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शनिवार, 4 जनवरी 2025

विवेकानन्द : एक शक्ति ! "Vivekananda -The Power"

 विवेकानन्द : विवेक-प्रयोग शक्ति का आनन्द !   

["Vivekananda -The Power" का हिन्दी अनुवाद] 

        आज से एक सौ बासठ वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 को, भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में  नरेन्द्रनाथ दत्त नामक एक बालक का जन्म हुआ था। लेकिन अपने जीवन के मात्र तीसवें वर्ष में ही उन्होंने स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रेम और ज्ञान (Wisdom) के बल पर, सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर लिया था, तथा चालीस वर्ष की आयु पूर्ण होने से पूर्व ही अपने नश्वर शरीर का त्याग भी कर दिया था। 

    How did he conquer the world? जिज्ञासा होती है कि मात्र 30 वर्ष के युवा नरेन्द्रनाथ दत्त विश्वविजयी विवेकानन्द कैसे बन गए ? प्रसिद्द राष्टवादी चिंतक और प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार (Benoy Kumar Sarkar) लिखते हैं कि अंग्रेजी के केवल 5 वाक्य कहकर ही उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। 1893 की विश्व-धर्म महासभा (PoWR) में जब महिलाओं और पुरुषों को सम्बोधित करते हुए - उन्होंने कहा था -"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!" [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." ]  

आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है।  आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं,  जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप  जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]  

प्रथमोक्त चार पंक्तियों में उन्होंने भारत के गीता और उपनिषदों के ज्ञान को उद्धृत करते हुए सम्पूर्ण मानव जाति को जहाँ आनन्द, आशा, पौरुष, शक्ति और मुक्ति का संदेश दिया था।   वहीँ अंतिम पंक्ति में - " मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है, और मानव के यथार्थ स्वरूप पर घोर लांछन है।' का कटाक्ष करके मनुष्य के आत्म-विश्वास को कम करने, तथा डरपोकपन (भेंड़त्व-cowardice) एवं नकारात्मक और निराशावादी विचारों को बढ़ावा देने वाले -'Original Sin' या 'मूल पाप' के सिद्धान्त को उन्होंने पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। आश्चर्य चकित दुनिया पर उनकी पाँच पंक्तियों वाला यह छोटा सा सूत्र मानो किसी बम के गोले की तरह फूट पड़ा। प्रथमोक्त चार पंक्तियों को उन्होंने पूरब की वैदिक संस्कृति से लिया था, और अंतिम पंक्ति को उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति में बार-बार दोहराए जाने वाले सिद्धान्तों से लिया था।मानवीय चिंतन के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द से पहले पूरब और पश्चिम के सिद्धान्तों का ऐसा तुलनात्मक प्रयोग पहले किसीने नहीं किया था। जबकि विवेकानंद ने इन दोनों सिद्धान्तों का ऐसे  विस्फोटक तरीके से प्रयोग किया कि उन्हें तत्काल ही विश्व- धर्म-महासभा में विश्व विजेता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।"

['Original Sin' या मूल पाप, ईसाई धर्म का एक सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार आदम और हव्वा ने ईडन गार्डन में निषिद्ध फल खाया था और अपने पापी (गुनाहगार) स्वभाव को अपने वंशजों में भी सम्प्रेषित कर दिया। यह सिद्धांत कहता है कि हर मनुष्य पापी पैदा होता है और ईश्वर की आज्ञा की अवज्ञा करके, बुरे काम करने की इच्छा के साथ पैदा होता है।]

How did he acquire the power with which he accomplished it ? प्रश्न उठता है कि स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान और प्रेम की इतनी अगाध शक्ति कैसे प्राप्त हुई जिसके बल पर उन्होंने इतना सब कुछ किया? उनका जीवन कठोर संघर्ष की एक ऐसी लंबी कहानी है; जिसके बारे में यह कल्पना करना भी कठिन है - उनका संघर्ष कितना कठिन रहा होगा ! उनके संघर्ष की तुलना अशान्त समुद्र सतह पर लगातार  उछलते-डूबते उस छोटी सी नौका से की जा सकती है, जो तूफानों से जूझते हुए भी उसके विशाल विस्तार को पार करके, उस किनारे पर पहुँच जाती है - जहाँ सूर्य हमेशा हमेशा के लिए चमकता रहता है।

