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सोमवार, 20 जनवरी 2025

🔱पंचदशी- 6🔱चित्रदीप - शुद्ध चेतना रूपी (सिनेमा) परदे पर चित्रांकन [The Picture on Pure Consciousness]

 चित्रदीपोनाम - षष्ठः परिच्छेदः । [290-श्लोक] 

पंचदशी

अध्याय 6

[290 -श्लोक ]

चित्रदीप - शुद्ध चेतना रूपी (सिनेमा) परदे पर चित्रांकन 

The Picture on Pure Consciousness

    अध्याय 6 से 10 के शीर्षकों में 'दीप' शब्द है जिसका अर्थ है 'दीपक'। यह शब्द ब्रह्म के चेतना पहलू को दर्शाता है जिसकी चर्चा इन अध्यायों में की गई है।

यथा चित्रपटे दृष्टमवस्थानां चतुष्टयम् ।

परमात्मनि विज्ञेयं तथावस्थाचतुष्टयम् ॥ १॥

जैसे किसी चित्र के चित्रण में चार चरण होते हैं, वैसे ही परमात्मा को समझने में भी चार चरण होते हैं। 1.

स्वतः शुभ्रोऽत्र धौतः स्याद्घट्टितोऽन्नविलेपनात् ।

मस्याकारैर्लाञ्छितः स्याद्रञ्जितो वर्णपूरणात् ॥ ३॥

प्राकृतिक रूप से सफेद कपड़ा (कैनवास) जैसे चित्रपट (या सिनेमा के पर्दे का) का आधार है; और माड़ी के प्रयोग से यह सख्त हो जाता है; उस पर नक्शा -रूपरेखा एक काली पेंसिल से खींची जाती है;फिर जब उस पर उपयुक्त रंग लगाए जाते हैं, तो रंगीन चित्र पूरा हो जाता है।

स्वतश्चिदन्तर्यामी तु मायावी सूक्ष्मसृष्टितः ।

सूत्रात्मा स्थूलसृष्ट्यैष विराडित्युच्यते परः ॥ ४॥

ब्रह्म (सच्चिदानन्द ) को स्वरूपतः 'चित' (Pure consciousness-शुद्ध चैतन्य) -शब्द द्वारा उल्लिखित किया जाता है। माया की उपाधि के साथ युक्त चित्त को अन्तर्यामी (dwelling spirit आत्मा) कहा जाता है; समष्टि सूक्ष्म शरीरों (subtle bodies प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय)  के साथ युक्त होने के कारण उन्हें सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ (totality of souls) कहा जाता है। और स्थूल शरीर के साथ समग्रता के साथ तादाम्य करने वाला व्यक्ति को विराट आदि नाम से कहा जाता है 

   सर्वोच्च आत्मा की व्याख्या उस कैनवास (चित्रकारी के पर्दे-canvas) से की जाती है जिस पर चित्र बनाया जाता है। जिस तरह चित्र बनाने में चार चरण होते हैं, उसी तरह सर्वोच्च आत्मा के प्रत्यक्ष परिवर्तन में भी चार चरण होते हैं। चित्र बनाने में चार चरण होते हैं, एक साफ सफेद कैनवासस्टार्च (माड़ी) से कड़ा किया गया कैनवास, काली पेंसिल से खींची गई रूपरेखा वाला कैनवास और चित्र पर लगाए गए रंगों वाला ("Eastman color movie" )  चित्रपट कैनवास। आत्मा के संबंध में संगत चार चरण हैं, शुद्ध चेतना  (pure consciousness), सभी प्राणियों में अंतर्निहित चेतना ( in-dwelling consciousness), सूक्ष्म शरीरों (subtle bodies-प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) की समग्रता से जुड़ी चेतना और स्थूल शरीरों (physical bodies) की समग्रता से जुड़ी चेतना। 

ब्रह्माद्याःस्तम्बपर्यन्ताः प्राणिनोऽत्र जडा अपि ।

उत्तमाधमभावेन वर्तन्ते पटचित्रवत् ॥ ५॥

जिस प्रकार चित्रपट (कैनवास) पर अंकित चित्र में श्रेष्ठ और निम्न प्रकार की वस्तुओं का तारतम्य होता है - [कौन अच्छा, कौन खराब] ,वैसे ही परमात्मा में उत्तम और अधम क्रम में -ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त चेतन (सभी सजीव प्राणी -ब्रह्मा, इन्द्र आदि अन्य देवताओं से लेकर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विभिन्न कोटि के प्राणी हैंऔर जड़ (पहाड़, नदी, मिट्टी आदि निर्जीव ) पदार्थ अध्यस्त रहते हैं। 

चित्रार्पितमनुष्याणां वस्त्राभासाः पृथक्पृथक् ।

चित्राधारेण वस्त्रेण सदृशा इव कल्पिताः ॥ ६॥

जैसे किसी चित्र में मनुष्यों के शरीर पर , विभिन्न अंगों पर अलग प्रकार के कपड़े पहने हुए चित्रित किया है और रंगीन कपड़े इतने कुशलता से चित्रित किए गए हैं कि वे चित्र के आधार पट (कैनवास) के ऊपर अंकित के समान एकदम वास्तविक प्रतीत होते हैं। 6.एक चित्र में मनुष्यों को विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए दिखाया गया है, और चित्रित वस्त्र उतने ही वास्तविक प्रतीत होते हैं, जितने कि वह कैनवास जिस पर चित्र चित्रित किए गए हैं।

पृथक पृथक चिदाभासाश्चैतन्याध्यस्तदेहिनाम् ।

कल्पान्ते जीवनामानो बहुधा संसरन्त्यमी ॥ ७॥

उसी प्रकार चैतन्य (consciousness) पर देव-मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़ आदि अध्यस्त (superimposed) आरोपित हैं। उनमें से प्रत्येक अलग अलग चिदाभास यानि प्रतिबिंब है, (वास्तविक चेतना का आभास) एक विशेष कार्य। उन्हें जीव के रूप में जाना जाता है और वे जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया के अधीन हैं। 7.ब्रह्माण्ड में सभी रूप ब्रह्म पर आरोपित हैं, जो कि शुद्ध चेतना है। यह चेतना इन रूपों में प्रतिबिंबित होती है और जिन रूपों में चेतना का प्रतिबिंब होता है, उन्हें जीव कहा जाता है। जीव बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरते हैं

वस्त्राभासस्थितान्वर्णान्यद्वदाधारवस्त्रगान् ।

वदन्त्यज्ञास्तथा जीवसंसारं चिद्गतं विदुः ॥ ८॥

जैसे साधारण मनुष्य  चित्रपट पर अंकित विभिन्न रंगों को आधारवस्त्र -असली पर्दे का ही रंग समझते हैं , इसी प्रकार अज्ञानी लोग जीव के संसार-गति को [जन्म और मृत्यु को ] साक्षीचैतन्य की संसार- गति समझ लेते हैं। अज्ञानी लोग सोचेंगे कि चित्र में चित्रित वस्त्र कैनवास के समान ही वास्तविक हैं। इसी प्रकार, अज्ञानी लोग सोचते हैं कि जीवों का देहान्तरण शुद्ध चेतना द्वारा ही होता है। 

चित्रस्थ पर्वतादीनां वस्त्राभासो न लिख्यते ।

सृष्टिस्थमृत्तिकादीनां चिदाभासास्तथा न हि ॥ ९॥

जिस प्रकार चित्र में पर्वत, नदी आदि वस्त्र पहने हुए चित्रित नहीं होते, उसी प्रकार सृष्टि में स्थित मिट्टी आदि जड़ वस्तुओं में चिदाभास अर्थात जीवन की कल्पना नहीं होती। पृथ्वी आदि जड़ वस्तुएँ चेतना के प्रतिबिम्ब से युक्त नहीं होतीं। 9.जिस प्रकार एक चित्र में निर्जीव वस्तुओं को वस्त्र पहने हुए नहीं दिखाया गया है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में निर्जीव वस्तुओं में चेतना का प्रतिबिंब नहीं होता है।

संसारः परमार्थोऽयं संलग्नः स्वात्मवस्तुनि ।

इति भ्रान्तिरविद्या स्याद्विद्ययैषा निवर्तते ॥ १०॥

 सभी प्रकार के सुख-दुःख के साथ इस देहान्तर या  संसार को परमार्थतः आत्मा से युक्त समझ लेना , ऐसी जो भ्रान्ति है , उसे अविद्या (अज्ञानता) कहा जाता है। विद्या [इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान या आत्मज्ञान] द्वारा ही अविद्या की निवृत्ति होती है।  यह गलत धारणा कि देहांतरण वास्तविक है और आत्मा, जो शुद्ध चेतना है, उसके अधीन है, उसे 'अविद्या' कहते हैं। आत्मा के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान से यह अविद्या दूर हो जाती है।

आत्माभासस्य जीवस्य संसारो नात्मवस्तुनः ।

इति बोधो भवेद्विद्या लभ्यतेऽसौ विचारणात् ॥ ११॥

"आत्मा का प्रतिबिम्ब स्वरूप जो जीव है, उसीका देहान्तरण होता है, वास्तविक साक्षी चैतन्य या आत्मा का नहीं " --इस प्रकार के समझ को विद्या (आत्मज्ञान) कहा जाता है।  यह विद्या (नित्य-अनित्य -मिथ्या, शाश्वत-नश्वर) विवेक-प्रयोग द्वारा प्राप्त होती है। देहांतरण केवल जीव के लिए है, जो आत्मा का प्रतिबिंब है, आत्मा के लिए नहीं। इसी समझ को ज्ञान (आत्मज्ञान) कहते हैं और यह आत्मबोध आत्म -अनात्म विवेक-प्रयोग से प्राप्त होती है। 

सदा विचारयेत्तस्माज्जगत्ज्जीवपरात्मनः ।

जीवभावजगद्भावबाधे स्वात्मैव शिष्यते ॥ १२॥

इसलिए मनुष्य को सर्वदा जीव,जगत और ईश्वर के ऊपर विवेकपूर्वक चिंतन-मनन करते रहना चाहिए। जीवभाव और जगतभाव की निवृत्ति होने पर - [मैं स्वप्न में भेंड़ बना था और शेर मुझे खाने के लिए पीछा कर रहा था , स्वप्न से जग गया तो  - शेर भी नहीं था, भेंड़ भी नहीं था] -केवल साक्षी चैतन्य, तो केवल शुद्ध आत्मा ही बचता है। 12.

इसलिए 'व्यक्ति' [एथेंस का सत्यार्थी] को हमेशा जीव, जगत ब्रह्मांड और ईश्वर (परम्-सत्य) के स्वरूप के बारे में अनुसन्धान करते रहना चाहिए जब ​​जीव और जगत-ब्रह्मांड का निषेध हो जाता है, तो परम्-सत्य  के रूप में केवल द्रष्टा, साक्षी चैतन्य या 'शुद्ध आत्मा' (सच्चिदानन्द) ही एकमात्र शेष रह जाते हैं। 

नाप्रतीतिस्तयोर्बाधः किन्तु मिथ्यात्वनिश्चयः ।

नो चेत्सुषुप्तिमूर्च्छादौ मुच्येता यत्नतो जनः ॥ १३॥

 जीव और जगत का निषेध / अप्रतीति होने का अर्थ यह नहीं है कि जीव और इन्द्रियगोचर जगत का दिखना बन्द हो जाता है, क्योंकि ऐसा गहरी नींद या बेहोशी में भी होता है, तबतो  बेहोशी के समय बिना कोई प्रयत्न किये ही अनेक लोग मुक्त हो गए होते। निषेध का अर्थ यह निश्चित धारणा है कि जीव और जगत, पूर्ण सत्य नहीं है और परिवर्तनशील होने से वे केवल 'मिथ्या' हैं, यानी, उनके पास केवल इन्द्रियग्राह्य (अनुभवजन्य) सत्यता है। निषेध से इसका मतलब यह नहीं है कि संसार और जीव इंद्रियों के लिए बोधगम्य होना बंद हो जाते हैं, इसका मतलब है-इन्द्रिय गोचर जीवजगत के भ्रामक होने पर दृढ़ विश्वास। अन्यथा गहरी नींद या बेहोशी में लोग स्वतः ही मुक्त हो जायेंगे। 13. 

परमात्मावशेषोऽपि तत्सत्यत्वविनिश्चयः ।

न जगद्विस्मृतिर्नो चेज्जीवन्मुक्तिर्न सम्भवेत् ॥ १४॥

पूर्ण में से पूर्ण को हटा देने पर,'केवल परमात्मा ही शेष रहते हैं "  वह परमात्मा ही एक मात्र सत्य हैं - इस प्रकार का दृढ़ निश्चय ; किन्तु जगत की विस्मृति हो जायगी के अर्थ में नहीं। बल्कि जो कुछ भी देख रहा हूँ - सो तू ही है। अन्यथा जीवन-मुक्ति की अवस्था में पहुंचना सम्भव नहीं होता।  

परोक्षा चापरोक्षेति विद्या द्वेधा विचारजा ।

तत्रापरोक्ष विद्याप्तौ विचारोऽयं समाप्यते ॥ १५॥

विवेक -प्रयोग करने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है , वह अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है। उनमें से प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि- 'अहं ब्रह्मास्मि ' का बोध हो जाने पर यह 'विवेक-प्रयोग की प्रक्रिया' समाप्त हो जाती  है। 15.  

अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद परोक्षज्ञानमेव तत् ।

अहं ब्रह्मेति चेद्वेद साक्षात्कारः स उच्यते ॥ १६॥

सुना हुआ यह ज्ञान कि - ‘Brahman is’ 'ब्रह्म है' अप्रत्यक्ष ( indirect) है, और अनुभव किया हुआ यह ज्ञान कि  ‘I am Brahman’ 'मैं ब्रह्म हूं' प्रत्यक्ष (direct) है। 'मैं ब्रह्म हूँ' यह ज्ञान ही साक्षात्कार (अपरोक्षज्ञान) कहलाता है।  [16.The knowledge that ‘Brahman is’ is indirect, the knowledge that ‘I am Brahman’ is direct. 16.] 

