ॐ श्रीरामकृष्णाय नमः
*पंचदशी की भूमिका*
इस ग्रंथ को पंचदशी नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि इसमें पंद्रह अध्याय हैं। यह अद्वैत वेदांत का एक सम्पूर्ण ग्रंथ है। इस पुस्तक में अद्वैत वेदान्त की मौलिक शिक्षाओं को स्पष्ट और सुबोध तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इसलिए यह उन प्रारंभिक साधकों के लिए जो इस अद्वैत दर्शन से परिचित होना चाहते हैं सबसे अच्छा ग्रंथ है । साथ ही साथ यह रचना इतनी गंभीर है कि अद्वैत-दर्शन के उन्नत विद्यार्थीयों के लिए भी यह ग्रन्थ रुचिकर है।
पंचदशी संस्कृत में एक छंदबद्ध रचना है। पंचदशी ग्रन्थ में ब्रह्म, शक्ति, जीव, और ईश्वर के संबंध को सरल भाषा में समझाया गया है। अद्वैत मत के अनुसार ब्रह्म या सच्चिदानन्द ही एकमात्र सत्य है, उपनिषदों में सत-चित -आनंद के रूप में वर्णित है। जैसा कि नाम से पता चलता है, पंचदशी में 15 अध्याय हैं जिन्हें तीन पंचक (प्रत्येक में पाँच पाठ) में बांटा गया है, जो ब्रह्म के तीन घटकों - सत् , चित् और आनंद का क्रमशः प्रतिनिधित्व करते हैं। इस पुस्तक के पंद्रह अध्यायों को पाँच-पाँच अध्यायों के तीन समूहों में विभाजित किया गया है। पाँच अध्यायों का पहला समूह ब्रह्म के अस्तित्व - सत् (अस्तित्व) पहलू से संबंधित है, दूसरा समूह चित् (चेतना) पहलू से संबंधित है और तीसरा आनंद पहलू से संबंधित है। इन तीन घटकों का व्यापक परिचय इस प्रकार संक्षेप में दिया गया है -
(क) विवेकपञ्चकम् : १ प्रत्यक्तत्त्वविवेक। २ पञ्चमहाभूतविवेक / ३ पञ्चकोशविवेक/ ४ द्वैतविवेक/ ५ महावाक्यविवेक।
(ख) दीपपञ्चकम् : ६ चित्र-दीप/७ तृप्तिदीप/ ८ कूटस्थदीप/ ९ ध्यानदीप/१० नाटकदीप।
(ग) आनन्दपञ्चकम् : ११ ब्रह्मानन्दे योगानन्द/१२ ब्रह्मानन्दे आत्मानन्द/१३ ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्द/ १४ ब्रह्मानन्दे विद्यानन्द/ १५ ब्रह्मानन्दे विषयानन्द।
[पञ्चदशी ग्रन्थ में कुल श्लोक सङ्ख्या- 1570 है। प्रत्येक अध्याय में श्लोकों की संख्या इस प्रकार है - १ तत्त्वविवेकः । 65 / २ भूतविवेकः । 103/ ३ पञ्चकोषविवेकः । 43/ ४ द्वैतविवेकः । '70' / ५ महावाक्यविवेकः । 8 /६ चित्रदीपः । 290 /७ तृप्तिदीपः । 297/ ८ कूटस्थ दीपः । 76 /९ ध्यानदीपः । 158/१० नाटक दीपः । 26/११ ब्रह्मानन्दे योगानन्दः । 134/ १२ ब्रह्मानन्दे आत्मानन्दः । 90/ १३ ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्दः । 105 /१४ ब्रह्मानन्दे विद्यानन्दः । 65/ १५ ब्रह्मानन्दे विषयानन्दः । 35 ]
अगले अध्यायों में इस रचना का अध्याय दर अध्याय सारांश दिया गया है।
[साभार :१ https://sa.wikisource.org/wiki/ पञ्चदशी/प्रथमप्रकरणम्_-_प्रत्यक्तत्त्वविवेकः/ https://storyofhinduism.wordpress.com/2022/03/15/panchdashi-3/https://janamejayans.home.blog/pancadasi-of-swamy-vidyaranya-2/]
पंचदशी का विषय-वस्तु :
1.ब्रह्म : वेदान्त में ब्रह्म को निर्गुण (त्रिगुणातीत), निर्विशेष (सदा एक रूप रहनेवाला), निरुपाधिक, मन और वाणी से परे कहा जाता है। उन्हें निरुपाधिक (unconditioned- गुणातीत,निर्गुण, शरीर से मुक्त) इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे देश, काल और निमित्त इन तीनों उपाधियों में से किसी भी उपाधि के अधीन नहीं हैं। तो फिर वे क्या हैं, उनका स्वरुप कैसा है? इसके उत्तर में कहा जाता है कि वे सच्चिदानन्द स्वरुप हैं।
भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने (वचनामृत में) मन और वाणी से परे ब्रह्म को इस प्रकार परिभाषित किया है - " ब्रह्म क्या है यह मुख से कहा नहीं जा सकता। वेद, तंत्र, पुराण आदि सभी शास्त्र जूठे हो चुके हैं, क्योंकि उनका उच्चारण मुख से किया गया है , उन्हें पढ़ा गया है। केवल एक वस्तु जूठी नहीं हो पाई, वह है ब्रह्म। ब्रह्म क्या है , यह आज तक कोई बता नहीं पाया। "
ब्रह्म मन-वाणी, ध्यान-धारणा , ज्ञाता -ज्ञेय-ज्ञान, सत -असत, सबसे परे है। ब्रह्म वायु की तरह है, जो सुगंध और दुर्गन्ध दोनों को ले जाती है, पर स्वयं दोनों से निर्लिप्त रहती है। किन्तु जिसके लिए जप-ध्यान ,ज्ञान -विचार करना हो उसके बारे में परोक्ष रूप से कोई सिद्धान्त लेना हो तो सबसे पहले 'उनका स्वरुप कैसा है ' सबसे पहले उसे जानने की आवश्यकता होती है। वैसा नहीं होने से मन में उसे जानने की जिज्ञासा या इच्छा नहीं उठेगी। इसलिए उस वाणी और मन से परे ब्रह्म को 'सच्चिदानन्द स्वरुप ' कहा गया है। इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह हुआ कि -ब्रह्म असत, अचित और दुःखस्वरूप नहीं है। असीम ब्रह्म की उपासना करने में सुविधा देने के लिए उनको ससीम बनाकर उनको 'अंगुष्ठ प्रमाण ' कहा गया है।
अद्वैत का सार यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। 'सत्य' की परिभाषा इस प्रकार की जाती है कि जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इस कसौटी पर, ब्रह्म जो कि पूर्णतया अपरिवर्तन-शील और शाश्वत है, वही सत्य है। जगत् सदैव बदलता रहता है, इसलिए उसे सत्य नहीं माना जा सकता। साथ ही, हम उसे असत्य भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह वास्तव में हमारे द्वारा अनुभव किया जाता है।
इसे समझाने के लिए मंद प्रकाश में रस्सी को साँप समझ लेने का उदाहरण दिया जाता है। इस प्रकार देखा गया साँप, वास्तविक साँप की तरह ही भय और अंगों के काँपने जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। इसलिए उसे पूर्णतया असत्य नहीं कहा जा सकता। साथ ही, दीपक की सहायता से जाँच करने पर पता चलता है कि साँप कभी अस्तित्व में नहीं था और केवल रस्सी ही सदैव वहाँ थी। साँप को सत्य और असत्य दोनों नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी गुण एक ही पदार्थ में विद्यमान नहीं हो सकते। इसलिए यह कहना होगा कि साँप न तो सत्य है और न ही असत्य। ऐसी वस्तु को 'मिथ्या' कहा जाता है। जैसे रस्सी के अज्ञान के कारण साँप दिखाई देता है, वैसे ही ब्रह्म के अज्ञान के कारण यह जगत् दिखाई देता है। इस प्रकार यह जगत् न तो सत् है, न असत है बल्कि 'मिथ्या' है।
जैसे साँप रस्सी पर आरोपित है, वैसे ही जगत् ब्रह्म पर आरोपित है। (जैसे फिल्म शोले या महाभारत पर्दे पर आरोपित है ?) ब्रह्म के प्रति हमारे अज्ञान को ही अविद्या या अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान (माया) न केवल ब्रह्म को ढक देता है, बल्कि जगत् -ब्रह्माण्ड को एक वास्तविकता के रूप में प्रक्षेपित या प्रस्तुत भी करता है। ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की कोई वास्तविकता नहीं है, जैसे रस्सी के अतिरिक्त साँप की कोई वास्तविकता नहीं है। जब ब्रह्म का ज्ञान होता है, तो जगत् ब्रह्म का एक रूप मात्र दिखाई देता है। ऋषि बोल पड़ते हैं - 'ईशावास्यम् इदं सर्वम् !"