वेदों, उपनिषदों, गीता आदि भारत के प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान की रहस्यमय गहराइयों की उपलब्धि उन्होंने अपनी विद्व्ता और हजारों शक्ति-शाली सूर्यों के समान प्रखर बुद्धि की सहायता से, तथा सर्वोपरि एक ऐसे अद्वितीय जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव के अतुलनीय मार्गदर्शन में किया था, जो उनके भीतर केवल 'नारायण ' का ही दर्शन करते थे। इसके साथ ही साथ उन्होंने अपने देश के वर्तमान दयनीय दशा और पतनोन्मुख आध्यात्मिक जीवन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन और सर्वेक्षण न केवल एक आर्थिक विशेषज्ञ या राजनीतिक दार्शनिक की दृष्टि से किया था, बल्कि एक ऐसे करुणा सम्पन्न हृदय से किया था जो किसी भी प्राणी के थोड़े से भी दुःख को देखकर रो पड़ता था। इन्हीं तीन तत्वों ने उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान की कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए उसका उपयोग आसानी से कर दिखाया तथा वे वह बन गए जो वे वास्तव में थे। 

    इसी बात पर प्रकाश डालते हुए भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती है-स्वामी विवेकानन्द की कीर्तियों का संगीत शास्त्र, गुरु तथा मातृभूमि - इन तीन स्वर-लहरियों से  निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है, जिसे उन्होंने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव से उस 'Be and Make गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्राप्त किया था; जिसके अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य नहीं मरता , बल्कि उसका शरीर मरता है। मनुष्य कभी नहीं मरता, वह अमर है, वह "अमरता का पुत्र" है। मनुष्य मात्र को "अमरता की संतान" के रूप में महिमामण्डित करते हुए भारत के प्राचीन उपनिषदों में सनातन हिन्दू धर्म का परम् आह्वान और उसकी मधुरतम प्रतिज्ञा इस प्रकार है -   

"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥'

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः प्रस्तात्।। 

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ 

(-श्वेताश्वतर उपनिषद) 

-हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! उच्चतर लोकों में रहने वालो, तुम भी सुनो; मैंने उस पुराण पुरुष को,अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) को  जान लिया है जो सभी अंधकार, समस्त भ्रान्ति के परे सूर्य की तरह चमकती है। उसे जानने पर ही व्यक्ति मृत्यु से पार हो जाता है। और तुम भी उसको जानकर मृत्यु से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। मृत्यु से बचने का कोई और रास्ता नहीं है।     

इसलिए उन्होंने कुमारी मेरी हेल को अल्मोड़ा से 9 जुलाई, 1897 को लिखित एक पत्र में लिखा था -"समस्त सांसारिक प्रेम [आसक्ति ?] स्वयं को देह मानने से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो।  इनके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और जब आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा , तभी आत्मा अपनी अनन्त शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी।"....  भारत में मैंने मानवजाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती। अब मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लूँ और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसका सचमुच अस्तित्व है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर, सभी जातियों और वर्णों के पापी, तापी और दरिद्र रूपी देवता ही मेरे विशेष उपास्य हैं।  [६/३४४]     

निरंतर उपासना रूपी कर्म  करने की इसी तीव्र अभिलाषा के कारण पाश्चात्य देशों पर विजय प्राप्त करने के बाद भी उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई। जैसा कि शंकराचार्य ने अपने - विवेकचूडामणि ग्रंथ में कहा है कि कुछ महान आत्माओं के साथ ऐसा कभी-कभी घटित होता है - 

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।

तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान् अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

‘37. इस जगत में कुछ ऐसे शांतचित्त महात्मा और उदार संत या मानवजाति के कुछ नेता या  पैगम्बर होते हैं जो वसंत ऋतु की तरह-हमेशा मानवता की भलाई करने में लगे रहते हैं। वे अनेक नाम-रूपों से बने इस जन्म और मृत्यु के इस भयानक सागर को स्वयं तो पार कर लेते हैं, फिर बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के वसंत ऋतु की तरह दूसरों को भी इसे पार करने में मदद करते हैं। 