तत्साक्षात्कारसिद्ध्यर्थमात्मतत्त्वं विविच्यते ।

येनायं सर्वसंसारात्सद्य एव विमुच्यते ॥ १७॥

जिस साक्षात्कार के द्वारा मुमुक्षु जीव सभी सांसारिक बंधनों से तुरंत मुक्त हो जाता है; अब हम स्वयं आत्मा के उस स्वरुप का साक्षात्कार करने, उसके प्रत्यक्ष अनुभव की दृष्टि से विचार करते हैं।17.अब आत्मा के स्वरूप का चिंतन इस उद्देश्य से किया जाता है कि प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सके, ताकि जीव भौतिक संसार की सीमाओं से मुक्त हो सके।

कूटस्थो ब्रह्मजीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधा ।

घटाकाशमहाकाशौ जलाकाशाभ्रखे यथा ॥ १८॥

  एक ही ब्रह्म या चैतन्य को कूटस्थ (अपरिवर्तनीय), ब्रह्म, जीव और ईश्वर के रूप में - वैसे चार प्रकार से कहा जाता है, जैसे एक ही आकाश को महाकाश (सर्वव्यापी स्थान),घटाकाश (घड़ा में व्याप्त स्थान), जलाकाश (Akasa conditioned by water)और मेघाकाश (Akasa conditioned by a cloud)  कहा जाता है।  

घटावच्छिन्नखे नीरं यत्तत्र प्रतिबिम्बितः ।

साभ्रनक्षत्र-आकाशो जलाकाश-उदीर्यते ॥ १९॥

घड़े के द्वारा अवच्छिन्न आकाश को घटाकाश कहते हैं, उसके भीतर रखे जल पर प्रतिबिंबित बादलों और तारों वाले आकाश को 'जल में आकाश' (Akasa in water) के नाम से जाना जाता है। 

महाकाशस्य मध्ये यन्मेघमण्डलमीक्ष्यते ।

प्रतिबिम्बतया तत्र मेघाकाशो जले स्थितः ॥ २०॥

बादल में जल कणों में प्रतिबिंबित आकाश को 'बादल में आकाश'  स्थान कहते हैं।

20.The sky reflected in water particles forming a cloud suspended in space is known as ‘Akasa in a cloud’. 20

अधिष्ठानतया देहद्वयावच्छिन्नचेतनः ।

कूटवन्निर्विकारेण स्थितः कूटस्थ-उच्यते ॥ २२॥

वह चेतना जो देहद्वय द्वारा - यानि  स्थूल और सूक्ष्म शरीरों द्वारा अनुकूलित होती है, जिस पर वे आरोपित होती हैं और जो कोई परिवर्तन नहीं जानती, कूटस्थ कहलाती है।  आत्मा या शुद्ध चेतना जो वह आधार है जिस पर स्थूल और सूक्ष्म शरीर आरोपित हैं, और जो दोनों शरीरों में किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती है, उसे 'कूटस्थ' या अपरिवर्तनीय के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह अपरिवर्तनीय है, 'कूट' या 'निहाई' की तरह जिस पर सुनार अपने आभूषण गढ़ता है

कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित् प्रतिबिम्बकः ।

प्राणानां धारणाज्जीवः संसारेण स युज्यते ॥ २३॥

कूटस्थ में कल्पित बुद्धि पर चैतन्य का जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह प्राण संज्ञक वाणी आदि इन्द्रियों से अनुप्राणित जीव कहलाता है - जन्म-मृत्यु के संसार में बद्ध रहता है।  

 सूक्ष्म शरीर में आत्मा का प्रतिबिंब जीव या व्यक्ति है जो एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है (स्थानांतरित होता है)। उसे जीव के रूप में जाना जाता है क्योंकि वह प्राण (महत्वपूर्ण वायु) से जीवंत है। (मौखिक मूल 'जीव' का अर्थ है 'प्राण या महत्वपूर्ण वायु से संपन्न होना)। अनादि अज्ञान के कारण जीव स्वयं को शरीर से पहचानता है और यह नहीं जानता कि वह वास्तव में कूटस्थ या ब्रह्म है। 

विक्षेपावृतिरूपाभ्यां द्विधाविद्या प्रकल्पिता ।

न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृतिः ॥ २६॥

अविद्या की शक्ति दो प्रकार की है - विक्षेप शक्ति (power to project) और आवरण शक्ति (power to conceal) ! अर्थात अन्य रूप में प्रक्षेपण करने की शक्ति, और इस प्रकार के विचार उत्पन्न करती है कि चैतन्य (कूटस्थ या ब्रह्म) का अस्तित्व ही नहीं है, न वह अपने को अभिव्यक्त कर रहा है।    

इस अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं; ब्रह्म को छिपाने की शक्ति, जिसे आवरण शक्ति के रूप में जाना जाता है और ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करने की शक्ति, जिसे विक्षेप शक्ति के रूप में जाना जाता है। ब्रह्म को छिपाने की शक्ति जीव को ब्रह्म के अस्तित्व से पूरी तरह अनभिज्ञ बना देती है। प्रक्षेपण की शक्ति के कारण, जीव सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का अनुभव करता है और उन्हें वास्तविक मानता है। इसे ही इन शरीरों का ब्रह्म पर आरोपित होना कहते हैं। यह अविद्या माया उस कुण्डलीकृत  रस्सी के समान है जिसे मंद प्रकाश में साँप समझ लिया जाता है जब रस्सी स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती। 

अज्ञानता के कारण हुए ऐसे आरोपित होने के कारण, मन, जिसमें चेतना का प्रतिबिंब होता है, गलती से शुद्ध आत्मा या स्वयं चेतना समझ लिया जाता है। चेतना के प्रतिबिम्ब से युक्त मन को 'अहंकार' कहते हैं

आरोपितस्य दृष्टान्ते रूप्यं नाम यथा तथा ।

कूटस्थाध्यस्तविक्षेपनामाहमिति निश्चयः ॥ ३६॥

शुक्ति (सीपी) और रजत के दृष्टान्त में जैसे कि जड़ पदार्थ का नाम 'रूप्य' (चाँदी) होता है, उसी प्रकार के कूटस्थ (चैतन्य) में कल्पित जो विक्षेप [चिदाभास] होता है, उसका ही नाम 'अहम्' होता है।

[दृष्टांत में जो आरोपित किया गया है उसे चांदी या सर्प कहा गया है; अतः विक्षेप शक्ति भ्रामक प्रक्षेपण की शक्ति से कूटस्थ पर जो आरोपित किया जाता है उसे 'मैं', अहंकार या व्यक्तित्व की भावना कहा जाता है।]

   ब्रह्म या शुद्ध चेतना वह आधार है जिस पर सभी सजीव प्राणी तथा निर्जीव वस्तुएं प्रक्षेपित होती हैं। सजीव प्राणियों में जीवन होता है तथा वे कार्य करने में सक्षम होते हैं क्योंकि उनके पास एक सूक्ष्म शरीर होता है जो शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। चेतना के इस प्रतिबिंब के कारण वे स्वयं भी चेतनायुक्त प्रतीत होते हैं, जैसे चंद्रमा सूर्य के प्रकाश के प्रतिबिंब के कारण चमकता है। 

निर्जीव वस्तुओं के पास चेतना का प्रतिबिंब प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म शरीर नहीं होता। मृत्यु सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से अलग होना है। जब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है, तो जीव निर्जीव हो जाता है।

मायात्वमेव निश्चेयमिति चेत्तर्हि निश्चिनु ।

लोकप्रसिद्धमायाया लक्षणं यत्तदीक्ष्यताम् ॥ १४०॥

(संशय): लेकिन माया को मिटाने का प्रयास करने से पहले उसका स्वरूप निश्चित कर लेना चाहिए। (उत्तर): ठीक है, ऐसा करो! माया पर जादू की लोकप्रिय परिभाषा लागू करें। 140

(Doubt): But the nature of Maya must be determined before trying to eradicate it. (Reply): All right, do so ! Apply the popular definition of magic on Maya. 140

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ १७१॥

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: 'हे अर्जुन, भगवान सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं और उन्हें अपनी माया से चक्र की तरह घुमाते हैं।' [गीता: XVIII-61] 171.

In the Gita Sri Krishna says: ‘O Arjuna, the Lord abides in the hearts of all beings and makes them revolve by His Maya as if mounted on a wheel’. [Gita: XVIII-61] 171.

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

18.61 हे अर्जुन! भगवान् समस्त प्राणियों के हृदयों में निवास करते हैं और अपनी माया से समस्त प्राणियों को इस प्रकार घुमाते हैं, मानो वे यंत्र पर आरूढ़ हों।

18.61 The Lord dwells in the hearts of all beings, O Arjuna, causing all beings, by His illusive power, to revolve as if mounted on a machine.

जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैं -हृदय ! ह्रदय  शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय (Blood pumping machine) से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं,  प्रेम, करुणा, सहानुभूति ,  धृति, उत्साह,  स्नेह, कोमलता, क्षमा,  उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। 

परमेश्वर ही चेतनता और शक्ति का स्रोत है, जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। समस्त प्राणी ईश्वर के ही चारों ओर इस प्रकार घूमते रहते हैं,  जैसे कठपुतलियां किसी के हाथों में बन्धी खेल करती है। कठपुतलियों की अपनी कोई सार्मथ्य, शक्ति या भावना नहीं होती।  वे जो कुछ खेल करती दिखाई देती हैं,  वह सब अदृश्य हाथ की शक्ति है जो उन कठपुतलियों को धारण किये रहता है।

 पारमर्थिक दृष्टि से ईश्वर का अर्थ चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है। इस चैतन्य के सम्बन्ध से ही शरीर मन आदि जड़ उपाधियाँ कार्य करने में सक्षम होती हैं। अन्यथा जड़ पदार्थ में स्वयं न कर्म करने की शक्ति है और न वस्तुओं को जानने की।  इस दृष्टि से इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपस्थिति में प्राणीमात्र अपनेअपने स्वभाव के अनुसार यत्रतत्र भ्रमण करते रहते हैं। इसी तथ्य को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि ईश्वर अपनी माया से भूतमात्र को घुमाता है

इसी श्लोक का दूसरा अर्थ निम्न प्रकार से होगा। समष्टि माया में व्यक्त चैतन्यस्वरूप परमात्मा ही ईश्वर कहलाता है जो सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान् है। वह ईश्वर अपनी माया से समस्त जीवों को घुमाता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह ईश्वर समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है

 ईश्वर के बिना व्यष्टि जीवों का अस्तित्व संभव ही नहीं है। समस्त जीवों को कर्म और ज्ञान की शक्तियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। इस प्रकार वेदान्त के सिद्धांत को समझकर इस श्लोक के अध्ययन से यहाँ प्रयुक्त रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

 श्रीकृष्ण कहते हैं- "अर्जुन! भले ही तुम मेरी आज्ञा का पालन करो या न करो, स्थापित स्थिति हमेशा मेरे प्रभुत्व में रहेगी। जिस शरीर में तुम जीवित हो वह यंत्र मेरी माया शक्ति से निर्मित है।"

"मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं? अन्यथा नहीं।

ईश्वर का स्मरण केवल सगुणसाकार अर्थात् शक्ति के मानवीय रूप में ही नहीं करना चाहिये, जैसे कैलाशपति, शिवजी या वैकुण्ठवासी विष्णु या (अवतारवरिष्ठ के मानवीय रूप ठाकुरदेव स्वर्ग में स्थित पिता के) रूप में ही नहीं करना चाहिये ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। इसकी पहचान हृदय में ही हो सकती है

सर्वभूतानि विज्ञानमयास्ते हृदये स्थिताः ।

तदुपादानभूतेशस्तत्र विक्रियते खलु ॥ १७२॥

उपरोक्त श्लोक में सर्वभूत या समस्त जीव शब्द का तात्पर्य विज्ञानमय कोष (प्राणमय, मनोमय , विज्ञानमय तीनों सूक्ष्म शरीर) से है। ये तीनों कोष जीव के ह्रदय में अवस्थित है। भगवान उसी विज्ञानमय कोष समूह के उपादान कारण ( material cause) होने कारण उसी ह्रदय के विज्ञानमय (बुद्धि के आवरण) के विकार/ परिवर्तन (अहं) के परिवर्तनों से गुजरते हुए प्रतीत होते हैं।  .

‘All beings’ in the above passage means the Jivas or the sheaths of intellect which abide in the hearts of all beings. Being their material cause, the Lord appears to undergo changes with them. 172.

देहादिपञ्जरं यन्त्रं तदारोहोऽभिमानिता ।

विहितप्रतिसिद्धेषु प्रवृत्तिर्भ्रमणं भवेत् ॥ १७३॥

शरीर रूपी पिंजर (आवरण) को भगवान यंत्र कहते हैं।  यह कहने का अर्थ है कि सभी प्राणी 'शरीर रूपी पिंजर पर आरूढ़' हैं, इसका अर्थ यह है कि वे शरीर (M/F) शरीर के साथ तादात्म्य को अहंकार मानने लगे हैं। परिभ्रमण शब्द से अभिप्राय शास्त्र विहित कर्म (अच्छे)  तथा शास्त्रनिषिद्ध कर्म  (बुरे) कर्मों के सम्पादन से है। 

173.By the word ‘wheel’ is meant the cage of the body with sheaths etc. By saying that all beings are ‘mounted on the wheel’ is meant that they have come to consider the body as the ego. By the word ‘revolve’ is meant the performance of good and bad deeds. 173.

विज्ञानमयरूपेण तत्प्रवृत्तिस्वरूपतः ।

स्वशक्त्येशो विक्रियते मायया भ्रामणं हि तत् ॥ १७४॥

विज्ञानमय रूप में एवं उसी  विज्ञानमय के विहित और निषिद्ध कर्मों की प्रवृत्ति के अनुरूप भगवान अपनी ही माया शक्ति के द्वारा बदलते हुए प्रतीत होते हैं। इसी को यहां  'भगवान अपनी माया से उन्हें घुमाते हैं' कहा जा रहा है। [इस उक्ति का अर्थ यह है कि भगवान अपनी माया की शक्ति से बुद्धि-कोश में समाहित हो जाते हैं और बुद्धि के संचालन के साथ बदलते प्रतीत होते हैं।]  174.

The meaning of the expression ‘The Lord makes them revolve by His Maya’, is that the Lord by his power of Maya becomes involved in the intellect-sheath and seems to change with the operations of the intellect. 174.

अन्तर्यमयतीत्युक्त्या यमेवार्थः श्रुतौ श्रुतः ।

पृथिव्यादिषु सर्वत्र न्यायोऽयं योज्यतां धिया ॥ १७५॥

श्रुति ('यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति' बृ० उपनिषद ३/७/१५) ने यही अर्थ व्यक्त करते हुए कहा है कि भगवान स्वयं ह्रदय में बैठकर , भीतर से प्रेरणा देते हैं। श्रुति इस उक्ति से भ्रमण कराते हैं कह रही है। इसलिए उनको आंतरिक नियंता कहा जाता है। केवल जीवों के अन्तर में नहीं , पृथ्वी आदि समस्त पदार्थों की अन्तर्यामी सत्ता हैं। इसी उपादान  कारण को लागू करके भौतिक तत्वों और अन्य सभी वस्तुओं के संबंध में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। 

The same meaning is expressed by the Shruti saying that the Lord is called the inner controller. By applying this reason one can come to the same conclusion with regard to the physical elements and all other objects. 175.

[साभार https://janamejayans.home.blog/pancadasi-of-swamy-vidyaranya-8/]

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति-

र्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन

यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ १७६॥

आप इसको दुर्योधन सिंड्रोम मान लीजिए --'मैं जानता हूं कि धर्म [24 सद्गुण (शास्त्र विहित कर्म समूह)]  क्या है, लेकिन उसका अभ्यास करने की मेरी प्रवृत्ति नहीं है; मैं जानता हूं कि अधर्म [ 12 दुर्गुण (शास्त्र निषिद्ध कर्म -बुरे कर्म] क्या है, लेकिन उससे विरत रहना मेरे वश में नहीं बल्कि उसके वश में है। मैं वैसा ही करता हूं जैसा मेरे हृदय में विराजमान कोई देवता {??तीनों ऐषणाओं में आसक्ति ??} मुझे प्रेरित करता है।' 176.

‘I know what is virtue, but my inclination is not mine to practise it; I know what is vice, but my desisting from it is not mine but His. I do as I am prompted by some god seated in my heart.’ 176.

नार्थः पुरुषकारेणेत्येवं मा शंक्यतां यतः ।

ईशः पुरुषकारस्य रूपेणापि विवर्तते ॥ १७७॥

उपरोक्त श्लोक से यह मत सोचिए कि व्यक्तिगत प्रयास (मानवीय प्रयत्न )आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि भगवान स्वयं को उन प्रयासों [चार पुरुषार्थ ?] के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। 177.

From the above verse do not think that individual efforts are not necessary, for the Lord transforms Himself as those efforts. 177

एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासन इति श्रुतिः ।

अन्तः प्रविष्टः शास्तायं जनानामिति च श्रुतिः ॥ १८१॥

एक श्रुति परिच्छेद में कहा गया है कि सूर्य और ग्रह भगवान के आदेश पर चलते हैं। एक अन्य श्रुति परिच्छेद में कहा गया है कि भगवान मानव शरीर में प्रवेश करके इसे भीतर से नियंत्रित करते हैं। 181.(एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत् एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासन गार्गी द्यावापृथिवौ विधृते तिष्ठत एतस्य  (बृहदारण्यक  उप० ३।८।९ )  ।

One Shruti passage says that the suns and planets move at the command of the Lord. Another Shruti passage says that the Lord entering the human body controls it from within. 181.