इसे समझाने के लिए एक और उदाहरण लिया जा सकता है। एक सोने की ईंट से विभिन्न आकार और आकृति के आभूषण बनाए जाते हैं। उन गहनों या आभूषणों का रूप और उपयोग भिन्न-भिन्न होता है, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि, भिन्न-भिन्न रूप और उपयोगों के बावजूद, वे सभी वास्तव में सोना ही हैं। रूप बदल सकता है, चूड़ी को अंगूठी में बदला जा सकता है, लेकिन सोना हमेशा सोना ही रहता है।
इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान (आत्मसाक्षात्कार) के उदय होने पर यद्यपि ज्ञानी को अनेक नाम-रूप, स्त्री-पुरुष, मनुष्य, पशु आदि के विभिन्न रूप दिखाई देते रहते हैं, फिर भी वह उन सभी को एक ही ब्रह्म के रूप में देखता है। विभिन्नता में अन्तर्निहित एकत्व या दिव्यता (ब्रह्मत्व) या एकत्व (Oneness) की अनुभूति होने के बाद; आत्मज्ञान बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति के लिए नामरूप की अनेकता प्रति भेद का बोध तथा उसका परिणाम, जैसे कुछ व्यक्ति को अनुकूल तथा अन्य को विपरीत मानना समाप्त हो जाता है । इसलिए अनुकूल को प्राप्त करने या बनाए रखने तथा प्रतिकूल को त्यागने या उससे बचने के लिए किए जाने वाले प्रयत्न भी समाप्त हो जाते हैं। यह जीवित रहते हुए भी मुक्ति की अवस्था है, जिसे जीवन्मुक्ति कहते हैं।
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, प्रत्येक मनुष्य स्वयं ब्रह्म है, लेकिन शरीर, मन और इंद्रियों के साथ तादात्म्य के कारण वह स्वयं को ब्रह्म से भिन्न और एक सीमित प्राणी मानता है, जो बाह्य कारकों द्वारा उत्पन्न सुख-दुखों के अधीन है। शरीर, मन (अहं की उपाधि) और इंद्रियों के साथ यह तादात्म्य ही बंधन कहलाता है। वास्तव में जीव शुद्ध ब्रह्म है और शरीर-मन के परिसर से भिन्न है। जब इस सत्य को जब वास्तविक अनुभव के रूप में अनुभव किया जाता है, तो शरीर-मन के परिसर के साथ तादात्म्य समाप्त हो जाता है। यही मुक्ति है। इस प्रकार मुक्ति उस स्थिति की प्राप्ति नहीं है जो पहले अस्तित्व में नहीं थी, बल्कि केवल उस चीज़ का बोध है जो हम हमेशा से रहे हैं। भ्रामक साँप कभी अस्तित्व में नहीं था। साँप दिखाई देने पर भी जो अस्तित्व में था, वह केवल रस्सी थी। इसी प्रकार, बंधन का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। जब हम अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व से अनभिज्ञ होते हैं और अपने आप को शरीर द्वारा सीमित मानते हैं, तब भी हम वास्तव में अनंत ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं होते। इस प्रकार मुक्ति केवल शरीर, मन और इंद्रियों के साथ गलत तादात्म्य को हटाना है। उपनिषदों के अनुसार जीवनमुक्ति की प्राप्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य है।
2.माया : ब्रह्म की शक्ति माया, जिसे प्रकृति, अविद्या और अविद्या जैसे अन्य नामों से भी जाना जाता है, वह ब्रह्म को ढँक (छिपा) देती है, और ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है। यही कारण है कि हर व्यक्ति अपने शरीर-मन के साथ अपनी (M/F) की पहचान बना लेता है, और इस सत्य से अनभिज्ञ रहता है कि वह ब्रह्म के अलावा और कुछ नहीं है।
विद्यारण्य के (चित्रदीप प्रकरण / Lamp of the Picture episode) अनुसार माया को तीन अलग-अलग प्रकार की दृष्टि से समझा/देखा जा सकता है - श्रौत (अर्थात गुरु-शिष्य परम्परा में) श्रुति की दृष्टि से वह 'तुच्छा' यानि आश्चर्यजनक है,जो लोग इसकी प्रकृति को जानते हैं उनके लिए यह अवास्तविक (unreal -आश्चर्यजनक) है। युक्ति के दृष्टि से यह यह अ-निर्वचनीय है, अर्थात तर्कशास्त्रियों (logicians) के लिए यह अ-निर्वचनीय है (indefinable ,अपरिभाषित) है।और- लौकिक दृष्टि से या हमारे जैसे सामान्य लोगों के लिए यह वास्तविक (real) है। किसी द्रष्टा की अनुभूति के बिना अपने आप में माया आश्रित (अ-स्व-तंत्र) है। फिर यह एक अर्थ में स्वतंत्र भी है, क्योंकि यह निर्विशेष ब्रह्म को सविशेष और नाम-रूप की उपाधि में बांध देती है।
इस माया को तीन तरह से देखा जाना चाहिए: साधारण सांसारिक व्यक्ति के लिए जो दुनिया को वास्तविक मानता है, माया जो दुनिया की उपस्थिति का कारण है, वास्तविक है। प्रबुद्ध व्यक्ति या (परमहंस की अवस्था में ) के लिए जिसने ब्रह्म (आत्मा) के साथ अपने तादात्म्य/पहचान की अनुभूति कर ली हो, माया का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जो व्यक्ति तर्क के माध्यम से माया को समझने का प्रयास करता है, उसके लिए माया अनिवर्चनीय है क्योंकि इसे वास्तविक या अवास्तविक या दोनों के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है।
यदि यह माया अपने स्वरुप से ही हमेशा शंका करने के योग्य है, तो यह सदैव शंका करने योग्य ही रहेगी। जीवों की मुक्ति के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि माया का ही अतिक्रमण-(transcend) कर लिया जाय।
'वाक्यपदीय ' नामक संस्कृत व्याकरण में कहा गया है -"असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते।" अर्थात, पहले असत्य मार्ग पर चलकर ही सत्य वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है; तात्पर्य यह कि मिथ्या प्रतिबिम्ब के द्वारा ही सत्य बिम्ब का अनुमान सम्भव है; यह देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार, अनृत जड़ ही हैं तथापि इन्हीं के द्वारा हम अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश, विशुद्ध, परात्पर परब्रह्म को जान लेते हैं।
श्रीमद्भागवत (११.२९.२२) में भी कहा गया है-
‘एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।’
अर्थात, अनृत से सत्य को, मर्त्य से अमृत को प्राप्त कर लेना ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी एवं मनीषियों को मनीषा है।
इसी अन्तर्दृष्टि के कारण वैदिक मन्त्रद्रष्टाओं का ऋषित्व सिद्ध है जैसा कि यास्क मुनि कहते हैं- साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः । क्योंकि स्फोटरूप शब्दतत्त्व के ज्ञानमात्र से ही मुमुक्षुओं को मोक्षप्राप्ति नहीं होती है।
यह गलत धारणा है कि अद्वैत के अनुसार संसार एक भ्रम मात्र है। अद्वैत का कहना है कि संसार उस अर्थ में वास्तविक नहीं है जिस अर्थ में ब्रह्म वास्तविक है। अद्वैत वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करता है। ब्रह्म, जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, परम वास्तविकता है, जिसे वेदांत में पारमार्थिक सत्यम के रूप में जाना जाता है। संसार में अनुभवजन्य वास्तविकता है, जिसे व्यावहारिक सत्यम के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है कि जब तक कोई व्यक्ति अविद्या से मुक्त नहीं हो जाता है और ब्रह्म के रूप में अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान लेता है, तब तक संसार उसके लिए वास्तविक है। यह इस आधार पर है कि वेदों में बताए गए सभी अनुष्ठान, आदेश और निषेध ऐसे व्यक्ति पर लागू होते हैं। दूसरे शब्दों में, जब तक कोई व्यक्ति यह नहीं जान लेता है कि वह शरीर या मन या इंद्रियाँ नहीं बल्कि ब्रह्म है, तब तक संसार उसके लिए वास्तविक है। वेदांत का उद्देश्य मनुष्य को शरीर के साथ अपनी गलत पहचान को छोड़ना और अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना सिखाना है। यहां तात्पर्य मात्र बौद्धिक ज्ञान से नहीं, बल्कि वास्तविक अनुभव से है, जिसे बोध के नाम से भी जाना जाता है।
सत्य के तीसरे क्रम में ऐसे मामले शामिल हैं जैसे रस्सी का साँप जैसा दिखना, मोती के टुकड़े को चांदी समझ लेना और सपनों में अनुभव होना। वास्तविकता के इस क्रम को प्रतिभासिका सत्यम के नाम से जाना जाता है।
