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सोमवार, 27 जनवरी 2025

🔱'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे': अर्थात E=mc² की समझ" - Energy and Mass are Interconvertible "🔱

पितुरप्यधिका माता गर्भधारणपोषणात् ।

अतो हि त्रिषुलोकेषु नास्ति मातृसमो गुरुः ।।

-गर्भ को धारण करने और पालन पोषण करने के कारण माता का स्थान पिता से भी बढ कर है! अत: तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं अर्थात् (भारत) माता परं गुरु है! 

   

 परिव्राजिका अतन्द्राप्राणा माताजी 

[श्री सारदा मठ की  महासचिव] 

[Inspiring Speech by Pravrajika Atandraprana Mataji, General Secretary of Sri Sarada Math] : 

 ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये, 

सच्चिद सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिणे ! 

 🔱1.मकर संक्रांति की तारीख में बदलाव क्यों होता है ? (Why does the date of Makar Sankranti change?) :

     12 जनवरी को हमलोग स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। किन्तु वह अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार मनाया जाता है। जबकि उनकी जन्मतिथि के अनुसार इस महीने के 21 तारीख को उनकी तिथिपूजा आयोजित की जाएगी। तुम लोगों में कोई जानता है कि 1863 ई० के 12 तारीख के दिन कौन सा विशेष दिन या त्यौहार था ?  उस दिन मकरसंक्रान्ति थी तुमलोगों को मालूम होगा। इस साल मकर संक्रांति किस दिन पड़ेगा , बता सकते हो ? स्वामी जी का जन्म दिन 12 जनवरी को होता था। इस बार मकरसंक्रांति 14 जनवरी को मनाया जायेगा। बहुत वर्षों से 14 जनवरी को मकरसंक्रान्ति को मनाया जाता है। इस तिथि में परिवर्तन का का कारण क्या है ? 

     हमारी पृथ्वी का जो 'Orbit' ग्रहपथ या परिक्रमा पथ है वह कुछ वर्षों में परिवर्तित हो जाता है। 75 बर्षों में पृथ्वी की कक्षा या ग्रहपथ 1° झुक जाती है। इसलिए संक्रांति का दिन भी 1 दिन बढ़ जाता है। अब बताओ कि स्वामीजी का जन्म कितने वर्षों पहले हुआ था ? ऑलरेडी कितने साल हो गए ? 1863 में जन्म हुआ था अभी 2025 हो गया तो, 162 वर्ष हो गए। ये 163 वां जन्मदिन है।  ( समय के एक लम्बे अन्तराल के बाद, हमारे सौरमंडल के अन्य ग्रहों के  गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन पथ, झुकाव और कक्षा को बदल देता है।) 

    हमारे जो प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञानी या 'astronomers' थे वे हजारों वर्ष पहले से जानते थे कि पृथ्वी गोल है। इसीलिए हमलोग Geography को भूगोल शास्त्र कहते हैं। वे यह जानते थे की पृथ्वी सूर्य के चारो और घूमती है, सूर्य नहीं घूमता। और यह भी जानते थे की पृथ्वी का यह जो ग्रहपथ है ,वह बदलता रहता है। यह भी जानते थे कि पृथ्वी के धुरी Axis या अक्षरेखा हैजिसके चारों ओर पृथ्वी घूमती है वह दाईं ओर (पूर्व दिशा में-23.4° के कोण पर) झुकी हुई है, और  यह झुकाव ही पृथ्वी के ऋतू परिवर्तन का कारण है। ये सभी बातें हमारे प्राचीन ग्रन्थ सूर्य -सिद्धान्त में लिखी हुई हैं। 

      अभी कहा जाता है कि निकोलस कोपरनिकस ने सबसे पहले बताया था कि पृथ्वी सूरज के चक्कर लगाती है। (जिसके कारण नई दिल्ली में एक सड़क निकोलस कोपरनिकस के नाम पर है।) लेकिन उन्होंने इस बात को सिर्फ कहा था, लिखा नहीं था। लिखा क्यों नहीं ? इसलिए नहीं लिखा कि उन्हें चर्च का डर था। कॉपर्निकस के निधन के बाद गैलीलियो गैलिली ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया कि --'The earth revolves around the sun.' पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इसी घोषणा के कारण चर्च नाराज हो गया और उनको सजा दिया , जेल में डाल दिया और आदेश दिया कि तुम शपथ लेकर कहो कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है 'Sun is going round the Earth' नहीं तो तुम्हें विष पीना पड़ेगा। इसलिए डर के मारे उसने बाइबिल पर हाथ रखकर बोल दिया कि हाँ मैंने गलत कहा था -सूर्य ही पृथ्वी का चक्कर काटता है। बाद में उसने सोचा मेरे कह देने से क्या होगा ? मेरे कहने के बावजूद सच तो सच ही रहेगा। गैलीलियो के मौत के लगभग 350 साल बाद - 1992 में पोप जॉन पॉल ने यह माना कि गैलीलियो सही थे और चर्च गलत था

      लेकिन तुम लोग यह सुनकर आश्चर्य चकित हो जाओगे कि हमारे खगोल विज्ञानी वराहमिहिर ने छठी शताब्दी में ही सूर्य सिद्धान्त लिख दिया था। पर उन्होंने लेखक के रूप में अपना नाम नहीं लिखा कि मैं यह सिद्धांत दे रहा हूँ। उन्होंने लिखा कि हमारे ऋषियों ने सूर्य सिद्धांत की रचना 10 हजार साल पहले ही की थी। किंतु समय के साथ-साथ इसके अधिकांश भाग विलुप्त हो गए थे  इसलिए इस पुस्तक को पूर्ण करने के लिए मुझे फिर से लिखना पड़ रहा है। तब समझ लो कि प्राचीन समय हमारे देश के खगोल वैज्ञानिकों का ज्ञान कितना उन्नत रहा होगा ! (4.5 मिनट)

  🔱2. भारतवर्ष का meaningless नाम इण्डिया कैसे हुआ ?  प्राचीन समय से हमारे देश का नाम भारतवर्ष ही था इण्डिया नहीं। बताओ तो हमारे देश का नाम इण्डिया किसने दिया ? अरबियन लोग 'स' अक्षर का उच्चारण 'ह' कहकर करते हैं,  सिन्धु नदी के उस पार के देश को सिन्धु पार का देश उच्चारण नहीं कह पा रहे थे,उन लोगों ने सिंधु नदी के उस पार के देश को हिन्दू कहा। कालान्तर में सिन्धु से हिन्दू हुआ, फिर हिन्दू से इण्डस वैली कहा, इण्डस से इण्डिया हो गया। अंग्रेज लोग भी भारतवर्ष नाम pronounce नहीं कर पा रहे थे , इसलिए हमारे देश का नाम उन्होंने इण्डिया कर दिया। इण्डिया शब्द का कोई मीनिंग नहीं है, इण्डिया एक meaningless शब्द है। किन्तु हमलोगों के देश का वास्तविक नाम भारत है , इंडिया नहीं। भारत शब्द का अर्थ तुमलोग जानते हो। 'भा' माने ज्ञान का आलोक , 'रत' माने कौन लोग ? जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं। अर्थात जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं, वे भारतीय हैं। हमारे पुराणों में ही लिखा हुआ है कि भारतवर्ष कितना विशाल देश है। लिखा है -'आ समुद्रं हिमालय प्रयन्त' अर्थात कन्या कुमारी से लेकर हिमालय पर्यन्त  जो भूखण्ड फैला है उसका नाम भारत वर्ष है। विष्णु पुराण में लिखा है- 

 " उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। 

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥"

समुद्र के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण के भू खंड को 'भारत' कहते हैं और उसकी सन्तानों को, यानि उसके पुत्र-पुत्रियों को भारतीय कहते हैं.....!!! माने यहाँ रहने वाले सभी नागरिक भारत की सन्ततिति हैं। ये बात हमारे पुराणों में लिखी हुई हैं। इसलिए तुमलोग समझो कि हमारी विरासत -Heritage, कितनी महान थी । लेकिन विगत हजार वर्षों तक हमलोग पहले मुगलों के गुलाम हुए फिर अंग्रेजों के गुलाम हुए। गुलामी के इन हजार वर्षों तक भारत पर ज्ञानलोक नहीं अज्ञान का गहरा अन्धकार छाया रहा। इस अन्धकार के टाईम में कोई भी मुगल या ब्रिटिश Ruler अपने नौकर (गुलाम प्रजा) से ऐसा तो नहीं कहते थे कि तुम बड़े ज्ञानी-गुणी लोग हो । वे लोग यही सिद्ध करने की चेष्टा करते थे कि ये नौकर लोग , गुलाम लोग कुछ नहीं जानते, एकदम बर्बर, असभ्य लोग हो । बहुत दुःख -कष्ट सहकर भी हमारे पूर्वजों ने हमारे ऋषियों द्वारा संचित ज्ञान के भण्डार को अभी तक बचा कर रखा है। (6.11 मिनट) 

  🔱3. प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्भीकता से बखान :   

     लेकिन उस गुलामी के युग में, स्वामी विवेकानन्द उस प्रकार के पाश्चात्य शासक देश में जाकर, उनके सामने  मंच पर खड़े होकर- क्या कहा था ? '2500 वर्ष पहले तक तुम सभी लोग एकदम बर्बर थे, एकदम असभ्य थे। उस समय तुम अपने शरीर को नीले रंग से रंगते थे। जब कि 2500 वर्ष पहले हमारा देश  'Pinnacle of Glory' अपनी महिमा के शिखर पर था।'  ये बात उन्होंने ने ब्रिटिश लोगों के सामने खड़े होकर उन्होंने कहा था, बताओ तो वे कितने साहसी थे! आजकल जिस प्रकार हमलोग O ! Made in U.S.A.? Made in China ? देख कर माल ख़रीदते हैं। खाद्य पदार्थ , मसाले, बर्तन यहाँ से जाते थे ,सिल्क यहाँ से निर्यात होता था, जितनी भी सुंदर -सुंदर वस्तुएं थीं , सब कुछ यहीं से निर्यात होता था।  उन दिनों  दुनिया भर के लोग हमलोग के उत्पादों पर 'Made in India' लिखा है या नहीं देखकर ही माल  खरीदा करते थे हमारे देश की महिमा इतनी महान थी कि।  हमारे भारतीय बिजनेसमैन -exporter लोग इतने प्रसिद्द थे कि,अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपने जहाज द्वारा हजारों मिल दूर तक समुद्री यात्रा करते थे। (7.19 मिनट

   🔱4. प्राचीन भारतीय बिजनेसमैन exporter थे और पुर्तगाली वास्कोडिगामा से लेकर ब्रिटिश, डच, फ़्रांस के नाविक लोग व्यापारी नहीं डकैत थे।  :  

 और ये जो पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा (1460-1524 ) यहाँ आया था, उसको यह मालूम ही नहीं था कि पृथ्वी गोल है। वह इतना डरपोक था, समुद्र के किनारे -किनारे अफ्रीका के दक्षिणी कोने से होते हुए वह 1498 में भारत में केरल के समुद्री तट तक पहुंचा। बीच समुद्र से होकर जाने की हिम्मत नहीं थी। इन सब डकैत नाविकों को भारत जाने की इतनी बेचैनी क्यों थी ? ब्रिटिश से लेकर मुगल, पुर्तगीज , डच ये सभी डाकू थे। सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि भारत वर्ष अपने culture (संस्कृति) के शिखर पर था, उस समय वह अस्तित्व के साथ एकत्व के ध्यान में निमग्न था। उसकी सोंच इतनी ऊँची थी कि, वे जानते नहीं थे कोई देश ही डकैत बन सकता है , किसी दूसरे देश को लूटने के लिए इतना बर्बर आक्रमण कर सकता है ? फिर हमारी संस्कृति थी - अतिथि देवो भव ! हमने (कालीकट के राजा ने) यह कहकर उसका स्वागत किया कि आओ भाई आओ हमलोग सभी मनुष्य का सत्कार करते हैं। लेकिन उन लोगों ने क्या किया ? बन्दुक लेकर शाब्बास -शाब्बास करके मार दिया। और डकैती किया। डकैती करके उनलोग बड़ा बन गया। जो भी देश भारत पर आक्रमण किया सब चीटिंग किया , डकैती करके बड़ा देश हो गया। हमलोगों के देश का सारा धन साइफन करके अपने देश में ले गया। 17 वीं शताब्दी तक हमलोगों का देश सम्पूर्ण विश्व में सबसे - Richest देश था। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, और भारत को लूटने के लिये, मुगल, पुर्तगाली, ब्रिटिश, डच अभी डकैत देश पूरे जी-जान से लगे हुए थे।

 🔱5.[(8.54 मिनट ppt :स्वामी जी के बगल में Tesla बैठे है ! [1893 में आयोजित शिकागो विश्व मेला  (World's Columbian Exposition)  क्रिस्टोफ़र कोलंबस के अमेरिका आगमन की 400वीं वर्षगांठ मनाने के लिए 5  मई से 31 अक्टूबर, 1893 तक शिकागो, में विश्व कोलंबियाई प्रदर्शनी' आयोजित किया गया था। इसे  शिकागो विश्व मेला के नाम से भी जाना जाता है। इस मेले में निकोला टेस्ला द्वारा आविष्कृत  ए.सी. बिजली और फ़्लोरोसेंट लाइटिंग को प्रदर्शित किया गया था। इस मेले में 'फ़ेरिस व्हील ' जैसे कई आविष्कारों को पहली बार पेश किया गया था। (इंजीनियर गेल फ़ेरिस द्वारा आविष्कृत - फ़ेरिस व्हील एक मनोरंजन सवारी है जिसमें कई सीटें या कारें एक बड़ी धुरी के चारों ओर घूमती हैं। इसे आम तौर पर मेलों, कार्निवल, और थीम पार्कों में  देखा जाता है।  फ़ेरिस व्हील को शिकागो व्हील के नाम से भी जाना जाता है।) इस मेले में 46 देशों ने भाग लिया था। इस मेले में बिजली से जगमगाने वाली व्हाइट सिटी बहुत प्रभावशाली थी।  यह मेला बहुत सफल रहा था। ]

        अवतरवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण लीला में विश्व-धर्म संसद के माध्यम से साइंस (Tesla) और वेदान्त (SV) के समन्वय द्वारा सतयुग का प्रचार करने के लिए ठाकुर -जगतजननी माँ सारदा और स्वामीजी को आविर्भूत होना पड़ा !

इसीलिए जब भारत वासियों को हजार वर्षों तक दुःख भोगना पड़ा, तब अपनी प्रतिज्ञा -'सम्भवामि युगे -युगे ' के अनुसार ठाकुर-माँ -स्वामीजी को फिर से यहाँ आना पड़ा। [' अवतार लेना पड़ा !'] क्योंकि उस समय हमलोग भारतीय होकर भी अपने को एकदम दीनहीन मानने लगे थे। हमलोग यही सोचते थे कि -हम बड़े अकिंचन हैं।  हमारे पास कुछ भी नहीं है - केशव सेन भी महारानी विक्टोरिया से मिलने ब्रिटेन गए थे। किन्तु क्या उन्होंने उनसे भारत की गरिमा के विषय में कुछ कहा था ? नहीं , ये अंग्रेजों को सलाम करके बोले आप ही हमारे देश की रानी  हैं , आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकती हैं। स्वामीजी से पहले भारत के जितने भी बड़े नामी-गिरामी लोग इंग्लैण्ड गए थे सभी ने ऐसा ही कहा था। लेकिन एक मात्र स्वामीजी ने ही  11 सितंबर, 1893 के शिकागो में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में सिर उठाकर करके कहा था -" I am proud to belong to a nation which has sheltered to all persecuted......मुझे ऐसे देश का निवासी होने पर गर्व है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। " देखो कितनी सुन्दर बात कह रहे हैं, वह भी सबके सामने कह रहे हैं -" I am proud !" किन्तु हमलोग आज भी यह नहीं कह पा रहे हैं कि "  I am proud to be an Indian ?)."(9.56 मिनट) उन्होंने कहा था - "It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in the name of the most ancient order of monks in the world " स्वामी जी अच्छी तरह से जानते थे कि हमलोग सबसे प्राचीन त्यागी परम्परा के अनुयायी हैं।  "I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. " आज भी हमलोग हर देश के रिफुजी को अपने यहाँ पनाह दे रहे हैं।  क्योंकि हमारे यहाँ -अतिथि देवो भव ' कहा गया है। इसलिए हमलोग उसी को निभाये जा रहे हैं। सभी को शरण दिए जा रहे हैं। फिर हम किस बात में विश्वास करके सबको शरण देते हैं ? वह भी स्वामी जी ने स्वयं बता दिया था - " जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं , उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रूचि (प्रवृत्ति) के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझ में ही आकर मिल जाते हैं। "  [ ‘As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee.’] 

      🔱 6. (11.10 मिनट) शिकागो धर्म संसद में दो प्रकार के श्रोता ! 

विश्व धर्म संसद में स्वामीजी ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय शिकागो मेला में दो श्रेणी के श्रोता उपस्थित थे, एक ग्रुप था - 'Parliament of Religion ' में भाग लेने आये पादरी और सामान्य जनों का और दूसरा ग्रुप था  'Parliament of Science' में भाग लेने आये बहुत नामी -गिरामी साइंटिस्ट लोगों का।  सभी को  उनका भाषण बहुत अच्छा लगा था। किन्तु उनके भाषण को सबसे अधिक पसन्द साइंटिस्ट लोगों ने किया था। हम सभी लोग जानते हैं कि 1893 में  Parliament of Religion ' शिकागो में हुआ था, स्वामीजी वहाँ गए थे। लेकिन 1893 के सितम्बर महीने में 'World's Columbian Exposition' शिकागो मेले में  11 से 27 सितम्बर तक जिस प्रकार धर्म के क्षेत्र में विश्व-धर्म संसद (World Parliament of Religion) का आयोजन हुआ था उसी प्रकार  विज्ञान के क्षेत्र में साइंटिस्ट लोगों के लिए 21 से 25 अगस्त, 1893 तक 'IEC' -अंतर्राष्ट्रीय विद्युत कांग्रेस (International Electrical Congress) के रूप में 'Electric Congress' या Parliament  of Science' भी आयोजित किया गया था। (11. 43 मिनट)

       शिकागो विश्व मेला में साइंटिस्ट लोगों का समूह स्वामी जी मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे। जब भी स्वामी जी थोड़ा फुरसत में होते , वे लोग कहते क्या स्वामीजी आप हमारेIEC-(International Electrical Congress) के मण्डप (pavilion) में थोड़ी देर के लिए आयेंगे? हमारे लिए भी थोड़ा समय निकालेंगे ? Elisha Gray उनलोगों के प्रेसिडेन्ट थे, वे समीजी से मिलने के लिए खड़े रहते थे।  थोड़ा भी फुर्सत मिलता तो स्वामीजी से अनुरोध करते क्या आप हमलोगों के मण्डप में आकर कुछ कहना चाहेंगे ? उन प्रसिद्द साइंटिस्ट लोगों के मन में स्वामी जी के लिए इतना प्रेम क्यों उत्पन्न हुआ ? उन लोगों के धर्म में 'original Sin' की बहुत चर्चा होती थी। ईसाई में धर्म यही बात- बार-बार सिखाई जाती है- 'Ye are the sinners' और हमलोग पापी हैं' सुन-सुन कर उन वैज्ञानिकों के कान भी पक गए थे! जबकि स्वामीजी ने मंच पर खड़े होकर कहा -“Ye are the children of Immortal Bliss ! अर्थात तुम तो अमृत के संतान हो, तुम भला पापी ? अभी अभी तो तुमलोग यही गा रहे थे ?-"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!"  [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."  

     " आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं,  जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप  जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]  

अर्थात मनुष्य को कोई यदि पापी कहकर पुकारे तो वह पाप करता है।  यह सुनकर सबसे ज्यादा खुश कौन हुए थे ? वेदांत की इस वाणी को सुनकर सबसे अधिक खुश साइंटिस्ट लोग हुए थे , हां पादरी लोग यह सुनकर दुखी जरूर हो गए थे। क्योंकि उनको लगा कि यह तो हमलोगों के धर्म के विरुद्ध बोल रहा है , हमलोग जो जो सीखा रहे हैं सब पोलपट्टी ही खोल दे रहा है !! लेकिन साइंटिस्ट लोग बहुत खुश हुए थे। वाह ! आज पहली बार एक ऐसा आदमी उन्होंने देखा जो कहता है, तुम पापी नहीं अमृत की संतान हो। तुम पापी नहीं हो। जबकि पापी हो , पापी हो सुन-सुनकर उनके कान पक गए थे। इसलिए साइंटिस्ट लोग स्वामीजी वेदान्त के सन्देश को विस्तार से सुनने  के लिए अपने मण्डप में आने का अनुरोध करते रहते थे- स्वामीजी आप वेदान्त के सिद्धान्तों (महावाक्यों) को हमें समझाइये। 

🔱7.(13.31 मिनट PPtचित्र में दिखाया गया है कि साइंटिस्ट लोगों को वेदान्त समझाने के लिए -स्वामीजी ने 'Science and Vedanta' दो भिन्न-भिन्न विधा को कैसे एक कर दिया ?  

हमलोगों के लिये वेदान्त के (महावाक्य) Spiritual Light है; उसके बाद स्वामीजी को एक Prizm के रूप में दिखाया गया है। सूर्य के प्रकाश की तरह वेदान्त का Spiritual Light (आध्यात्मिक प्रकाश ) जब स्वामीजी रूपी प्रिज्म से होकर जब बाहर निकलता है तो इंद्रधनुष के अलग -अलग रंगों 'VIBGYOR' की तरह Science, Arts, Commerce, Physiology, या अध्यात्म जितने भी प्रकार की विद्या है, उस पर रौशनी पड़ सकती है। क्योंकि स्वामी जी हर विषय में पारंगत थे। (13.43 से -14.09 मिनट तक)

"Science and Swami Vivekananda"/ Vedanta  

 'Towards Wholeness ' 

If SV as Prizm 

Spiritual Light of Vedanta is 'VIBGYOR' of Knowledge

     तुमलोग यह सुनकर आवाक हो जाओगे कि स्वामी जी को हमलोग महान दार्शनिक कहते हैं,संत कहते हैं , महान देशभक्त कहते हैं , किन्तु वे एक बहुत बड़े 'ज्ञान पिपासु' (Knowledge Thirsty) भी थे। वे Higher Mathematics सीखने भी गए थे। अधिकांश लोग कहते हैं , स्वामीजी गणित को पसंद नहीं करते थे। यह सही नहीं है। वे यह नहीं जानते कि स्वामीजी प्रेसीडेन्सी कॉलेज में जाकर  Higher Mathematics का क्लास भी अटेंड किया था। फिर Physiology सीखने के लिए मेडिकल कॉलेज भी गए थे। और Energy के विषय में जानने के लिए Physics का क्लास भी अटेंड किये थे। इस लिए वे Science और Vedanta को पूर्णता की ओर ले जाकर एक कर देने में समर्थ थे। देखो हमलोग सोचते हैं की एक बिन्दु पर आकर 'Science and Religion' कैसे मिल सकते हैं ? किन्तु स्वामीजी ने दिखला दिया था कि विज्ञान और धर्म अपनी पूर्णता में कैसे परस्पर मिल जाते हैं। Science में में हमलोग कहते है How ? और वेदान्त कहता है Why ? इन दोनों को उन्होंने एक कर दिया। क्योंकि स्वामीजी में सदैव सत्य को जानने की प्रबल लालसा थी। और स्वामीजी को ठाकुर सबसे प्रिय क्यों लगते थे? ठाकुर कहते थे तुम लोग हमेशा प्रश्न पूछोगे। प्रश्न पूछे बिना मेरे उपदेशों (सत्य या ईश्वर को) को स्वीकार मत करना। तुमलोग मेरी परीक्षा करके देखो , प्रश्न करो -सब कुछ जाँच-परख करने के बाद मेरी बातों को स्वीकार करो। ठाकुर की यही बात स्वामीजी को सबसे अच्छी लगी थी। (15.36 मिनट) 

    🔱8.[15.47 मिनट PPt Electric Congress] :  IECElectric Congress या Parliament  of Science ' में जो प्रमुख साइंटिस्ट भाग लिए थे उनके चित्र देखो। इनमें से कितने लोगों को तुम पहचानते हो ?  थॉमस ऐल्वा एडीसन का नाम सुने हो ? वाह ! बहुतों ने सुना है ! थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -(current that runs continually in a single direction, like in a battery.)  थॉमस ऐल्वा एडीसन को तो तुम सभी पहचानते हो , वो भी किन्तु स्वामीजी का भक्त बन गए थे। केल्विन का नाम सुने हो ? क्या किया था केल्विन ने ? हाँ , बिल्कुल सही - उन्होंने  Absolute Zero (परम शून्य) का अविष्कार किया था। परम शून्य  या -273 डिग्री सेन्टीग्रेड वह 'temperature' है जिससे कम कोई भी ताप  संभव ही नही है। क्वाण्टम यांत्रिकी (quantum mechanics)  की भाषा में कहें तो न्यूनतम ऊर्जा का अवस्था (the state of minimum energy) को परम शून्य कहते है।  इस ताप पर पदार्थ के अणुओं की गति शून्य हो जाती है।  [ Absolute Zero या 'परम शून्य' वह lowest possible temperature ' (न्यूनतम सम्भव ताप) है, जिससे कम कोई 'temperature' या ताप संभव ही नही है। At this temperature, the motion of the molecules of matter becomes zero. ' इसका मान -273 डिग्री सेन्टीग्रेड होता हैं। परम शून्य ताप पर पदार्थ अपने 'ग्राउण्ड स्टेट' में होता है ] 

       हाँ  टेस्ला और किसलिए इतना प्रसिद्द थे ?  Alternating Current (ऐसी करेंट) के विषय में हमलोग सुने हैं, निकोला टेस्ला ने अल्टरनेटिंग करंट (एसी) का आविष्कार किया था, और थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -डीसी करंट का आविष्कार किया था। आज हमलोग जितने तरह के विद्युत् पा रहे हैं , जेनरेटर आदि पा रहे हैं , विद्युत् से चलने वाले उपकरण पा रहे हैं, सब टेस्ला की ही देन है। टेस्ला यदि नहीं आते तो हमलोग विद्युत् ऊर्जा से बिल्कुल अनजाने ही रह जाते। इस समय इलेक्ट्रिसिटी को लेकर जो कुछ भी अनुसन्धान हो रहा है , सब टेस्ला के चलते है। किन्तु टेस्ला खुद स्वामीजी के परम् भक्त हो गए थे, उनसे बहुत अधिक प्रेम करते थे। 

वे उस समय के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों में से एक थे। थॉमस ऐल्वा एडीसन ने डीसी करंट का आविष्कार किया था , लेकिन इसमें एक समस्या थी। DC current को आसानी से उच्च या निम्न वोल्टेज में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। टेस्ला का मानना ​​था कि प्रत्यावर्ती धारा (या AC) इस समस्या का समाधान है। Direct current is not easily converted to higher or lower voltages. Tesla believed that alternating current (or AC) was the solution to this problem.  उन्होंने 'विद्युत्-चुंबकीय इंडक्शन मशीन (Electromagnetic Induction Machine ) का प्रथम अविष्कार किया था। 

बिजली हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है, यह हर समय हमारे साथ है। हम अपने मोबाईल , आदि उपकरणों को बिजली से चार्ज करते हैं, अपने घरों को रोशन करते हैं, और अपनी दुनिया को इससे ऊर्जा देते हैं। हम में से ज़्यादातर लोग थॉमस एडिसन को बिजली बल्ब के आविष्कारक के रूप में जानते हैं। किन्तु बिजली को वास्तविक रूप से मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने का काम निकोला टेस्ला ने किया था।

टेस्ला सिर्फ़ एक आविष्कारक ही नहीं थे; वे एक दूरदर्शी साइंटिस्ट थे - (APJ अब्दुल कलाम की तरह भविष्य द्रष्टा या खुली आँखों से स्वप्न देखने वाले) व्यक्ति थे, वे एक ऐसे व्यक्ति जिनके विचार अपने समय से दशकों आगे थे। प्रत्यावर्ती धारा (एसी), वायरलेस संचार और अनगिनत अन्य प्रमुख उपकरणों के निर्माण में उनके योगदान ने आज की अधिकांश तकनीक की नींव रखी जिसे हम सामान्य मानते हैं। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई, किन्तु आज  80 साल बाद 2025 में भी साइंटिस्ट और इंजीनियर लोग एक समय उनके द्वारा भविष्य द्रष्टा के रूप देखे गए विचारों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो मेले के विश्व धर्म संसद में दिए अपने प्रसिद्ध भाषण के माध्यम से, उन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष पूर्व के वेदान्त को पहले से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर उजागर किया। उन्होंने न केवल भारतीय अध्यात्म और दर्शन के बारे में बात की, बल्कि उन्होंने Science और Vedanta पर भी चर्चा की और प्रमाणित कि कैसे दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जब स्वामी विवेकानंद ने निकोला टेस्ला से मुलाकात की और उन्हें वेदांत समझने के लिए प्रेरित किया: 1893 में, स्वामी विवेकानंद से मुलाकात के दौरान निकोला टेस्ला को वेदान्त में Energy (ऊर्जा) और पदार्थ (Matter) की अवधारणा को समझने की प्रेरणा मिली। बाद में, स्वामीजी जब भारत लौट आये तब उनका उल्लेख करते हुए एक पत्र में लिखा है कि कैसे इस महान साइन्टिस्ट ने वेदांत के संस्कृत महावाक्यों को विज्ञान सम्मत पाया था और कैसे वेदांत और विज्ञान के बीच का संबंध सम्पूर्ण मानवजाति को बदलने की क्षमता के साथ प्रतिध्वनित हुआ। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई। आज, 80 साल बाद, साइंटिस्ट और इंजीनियर अभी भी उनके सपनों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

🔱11. (22.09 मिनट) इस PPt चित्र में 'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव) Tesla coil (टेस्ला कॉइल) एक इलेक्ट्रिकल ट्रांसफ़ॉर्मर  है  जो वोल्टेज बढ़ाने के लिए AC Current  का उपयोग करता है, और बहुत ज़्यादा वोल्टेज पैदा करता है।  अपने अत्यधिक उच्च वोल्टेज के कारण, टेस्ला कॉइल में बिजली (electricity) हवा के माध्यम से यात्रा कर सकती है।  इसका इस्तेमाल electric lighting, एक्स-रे उत्पादन, और वायरलेस टेलीग्राफ़ी जैसे कई कामों के लिए किया जाता है।  

  Nikola Tesla को देखो ! टेस्ला Lightning machine लेकर खड़े हैं। टेस्ला Artificial Lightning produce करना जानते थे। Laboratory में Lightning produce करके एक जगह से दूसरे जगह jump मारता था। उस मशीन के पास इतने confidence से खड़े हैं , क्योंकि वे जानते थे  High-frequency current skin त्वचा के ऊपर से गुजर जाता है, शरीर पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। वे जानते थे। कि यह  high-frequency current मेरी कोई क्षति नहीं कर सकता। या उनका शरीर बिजली के झटके को सह लेगा, इस बारे में वे Confident (निधड़क) थे। 'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव) के विषय में शायद तुमलोग सुने हो ? [उपरिस्तर प्रभाव (या Skin Effect) एक विद्युतचुंबकीय घटना है जो एक कंडक्टर के माध्यम से प्रत्यावर्ती धारा (AC current) के प्रवाह से जुड़ी है।  

पदार्थविज्ञान (Physics) से दर्शनशास्त्र (Philosophy) तक

 निकोला टेस्ला की मुलाक़ात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा) और आकाश (पदार्थ-पिण्ड ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया। उस मुलाकात के दौरान विवेकानंद ने वेदांत के सिद्धांत या महावाक्यों के प्रति टेस्ला के उत्साह पर ध्यान दिया। उसका उल्लेख 13 फरवरी, 1896 को लिखित एक पत्र में करते हुए स्वामी विवेकानन्द अपने मित्र  E. T. Sturdy को न्यूयार्क से  कहते हैं- "श्री टेस्ला वेदान्तिक प्राण और आकाश तथा कल्पों (ब्रह्मांडीय चक्र या सृष्टि-प्रलय) के बारे में (Vedantic cosmology के बारे में हमारे सिद्धांत- महावाक्य- 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे') सुनकर बिल्कुल बिल्कुल मुग्ध हो गए,  जो उनके अनुसार आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से ग्रहण के योग्य एकमात्र सिद्धांत हैं"। अब उनका विश्वास था कि पूरे आकाश (Space) में ऊर्जा (energy- प्राण) भरा हुआ है, क्योंकि आकाश और प्राण (Time) दोनों समष्टि मन (the Universal Mind)ब्रह्माण्डीय महत (cosmic Mahat), जगत्स्रष्टा ब्रह्मा या ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।  
निकोला टेस्ला समझते हैं कि वे गणितीय रूप से यह प्रमाणित कर सकते हैं कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही 'potential energy' में रूपांतरित हो सकते हैं। (Mr. Tesla thinks he can demonstrate mathematically that Energy and Matter are reducible to potential energy.) गणित के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जानेवाला हूँ। 
[Vivekananda noted Tesla's enthusiasm: "Mr. Tesla was charmed to hear about the Vedantic Prana and Akasa and the Kalpas (cosmic cycles), which according to him are the only theories modern science can entertain".] 
लेकिन उनकी चर्चाओं के बावजूद, टेस्ला यह गणितीय प्रमाण देने में असमर्थ रहे कि बल और पदार्थ को संभावित ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। इस अवधारणा को बाद में 1905 में अल्बर्ट आइंस्टीन के द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता सूत्र, the theory of relativity : सापेक्षता के सिद्धांत  E=mc² में समाहित किया गया। This concept would later be encapsulated in 1905 in Albert Einstein's mass-energy equivalence formula, the theory of relativity, E=mc²] टेस्ला ने ब्रिटिश गणितज्ञ लॉर्ड केल्विन के साथ भी विचारों का आदान-प्रदान किया, जिन्होंने वायरलेस पावर के उनके दृष्टिकोण का समर्थन किया और वैदिक विश्वदृष्टिकोण में रुचि दिखाई।

 टेस्ला का संस्कृत- ज्ञान टेस्ला के जीवनीकारों ने इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, लेकिन 1907 में लिखे गए "Man’s Greatest Achievement" या 'मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि' नामक एक अप्रकाशित लेख में वैदिक शब्दों के उनके उपयोग का पता चलता है। He described the cycle of matter emerging from and returning to a primary substance -- a vision aligning with the Vedic idea of creation and dissolution.] उन्होंने पदार्थ (व्यक्त-वृक्ष) के एक प्राथमिक पदार्थ (primary substance) से निकलने और उसमें वापस लौटने के चक्र का वर्णन किया है। (अर्थात अव्यक्त या छोटे से बरगद के बीज से विशाल बरगद का वृक्ष निकलने का वर्णन किया है। जो (creation) दृष्टि और प्रलय (dissolution) के वैदिक विचार के साथ संरेखित होती है। 
वर्ष 1893 में टेस्ला ने वर्ल्ड इलेक्ट्रिक साइंटिस्ट पार्लियामेंट (अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर्स) के समक्ष एक भाषण के दौरान निम्नलिखित टिप्पणी की थी; "इससे पहले कि कई पीढ़ियाँ गुजर जाएँ; हमारी मशीनें ब्रह्माण्ड के किसी भी बिंदु पर उपलब्ध शक्ति द्वारा संचालित होगी।("Ere many generations pass, our machinery will be driven by a power obtainable at any point in the universe.")  यह विचार नया नहीं है... हम इसे अंतायोस (Antaeus या एंथियस ) के रमणीय मिथक में पाते हैं, जो पृथ्वी से शक्ति प्राप्त करता था।  
 'Throughout space there is energy' यानि पूरे अंतरिक्ष (आकाश) में ऊर्जा (energy-प्राण व्याप्त) है। क्या यह शक्ति (ऊर्जा) स्थिर (static)  है या गतिज (kinetic)? यदि स्थिर है तो हमारी आशाएँ व्यर्थ हैं; यदि गतिज है - और यह हम निश्चित रूप से जानते हैं कि वह गतिज ऊर्जा ही है- तो यह केवल समय का प्रश्न है,  कि मनुष्य अपनी मशीनरी को प्रकृति के चक्र से जोड़ने में कब सफल होगा"।
[Throughout space there is energy. Is this energy static or kinetic? If static our hopes are in vain; if kinetic - and this we know it is, for certain-then it is a mere question of time when men will succeed in attaching their machinery to the very wheelwork of nature".]

सैन फ्रांसिस्को के साइडवॉक एस्ट्रोनॉमर्स जॉन डॉब्सन जैसे कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि विवेकानंद की शिक्षाएं टेस्ला और वेदान्त (संस्कृत के महावाक्य)  की इन अवधारणाओं के बीच सेतु का काम कर सकती हैं।जो भी हो, टेस्ला के लेखन में विज्ञान और प्राचीन दर्शन का उल्लेखनीय संश्लेषण प्रतिबिंबित होता है, जो ब्रह्मांड के बारे में उनके दृष्टिकोण को समझने के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है, और यह जानना दिलचस्प है कि भारतीय विद्वान, दार्शनिक और संत स्वामी विवेकानंद ने इस परिवर्तन को प्रेरित किया। टेस्ला का हिंदू धर्म और वैदिक दर्शन के प्रति आकर्षण उनके जीवन भर, यहां तक ​​कि उनकी मृत्यु तक भी बना रहा।
(With inputs from a study by Toby Grotz in 'The Influence of Vedic Philosophy on Nikola Tesla')
Published By: Rishab Chauhan,Published On:Jan 8, 2025
[https://www.indiatoday.in/education-today/gk-current-affairs/story/when-swami-vivekananda-met-nikola-tesla-and-inspired-him-to-understand-vedanta-2661573-2025-01-08] 
[ प्रलय -विज्ञान (परलोक गमन -सिद्धांत, ईसाई धर्म के Last Judgement आदि) की व्याख्या केवल अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से होगी।]  
मैं आजकल Vedantic cosmology और प्रलय -विज्ञान (cataclysm या Eschatology) में शोध कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य देखता हूँ , एक व्याख्या हो जाये तो दूसरे की भी हो जाएगी। आगे चलकर मैं एक पुस्तक प्रश्नोत्तरी के रूप लिखने पर विचार कर रहा हूँ। पहला अध्याय Vedantic cosmology ही होगा, जिसमें Vedanta और Science का सामंजस्य दिखाया जायेगा। 
[Diagram by Swami Vivekananda explaining the relationship between cosmology and Vedanta.] 

(Vedantic cosmology)

 फ़ाइल:ब्रह्माण्ड विज्ञान वेदांत.svg
द्वैतवादी कहते हैं - मृत्यु के बाद जीवात्मा सूर्यलोक में जाती है, वहाँ से चन्द्रलोक में और वहाँ से विद्युत्-लोक में। वहां से किसी पुरुष के साथ वह ब्रह्मलोक जाती है। (अद्वैतवादी कहता है कि वहाँ से वह निर्वाण प्राप्त करती है। 
अद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव (प्राणी-जीवात्मा) न कहीं आता है , न जाता है और ये सब लोक  (spheres)  या जगत के स्तर (layers of the universe) आकाश और प्राण के रूपांतरित परिमाण मात्र हैं। प्राण और आकाश से बना हुआ सबसे नीचा और सबसे घनीभूत सूर्यलोक है , जो दृश्य जगत ही है, और जिसमें प्राण भौतिक शक्ति या ऊर्जा के रूप में और आकाश इन्द्रियग्राह्य भौतिक पदार्थ [नाम-रूप] में प्रकट होता है। इसकेबाद चंद्रलोक है , जो सूर्यलोक को चारों ओर से घेरे है। यह चन्द्रमा नहीं है , बल्कि देवताओं का निवास स्थान है। अर्थात प्राण यहाँ मानसिक शक्तियों  के रूप में और आकाश तन्मात्रा या सूक्ष्म भूत के रूप में प्रकट होता है।     

इसके परे विद्युत्-लोक है अर्थात वह अवस्था, जहाँ प्राण आकाश से प्रायः अभिन्न है , और यह बताना कठिन हो जाता है कि विद्युत् (matter) है या शक्ति (Energy) ? इसके बाद ब्रह्मलोक है , जहाँ न प्राण (Time) है , न आकाश (Space) दोनों है चित्-शक्ति अर्थात आदिशक्ति में विलीन हैं। और यहाँ प्राण और आकाश के न रहने से जीब को सम्पूर्ण विश्व समष्टि- महत या समष्टि मन के रूप में प्रतीत होता है।         

"This appears as a Purusha, an abstract universal soul, yet not the Absolute, for still there is multiplicity. From this the Jiva finds at last that Unity which is the end. Advaitism says that these are the visions which rise in succession before the Jiva, who himself neither goes nor comes, and that in the same way this present vision has been projected. The projection (Srishti) and dissolution must take place in the same order, only one means going backward, and the other coming out."