आविर्भावतिरोभावशक्तिमत्त्वेन हेतुना ।

आरम्भपरिणामादिचोद्यानां नात्र सम्भवः ॥ १८६॥

ईश्वर की यह जो आविर्भाव और तिरोभाव होने की शक्ति है (उसको माया कहकर) वे माया सामर्थ्य से युक्त हैं इसीलिए वेदान्त (सनातन हिन्दू धर्म) में आरम्भवाद, परिणामवाद एवं विवर्तवाद जैसे मतवादों की सम्भावना नहीं हैं।    

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म तस्मात्समुत्थिताः ।

खं वाय्वग्निजलोर्व्योषध्यन्नदेहाः इति श्रुतिः ॥ १९१॥

श्रुति (तैत्तिरीय उपनिषद -2.1.1 )स्पष्ट रूप से बताती है कि ब्रह्म से, जो सत्य, ज्ञान और अनंत है, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, जड़ी-बूटियाँ, भोजन, शरीर आदि उत्पन्न हुए। 191.

The Shruti explains clearly that from Brahman, who is truth, knowledge and infinity, arose Akasa, air, fire, water, earth, herbs, food, bodies and so forth. 191.

उपक्रमादिभिर्लिङ्गैस्तात्पर्यस्य विचारणात् ।

असङ्गं ब्रह्म मायावी सृजत्येष महेश्वरः ॥ १९५॥

गहरी जांच से और वैदिक पाठ की व्याख्या के नियमों को लागू करने से हमें पता चलता है कि ब्राह्मण माया से संबद्ध और बिना शर्त है, जबकि ईश्वर माया से बंधा हुआ निर्माता है। 195

ब्रह्म माया से असंबद्ध है, जबकि ईश्वर माया से बद्ध है और वह ब्रह्माण्ड का निर्माता है। उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म सत्य है, चेतना है और अनंत है। इन्द्रियाँ और मन उसे समझ नहीं सकते।

.By deep enquiry and by the application of the rules of interpretation to the Vedic text we come to know that Brahman is associationless and unconditioned by Maya, whereas Ishvara is the creator conditioned by Maya. 195.


सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्युपक्रम्योपसंहृतः ।

यतो वाचो निवर्तन्ते इत्यसङ्गत्वनिर्णयः ॥ १९६॥

उपनिषद या वेदान्त (तैत्तिरीय-२-९) ब्रह्म को सत्य, ज्ञान और अनंत बताते हैं और यह भी घोषित करते हैं कि- यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनंदं ब्राह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।  वाणी और अन्य अंग इसे ग्रहण नहीं कर सकते। इस प्रकार यह निश्चित है कि ब्रह्म संग-रहित है

आनन्दमय ईशोऽयं बहु स्यामित्यवैक्षत ।

हिरण्यगर्भरूपोऽभूत्सुप्तिः स्वप्नो यथा भवेत् ॥ १९८॥

उसी एक आनन्दमय ब्रह्म ईश्वर ने इच्छा किया कि -' मैं अनेक बन जाऊँगा। ' इस प्रकार संकल्प करके वे हिरण्यगर्भ में वैसे ही रूपांतरित हो गए ; जैसे सुषुप्ति (deep sleep) ही स्वप्न अवस्था (dream state) में बदल जाती है। 

.As the deep sleep state passes into dream state, so Ishvara who is known as the sheath of bliss, transforms Himself into Hiranyagarbha, when He, the one, wills to be many. 198.

मुक्तिस्तु ब्रह्मतत्त्वस्य ज्ञानादेव न चान्यथा ।

स्वप्रबोधं विना नैव स्वस्वप्नं हीयते यथा ॥ २१०॥

हालाँकि, मुक्ति केवल ब्रह्म तत्व  के ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, अन्यथा नहीं। जैसे जब तक स्वप्न देखने वाला स्वयं जाग नहीं जाता तब तक उसका स्वप्न समाप्त नहीं होता। 210.

The Liberation, however, can be obtained through the knowledge of reality and not otherwise. The dreaming does not end until the dreamer awakes. 210.

आनन्दमयविज्ञानमयावीश्वरजीवकौ ।

मायया कल्पितावेतौ ताभ्यां सर्वं प्रकल्पितम् ॥ २१२॥

 आनन्दमय ईश्वर और विज्ञानमय जीव दोनों का निर्माण माया ने किया है, दोनों माया के द्वारा कल्पित हैं। और दोनों के द्वारा सम्पूर्ण जगत कल्पित हुआ है। इसप्रकार संपूर्ण बोधगम्य जगत ईश्वर और जीव की रचना है। 212.

Maya has created Ishvara and Jiva, represented by the sheath of bliss and the sheath of intellect respectively. The whole perceptible world is a creation of Ishvara and Jiva. 212.

ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता ।

जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ २१३॥

 संपूर्ण जगत ईश्वर और जीव की रचना है। ईश्वर के सृजन के संकल्प से लेकर निर्मित वस्तुओं में आंतरिक नियंत्रक के रूप में प्रविष्ट होने तक ईश्वर की रचना है। जाग्रत (स्वप्न-सुषुप्ति आदि)  अवस्था से मोक्ष (मुक्ति) तक संसार जीव की रचना है।

ईश्वर के सृजन के संकल्प से लेकर, निर्मित वस्तुओं में - सृष्टि में उसके प्रवेश तक, ईश्वर की रचना है।  जाग्रत अवस्था (hypnotized-अवस्था स्वयं को M/F देह समझने की अवस्था) से मोक्ष होने तक [D-hypnotized, देहधारी आत्मा -चैतन्य या सादा पर्दा]  परम मुक्ति तक, सभी सुखों और दुखों का कारण, जीव की रचना है। 213.

[जाग्रत अवस्था (=सम्मोहित अवस्था) से मोक्ष होने तक (विसम्मोहित होने तक), जगत के सारे सुख-दुःख जन्म-मृत्यु जीव के द्वारा कल्पित हुई है।  इसका अर्थ यही है कि जीव स्थूलशरीर धारणकर, माता के पेट से निकलकर मरणपर्यन्त 'मेरा - मेरा' करता. हुआ प्राणी- पदार्थोंका संग्रह करता है, बार -बार देहान्तरण या पुनर्जन्म यह जीव की कल्पना का संसार है

From the determination of Ishvara to create, down to His entrance into the created objects, is the creation of Ishvara. From the waking state to ultimate release, the cause of all pleasures and pains, is the creation of Jiva. 213.

अद्वितीयं ब्रह्मतत्त्वमसङ्गं तन्न जानते ।

जीवएशयोर्मायिकयोर्वृथैव कलहं ययुः ॥ २१४॥

जो लोग ब्रह्म के अद्वितीय (peerless, unparalleled) और असङ्ग  (कूटस्थ, independent, associationless) स्वरुप को नहीं जानते, वैसे वादी (Plaintiffs) लोग मायाकल्पित जीव और ईश्वर के स्वरुप  को लेकर, जो माया की रचनाएं हैं,  निरर्थक झगड़ा करते हैं। 

214.Those who do not know the nature of Brahman, who is secondless and associationless, fruitlessly quarrel over Jiva and Ishvara, which are creations of Maya. 214.

 वेदान्ती मानते हैं कि आत्मा शुद्ध चेतना है, अनंत है, खण्ड-रहित है और सर्वव्यापी है। माया या प्रकृति, जो ब्रह्म की शक्ति है, न तो वास्तविक है और न ही अवास्तविक; यह अनिर्धारित है। माया को तीन तरह से देखा जा सकता है। आम लोगों के लिए यह वास्तविक है। प्रबुद्ध व्यक्ति (ज्ञानी) के लिए इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। जो लोग तर्क के माध्यम से माया को समझने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह अनिर्धारित है।

दुर्घटं घटयामीति विरुद्धं किं न पश्यसि ।

वास्तवौ बन्धमोक्षौ तु श्रुतिर्न सहतेतराम् ॥ २३४॥

क्या तुम नहीं देखते कि माया (माँ सारदा देवी) असंभव को भी संभव बना सकती है? वास्तव में, श्रुति वास्तविक रूप में न तो बंधन और न ही मुक्ति को सहन कर सकती है।  माया ब्रह्म को किसी भी तरह से प्रभावित किए बिना ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है। असंभव को संभव बनाना माया का स्वभाव है

 234.Don’t you see that Maya can make the impossible appear possible? In fact, the Shruti can tolerate neither bondage nor release as real. 234.

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।

न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ २३५॥

श्रुति (ब्रह्मबिन्दु उपनिषद -१०) में यही घोषणा करती है कि वास्तव में न तो कोई प्रलय या विनाश है और न ही कोई उत्पत्ति या जन्म होता है ; कोई भी जीव बंधन में नहीं है और कोई भी साधक (श्रवण आदि द्वारा) मुक्ति के लिए अभ्यास में संलग्न नहीं है; न कोई मुक्ति का आकांक्षी और न कोई मुक्त। यह पारलौकिक सत्य (transcendental truth) है. 

235.The Shruti declares that in fact there is no destruction and no origination; none in bondage and none engaged in practice for liberation; no aspirant for liberation and none liberated. This is the transcendental truth. 235.

मायाख्याया कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ ।

यथेच्छं पिबतां द्वैतं तत्त्वं त्वद्वैतमेव हि ॥ २३६॥

माया को इच्छा पूरी करने वाली गाय (कामधेनु) कहा गया है। जीव और ईश्वर इसके दो बछड़े हैं। जीव और ईश्वर इसका द्वैत रूपी दूध जितना चाहे पीते रहें, लेकिन सत्य तो अद्वैत ही है। 236.

\Maya is said to be the desire-fulfilling cow. Jiva and Ishvara are its two calves. Drink of its milk of duality as much as you like, but the truth is non-duality. 236.

कूटस्थब्रह्मणोर्भेदो नाममात्रादृते न हि ।

घटाकाशमहाकाशौ वियुज्येते न हि क्वचित् ॥ २३७॥

कूटस्थ (आत्मा-निहाई) और ब्रह्म (परमात्मा) में केवल नाम का अंतर है; हकीकत में कोई अंतर नहीं है. घटाकाश और असीमित आकाश (महाकाश) एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। 237.

The difference between Kutastha and Brahman is only in name; in reality there is no difference. The Akasa in the pot and the unlimited Akasa are not distinct from one another. 237.

यदद्वैतं श्रुतं सृष्टेः प्राक्तदेवाद्य चोपरि ।

मुक्तावपि वृथा माया भ्रामयत्यखिलान् जनान् ॥ २३८॥

जैसा कि श्रुति में घोषित किया गया है, [सदेव सोम्य इदमग्र आसीत् एकमेव अद्वितीयम् । - छान्दोग्योपनिषत् ६-२-१]  अद्वैत सत्य सृष्टि से पहले अस्तित्व में था , अब सृष्टि में भी मौजूद है और प्रलय के समय में भी मौजूद रहेगी; और मुक्ति में भी वही हैं ; किन्तु माया लोगों को व्यर्थ ही भ्रमित करती है। 

238.The non-dual reality, as declared in the Shruti, existed before creation, exists now and will continue to exist in dissolution; and after liberation Maya deludes the people in vain. 238.

ये वदन्तीत्थमेतेऽपि भ्राम्यन्तेऽविद्ययात्र किम् ।

न यथा पूर्वमेतेषामत्र भ्रान्तेरदर्शनात् ॥ २३९॥

(शंका): संसार को माया बताने वाले ज्ञानी भी सांसारिक कार्यों में [BHd तीनों ऐषणाओं में ?] लगे हुए देखे जाते हैं। तो फिर बोध (आत्मज्ञान -विसम्मोहित या जाग्रत होनेका ) का क्या उपयोग? (उत्तर): नहीं, वह ज्ञानी व्यक्ति पहले की तरह भ्रमित नहीं है। 239.

(Doubt): Even the knowers, who attribute the world to Maya, are seen to be engaged in worldly pursuits. So what is the use of realisation ? (Reply): No, he is not deluded as before. 239

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।

इति श्रौतं फलं दृष्टं नेति चेद्दृष्टमेव तत् ॥ २५९॥ 

[कठ० उप ०- २/३/१४]    

श्रुति (कठोपनिषद) कहती है कि जिसने अपने हृदय से सभी अंतर्निहित इच्छाओं (ऐषणाओं में आसक्ति)  को निकाल दिया है, वह अमरत्व प्राप्त करता है, और देह में रहते हुए ही ब्रह्मभाव का आनन्द लेता है । यह महज एक बयान नहीं है; एक ज्ञाता का वास्तविक अनुभव इसे सिद्ध करता है। 259.

The Shruti says that he who has banished from his heart all indwelling desires attains immortality. This is not merely a statement; a knower’s actual experience proves it. 259.

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयग्रन्थयस्त्विति ।

कामा ग्रन्थिस्वरूपेण व्याख्याता वाक्यशेषतः ॥ २६०॥

एक अन्य परिच्छेद में कहा गया है कि सच्चे ज्ञान के उदय से हृदय की सभी गांठें खुल जाती हैं। टिप्पणी में 'हृदय की ग्रन्थि (गांठें) ' /‘चेतन और अचेतन की गाँठ’। / 262.शब्द की व्याख्या हृदय की ऐषणाओं (अभिलाषाओं) के अर्थ में की गई है। 260.

In another passage it is stated that all the knots of the heart are loosened at the rise of true knowledge. The term ‘knots of the heart’ has been explained in the commentary to mean the desires of the heart. 260.

   माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म ईश्वर है। ईश्वर माया को नियंत्रित करता है, लेकिन जीव माया के नियंत्रण में है। ईश्वर प्रत्येक जीव में अन्तर्यामी और अन्तर्यामी है। वह सर्वज्ञ है और ब्रह्माण्ड का कारण है। वह ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति का कारण बनता है और प्राणियों को उनके पिछले कर्मों के अनुसार बनाता है। सृष्टि एक चित्रित कैनवास को खोलने के समान है। यदि चित्रित कैनवास को लपेट दिया जाए, तो चित्र दिखाई नहीं देता। उसी तरह, जब जीवों के कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो ईश्वर ब्रह्माण्ड को अपने में वापस ले लेते हैं। तब ब्रह्माण्ड और सभी प्राणी सृष्टि के अगले चक्र के प्रारंभ होने तक अव्यक्त रूप में रहते हैं। ईश्वर माया के तामसिक पहलू के माध्यम से निर्जीव वस्तुओं का कारण है। वह माया में शुद्ध चेतना के प्रतिबिंब के माध्यम से जीवों का कारण है।

यह अज्ञान ही है जो आत्मा (=ईश्वर)  के वास्तविक स्वरूप को छिपाता है और जीव को शरीर के साथ अपनी पहचान कराता है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह छिपाव और गलत पहचान समाप्त हो जाती है।

ग्रन्थिभेदेऽपि सम्भाव्या इच्छाः प्रारब्धदोषतः ।

बुध्वापि पापबाहुल्यादसन्तोषो यथा तव ॥ २६३॥

फलदायी कर्म के बल से, एक ज्ञाता इच्छाओं के अधीन हो सकता है, क्योंकि सैद्धांतिक रूप से सत्य जानने के बावजूद आप संतुष्ट नहीं हैं। 263.

\By the force of the fructifying Karma, a knower may be subject to desires, as in spite of theoretically knowing the truth you are not satisfied. 263.