[(E =MC2) की समझ]"जिस प्रकार बादल सूरज को ढक देता है, उसी प्रकार माया ने ईश्वर को ढक रखा है। बादल के हट जाते ही सूरज दीखने लगता है, वैसे ही माया के दूर होते ही ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।
" किंवदंती है कि - दूध में पानी मिला हो तो हंस उसमें से दूध पीकर पानी को वैसा ही छोड़ देता है। पर अन्य कोई पक्षी वैसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार ईश्वर (आत्मा या 3rd 'H') माया (2H) के साथ मिले हुए हैं। साधारण मनुष्य उन्हें (आत्मा को) माया से (देह-मन से) अलग कर देख नहीं पाते, किन्तु मनुष्यों में जो परमहंस (ईश्वर के अवतार-सद्गुरु) होते हैं वे ही माया (कामिनी-कांचन, और नामयश में आसक्ति) को त्यागकर ईश्वर (आत्मा) का ग्रहण करते हैं। विनय -पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
वस्तुतः 'नर में ही नारायण हैं ' किन्तु नर-मादा अवस्था में स्वयं का तादात्म्य शरीर से करते हैं , नारायण से नहीं। देह से तादात्म्य को त्याग कर 'मनुष्य' बन जाने तक 'नर' माया (त्रिगुण) की तीन ऐषणाओं में लिप्त रहता है। परमहंस श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदांत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make' में 2H में आसक्ति को त्यागने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, वे ही अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त कर पाते हैं।
" सृष्टि के लिए शिव तथा शक्ति दोनों की आवश्यकता है। कुम्हार सुखी मिट्टी से घड़ा नहीं बना सकता , पानी भी चाहिए। "
माया का स्वरुप क्या है , उसका निरूपण नहीं किया जा सकता। इसीलिए माया को अनिर्वचनीय कहा जाता है। एक ही ब्रह्म अनेक कैसे बन गया ? अर्थात सृष्टि कैसे हुई ? इसके उत्तर में आरम्भवाद और परिणामवाद नामक दो मतवाद पाए जाते हैं। किन्तु अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में इनमें से कोई भी मत स्वीकार्य नहीं है। एक प्रकार की वस्तु से दूसरे प्रकार की वस्तु उत्पन्न होने को आरम्भ कहते हैं। सूत और वस्त्र के जैसा भिन्न वस्तु। और मिट्टी और घड़े के जैसा, दूध से दही बन जाने के जैसा जब कोई एक वस्तु किसी दूसरी वस्तु में परिणत हो जाती है तो उसको परिणाम कहते है। अद्वैत वेदान्त के विवर्तवाद के अनुसार ब्रह्म का परिणाम नहीं हो सकता, परम् सत्य तो अपरिणामी वस्तु है। अतएव यह जगत-ब्रह्माण्ड, ब्रह्म का विवर्त है, परिणाम नहीं है। हाँ वेदांत की दृष्टि में भी जगत ब्रह्म का विवर्त है, और माया (शक्ति) का परिणाम है। इसीलिए माया की सापेक्षिक सत्ता स्वीकृत है, किन्तु माया पारमार्थिक नहीं है। क्योंकि माया उद्गम (origin) समझा नहीं जा सकता , क्योंकि जो उद्गम को खोजेगा (बुद्धि-अहं) वह भी तो माया का ही कार्य है। इसलिए माया अनादि है।
3. जगत और ईश्वर : 'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ' - जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। यह जगत ईश्वर से अलग और कुछ नहीं है। जगत-संसार देश-काल द्वारा परिच्छिन्न और कार्य-कारण के अधीन है। व्यावहारिक जगत में विद्यमान मनुष्य का मन जब तक वह शांत नहीं हो जाता, जब तक इन्द्रिय विषयों की ओर दौड़ता रहेगा, तब तक जगत का अस्तित्व मानना पड़ेगा। मन का विलय होने से ही द्वैत का नाश होगा।
उपनिषदों ब्रह्म को जैसे निर्गुण -निराकार कहा गया है , वैसे ही उनको सगुण -साकार भी कहा गया है। वस्तुतः सगुण और निर्गुण एक ही तत्व है।
4. जीव : अविद्या में प्रतिबिंबित ब्रह्म-चैतन्य को जीव कहते हैं। अर्थात ईश्वर बिम्ब और जीव प्रतिबिम्ब है। ईश्वर और जीव दोनों प्रतिबिम्ब हैं , माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म ईश्वर हैं, अविद्या में प्रतिबिंबित ब्रह्म जीव है।
5. मुक्ति : पंचदशी का मुख्य विषय है - जीवनमुक्ति ! विद्यारण्य स्वामी के मतानुसार ज्ञान होते ही ब्रह्मात्मैक्य-रूपी अपरोक्षानुभूति का उदय होता है। मोक्ष तो आत्मा का स्वभाव ही है , इसलिए कर्म के द्वारा मोक्ष की उत्पत्ति नहीं होती। उत्तम अधिकारी हो , तब 'तत्त्वमसि ' महावाक्य के श्रवण मात्र से ही 'अहं ब्रह्मास्मि ' रूप अपरोक्ष ज्ञान का या निर्विशेष ब्रह्मविद्या का उदय होता है। उसके लिए मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता नहीं होती। जैसे ''दशमस्त्वमसि" के उदाहरण में 'तुम ही दसवें व्यक्ति हो'- श्रवण मात्र से दसम व्यक्ति का संशय दूर होकर आत्मज्ञान हो जाता है। किन्तु हम देखते हैं कि श्वेतकेतु जैसे उत्तम अधिकारी को भी 9 बार 'तत्त्वमसि ' महावाक्य का श्रवण करना पड़ा था। तो हमलोगों जैसे सामान्य साधकों को यह महावाक्य कई बार सुनना होगा, इसमें क्या संदेह है। भामतिकार ने कहा है कि 'श्रवण' द्वारा परोक्ष ज्ञान का ही उदय होता है , उसके बाद मनन और निदिध्यासन के फलस्वरूप [सर्वोपरी माँ सारदा की कृपा से] अपरोक्ष ज्ञान- 'चिदानन्द रूपः शिवोहं' का बोध उत्पन्न हो जाता है। "आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:"-याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं-- अरे यह आत्मा ही देखने (जानने) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है॥ (बृह० उप० २/४/५)
6. जीवनमुक्ति : अद्वैत वेदान्त में मुक्ति या मोक्ष को मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाली अवस्था नहीं माना जाता है। यही इस मत की भिन्नता (Otherness) है। निर्गुण ब्रह्मात्म-विज्ञान में बाधक अज्ञान के नष्ट होते ही मुमुक्षु जीवनमुक्त हो जाता है। किन्तु उसका शरीर , जो प्रबलतम प्रारब्ध रूपी अविद्या का ही कार्य है , वह कुछ समय तक चलता रहता है।
मूल अविद्या माया में आवरण और विक्षेप नामक दो शक्तियाँ रहती हैं। आवरण शक्ति द्वारा ढंका हुआ अज्ञात ब्रह्म जगत अध्यास का कारण है। विक्षेप शक्ति उसी ढंके हुए अज्ञात ब्रह्म में जगत-ब्रह्माण्ड प्रक्षेपित करती है। वही विक्षेप शक्ति जगत का उपादान कारण है , फलस्वरूप वही जीव के संचित और क्रियमान - सभी कर्मों का उपादान हुआ। 'अहं ब्रह्मास्मि' - इस वृत्ति के उदय होते ही मूल अविद्या बाधित हो जाती है। किन्तु प्रारब्ध- कर्म क्रियाशील रहने के कारण वह संचित कर्म की अपेक्षा बलवान होती है। इस अंश को शास्त्र में 'लेश अविद्या' , अज्ञान लेश' , 'अविद्या संस्कार ' आदि कहते हैं। इसलिए जीवनमुक्ति सुख के अनुकूल यह लेश-अविद्या की प्रचेष्टा कुम्हार के चक्के जैसा चलता रहता है , जब तक वह सम्पूर्ण रूप से विनष्ट नहीं होती। "आचार्यवानपुरुषो वेद तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ संपतस्य इति॥" (छान्दोग्य उप० ६/१४/२) अर्थात जैसे कोई व्यक्ति जो अपने लिए सद्गुरु खोज लेता है, सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसके लिए केवल तब तक विलम्ब है जब तक वह शरीर से मुक्त नहीं हो जाता; तब वह ब्रह्म के साथ एक होकर पूर्णता को प्राप्त करता है।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। (कठोपनिषद् १-३-१४) महापुरुष के पास जाओ, उनसे वेद का अर्थ समझो,भागवत का अर्थ समझो। ऐसे नहीं समझ में आ सकता। शास्त्रों में जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त नामक दो प्रकार के मुक्त की बात आती है। जीवन्मुक्त लोग प्रारब्ध क्षय होने तक इस भोगदेह में निवास करते हैं , और शरीर नष्ट होने पर वे विदेह मुक्त हो जाते है।वे शरीर में रहने से भी, उसमें लिप्त नहीं होते। जगत उनके चरण-स्पर्श से धन्य और कृत्य-कृत्य हो जाता है -इसमें क्या संदेह।