"यह भी पुरुष या सगुण विश्वात्मा (ईश्वर) की ही अभिव्यक्ति है, न कि निर्गुण अद्वितीय ब्रह्म की , क्योंकि उसमें अनेकता (multiplicity) अब भी विद्यमान है। [लेकिन इस समझ के बाद कि 'एक' (अवतार वरिष्ठ) ही अनेक (M/F) बन गया है] जीव (प्राणी -जीवात्मा) को अस्तित्व के साथ एकत्व Oneness की अनुभूति होती है, जो मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अद्वैत के अनुसार जीवात्मा के सम्मुख इन सब अनुभूतियों का प्राकाट्य[ पृथ्वी, सूर्य, ग्रह, तारे -देश-काल का सातत्य, रूपी प्रलय का अनुभव एक के बाद एक बहुत तीव्रता से ] क्रमशः  होता है ; परन्तु जीव स्वयं न कहीं आता है , न जाता है; और ठीक इसी क्रम में वर्तमान जगत-ब्रह्माण्ड भी प्रक्षेपित (projected) हुआ है। इसी क्रम से सृष्टि (projection ) और प्रलय (dissolution ) होते हैं - इस चक्र का केवल एक अर्थ है 'पीछे जाना' और दूसरे का 'बाहर निकलना। "   

प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके मोहबंधन के साथ ही होती है, और उसके मोबंधन से मुक्त होते ही यह विश्व (उसके लिए?) विनष्ट हो जाता है, तथापि औरों के लिए, जो अब भी मोहबंधन में हैं (तीनों ऐषणाओं के मोहबंधन में हैं, उनके लिए माया रूपी जगत का आकर्षण) अवशिष्ट रहता है। नाम और रूप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, तभी तक तरंग है जब तक कि वह 'नाम' और 'रूप' से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये, तो वह समुद्र ही है ; परन्तु उसके वे नाम और रूप (M/F में आसक्ति) तत्काल ही [आत्मसाक्षात्कार होते ही ] सदा के लिए नष्ट हो गए।           

So though the name and form of wave could never be without water that was fashioned into the wave by them, yet the name and form themselves were not the wave. They die as soon as ever it returns to water. But other names and forms live in relation to other waves. This name-and-form is called Mâyâ, and the water is Brahman.

इसलिए उस तरंग के नाम और रूप जल के बिना नहीं हो सकते , जिससे नाम और रूप ने तरंग का [स्थूल शरीर ? का ] निर्माण किया , परन्तु फिर भी वे स्वयं तरंग नहीं हैं। जैसे ही तरंग (बूँद) पानी (समुद्र) बन जाती है, वैसे ही उसके नाम और रूप का लोप हो जाता है। परन्तु दूसरे नाम और रूप , जिनका दूसरी तरंगों से सम्बन्ध हैं , वर्तमान रहते हैं। यह नाम और रूप माया कहलाता है , और पानी ब्रह्म है। "      

 The wave was nothing but water all the time, yet as a wave it had the name and form. Again this name and form cannot remain for one moment separated from the wave, although the wave as water can remain eternally separate from name and form. But because the name and form can never he separated, they can never be said to exist. Yet they are not zero. This is called Maya.

सब काल में तरंग [बूँद] पानी के सिवा और कुछ नहीं है, परन्तु फिरभी तरंग (बूँद) के आकार में उसका नाम और रूप है।पुनः, ये नाम और रूप एक क्षण के लिए भी पानी से पृथक होकर नहीं रह सकते , यद्यपि तरंग [बूँद] जल रूप में अनन्त काल तक नाम और रूप से पृथक रह सकती है। किन्तु नाम और रूप कभी पृथक नहीं किये जा सकते , इसीलिए उनका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। तथापि वे शून्य (असत) नहीं हैं। और यही माया है।  

मैं यह सब सावधानी से करना चाहता हूँ, लेकिन आप एक नज़र में ही देख लेंगे कि मैं सही रास्ते पर हूँ। शुषुम्ना नाड़ी से जुड़े ऊँचे और नीचे के केंद्रों के (सहस्रार और मूलाधार) के बीच परस्पर सम्बन्ध को जानने के लिए, मुझे शरीर विज्ञान (physiology) को अधिक गहराई से अध्यन करने की आवश्यकता है , ताकि चित्त (mind-stuff,मन-वस्तु),मन, बुद्धि (intellect) और अहंकार आदि सम्बन्धी psychology (मनोविज्ञान या अध्यात्म विद्या) को पूर्णता प्रदान की  जा सके। परन्तु अब मेरे मन पर पास स्पष्ट प्रकाश पड़ रहा है, धुँधलापन (कर्मकाण्डी जादूमन्त्र) से मुक्त। 

मैं उन्हें वेदान्त के शुष्क और कठोर तर्क (महावाक्यों) को इस प्रकार देना चाहता हूँ, जिसे प्रेम की मधुरतम चाशनी से कोमल किया गया हो, प्रचण्ड कर्म से चटपटा (spicy -रोचक) बना हो, और योग की रसोई में पकाया गया हो, जिसे कोई बालक भी उसे आसानी से पचा सके। (खंड ४/३८५)   

(निकोला टेस्ला की मुलाकात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा-Energy) और आकाश (Matter -पदार्थ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया था।                

[विवेकानंद को उम्मीद थी कि टेस्ला का शोध इस बात की पुष्टि करेगा कि पदार्थ केवल अव्यक्त शक्ति (potential energy) है, (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है,पदार्थ केवल संभावित ऊर्जा है), क्योंकि इससे वेदों की शिक्षाओं और आधुनिक विज्ञान के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। उनका मानना ​​था कि टेस्ला का यह शोध कार्य वेदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान को वैज्ञानिक बुनियाद (scientific foundation) पर मजबूती से स्थापित करेगा

टेस्ला के पास फालतू समय एकदम नहीं होता था, वे हर समय लाइब्रेरी में बैठे रहते थे। लोग टेस्ला से मिलने के लिए आतुर रहते थे। वे एक ख्याति-प्राप्त व्यक्ति थे He was a Celebrity, सबलोग सोचते थे  वे यदि हमारे घर पर खाने आ जाएँ तो हमारा परम् सौभाग्य होगा। किन्तु टेस्ला कभी किसी के यहाँ नहीं जाते थे। उनके पास समय ही नहीं था हर समय लाइब्रेरी में रहते थे। उनकी बुद्धि इतनी तेज थी की ब्रेन में सोचकर ही मशीन का नक्शा बना लेते थे , और  हिसाब जोड़ने में उनको पेन-कागज की जरूरत नहीं थी। वे Mental Mathematics, मानसिक गणित कर लेते थे। इतने बुद्धिमान थे। स्वामीजी के साथ वेदांत और विज्ञान पर खूब आर्गुमेंट हुआ। लेकिन स्वामीजी का लेक्चर सुनने के लिए वे जल्दी लाइब्रेरी -प्रयोगशाला बंद करके पहुंच जाते थे। देर हो जाने से बैठने की जगह नहीं मिलती तो दरवाजे के बाहर खड़े हो कर वे स्वामीजी को सुनते थे। किसी भी तरह स्वामीजी को सुनूंगा , इतना पसंद करते थे। 

      🔱9(18.29 मिनट ).-"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' Energy and Mass are Interconvertible. या E=mc² ] 

    उन्होंने स्वामीजी को अपनी लाइब्रेरी देखने के लिए आमंत्रित किया। स्वामीजी ने कहा मैं तुमको वेदांत की कुछ जानकारी दूँगा, वेदांत के कुछ सिद्धांत (महावाक्य) बताऊँगा क्या तुम उसे Mathematics के आधार पर प्रमाणित कर सकोगे ? स्वामी जी ने कहा देखो मैं- सत्यापन योग्य वेदान्त के verifiable Truth सिद्धान्तों को ही उद्धृत करूँगा , किन्तु क्या तुम उसको  उसको Mathematically Verify कर सकोगे ? वे सभी verifiable Truth हैं, Swami ji said look they are all Verifiable Truths ! हां , हाँ , कर सकूंगा आप आइये मेरी लाइब्रेरी में। तब स्वामी जी ने क्या कहा ? स्वामीजी ने कहा - "Energy and Mass are Interconvertible " (एनर्जी एंड मास आर इंटरकन्वर्टिबल) अर्थात 'ऊर्जा और पिण्ड (द्रव्यमान) परस्पर परिवर्तनीय हैं'। उन्होंने कहा इस सिद्धान्त-'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' को मैंने वेदान्त से (यजुर्वेद चरक संहिता) उद्धरित किय है - वैज्ञानिक भाषा में कहा है। क्या तुम इसको Mathematically प्रमाणित कर सकोगे?  टेस्ला ने कहा, हाँ कर दूंगा, आप मेरी लाइब्रेरी में आइये। वहाँ उनके सामने बोर्ड पर कई equation लिखते हैं लेकिन प्रमाणित नहीं कर पाते हैं। तब कहते हैं स्वामीजी यह प्रमाणित नहीं हो पा रहा है , आपका जो यह वेदान्त का सिद्धांत या महावाक्य है -वह 'Theory' ही गलत लगता है। स्वामीजी कहते हैं -''मेरा वेदान्तिक सिद्धांत ग़लत नहीं है, तुम्हारा गणितीय उपकरण अभी इसके लिए तैयार नहीं है। '' My Vedantic Theory is not wrong your Mathematical Tool is not ready."  स्वामीजी ने कह दिया तुम्हारे  गणितीय उपकरण अभी उतनी प्रगति नहीं कर सके हैं। बिल्कुल सही कहा था स्वामीजी ने। क्योंकि 1905 ई ० में अल्बर्ट आइंस्टीन ने  'theory of relativity' सापेक्षता के सिद्धांत 'mass-energy equivalence' formula को E=mc²-को आविष्कृत किया । E=mc²' इस सूत्र को कितने लोग जानते हैं ? हाथ उठाओ। वाह -thank you ! लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस सिद्धान्त को 1905 में आविष्कृत किया , किन्तु उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि इस सिद्धान्त को स्वामी विवेकानन्द ने पहले ही घोषित कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जितने भी भी top साइंटिस्ट हुए हैं, सभी साइंटिस्ट विवेकानन्द को पहचानते थे। '  मैंने इस बात पर इतना जोर क्यों दिया है ? उसका चित्र अंत में दिखाउंगी। 

      मैं उस समय Theoretical Physics पढ़ रही थी। M.Sc.  उस समय हमलोग इन Californian Scientists कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों को देवता जैसा महान समझते थे। कितना अद्भुत अविष्कार किये -ऐसा समझते थे। एक दिन वहाँ स्वामी रंगनाथानंद जी महाराज आये थे। उन्होंने पूछा तुम इस समय क्या पढ़ रही हो ? मैंने कहा महाराज मैं Theoretical Physics पढ़ रही हूँ। उन्होंने कहा - तुम जानती हो , मैं तुम्हारे Californian Scientists के साथ अभी अभी 'Roundtable conference' गोलमेज सम्मेलन करके लौटा हूँ ? वहाँ 12 Scientists बैठे थे, उनलोगों स्वीकार किया कि वेदान्त उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।  एक साइंटिस्ट David mom प्रसिद्द नास्तिक वैज्ञानिक Hopkins को समझाने गया कि वेदान्त के पास विज्ञान के हर प्रश्न का उत्तर है। Hopkins ने कहा- हेः एक दम Rubbish! क्या बेकार की बात कर रहे हो ? If you believe Vedanta ? Maya ? then in physics we are sand!' अर्थात यदि तुम एक वैज्ञानिक होकर भी वेदांत के माया पर विश्वास कर लेते हो, तो Physics ही समाप्त हो जायेगा

   🔱10. (21.50 मिनट) 'जगत माया (illusion) है' इस सिद्धान्त को 2022 में साइंटिस्ट ने प्रमाणित किया नॉबल पुरस्कार मिला था। physics ने  जगत माया है (अर्थात मिथ्या है) इसको proof किया है!! जानते हो ?  2022 में जिन तीन वैज्ञानिकों को नॉबल पुरस्कार दिया गया था, उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि - जगत माया (illusion) है The Universe Is Not Locally Real ! अर्थात स्थानीय रूप से यह ब्रह्माण्ड वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?[ एलेन एस्पेक्ट (Alain Aspect), जॉन क्लॉसर ( John Clauser) और एंटोन ज़िलिंगर ( Anton Zeilinger)  को उनके प्रयोगों के लिए 2022 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया।  उनके प्रयोगों से पता चला कि ब्रह्माण्ड का स्थानीय यथार्थवाद दृष्टिकोण गलत है। जिससे यह साबित हुआ कि-The Universe Is Not Locally Real ! ब्रह्मांड स्थानीय रूप से वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?।  उनके प्रयोगों ने वास्तविकता की विचित्र क्वांटम प्रकृति को सिद्ध कर दिया। Their experiments showed that the local realism view of the universe is likely to be false. Their experiments proved the strange quantum nature of reality. 

  🔱12. (22.40 मिनट) ppt  'space-time continuum' (T०E -Theory of Everything- अर्थात 'प्राण और आकाश से  सृष्टि का प्रारम्भ।)  में अल्बर्ट आइंस्टीन का चित्र है। उन्होंने Special Relativity theory' विशेष सापेक्षता सिद्धांत भी दिया था, तुम सुने हो। विशेष सापेक्षता सिद्धांत देश (space -अंतरिक्ष) और काल (time समय) के बीच संबंध का एक वैज्ञानिक सिद्धांत है।[Special Relativity theory is a scientific theory of the relationship between space and time.] इसके बाद उन्होंने आगे बढ़कर एक और सिद्धांत दिया था General field theory सामान्य क्षेत्र या एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified field theory)। इसी सिद्धांत को (T०E -Theory of Everything) भी कहा जाता है। उसमें उन्होंने प्रमाणित  किया कि -देश (अंतरिक्ष ,आकाश या space) अलग नहीं है और समय (time -प्राण) भी अलग नहीं है, दोनों को एक साथ मिला देने से इसको ही 'space-time continuum' या अंतरिक्ष-समय सातत्य कहा जाता है। (Space is not separate, and time (life) is not separate, together it is called a space-time continuum.) आइंस्टीन के पहले तक विज्ञान जगत में ऐसी कोई अवधारणा नहीं थी। जबकि स्वामी जी ने वैज्ञानिकों से 1893 में ही कह दिया था कि देश (आकाश) और काल (प्राण) अलग -अलग चीजें नहीं हैं। साइंटिस्ट लोगों ने स्वामीजी से पूछा आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? स्वामीजी बोले- देखो 'दो Infinity (अनन्त)' नहीं हो सकते। अनन्त Infinity एक ही रह सकता है। इसलिए (आकाश और प्राण) दोनों  को एक साथ मिलाकर 'देश-काल सातत्य या कन्टिन्युम्' कहना होगा। यह बात स्वामीजी ने 1893 में ही कह दिया था, जिसे आइंस्टीन ने 1915 में प्रमाणित किया। 

 ppt 'Time and Space' में लिखा है -[Vedanta recognizes Time and Space as relative, and not absolute. आइंस्टीन' Einstein's theory of relativity demonstrated that space and time are relative and dependent on the observer's frame of reference. This scientific insight echoes the Vedantic understanding of the non-absolute nature of Time and Space. While grounded in empirical science, Einstein acknowledged the mystical elements of understanding the universe. His sense of awe and wonder at the cosmos aligns with the Vedantic realization of an interconnected singular reality. ] 

 " वेदांत देश (आकाश) और काल (प्राण) को सापेक्षिक सत्य मानता है, निरपेक्ष सत्य नहीं। आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने यह प्रमाणित किया कि देश (Space) और काल (Time) अनुभवजन्य विज्ञान (Empirical Science) पर आधारित होने के बावजूद, सापेक्षिक सत्य हैं तथा द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर हैं। [जैसे कामिनी-कांचन में आसक्ति द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है।] यह वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि समय और स्थान की परिवर्तनीय प्रकृति की वेदान्तिक समझ को प्रतिध्वनित करती है। अनुभवजन्य विज्ञान (Empirical Science) पर आधारित होने के बावजूद, आइंस्टीन ने ब्रह्मांड -सृष्टि को समझने के रहस्यमय तत्वों को भी स्वीकार किया। ब्रह्मांड के प्रति उनकी विस्मय और आश्चर्य की भावना, अंतर-सम्बंधित विलक्षण परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की वेदान्तिक अनुभूति के अनुरूप है।"

     हमलोग लिखते हैं - E=mc²', किन्तु इसका अर्थ क्या है ? नहीं समझते। एक वैज्ञानिक जिन्होंने बम बनाया कहते हैं इसे केवल मैंने समझा है, और आइंस्टीन ने समझा था। पूरा विश्व इस सूत्र से परिचित कब हुआ ? जब पहला Atom Bomb ब्लास्ट हुआ ! पहला बम ब्लास्ट कहाँ हुआ था ? हाँ , पहला परमाणु बम बिस्फोट हिरोशिमा नागाशाकी (जापान) में हुआ था। तब लोगों ने समझा यह E=mc² कितना बिध्वंशक हो सकता है। यदि पदार्थ (Matter) का एक छोटा सा 'कण', भी Energy में चेंज हो रूपांतरित हो जाये तो कितना विशाल Energy उत्पन्न होगा ! यदि इस टेबल के Matter को पूरी तरह से Energy में कनवर्ट कर सकें , पूरी पृथ्वी विनष्ट हो जाएगी। अब  physics भी Matter और  Energy को अलग अलग वस्तु नहीं मानाता है। जैसे समुद्र और तरंग अलग -अलग नहीं हैं। पानी को ही हम कभी तरंग (matter) कहते हैं और कभी समुद्र (Energy) कहते हैं। 

 🔱13.(25.05 मिनट ppt नटराज की मूर्ति : [ इस बात का प्रतीक है कि "योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ही ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। The inner perception of a Yogi is the biggest argument for achieving God.]

सामने नटराज की मूर्ति लगी है; उसको भगवान शिव की नटराज मुद्रा कहते हैं। यह नटराज मुद्रा मूर्ति कहाँ लगी है जानते हो ? यह मूर्ति भारत में नहीं है , कहाँ लगी है ? यह मूर्ति यूरोप (स्विट्जरलैंड) में लगी है ,अभी उनलोगों की अवधारणा हुई है कि 'Cosmic Dance of Shiva ' शिव के द्वारा ब्रह्माण्डीय नृत्य करने से ही सृष्टि हुई है। और प्रलय या विनाश भी उनके ताण्डव नृत्य से हुई है। एक ही मूर्ति में सृष्टि और ताण्डव नृत्य से प्रलय को कैसे दर्शाया जा सकता है ? इसलिए उनलोगों परमाणु भट्टी (Nuclear reactor) के सामने नटराज की मूर्ति को लगा रखा है। चित्र में दो भारतीय वैज्ञानिक भी हैं,  उसमें जो सिग्नेचर कर रहे हैं वे नोबल पुरस्कार विजेता चन्द्रशेखर हैं।

     हमलोग शिव या काली की मूर्ति बनाते हैं, तो उसके पीछे की अवधारणा क्या है ? साइन्टिस्ट अभी हमारे शिवजी और माँ काली की मूर्ति के पीछे की अवधारणा को समझने लगे हैं। सामान्य विदेशी लोग हमलोग के माँ काली की मूर्ति देखकर कहते हैं - ये क्या है ? इसका तात्पर्य क्या है ? वे नहीं समझ पाते कि किस चीज के प्रतीक हैं ? लेकिन ये विदेशी साइन्टिस्ट लोग इसके अर्थ को समझ रहे हैं। वे वैज्ञानिक नटराज की मूर्ति को सृष्टि और विनाश या प्रलय लीला के प्रतीक को 'Cosmic Dance of Shiva' के रूप में देखते हैं। और Modern Physics भी प्रलय को कहता है-  'subatomic particles' are performing an Energy Dance ! This is similar to energy dance of Shiva performing creation and destruction.