 लेकिन जब तक प्रारब्ध कर्म, जिसने वर्तमान शरीर को जन्म दिया है, कायम रहता है, तब तक मन और शरीर, जो अज्ञान के प्रभाव हैं, कायम रहते हैं।  

   वेदांत में 'कर्म' शब्द का प्रयोग दो अलग-अलग अर्थों में किया जाता है---(1) किए गए कार्यों के परिणाम, पुण्य और पाप के रूप में , जो बाद में अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं, सामान्यतः दूसरे जन्म में, और (2) स्वयं कार्य, चाहे वह धर्मनिरपेक्ष हो या धार्मिक। यहां हम पहले अर्थ में कर्म की बात कर रहे हैं। यह कर्म तीन प्रकार का होता है� जिसे संचित, प्रारब्ध और आगामी कहते हैं। असंख्य पिछले जन्मों में संचित कर्म संचित कर्म कहलाते हैं। इसमें से एक भाग वर्तमान जन्म को जन्म देता है। इस भाग को प्रारब्ध कर्म कहते हैं, जिसका अर्थ है 'जो पहले ही शुरू हो चुका है (आरंभ) उसका प्रभाव देना'। इस जीवन में किए गए कार्यों के परिणामस्वरूप जो कर्म मिलता है उसे आगामी कर्म कहते हैं। यह संचित कर्म में जुड़ जाता है। ब्रह्मज्ञान के उदय होने पर उस समय का सारा संचित कर्म नष्ट हो जाता है। ज्ञानोदय के पश्चात किए गए कर्म कोई कर्म उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि शरीर-मन के साथ तादात्म्य, जो कर्म का कारण है, समाप्त हो जाता है। इस प्रकार आगे कोई आगामी कर्म नहीं होता। लेकिन प्रारब्ध कर्म ज्ञान से नष्ट नहीं होता। यह तब तक अपना फल देता रहता है, जब तक कि यह समाप्त न हो जाए। इसलिए वर्तमान शरीर-मन तादात्म्य प्रारब्ध कर्म के समाप्त होने तक विद्यमान रहता है। लेकिन चूँकि ज्ञानी अपने शरीर और मन के साथ अपनी पहचान नहीं बनाता, इसलिए उन पर जो कुछ भी घटित होता है, उससे वह प्रभावित नहीं होता, बल्कि अपने वास्तविक तत्व ब्रह्म में स्थित रहता है। यह अवस्था 'जीवनमुक्ति' या जीवन-मुक्ति कहलाती है। (इस संदर्भ में निम्नलिखित पर श्री शंकर के भाष्य का संदर्भ लिया जा सकता है: - ब्र.उप.1.4.7., ब्र.उप.1.4.10., अ.उप.6.14.2., ब्र.उप.4.4.22., भगवद्गीता, 4.37)।

   आत्मा के बारे में विभिन्न विचारधाराओं में विभिन्न मत हैं। लोकायतों (भौतिकवादियों) का एक समूह भौतिक शरीर को आत्मा मानता है। दूसरा समूह इंद्रियों को आत्मा मानता है, दूसरा प्राण को, तीसरा मन को, और तीसरा बुद्धि को। ये सभी निरंतर परिवर्तन से गुजरते रहते हैं, इसलिए ये आत्मा नहीं हो सकते जो अपरिवर्तनीय है। बौद्ध कहते हैं कि अनुभूति और अनुभूति के विषय दोनों ही भ्रम की रचनाएँ हैं। 

वेदान्ती इस दृष्टिकोण को यह कहकर अस्वीकार करते हैं कि बिना आधार के भ्रम नहीं हो सकता। बिना आधार के रस्सी के साँप का भ्रम नहीं हो सकता। बौद्ध मानते हैं कि केवल शून्य है, लेकिन शून्य का भी कोई साक्षी होना चाहिए; अन्यथा यह कहना असंभव होगा कि शून्य है।       

      इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवर्तनशील ब्रह्मांड के लिए एक अपरिवर्तनीय आधार अवश्य होना चाहिए। वह आधार ब्रह्म या आत्मा है। आत्मा के आकार के बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग मानते हैं कि यह अणु है, कुछ कहते हैं कि यह सर्वव्यापी है और कुछ कहते हैं कि यह मध्यम आकार का है।

   हिरण्यगर्भ सभी जीवों के सूक्ष्म शरीरों की समग्रता है। विराट सभी स्थूल शरीरों की समग्रता है।   जिस व्यक्ति ने अपने अपरिवर्तनशील स्व अर्थात् शुद्ध चेतना के साथ अपनी पहचान कर ली है, उस पर शरीर में होने वाली किसी भी घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

वैराग्य, सत्त्वज्ञान और कामना-प्रेरित कर्मों का त्याग, ये तीनों एक दूसरे के सहायक हैं। विषयों से उत्पन्न होने वाले सुख अनित्य हैं, यह बोध होने से वैराग्य उत्पन्न होता है। शास्त्रों के श्रवण, मनन और ध्यान से सत्त्वज्ञान प्राप्त होता है।

ब्रह्मलोकतृणीकारो वैराग्यस्यावधिर्मतः ।

देहात्मवत्परात्मत्वदार्ढ्ये बोधः समाप्यते ॥ २८५॥

वैराग्य की पराकाष्ठा सभी इच्छाओं की व्यर्थता का ऐसा दृढ़ विश्वास है कि व्यक्ति ब्रह्मलोक  की स्वर्ग के उच्चतम सुखों को भी तिनके के समान मानता है; और आध्यात्मिक ज्ञान की ऊंचाई तब पहुंचती है जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च स्व के साथ अपनी पहचान को उसी दृढ़ता से महसूस करता है जैसे एक सामान्य व्यक्ति सहज रूप से भौतिक शरीर के साथ अपनी पहचान महसूस करता है। 285.

The height of detachment is such a conviction of the futility of all desires that one considers like straw even the highest pleasures of the world of Brahma; and the height of spiritual knowledge is reached when one feels one’s identity with the supreme Self as firmly as an ordinary man instinctively feels his identity with the physical body. 285.

कामना-प्रेरित कर्मों का निरोध मन के संयम से होता है। इन तीनों में सत्त्वज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है। ये तीनों उस व्यक्ति को प्राप्त होते हैं, जिसने असंख्य जन्मों में बहुत सारा पुण्य अर्जित किया है। वैराग्य की पराकाष्ठा ब्रह्म लोक के सुखों की भी इच्छा का पूर्णतया अभाव है। 

सत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा तब प्राप्त होती है, जब व्यक्ति अपने को परम आत्मा के साथ उसी प्रकार दृढ़ता से अनुभव करता है, जिस प्रकार एक साधारण व्यक्ति अपने को अपने भौतिक शरीर के साथ पहचानता है। कामना-प्रेरित कर्मों के निरोध की पराकाष्ठा, सुषुप्ति की तरह जागृत अवस्था में भी सभी सांसारिक कार्यों का पूर्णतया विस्मरण है

   प्रबुद्ध लोग अपने कर्मफल के अनुसार अलग-अलग तरीकों से व्यवहार कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता के बारे में उनके ज्ञान या उनकी मुक्ति की प्रकृति में कोई अंतर नहीं होता है।

जगच्चित्रं स्वचैतन्ये पटे चित्रमिवार्पितम् ।

मायया तदपेक्षैव चैतन्ये परिशिष्यताम् ॥ २८९॥

जिस प्रकार परम चैतन्य पर कैनवास पर (आत्मा या ब्रह्म रूपी सिनेमा के परदे पर) जगत (ब्रह्माण्ड) चित्र (शोले और महाभारत फिल्म) की तरह चित्रित है; इस प्रकार माया भी चैतन्य पर आरोपित है। जब हम माया के कारण होने वाले भेदों (M/F शरीर) आदि आकस्मिक भेदों को अनदेखा कर देते हैं, तो केवल चेतना (आत्मा) ही शेष रह जाती है। 289.   ब्रह्माण्ड परम ब्रह्म पर खींचे गए चित्र के समान है। जब हम माया के कारण होने वाले भेदों को अनदेखा कर देते हैं, तो केवल शुद्ध चेतना ही शेष रह जाती है।

On the supreme consciousness the world is drawn like a picture on canvas; thus is Maya superimposed on consciousness. When we forget the adventitious distinctions, consciousness alone remains. 289.

चित्रदीपमिमं नित्यं येऽनुसन्दधते बुधाः ।

पश्यन्तोऽपि जगच्चित्रं ते मुह्यन्ति न पूर्ववत् ॥ २९०॥

 'चित्र का दीपक' [=सिनेमा का रुपहला पर्दा] ‘Lamp of the Picture’,नामक  इस अध्याय का नियमित अध्ययन करने से बुद्धिमान साधक को इस भ्रम से मुक्ति मिल जाती है कि संसार वास्तविक है, भले ही वह संसार को पहले जैसा ही देखता रहे।      

यह अध्याय, जब नियमित रूप से अध्ययन किया जाता है, तो एक बुद्धिमान साधक को मायावी दिखावे के कारण होने वाले भ्रम से मुक्ति मिलती है, भले ही वह उन्हें पहले की तरह ही देख सके। 290.

This chapter called the ‘Lamp of the Picture’, when regularly studied, gives an intelligent aspirant freedom from the delusion due to illusive appearances, even though he may see them as before. 290.

अध्याय 6 का अंत

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🔱पंचदशी-5 🔱 Great Sayings : महावाक्य विवेक- महावाक्यों से उत्पन्न ज्ञान के महत्व को समझना !

 महावाक्यविवेकोनाम - पञ्चमः परिच्छेदः ।

पंचदशी

अध्याय 5

[8 -श्लोक]  

महावाक्य विवेक- महावाक्यों से उत्पन्न ज्ञान के महत्व को समझना

 [Understanding the import of the Mahavakyas] 

   इस अध्याय में चारों वेदों के चार महावाक्यों का अर्थ समझाया गया है।

  येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च ।

स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ॥ १॥

1. जिस चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा मनुष्य देखता है, सुनता है, सूंघता है, बोलता है तथा मीठे-कड़वे रस का स्वाद आदि में भेद करता है, उसे प्रज्ञान अर्थात चेतना कहते हैं। ['प्रज्ञानं ब्रह्म' - ऐतरेय उपनिषद तृतीय-1-1]

चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वश्वगवादिशु।

चैतन्यमेकं ब्रह्मातः प्रज्ञानं ब्रह्ममय्यपि ॥ 2॥

2. ब्रह्मा, इन्द्र आदि उत्तम जीव (देवताओं)  में, तथा मनुष्य आदि मध्यम जीव में , एवं घोड़े, गाय आदि अधम जीवों में जो चेतना है, वही ब्रह्म है।  वही चेतना देवताओं, मनुष्यों तथा अन्य सभी प्राणियों को जीवन प्रदान करती है। इसी लिये मुझमें भी जो चेतना अंतर्निहित है, वही ब्रह्म है।

व्याख्या के लिए लिया गया पहला महावाक्य है 'प्रज्ञानं ब्रह्म' (ऋग्वेद में ऐतरेय उपनिषद, 3.1.3)। 

मूलः परमात्मास्मिन्धे विद्याधिकारिणि।

बुद्धेः साक्षितया स्थित्वा स्फुरन्नहमितिर्यते ॥ 3॥

3. अनंत, परमसत्ता आत्मा ही इस मायामय जगत में शरीर में बुद्धि के कार्यों का साक्षी होकर, आत्मज्ञान के योग्य होकर, वे ही 'अहम' या 'मैं' नाम से अभिहित रहती है।

स्वतः पूर्णः परमात्मात्र ब्रह्मशब्देन वर्णितः।

अस्मित्यैक्यपरमर्षस्तेन ब्रह्म भवाम्यहम् ॥ 4॥

4 स्वभावतः अनंत, परम आत्मा को यहाँ ब्रह्म शब्द से वर्णित किया गया है। 'अस्मि' (हूँ) शब्द 'अहम्' (मैं) और 'ब्रह्म्' की पहचान को दर्शाता है। इसलिए 'मैं ब्रह्म हूँ' (यह पाठ का अर्थ है)। ['अहम् ब्रह्मास्मि' - बृहदारण्यक उपनिषद I-IV-10

   अगला महावाक्य है 'अहम् ब्रह्म अस्मि' (बृहदारण्यक उपनिषद, शुक्ल यजुर्वेद में 1.4.10), जिसका अर्थ है 'मैं ब्रह्म हूँ'। अनंत, सर्वोच्च ब्रह्म, जो सभी के भीतर रहने वाला आत्मा है, बुद्धि के सभी कार्यों का साक्षी है, उसे 'मैं' के रूप में जाना जाता है। 

जिस व्यक्ति ने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण, तथा इन्द्रियविषयों के सभी सुखों के प्रति पूर्ण अनासक्ति और मुक्ति की तीव्र इच्छा जैसी आवश्यक योग्यताएँ हासिल कर ली हैं, वह इस आत्मा के साथ अपनी तादात्म्य का अनुभव करने के योग्य बन जाता है।

एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्।

सृष्टेः पुराधुनाप्यस्य तादृक्त्वं तदितिर्यते ॥ 5॥

सृष्टि के पहले जो एक अद्वितीय सत्ता (ब्रह्म या सच्चिदानन्द) है, वह नाम-रूप से रहित है, दूसरा नहीं है। जो सृष्टि के बाद भी वह सत्ता उसी अवस्था में विद्यमान है, उसे तत ' यानि वही - 'वह' और 'तू' की पहचान 'असि' शब्द से व्यक्त की जाती है।'तत्त्वमसि' शब्द से सूचित किया जाता है। ['तत्त्वमसि' - छान्दोग्य उपनिषद् VI-viii-15] 

   सामवेद के छांदोग्य उपनिषद (6.8.15) में महावाक्य है 'तत् त्वम् असि', जिसका अर्थ है 'वह तुम हो'। ब्रह्मांड की रचना से पहले नाम और रूप के बिना केवल एक अद्वैत अस्तित्व था। अब भी यह उसी स्थिति में मौजूद है (लेकिन माया द्वारा उस पर आरोपित नामों और रूपों के ब्रह्मांड के साथ)।    प्रत्येक प्राणी में निवास करने वाली आत्मा जो शरीर, मन और इंद्रियों से परे है, उसे 'तू' शब्द से दर्शाया जाता है। इस अस्तित्व को 'वह' शब्द से दर्शाया गया है।

श्रोतुर्देहेन्द्रियतीतं वस्तुत्र त्वं पदेरिटम्।

एकात्म गृह्यतेऽसीति तदैक्यामनुभूयताम् ॥ 6॥

6. श्रोता के शरीर -इन्द्रिय और मन से परे जो वस्तु है वही आत्मा है।  चेतना का वह तत्व जो जिज्ञासु के शरीर, इन्द्रियों और मन से परे है, उसे यहाँ 'तू' शब्द से दर्शाया गया है। 'असि' (पद ) के द्वारा उनके साथ एकत्व की अनुभूति दर्शाती है। शब्द उनकी पहचान दर्शाता है। उस पहचान को अनुभव करना होगा।

   स्वप्रकाशाप्रोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम्।

अहंकारादिदेहान्तात्प्रत्यगात्मेति गीयते ॥ 7॥

7. अयम - 'यह' शब्द का उच्चारण करने से तात्पर्य है कि आत्मा स्वयं प्रकाशमान है और प्रत्यक्ष अनुभव की जाने वाली है। उसे प्रत्यगत्मा कहते हैं जो अहंकार और शरीर के बीच की सभी चीजों को समाहित करने वाला अन्तर्यामी तत्त्व है। ['अयमात्मा ब्रह्म' - माण्डूक्य उपनिषद् 2]अथर्ववेद के अनुसार मांडूक्य उपनिषद में महावाक्य ‘अयं आत्मा ब्रह्म’ है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित आत्मा ही ब्रह्म है।

दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते।

ब्रह्मशब्देन तद्ब्रह्म स्वप्रकाशात्मरूपकम् ॥ 8॥

8. सम्पूर्ण दृश्यमान ब्रह्माण्ड का सार ब्रह्म शब्द से सूचित होता है। वह ब्रह्म स्वयंप्रकाश आत्मा के समान प्रकृति का है।