7.उपासना : पंचदशी की प्रमुख विशेषताओं में से एक है कि इसमें निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने की बात कही गयी है।
निर्गुणब्रह्मतत्त्वस्य न ह्युपास्तेरसम्भवः ।
सगुणब्रह्मणीवात्र प्रत्ययावृत्तिसम्भवात् ॥ ९/५५॥
जिस प्रकार गुणयुक्त ब्रह्म के संबंध में विचार-धारा को जारी रखना संभव है, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करना भी असंभव नहीं है।
देहाभिमानं विध्वस्य ध्यानादात्मानमद्वयम् ।
पश्यन्मर्त्यो मृतो भूत्वा ह्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ ९/१५७॥
** विवेक-दर्शन के अभ्यास या ध्यान के द्वारा जब देहसे तादात्म्य को नष्ट कर दिया जाता है तब विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर अद्वितीय आत्मा का साक्षात्कार /दर्शन होता है ! ध्यान के द्वारा जब इस विचार को नष्ट कर दिया जाता है कि शरीर ही आत्मा है, तब मनुष्य ब्रह्म/आत्मा का अनुभव करता है, अमर हो जाता है और इसी शरीर में रहते हुए ईश्वर लाभ करता है।
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पंचदशी के लेखक श्री विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) का परिचय :
स्वामी विद्यारण्य का जन्म 11 अप्रैल 1296 को तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती पम्पाक्षेत्र (वर्तमान हम्पी) के किसी गांव में हुआ था। उनके पिता मायणाचार्य उस समय के वेद के प्रकांड विद्वान थे। मां श्रीमती देवी भी विदुषी थी। इन्हीं विद्यारण्य के भाई आचार्य सायण ने चारों वेदों का वह प्रतिष्ठित टीका की थी, जिसे ‘सायण-भाष्य’ के नाम से जाना जाता है। विद्यारण्य का बचपन का नाम माधव था। विद्यारण्य का नाम तो 1331 में उन्होंने तब धारण किया, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। विद्यारण्य स्वामी या श्री माधव विद्यारण्य (1296 --1386 )श्री विद्यारण्य स्वामी का जीवनपुष्प (चरित्र-कमल) चौदहवीं शताब्दी में प्रस्फुटित हुआ था, जब उन्होंने में पंचदशी नामक ग्रंथ की रचना की थी। उन्हें माधवाचार्य के नाम से भी जाना जाता है,वे विद्या के भण्डार-सरस्वती के वरद पुत्र, महान तपस्वी और अद्भुत प्रतिभावान् थे। उन्हें अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रतिपादक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारतीय दर्शन पर कई अन्य ग्रंथ भी लिखे थे। विद्यारण्य ने हरिहर प्रथम के समय से राजाओं की करीब तीन पीढ़ियों का राजनीतिक व सांस्कृतिक निर्देशन किया था। वे विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर राया प्रथम और बुक्का राया प्रथम के गुरु और प्रधानमंत्री दोनों थे। उन्होने सन् १३३६ ई० में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में और विजयनगर साम्राज्य को अभूतपूर्व आकार देने में दोनो भाइयों की भरपूर सहायता की थे। आचार्य शंकर के बाद श्री विद्यारण्य स्वामी को ही अद्वैत वेदान्त का सबसे महान प्रवक्ता माना जाता है। 1372 में करीब 76 वर्ष की आयु में उन्होंने राजनीति से सेवानिवृत्ति ली और इसके करीब 14 वर्ष बाद 1386 में उनका स्वर्गवास हो गया। 1377 से 1386 ईस्वी तक श्री आदि शंकर भगवत्पाद द्वारा स्थापित श्रृंगेरी शारदा पीठ के पीठाधीश्वर रहे थे।
लेकिन जीवनभर वह भारत देश, समाज व संस्कृति के संरक्षण की चिन्ता करते रहे। उन्होंने अद्वैत दर्शन से संबंधित ग्रंथों के साथ सामाजिक महत्व के ग्रंथों का भी प्रणयन किया। अपनी पुस्तक ‘प्रायश्चित सुधानिधि’ में उन्होंने हिन्दुओं के पतन के कारणों की भी अपने ढंग से व्याख्या की है। उन्होंने हिन्दुओं की विलासिता को उनके पतन का सबसे बड़ा कारण बताया। नियंत्रणहीन विलासिता का इस्लामी जीवन हिन्दुओं को बहुत आकर्षित कर रहा था। नाचने गाने वाली दुश्चरित्र स्त्रियों व मुस्लिम वेश्याओं के संग का उन्होंने कठोरता से निषेध किया है।
विद्यारण्य की प्रारंभिक शिक्षा तो उनके पिता के सान्निध्य में ही हुई थी, लेकिन आगे की शिक्षा के लिए वह कांची कामकोटि पीठ के आचार्य विद्यातीर्थ के पास गये थे। इन स्वामी विद्यातीर्थ ने विद्यारण्य को मुस्लिम आक्रमण से देश की संस्कृति और समाज की रक्षा हेतु नियुक्त किया था। विद्यारण्य ने गुरु का आदेश पाकर पूरा जीवन उसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समर्पित कर दिया।
पंचदशी उनके द्वारा लिखे गए रचनाओं में से एक अनुपम रचना है। आशा है कि यह रचना के परिचय के रूप में काम आएगी और पाठक को पद दर पद विस्तृत अध्ययन करने के लिए प्रेरित करेगी।
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॥ पञ्चदशी॥
अथ प्रथमोऽध्याय:॥
प्रत्यक्तत्त्वविवेक:।
तत्त्वविवेकोनाम - प्रथमः परिच्छेदः ।
अध्याय 1
[65-श्लोक]
तत्त्वविवेक - परम सत्य का विवेकपूर्ण ज्ञान
नमः श्रीशंकरानन्दगुरुपादम्बुजन्मने।
सविलासमहामोहग्राहग्रासैकर्मणे ॥ 1॥
मेरे गुरु श्री शंकरानंद के चरण कमलों में वंदन, जिनका एकमात्र कार्य आदि अज्ञान रूपी राक्षस को उसके प्रभाव सहित, विराट् ब्रह्माण्ड को नष्ट करना है। 1.
प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में श्री विद्यारण्य अपने गुरु श्री शंकरानंद को नमन करते हैं , जिन्होंने "अपना जीवन आदि अज्ञान रूपी राक्षस तथा उसकी अभिव्यक्ति, प्रत्यक्ष ब्रह्माण्ड के विनाश के कार्य के लिए समर्पित कर दिया।" यह श्लोक कार्य के सफल समापन के लिए परमपिता परमात्मा से प्रार्थना के रूप में भी कार्य करता है, क्योंकि ' शंकरानंद ' नाम का अर्थ भी परम ब्रह्म है जो स्वयं आनंद है।
तत्पादाम्बुरुहद्वन्द्वसेवानिर्मलचेतसाम्।
सुखबोधाय तत्त्वस्य विवेकोऽयं विधीयते ॥ 2॥
यह सत्य (ब्रह्म) और असत्य (अथवा अयथार्थ) की पहचान के विषय में चर्चा उन लोगों की सहज समझ के लिए आरम्भ की जा रही है, जिनका हृदय गुरु के चरणकमलों की सेवा से शुद्ध हो गया है। दूसरे श्लोक में लेखक कहते हैं कि इस ग्रन्थ में परम सत्य (तत्त्व) का विवेकपूर्ण ज्ञान उन लोगों की सहज समझ के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनका मन अपने गुरु के चरणकमलों की सेवा से शुद्ध हो गया है।
ये दोनों श्लोक निहितार्थ रूप से उन चार विषयों को भी सामने लाते हैं जिन्हें परंपरा के अनुसार किसी भी कार्य ( संबंध-चतुष्टय ) के प्रारंभ में इंगित किया जाना आवश्यक है, अर्थात, कार्य का विषय या विषय-वस्तु, कार्य का उद्देश्य, अधिकारी या वह व्यक्ति जिसके लिए यह अभिप्रेत है, और संबंध या इस कार्य का वेदान्त के साथ संबंध।
'शंकर' का अर्थ है परम तत्त्व , और ' नंद ' का अर्थ है जीवात्मा या व्यक्तिगत आत्मा। इसलिए शंकरानंद शब्द जीवात्मा और परम तत्त्व की एकता को इंगित करता है , जो इस कार्य का विषय - वस्तु है । इस कार्य का उद्देश्य आदि अज्ञान का विनाश है, जो मुक्ति के परम आनंद की प्राप्ति की ओर ले जाता है। जिस व्यक्ति ने मन की शुद्धता प्राप्त कर ली है, वही अधिकारी या वह व्यक्ति है जिसके लिए यह कार्य अभिप्रेत है। सम्बन्ध यह है कि यह कृति अधिकारी की सरल समझ के लिए उपनिषदों की शिक्षाओं को स्पष्ट करती है ।
शब्दस्पर्शादयो वेद्य वैचित्र्याज्जाग्रे पृथक्।
ततोविभक्ता तत्सन्विदैक्यरूप्यन्न भिद्यते ॥ 3॥
जाग्रत अवस्था में जो ज्ञान के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श आदि देखे जाते हैं, वे अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण एक-दूसरे से भिन्न होते हैं; किन्तु इनसे भिन्न चेतना अपनी एकरूपता के कारण भिन्न नहीं होती।