🔱17. (36.03 मिनट ppt  Evolution Theory of Vedanta)  वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त- Expansion and contraction of a Spring :

[स्वामी विवेकानंद द्वारा 1895. में ई. टी. स्टर्डी को लिखा पत्र,....  यहाँ काम बहुत बढ़िया चल रहा है।

Ramanuja's theory is that the bound soul or Jiva has its perfections involved, entered, into itself. When this perfection again evolves, it becomes free. The Advaitin declares both these to take place only in show; there was neither involution nor evolution. Both processes were Maya, or apparent only.

In the first place, the soul is not essentially a knowing being. Sachchidânanda is only an approximate definition, and Neti Neti is the essential definition. We have it also in Vâsanâ or Trishnâ, Pali tanhâ. We also admit that it is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects. But, being a cause, it must be a combination of the Absolute and Maya. 

" रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता (Divinity) उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से समाहित (Inherent) हैं। जब यह पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) पुनः विकसित होती है, तो जीव (बद्ध आत्मा या मोहग्रस्त आत्मा) मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें (बंधन-मुक्ति ) केवल भासित होती हैं। न क्रमसंकोच (involution) न क्रमविकास (evolution)| दोनों क्रियायें माया थीं, वास्तविक नहीं थीं , केवल भासमान - परिदृश्यमान अवस्था मात्र , भासित हो रही थीं।

 पहली बात यह कि आत्मा तत्वतः ज्ञाता नहीं है। 'सच्चिदानन्द' आत्मा (ब्रह्म ) की केवल अनुमानित परिभाषा (approximate definition) है, जबकि 'नेति, नेति ' उसकी वास्तविक परिभाषा (essential definition) है।  हमलोग भी पाली भाषा के 'तनहा' शब्द का अर्थ  वासना, तृष्णा, तीव्र इच्छा या ऐषणा ही समझते हैं। हम भी यह स्वीकार करते हैं कि वासना (यानि तीनों ऐषणा) ही -" is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects." सब प्रकार की अभिव्यक्तियों का (स्थूल -सूक्ष्म शरीरों 2H का या नाम-रूप का) मूल कारण है,और प्रत्येक अभिव्यक्ति उसका (ऐषणाओं का ही ) विशिष्ट परिणाम हैं।  ' But, being a cause, it must be a combination of the Absolute and Maya. ' -- परन्तु प्रत्येक अभिव्यक्ति (नाम-रूप - बूँद, बुदबुदा, तरंग या लहर) ऐषणा के कारण हैं , अतः वह कारण (शरीर) ब्रह्म और माया के सम्मिश्रण से उत्पन्न होता है। ...The Absolute first becomes the mixture of knowledge, then, in the second degree, that of will.  वह अद्वैत तत्व पहले ज्ञान , उसके बाद इच्छा [ऐषणा] की समष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है। 

[If it be said that plants have no consciousness, that they are at best only unconscious wills, the answer is that even the unconscious plant-will is a manifestation of the consciousness, not of the plant, but of the cosmos, the Mahat of the Sankhya Philosophy. ]

यदि यह कहा जाय कि- 'पौधों में जान नहीं होती' (अर्थात plants में प्राण-consciousness या चेतना नहीं होती) या अधिक से अधिक वह 'निर्जीव इच्छाशक्ति' से युक्त है, ( चैतन्यरहित इच्छा-शक्ति से युक्त है), तो उसका उत्तर यह होगा कि यह 'अचेतन बीज से पौधाप्रस्फुटन-क्रिया' भी चैतन्य -(consciousness ,शाश्वत स्पंदन -या प्राण) की ही अभिव्यक्ति है यह चैतन्य उस वनस्पति (जैसे छुई-मुई पौधे के बीज) का भले ही न हो, किन्तु यह उसी विश्व्यापी चेतन बुद्धि-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं। "The Buddhist analysis of everything into will is imperfect,.... बौद्धों का यह सिद्धान्त पहले तो अधूरा है कि - " दृष्टिगोचर जगत का सभी कुछ उस 'तनहा' --ऐषणा, या संकल्प आदि अभिव्यक्त हुए हैं "; क्योंकि, प्रथमतः 'इच्छा' स्वयं ही एक 'compound'- यौगिक या मिश्र पदार्थ है, और दूसरे रूप से चेतना (प्राण, होश या ज्ञान) सर्वश्रेष्ठ यौगिक वस्तु है (compound of the first degree), जो (छुईमुई के पौधे के बीज में) इच्छा के भी पहले से विद्यमान है। 

" Knowledge is action. First action, then reaction. When the mind perceives, then, as the reaction, it wills." होश (ज्ञान, प्राण या चेतना) ही अपने आप में एक क्रिया है। प्रथम क्रिया , फिर प्रतिक्रिया। मन (छुईमुई का पौधा) पहले अनुभव करता है, उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें इच्छा (मुड़जाने का संकल्प) का उदय होता है। इच्छा (तृष्णा -ऐषणा -वासना-संकल्प-पौधे के) मन में रहता है, अतः यह कहना असंगत है कि - इच्छा (ऐषणा -संकल्प) अंतिम निष्कर्ष (last analysis) है।  'Deussen is playing into the hands of the Darwinists.' पॉल डायसन तो डार्विन-मतावलम्बियों के हाथ की कठपुतली मात्र हैं।               

     परन्तु क्रमविकासवाद (evolution) के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक परम्परा के पीछे (बीज से वृक्ष बनने पीछे) क्रमसंकोच (involution) की क्रिया निहित है। इसलिए इच्छा, वासना या संकल्प के क्रम-अभिव्यक्त (evolution) होने से पहले 'महत्' या ब्रह्मांडीय चेतना (वैश्विक होश cosmic consciousness) ही क्रमसंकुचित (involution) अथवा सूक्ष्म भाव से विद्यमान रहती है। बिना चैतन्य (होश, प्राण या ज्ञान) के इच्छा (ऐषणा या संकल्प) होना असम्भव है। क्योंकि इच्छित वस्तु के सम्बन्ध में यदि पहले से किसी प्रकार का ज्ञान (होश)  न हो तो, तो उसको पाने की इच्छा या संकल्प का उदय होगा ही कैसे ? " (४/३४१-४२ )      

[This being so, the evolution of the Vasana or will must be preceded by the involution of the Mahat or cosmic consciousness. (See also Vol VIII [6]Sayings and Utterances & Vol V [7]Letter to Mr. Sturdy.) There is no willing without knowing. How can we desire unless we know the object of desire? (खंड VIII [6] कथन और कथन और खंड V [7] श्री स्टर्डी को पत्र भी देखें।) बिना ज्ञान के कोई इच्छा नहीं होती। जब तक हम इच्छा की वस्तु को नहीं जानते, तब तक हम इच्छा कैसे कर सकते हैं?

[One of the insights Swamiji gives, is the distinction he makes between intelligence and consciousness. He says that Mahat, the first change of Prakriti, is intelligence, not self-consciousness because consciousness is only a part of this intelligence. Mahat or the cosmic mind, being universal, covers all grounds of sub-consciousness, consciousness, and super-consciousness. Swamiji further explains these three states. The sub-conscious state is what we call instinct, which we find in animals and humans. The instinct, according to Swamiji, rarely fails but has a very limited scope. It works like a machine in animals. The conscious state is a higher state of knowledge, which is also fallible but has a larger scope. Though of larger scope than instinct, reason fails more often than instinct. There is still a higher state of consciousness called superconsciousness, experienced only by the Yogis.] 


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   देखो -The ultimate thing in science is the search for unity '- अर्थात विज्ञान की अंतिम बात एकता की खोज है ! हमलोग अस्तित्व के साथ एकत्व की अनुभूति कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? किस वस्तु में वह एकत्व अंतर्निहित है ? वेदांत में उस एक को कहा गया है - 'प्राणाः !'

 [सर्वाणि भूतानि, सर्वे देवाः, सर्वे लोकाः, 

सर्वे प्राणाः, सर्व एत आत्मनः समर्पिताः ॥ 

बृ०उप० ॥ 

all worlds, all organs and all these सर्वे प्राणाः (individual selves) fixed in this Self.]  प्राण ( ह्रदय में विद्यमान निःस्वार्थपरता या आनन्दमय कोष, कारण शरीर) ही हर वस्तु में सब जगह अभिव्यक्त -manifest हो रहा है। और अमीबा से लेकर मनुष्य, और मनुष्य से लेकर 'देवता' तक में यह 'प्राण' ही विकसित होता रहता है। यही है वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त है। 

 [as per Vedanta the Evolution and Involution is Expansion and contraction of a Spring : Manifestation of the Inherent Divinity according to Vedanta : #Vedanta holds that the Evolution is something innate in every being from amoeba to human beings.  As if a compressed spring is kept in each one of us which tries to expand continuously. वेदांत के अनुसार अंतर्निहित दिव्यता की अभिव्यक्ति को क्रमविकास का सिद्धांत कहा जा सकता है !]  

   जबकि डार्विन के क्रमविकास का सिद्धान्त क्या है ? 'Evolution Involution theory' में डार्विन क्या कहता है ?  डार्विन कहता है  survival of the fittest' --योग्यतम की उत्तरजीविता । जो प्राणी बलवान है युद्ध में वही जीतेगा, वही रहेगा और बाकी मरेगा। यही है डार्विन थ्योरी।  लेकिन हमारा  वेदांत ऐसा नहीं कहता। हमारा वेदान्त कहता है कि देखो  एक छोटा से बीज  बोया , वह विकसित होकर छोटा सा पौधा एक दिन विशाल वृक्ष बन जाता है , तो क्या वो किसी अन्य के साथ युद्ध करता है ? नहीं, Naturally-सहज रूप में स्वयं वृक्ष बन जाता है। एक बीज को बोया गया ,  प्राकृतिक रूप से बड़ा हो जाता है। किसी बीज को बोने के बाद जब वह sprouting करता है अंकुरित होता है , तो क्या वह विस्फोट जैसा आवाज करता है ? नहीं,एकदम spontaneous- स्वतःस्फूर्त भाव से, सुंदर रूप में, शांत भाव से बड़ा हो जाता है। उसी प्रकार आम का बीज , बड़ा वृक्ष बन जाता है , उसी प्रकार अमीबा से प्राणी; और प्राणी से मनुष्य हो जाता है। 

     क्यों होता है ? वेदांत के अनुसार क्रम विकास (Evolution) और क्रमसंकुचन (Involution) मानो एक दबाकर रखे गए किसी स्प्रिंग (कमानी-Spring) का विस्तार और संकुचन है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे -Christ, Buddha or sinners में कोई अन्तर नहीं है, sinners क्या है ? माने एक Involved Christ है , या क्रमसंकुचित (कुण्डलीकृत) ईसा! sinners माने -देवत्व का Contraction, या Involution है। एवं -Christ या बुद्ध माने वह  Expanded Sinner -क्रमविकसित पापी ! अर्थात किसी समय , जीवन के किसी पड़ाव पर वो (रत्नाकर) sinner रहा होगा, अभी वो सन्त बन गया है -बाल्मीकि ऋषि बन गया है ! हमलोगों के भीतर मानो एक spring को हमलोगों ने ही pressed करके या चिपटा करके रख छोड़ा है। उस अंतर्निहित spring का नाम है सच्चिदानन्द, जो हमारा यथार्थ स्वरुप है! (38.3) उस फैले spring को  एक ही जगह पर (रीढ़ की हड्डी के मूलाधार पर ?) चिपकाकर (इस्तरी -करके) रख छोड़ा है। अब बताओ स्प्रिंग क्या करता है ? क्रमागत बड़ा होने (फैलने या विकसित होने) की चेष्टा करता है। ठीक है न ? उसी तरह स्वामी जी कहते हैं - Evolution माने और कुछ नहीं , क्रमविकास-वाद वही स्प्रिंग क्रमागत बड़ा होने या फैलने की चेष्टा करता है, यही Evolution है। 

    इसका तात्पर्य यही है कि हमारा जो spring' -अर्थात सूक्ष्म या कारण शरीर भीतर में कुण्डलीकृत है, वह हमें बैठने ही नहीं देगा ! तुम स्वयं को लेकर ही विचार करो - मैं क्या पूर्ण सन्तुष्ट हो गया हूँ ? Am I fully satisfied? (38.26) तुमलोग में हर व्यक्ति खुद से यह प्रश्न करो। Am I very Happy? क्या मैं बहुत खुश हूँ? ठीक है इस moment मैं first हुआ मैं बहुत खुश हूँ ! या इस क्षण मैं रसगुल्ला खाया, बहुत खुश हुआ ! लेकिन क्या अगले क्षण भी वही ख़ुशी बरकरार रहेगी ? और कुछ काम करूँगा , ऐसा विचार मन में उठता ही रहता है न ?  Never we are satisfied ! हम कभी (BDO-DC होकर भी) संतुष्ट नहीं होते ! जिसको अच्छी तनख्वाह मिलती है वो सोचता है , इस साल और कितना बढ़ेगा ? और कितना कमा लूंगा। कोई यदि ऊँचा ओहदा भी पा लिया है , तो वो भी संतुष्ट नहीं होगा। कोई इससे भी बड़ी नौकरी करूँगा , ज्यादा पैसा मिलेगा। कोई Foreign में नौकरी करने गया , वो सोचेगा अभी और कुछ करना है। ऐसे ही स्वप्न हमलोग देखते ही रहते हैं - लगातार नए नए मनपसंद स्वप्न देखते रहना चाहते हैं। यही 'Law of Evolution'- क्रमविकास का नियम ! भीतर से एक अदम्य इच्छा तुमको press करती ही रहती है- Expand , Expand ,Expand ! वह अंतर्निहित शक्ति हमें देवता बन जाने तक (100 % निःस्वार्थी बन जानेतक)  छोड़ेगी ही नहीं ! हमलोग चाहे संन्यासी हो जाएँ या गृहस्थ रहें - कोई छोटा बनके रहना पसंद नहीं करता , छोटा बने रहना नहीं चाहता। मैं छोटा मनुष्य बनकर रहूँगा -कोई ऐसा नहीं कहेगा। क्यों ? (39.30 मिनट)  हम सभी लोग Freedom को पसंद करते हैं। मुक्ति हमारा स्वभाव है। Our Goal is freedom ! हमारा लक्ष्य मुक्ति है। हमारा स्वरुप ही सच्चिदानन्द है ! यही वेदान्त का नियम है। यहीं स्वामीजी ने सब कुछ लिया है। 

यही बात अब Biology में भी बहुत सुंदर ढंग से कहा जा रहा है। अणु -परमाणु हर वस्तु में चैतन्य ही तो अंतर्निहित है। अपने शरीर को ही देखो न , इसमें billion billion cells - लाखों -अरबों कोषाणु हैं ! यदि एक कोशाणु में भी कुछ गड़बड़ हो जाये -तो हम कहते हैं , कैंसर हो गया। सभी cells आपस में Coordinate करके चलें, परस्पर समन्वित होकर चलें , तभी हमारा शरीर अच्छा रहेगा। सभी कोषाणु में Life -है , जीवन है।  जीवन क्या है ??/(40.20) उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों -अरबों जीव -प्राणी हैं। हम सभी एक साथ Coordinate करते हैं , इसको हमलोग 'समष्टिगत प्राण ' कहते हैं। पुरे जगत को ही वैज्ञानिक लोग -एक cell के रूप धारणा कर रहे हैं। यह अवधारणा भी वेदांत से आया है। 

     इसको हमलोग समष्टिगत प्राण कहते हैं। इसको हमलोग वैदिक मंत्र में कहते हैं - "यत्र विश्वम् भवति एक नीडम्। " अर्थात् जहां संपूर्ण विश्व एक ही नीड में निवास करता है, सारा विश्व एक परिवार है ! यह विश्व एक cell की तरह कार्य करता है। यह हमारा अद्वैत मत है।

[योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। वेद ने इस युक्ति (method)  का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि- यत्र विश्वं भवति एक नीडम् 

वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्

तस्मिन्निदँ सं च वि चैति सर्वं सऽओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु ।।

               –यजुर्वेद 32/8

[Yogi's inner direct perception of God -(आत्मसाक्षात्कार) is the biggest argument in achieving it. The Vedas have mentioned this method in the following manner:

[मन्त्र का भावार्थ : - परमात्मा हर स्थान (देश) में छिपा हुआ है, गुह्य है। वह प्रभु सबका आवास-स्थान और आश्रय-स्थान है। हर मनुष्य, मनुष्य ही क्यों, जगत् का प्रत्येक जड़-चेतन उस पर मानो अपना-अपना घोंसला बनाकर बैठा हुआ है। वृक्ष पर घोंसले में बैठा पक्षी भले ही समझता रहे कि मेरा आश्रय तो घोंसला है, पर असल में उसका आश्रय वृक्ष होता है।जो मेधावान् है, जिसके अन्दर ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय हो गया है, जिसे प्रभुदर्शन की उत्कट लालसा लगी हुई है, जो कर्मण्य है, जो अर्चनाशील है मन से उसे पाने के लिए प्रवृत्त होता है, जो श्रवणशील और चिन्तनशील है, वही उसके दर्शन कर पाता है। 

मेघावान् योगी उसे देखता है। जो हर स्थान (देश) में छिपा है। जिस ईश्वर में समस्त विश्व एक घौंसला के रूप में विद्यमान है। उसी ईश्वरीय सत्ता में उसके आधार पर ही यह जगत् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को धारण करता है। वह ईश्वर जात मात्र वस्तु में विभू और सर्वत: ओत-प्रोत है। 

आत्म प्रत्यक्ष (self-realization) में मूलभूत कारण पुरुषार्थ है। जिसे महर्षि कपिल ने मनुष्य का चरम लक्ष्य बताकर सांख्य शास्त्र की रचना की है। 
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्ति रत्यन्तपुरुषार्थ:।। -सांख्य० १/१
ईश्वर के स्वरूप वर्णन के साथ ईश्वर दर्शन से तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति ही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।
 [The basic reason for self-realization is effort. Maharishi Kapil has created Sankhya Shastra by describing it as the ultimate goal of man. The ultimate effort of man is to attain salvation through the description of God's form and the complete removal of three types of sorrows from God's darshan.  (विवेकदर्शन का अभ्यास से विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर तीनों दुःख से निवृत्ति है।)

[ईश्वर अनन्त गुणोंवाला है। मनुष्य ईश्वर/ब्रह्म की अनुभूति तो कर सकता है लेकिन उसके समस्त गुणों को लेखनीबद्ध करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है।  ईश्वर के स्वरूप को लेखनीबद्ध करना सागर से जल को खाली करने के तुल्य है। हमारा शरीर बिना आत्म सत्ता के संचालित नहीं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के संचालनार्थ विश्वात्मा की सत्ता का भान होता है। परमाणु किसी तत्व की सबसे छोटी इकाई होती है, जबकि अणु परमाणुओं का समूह होता है। प्रकृति (पदार्थ)  का सबसे छोटा कण अपनी सूक्ष्मता के कारण परमाणु कहलाता हैं। जीवात्मा उससे सूक्ष्मतर और परमात्मा सूक्ष्मतम है। उपनिषत्कार ने इस सिद्धान्त का विवाद वर्णन करते हुए कहा है कि-

इन्द्रियेभ्य: परह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:।।

 कठ० १/३/१०

'इन्द्रियों से अर्थ यानि उनके विषय  सूक्ष्मतर हैं, उन इन्द्रिय-विषयों से सूक्ष्मतर है 'मन';  'मन' से सूक्ष्मतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) भी सूक्ष्मतर है 'महान् आत्मा'  (परमात्मा)। 
शरीर रूपी पुरी (ह्रदय) में शयन करने से जीव (प्राणी) पुरुष है किन्तु ब्रह्माण्ड पुरी में व्याप्त होने से ईश्वर पुरुष है। इसीलिए इनको जीवात्मा और परमात्मा कहा जाता है।
 दोनों पुरुष हैं। किन्तु परमात्मा महान् और उत्तम है। 
यान्त्रिक गति से चलने वाले यन्त्र भी स्वयं गतिमान् नहीं। वह भी किसी किसी मनुष्य के द्वारा बनाए जा कर गति करते हैं। इसी प्रकार सृष्टि प्रलय का चक्र भी किसी चेतन नियामक के आधीन है।महर्षि व्यास जी का वचन है कि-अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। जन्माद्यस्य यत:। -वेदान्त १/१/१,२/ब्रह्म वह है जिसके द्वारा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है।

राज योग की अवतरणिका [Introductory(Raja Yoga)] में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं - "मनुष्य चाहता है सत्य , वह सत्य का अनुभव स्वयं करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है [अपने ह्रदय के भीतर ही उस इन्द्रियातीत सत्य 'परतत्त्व' का अनुभव कर लेता है] तब वेद कहते हैं- 

 शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ३।८॥'

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो- मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का मार्ग (नेता-अवतार वरिष्ठ को) खोज लिया है जो अजस्त्रज्योति है, उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । उसको जान करके ही मनुष्य मृत्यु के दुःख का अतिक्रमण (transcend) कर सकता है। मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा कोई पथ नहीं है।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥

 [“Ye children of immortality, even those who live in the highest sphere, the way is found; there is a way out of all this darkness, and that is by perceiving Him who is beyond all darkness; there is no other way.”[Source]

 'तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा अंधकार समाप्त हो जाता है , और हृदय की सारी वक्रता (मिथ्या अहंकार) सीधी हो जाती है। - भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ८ ॥  जब, उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' [अपरा और परा विद्या] है, तब, हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है। ॐ

[इस स्थिति में जो पहुँच जाते हैं, वे सच्चे संत कहलाते हैं। जब वे अपना अर्जित आत्मज्ञान दूसरे को देने लग जाते हैं तो उन्हें सद्गुरु कहते हैं। ज्ञान के स्तर पर सच्चे संत और सद्गुरु में कोई अंतर नहीं होता है। सच्चाई यही है कि जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वे सच्चे संत नहीं है और इसीलिए वे सद्गुरु भी नहीं हो सकते हैं। हाँ, यदि वे अध्यात्म पथ के साधक हैं तो हम उन्हें साधु, महात्मा, त्यागी, वैरागी, योगी, संन्यासी आदि नामों से अभिहित कर सकते हैं।

सद्गुरु नहीं होने के बावजूद इनमें से कोई गुरु हो सकते हैं। वह कैसे, इसको समझें। जब कोई सच्चे सद्गुरु देखते हैं कि अमुक शिष्य, साधु या साधक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु वह सदाचार समन्वित होकर नियमित साधना करता है, और उसकी आंतरिक चढ़ाई हो गई है तो वे उसे आवश्यकतानुसार इस ज्ञान को बताने यानि दीक्षा देने का अधिकार दे देते हैं। इस स्थिति में वह साधु या साधक (जो गृहस्थ या वैरागी दोनों हो सकता है।) गुरु या दीक्षागुरु कहलाता है, पर सद्गुरु नहीं कहलाता।]  

 "इस सत्य को प्राप्त करने के लिए (नेता बनने और बनाने के लिए)  , राजयोग -विद्या आप सभी मनुष्यों के समक्ष (जाति-धर्म का भेदभाव किये बिना) यथार्थ व्यावहारिक और वैज्ञानिक पद्धति -[अष्टांग योग ] रखने का प्रस्ताव करती है।" (अवतरणिका, खंड   1 /38) ["The science of Râja-Yoga proposes to put before humanity a practical and scientifically worked out method of reaching this truth."]  