   उपर्युक्त महावाक्यों में घोषित पहचान शब्दों के प्राथमिक अर्थों के संदर्भ में नहीं है, बल्कि केवल उनके निहित अर्थों के संदर्भ में है। इसे अध्याय 1 के सारांश में विस्तृत रूप से बताया गया है, जिसका संदर्भ लिया जा सकता है।  

                 महावाक्य से ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है - दो सिद्धांत।

   एक ज्ञात सिद्धांत के अनुसार,मंडण मिश्र द्वारा बताए गए प्रसंख्यान (=ध्यान) सिद्धांत के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान संबंधपरक और मध्यस्थ होता है, जैसे वाक्य से उत्पन्न होने वाला कोई भी अन्य ज्ञान। ऐसा ज्ञान ब्रह्म को नहीं समझ सकता जो गैर-संबंधपरक और तात्कालिक है। ध्यान ( प्रसंख्यान) एक अन्य ज्ञान को जन्म देता है जो गैर-संबंधपरक और तात्कालिक होता है। यह वह ज्ञान है जो अज्ञान को नष्ट करता है।

   सुरेश्वर का मत उपरोक्त के विपरीत है। ब्रह्म का ज्ञान सीधे महावाक्यों से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार भी ध्यान आवश्यक है, लेकिन यह केवल श्रवण को पूर्ण करने के लिए है। दोनों सिद्धांतों के बीच अंतर यह है कि, सुरेश्वर के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान तात्कालिक और गैर-संबंधपरक है, जबकि दूसरे सिद्धांत के अनुसार यह ज्ञान केवल मध्यस्थ और संबंधपरक है। विस्तृत चर्चा के लिए सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि का संदर्भ लिया जा सकता है।

          मंडन के दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए, वाचस्पति मिश्र का मानना ​​है कि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए मन ही साधन है। ऊपर बताए गए दूसरे दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए, विवरण के लेखक प्रकाशमण कहते हैं कि महावाक्य स्वयं साधन है, हालांकि ज्ञान निस्संदेह मन में ही उत्पन्न होता है।    

   महावाक्य मन को ब्रह्म का रूप प्रदान करके आत्मज्ञान को जन्म देता है। प्रश्न उठता है कि जब ब्रह्म का कोई रूप नहीं है, तो मन को ब्रह्म का रूप ( अखंड-आकार-वृत्ति) कहने का क्या अर्थ है ? इसे विद्यारण्य ने जीवनमुक्ति-विवेक के अध्याय 3 में एक उदाहरण लेकर समझाया है। मिट्टी का बना घड़ा बनते ही सर्वव्यापी आकाश से भर जाता है। बाद में उसमें जल, चावल या अन्य पदार्थ भरना मनुष्य के प्रयास के कारण होता है। घड़े में भरा जल आदि तो निकाला जा सकता है, परंतु अंदर का स्थान कभी नहीं निकाला जा सकता। घड़े का मुंह वायुरोधी ढंग से बंद कर देने पर भी वह वहीं रहता है। 

इसी प्रकार मन भी जन्म लेते समय आत्मा की चेतना से भरा हुआ अस्तित्व में आता है। जन्म के पश्चात् वह गुण-दोष के प्रभाव से बर्तन, वस्त्र, रंग, रस, सुख, दुःख आदि रूपों को उसी प्रकार धारण कर लेता है, जैसे पिघले हुए ताँबे को साँचों में ढाला जाता है। इनमें से रंग, रस आदि जो परिवर्तन अनात्म हैं, उन्हें मन से हटाया जा सकता है, परन्तु आत्मा का रूप, जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर नहीं है, उसे हटाया नहीं जा सकता। इस प्रकार जब मन से अन्य सब विचार हट जाते हैं, तब आत्मा का साक्षात्कार बिना किसी बाधा के हो जाता है। कहा गया है- "मन जो स्वभाव से ही आत्मा और अनात्म दोनों में से किसी एक रूप को धारण करने को प्रवृत्त रहता है, उसे केवल आत्मा का रूप धारण करके अनात्म के बोध को पृष्ठभूमि में डाल देना चाहिए।" और साथ ही...मन गुण-दोष के प्रभाव से सुख, दुःख आदि रूपों को धारण करता है, जबकि मन का रूप, अपने मूल रूप में, किसी बाह्य कारण से बद्ध नहीं होता। समस्त विकारों से रहित मन में परम आनन्द का प्रकाश होता है। इस प्रकार, जब मन अन्य सभी विचारों से शून्य हो जाता है, तो आत्म-ज्ञान उत्पन्न होता है।  

महावाक्य �अहं ब्रह्म अस्मि� का अर्थ

 इस महावाक्य की व्याख्या सुरेश्वर ने नैष्कर्म्यसिद्धि, 2.29 में इस प्रकार की है:--जैसे वाक्य में, 'यह पद पुरुष है', पहले का बोध कि पद है, बाद के बोध से कि यह पुरुष है (पद नहीं), 'मैं ब्रह्म हूँ' बोध 'मैं' बोध को पूर्णतया हटा देता है। सुरेश्वर अहम् ब्रह्म अस्मि, (मैं ब्रह्म हूँ) कथन की व्याख्या 'बाधायाम् समानाधिकारणम्' के नाम से करते हैं। संस्कृत के वाक्य में, जो शब्द, एक ही कारक-अंत होने पर भी एक ही बात को सूचित करते हैं, उन्हें समानाधिकारणम् कहा जाता है। शब्दों के बीच के संबंध को समानाधिकारणम् कहते हैं। यह संबंध दो प्रकार का होता है, मुख्य समानाधिकारणम् और बाधायाम् समानाधिकारणम्। पूर्व में, शब्दों द्वारा निरूपित वस्तुओं की एक ही सत्तामूलक स्थिति (या वास्तविकता का एक ही क्रम) होगी। उदाहरण के लिए, वाक्य में, बर्तन-स्थान केवल महान (बाहरी) स्थान है, बर्तन के भीतर का स्थान और महान स्थान दोनों ही अनुभवजन्य रूप से वास्तविक हैं ( व्यवहारिक सत्यम्)। उनके बीच का अंतर केवल बर्तन के रूप में उपाधि के कारण है। जब उपाधि हटा दी जाती है, तो वे एक हो जाते हैं, जो वे वास्तव में पहले से ही हैं। लेकिन यदि वाक्य के शब्द, एक ही मामले के अंत में, उन वस्तुओं को दर्शाते हैं जिनकी अलग-अलग सत्तामूलक स्थिति है, और यदि वे केवल एक विचार व्यक्त करने का दावा करते हैं, तो वे बाधयाम समानाधिकरणम् में हैं। उदाहरण के लिए, कथन में 'यह पद एक आदमी है', 'पद' और 'आदमी' शब्दों की अलग-अलग सत्तामूलक स्थिति है। चूँकि जो विद्यमान है वह मनुष्य है, पद नहीं, अतः 'मनुष्य' अनुभवजन्य रूप से वास्तविक ( व्यवहारिक) है और 'पद' केवल प्रत्यक्षतः वास्तविक ( प्रतिभासिक) है। इस प्रकार, जिस प्रकार 'यह पद मनुष्य है' कथन सुनकर यह विचार दूर हो जाता है कि जो दिखाई देता है वह पद है, उसी प्रकार 'मैं मनुष्य हूँ', 'मैं सुखी हूँ' आदि रूपों का गलत ज्ञान भी दूर हो जाता है जब व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वह ' अहम् ब्रह्म अस्मि' कथन सुनकर ब्रह्म है।

   सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सार ब्रह्म है। वही ब्रह्म स्वयं प्रकाशमान अन्तर्निहित आत्मा है।

अध्याय 5 का अंत  

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🔱पंचदशी-4 🔱🏹 द्वैत विवेक- (E =MC2) की समझ 🔱 🏹 Dvaita Viveka-- Discrimination of Duality

 अध्याय 4

द्वैतविवेकः 

[67 -श्लोक ] 

🔱🏹 द्वैत विवेक-  (E =MC2) की समझ 🔱 🏹   

द्वैत मत (Duality) की समझ (डिस्क्रिमिनेशन)

[माया (Matter) उनकी शक्ति (ऊर्जा-Energy) का विस्तार है। ] 

Dvaita Viveka-- Discrimination of Duality

   इस अध्याय में ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत और जीव द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन और विभेद किया गया है। इससे पता चलेगा कि बंधन का कारण क्या है और मोक्ष के आकांक्षी को किसका त्याग करना चाहिए।

ईश्वरेणापि जीवनेन सृष्टं द्वैतं प्रपञ्च्यते।

विवेके सति जीवने हेयो बंधः स्फुटीभवेत् ॥ (1) 

इस खंड में हम ईश्वर और जीव द्वारा निर्मित द्वैत रूप जगत  संसार पर चर्चा करेंगे। इस प्रकार की आलोचनात्मक चर्चा से, द्वैत की वह सीमा स्पष्ट हो जाएगी जो बंधन का कारण बनती है, जिसका त्याग जीव को करना होगा।

इस खंड में हम ईश्वर और जीव द्वारा निर्मित द्वैत के जगत पर चर्चा करेंगे। इस प्रकार की विवेक-प्रयोग करके हमलोग वास्तव में देह हैं या देहधारी आत्मा हैं ? पर आलोचनात्मक चर्चा से, द्वैत की वह सीमा (मिथ्या अहं) स्पष्ट हो जाएगी जो बंधन का कारण बनती है, जिसका विवेक-प्रयोग शक्ति द्वारा  जीव को मिथ्या देहाध्यास का त्याग करना होगा।

In this section we will discuss the world of duality created by God and the soul. Through such critical discussion, the extent of duality that causes bondage will become clear, which the living being will have to renounce.

[विवेक = भली बुरी वस्तु का ज्ञान । सत्- असत्-मिथ्या  का ज्ञान । मन की वह शक्ति जिससे भले बुरे का ज्ञान होता हो । अच्छे और बुरे को पहचानने की शक्ति ।सत्य ज्ञान ।प्रकृत्ति और पुरुष की विभिन्नता का ज्ञान ।] 

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।

स मइ सृजतीयाहुः श्वेताश्वतर शाखिनः ॥ 2॥

श्वेताश्वतर उपनिषद शाखा के ऋषि कहते हैं : 'माया को प्रकृति समझना और उसके अधिष्ठान रूपी ब्रह्म को महेश्वर [महादेव या महान ईश्वर] समझना।  (जो इसे अस्तित्व और चेतना प्रदान करता है और इसका मार्गदर्शन करता है)। वही मायी अर्थात माया उपाधि विशिष्ट ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण) संसार का सृजन/प्रक्षेपण करता है।

Shvetashvatara Upanishad states: 'Know Maya to be nature and Brahman associated with Maya to be the great God (who gives it existence and consciousness and guides it). He is the one who creates the world. 

आत्मा वा इदम्ग्रेऽभूत्स अक्षत् सृजा इति।

सङ्कल्पेनासृज्जलोकांस एतानिति भवृचाः ॥ 3॥

ऐतरेय उपनिषद् में कहा गया है कि सृष्टि के पहले केवल आत्मा थी, और उसने सोचा, 'मैं संसार की रचना करूँ', और फिर उसने अपनी इच्छा से संसार की रचना की। 3.

ऐतरेय उपनिषद १/१ कहता है कि सृष्टि से पहले केवल आत्मा (यानी ब्रह्म) ही था। उसने इच्छा की - " स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ।"-  तब उस (ब्रह्म) ने सोचा की मैं लोकों का सृजन करुं।), और उसने अपनी इच्छा से, अपने संकल्प मात्र से जगत- ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। 

खंवायवग्निज्लोरव्योषध्यन्नदेहाः क्रमादमि।

संभूता ब्राह्मणस्तस्मादेत्समादात्मनोऽखिलाः ॥ 4॥

तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा या ब्रह्म से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति, अन्न और शरीर सहित सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई।

बहुसंयमेवतः प्रजायेयेति कामतः।

सृजित्सर्वं तपस्तप्त्वाऽतप्तिरः॥ 5॥

तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि 'मैं अनेक हो जाऊँगा, इसलिए मैं सृष्टि करूँगा' यह इच्छा रखते हुए भगवान ने ध्यान किया और इस प्रकार उन्होंने संसार की रचना की।

तैत्तिरीय उपनिषद (२/६) कहता है -सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।इदं सर्वमसृजत। यदिदं किञ्च। तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्‌। तदनुप्रविश्य। सच्च त्यच्चाभवत्।  कि आत्मा या ब्रह्म से क्रमिक रूप से आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति, भोजन और शरीर उत्पन्न हुए। ईश्वर ने इच्छा की, "मुझे अनेक होने दो, मुझे बनाने दो", और ध्यान किया और इस प्रकार ब्रह्मांड का निर्माण किया। 

इदम्ग्रे सदेहवासीद्बहुत्वय तदैक्षत्।

तेजोऽवन्नन्दजादिनि ससर्जेति च समागाः ॥ 6॥

छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है --एको अहं बहुस्याम। ' अर्थात  सृष्टि से पहले केवल ब्रह्म या आत्मा ही अस्तित्व में थी, और उसका स्वभाव शुद्ध अस्तित्व था। उसने अनेक रूप धारण करने की इच्छा की और अग्नि, जल, भोजन और अंडों से उत्पन्न प्राणियों सहित सभी चीजों की रचना की।

विस्फुल्लिङ्गा यथा वह्नेर्जायन्तेऽक्षरतस्तथा।

विविधाश्चिज्दा भव इत्याथर्वणिकी श्रुतिः ॥ 7॥

मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से ( धधकती हुई आग से) चिंगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार अपरिवर्तनशील ब्रह्म (परम् सत्य) से विभिन्न सजीव तथा अचेतन वस्तुएं उत्पन्न हुईं

जगदव्याकृतं पूर्वमासीद्वयक्रियतेऽधुना।

दृश्याभ्यां नामरूपाभ्यां विराददिषु ते स्फुटकाः ॥ 8॥

वृहदारण्यक उपनिषद में यह भी कहा गया है कि अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व सम्पूर्ण जगत ब्रह्म में ही संभाव्य रूप में- अव्यक्त अवस्था में विद्यमान था; तत्पश्चात् नाम और रूप धारण करके वह विराट् रूप में अस्तित्व में आया।

वीराननुर्नरो गावः खरश्वजावयस्तथा।

पिपीलिकपूर्णद्वन्द्वमिति वाजसनेयिनः ॥ 9॥

ब्रह्म (या विराट) से ही प्राचीन विधि-निर्माताओं 'मनु' -महाराज , मनुष्य, गाय, गधे, घोड़े, बकरी आदि का जन्म हुआ, नर और मादा (M/F) दोनों ही प्राणियों से लेकर चींटियों तक का जन्म हुआ। बृहदारण्यक उपनिषद् में ऐसा कहा गया है।

कृत्वा रूपान्तरं जन्मं देहे प्रविषदीश्वरः।

इति ताः श्रुतयः प्राहु जीवत्वं प्राणधारणात् ॥ 10॥

इन श्रुतियों के अनुसार ब्रह्म या आत्मा स्वयं जीवों के रूप में अनेक रूप धारण करके इन सभी  शरीरों में जीव के रूप में प्रविष्ट हुए। जीव इसलिए कहा गया है क्योंकि वह (शरीर में) प्राणों को या महत्वपूर्ण वायु को धारण करता है 

चैतन्यं यद्धिष्ठानं लिंगदेहश्च यः पुनः आरंभ।

चिच्चया लिंगदेहस्थत तत्संघोजीव उच्यते ॥ ॥॥

मूलाधार या शुद्ध चेतना, सूक्ष्म शरीर तथा सूक्ष्म शरीर पर शुद्ध चेतना का प्रतिबिंब - ये तीनों मिलकर जीव बनते हैं।