रचना का वास्तविक विषय-वस्तु श्लोक 3 (द्रष्टा -दृश्य विवेक?) से शुरू होता है। हम जाग्रत अवस्था में अपनी इंद्रियों के माध्यम से इस संसार में असंख्य वस्तुओं का अनुभव करते हैं। वस्तुएं एक-दूसरे से भिन्न हैं, लेकिन इंद्रियों के पीछे की चेतना, जो अनुभव की गई वस्तुओं से भिन्न है, केवल एक है। ए की चेतना बी या सी की चेतना से भिन्न नहीं है। चूँकि चेतना में स्वयं कोई विशिष्ट विशेषता नहीं होती, इसलिए यह व्यक्ति से व्यक्ति में भिन्न नहीं हो सकती।
तथा स्वप्नेऽत्र वेद्यन्तु न स्थिरं जागरे स्थिरम्।
तद्भेदोऽतस्तयोः संविदेकरूपा न भिद्यते ॥ 4॥
स्वप्न अवस्था में भी यही स्थिति है। यहाँ देखी गई वस्तुएँ क्षणभंगुर होती हैं और जाग्रत अवस्था में वे स्थायी लगती हैं। इसलिए उनमें अंतर है। लेकिन दोनों अवस्थाओं में (देखने वाली) चेतना में कोई अंतर नहीं होता। वह समरूप होती है। 4.स्वप्न अवस्था के साथ भी यही स्थिति है। स्वप्न में देखी गई वस्तुएँ क्षणिक होती हैं और स्वप्न देखने वाले के जागने पर गायब हो जाती हैं, लेकिन जाग्रत अवस्था में देखी गई वस्तुएँ अपेक्षाकृत स्थायी होती हैं। लेकिन दोनों अवस्थाओं में चेतना एक ही होती है।
सुप्तोत्त्तस्य सौषुप्ततमोबोधो भवेत्स्मृतिः।
सा चावबुद्धविषयावबुद्धं तत्तदा ततः ॥ 5॥
गहरी नींद से जागने वाला व्यक्ति सचेत रूप से उस अवस्था के दौरान अपनी अनुभूति की कमी को याद रखता है। स्मरण में पहले अनुभव की गई वस्तुएँ शामिल होती हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि गहरी नींद में भी 'ज्ञान की कमी' का अनुभव होता है। 5. जब व्यक्ति गहरी नींद से जागता है तो उसे याद आता है कि वह सुखपूर्वक सोया था और नींद में उसे कुछ भी पता नहीं था। स्मरण केवल पूर्व अनुभव की गई वस्तुओं का ही संभव है। अतः स्पष्ट है कि गहरी नींद में ज्ञान का अभाव और सुख का अनुभव होता है।
सबोधोविषयाद्भिन्नो न बोधात्स्वप्नबोधवत्।
एवं स्थानत्रयेऽपयेका संवित्तद्वद्दिनान्तरे ॥ 6॥
यह चेतना (गहरी नींद की अवस्था में) वस्तु (यहाँ, अज्ञान) से तो भिन्न है, लेकिन स्वयं से भिन्न नहीं है, जैसा कि स्वप्न की अवस्था में चेतना है। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चेतना (एकरूप होने के कारण) एक ही है। अन्य दिनों में भी ऐसा ही है। 6.तीनों अवस्थाओं में एक ही चेतना विद्यमान है, जैसा कि इस तथ्य से सिद्ध होता है कि व्यक्ति सभी अवस्थाओं में खुद को एक ही मानता है। इस प्रकार यह चेतना सभी व्यक्तियों में और सभी समयों में एक ही है। इसलिए यह केवल एक है और शाश्वत है, जिसका कोई आरंभ या अंत नहीं है। यह स्वयं को प्रकट करने वाली है और इसे स्वयं को या अपने विषयों को प्रकट करने के लिए किसी अन्य चेतना की आवश्यकता नहीं है।
मासशब्दयुगकल्पेषु गतागम्येष्वनेकधा।
नोदेति नास्तमेत्येका संविदेषा स्वयंप्रभा ॥ 7॥
अनेक महीनों, वर्षों, युगों और विश्व चक्रों, भूत और भविष्य में चेतना एक ही है; यह न तो उदय होती है और न ही अस्त होती है (सूर्य के विपरीत); यह स्वयं को प्रकट करती है। यह चेतना ही तीनों अवस्थाओं में अपरिवर्तित रहती है।
स्वप्न अवस्था में इन्द्रियाँ नहीं होतीं और गहरी नींद में मन का अनुभव नहीं होता। इसलिए यह चेतना प्रत्येक जीव का अपरिवर्तनीय सार है और इसीलिए इसे आत्मा कहा जाता है।
इयमात्मा परमानंदः परमप्रेमस्पदं यतः।
मा न भुवं हि भूयासमिति प्रेमात्मनिक्ष्यते ॥ 8॥
यह चेतना, जो हमारी आत्मा है, परम आनन्द स्वरूप है, क्योंकि यह महानतम प्रेम की वस्तु है, और आत्मा के प्रति प्रेम प्रत्येक मनुष्य में देखा जाता है, जो कामना करता है, 'मैं कभी न समाप्त होऊँ', 'मैं सदैव विद्यमान रहूँ'। 8.
यह आत्मा या सभी जीवों का सार परम आनंद की प्रकृति का है, क्योंकि यह बिना शर्त प्रेम का विषय है। अन्य सभी वस्तुओं और व्यक्तियों से तभी प्रेम किया जाता है जब वे व्यक्ति के स्वयं के सुख के लिए अनुकूल हों। यहाँ तक कि जब व्यक्ति का अपना शरीर दुख देता है तो वह भी नापसंद हो सकता है। लेकिन आत्मा कभी नापसंद नहीं होती; इसके विपरीत वह अकेली प्रेम की शाश्वत वस्तु है। कभी-कभी कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह अपने आप से घृणा करता है और अपने जीवन का अंत करना चाहता है, लेकिन ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह अपने शरीर से अपनी पहचान करता है जो रोग, गरीबी या अन्य कारणों से दुख का कारण है। इस तथ्य से कि आत्मा सर्वोच्च प्रेम की वस्तु है, यह निष्कर्ष निकलता है कि यह सर्वोच्च आनंद की प्रकृति का है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य हमेशा सुख चाहता है।
तत्प्रेमात्मामन्यत्र नैवमन्यर्थात्मनि।
अतस्तत्परमन्तेन परमानन्दतात्मनः ॥ 9॥
दूसरों को आत्मा के लिए प्रेम किया जाता है, परन्तु आत्मा को किसी अन्य के लिए प्रेम नहीं किया जाता। इसलिए आत्मा के प्रति प्रेम सर्वोच्च है। इसलिए आत्मा सर्वोच्च आनंद की प्रकृति वाली है। 9.अन्य सभी चीजें, जैसे धन, मकान, बच्चे इत्यादि केवल इसलिए चाही जाती हैं क्योंकि इनसे व्यक्ति को अधिक खुशी मिलती है; लेकिन खुशी की चाह केवल अपने लिए होती है।
इस प्रकार तर्क द्वारा यह स्थापित किया गया है कि व्यक्तिगत आत्मा अस्तित्व, चेतना और आनंद की प्रकृति की है। उपनिषदों में घोषणा की गई है कि परम ब्रह्म भी उसी प्रकृति का है और व्यक्तिगत आत्मा और परम ब्रह्म एक ही हैं।
यदि कोई वस्तु किसी विशेष स्थान पर मौजूद है, लेकिन वास्तव में दिखाई नहीं देती है, तो यह किसी अवरोध जैसे अंधकार या बीच में दीवार के कारण होना चाहिए। इसी तरह कोई अवरोध अवश्य होगा जिसके कारण आत्मा, विद्यमान होने के बावजूद, हमें दिखाई नहीं देती। यह अवरोध अविद्या है । यह अविद्या अनादि है, इस अर्थ में कि हम यह नहीं जान सकते कि इसकी उत्पत्ति कैसे और कब हुई, क्योंकि यह तार्किक रूप से समय से पहले है।
सत्त्वशुद्धविशुद्धिभ्यां मायाऽविद्ये च ते मते।
मायाबिम्बोवाशिलेक्य तं स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः ॥ 16॥
When the element of sattva is pure, Prakriti is known as Maya; when impure (being mixed up with rajas and tamas) it is called Avidya. Brahman, reflected in Maya, is known as the omniscient Isvara, who controls Maya. 16
.जब सत्व तत्व शुद्ध होता है, तो प्रकृति माया कहलाती है; जब अशुद्ध (रजस और तमस् से मिश्रित) होती है, तो उसे अविद्या कहते हैं। माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म को सर्वज्ञ ईश्वर कहते हैं, जो माया को नियंत्रित करते हैं।
प्रकृति तीन गुणों से बनी है , अर्थात् सत्व, रजस और तमस और इसमें ब्रह्म का प्रतिबिंब है जो शुद्ध चेतना और आनंद है। यह प्रकृति दो प्रकार की है। जब सत्व तत्व शुद्ध होता है, इसे माया के रूप में जाना जाता है ; जब अशुद्ध, रजस और तमस के मिश्रण के कारण, इसे अविद्या कहा जाता है। माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म सर्वज्ञ ईश्वर है , जो माया को नियंत्रित करता है।
अविद्यावशगस्त्वन्यस्तद्वैचित्र्यादनेकधा ।
सा कारणशरीरं स्यात्प्राज्ञस्तत्राभिमानवान् ॥ १७॥
लेकिन दूसरा (अर्थात जीव, जो अविद्या में प्रतिबिम्बित ब्रह्म है) अविद्या (अशुद्ध सत्व) के अधीन है। जीव रजस और तम के सत्व के साथ मिश्रण (डिग्री) के कारण विभिन्न श्रेणियों का है। अविद्या (अज्ञान) कारण शरीर है। जब जीव इस कारण शरीर के साथ अपनी पहचान करता है तो उसे प्रज्ञा कहते हैं। 17.
But the other (i.e. the Jiva, which is Brahman reflected in Avidya) is subjected to Avidya (impure sattva). The Jiva is of different grades due to (degrees of) admixture (of rajas and tamas with sattva). The Avidya (nescience) is the causal body. When the Jiva identifies himself with this causal body he is called Prajna. 17.