 नटराज मुद्रा के बारे में कुछ खास बातें:  यह मुद्रा, भगवान शिव को ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में दर्शाती है।  नटराज मुद्रा में शिव एक पैर को उठाए हुए खड़े होते हैं और दूसरे पैर को मोड़कर रखते हैं। नटराज मुद्रा में शिव के हाथों में डमरू और ज्वाला होती है।  डमरू सृष्टि की लय को बजाता है, जबकि ज्वाला अज्ञानता को जलाने का प्रतीक है।  शिव के उठाए हुए पैर के नीचे अक्सर एक राक्षस होता है, जिसे अप्समार कहा जाता है।  यह राक्षस अज्ञानता और अराजकता का प्रतीक है।  शिव के उठाए हुए पैर का मतलब है कि वे मुक्ति और भौतिक दुनिया से परे जाने की ओर बढ़ रहे हैं।  शिव के नटराज स्वरूप की उत्पत्ति विषयक धारणा “आनंदम तांडवम” से जुड़ी है। नटराज मुद्रा, भारतीय कला में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त और पूजनीय छवियों में से एक है।  

            इसके आलावा हमलोगों के साइंटिस्ट इस समय विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़े -बड़े अनुसन्धान कर रहे हैं। किन्तु पाश्चात्य लोग भारतीय वैज्ञानिको को कोई महत्व नहीं देते थे। जगदीश चंद्र बोस को उसी समय नोबल प्राइज मिलने की बात थी , किन्तु नहीं दिया। क्योंकि उनके शोध की चोरी हो गयी थी। जिस साइंटिस्ट ने चोरी किया उसका नाम क्या था ? हाँ - उसका नाम था Guglielmo Marconi ! पर सबुत नहीं था।  सुब्रह्मणियम चन्द्रशेखर ने 1920 में ही बता दिया था कि Black Matter का अस्तित्व है। उनकी बुद्धिंमत्ता देखो -कितना पहले -1920 में ही बता दिया पर यूरोपीय लोग तब नहीं माना। उन्होंने 1920 में जो शोध किया था उसका पुरस्कार 1984 में उनको नोबल प्राइज़ मिला। 

     अब पूरे विश्व में भारतीय ब्रेन को असाधारण माना जाता है। किसी वैज्ञानिक ने कहा था - "If the Indians are proud to be Indian then nobody can stop India from being Top of the world.' हमारा ब्रेन इतना शक्तिशाली है।  किन्तु उसका उपयोग हम खराब दिशा में कर रहे हैं। हमलोग अब भी अपनेको दीनहीन समझ रहे हैं। और एक-दूसरे को नीचे दिखाने में यूज़ कर रहे हैं। स्वामीजी ने कहा था न - "ईर्ष्या -द्वेष आदि दास सुलभ दुर्बलता" हमलोग जिस दिन पीठ-पीछे बुराई करना जिस दिन त्याग देंगे , जिस दिन देश द्रोह करना छोड़ देंगे,उस दिन हम लोगों का देश सबसे महान बन जायेगा।' स्वामीजी ने पहले कहा था, अब वैज्ञानिक लोग भी वही कह रहे हैं। 

 🔱14. (29.01 मिनट) ppt वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के चित्र को देखो , ये सभी वैज्ञानिक विदेशी और भारतीय स्वामीजी द्वारा अनुप्रेरित थे।  हमारे देश के और बिदेश के जितने भी इंटेलिजेंट, टॉप लेवल साइंटिस्ट हैं,सभी स्वामीजी से अनुप्रेरित हैं। 

[सत्येंद्र नाथ बोस भौतिक विज्ञानी थे जिनके नाम पर बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी और बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट (बीईसी) का नाम रखा गया था, वे स्वामी विवेकानंद के वेदांत के आधुनिक भौतिकी के साथ संगत दर्शन के दृष्टिकोण से प्रेरित थे। बोस का आध्यात्मिक दृष्टिकोण उनके वैज्ञानिक अन्वेषणों का पूरक था। /In honor of Bose, a class of subatomic particles was named "Boson". भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक सत्येंद्रनाथ बोस को दुनियाभर में गॉड पार्टिकल के जनक के रूप में जाना जाता है। बोस के सम्मान में उपपरमाण्विक कणों के एक वर्ग का नाम "बोसोन" रखा गया। बोस को कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, लेकिन उन्हें कभी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट: बोस और आइंस्टीन ने पदार्थ की एक नई अवस्था, 'BEC' की भविष्यवाणी की थी, जो बोसोन का एक अतिशीतित संग्रह है। ठोस, द्रव, गैस और प्लाज़्मा के बाद 'BEC' पदार्थ की पाँचवीं अवस्था है। [Satyendra Nath Bose the physicist after whom the Bose-Einstein statistics and the Bose-Einstein condensate (BEC) was named,  was inspired by Swami Vivekananda's vision of Vedanta as a philosophy compatible with Modern Physics. Bose's spiritual outlook complemented his scientific explorations. Bose-Einstein condensate: Bose and Einstein predicted a new state of matter, BEC, which is a supercooled collection of bosons. BEC is the fifth state of matter, after solid, liquid, gas, and plasma. 

 🔱15. (29.30 मिनट -विश्वरूपदर्शन योग) ppt में लिखा है -ओपेनहाइमर (J Robert Oppenheimer), इन्होने क्या किया था ? उन्हें परमाणु बम का “जनक” कहा जाता है। आइंस्टीन जो सूत्र दिया था - E=mc² लेकिन उस सूत्र के आधार पर जिसने Atom Bomb बना दिया वे थे ओपेनहाइमर।  उस समय  स्पेन-जर्मनी में बम बनाने की होड़ लगी थी। All these people आइन्स्टीन, ओपेनहाइमर आदि वैज्ञानिक जर्मन यहूदी थे; ये सभी लोग  जर्मन यहूदी थे German Jews थे, वहाँ से भागकर अमेरिका आ गए थे। उनलोगों ने सोचा हमलोगों को पहले बम बना लेना होगा, नहीं तो जर्मनी हमलोगों के सिर पर ही फोड़ देगा। इसलिए बम बनाकर जब टेस्टिंग का समय आया, लेकिन बम का टेस्टिंग कैसे होता हैजमीन को कुछ किलोमीटर गहराई तक खोद कर भूगर्भ में explode टेस्टिंग किया जाता है। जिस समय बम को explode किया जायेगा, तो छोटा बम रहने से भी एक tremor जैसे भूकंप के समय कम्पन होता है, वैसा आएगा। वे बड़े बुद्धिमान थे, वे एक सूत्री भीतर लटका दिए और 1.5 मीटर के बाद वह जल गया तो नाप कर बतला दिए कि  कितना मेगावाट energy, release हुआ है ? 21 किलोटन टीएनटी की ताक़त वाला ये विस्फोट इंसान का किया अब तक का सबसे बड़ा धमाका है।  इतने बुद्धिमान थे ?  इस धमाके से इतना तेज़ कम्पन  पैदा हुआ, जो 160 किलोमीटर दूर तक महसूस किया गया। उस धमाका ने सूरज की चमक को भी धुंधला कर दिया था। एटम बम के धमाके के बाद उन्होंने भगवतगीता के 11वें अध्याय (विश्वरूपदर्शन योग)  के 32वें श्लोक कहा था  -

 दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । 

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥12॥

इसका अर्थ हमलोग नहीं बता सकते , किन्तु ओपेनहाइमर को याद था। यदि आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो Brightness (दमक-द्युति)- उत्पन्न होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।।

[अर्जुन ने कृष्ण से प्रश्न किया था ‘कि वे कौन हैं?' की प्रतिक्रिया में श्रीकृष्ण ने कहा मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। वे यहां सर्वशक्तिशाली काल और ब्रह्माण्ड के विनाशक के रूप में अपनी प्रकृति प्रकट करते हैं। "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।]  

'ओपन हाइमर' ने यह उपमा बम के लिए कही थी। फिर भी गीता से उल्लेख करने का अर्थ यह हुआ कि पूरी गीता उन्हें कंठस्थ थी। इससे समझ लो कि हमारी संस्कृति का प्रभाव कहाँ तक फैला हुआ है ! इतना ही नहीं हमारे संस्कृत से ही दुनिया की सभी भाषाएँ बनी हैं। उनलोग जर्मन, रूसी, इतालवी, अंग्रेजी, फ्रेंच आदि भाषाओँ को  - 'Indo -European Language' -'इंडो-यूरोपियन भाषा', कहते हैं लेकिन यदि इंडो को निकाल दें तो यूरोपियन कुछ नहीं बचेगा। उनलोगों ने देखा उनके सभी शब्द संस्कृत से निकले हैं , मदर , मातृ से निकला, ब्रदर  (32.29 मिनट) -आया भ्रातृ से डॉटर आया दुहिता से। New, नया से निकला। कोई भी शब्द लो सब संस्कृत से आया है। यहाँ स्कूलों से संस्कृत को हटा दिया है , लेकिन ब्रिटेन के स्कूलों में संस्कृत सिखाया जाता है। और एक कारण है कम्प्यूटर भी संस्कृत भाषा को आसानी से पकड़ लेता है।  

      🔱16. (33.02 मिनट) ppt 'प्राण और आकाश से  सृष्टि का प्रारम्भ: इरविन श्रोडिंगर को बहुत कम लोग जानते हैं। Quantum Mechanics का नाम जरूर सुने होंगे। (Erwin Schrodinger-Vedantic Influence on Quantum Physics - क्वांटम भौतिकी पर वेदान्त का प्रभाव) :  उनको क्वांटम यांत्रिकी के जनक 'Father of Quantum Mechanics' कहा जाता है ! वे हमलोगों के वेदान्त से बहुत प्रेम करते थे। उनके लाइब्रेरी के दीवाल पर महावाक्य लिखा रहता था - 'अहं ब्रह्मास्मि !' 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' ये सब लिखा रहता था। कोई भारतीय आता तो बहुत स्वागत करते -You are coming from a noble country !! तुमसे यदि इन महावाक्यों की - 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' व्याख्या करने के लिए कहा जाये तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि हमने अपनी संस्कृति छोड़ दिया है और वे लोग संग्रह कर रहे हैं pickup कर रहे हैं। स्वामीजी बोलते थे जब गोरे लोग आकर कहेंगे कि तुम्हारी संस्कृति महान है, तब तुम लोग भी सीखोगे ।   

स्पेसटाइम सातत्य (Spacetime continuum) के ऊपर यूरोप के वैज्ञानिकों का एक रिसर्च आया है कि - स्पेस- टाइम सातत्य पर कार्य करने वाले इकाई बल को हल करने से सृष्टि का प्रारम्भ होता है।- 'Resolve unit force acting on Spacetime continuum result in creation ! पाश्चात्य के साइंटिस्ट ने खोज किया है। इसी बात को  संस्कृत में कहा गया है - 'प्राण का आकाश के ऊपर कार्य करने से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है।' यह पढ़कर श्रोडिंगर अवाक् हो गया वैदिक ऋषि लोग इतने पहले मेडिटेशन करके कैसे जाना ? हमलोग अभी जो रिजल्ट पा रहे हैं , वे कैसे इतना पहले समझ लिए ? 

    यह पढ़कर मुझे गणेश और कार्तिक की कहानी याद आती है। शिव-पार्वती ने दोनों को बोले तुम में से कौन ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके जल्दी लौट सकता है ? कार्तिक की सवारी मयूर उड़ता है,उसने सोचा हमसे तेज गणेश कैसे आएगा ? वे उड़कर परिक्रमा करने चल पड़े। तेजी से लौट कर देखते हैं -गणेश को माला पहनकर पहले ही प्राइज दिया जा चूका है। वे सिर्फ अपने माता-पिता की परिक्रमा करके बैठ गए थे। क्यों ??-हिन्दू ऋषि लोग सबकुछ अपने भीतर ही खोजते हैं। (अपने भीतर कारण शरीर को खोज लेते हैं !) और सत्य को पा लेते हैं , पश्चमी लोग ब्रह्माण्ड की खोज करते हैं। अभी वाह्य जगत से भीतर की तरफ खोज करना शुरू किये हैं।  

 🔱18.(ppt 41.43 मिनट)  One Rama = Ten Dollar स्वामीजी के लिए जैसे विदेश में विश्वधर्म सभा अपना हो गया था, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी Indian Science, Indian Industry का विकास स्वामीजी के कारण ही हुआ। जमशेद जी टाटा को उन्होंने ही Inspired किया जमीन -पानी का चयन किया। निवेदिता ने British Parliament में Signature campaign चलायी तभी Tata Institute बना नहीं तो नहीं होता। आज जो Tata Institute of Fundamental Research' से Barc, Isro , Drdo, फिर मंगल यान , फिर चंद्र यान हुआ। आदि जो प्रगति दिखाई देती है उसके पीछे स्वामीजी।ये सभी लोग Nuclear Scientist हैं। एक चित्र है ये लोग वेदान्त को ही धर्म समझते हैं। भगवान राम को उनलोग अपना आदर्श समझता है। राम के चित्र को लगाकर उनलोगों ने अपना Currency' चालू किया है। One Rama = Ten Dollar/ उनलोगों यूरोप के एक द्वीप पर अपना एक छोटा सा देश बसा लिया है। यहाँ हमलोग केवल वेदांत का ही अभ्यास करते हैं। उस द्वीप का नाम उनलोगों ने रखा है - 'Global Country of World Peace !'विश्व शांति का वैश्विक देश' ! देखो हमारे देश को बाहर के  Scientist लोग किस श्रद्धा से देख रहे हैं ! मैंने एक घटना सुनी है , हमारे देश के कोई वैज्ञानिक वे आइंस्टीन से पढ़ने गए थे। वे उनको Indian Boys कहकर सबसे ज्यादा आदर देते थे।

      हमको यह देखकर अफ़सोस होता है कि गुलामी की मानसिकता से हमलोग अभी तक ग्रस्त हैं। वो देश अच्छा , वह देश तो बहुत अमीर है , और अपने देश को गरीब -बुरा तथा दूसरे देशों को भला समझते हैं। जिस दिन तुम सभी लोग भारतवर्ष से प्रेम करने लगोगे ,आज से ही अपने- आप पर विश्वास , अपने स्वरुप पर गर्व और स्वरुप से प्रेम करोगे , परस्पर का सम्मान करोगे , हमारा देश Will rise to the Top of the world ! हमलोगों को अपने देश से प्रेम करना ही होगा - इसीलिए ठाकुर , माँ और स्वामीजी आये हैं। मैं प्रार्थना करती हूँ की प्रत्येक का जीवन हीरे जैसा बनेगा। तुमलोग देश के भविष्य हो देश को ऐसी वस्तु दोगे कि देशवासी सदा तुमको सदा याद रखेंगे -स्वामीजी से मेरी यही मेरी प्रार्थना है !  

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 ['यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' -चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें समझाता है कि जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है।

     यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है-  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।

        इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ  विद्यमान हैं-  आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और आनन्दित होता है।

         इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात (non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण(covering) है। हमारे शरीर के छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है।

       वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। इधर-उधर आता-जाता है।

       अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कूच कर जाता है।

         जल का गुण द्रवत्व (fluidity) है। जल के समान ही मनुष्य में आर्द्रता होती है। तभी दया, ममता, करुणाआदि गुणों के कारण वह दूसरों के दुख को सुनकर द्रवित हो जाता है।

        पृथ्वी का गुण ठोसपन (solidification) है। पृथ्वी की तरह मनुष्य भी ठोस है अन्यथा वह टिक नहीं सकता हवा में झूलता रहेगा। पृथ्वी की तरह शरीर में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एवं लवण कैलशियम, पोटाशियम, फासफोरस, सोडियम, लोहा, तांबा, सल्फर आदि विद्यमान हैं।

        ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अंतर केवल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृति तथा पुरुष में समानता है। चरक संहिता इसी कथन को हमारे लिए कहती है-

यावन्तो  हि  लोके  मूर्तिमन्तो  भावविशेषा:।

तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके॥

जो भाव पुरुष मै मुर्तिमान है वो इस लोक में भी विद्यमान है, और जो इस लोक में है वो पुरुष में विद्यमान है!अत: स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति को प्रकृति से वैध प्रेम (दोहन की भावना नहीं )  रखना चाहिए! जो भी कुछ मनुष्य के पिण्ड यानी शरीर में है, बिल्कुल वैसा ही सब कुछ इस ब्राह्मांड में है। संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है वह द्रव्यमान एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है।

ब्रह्माण्ड में चेतनता है तो मनुष्य भी चेतन है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलता फिरता रहता है। परन्तु जब यह किसी कारण से रोगी हो जाता है और चलने-फिरने में अक्षम हो जाता है तो इसमें जड़ता आने लगती है। ईश्वर ने बुद्धि के रूप में  सबसे अच्छा उपहार इसे दिया है। इस बुद्धि से वह चमत्कार करता है।

          इस प्रकार पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो इस ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी है।

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[साभार Shrinwantu Vishwe Amritasya Putra — Hear Ye Children Of Immortal Bliss (https://vivekavani.com/shrinwantu-vishwe-amritasya-putra/] 

 शृण्वन्तु बिश्वे अमृतस्य पुत्राआ ये धामानि दिब्यानि तस्थुः, “Hear, ye children of immortality, all those that reside in this plane and all those that reside in the heavens above, I have found the secret”, says the great sage. “I have found Him who is beyond all darkness. Through His mercy alone we cross this ocean of life.” (Source- Vol. IV. /Delivered in San Francisco area, April 9, 1900)]

“ Ye are the Children of Immortal Bliss ”. In the Vedic (actually Vedantic) tradition, it was believed, it is not man but it is his body that dies, man never dies. He is immortal, he is the “son of immortality”.  We find the same idea in Bhagavad Gita too.☞ On one hand the entire world claims that a man has no place in this universe. He is a helpless, powerless creature. He has miseries, diseases, he has anxieties and finally he has death. He is nothing — he is simply nothing.☞ On the other hand the Upanishads of ancient India glorifies human being as “children of immortality”. 