[ 1. भौतिक शरीर (भौतिक शरीर) जो अन्नमयकोश या स्थूल शरीर से मेल खाता है।

2. सूक्ष्म शरीर (सूक्ष्म शरीर) जो एक से मेल खाता है। प्राणमय कोष। बी. मनोमय कोष। सी. विज्ञानमयकोश। 

3. कारण शरीर (करण शरीर) जो आनन्दमय कोष से मेल खाता है।

भौतिक शरीर (Physical Body) मूलाधार चक्र - अन्नमयकोश। जब भौतिक शरीर मूलाधार चक्र से जुड़ा होता है, तो दो विपरीत दिशाओं में दो संभावनाएँ होती हैं। एक संभावना है कि शरीर का सेक्स की ओर झुकाव और दूसरी संभावना है कि उसी ऊर्जा का सुपर चेतना की ओर रूपांतरण हो। यह रूपांतरण ध्यान के माध्यम से होता है। सेक्स एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य) के माध्यम से यौन ऊर्जा का रूपांतरण सुपर चेतना की ओर ले जाता है। इस शरीर के स्तर पर दमन बदसूरत और तनावपूर्ण है लेकिन रूपांतरण आनंद है।] 

माहेश्वरी तु या माया तस्या निर्माण शक्तिवत्।

विद्यते मोहशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसौ ॥ 12 ॥

[तु (और) माहेश्वरी (परमेश्वर की उपाधि रूपा ) या माया (जो माया ) तस्याः (उसकी ) निर्माण-शक्ति -वत (= जगत ब्रह्माण्ड सृजन करने का सामर्थ्य  जैसी ) मोहशक्तिः च (मोहशक्ति भी ) विद्यते  (है !), असौ ( वही भ्रमित करने की शक्ति ) तं जीवं(पूर्वोक्त जीव को ) मोह्यति (मोहग्रस्त करती है। ] ) 

और महादेव की उपाधिरूपा जो माया शक्ति [माहेश्वरी] हैं उनमें जैसे अनन्त ब्रह्माण्डों का  सृजन/प्रक्षेपण करने की शक्ति रहती है, उसी प्रकार उनमें जीव को मोहग्रस्त कर देने की शक्ति भी रहती है, जो सबको मोह में डाल देती है। वही शक्ति पूर्वोक्त जीव को मोह में (M/F वाले  देहभाव में) डाल कर आत्मस्वरूप को विस्मृत करवा देती है।  माया, जो ईश्वर की शक्ति है, में सृजन करने की शक्ति के अलावा, भ्रमित करने की शक्ति भी है। [पंचदशी/4-12] 

 श्वेताश्वतर उपनिषद (4.10) कहता है: माया को प्रकृति जानो और माया से जुड़े ब्रह्म को ईश्वर जानो"। ईश्वर (मायापति ईश्वर) ब्रह्मांड का निर्माता है। 

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मयिनं च महेश्वरम्।

तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥

तू माया (तीनों गुणों) को प्रकृति की शक्ति जान और माया के स्वामी को महान् 'ईश्वर'(अवतार वरिष्ठ) जान; यह सम्पूर्ण जगत् उसी के अस्तित्व से व्याप्त है, जो उसके अंग हैं।"

कुछ लोग दावा करते हैं कि माया (आवरण और विक्षेप शक्ति -तीनों गुण)  मिथ्या (जगत न सत है, न असत है - परवर्तनशील होने से मिथ्या या अस्तित्वहीन) है। वे कहते हैं कि भौतिक ऊर्जा माया हमारी अज्ञानता के कारण निर्मित एक धारणा है।  अगर कोई आध्यात्मिक ज्ञान (आत्मज्ञान)  प्राप्त कर लेता है, तो माया का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। आत्मा ही परम सत्य है, और एक बार जब हम इसे समझ लेते हैं, तो सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। 

[स्वयं को शरीर समझकर शरीर -धारण किये रहने तक या - माया के राज्य में रहते हुए (E =MC2 > M/F शरीर के आकर्षण को ) को भ्रम नहीं कहना चाहिए) 'माया' को ईश्वर की शक्ति मानकर उनका पुत्र बने रहना चाहिए।]  श्रीकृष्ण ने पहले ही कहा है कि माया (Matter) उनकी शक्ति (ऊर्जा-Energy) का विस्तार है औ (E =MC2) > M/F शरीर का आकर्षण) भ्रम नहीं है। "कुछ लोग सोचते हैं कि माया (शक्ति) मिथ्या है (अस्तित्वहीन है), लेकिन वास्तव में यह ईश्वर की सेवा में लगी एक ऊर्जा है।"  कागभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद (रामचरितमानस : उत्तरकाण्ड) में एक  दोहा है- 

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ 

This Maya is maidservant of Shri Raghuveer. Although this maya is false when understood, but without the grace of Shri Ram, this maya cannot be avoided.

यह माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर यह माया मिथ्या है, किंतु श्री राम की कृपा के बिना इस माया से नहीं बचा जा सकता। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।

भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस सिद्धांत को भगवद गीता (7: 14,15,16 श्लोक) में स्वीकार किया है  यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दूर्त्या |

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || 7 /14||

BG 7.14 : मेरी दिव्य शक्ति माया, जो प्रकृति के तीन गुणों से युक्त है, मेरी शक्ति है - इसीलिए इस पर विजय पाना बहुत कठिन है। किन्तु जो लोग मेरी शरण में आते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

श्री कृष्ण ने यहाँ उल्लेख किया है कि चूँकि माया (M/F शरीर का आकर्षण) उनकी शक्ति है, इसलिए इसे जीतना कठिन है। यदि कोई दावा करता है कि उसने माया को हरा दिया है, तो इसका अर्थ है कि उसने भगवान को हरा दिया है। कोई भी भगवान को नहीं जीत सकता; इसलिए माया भी उतनी ही अजेय है। मनुष्य का मन भी माया से बना है, इसीलिए, ईश्वर प्रणिधान का अभ्यास किये बिना-  केवल आत्म-प्रयास से कोई भी योगी , ज्ञानी, तपस्वी या कर्मी अपने मन को सफलतापूर्वक नियंत्रित नहीं कर सकता

तब कोई पूछ सकता है, "क्या माया पर विजय पाना असंभव है?" इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में इस प्रश्न का उत्तर है। श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो लोग मुझ परमेश्वर को समर्पित हो जाते हैं, वे मेरी कृपा से भवसागर को आसानी से पार कर लेंगे। मैं माया को आदेश दूंगा कि वह इस आत्मा को छोड़ दे, क्योंकि अब यह मेरी हो गई है।" 

भगवान के निर्देश पर माया, भगवान की भौतिक ऊर्जा, समर्पित आत्मा को अपने चंगुल से मुक्त कर देती है। ईश्वर की शक्ति [(E =MC2) > M/F शरीर का आकर्षण शक्ति) यह कहती है, "मेरा काम आत्मा को तब तक परेशान करना है जब तक वह भगवान के चरणों में समर्पित न हो जाए; एक बार आत्मा वहां पहुंच जाती है, तो मेरा काम पूरा हो जाता है।"

यहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी से एक उदाहरण है। मान लीजिए कि आप अपने किसी दोस्त से मिलने जाते हैं, जिसका घर बहुत बड़ा है। गेट के बाहर एक बोर्ड लगा है, जिस पर लिखा है, “कुत्तों से सावधान रहें।” जब आप अंदर देखते हैं, तो लॉन पर एक प्रशिक्षित गार्ड कुत्ता खड़ा होता है। जैसे ही वह आपको देखता है, वह डरकर, ख़तरनाक ढंग से गुर्राना शुरू कर देता है; आप पीछे के गेट से जाने का फ़ैसला करते हैं। लेकिन इससे पहले कि आप घर के पीछे पहुँचें, वह वहाँ आपका इंतज़ार कर रहा होता है और बहुत तेज़ी से गुर्राता है, मानो कह रहा हो, “तुमने इस घर में कदम रखने की हिम्मत की।” आपके पास कोई विकल्प नहीं होता, और आप अपने दोस्त का नाम ज़ोर से पुकारते हैं। सारा शोर सुनकर, आपका दोस्त आता है और आपको गेट पर अपने कुत्ते से परेशान पाता है। वह कुत्ते से सख्ती से कहता है, “नहीं, टॉमी, वह दोस्त है, हमें उसे अंदर आने देना चाहिए, आओ और यहाँ बैठो।” अपने मालिक की आज्ञा सुनकर, कुत्ता चुपचाप उसके पास जाकर बैठ जाता है। अब आप गेट खोल सकते हैं और बिना किसी डर के अंदर जा सकते हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष के लिए मेरी माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर है। उसी अहं के  कारण हम अपने परमात्म स्वरूप को भूलकर संसारी जीवभाव (M/F देह भाव)   को प्राप्त हो गये हैं रोग तथा उपचार को बताकर भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण स्वास्थ्य का आश्वासन भी देते हैं। जो साधक मेरी शरण में आते हैं वे माया को तर जाते हैं। शरण में आने  से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है।  एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप का ध्यान करना (तीनों ऐषणाओं से अनासक्त बना देने में समर्थ इष्टदेव -अवतार वरिष्ठ को खोजकर उनका ध्यान करना) यह साक्षात् साधन है और ध्यान के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने के उपाय  मनःसंयोग (अष्टांयोग) भी पहले बताये गये हैं। 

इसी तरह हम भी माया नामक भौतिक शक्ति  [(E =MC2) >तीनो ऐषणा कामिनी -कांचन , नामयश  या (M/F शरीर का आकर्षण शक्ति) के चंगुल में फंसे हुए हैं यद्यपि यह भगवान  के अधीन है, फिर भी यह हमें परेशान करती रहती है ताकि हम भगवान (परम् सत्य को खोजने युगावतार -श्रीरामकृष्ण देव) की ओर बढ़ते रहें हम अपने प्रयासों से माया को नहीं हरा सकते; केवल तभी जब हम भगवान (बादशाही अमल का सिक्का - अयोध्या, मथुरा, काशी के अवतार वरिष्ठ)  के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाएँ, उनकी (ठाकुर देव की ) कृपा से हम भवसागर को पार कर सकते हैं

हमारे मन में अगला प्रश्न यह होगा कि, "यदि माया को हराना इतना आसान है, तो हममें से अधिकांश लोग असफल क्यों हो जाते हैं?" यदि आपकी शरण में आने से माया को पार किया जा सकता है तो फिर सब लोग आपकी शरण में क्यों नहीं आते हैं इस पर कहते हैं- 

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।

दुष्कृत्य करने वाले, मूढ, नराधम पुरुष मुझे नहीं भजते हैं; माया के द्वारा जिनका विवेक-प्रयोग शक्ति (आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, आत्मसंयम, निःस्वार्थपरता आदि सद्गुण )  हर लिया गया है, वे हिंसा मिथ्याभाषण आदि आसुरी भावों के आश्रित हुए मनुष्य मुझ परमेश्वर की शरणमें नहीं आते। 

इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चार प्रकार के लोग हैं जो उनकी शरण में नहीं आते:

1. अज्ञानी।  ऐसे लोग जिनके पास आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है और जो आत्मा के शाश्वत होने और उसका अंतिम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है, के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उन्होंने इन अवधारणाओं के बारे में कभी नहीं सुना है या ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रक्रिया के बारे में नहीं जानते हैं।

2. आलसी।  ये वे लोग हैं जिन्हें यह तो पता है कि उन्हें क्या करना है, लेकिन अपने आलसी स्वभाव के कारण वे समर्पण करने की कोई पहल नहीं करना चाहते। आलस्य आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक बड़ा नुकसान हो सकता है। संस्कृत में एक कहावत है:

 अलस्य हि मनुष्याणां शरीररस्थो महान् रिपुः

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यम नवासिदति। 

"आलस्य एक बड़ा दुश्मन है, और यह हमारे शरीर में ही रहता है। काम मनुष्य का अच्छा मित्र है, जो कभी पतन की ओर नहीं ले जाता।"

3. भ्रमित बुद्धि -  ऐसे लोग जो अपनी बुद्धि पर इतने गर्वित होते हैं कि उन्हें शास्त्रों और संतों की शिक्षाओं पर कोई विश्वास नहीं होता। क्योंकि उनमें विश्वास नहीं होता, वे समर्पण का अभ्यास करने या ईश्वर प्राप्ति की अवधारणाओं को समझने में असमर्थ होते हैं।

4. राक्षसी स्वभाव।  ये वे लोग हैं जो ईश्वर और दुनिया के लिए उनके उद्देश्य के बारे में जानते हैं लेकिन फिर भी उनके खिलाफ काम करते हैं। यह उनके राक्षसी स्वभाव के कारण है; उन्हें ईश्वर और उनकी महिमा पसंद नहीं है। वे खुद भक्ति से दूर हैं और आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले अन्य लोगों को परेशान करने की कोशिश करते हैं। उनसे ईश्वर के प्रति समर्पण की बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं की जाती है।

विवेक-प्रयोग शक्ति के आनंद का माया द्वारा हरण : दुष्कृत्य करने वाले मूढ नराधम लोग ईश्वर की भक्ति नहीं करते हैं जिसका कारण यह है कि उनके विवेक का माया द्वारा हरण कर लिया जाता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य के उच्च विकास का लक्षण उसकी विवेकसम्पन्न बुद्धि है। इस बुद्धि के द्वारा वह अच्छा-बुरा उच्च-नीच नैतिक-अनैतिक, शाश्वत-नश्वर,  का विवेक कर पाता है। विवेक-सम्पन्न बुद्धि ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञानजनित जीवभाव के स्वप्न (स्वयं को M/F देह समझने) से जागकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप (आत्मा) का साक्षात् अनुभव कर सकता है।

विषयों के द्वारा (= तीनो ऐषणाओं के द्वारा) जो व्यक्ति क्षुब्ध नहीं होता उसमें ही यह विवेक-प्रयोग शक्ति (विवेकसंपन्न बुद्धि) प्रभावशाली ढंग से कार्य कर पाती है। मनुष्य में देहात्मभाव (स्वयं को M/F देह समझने का भाव )  जितना अधिक दृढ़ होगा उतनी ही अधिक विषयाभिमुखी उसकी प्रवृत्ति होगी। अत विषयभोग की कामना को पूर्ण करने हेतु वह निंद्य कर्म में भी प्रवृत्त होगा।  इस दृष्टि से पाप कर्म का अर्थ है मनुष्यत्व की उच्च स्थिति को पाकर भी स्वस्वरूप के प्रतिकूल किये गये कर्म। स्थूल देह को अपना स्वरूप समझकर मोहित हुए पुरुष ही पापकर्म करते हैं। ऐसे लोगों को यहाँ मूढ़ और आसुरी भाव का मनुष्य कहा गया है। गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरीभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। परन्तु जो पुण्यकर्मी लोग हैं वे चार प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। भगवान् कहते हैं

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन |

आर्तो जिज्ञासुर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || 16||

।।7.16।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।

समस्त पदार्थ एवं ऊर्जा का स्रोत आत्मा ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा [(E =MC2) >तीनो ऐषणा कामिनी -कांचन , नामयश  या (M/F शरीर का आकर्षण शक्ति का प्रेरक स्रोत ही होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य के कारण ही संभव होता है।  योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य का ही आह्वान करना पड़ता है।  भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर मन या बुद्धि से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा आह्वान करना पड़ता है। एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है। 

इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।(ख) जिज्ञासु जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु भक्त हैं।

(ग) अर्थार्थी किसी न किसी कार्यक्षेत्र में इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।

(घ) ज्ञानी -4. ज्ञान में स्थित लोग। अंत में, वे आत्माएँ जिन्होंने यह सत्य समझ लिया है कि वे भगवान के छोटे अंश हैं। [हनुमान जैसे ज्ञानी -  देहबुद्ध्या तु दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः। आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥] ऐसे लोग इस भावना से भक्ति में लीन रहते हैं कि उनसे प्रेम करना और उनकी सेवा करना उनका शाश्वत कर्तव्य है। श्रीकृष्ण उन्हें चौथे प्रकार के भक्त कहते हैं।उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।