अविद्या (अशुद्ध प्रकृति) में प्रतिबिंबित ब्रह्म जीव है , जो माया के नियंत्रण में है । जीव संख्या में असंख्य हैं और रजस और तमस के मिश्रण की विभिन्न डिग्री के कारण विभिन्न ग्रेड के हैं। अविद्या जीव का कारण शरीर (causal body) है ।
' शरीर ' शब्द का अर्थ, व्युत्पत्ति के अनुसार , 'जो नाशवान है' है। अविद्या को शरीर इसलिए कहा जाता है क्योंकि आत्म-साक्षात्कार के समय इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसे कारण या कारण इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का कारण है। जब जीव अपने आपको कारण शरीर से पहचान लेता है तो उसे प्रज्ञा कहते हैं । यह गहरी नींद की अवस्था में होता है जब इंद्रियाँ और मन दोनों काम करना बंद कर देते हैं और केवल अविद्या रह जाती है ।
तमः प्रधानप्रकृतेस्तद्भोगायेश्वराज्ञया ।
वियत्पवनतेजोऽम्बु भुवोभूतानि जज्ञिरे ॥ १८॥
ईश्वर की आज्ञा से (तथा) प्रज्ञा के अनुभव के लिए प्रकृति के उस भाग से, जिसमें तम प्रधानता है, पाँच सूक्ष्म तत्त्व - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - उत्पन्न हुए।
At the command of Isvara (and) for the experience of प्रज्ञा Prajna the five subtle elements, ether, air, fire, water and earth, arose from the part of Prakriti in which tamas predominates. 18.
ईश्वर की आज्ञा से प्रकृति के उस भाग से आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नामक पाँच सूक्ष्म तत्त्व उत्पन्न हुए जिसमें तमोगुण प्रधान है, ताकि प्रत्येक जीव अपने कर्म के अनुसार अनुभव प्राप्त कर सके।
सत्त्वांशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमाद्धीन्द्रियपञ्चकम् ।
श्रोत्रत्वगक्षिरसनघ्राणाख्यामुपजायते ॥ १९॥
From the sattva part of the five subtle elements of Prakriti arose in turn the five subtle sensory organs of hearing, touch, sight, taste and smell. 19. पाँच सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियाँ, अर्थात् श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और घ्राण, क्रमशः पाँच सूक्ष्म तत्त्वों, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के सत्व भाग से उत्पन्न हुईं।
तैरन्तःकरणं सर्वैर्वृत्तिभेदेन तद्द्विधा ।
मनोविमर्शरूपं स्याद्बुद्धिः स्यान्निश्चयात्मिका ॥ २०॥
From a combination of them all (i.e. sattva portions of the five subtle elements) arose the organ of inner conception called antahkarana. Due to difference of function it is divided into two. Manas (mind) is that aspect whose function is doubting and buddhi (intellect) is that whose functions are discrimination and determination. 20.
पाँचों सूक्ष्म तत्त्वों के सत्व भागों के सम्मिलन से अंतःकरण या मन उत्पन्न हुआ। यद्यपि मन एक ही है, फिर भी उसके द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कार्यों के अनुसार उसे अलग-अलग नाम दिए गए हैं। जब मन विचार करता है तो उसे मनस कहते हैं । जब वह किसी निर्णय पर पहुँचता है तो उसे बुद्धि कहते हैं । सूचनाओं और अनुभवों को संग्रहीत करने के कार्य को चित्त कहते हैं। इन सभी कार्यों के पीछे जो 'मैं-पन' की धारणा है उसे अहंकार कहते हैं ।
रजोंऽशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमात्कर्मेन्द्रियाणि तु ।
वाक्पाणिपादपायूपस्थाभिधानानि जज्ञिरे ॥ २१॥
From the rajas portion of the five elements arose in turn the organs of actions known as the organ of speech, the hands, the feet, and the organs of excretion and generation. 21.
सूक्ष्म तत्त्वों के रजस भाग से सूक्ष्म कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं - आकाश के रजस भाग से वाणी, वायु के रजस भाग से हाथ, अग्नि के रजस भाग से पैर, जल के रजस भाग से मलोत्सर्जन तथा पृथ्वी के रजस भाग से जननेन्द्रिय उत्पन्न हुई। (ध्यान रहे - ये वे भौतिक इन्द्रियाँ नहीं हैं, जिनके ये नाम हैं, बल्कि सूक्ष्म शरीर में इनके सूक्ष्म प्रतिरूप हैं। इन इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता क्रमशः अग्नि , इन्द्र, विष्णु , यम तथा प्रजापति हैं। )
तैः सर्वैः सहितैः प्राणोवृत्तिभेदात्स पञ्चधा ।
प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ च ते पुनः ॥ २२॥
From a combination of them all (i.e. the rajas portions of the five subtle elements) arose the vital air (Prana). Again, due to difference of function it is divided into five. They are Prana, Apana, Samana, Udana and Vyana. 22.पाँच सूक्ष्म तत्त्वों के रजस अंशों के योग से प्राण या प्राण वायु उत्पन्न हुई। इस प्राण को इसके द्वारा किए जाने वाले पाँच अलग-अलग कार्यों के अनुसार पाँच अलग-अलग नाम दिए गए हैं - प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान।
[नोट-- इन कार्यों का वर्णन श्री शंकराचार्य के प्रश्नोपनिषद 3.5 में इस प्रकार किया गया है :--- वह ( प्राण ) अपान को, अपना एक भाग, दो निचले छिद्रों में रखता है , जो मल को बाहर निकालने के कार्य में लगा हुआ है। प्राण स्वयं, जो प्रभु का स्थान लेता है, आंखों और कानों में रहता है और मुंह और नाक के माध्यम से बाहर निकलता है। नाभि में समान है, जिसे ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह खाया या पिया गया सब कुछ आत्मसात करता है, शरीर के सभी अंगों में उन्हें समान रूप से वितरित करता है और पाचन को प्रभावित करता है। उदान , प्राण का एक और भाग , पूरे शरीर में घूमता है और ऊपर की ओर कार्य करता है । यह मृत्यु के समय आत्मा को शरीर से बाहर निकालता है और व्यक्ति के पुण्य और पाप के अनुसार उसे अन्य लोकों में ले जाता है । व्यान प्राण और अपान को नियंत्रित करता है सांख्य के अनुसार , पाँच और सहायक प्राण हैं जिन्हें नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय के नाम से जाना जाता है। उनके कार्य क्रमशः उल्टी, पलक झपकाना, भूख पैदा करना, जम्हाई पैदा करना और शरीर को पोषण देना हैं।
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया ।
शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तल्लिङ्गमुच्यते ॥ २३॥
The five sensory organs, the five organs of action, the five vital airs, mind and intellect, all the seventeen together from the subtle body, which is called the Suksma or linga sarira. 23 पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण ( प्राण , अपान , संपान , उदा और व्यान ) , मन और बुद्धि - ये सत्रह मिलकर सूक्ष्म शरीर बनाते हैं, जिसे सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहते हैं । (यद्यपि चित्त और अहंकार , जो कि पहले बताए गए अंतःकरण के ही नाम हैं , यहाँ विशेष रूप से नहीं बताए गए हैं, फिर भी उन्हें भी मन और बुद्धि में ही सम्मिलित समझना चाहिए)।
प्राज्ञस्तत्राभिमानेन तैजसत्वं प्रपद्यते ।
हिरण्यगर्भतामीशस्तयोर्व्यष्टिसमष्टिता ॥ २४॥
By identifying himself with the subtle body (and thinking it to be his own), Prajna becomes known as Taijasa, and Isvara as Hiranyagarbha. Their difference is the one between the individual and the collective (i.e. one is identified with a single subtle body and the other with the totality of subtle bodies). 24.
जब जीव अपने आपको सूक्ष्म शरीर से पहचानता है, तो उसे तैजस कहते हैं। यह स्वप्न की अवस्था में होता है। सूक्ष्म शरीरों की समग्रता से पहचाने जाने वाले जीव को हिरण्यगर्भ कहते हैं । इन दोनों के बीच का अंतर वैसा ही है जैसा कि व्यक्ति और समूह के बीच का अंतर है।
हिरण्यगर्भ को ' समष्टि ' या 'समग्रता' इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह ब्रह्मांड के सभी सूक्ष्म शरीरों से अपनी पहचान रखता है। तैजस अपने आपको केवल अपने सूक्ष्म शरीर से ही पहचानता है और इसलिए उसे ' व्यष्टि' या 'व्यक्ति' कहते हैं ।
तद्भोगाय पुनर्भोग्यभोगायतनजन्मने ।
पञ्चीकरोति भगवान्प्रत्येकं वियदादिकम् ॥ २६॥
To provide the jivas with the objects of enjoyments and make the bodies fit for such enjoyment. the all powerful Easwara has made each of the subtle elements part-take of the nature of all others.