[“Children of immortal bliss” — what a sweet, what a hopeful name! Allow me to call you, brethren, by that sweet name — heirs of immortal bliss — yea, the Hindu refuses to call you sinners. Ye are the Children of God, the sharers of immortal bliss, holy and perfect beings. Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.] 

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 [2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था। 2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था। 1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।] 

3400 वर्ष पहले यानी लगभग 125 पीढ़ी पहले एक भी यहूदी नहीं था।
2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था। 
2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था। 
1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।
500 वर्ष पहले यानी लगभग 20 पीढ़ी पहले एक भी सिख नहीं था।
आज हम हैं और इस तथ्य के जीते जागते प्रमाण हैं कि 125 पीढ़ी पहले भी हमारे पूर्वज थे। और उन पूर्वजों का धर्म सनातन धर्म अनंत काल से मौजूद था।
One Rama = Ten Dollar/'Global Country of World Peace ! from www.dnaindia.com
GCWP > Global Country of World Peace :

Have you ever heard of the Global Country of World Peace? It's a really interesting and a unique country that was founded by Maharishi Mahesh Yogi on October 7, 2000. Their goal is to bring together peaceful and harmonious individuals from all over the world, regardless of borders or differences. Tony Nader, a neurologist, is currently leading the country.
The Global Country of World Peace has its own currency called Raam, which is a local currency and bearer bond. It's used in Iowa and the Netherlands and one Raam equivalent to 10 dollars in the US and 10 Euros in Europe. The Raam comes in different denominations of 1, 5, and 10, and it's not meant to replace any existing currencies. Rather, it's used for specific transactions within the community. The organization also promotes the use of gold to back up the Raam, so it's more stable and reliable than other currencies.
One of the coolest things about the GCWP is the "peace palaces" they've built in different US cities. These buildings look like temples and offer classes on things like ayurvedic treatments, herbal supplements, and transcendental meditation. You can find peace palaces in cities like Bethesda, Maryland, Houston and Austin, Texas, Fairfield, Iowa, St. Paul, Minnesota, and Lexington, Kentucky.
The ultimate goal of the GCWP is to create a world without violence or conflict. They believe that promoting inner peace and harmony through their teachings and practices can help achieve this. Some people might think this is a utopian dream, but it's still admirable that they're working towards a more peaceful world.]
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Special relativity: Einstein's 1905 special theory of relativity established that space and time are connected, but didn't consider gravity. 
General relativity: Einstein's 1915 general theory of relativity expanded on special relativity to include gravity. 
Space-time continuum:  Einstein's theory describes space and time as a 4-dimensional continuum that's curved by gravity. 
Space-time interactions: 
Einstein's theory describes how space-time acts on matter and is acted upon by matter. 
Some consequences of general relativity include: 
1.Gravitational time dilation: Clocks run slower near massive objects
2.Light deflection: Light bends in gravitational fields
3.Frame-dragging: Rotating masses "drag along" the spacetime around them
4. Expansion of the universe: The universe is expanding
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[The International Electrical Congress (IEC) was held in Chicago in 1893 to discuss electrical units, telegraphy, and electricity applications. The Congress took place from August 21–25, 1893, as part of the World's Columbian Exposition. Elisha Gray was the Congress president. The Congress discussed various applications of electricity. Nikola Tesla gave a lecture on mechanical and electrical oscillators. The Congress established the International System of Electrical and Magnetic Units (ISEMU)]

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['ओपन हाइमर' जो प्रथम अणु बम बनाने की योजना के सदस्य थे और हिरोशिमा और नागासाकी के विनाश के साक्षी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के इस श्लोक को निम्न प्रकार से उद्धृत किया है-'काल'-मैं समस्त जगत का विनाशक हूँ। काल, कृष्ण या -माँ काली ही सभी जीवों के जीवन यानि उम्र की गणना करते है और उसे नियंत्रित करते हैं  माँ काली या ठाकुर ही यह निश्चित करेंगे कि भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महानुभावों के जीवन का अन्त कब होगा ? यह अर्जुन के युद्ध में भाग न लेने के पश्चात भी युद्ध भूमि की व्यूह रचना में खड़ी शत्रु सेना का विनाश कर देगा ; क्योंकि भगवान की संसार निर्माण की विशाल योजना के अनुसार ऐसा होना भगवान की इच्छा है। “मैं प्रलय का मूलकारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए आता है। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएंगे।"  

    भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। भगवान् का यह लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभी कभी विनाश करने में दया ही होती है। किसी टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि अर्जुन।   तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा। भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है।  और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है। इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे। ]

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सोमवार, 20 जनवरी 2025

🔱पंचदशी-15 🔱 विषयानंद - बाह्य वस्तुओं से सुख [सांसारिक ऐषणाओं से प्राप्त क्षणिक सुख और हरिहर की उपासना से प्राप्त भूमानन्द !]

 ब्रह्मानन्दे विषयानन्दो नाम - पञ्चदशः परिच्छेदः । [35 -श्लोक]  


पंचदशी

अध्याय 15

[35 -श्लोक]  

विषयानंद - बाह्य वस्तुओं से सुख

   अथात्र विषयानन्दो ब्रह्मानन्दांशरूपभाक् ।

निरूप्यते द्वारभूतस्तदंशत्वं श्रुतिर्जगौ ॥ १॥

इस अध्याय में इन्द्रियों के बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क से प्राप्त होने वाले सुख का वर्णन किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि यह सुख ब्रह्म के आनन्द का एक कण मात्र है (ब्रह्म उपनिषद् 4.3.32)।

  शान्ता घोरास्तथा मूढा मनसो वृत्तयस्त्रिधा ।

वैराग्यं क्षान्तिरौदार्यमित्याद्याः शान्तवृत्तयः ॥ ३॥

मानसिक वृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं - शांत (सात्विक), उग्र (घोर या राजसिक) और मूढ़  (सुस्त -तामसिक)। सात्विक वृत्तियाँ वैराग्य, क्षमा और उदारता हैं। राजसिक वृत्तियाँ तृष्णा, आसक्ति, लोभ आदि हैं। तामसिक वृत्तियाँ मोह, भय आदि हैं।

वृत्तिष्वेतासु सर्वासु ब्रह्मणश्चित्स्वभावता ।

प्रतिबिम्बति शान्तासु सुखं च प्रतिबिम्बति ॥ ५॥

इन सभी वृत्तियों में ब्रह्म (=सच्चिदानन्द) का चेतना पहलू [चिद्रूपता]  प्रतिबिंबित होती है, लेकिन आनंद पहलू केवल सात्विक वृत्तियों में ही परिलक्षित होता है।

  एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।

एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ ७॥

एक ही परम आत्मा सभी शरीरों में निवास करती है। यद्यपि वह एक ही है, फिर भी वह अनेक रूपों में दिखाई देती है, जैसे पानी के विभिन्न बर्तनों में चंद्रमा का प्रतिबिंब। यदि पानी शुद्ध है तो चंद्रमा का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देता है और यदि पानी गंदा है तो धुंधला दिखाई देता है। इसी प्रकार, ब्रह्म भी मानसिक वृत्तियों में भिन्नता के आधार पर विभिन्न शरीरों में अलग-अलग रूप में दिखाई देता है।  

सत्ता चितिः सुखं चेति स्वभावा ब्रह्मणस्त्रयः ।

मृच्छिलादिषु सत्तैव व्यज्यते नेतरद्द्वयम् ॥ २०॥

     अस्तित्व,चेतना और आनंद (Existence-Consciousness-Bliss) ये तीनों ब्रह्म के स्वरुप हैं । मिट्टी, पत्थल आदि जड़ (निर्जीव) पदार्थों में ब्रह्म का केवल अस्तित्व (Existence)पहलू ही प्रकट होता है, अन्य दो चेतना और आनंद पहलू नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जड़ या निर्जीव पदार्थों में कोई सूक्ष्म शरीर ( subtle body- प्राणमय, मनोमय , विज्ञानमय) नहीं होता जो ब्रह्म के चेतना और आनंद पहलू को भी प्रतिबिंबित कर सके। 

सत्ता चितिर्द्वयं व्यक्तं धीवृत्त्योर्घोरमूढयोः ।

शान्तवृत्तौ त्रयं व्यक्तं मिश्रं ब्रह्मेत्थमीरितम् ॥ २१॥

सभी चेतन (animate-सजीव) प्राणियों में ब्रह्म का चेतना वाला पक्ष (consciousness aspect ) ब भी प्रकट होता है जब उसका मन अशांत होता है, क्योंकि हम देखते हैं कि दुःखी व्यक्ति भी सचेत (conscious) तो होता ही है। लेकिन ब्रह्म (सच्चिदान्द) का आनंद वाला पहलू तभी प्रकट होता है जब व्यक्ति का मन शांत होता है।

 एक संदेह उठता है कि जब ब्रह्म में चेतना और आनंद दोनों पहलू हैं, तो उनमें से केवल एक, चेतना, एक उत्तेजित मन में क्यों प्रतिबिंबित होती है। जब आप दर्पण में अपने चेहरे का प्रतिबिंब देखते हैं, तो आप पाते हैं कि चेहरा अपनी संपूर्णता में प्रतिबिंबित होता है, न कि केवल उसके कुछ पहलू। 

इस संदेह का उत्तर दो उदाहरण देकर दिया गया है। जब पानी आग के संपर्क में आता है, तो आग का केवल ताप पहलू ही पानी द्वारा अवशोषित होता है, आग का प्रकाश नहीं। लेकिन जब लकड़ी का एक लट्ठा आग के संपर्क में आता है, तो वह ताप और प्रकाश दोनों पहलुओं को अवशोषित कर लेता है। इसी प्रकार, अशान्त मन (agitated mind) में  ब्रह्म का केवल चेतना पहलू ही प्रतिबिंबित होता है, लेकिन जब मन शांत होता है तो चेतना और आनंद दोनों पहलू प्रतिबिंबित होते हैं

      मन में जब कोई इच्छा उठती है, तो मन में यह चिंता बनी रहती है कि इच्छित वस्तु मिलेगी या नहीं ? ऐसी स्थिति में आनंद नहीं मिल सकता। लेकिन जैसे ही इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है, मन शांत हो जाता है। तब मन में ब्रह्म का आनंद झलकने लगता है। उस समय मन को जो  सुख मिलता है, लोग उसको इच्छित वस्तु की प्राप्ति पर होने वाला सुख समझते हैं , किन्तु वह गलत समझ है, वास्तव में वह सुख  मन के शांत होने के कारण होता है। क्योकि यह सुख तभी तक बना रहता है जब तक कोई दूसरी इच्छा मन को आंदोलित करके उसे अशान्त नहीं कर देती। जब व्यक्ति सांसारिक सुखों (worldly pleasures : तीनो ऐषणाओं-कामिनी-कांचन -नामयश) के प्रति पूर्ण वैराग्य प्राप्त कर लेता है और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तब उसका मन बिल्कुल शांत हो जाता है और तब परम आनंद का अनुभव होता है।  

   ब्रह्म अस्तित्व, चेतना और आनंद है। पत्थरों जैसी निर्जीव वस्तुओं में केवल अस्तित्व का पहलू ही प्रकट होता है, क्योंकि उनके पास कोई सूक्ष्म शरीर नहीं होता जो अकेले चेतना को प्रतिबिंबित कर सके। सभी जीवित प्राणियों में अस्तित्व और चेतना दोनों ही प्रकट होते हैं। ब्रह्म के तीनों पहलू एक ऐसे मन में प्रकट होते हैं जो मुख्य रूप से सात्विक होता है

   ब्रह्म वस्तुतः सभी गुणों से रहित है। संसार में अनेक नाम और रूप माया द्वारा ब्रह्म पर आरोपित हैं। जो लोग निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करने में असमर्थ हैं, उनके लिए शास्त्रों में गुणयुक्त ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ का या उनके हरिहर रूप सदगुरुदेव) का ध्यान करने का विधान है।

निरुपाधिब्रह्मतत्त्वे भासमाने स्वयंप्रभे ।

अद्वैते त्रिपुटी नास्ति भूमानन्दोऽत उच्यते ॥ ३३॥

   जब अद्वैत, स्वयंप्रकाश, निर्गुण ब्रह्म को जान लिया जाता है, तब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान  का कोई त्रिपुटी /त्रय नहीं रह जाता। तब भूमानन्द या अनंत आनंद होता है।

प्रीयाद्धरिहरोऽनेन ब्रह्मानन्देन सर्वदा ।

पायाच्च प्राणिनः सर्वान्स्वाश्रितां शुद्धमानसान् ॥ ३५॥

   इस ब्रह्मानन्द के द्वारा अभिन्नात्मा हरिहर भगवान जो हरि और हर दोनों हैं, अपने भक्तों पर सदा प्रसन्न रहें , तथा उन सबकी रक्षा करें जो शुद्ध मन से उनके आश्रित हैं या उनके प्रति समर्पित हैं।

अध्याय 15 का अंत 

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[ ब्रह्म के हरिहर रूप को देखकर  शिव और विष्णु के भक्तों को समझ में आया कि अवतार वरिष्ठ और देवतागण-(श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर) एक-दूसरे के पूरक हैं। ब्रह्म के हरिहर रूप [भगवान विष्णु और शिव का एकीकृत रूप- नवनीदा ???] को देखकर में शिव और विष्णु के भक्तों के बीच विवाद खत्म हो गया।]  

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🔱पंचदशी-14 🔱 विद्यानन्द प्रकरण

 ब्रह्मानन्दे विद्यानन्दोनाम - चतुर्दशः परिच्छेदः । [65 -श्लोक]  

पंचदशी

अध्याय 14

[65 -श्लोक ] 

विद्यानन्द - ज्ञान का आनंद

   योगेनात्मविवेकेन द्वैतमिथ्यात्वचिन्तया ।

ब्रह्मानन्दं पश्यतोऽथ विद्यानन्दो निरूप्यते ॥ १॥

इस अध्याय में उस व्यक्ति द्वारा अनुभव किये जाने वाले आनन्द का वर्णन किया गया है, जिसने पिछले तीन अध्यायों में वर्णित तीन मार्गों -- योग (practice of yoga : मनःसंयोग या राजयोग), आत्म-अनात्म विवेक [discriminative knowledge of the Self, 3H में मैं क्या हूँ ? या व्यावहारिक मनुष्य और वास्तविक मनुष्य के रूप स्वयं के दो पहचानों का विवेकपूर्ण ज्ञान।] तथा द्वैत-प्रपंच कल्पना (unreality of duality-सिंहशावक कथा - यदि 'मैं आत्मा हूँ' तो मरेगा कौन ?नेति-नेति मार्ग) का निरंतर चिंतन;में से किसी एक मार्ग का अनुसरण करके जिन्होंने 'ब्रह्मानन्द का साक्षात्कार' कर लिया हो, अब उनके लिए यहाँ विद्यानन्द का निरूपण-किया जा रहा है।  

विषयानन्दवद्विद्यानन्दोधीवृत्तिरूप्कः ।

दुःखाभावादिरूपेण प्रोक्त एष चतुर्विधः ॥ २॥    

   विषयानन्द (कामिनी-कांचन आदि से) मिलने वाले सुख की तरह विद्यानंद या ब्रह्म की अनुभूति से उत्पन्न आनन्द भी बुद्धि का ही एक रूप है। इस आनंद के चार पहलू हैं। ये हैं, १. दुःख का अभाव, २.सभी इच्छाओं की पूर्ति, ३.जो कुछ करना था, उसे कर लेने का संतोष और ४.जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लेने का एहसास।

जीवात्मा परमात्मा चेत्यात्मा द्विविध ईरितः ।

चित्तादात्म्यात्त्रिभिर्देहैर्जीवः सन्भोक्तृतां व्रजेत् ॥ ६॥

  वेदान्त में जीवात्मा और परमात्मा - इन्हीं दो प्रकार की आत्मा का उल्लेख मिलता है। जीव जब स्थूल, सूक्ष्म और कारण - इन तीन शरीरों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है -तब अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है।

परमात्मा सच्चिदानन्दस्तादात्म्यं नामरूपयोः ।

गत्वा भोग्यत्वमापन्नस्तद्विवेके तु नोभयम् ॥ ७॥

 सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा, नाम-रूप के साथ तादात्म्य स्थापित करके भोग की वस्तु (objects of enjoyment) बन गए हैं। किन्तु तीन शरीर और भोग्य रूपी जगत से आत्मा पृथक है, जब यह एहसास हो जाता है कि वह परम ब्रह्म है और शरीरों से अपनी पहचान छोड़ देता है, तो न तो भोक्ता रहता है और न ही भोग की वस्तुएँ।

 शरीरों के साथ अपनी तादात्म्य स्थापित कर लेना ही सभी इच्छाओं का कारण है, क्योंकि सभी इच्छाएँ शरीर के आराम के लिए होती हैं। जब कोई इच्छा पूरी नहीं होती, तो दुख होता है। ब्रह्म के ज्ञाता को यह एहसास हो जाता है कि सांसारिक वस्तुओं की कोई वास्तविकता नहीं है और इसलिए उसे उनकी कोई इच्छा नहीं होती।

यथा पुष्करपर्णेऽस्मिन्नपामश्लेषणं तथा ।

वेदनादूर्ध्वमागामिकर्मणोऽश्लेषणं बुधे ॥ १३॥

  जैसे कमल के पत्तों पर जल नहीं चिपकता, वैसे ही ज्ञान प्राप्ति के बाद किए गए कर्म ज्ञानी से नहीं चिपकते, क्योंकि कर्म शरीर द्वारा किए जाते हैं और ब्रह्मज्ञानी का शरीर से कोई तादात्म्य नहीं होता। संचित कर्म ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि द्वारा भस्म हो जाते हैं। J

ust as water does not stick to the leaves of the lotus, actions performed after realization do not attach to the knower, because actions are performed by the body and the knower of Brahman has no identification with the body.  The accumulated actions (sanchita karma) are burnt by the fire in the form of the knowledge of Brahman.

   वेदों के आदेश और निषेध ज्ञानी व्यक्ति पर लागू नहीं होते। ये तभी तक लागू होते हैं जब तक व्यक्ति खुद को शरीर और मन के साथ पहचानता है। आत्मज्ञानी आत्मा द्वारा किया गया कोई भी कार्य कर्म नहीं होता, क्योंकि उसमें कर्तापन की भावना नहीं होती।

 वह जो भी कार्य करता है, वह केवल संसार के कल्याण के लिए होता है, न कि अपने लिए किसी लाभ के लिए, क्योंकि वह शुद्ध आत्मा है, जिसकी कोई इच्छा नहीं होती। वह परम आनंद का आनंद लेता है। वर्तमान शरीर तब तक चलता है जब तक कि उसे अस्तित्व में लाने वाले प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं हो जाते। इस शरीर के गिरने पर उसका फिर से जन्म नहीं होगा क्योंकि उसे दूसरा जन्म देने के लिए कोई कर्म नहीं बचेगा।

   आत्मा का आनन्द मन और इन्द्रियों की समझ से परे है। यह ब्रह्मा और अन्य देवताओं द्वारा भोगी गयी खुशी से भी श्रेष्ठ है।

अध्याय 14 का अंत 

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✅ 🔱पंचदशी -13🔱✅ अद्वैतानंद - अद्वैत का आनंद [ The Bliss of Non-Duality ]

 ब्रह्मानन्देऽद्वैतानन्दोनाम - त्रयोदशः परिच्छेदः । [105 -श्लोक]  

पंचदशी

अध्याय 13

[103 -श्लोक ] 

अद्वैतानंद - अद्वैत का आनंद

 आकाशादि स्वदेहान्तं तैत्तिरीयश्रुतीरितम् ।

जगन्नास्त्यन्यदानन्दात्दद्वैतब्रह्मता ततः ॥ २॥

 तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि संसार आनंद से उत्पन्न हुआ है, यह आनंद में स्थित है और अंत में आनंद में विलीन हो जाता है। यह आनंद ब्रह्म के समान है। इस प्रकार ब्रह्म जगत का उपादान कारण है।

The Taittiriya Upanishad says that the world is born from bliss, it abides in bliss and finally merges in bliss. This bliss is the same as Brahman. Brahman is thus the material cause of the world.   