मोहाद्निष्ठां प्राप्य मग्नो वपुषि शोचति।

ईशसृष्टमिदं द्वैतं सर्वमुक्तं समासतः ॥ 13॥

यह शक्ति जीव को भ्रमित करती है। इस प्रकार भ्रमित होकर जीव स्वयं को शरीर (M/F) के साथ तादात्म्य कर लेता है, स्वयं को सीमित, असहाय प्राणी (मरणधर्मा -शरीर) मानता है और इस प्रकार दुःख का शिकार हो जाता है। इस प्रकार अब तक -समासतः -संक्षेप में जो वर्णन किया गया है, वह ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन है।   

   सप्तन्नब्राह्मणे द्वैतं जीवसृष्टं प्रपञ्चितम्।

अन्नानि सप्तज्ञानेन कर्मणाजनयत् पिता ॥ 14॥

जीव द्वारा निर्मित द्वैत का वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद के सप्त-अन्न ब्राह्मण नामक खंड में किया गया है। जीव अपने कर्मों और ध्यान द्वारा सात प्रकार के भोजन (या अनुभव की वस्तुएं) बनाता है। 

मर्त्यनामेकं देवन्ने द्वे पश्वान्नं चतुर्थकम्।

अन्नत्रितयमात्मामन्नानां विनियोजनम् ॥ 15॥

एक प्रकार का भोजन मनुष्यों के लिए, दो प्रकार का भोजन देवों के लिए, चौथा भोजन अधम प्राणियों के लिए तथा शेष तीन भोजन आत्मा के लिए है। इस प्रकार भोजन विभाजित किया जाता है।

   'यत् सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत् पिता' (बृ० 1/5/1) इस श्रुति वाले सप्तान्न ब्राह्मण में जीव के बनाये हुए द्वैत का प्रपंच किया है कि पिता [अर्थात् अदृष्ट रूपी भाग (अपना हिस्सा) दे कर उसके द्वारा इस जगत् को उत्पन्न करके सकल लोक के पालने वाले इस जीव] ने ज्ञान और अपने कर्म के द्वारा सात अन्नों को उत्पन्न किया। 'एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत् त्रीण्यात्मनेकुरुत पशुभ्य एकं प्रायच्छत्' (बृ० 1/5/2) इस वाक्य में उन सातों अन्नों का विनियोग यों किया गया है कि - उनमें से एक मर्त्यान्न है। दो देवताओं के अन्न हैं। एक पशुओं का अन्न है। शेष तीन को उसने केवल आत्मा के लिये रख लिया है। इन सात में से एक प्रकार सामान्य रूप से मनुष्यों के लिए है, दो देवताओं के लिए, एक पशुओं के लिए और शेष तीन उस जीवात्मा के लिए हैं। इस प्रकार भोजन विभाजित किया जाता है।

व्रीह्यादिकं   दर्शपूर्णमासौ  क्षीरं  तथा  मनः।

        वाक् प्राणश्चेति सप्तत्व मन्नाना मवगम्यताम्।। 

[पंचदशी /4-16]   

   व्रीह्यादिक, दर्श, पूर्णमास, दुग्ध, मन, वाक् तथा प्राण ये सात अन्न कहाते हैं।। गेहूं जैसे अनाज मनुष्यों के लिए हैं। पूर्णिमा और अमावस्या के यज्ञ की सामग्री देवताओं के लिए है। दूध पशुओं के लिए है। मन, वाणी और प्राण स्वयं जीव के लिए हैं। ये जीव द्वारा बनाए गए सात प्रकार के भोजन हैं। 

ईशेन  यद्यप्येतानि  निर्मितानि   स्वरूपतः।

        तथापि ज्ञानकर्मभ्यां जीवोकार्षीत्तदन्नताम्।। 

(17)  

   ईश्वर ने यद्यपि इनका स्वरूप ही बनाया था। परन्तु इनका अन्नपन अर्थात् भोग्याकार तो जीव ने ही बना लिया है। उसने ज्ञान और कर्म के सहारे से इन व्रीही आदि प्राणान्त पदार्थों को अपना अन्न किंवा भोग्य बना डाला है।

ईशाकार्यं जीवभोग्यं जगद्वाभ्यां समन्वितम्।

पितृजन्य भर्तृभोग्य यथा योशित्तथेश्यताम् ॥ १८ ॥

  [सप्तान्नरूप में वर्णन किया हुआ] जगत् ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ है और जीव का भोग्य है। यों यह जगत् ईश्वर और जीव दो से सम्बद्ध है। एक तो इस जगत् का बनाने वाला है और दूसरा इसको भोगने वाला है [एक चीज़ दो से सम्बद्ध रहती है इसके लिये दृष्टान्त यह है कि] जैसे स्त्री अपने पिता से तो उत्पन्न होती है और पति की भोग्य होती है। इसी तरह इस जगत् को भी दो से सम्बद्ध समझ लेना चाहिये।

इसी प्रकार एक ही स्त्री के प्रति विभिन्न व्यक्तियों का दृष्टिकोण भिन्न होता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि वह उसका पिता है, भाई है, पति है या कोई अजनबी है। इसी प्रकार एक ही स्त्री का इन विभिन्न व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण भी भिन्न होगा, जो उनके साथ उसके संबंधों पर निर्भर करता है। चूँकि वे ईश्वर द्वारा निर्मित हैं और जीव के लिए अनुभव और आनंद की वस्तुएँ बन जाती हैं, इसलिए वे दोनों से संबंधित हैं, जैसे एक स्त्री अपने माता-पिता से संबंधित होती है जिन्होंने उसे जन्म दिया है और अपने पति से जो उससे प्रेम करता है। 

    जब उस जीव को देवता-ध्यान आदि शास्त्र विहित ज्ञान तथा परस्त्रीध्यानादि शास्त्र निषिद्ध  ज्ञान होता है, जब यह जीव यज्ञादि शास्त्र विहित कर्म और हिंसा आदि शास्त्र निषिद्ध कर्म कर बैठता है।  तब ईश्वर की बनाई ये वस्तुयें उसके भोग के साधन बन जाती हैं। फिर ये चीज़ें भोग्य बन कर उसके काम में आने लगती हैं। यदि उस जीव को वैसा ज्ञान न हो और उस ज्ञान से वह जीव वैसे-वैसे कर्म न करे तो ये वस्तुयें उसकी भोग्य किंवा उस के अन्न कदापि न बनें। इसी से कहा गया है कि ईश्वर ने तो इनका केवल स्वरूप ही बनाया था। अपने ज्ञानों से और अपने कर्मों से जीव ने इन को अपना अन्न बना लिया है।। अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का कारण यह अन्न ही है अर्थात् ये भोग्य पदार्थ ही हैं

मायावृत्तंत्यो ह्यसंकल्पः साधनं जनौ।

मनो योंवृत्तो जीवो संकल्पो भोगसाधनम् ॥ 19॥

   जब ईश्वर मायावृत्यात्मक संकल्प करता है, तब तो यह जगत् उत्पन्न हुआ करता है। जब यह जीव मनोवृत्ति नाम का संकल्प करता है, तब यह जगत् उस का भोग्य बन जाता है [यों ईश्वर और जीव के संकल्प से ही इस जगत् का सर्जन और भोग होता है। अज्ञान से यह जगत् बनता है और मन से यह जगत् भोगा जाता है।।

वस्तुओं की वास्तविक सृष्टि में भगवान की शक्ति माया की प्रवृत्तियाँ या कार्य ही कारण हैं; जबकि उन वस्तुओं के वास्तविक भोग के लिए जीवों की आंतरिक इन्द्रियों की प्रवृत्तियाँ या कार्य ही उत्तरदायी हैं।

यद्यपि ये वस्तुएं भी ईश्वर द्वारा बनाई गई हैं, लेकिन जीव उन्हें अपने लिए आनंद की वस्तुओं में बदल देता है और इसलिए उन्हें यहां जीव की रचना कहा जाता है। विचार यह है कि प्रत्येक जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मों और विचारों द्वारा अपना संसार बनाता है और इसलिए वह जो भी वस्तुएं अनुभव करता है, जो भी सुख भोगता है और जो भी दुख भोगता है, वे सभी उसके अपने कर्मों और विचारों का परिणाम हैं। 

ईशनिर्मितमण्यादौ वस्तुन्येकविधे स्थिते।

भोक्तृधिवृत्तिनानात्वत्तद्भोगो बहुधेष्यते ॥ 20॥

ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुएं (जैसे रत्न) बदलती नहीं हैं; वे एक जैसी ही रहती हैं। लेकिन रत्न अलग-अलग लोगों पर उनकी मानसिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग प्रभाव डाल सकते हैं। 

   ईश्वर द्वारा निर्मित मणि जैसी वस्तु हमेशा एक समान रहती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य का उसके प्रति दृष्टिकोण भिन्न होता है। 

हृष्येको मणिं लब्ध्वा क्रुद्धद्यत्यन्यो ह्यलाभतः।

पश्यतेव विरक्तोऽत्र न हृष्यति न कुप्यति ॥ 21॥

एक व्यक्ति रत्न प्राप्त करके खुश हो सकता है, जबकि दूसरा उसे प्राप्त न कर पाने पर निराश हो सकता है। और एक व्यक्ति जो उसमें रुचि नहीं रखता, वह केवल देखता रह सकता है और न तो खुश होता है और न ही निराश। 

प्रियोऽप्रिय उपेक्ष्यश्चेत्यकारा मणिगास्त्रयः।

सृष्टा जीवैरिशसृष्टं रूपं साधारणं त्रिषु ॥ 22॥

जीव रत्न के संबंध में प्रसन्नता, निराशा या उदासीनता - ये तीन भावनाएँ उत्पन्न करता है, किन्तु ईश्वर द्वारा निर्मित रत्न की प्रकृति सर्वत्र एक समान रहती है।

जिस व्यक्ति को वह प्राप्त हो जाती है, वह सुखी होता है, जबकि जिस व्यक्ति को वह प्राप्त नहीं होती, वह दुःखी होता है। तीसरा व्यक्ति, जो ऐसी वस्तुओं के प्रति उदासीन रहता है, वह न तो सुखी होता है, न दुःखी। मणि के प्रति सुख, दुःख और उदासीनता की भावनाएँ संबंधित जीवों द्वारा उत्पन्न की जाती हैं, लेकिन ईश्वर द्वारा निर्मित मणि की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता। 

भार्या स्नुषा नन्दन च याता मतेत्यनेकधा।

प्रतियोगिध्य योशिद्भिद्यते न स्वरूपतः ॥ 30॥

व्यक्तिगत संबंधों के माध्यम से एक ही स्त्री पत्नी, पुत्रवधू, भाभी, चचेरी बहन और मां के रूप में अलग-अलग रूप में प्रकट होती है; लेकिन वह स्वयं अपरिवर्तित रहती है।

 ननु ज्ञानानि भिद्यन्तमाकारस्तु न भिद्यते।

योशिद्वपुष्यतिषयो न दृष्टो जीवनिर्मितः ॥ 24॥

(आपत्ति): ये अलग-अलग रिश्ते तो देखे जा सकते हैं, लेकिन महिला के स्वरूप में कोई भी परिवर्तन उसके बारे में अन्य लोगों के विचारों के परिणामस्वरूप नहीं देखा जाता है। 24.

मैवं मांसमयी योषिताचिदन्या मनोमयी।

मांसमैया अभेदेऽपि भिद्यतेऽत्र मनोमयी॥ 25॥

(उत्तर) ऐसा नहीं है। स्त्री के पास सूक्ष्म शरीर के साथ-साथ मांस आदि से बना स्थूल शरीर भी होता है। यद्यपि उसके बारे में अन्य लोगों के विचार उसके स्थूल शरीर को प्रभावित नहीं कर सकते, फिर भी वे उसकी मानसिक स्थिति को बदल सकते हैं। 25.

भ्रांतिस्वप्नमानोराज्यस्मृतिश्वस्तु मनोमयम्।

जाग्रन्मानेन मेयस्य न मनोमयतेति चेत् ॥ 26॥

(आपत्ति): यद्यपि मन मोह, स्वप्न, स्मरण और कल्पना की अवस्थाओं में देखी गई वस्तुओं को प्रभावित कर सकता है, किन्तु मन जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों द्वारा देखी गई वस्तुओं को प्रभावित नहीं कर सकता। 26.

 सपने में व्यक्ति मन द्वारा उत्पन्न वस्तुओं के कारण खुशी और दुख का अनुभव करता है, हालांकि कोई बाहरी वस्तु नहीं होती है। गहरी नींद में, जब मन काम नहीं करता है, तो व्यक्ति को कोई खुशी या दुख महसूस नहीं होता है, भले ही उसके पास ऐसी वस्तुएं हों जो खुशी, दुख, भय, क्रोध आदि का कारण बन सकती हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह मन ही है जो खुशी और दुख का कारण है, न कि अन्य व्यक्ति या वस्तुएं।    

इस प्रकार, जबकि स्त्री और अन्य पुरुषों का भौतिक शरीर एक जैसा रहता है, उनमें से प्रत्येक का मन उनके संबंधों के अनुसार परिवर्तन से गुजरता है। ये परिवर्तन जीवों द्वारा निर्मित होते हैं।

सत्येवं विषयौ द्वौ स्तो घटौ मृण्मयधीमयौ।

मृण्मयो मनमेयः स्यात्ससाक्ष्यभाष्यस्तु धीमयः ॥ 31॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि दो प्रकार की वस्तुएँ हैं, 'भौतिक' और 'मानसिक'। 'भौतिक' वह वस्तु है जिसे मन द्वारा भौतिक वस्तु के रूप के अनुसार जाना जाता है। और 'मानसिक' को साक्षी-चेतना द्वारा जाना जाता है (जैसा कि जीव 'भौतिक' द्वारा प्रभावित होकर मन के संपर्क में आता है और भोग के लिए अपनी अव्यक्त इच्छा को जागृत करता है)। 31.

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां धीमयो जीवबन्धकृत्।

सत्यस्मिन्नसुखदुःखे स्त स्तस्मिन्नसति न द्वयम् ॥ 32॥

सहमति और भेद की दोहरी विधि के प्रयोग से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह 'मानसिक' सृष्टि ही है जो जीव को बन्धन में डालती है, क्योंकि जब ये 'मानसिक' विषय होते हैं, तब सुख और दुःख भी होते हैं; जब ये नहीं होते, तब न तो सुख होता है, न दुःख।

 इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य या जीव के दो पहलू होते हैं, भौतिक और मानसिक। यह मानसिक पहलू, जो प्रत्येक जीव का निर्माण है, बंधन का कारण है। प्रत्येक जीव अपने मानसिक दृष्टिकोण के आधार पर विभिन्न वस्तुओं के प्रति पसंद और नापसंद विकसित करता है, जो उसके अपने पिछले कार्यों द्वारा छोड़े गए प्रभावों (जिन्हें वासना कहा जाता है) द्वारा नियंत्रित होता है। ये पसंद और नापसंद खुशी और दुख का कारण हैं।

दूरदेशं गते पुत्रे जीवत्येवात्र तत्पिता।

विप्रलम्भवाक्येन मृतं मत्वा प्ररोदिति ॥ 34॥

एक झूठे व्यक्ति ने एक व्यक्ति से, जिसका बेटा दूर देश चला गया था, कहा कि लड़का मर चुका है, यद्यपि वह अभी जीवित था। पिता ने उस पर विश्वास कर लिया और बहुत दुःखी हुआ। 34.