26.पाँच सूक्ष्म तत्वों के अस्तित्व में आने के बाद, तत्वों के संयोजन की एक प्रक्रिया हुई। इस प्रक्रिया को 'पंचगुणन' या ' पश्चिकरण ' के रूप में जाना जाता है । जो हुआ वह यह था कि प्रत्येक सूक्ष्म तत्व को पहले दो बराबर हिस्सों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक तत्व के आधे हिस्सों में से एक को फिर चार बराबर भागों में विभाजित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक तत्व के चार आठवें हिस्से बन गए। फिर प्रत्येक तत्व के दूसरे आधे हिस्से को अन्य प्रत्येक तत्व के आठवें हिस्से के साथ जोड़ा गया। इस प्रकार, 'पृथ्वी' तत्व का आधा हिस्सा अन्य चार तत्वों के आठवें हिस्से के साथ मिलकर स्थूल तत्व 'पृथ्वी' बन गया। यही बात अन्य तत्वों के साथ भी हुई। परिणामस्वरूप, प्रत्येक स्थूल तत्व में उसका आधा हिस्सा और अन्य चार तत्वों में से प्रत्येक का आठवाँ हिस्सा होता है। ब्रह्मांड में अनुभव की सभी स्थूल वस्तुएँ और सभी जीवित प्राणियों के सभी स्थूल शरीर इन पाँच स्थूल तत्वों से बने हैं।
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि सभी सूक्ष्म शरीरों से पहचाने जाने वाले ईश्वर को हिरण्यगर्भ कहा जाता है । वही ईश्वर जो स्थूल शरीरों की समग्रता से पहचाने जाते हैं, वैश्वानर कहलाते हैं । जब जीव अपने स्थूल शरीर से अपनी पहचान करता है तो उसे विश्व कहते हैं।
उपदेशमवाप्यैवमाचार्यात्तत्त्वदर्शिनः ।
पञ्चकोषविवेकेन लभन्ते निर्वृतिं पराम् ॥ ३२॥
Similarly, the Jivas (finding themselves in the whirlpool of samsara), receive the appropriate initiation from a teacher who himself has realised Brahman, and differentiating the Self from its five sheaths attain the supreme bliss of release. 32.
जीव एक योनि से दूसरी योनि में असहाय होकर जाता है , जैसे कि नदी में गिरे कीड़े एक भंवर से दूसरे भंवर में बह जाते हैं। अनेक जन्मों में किए गए अच्छे कर्मों के परिणामस्वरूप, किसी विशेष जीव को ऐसे गुरु से दीक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है, जिसने स्वयं ब्रह्म को जान लिया हो। तब वह अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर को बनाने वाले पाँच कोशों से स्वयं को अलग कर लेता है और मुक्ति का परम आनंद प्राप्त करता है।
अन्नं प्राणो मनो बुद्धिरानन्दश्चेति पञ्च ते ।
कोषास्तैरावृतः स्वात्मा विस्मृत्या संसृतिं व्रजेत् ॥ ३३॥
अन्न, प्राण, मन, बुद्धि और आनन्द ये आत्मा के पाँच कोष हैं। इनमें आवृत होकर वह अपना वास्तविक स्वरूप भूल जाता है और देहान्तरण को प्राप्त हो जाता है।
The five sheaths of the Self are those of the food, the vital air, the mind, the intellect and bliss. Enveloped in them, it forgets its real nature and becomes subject to transmigration. 33.
ये पाँच कोश अन्न, प्राण, मन, बुद्धि और आनंद हैं, जिन्हें वेदांत में क्रमशः अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश (या कारण शरीर अविद्या ???) के रूप में जाना जाता है। जीव इन पाँच कोशों में लिपटा हुआ अपने आप को इनके साथ तादात्म्य कर लेता है और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। यह बार-बार जन्म और मृत्यु का कारण है, जिसे देहान्तरण के रूप में जाना जाता है।
पांच कोष
स्थूल (या भौतिक) शरीर, जो स्थूल तत्वों, यानी पंचम तत्वों का उत्पाद है, अन्नमय कोष कहलाता है। पाँच प्राण और पाँच कर्मेन्द्रियाँ, जो प्रकृति के रजस पहलू के उत्पाद हैं, मिलकर प्राणमय कोष बनाते हैं । चिंतनशील मन (मनस) और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जो प्रकृति के सत्व पहलू के उत्पाद हैं, मिलकर मनोमय कोष बनाते हैं । बुद्धि या निर्णायक बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियों के साथ मिलकर बुद्धिमय कोष या विज्ञानमय कोष बनाती है । कारण शरीर (अविद्या या कारण शरीर ) आनंदमय कोष या आनंदमय कोष है ।
आत्मा जो परब्रह्म के समान है, उसे पाँच कोशों से इस प्रकार अलग करके अनुभव करना चाहिए।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पञ्चकोष विवेकतः ।
स्वात्मानं तत उद्धृत्य परं ब्रह्म प्रपद्यते ॥ ३७॥
By differentiating the Self from the five sheaths through the method of distinguishing between the variable and the invariable, one can draw out one’s own Self from the five sheaths and attain the supreme Brahman. 37.
जाग्रत अवस्था में जो स्थूल शरीर होता है, स्वप्न अवस्था में उसका अनुभव नहीं होता, क्योंकि उस समय ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। सुषुप्ति अवस्था में न तो स्थूल शरीर का अनुभव होता है, न सूक्ष्म शरीर का, क्योंकि उस समय मन भी सुप्त अवस्था में रहता है। तथापि साक्षी आत्मा, जो शुद्ध चेतना है, तीनों अवस्थाओं में विद्यमान रहती है। यद्यपि सुषुप्ति अवस्था में कारण शरीर (अविद्या या अविद्या) विद्यमान रहती है, तथापि गहन ध्यान की अवस्था में उसका निषेध हो जाता है, परन्तु आत्मा उस अवस्था में भी विद्यमान रहती है।
यथामुञ्जादिषीकैवमात्मा युक्त्या समुद्धृतः ।
शरीरत्रितयाद्धीरैः परं ब्रह्मैव जायते ॥ ४२॥
As the slender, internal pith of munja grass can be detached from its coarse external covering, so the Self can be distinguished through reasoning from the three bodies (or the five sheaths). Then the Self is recognised as the supreme consciousness. 42.
इस प्रकार पाँचों कोश अनित्य प्रतीत होते हैं और आत्मा ही नित्य है। इस प्रकार आत्मा को पाँच कोशों (या तीन शरीरों) से तर्क द्वारा उसी प्रकार अलग किया जा सकता है, जिस प्रकार मुंज घास का पतला, आंतरिक भाग उसके स्थूल बाह्य आवरण से अलग होता है।
परापरात्मनोरेवं युक्त्या सम्भावितैकता ।
तत्त्वमस्यादिवाक्यैः सा भागत्यागेन लक्ष्यते ॥ ४३॥
In this way the identity of Brahman and Jiva is demonstrated through reasoning. This identity is taught in the sacred texts in sentences such as’That thou art’. Their method of explaining the truth is through the elimination of incongruous attributes. 43उपनिषदों में तत्त्वमसि 'तुम वही हो' जैसे वाक्यों के माध्यम से व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्म की पहचान सिखाई गई है।
माया के तामसिक पहलू से जुड़ा ब्रह्म ब्रह्मांड का उपादान-कारण है। माया के सात्विक पहलू से जुड़ा ब्रह्म ब्रह्मांड का निमित्त-कारण है। माया से जुड़ा (या उसमें प्रतिबिम्बित) ब्रह्म इश्वर है और इस प्रकार वह ब्रह्मांड का उपादान और निमित्त दोनों ही कारण है। महावाक्य 'वह तू है' वाक्य में 'वह' शब्द से मुख्य रूप से इश्वर ही निरूपित होता है।
अविद्या में प्रतिबिम्बित ब्रह्म जीव है। उपर्युक्त वाक्य में ' तू ' शब्द का प्राथमिक अर्थ 'जीव' है । माया और अविद्या के बीच का अंतर पहले ही बताया जा चुका है।
यह 'वह देवदत्त है' वाक्य में, 'वह' शब्द देवदत्त नामक व्यक्ति को संदर्भित करता है जो किसी भूतकाल और स्थान से जुड़ा हुआ है, जबकि 'यह' शब्द वर्तमान समय और स्थान पर देखे जाने वाले व्यक्ति को संदर्भित करता है। यह वाक्य 'यह' और 'वह' के विशेष अर्थों को अनदेखा करके दो अलग-अलग समय और स्थानों पर देखे जाने वाले व्यक्ति की पहचान को सामने लाता है। इसी तरह, वाक्य 'वह तू है' माया और अविद्या को नकार कर ब्रह्म और जीव की पहचान को सामने लाता है , जो दोनों ' मिथ्या ' हैं ( यानी, जिन्हें वास्तविक या अवास्तविक के रूप में नहीं देखा जा सकता)। इस प्रकार जीव और ईश्वर दोनों का सत्य अविभाज्य परम ब्रह्म है, जो शुद्ध अस्तित्व, चेतना और आनंद है।