   उपादान कारण और कार्य (प्रभाव) के बीच के संबंध को विभिन्न मतों में अलग-अलग तरीकों से समझाया गया है। वैशेषिक के अनुसार, कार्य कुछ नया है और कारण से बिल्कुल अलग है। इसे आरंभवाद के नाम से जाना जाता है।

   सांख्यों का मानना ​​है कि कार्य, कारण का वास्तविक परिवर्तन है, जैसे दूध का दही परिणत हो जाना में, मिट्टी का घड़े में और सोने का आभूषण में बदलना। इसे परिणामवाद के नाम से जाना जाता है।

अवस्थान्तरभानं तु विवर्तो रज्जुसर्पवत् ।

निरंशेऽप्यस्त्यसौ व्योम्नि तलमालिन्यकल्पनात् ॥ ९॥

   रस्सी के साँप के रूप में दिखने की स्थिति में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता। साँप रस्सी का केवल एक विवर्त या प्रत्यक्ष रूप है। साँप का दिखना रस्सी के बारे में अज्ञानता के कारण है। इसी तरह, संसार ब्रह्म का ही एक विवर्त है। माया ब्रह्म को छिपाती है और संसार को प्रक्षेपित करती है।

   माया ब्रह्म की शक्ति है। शक्ति अपने स्वामी से अलग अस्तित्व में नहीं रहती। साथ ही, शक्ति अपने स्वामी के समान नहीं होती, क्योंकि जब शक्ति बाधित होती है, तब भी उसका स्वामी वही रहता है। शक्ति को सीधे तौर पर नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसके प्रभाव से ही उसका अनुमान लगाया जा सकता है। माया, ब्रह्म की शक्ति, क्रिया, ज्ञान और इच्छा के रूप में प्रकट होती है। सर्वोच्च अप्रतिबंधित ब्रह्म शाश्वत, अनंत और अद्वैत है। माया के साथ जुड़ने पर, ब्रह्म को सर्वशक्तिमान के रूप में वर्णित किया जाता है

   ब्रह्म सभी जीवों में चेतना के रूप में प्रकट होता है। इसकी शक्ति हवा में गति, पत्थर में कठोरता, पानी में तरलता और आग में गर्मी के रूप में प्रकट होती है।

क्वचित्कश्चित्कदाचिच्च तस्मादुद्यन्ति शक्तयः ।

देशकालविचित्रत्वात्क्ष्मातलादिव शालयः ॥ १८॥

** 'जिस प्रकार एक वृक्ष अपने फल, पत्ते, लताएँ, फूल, शाखाएँ, टहनियाँ और जड़ों के साथ बीज में निहित है, उसी प्रकार यह संसार ब्रह्म में स्थित है।' ✅

** ‘Just as a tree with its fruits, leaves, tendrils, flowers, branches, twigs and roots is latent in the seed, so does this world abide in Brahman’. 

जिस तरह एक पेड़ अपनी शाखाओं, पत्तियों, फूलों, फलों आदि के साथ बीज में निहित होता है, उसी तरह यह संसार ब्रह्म में (प्रकट होने से पहले) निहित है। 

मन की परिभाषा देते हुए गुरु वशिष्ठ जी कहते हैं  -

स आत्मा सर्वगो राम! नित्योदितमहावपुः ।

यन्मनाङ्मननीं शक्तिं धत्ते तन्मन उच्यते ॥ १९॥

** 'हे राम, जब सर्वव्यापी, शाश्वत और अनंत आत्मा अनुभूति की शक्ति (power of cognition-परोक्ष ज्ञान की शक्ति) ग्रहण करती है, तो हम इसे मन कहते हैं।' 

✅** ‘O Rāma, when the all-pervasive, eternal and infinite Self assumes the power of cognition, we call it the mind.’ ✅ 

जब ब्रह्म ज्ञान की शक्ति ग्रहण करता है तो उसे मन कहा जाता है। बंधन और मोक्ष की धारणाएँ मन में उत्पन्न होती हैं।

आदौ मनस्तदनुबन्धविमोक्षदृष्टी

     पश्चात्प्रपञ्चरचना भुवनाभिधाना ।

इत्यादिका स्थितिरियं हि गता प्रतिष्ठा-

     माख्यायिका सुभगबालजनोदितेव ॥ २०॥

धायमाँ ने राजकुमार को यह कहानी सुनाई थी - ** 'हे राजकुमार, सबसे पहले मन की उतपत्ति होती है, फिर बंधन और मुक्ति की धारणा और फिर कई संसारों से युक्त ब्रह्मांड। इस प्रकार यह सारी अभिव्यक्ति बच्चों के मनोरंजन के लिए सुनाई जाने वाली कहानियों की तरह (मानव मन में) स्थिर या बस गई है। 

✅** ‘O Prince, first arises the mind, then the notion of bondage and release and then the universe consisting of many worlds. Thus all this manifestation has been fixed or settled (in human minds), like the tales told to amuse children’. ✅

द्वौ न जातौ तथैकस्तु गर्भ एव हि न स्थितः ।

वसन्ति ते धर्मयुता अत्यन्तासति पत्तने ॥ २२॥

 योगवासिष्ठ में कहा गया है कि एक धायी माँ ने राजा के पुत्र को खुश करने के लिए यह कहानी सुनाई थी।**  एक बार की बात है, तीन सुंदर राजकुमार थे। 'उनमें से दो का कभी जन्म नहीं हुआ था और तीसरे ने कभी अपनी माँ के गर्भ में गर्भधारण भी नहीं किया था। वे एक ऐसे शहर में धर्मपूर्वक रहते थे जो कभी अस्तित्व में ही नहीं था।' ✅** ‘Two of them were never born and the third was never even conceived in his mother’s womb. They lived righteously in a city which never existed.’ ✅

   एक बार की बात है, तीन सुंदर राजकुमार थे। उनमें से दो कभी पैदा ही नहीं हुए और तीसरे का तो कभी गर्भ में भी नहीं आया। वे एक ऐसे शहर में धर्मपूर्वक रहते थे जो कभी अस्तित्व में ही नहीं था। 

स्वकीयाच्छून्यनगरान्निर्गत्य विमलाशयाः ।

गच्छन्तो गगने वृक्षान्ददृशुः फलशालिनः ॥ २३॥

** 'ये पवित्र राजकुमार अपने अस्तित्वहीन शहर से बाहर आए और घूमते हुए आकाश में फलों से लदे हुए पेड़ देखे।' ✅

** ‘These holy princes came out of their city of non-existence and while roaming saw trees, laden with fruits, growing in the sky’. ✅

शहर में घूमते समय राजकुमारों ने आकाश में फलों से लदे पेड़ों को उगते देखा। 

भविष्यन्नगरे तत्र राजपुत्रास्त्रयोऽपि ते ।

सुखमद्य स्थिता पुत्र! मृगयाव्यवहारिणः ॥ २४॥

** 'तब तीनों राजकुमार, मेरे बच्चे, एक ऐसे शहर में चले गए जो अभी तक नहीं बना था और वहां खुशी से रहने लगे, अपना समय खेल और शिकार में गुजारने लगे।' ✅

** ‘Then the three princes, my child, went to a city which was yet to be built and lived there happily, passing their time in games and hunting’. ✅

फिर वे एक दूसरे शहर में चले गए जो अभी तक अस्तित्व में नहीं आया था और वहाँ वे खुशी-खुशी रहने लगे, अपना समय खेल-कूद और शिकार में बिताने लगे।

धात्र्यैवं कथिता राम! बालकाख्यायिका शुभा ।

निश्चयं स ययौ बालो निर्विचारणया धिया ॥ २५॥

** हे राम! धाय ने इस प्रकार सुन्दर बाल कथा कही। बालक ने भी विवेक के अभाव में उसे सत्य मान लिया।**

 ‘O Rāma, the nurse thus narrated the beautiful children’s tale. The child too through want of discrimination believed it to be true’.  

जिस प्रकार विवेक की कमी के कारण बच्चे ने इन सभी बातों को सच मान लिया। इसी तरह इस दुनिया को वे ही लोग सच मानते हैं जिनमें विवेक नहीं है ऋषि वसिष्ठ ने ऐसी कहानियों के माध्यम से माया की शक्ति का वर्णन किया।

   ईश्वर की माया शक्ति अपने कार्य (effect) से भी भिन्न है और अपने आधार (substratum) से भी। इसका अनुमान केवल इसके प्रभाव से ही लगाया जा सकता है, जैसे अंगारे की दाहक शक्ति का अनुमान केवल उसके द्वारा उत्पन्न छाले से ही लगाया जा सकता है।

   कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता। मिट्टी का घड़ा मिट्टी से भिन्न नहीं है, क्योंकि मिट्टी से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। साथ ही, घड़ा मिट्टी के समान नहीं है, क्योंकि वह बिना ढली मिट्टी में दिखाई नहीं देता। इसलिए घड़े को अनिर्वचनीय कहना होगा, जैसे उसे बनाने वाली शक्ति। इस कारण, छांदोग्य उपनिषद कहता है कि घड़ा वास्तविक नहीं है, केवल एक नाम है, वास्तविकता केवल मिट्टी को ही दी गई है (अध्याय 6.1.4)। तीन सत्ताओं में से, अर्थात् शक्ति का उत्पाद जो बोधगम्य है, स्वयं शक्ति जो बोधगम्य नहीं है, और वह आधार जिसमें वे दोनों विद्यमान हैं, केवल तीसरा ही बना रहता है; पहले दो बारी-बारी से अस्तित्व में रहते हैं। इसलिए केवल तीसरा ही वास्तविक है। घड़े का आरंभ और अंत होता है। इसलिए वह वास्तविक नहीं है। घड़ा बनने से पहले वह केवल मिट्टी था। जब घड़ा अस्तित्व में रहता है, तब भी वह केवल मिट्टी ही होता है। घड़े के नष्ट हो जाने के बाद केवल मिट्टी ही रह जाती है। इस प्रकार केवल मिट्टी ही वास्तविक है। (यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह वास्तविकता केवल अनुभवजन्य दृष्टिकोण से है)

   भ्रमात्मक साँप तब गायब हो जाता है जब आधार, रस्सी, ज्ञात हो जाती है। लेकिन एक बर्तन अपने आधार, मिट्टी, के ज्ञात होने के बाद भी वैसा ही दिखाई देता रहता है। तो सवाल यह है कि बर्तन को भ्रमात्मक कैसे कहा जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि बर्तन तो अभी भी दिखाई देता है, लेकिन यह महसूस होता है कि मिट्टी के अलावा उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस धारणा को प्रतिस्थापित करना कि बर्तन की अपनी एक वास्तविकता है, इस अहसास से कि यह एक विशेष नाम और रूप वाली मिट्टी के अलावा कुछ नहीं है, बर्तन का विनाश कहा जा सकता है।

   संसार ब्रह्म पर आरोपित है। ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है, यह बोध होने के बाद भी, बोध प्राप्त व्यक्ति को संसार का बोध होता रहता है, लेकिन वह इसे वास्तविक नहीं मानता। संसार के सुख-दुख से वह प्रभावित नहीं होता। इसी अर्थ में कहा जाता है कि ब्रह्म की अनुभूति होने पर संसार का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

वास्तविक परिवर्तन में, जैसे दूध के दही बनने की स्थिति में, मूल पदार्थ, दूध, गायब हो जाता है। लेकिन मिट्टी के बर्तन में या सोने के आभूषण में परिवर्तन होने पर, आधार, मिट्टी या सोना, वैसे ही रहता है।

एकमृत्पिण्डविज्ञानात्सर्वमृण्मयधीर्यथा ।

तथैकब्रह्मबोधेन जगद्बुद्धिर्विभाव्यताम् ॥ ५९॥

** केवल मिट्टी के एक ढेले को जानने से व्यक्ति मिट्टी से बनी सभी वस्तुओं को जान लेता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म को जानने से व्यक्ति संपूर्ण अभूतपूर्व जगत के (वास्तविक तत्व को) जान लेता है। ✅

** Just by knowing a lump of clay one knows all objects made of clay, so by knowing the one Brahman one knows (the real element of) the whole phenomenal world.छांदोग्य उपनिषद कहता है कि मिट्टी के एक ढेले को जानने से मिट्टी से बनी हर चीज़ को जाना जा सकता है। इसी तरह, ब्रह्म को जानने से संपूर्ण दृश्य ब्रह्मांड को जाना जा सकता है। 

सच्चित्सुखात्मकं ब्रह्म नामरूपात्मकं जगत् ।

तापनीये श्रुतं ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ६०॥/62 

**ब्रह्म का स्वरुप अस्तित्व (existence), चेतना (consciousness)  और आनंद (bliss) है, जबकि संसार नाम और रूप से बना है

** The nature of Brahman is existence, consciousness and bliss, whereas the nature of the world is name and form.✅

   ब्रह्माण्ड के प्रकट होने से पहले माया ब्रह्म में अप्रकट थी। श्वेताश्वतर उपनिषद कहता है: "माया को प्रकृति (ब्रह्माण्ड का भौतिक कारण) जानो, और परम प्रभु को माया का शासक (या आधार) जानो"। 

विचिन्त्य सर्वरूपाणि कृत्वा नामानि तिष्ठति ।

अहं व्याकरवाणीमे नामरूपे इति श्रुतिः ॥ ६२॥/64

 ✅** नाम और रूप बनाने के बाद ब्राह्मण अपनी प्रकृति में स्थापित रहता है, यानी हमेशा की तरह अपरिवर्तनीय रहता है, ऐसा पुरुष सूक्त कहता है। एक अन्य श्रुति कहती है कि ब्रह्म स्वयं के रूप में नामों और रूपों को प्रकट करता है। ✅नाम और रूप तो ब्रह्म (पर्दे ?) पर आरोपित मात्र हैं

 ** After creating names and forms Brahman remains established in His nature, i.e., remains as immutable as ever, says the Puruṣa Sūkta. Another Śruti says that Brahman as the Self reveals names and forms.

 तदभ्यासेन विद्यायां सुस्थितायामयं पुमान् ।

जीवन्नेव भवेन्मुक्तो वपुरस्तु यथा तथा ॥ ८०॥

** ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) पर ध्यान के निरंतर अभ्यास से व्यक्ति ब्रह्मज्ञान में स्थित हो जाता है और फिर वह संसार से मुक्त हो जाता है। जब ध्यान के निरंतर अभ्यास से मनुष्य ब्रह्मज्ञान में स्थापित हो जाता है, तो वह जीवित रहते हुए भी तीनों ऐषणाओं में आसक्ति से मुक्त हो जाता है। फिर प्रारब्ध (उसके शरीर का भाग्य) कोई मायने नहीं रखता. ✅

When through the continuous practice of meditation a man is established in the knowledge of Brahman, he becomes liberated even while living. Then the fate of his body does not matter. ✅  

   निद्राशक्तिर्यथा जीवे दुर्घटस्वप्नकारिणी ।

ब्रह्मण्येषा तथा माया सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥ ८४॥

** जिस प्रकार निद्रावस्था में जीव में निहित शक्ति असंभव सपनों को जन्म देती है, उसी प्रकार ब्रह्म में निहित माया की शक्ति ब्रह्मांड का प्रक्षेपण, रखरखाव और विनाश करती है। ✅

** Just as in the sleeping state a power inherent in the Jīva gives rise to impossible dreams, so the power of Māyā inherent in Brahman, projects, maintains and destroys the universe. ✅

स्वप्न में मनुष्य असंभव चीजें घटित होते देखता है, लेकिन उस समय उसे यह भी एहसास नहीं होता कि वे असंभव हैं, बल्कि उन्हें सही मान लेता है। जब स्वप्न की शक्ति ऐसी है, तो माया की शक्ति के बारे में क्या आश्चर्य है जो इस ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है और इसे वास्तविक दिखाती है?

 संपूर्ण ब्रह्मांड केवल माया द्वारा ब्रह्म में नामों और रूपों का प्रक्षेपण है। जब कोई यह समझ लेता है कि सभी नाम और रूप वास्तविकता नहीं हैं और उन्हें अस्वीकार कर देता है, तो वह शुद्ध ब्रह्म के रूप में रहता है। भले ही वह सांसारिक मामलों में व्यस्त रहता है, लेकिन उनसे उत्पन्न होने वाले सुख और दुखों से वह प्रभावित नहीं होता है।

प्रवहत्यपि नीरेऽधः स्थिरा प्रौढ शिला यथा ।

नामरूपान्यथात्वेऽपि कूटस्थं ब्रह्म नान्यथा ॥ ९८॥

**    जिस प्रकार नदी के तल में पड़ा हुआ एक विशाल पत्थर, पानी के निरंतर बहने पर भी अपरिवर्तित रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपरिवर्तित रहता है, जबकि नाम और रूप बदलते रहते हैं।  

जैसे नदी के तल में पड़ी हुई बड़ी चट्टान पानी के ऊपर से बहते रहने पर भी स्थिर रहती है, वैसे ही नाम और रूप निरंतर बदलते रहने पर भी अपरिवर्तनीय ब्रह्म अन्यथा नहीं बनता।

 ✅** As the big rock lying in the bed of a river remains unmoved, though the water flows over it, so also while names and forms constantly change, the unchanging Brahman does not become otherwise. ✅

  ब्रह्मानन्दाभिधे ग्रन्थे तृतीयेऽध्याय ईरितः ।

अद्वैतानन्द एव स्याज्जगन्मिथ्यात्वचिन्तया ॥ १०३॥

** 'ब्रह्म का आनंद' नामक खंड के इस तीसरे अध्याय में, अद्वैत के आनंद का वर्णन किया गया है जिसे जगत की मिथ्या होने (असत्य होने) पर ध्यान करके प्राप्त किया जा सकता है। ✅

** In this third chapter of the section called ‘the Bliss of Brahman’, is described the bliss of Non-duality which is to be obtained by meditating on the unreality of the world. ✅ 

ब्रह्म को अस्तित्व, चेतना और आनंद मानते हुए मनुष्य को अपने मन को ब्रह्म में स्थिर रखना चाहिए और उसे नाम और रूप (कामिनी -कांचन) में आसक्त होने से रोकना चाहिए। इस प्रकार अद्वैत का आनंद प्राप्त होगा।

अध्याय 13 का अंत

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https://upasanayoga.org/AKAruna/docs/PancD.htm/]

 

✅🔱पंचदशी-12 🔱आत्मानन्द - स्वयं का आनन्द [Atmananda :The Bliss of the Self]

 ब्रह्मानन्दे आत्मानन्दोनाम - द्वादशः परिच्छेदः । [90 -श्लोक]  


अध्याय 12

[87 or 90 -श्लोक]  

आत्मानन्द - स्वयं का आनन्द

   जैसा कि पिछले अध्याय में बताया गया है, योगी को ब्रह्मानंद का अनुभव होता है। इस अध्याय में अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभव किए जाने वाले आनंद का परीक्षण किया गया है।

नन्वेवं वासनानन्दाद्ब्रह्मानन्दादपीतरम् ।

वेत्तु योगी निजानन्दं मूढस्यात्रास्ति का गतिः ॥ १॥

** (प्रश्न): यह ठीक है कि पूर्वोक्त तरीके से कोई योगी [ब्रह्मानंद एवं वासनानन्द से भिन्न ] अपने वास्तविक स्वरुप के आनंद का अनुभव कर सकता है, जो सुषुप्ति अवस्था के मानसिक निष्क्रियता (mental quiescence) से भिन्न है, किन्तु इस जगत में अज्ञानी व्यक्ति की क्या गति होगी ? 

 ✅** (Question): A Yogī can enjoy the natural bliss of the Self which is different from the bliss of mental quiescence and the bliss of deep sleep; but what will happen to the ignorant man? ✅

   धर्माधर्मवशादेष जायतां म्रियतामपि ।

पुनः पुनर्देहलक्षैः किं नो दाक्षिण्यतो वद ॥ २॥

** (उत्तर): अज्ञानी प्राणी असंख्य शरीरों में पैदा होते हैं और वे बार-बार मरते रहते हैं - यह सब उनके धार्मिक या अधर्मी कर्मों के कारण होता है। बताओ ,तब उनके प्रति सहानुभूति रखने का क्या उपयोग है ? ✅ 

** (Reply): The ignorant are born in innumerable bodies and they die again and again – all owing to their righteous or unrighteous deeds. What is the use of our sympathy for them?