मृतेऽपि तस्मिन् लक्षणयामश्रुतयां न रोदिति।

मूलतः सर्वस्य जीवस्य बंधकृन्मानस जगत् ॥ 35

इसके विपरीत यदि उसका पुत्र सचमुच विदेश में मर जाता और उस तक कोई समाचार नहीं पहुंचता तो भी उसे कोई दुःख नहीं होता। इससे पता चलता है कि मनुष्य के बंधन का वास्तविक कारण उसका अपना मानसिक संसार ही है। वहीं, उसका पड़ोसी, जिसका बेटा विदेश में मर गया था, यह मानकर शांत रहा कि उसका बेटा सुरक्षित है। इससे पता चलता है कि मनुष्य के बंधन और दुःख का असली कारण मन है, न कि कोई वास्तविक घटना

विज्ञानवादो व्यापकार्थवैयर्थ्यत्स्यदिहेति चेत्।

न हृदयकर्मधातुं बाह्यस्यापेक्षितत्त्वतः ॥ 36॥

(आपत्ति): यह शुद्ध आदर्शवाद है और यह बाह्य वस्तुओं को सभी महत्व से वंचित करता है। (उत्तर): नहीं, क्योंकि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि बाह्य वस्तुएं मन की वृत्तियों को आकार देती हैं (जो मानसिक दुनिया का निर्माण करती हैं)।

बौद्ध विज्ञानवादियों के विपरीत, अद्वैत बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करता है और मानता है कि, अनुभूति में, मन बाह्य वस्तु का रूप ले लेता है। 

तत्काल द्वैतशान्तावप्यागामीजनीक्षयः।

ब्रह्मज्ञानं विना न स्यादित वेदान्त डिंडिमः ॥ 39॥

(उत्तर) : यह तर्क दिया जा सकता है कि, चूँकि यह मन ही है जो प्रत्यक्ष जगत को प्रक्षेपित करके बंधन का कारण बनता है, इसलिए योग के अभ्यास के माध्यम से मन को नियंत्रित करके संसार को गायब किया जा सकता है। यद्यपि मन को वश में करके द्वैत को अस्थायी रूप से समाप्त किया जा सकता है, किन्तु ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना मानसिक सृष्टि का पूर्ण और अंतिम विनाश संभव नहीं है। ऐसा वेदान्त में कहा गया है

इसका उत्तर यह है कि यद्यपि मन के नियंत्रण से द्वैत को अस्थायी रूप से गायब किया जा सकता हैलेकिन ब्रह्म की प्राप्ति के बिना बंधन का अंतिम उन्मूलन संभव नहीं है, जो अकेले ही अविद्या को नष्ट कर देगा।

   ब्रह्म-साक्षात्कार के बाद भी ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत का ज्ञानी को बोध होता रहेगा, लेकिन वह इससे प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि उसे उनकी मिथ्याता का बोध हो गया है। एक बार जब किसी व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि मृगतृष्णा में दिखाई देने वाला जल भ्रामक है, तो वह उसके पीछे नहीं जाएगा, यद्यपि दूर से देखने पर जल पहले जैसा ही दिखाई देता रहेगा। ब्रह्म-साक्षात्कार के बिना द्वैत के मिट जाने मात्र से बंधन समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मांड के प्रलय के समय सभी वस्तुओं का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, लेकिन जब सृष्टि का अगला चक्र प्रारंभ होगा, तब वे पुनः प्रकट हो जाएंगी। उस समय वे सभी जीव, जिन्होंने सृष्टि के पिछले चक्र में ब्रह्म का बोध नहीं किया है, पुनः जन्म लेंगे। इस प्रकार पुनर्जन्म से पूर्ण मुक्ति केवल ब्रह्म-साक्षात्कार द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

जीवद्वैतं तु शास्त्रीयमशास्त्रीयमिति द्विधा।

उपादिता क्लासिकमत्तत्त्वस्यावबोधनात् ॥ 43॥

जीव द्वारा रचित द्वैतमय जगत् दो प्रकार का है: एक जो शास्त्र के आदेश के अनुरूप है और दूसरा जो उसके अनुरूप नहीं है। ब्रह्म की प्राप्ति होने तक पहले वाले को ध्यान में रखना चाहिए। 

   भगवान द्वारा रचित पदार्थ जगत अद्वैत के साक्षात्कार में सहायक है, बाधक नहीं। अद्वैत ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी यह नष्ट नहीं होता। जीव द्वारा रचित द्वैत ही आत्मज्ञान में बाधक है। जीव द्वारा रचित द्वैत दो प्रकार का है - एक जो शास्त्रानुकूल है और दूसरा जो शास्त्र निषिद्ध है। पहला द्वैत तब तक स्वीकार करना चाहिए और उसका अभ्यास करना चाहिए जब तक आत्मज्ञान न हो जाए। 

आत्मब्रह्मविचाराख्यां शास्त्रीयं मनसं जगत्।

बुद्धे तत्त्वे तच्च हेयमिति श्रुत्यनुशासनम् ॥ 44॥

ब्रह्मस्वरूप आत्मा का चिन्तन ही वह मानसिक जगत है जो शास्त्र-विधि के अनुरूप है। ब्रह्मसाक्षात्कार हो जाने पर शास्त्र-विधि के अनुरूप इस द्वैतभाव का भी त्याग कर देना चाहिए। यही श्रुति का निर्देश है। 44।

श्रवण -मनन -निदिध्यासन गुरु से शास्त्र सुनकर, उनकी शिक्षाओं पर विचार करके और उनका ध्यान करके ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा करना ही शास्त्रानुकूल द्वैत है। इस जिज्ञासा में गुरु, शिष्य और शास्त्र जैसी भिन्न सत्ताओं को स्वीकार करना आवश्यक है, परंतु शिष्य को ब्रह्म की जिज्ञासा करने के लिए यह द्वैत आवश्यक है, इसलिए यह स्वीकार्य है।   परंतु ब्रह्म की प्राप्ति के बाद यह भेद (या द्वैत) भी त्याग देना पड़ता है, क्योंकि तब ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता।

 शास्त्रान्यधीत्य मेधावी अभ्यास्य च पुनः पुनः आरंभ।

परमं ब्रह्म विज्ञाय उल्कावतन्यथोत्सृजेत् ॥ 45॥

अमृतानन्द उपनिषद में कहा गया है: "एक बुद्धिमान व्यक्ति को शास्त्रों का अध्ययन करके तथा उनकी शिक्षाओं का बार-बार अभ्यास करके,  उसे परब्रह्म को जानने के बाद उनका त्याग कर देना चाहिए, जैसे कोई व्यक्ति अपनी यात्रा के अंत में जलती हुई मशाल को फेंक देता है।' ब्रह्म को प्राप्त करने के बाद उनका त्याग कर देना चाहिए, जैसे एक यात्री अपने गंतव्य पर पहुंचने के बाद जलती हुई मशाल को फेंक देता है, या जैसे कोई व्यक्ति अनाज लेने के बाद भूसी को फेंक देता है"। इसके बाद उसे अपना मन ब्रह्म पर स्थिर रखना चाहिए और अपने मन को केवल शब्दों से बोझिल नहीं बनाना चाहिए (ब्रह्म उपनिषद 4.4.21)।

तमेवैकं विजानीत ह्यन्या वाचो विमुञ्चथ।

यच्चेद्वाङ्मनि प्राज्ञ इत्याद्याः श्रुतयः स्फुटकाः ॥ 48॥

श्रुति में स्पष्ट कहा गया है: 'उस एक को जानो और अन्य बातों को त्याग दो' [मुण्डकोपनिषद्] तथा 'बुद्धिमान पुरुष को अपनी वाणी को रोककर मन में ही रखना चाहिए' [कठकोपनिषद्] 48.

अशास्त्रीयमपि द्वैतं गतिं मंदमिति द्विधा।

कामक्रोधादिकं गतिं मनोराज्यं तथेतरत् ॥ 49॥

मनुष्य की मानसिक सृष्टि का द्वैत जो शास्त्र के अनुकूल नहीं है, वह दो प्रकार का है - हिंसक और मंद। जो काम, क्रोध आदि वासनाओं को जन्म देता है, उसे हिंसक कहते हैं और जो दिवास्वप्न को जन्म देता है, उसे मंद कहते हैं।

   शास्त्र निषिद्ध द्वैत = शास्त्रों के विपरीत द्वैत (अथवा अनेकता) वह है जो सभी जीवों और वस्तुओं को एक दूसरे से भिन्न मानने से उत्पन्न होता है। यह मानसिक वृत्ति ही राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि भावनाओं को जन्म देती है। राग, क्रोध आदि भावनाओं को जन्म देने वाली मानसिक वृत्ति को 'हिंसक' कहते हैं। जो कल्पित विचारों को जन्म देती है उसे 'मृदु' कहते हैं।

उभयं तत्त्वबोधात्प्राङ्निवार्यं बोधसिद्धये।

समः सम्मिलितत्वं च साधनेषु श्रुतं यतः ॥ 50॥

ब्रह्म के स्वरूप का अध्ययन आरम्भ करने से पहले दोनों का त्याग करना आवश्यक है; क्योंकि ब्रह्म के अध्ययन के लिए मानसिक संतुलन और एकाग्रता दो पूर्वापेक्षित बातें हैं, ऐसा श्रुति कहती है। साधक को इन दोनों का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि मन की शांति और एकाग्रता साधक के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं। 

बोधादूर्ध्वं च तद्धेयं जीवन्मुक्तिप्रसिद्धये।

कामादिक्लेशबन्धेन युक्तस्य न हि मुक्तता ॥ 51॥

मोक्ष की प्राप्ति और उसमें स्थित होने के लिए इन दोनों का त्याग करना आवश्यक है। जो व्यक्ति काम और अन्य वासनाओं के वशीभूत है, वह जीवन में मोक्ष पाने के लिए अयोग्य है।

मनुष्य तभी मोक्ष का अधिकारी हो सकता है, जब वह इन्द्रिय-विषयों की इच्छा को त्याग दे। ऐसा करने का उपाय है कि इन्द्रिय-सुखों के भोग के दुष्परिणामों को सदैव स्मरण रखना चाहिए। कामनाओं के विषयों में मानसिक लीनता भी त्याग देनी चाहिए, क्योंकि वह सभी बुराइयों का बीज है। 

बुद्धाद्वैतसत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि।

शुनां तत्त्वदर्शं चैव कोभेदोऽशुचिभक्षणे ॥ 55॥

श्री सुरेश्वर कहते हैं कि जो व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी होने का दिखावा करता है, किन्तु फिर भी नैतिक संयम के बिना रहता है, वह उस कुत्ते के समान है जो अशुद्ध वस्तुएँ खाता है। [नैष्कर्म्यसिद्धि-IV-62].

ध्यायते विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषुपजायते।

सङ्गात्संजयते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ 60॥

'यदि मनुष्य किसी भी इच्छित विषय पर मनन करता है, तो वह उसमें आसक्त हो जाता है। आसक्ति से उसके प्रति लालसा उत्पन्न होती है और कामना की कुंठा से क्रोध उत्पन्न होता है।' [ गीता-II.62 ] 60.भगवद्गीता में कहा गया है कि विषयों पर मनन करने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से विषय की लालसा उत्पन्न होती है। इच्छा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के कारण व्यक्ति अपनी सारी अच्छी बातें भूल जाता है, और परिणामस्वरूप विवेक-प्रयोग करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। अंततः वह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अयोग्य हो जाता है। (गीता, 2.62-63)

बुद्धत्त्वेन धीदोषशून्येनैकान्तवासिना।

दीर्घं प्रणवमुच्चराय मनोराज्यं विजीयते ॥ 63॥

जो मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से परब्रह्म के स्वरूप को समझ गया है तथा बुद्धि के दोषों से मुक्त है, उसे चाहिए कि वह एकान्त में रहकर दीर्घकाल तक ओम् का जप करे तथा इस प्रकार मन की चंचलता को वश में करे।

जिते तस्मिन् वृत्तिशून्यं मनस्तिष्ठति मुखवत्।

एतत्पादं प्लास्टिकेन रामाय बहुधेरितम् ॥ 64॥

जब इस प्रकार 'मानसिक जगत' पर विजय प्राप्त हो जाती है, तब मन की (अन्य) वृत्तियाँ (धीरे-धीरे) समाप्त हो जाती हैं - मन गूंगे की भाँति मौन हो जाता है। इस विधि को वसिष्ठ ने राम को अनेक प्रकार से समझाया है।

विक्षिप्यते कदाचिधिः कर्मणा भोगदायिनः।

पुनः सम्मिलिता सा स्यात्तदैवाभ्यासपात्वात् ॥ 67॥

यदि कभी पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के कारण चिंतनशील मनुष्य का मन कामनाओं से विचलित हो जाता है, तो आध्यात्मिक ध्यान के निरंतर अभ्यास से उसे पुनः शांत अवस्था में लाया जा सकता है।

विक्षेपो यस्य नास्त्यस्य ब्रह्मवित्त्वं न मन्यते ।

ब्रह्मैवायमिति प्राहुर्मुनयः पारदर्शिनः ॥ ६८॥

That man whose mind is not subject to distraction is not merely a knower of Brahman but Brahman Itself – so declare the sages versed in the scriptures of Vedanta. 68.

वह मनुष्य जिसका मन विचलित नहीं होता, वह न केवल ब्रह्म का ज्ञाता है, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है - ऐसा वेदान्त में पारंगत ऋषियों का कथन है। 68.

दर्शनदर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।

यस्तिष्ठति स तु ब्रह्मन्ब्रह्म न ब्रह्मवित्स्वयम् ॥ 69॥

जिसका मन इस बात पर विचार नहीं करता कि वह ब्रह्म को जानता है या नहीं, बल्कि जो शुद्ध चेतना या ज्ञान के साथ तादात्म्य रखता है, वह केवल ब्रह्म का ज्ञाता नहीं, अपितु स्वयं ब्रह्म ही है। 69।

अद्वितीयज्ञानरूपेण यस्तिष्ठति स ब्रह्मैव । न तु ब्रह्मवित्। जानामीति व्यव- हारस्य ज्ञातृज्ञानज्ञेयभावसापेक्षत्वेन तद्व्यवहारत्यागस्य ज्ञातृज्ञेयभावपरित्यागपूर्वकतया तदानीं ज्ञातृज्ञेयभावयोर्नष्टत्वेन तत्सापेक्षो ब्रह्मविदिति व्यवहारो न स्वारसिक उपपद्यते । तथा चाह श्रुतिः “परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवती"ति (मुं. ३.२.९) ॥६८॥

   ईश्वर का ध्यान करने से इच्छा की वस्तुओं के बारे में सोचने की प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है, जो निर्गुण ब्रह्म के ध्यान और मुक्ति की ओर ले जाएगा। जब मन इस प्रकार नियंत्रित हो जाता है, तो वह शांत हो जाता है और सभी परिवर्तनों से मुक्त हो जाता है। जब कोई यह समझ जाता है कि इ भौतिक दुनिया में कोई पूर्ण वास्तविकता नहीं है, तो वह निर्वाण के आनंद का अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति केवल ब्रह्म का ज्ञाता नहीं होता; वह स्वयं ब्रह्म होता है।  

जीवन्मुक्तेः पराकाष्ठा जीवद्वैतविवर्जनात् 

लभ्यतेऽसावतोऽत्रेदमीशद्वैताद्विवेचितम् ॥ ६९ ॥   

जीवन में यह मुक्ति, ईश्वर के जगत पर प्रक्षेपित जीव की मानसिक स्थितियों को समाप्त करने या हटाने से प्राप्त होने वाली अंतिम अवस्था है। अतः इस अध्याय में हमने बताया है कि जीव द्वारा निर्मित द्वैत ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत से किस प्रकार भिन्न है। 70.

This librtion in life is the final step attained by sublating or removing the mental conditions of the Jiva (projected on the world of Isvara). So in this chapter we have described how the duality created by the Jiva differs from that created by Isvara. 70.

अध्याय 4 का अंत

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(E =MC2) की समझ

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