{ श्री शंकराचार्य के विवेकचुड़ामणि के श्लोक 243 से 251 पर श्री जगद्गुरु चंद्रशेखर भारती की टिप्पणी के आधार पर इसे आगे विस्तार से समझाया गया है। तत् शब्द ब्रह्म के लिए है, जो सृष्टि, पालन और प्रलय (अर्थात् इस्वर) के कार्यों द्वारा योग्य है। त्वम् शब्द अत्मा के लिए है , जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (अर्थात् जीव) की मानसिक अवस्थाओं द्वारा योग्य है। ये दोनों परस्पर विरोधी गुण वाले हैं, जैसे जुगनू और सूर्य, जैसे सेवक और राजा, जैसे कुआँ और समुद्र तथा जैसे अणु और पृथ्वी (श्लोक 244)। इन दोनों के बीच कोई तादात्म्य नहीं हो सकता, जो कि तत् और त्वम् शब्दों के शाब्दिक अर्थ ( वाक्यार्थ ) हैं। तादात्म्य केवल उनके निहित अर्थों ( लक्ष्यार्थ ) के बीच है । शाब्दिक अर्थों के बीच विरोध उपाधि के कारण है , क्योंकि तत् का शाब्दिक अर्थ ब्रह्म है, जिसके साथ माया की उपाधि या सीमित सहायक वस्तु है और त्वम् का शाब्दिक अर्थ अत्मा है , जिसके साथ पाँच कोशों की सीमित सहायक वस्तु है। जब ये सीमित सहायक वस्तुएँ, जो निरपेक्ष दृष्टिकोण से वास्तविक नहीं हैं, नकार दी जाती हैं, तो न तो ईश्वर है और न ही जीव । तत् और त्वम् (वह और तू) दो शब्दों को उनके निहित अर्थों से ठीक से समझना चाहिए, ताकि उनके बीच पूर्ण पहचान के महत्व को समझा जा सके। यह न तो उनके शाब्दिक अर्थ को पूरी तरह से नकार कर किया जाना चाहिए और न ही पूरी तरह से अस्वीकार करके, बल्कि दोनों के संयोजन से किया जाना चाहिए।
निहित अर्थ तीन प्रकार के होते हैं:-- जहल-लक्षणा, अजहल-लक्षणा और जहदजहल-लक्षणा।
जहाल-लक्षणा - शाब्दिक अर्थ को त्यागकर उसके अनुरूप कोई दूसरा अर्थ अपनाना होता है। इसका एक उदाहरण है 'गंगायम घोषा ' , जिसका शाब्दिक अर्थ है ' गंगा नदी पर बसा एक गांव '। चूंकि नदी पर कोई गांव नहीं हो सकता, इसलिए नदी का किनारा ही अभिप्रेत है। यहां ' गंगा ' शब्द का शाब्दिक अर्थ पूरी तरह त्याग देना होगा और निहित अर्थ 'किनारे' को अपनाना होगा।
अजहल-लक्षणा-- शब्द के शाब्दिक अर्थ को छोड़े बिना, उसमें निहित अर्थ को भी अपनाया जाता है, ताकि व्यक्त किए जाने वाले अर्थ को प्राप्त किया जा सके। इसका एक उदाहरण है, वाक्य, 'लाल दौड़ रहा है', जिसका उद्देश्य यह बताना है कि लाल घोड़ा दौड़ रहा है। यहाँ 'लाल' शब्द का शाब्दिक अर्थ बरकरार रखा गया है और वाक्य का सही अर्थ प्राप्त करने के लिए निहित शब्द 'घोड़ा' जोड़ा गया है।
जहादाजहाल-लक्षणा-- यहाँ शाब्दिक अर्थ का एक भाग रखा जाता है और दूसरा भाग छोड़ दिया जाता है। 'यह वह देवदत्त है' वाक्य का अर्थ इस लक्षणा के प्रयोग से लगाया गया है । इस वाक्य से जो अर्थ व्यक्त करना है वह यह है कि वर्तमान समय में वर्तमान स्थान पर जो देवदत्त दिखाई दे रहा है, वह वही व्यक्ति है जो पहले किसी अन्य स्थान पर देखा गया था। 'यह' शब्द का शाब्दिक अर्थ वर्तमान समय और स्थान से जुड़ा देवदत्त है। 'वह' शब्द का शाब्दिक अर्थ पिछले समय और किसी अन्य स्थान से जुड़ा देवदत्त है। चूँकि यह वाक्य अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थानों पर देखे गए व्यक्ति की पहचान बताने का दावा करता है, इसलिए 'यह' और 'वह' शब्दों द्वारा बताए गए स्थान और समय के संदर्भ को त्यागकर और देवदत्त के संदर्भ को बनाए रखने से हमें यह अर्थ प्राप्त होता है। इसे भगत्याग-लक्षणा भी कहते हैं । इस विधि का प्रयोग करके तत्त्वमसि वाक्य का अर्थ प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार 'यह वह देवदत्त है' वाक्य में परस्पर विरोधी गुणों को अस्वीकार करके एकता बताई गई है, उसी प्रकार 'वह तू है' वाक्य में परस्पर विरोधी गुणों (अर्थात सीमित करने वाले उपबंध) को अस्वीकार कर दिया गया है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि जीव और ब्रह्म मूलतः एक ही हैं, जब सीमित करने वाले उपबंध, माया और पाँच कोश अस्वीकार कर दिए जाते हैं।
जीवात्मा और ब्रह्म की एकता का बोध ही मोक्ष है। यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जो मृत्यु के बाद किसी दूसरे लोक में प्राप्त की जा सकती है, बल्कि यह तो जीवन में ही प्राप्त की जा सकती है। इसे जीवनमुक्ति कहते हैं। इस बोध के तीन साधन हैं - श्रवण , मनन और निदिध्यसन । ' श्रवण ' का अर्थ केवल उपनिषदों का वर्णन करने वाले गुरु को सुनना नहीं है , बल्कि इस निष्कर्ष पर पहुँचना है कि सभी उपनिषदों का तात्पर्य जीवात्मा और ब्रह्म की एकता है । 'चिंतन' का अर्थ है गुरु से सुनी हुई बातों को मन में तर्क-वितर्क के माध्यम से रचनात्मक ढंग से मथना और उसकी सत्यता के बारे में निष्कर्ष पर पहुँचना। 'ध्यान' का अर्थ है मन को ब्रह्म के विचार पर स्थिर रखना, अन्य किसी विचार से बाधित न होना।
श्रवण -मनन : 'सुनने' आदि से प्राप्त परिणाम।
'श्रवण' से यह संदेह दूर हो जाता है कि उपनिषदिक पाठ जो प्रमाण (ज्ञान का स्रोत) है, ब्रह्म की व्याख्या करता है या किसी और चीज़ की। इस संदेह को प्रमाण असम्भवना या प्रमाण के बारे में संदेह के रूप में जाना जाता है ।
मनन या 'चिंतन' इस संदेह को दूर करता है कि ब्रह्म और जीव एक हैं या नहीं। इस संदेह को प्रमेय असम्भवना कहते हैं।
ध्यान का उद्देश्य मन की एकाग्रता विकसित करके गलत धारणाओं को दूर करना है, जैसे कि 'ब्रह्मांड वास्तविक है; ब्रह्म और जीव के बीच का अंतर वास्तविक है', जो उपनिषदों की शिक्षाओं के विपरीत हैं । ऐसी गलत धारणाओं को विपरीतभावना के नाम से जाना जाता है ।
इस प्रकार श्रवण, मनन और निदिध्यासन का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में आने वाली शंकाओं और गलत धारणाओं रूपी बाधाओं को दूर करना है।
जब मन धीरे-धीरे ध्यानी के विचारों और ध्यान की क्रिया को त्याग देता है और ध्यान का विषय आत्मा में लीन हो जाता है, तो उसे समाधि की अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में मन एक ऐसे स्थान पर रखे दीपक की लौ की तरह स्थिर होता है जहाँ हवा बिल्कुल नहीं आती। इसका उल्लेख भगवद्गीता, अध्याय 6, श्लोक 19 में किया गया है। यद्यपि इस अवस्था में आत्मा को विषय मानकर मानसिक कार्य का कोई व्यक्तिपरक ज्ञान नहीं होता है, फिर भी समाधि से उभरने के बाद स्मरण से इस अवस्था में इसके निरंतर अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है। इससे पता चलता है कि समाधि में केवल मन की वृत्तियाँ समाप्त होती हैं, लेकिन मन स्वयं विलीन नहीं होता है। ऐसी समाधि से, जिसे निर्विकल्प समाधि के रूप में जाना जाता है, सभी संचित कर्म और सभी इच्छाएँ, जो देहांतरण अस्तित्व के बीज हैं, नष्ट हो जाती हैं। तब महावाक्य 'वह तू है' ब्रह्म की प्रत्यक्ष प्राप्ति को जन्म देता है। गुरु से प्राप्त ब्रह्म का अप्रत्यक्ष ज्ञान, उस ज्ञान की प्राप्ति तक किए गए सभी पापों को जला देता है। ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति, अविद्या को पूरी तरह से नष्ट कर देती है, जो बार-बार जन्म-मरण के चक्र का मूल कारण है।
इस प्रकार आत्मा को पांच कोशों से अलग करना चाहिए और बंधन से मुक्ति पाने के लिए मन को आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए।
अध्याय 1 का अंत
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1.पंचदशी के प्रत्यक तत्त्व विवेक प्रकरण में, विद्यार्थी को गुरु के मार्गदर्शन में परोक्ष ज्ञान हासिल करने के बाद, ब्रह्मनिष्ठ पुरुष से मार्गदर्शन मिलता है. इसके बाद, अपरोक्ष ज्ञान घटित होता है और शिष्य को आत्मा / ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होता है।