अस्ति वोऽनुजिघृक्षुवाद्दाक्षिण्येन प्रयोजनम् ।

तर्हि ब्रूहि स मूढः किं जिज्ञासुर्वा पराङ्मुखः ॥ ३॥

** (शंका) :क्यों ,सदगुरु अपने अज्ञानी शिष्यों की सहायता करने की इच्छा के कारण भी तो  उनके लिए कुछ कर सकता है। 

(उत्तर) : तब तो आपको यह बताना होगा कि क्या वे आध्यात्मिक सत्य सीखने के लिए इच्छुक हैं या अनिच्छुक हैं ?

** (Doubt): Because of the desire of the teacher to help his ignorant pupils he can do something for them. (Reply): Then you must tell whether they are willing to learn the spiritual truth or are averse to it. ✅

उपास्तिं कर्म वा ब्रूयाद्विमुखाय यथोचितम् ।

मन्दप्रज्ञं तु जिज्ञासुमात्मानन्देन बोधयेत् ॥ ४॥

** यदि वे अभी भी बाह्य वस्तुओं [ऐषणा -कामिनी-कांचन] में आसक्त हैं, तो उनके लिए कोई उपयुक्त प्रकार की पूजा या अनुष्ठान निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर, यदि वे आध्यात्मिक रूप से कमजोर होते हुए भी - सत्यार्थी हैं ! जिज्ञासु हैं, यानी परम् सत्य को जानने की तीव्र इच्छा रखते हैं, तो उन्हें आत्मानंद के ज्ञान में प्रशिक्षित किया जा सकता है।

** If they are still devoted to external objects, some suitable kind of worship or ritual can be prescribed for them. If, on the other hand, they, though spiritually dull, desire to learn the truth, they can be instructed in the knowledge of the bliss of the Self. ✅

बोधयामास मैत्रेयीं याज्ञवल्क्यो निजप्रियाम् ।

न वा अरे पत्युरर्थे पतिः प्रिय इतीरयन् ॥ ५॥

** याज्ञवल्क्य ने अपनी प्रिय पत्नी मैत्रेयी को यह निर्देश देते हुए कहा था कि ‘पत्नी अपने पति से उसके लिए प्रेम नहीं करती।’

** Yājñavalkya instructed this by pointing out to his beloved wife, Maitreyī, that ‘a wife does not love her husband for his sake’. ✅

पतिर्जाया पुत्रवित्ते पशुब्राह्मणबाहुजाः ।

लोका देवा वेदभूते सर्वं चात्मार्थतः प्रियम् ॥ ६॥

** पति, पत्नी या पुत्र, धन या पशु, ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व, विभिन्न लोक, देवता, वेद, तत्व और अन्य सभी वस्तुएँ व्यक्ति को अपने स्वयं के लिए प्रिय हैं। ✅

** The husband, wife or son, riches or animals, Brahmanahood or Kshatriyahood, the different worlds, the gods, the Vedas, the elements and all other objects are dear to one for the sake of one’s own Self. ✅

     बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि हर व्यक्ति दूसरों से केवल अपने सुख के लिए प्रेम करता है, न कि उस व्यक्ति के सुख के लिए जिससे प्रेम किया जाता है। पति, पत्नी, पुत्र, धन, पशु तथा अन्य सभी वस्तुओं से प्रेम केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि वे सुख देती हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि जब किसी व्यक्ति की पत्नी या पुत्र उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करते हैं, तो वह उन्हें पसंद नहीं करता। यहां तक ​​कि एक कट्टर कंजूस व्यक्ति भी अपने जीवन को खतरे में डालने वाली बीमारी से खुद को ठीक करने के लिए अपना सारा धन खर्च करने को तैयार हो जाता है, जिससे यह पता चलता है कि उसका अपने प्रति प्रेम धन के प्रति प्रेम से अधिक महत्व- पूर्ण है। अन्य सभी वस्तुएं तभी तक प्रिय होती हैं जब तक वे व्यक्ति के अपने सुख में योगदान करती हैं। इसलिए अन्य सभी व्यक्ति और वस्तुएं केवल व्यक्ति के अपने सुख के साधन हैं, और उन्हें अपने लिए नहीं चाहा जाता; लेकिन सुख की इच्छा अपने लिए होती है, न कि किसी अन्य चीज के साधन के रूप में। 

श्मश्रुकण्टकवेधेन बालो रुदति तत्पिता ।

चुम्बत्येव न सा प्रीतिर्बालार्थे स्वार्थ एव सा ॥ ९॥

जब कोई बच्चा अपने पिता द्वारा चूमा जाता है, तो वह पिता की दाढ़ी से चुभने के कारण दर्द महसूस करता है और रोता है, लेकिन पिता बच्चे को चूमता रहता है क्योंकि उसे ऐसा करने से खुशी मिलती है। - यह प्रेम बच्चे के लिए नहीं बल्कि अपने लिए है। ✅

** A child, when kissed by its father, may cry, being pricked by the latter’s bristly beard, still its father goes on kissing the child – it is not for its sake but for his own. ✅

यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि सारा प्रेम केवल अपने सुख के लिए होता है। सुख के साधनों के प्रति प्रेम एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर स्थानांतरित होता रहता है, लेकिन स्वयं के प्रति प्रेम हमेशा एक जैसा रहता है। 

रोगक्रोधाभिभूतानां मुमूर्षा वीक्ष्यते क्वचित् ।

ततो द्वेषाद्भवेत्त्याज्य आत्मेति यदि तन्न हि । 26 

** (संदेह): जब लोग बीमारी या क्रोध से अभिभूत हो जाते हैं और मरने की इच्छा करते हैं तो वे क्या स्वयं से घृणा करने लगते हैं ? 

(उत्तर): ऐसा नहीं है. यहां तक ​​कि जब कोई व्यक्ति गरीबी, बीमारी, अपमान या किसी अन्य कारण से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है, तो वह शरीर से छुटकारा पाना चाहता है, स्वयं से नहीं। इसलिए स्वयं ही सभी के लिए सबसे प्रिय है।** (Doubt): People begin to hate the Self when they are overpowered by disease or anger and wish to die. (Reply): This is not so. ✅

  बाधमेतावता नात्मा शेषो भवति कस्य चित् ।

गौणमिथ्यामुख्यभेदैरात्मायं भवति त्रिधा ॥ ३६॥

** ठीक है, लेकिन ये ग्रंथ आत्मा को कम महत्वपूर्ण साबित नहीं करते। यह याद रखना चाहिए कि 'स्व' शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया जाता है, प्रतीकात्मक (figurative -गौण), भ्रामक, मायावी (illusory -मिथ्या, सम्मोहित) और मौलिक (fundamental-आधारभूत, मुख्य)। ✅

** All right, but these texts do not prove the Self to be less important. It is to be remembered that the word ‘Self’ is used in three senses, figurative (gauṇa), illusory (mithyā) and fundamental (mukhya). ✅ 

देवदत्तस्तु सिंहोऽयमित्यैक्यं गौणमेतयोः ।

भेदस्य भासमानत्वात्पुत्रादेरात्मता तथा ॥ ३७॥

** 'देव-दत्त एक सिंह है' (Deva-datta is a lion)कहने में, देवदत्त नामक व्यक्ति की पहचान सिंह के रूप में करना अलंकारिक है। इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि देवदत्त में भेंड़ के (जैसा में -में करने का?)  नहीं, बल्कि सिंह के कुछ गुण जैसे - साहस, ऐश्वर्य आदि विद्यमान हैं। क्योंकि भेंड़ और सिंह के बीच का अंतर भी स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। शास्त्रों में कभी-कभी पुत्र की पहचान उसके पिता की आत्मा के रूप में की जाती है। यह पहचान आलंकारिक है।

** In the expression ‘Deva-datta is a lion’, the identification is figurative, for the difference between the two is evident. Similar is the case of the son and others as the Self. ✅ 

  स्याद्व्याघ्रः संमुखो द्वेष्यो ह्युपेक्ष्यस्तु पराङ्मुखः ।

लालनादनुकूलश्चेद्विनोदायेति शेषताम् ॥ ५०॥ 

जब बाघ मनुष्य का सामना करता है, तो उससे घृणा की जाती है; जब वह दूर होता है, तो उसकी उपेक्षा की जाती है; और जब उसे वश में कर लिया जाता है और मित्रवत बना दिया जाता है, तो वह प्रसन्नता का कारण बनता है; इस प्रकार वह मनुष्य से संबंधित हो जाता है और उससे प्रेम किया जाता है।

When a tiger confronts man, it is hated; when it is away, it is disregarded; and when it has been tamed and made friendly, it causes joy; thus it is related to him and is loved. ✅

 जब किसी पद [post-BDO] को गलत तरीके से मनुष्य (व्यक्ति -पोस्टमास्टर) मान लिया जाता है तो उसकी पहचान भ्रामक होती है। शरीर और मन के साथ स्वयं की पहचान जो पाँच कोशों का निर्माण करती है, इसी श्रेणी में आती है।

When a post is wrongly taken to be a man the identification is illusory. The identification of the self with the body and mind which constitute the five sheaths falls under this category.

श्रौत्या विचारदृष्ट्यायं साक्ष्येवात्मा न चेतरः ।

कोषान्पञ्च विविच्यान्तर्वस्तुदृष्टिर्विचारणा ॥ ५४॥

** श्रुति का अनुसरण करने वाली विवेक-चक्षु से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षी-चेतना ही वास्तविक आत्मा है। विवेक का अर्थ है पांचों कोशों को अलग करना और भीतर के पदार्थ को देखना।    'आत्म' शब्द का प्राथमिक अर्थ शुद्ध, बिना शर्त साक्षी-चेतना या अद्वैत ब्रह्म है।

✅** Through the eye of discrimination following the Śruti it becomes clear that the witness-consciousness is the real Self. Discrimination means separating the five sheaths and seeing the inner substance. ✅

   जब कोई व्यक्ति स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से यज्ञ करता है, तो उसे पता होता है कि उसका सूक्ष्म शरीर ही स्वर्ग जाएगा, न कि उसका भौतिक शरीर। इस प्रकार वह अपने सूक्ष्म शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है।

   मुक्ति का आकांक्षी यह अनुभव करने का प्रयास करता है कि वह शुद्ध, निर्विकार आत्मा है। यहाँ 'आत्मा' शब्द का प्रयोग उसके मूल अर्थ में किया गया है।

साक्ष्येव दृश्यादन्यस्मात्प्रेयानित्याह तत्त्ववित् ।

प्रेयान्पुत्रादिरेवेमं भोक्तुं साक्षीति मूढधीः ॥ ५९॥

** बुद्धिमान व्यक्ति का मानना ​​है कि साक्षी-चेतना, सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय है। मंदबुद्धि मनुष्य यह मानता है कि पुत्र तथा अन्य वस्तुएँ अधिक प्रिय हैं तथा साक्षी-चेतना इन वस्तुओं के कारण सुख भोगती है। ✅

** The wise man holds that the witness-consciousness, is dearer than all objects. The dull-witted man maintains that son and other objects are dearer and that the witness-consciousness enjoys the happiness caused by these objects. ✅

  सर्वोच्च प्रेम मूल आत्मा के प्रति महसूस किया जाता है। आत्मा से जुड़ी हर चीज़ से प्रेम किया जाता है, लेकिन उनके प्रति प्रेम सीमित होता है और उनके द्वारा खुशी देने पर निर्भर करता है। अन्य चीज़ों के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं किया जाता।

   यस्तु साक्षिणमात्मानं सेवते प्रियमुत्तमम् ।

तस्य प्रेयानसावात्मा न नश्यति कदाचन ॥ ६८॥

** जो साक्षी आत्मा को सभी वस्तुओं में सबसे प्रिय मानता है, वह पाएगा कि इस प्रियतम आत्मा का कभी विनाश नहीं होता। ✅

** He who contemplates the witness Self as the dearest of all objects will find that this dearest Self never suffers destruction. ✅

विभिन्न भोग-पदार्थों के प्रति प्रेम की मात्रा उनकी आत्मा से निकटता के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। धन से अधिक प्रिय पुत्र है, पुत्र से अधिक प्रिय अपना शरीर है, शरीर से अधिक प्रिय इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से अधिक प्रिय प्राण हैं तथा अन्य सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय आत्मा है।

   एक विवाहित दम्पति को पुत्र प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है तथा जब तक पत्नी गर्भवती नहीं हो जाती, तब तक वे बहुत दुखी रहते हैं। गर्भधारण के पश्चात सुरक्षित प्रसव की बड़ी चिंता रहती है। जब बच्चा पैदा होता है, तो उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंता रहती है तथा यह भी कि उसकी दृष्टि, श्रवण आदि सभी क्षमताएं स्वस्थ रहेंगी या नहीं। जब बच्चा बड़ा होता है, तो यह चिंता रहती है कि वह बुद्धिमान होगा या नहीं तथा पढ़ाई में मेहनती होगा या नहीं। इसके पश्चात यह चिंता रहती है कि वह अच्छा कमाएगा तथा धनवान बनेगा या गरीबी में रहेगा तथा यह भी कि वह अच्छा नैतिक जीवन जीएगा या नहीं। यह भी चिंता रहती है कि वह स्वस्थ रहेगा तथा दीर्घायु होगा या असमय मर जाएगा। इस प्रकार माता-पिता के दुःखों का कोई अंत नहीं है। 

   दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय है कि व्यक्ति तथा वस्तुओं से आसक्ति न रखें तथा अपने प्रेम को स्वयं पर केन्द्रित करें। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आसक्ति प्रेम से भिन्न है। आसक्ति व्यक्ति को उस व्यक्ति या वस्तु की दया पर छोड़ देती है, जिससे आसक्ति होती है। परन्तु प्रेम, जो परिभाषा के अनुसार किसी भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से मुक्त होता है, व्यक्ति को प्रेम की वस्तु से स्वतंत्र कर देता है। सभी जीवों के प्रति समान रूप से किया गया प्रेम श्रेष्ठ बनाता है।

परम आत्मा के प्रति प्रेम वस्तुतः सभी प्राणियों के प्रति प्रेम है, क्योंकि वे परम आत्मा से भिन्न नहीं हैं।

   चूँकि आत्मा आनंद और चेतना दोनों की प्रकृति की है, इसलिए सवाल उठता है कि मन की सभी क्रियाओं में आनंद का अनुभव क्यों नहीं होता और केवल चेतना का अनुभव होता है। इसका उत्तर एक दीपक का उदाहरण लेकर दिया जा सकता है। जब एक दीपक जलता है तो वह गर्मी और प्रकाश दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन कमरे में केवल प्रकाश ही भरता है, गर्मी नहीं।

मैवमुष्णप्रकाशात्मा दीपस्तस्य प्रभा गृहे ।

व्याप्नोति नोष्णता तद्वच्चितेरेवानुवर्तनम् ॥ ७१॥

** (उत्तर): ऐसा नहीं है। एक कमरे में जलने वाला दीपक प्रकाश और गर्मी दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन केवल प्रकाश ही कमरे को भरता है, गर्मी नहीं; इसी तरह, यह केवल चेतना है जो वृत्ति को पूरा करती है (और आनंद को नहीं)। ✅

** (Reply): Not so. A lamp burning in a room emits both light and heat, but it is only the light that fills the room and not heat; similarly, it is only consciousness which accomplishes the Vṛttis (and not bliss).

   जब आत्मा आनंद और चेतना दोनों है, तो ऐसा कैसे है कि जब मानसिक परिवर्तन में चेतना प्रकट होती है तो आनंद भी उसी समय प्रकट नहीं होता? इसका उत्तर यह बताकर दिया जा सकता है कि यद्यपि किसी वस्तु में रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श होता है, लेकिन इनमें से केवल एक गुण को ही किसी विशेष इंद्रिय द्वारा पहचाना जाता है।

आद्ये गन्धादयोऽप्येवमभिन्नाः पुष्पवर्तिनः ।

अक्षभेदेन तद्भेदे वृत्तिभेदात्तयोर्भिदा ॥ ७४॥

** फूल की गंध, रंग और अन्य गुण फूल में एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं। यदि यह कहा जाए कि इन गुणों का पृथक्करण इंद्रियों द्वारा होता है, तो हम इस बात से सहमत होते हैं कि चेतना और आनंद के बीच स्पष्ट अंतर वृत्ति (रजस या सत्व की प्रधानता) द्वारा उत्पन्न होता है। ✅** The odour, colour and other properties of a flower are not separate from one another in the flower. If it be said that the separation of these properties is brought about by the sense-organs, we rejoin that the seeming difference between consciousness and bliss is produced by (the predominance of Rajas or Sattva in) the Vṛttis. ✅

 यह कहना सही नहीं है कि फूल के रंग, गंध और अन्य गुण एक दूसरे से भिन्न हैं और इसलिए दिया गया उदाहरण लागू नहीं होता क्योंकि आनंद और चेतना एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। फूल के गुण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। यदि यह कहा जाए कि वे भिन्न हैं क्योंकि उन्हें विभिन्न इंद्रियों द्वारा पहचाना जाता है, तो यह बताना आवश्यक है कि इसी प्रकार मानसिक स्थिति की संरचना में अंतर के कारण आनंद और चेतना के बीच भी एक स्पष्ट अंतर होता है। जब मन में सत्वगुण प्रबल होता है, तो आनंद और चेतना दोनों प्रकट होते हैं, जबकि जब रजोगुण प्रबल होता है, तो केवल चेतना प्रकट होती है और आनंद अस्पष्ट हो जाता है।

यद्योगेन तदेवैति वदामो ज्ञानसिद्धये ।

योगः प्रोक्तो विवेकेन ज्ञानं किं नोपजायते ॥ ७८॥

** (उत्तर): जो लक्ष्य योग से प्राप्त होता है, वह विवेक से भी प्राप्त हो सकता है। योग ज्ञान का एक साधन है; क्या विवेक से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता? 

✅** (Reply): The goal which is reached by Yoga can also be reached by discrimination. Yoga is a means to knowledge; doesn’t knowledge arise from discrimination? ✅

यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

इति स्मृतं फलैकत्वं योगिनां च विवेकिनाम् ॥ ७९॥

** 'सांख्यों द्वारा प्राप्त स्थिति योगियों द्वारा भी प्राप्त की जाती है'। इस प्रकार गीता में योग और विवेक दोनों के फल की पहचान के बारे में कहा गया है। ✅

** ‘The state achieved by the Sāṅkhyas is also achieved by the Yogīs’. Thus it has been said in the Gītā about the identity of the fruit of both Yoga and discrimination (viveka). ✅

   भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि मोक्ष के दो मार्ग हैं। एक योग मार्ग और दूसरा ज्ञान मार्ग।    

   न प्रीतिर्विषयेष्वस्ति प्रेयानात्मेति जानतः ।

कुतो रागः कुतो द्वेषः प्रातिकूल्यमपश्यतः ॥ ८२॥

** जो स्वयं को सबसे प्रिय जानता है, उसे किसी भी भोग्य वस्तु से प्रेम नहीं होता। तो उसका मोह कैसे हो सकता है? और जो अपने लिए कोई शत्रु वस्तु नहीं देखता, उसे घृणा कैसे हो सकती है? ✅

** One who knows the Self as the dearest has no love for any object of enjoyment. So how can he have attachment? And how can he who sees no object inimical to himself have any aversion? ✅

जो मनुष्य अपने आपको सबसे प्रिय जानता है, वह किसी भी बाह्य भोग की वस्तु की इच्छा नहीं करता, न ही उसे किसी वस्तु से द्वेष होता है, क्योंकि वह किसी भी वस्तु को अपने लिए प्रतिकूल नहीं मानता।

द्वैतस्य प्रतिभानं तु व्यवहारे द्वयोः समम् ।

समाधौ नेति चेत्तद्वन्नाद्वैतत्वविवेकिनः ॥ ८४॥

** यह कहा जा सकता है कि यद्यपि सापेक्ष अनुभव की दुनिया में दोनों द्वैत की अवधारणा को स्वीकार करते हैं, योगी को यह लाभ होता है कि समाधि की स्थिति में उसके लिए कोई द्वैत नहीं होता है। 

हमारा उत्तर यह है कि जो अद्वैत का विवेक करता है, उसे उस समय द्वैत का अनुभव नहीं होता। ✅

** It may be said that though in the world of relative experience both accept the conception of duality, the Yogī has the advantage that there is no duality for him while in the state of Samādhi. Our reply is that he who practises discrimination about the non-duality does not experience duality at that time. ✅

अध्याय 12 का अंत  

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