत नहीं है। वक्त आने पर सब मिल जाएगा। साधना में मन लगाओं कठोर साधना से ही ईश्वर लाभ होता है।’’

     गोस्वामी जी के गुरु का नाम ब्रह्मानंद परमहंस स्वामी था।  अधिकतर वे मान सरोवर में रहते है कभी-कभी शिष्यों से मिलने चले आते है।

     गुरु की आज्ञा से गोस्वामी जी आकाशगंगा पहाड पर कठोर साधना करने लगे। आहार निद्रा त्यागकर साधना में जुट गए। 

दीक्षा के संबंध में इनका कहना था-'यह संपूर्ण भगवान् का दान है, जिन्हें भगवत् निर्देश प्राप्त हो केवल वे ही दीक्षा दे सकते है।' 

सद्गुरु प्रत्यक्ष निर्देश देकर जिन्हें आदेश दें वही शक्ति संचार(शक्तिपात) से यह साधन दे सकता है। आप भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के दादा गुरु थे।

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(जैसा कि एम द्वारा दर्ज किया गया है, तथा दिनांक 25 अक्टूबर, 1885)  विजय कृष्ण गोस्वामी ने रामकृष्ण से कहाः मैंने सारे देश में भ्रमण किया है तथा अनेक आध्यात्मिक व्यक्तियों से मिला हूँ; परन्तु मुझे आपके जैसा कोई नहीं मिला। यहाँ सोलह आने की पूरी राशि है, जबकि अन्य स्थानों पर मुझे अधिकतम दो, तीन या चार आने ही मिले हैं। मैंने आपको ढाका में एक स्वप्न में देखा था, तथा मुझे आपके बारे में कोई संदेह नहीं है। लोग आपको समझ नहीं पाते, क्योंकि आप इतने सुलभ हैं। आप कलकत्ता के बहुत निकट रहते हैं। केवल इच्छा मात्र से हम आपके पास पहुँच जाते हैं; आवागमन में कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए हम आपके मूल्य का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा सकते। परन्तु यदि आप किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर बैठे होते, जहाँ तक पहुँचने में बहुत कष्ट और कठिनाई होती, तो हम आपको दूसरी दृष्टि से देखते। अब हम सोचते हैं कि यदि ऐसा आध्यात्मिक व्यक्ति हमारे निकट रहता है, तो दूर रहने वालों की आध्यात्मिकता कितनी अधिक होगी! इसलिए हम आपके दर्शन करने के बजाय आध्यात्मिकता की खोज में इधर-उधर भटकते रहते हैं।

[1986 का कुम्भ मेला-देवराहा बाबा ? नहीं 'बाबा रामसुखदास' से हुई -"तुम कछु न करिहउँ सब हम करिहउँ।" श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने अपने रहने के लिये कहीं भी कोई स्थान नहीं बनवाया। आप गाँव गाँव और शहर आदि में जा- जाकर कर लोगों को सत्संग सुनाया करते थे और भिक्षान्न से ही अपना शरीर निर्वाह करते थे।  जहाँ भी रहते थे,उस स्थान को भी अपना नहीं मानते थे। अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे।  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

 मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का (परम सत्य का) अनुयायी रहा हूँ, व्यक्ति का नहीं ।  मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेष में न लगकर भगवान (श्रीरामकृष्ण) में ही लगें । 

 मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूर तक केवल पुरुष बैठें । पुरुषों की व्यवस्था पुरुष और स्त्रियों की व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बात का समर्थन करने अथवा भगवान की जय बोलने के समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

आप सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। सत्संग तो मानो आपका जीवन ही था। आप बताते थे कि सत्संग से (निर्जनवास या कैम्प से)  जितना लाभ होता है उतना एकान्त में रहकर साधन करने से भी नहीं होता। सत्संग सब की जननी है। सत्संग से जितना लाभ होता है, उस लाभ को कोई कह नहीं सकता।

अन्य साधन करके जो उन्नति की जाती है, वो तो कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना है,यह गोद चले जाना है। (किसी धनवान की) गोद जानेवाले को क्या प्रयास करना पङा? कल कँगला और आज धनी। ऐसे सत्संग करने वाले को कमाया हुआ धन मिलता है (अनुभव मिलता है, बिना साधन किये,मुफ्त में सर्वोपरि लाभ मिलता है)।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है। 

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