इसलिए विवेकानन्द ने दासता और उसके बोझ तले दबी मानवता की पीड़ा को गहराई से महसूस किया और पुकार कर कहा ---" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं , पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है। " आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर , आत्मा मुक्त , आनन्दमय और नित्य ! और फिर मनुष्य के यथार्थ स्वभाव को उन्होंने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से अभिव्यक्त करके दिखा दिया

उन्होंने अपने जीवन द्वारा जो उपदेश दिया - वह किस प्रकार का था ? जब स्वामी विवेकानंद 1900 में ओकलैंड गए थे तो कई लोगों में से एक सज्जन ने भी उनकी बातें सुनी थी। वे सज्जन जब भाषण सुनकर वापस लौटे तो वे बहुत उत्साहित थे और अपने उत्साह को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा, "मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ जो मनुष्य नहीं है; वह भगवान है! और उसने सत्य कहा था!"

जोसेफिन मैकलियोड अपने बीमार भाई से मिलने गई जब वह मृत्युशैया पर थे । उनकी परिचारिका का उनसे कोई संबंध नहीं था। जोसेफिन ने उसके बिस्तर पर स्वामी विवेकानंद का फोटो देखा। उसने परिचारिका से पूछा, 'वह आदमी कौन है जिसका चित्र मेरे भाई के बिस्तर पर है? उस परिचारिका ने अपने सत्तर साल की गरिमा के साथ खुद को तैयार किया और कहा, "अगर धरती पर कभी कोई भगवान था, तो वह यही आदमी है।"

एक महिला जो नास्तिक थी, उसने एक बार विवेकानंद को सुना और फिर एक कमरे में जाकर रोने लगी। किसी ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने जवाब दिया, 'उस आदमी ने मुझे अनंत जीवन दिया है। मैं उसे फिर कभी नहीं सुनना चाहती।'

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा है, 'एक दिन (न्यूयॉर्क में) फिफ्थ एवेन्यू पर चलते हुए, दो बुजुर्ग निराश्रित समर्पित प्राणी आगे चल रहे थे, उन्होंने कहा, 'क्या तुम नहीं देखते, जीवन ने उन्हें जीत लिया है!' उनके स्वर में पराजितों के लिए दया, करुणा थी! हाँ, और कुछ और भी था - क्योंकि जिसने भी सुना, उसने प्रार्थना की और प्रतिज्ञा की कि जीवन कभी भी उसे नहीं जीतेगा, तब भी नहीं जब उम्र, बीमारी और गरीबी आए। और ऐसा ही हुआ। उनका मौन आशीर्वाद शक्ति से भरा था।'

श्री रामकृष्ण के देहांत के बाद भारत में अपने परिव्राजक जीवन के दौरान उन्हें भूख की पीड़ा झेलनी पड़ी - कभी-कभी इसलिए क्योंकि उस समय उन्होंने भोजन न मांगने और जो कुछ उन्हें न दिया जाए उसे न खाने की शपथ ली हुई थी। अन्य समयों में, जब वे ऐसी शपथ नहीं लेते थे, विभिन्न प्रकार के विचार उन्हें परेशान करते थे और वे बिना भोजन के रहते थे - सबसे लंबी अवधि, जैसा कि उन्होंने एक बार सिस्टर निवेदिता को बताया था, पांच दिन की थी - और वे मृत्यु के कगार पर थे। एक बार उनके मन में प्रश्न उठा कि क्या उन्हें गरीबों से भोजन मांगने का अधिकार है, क्योंकि उनका मानना ​​था कि बदले में उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया है। किसी भी मामले में, उन्होंने सोचा, यदि वे भोजन का एक अतिरिक्त निवाला बचा सकते हैं, तो उनके बच्चों का उस पर उनसे बेहतर अधिकार है। एक दिन, ऐसी ही मनोदशा में, वे बिना भोजन के एक जंगल में चलते रहे रात में उसने एक बाघ को अपनी ओर आते देखा और वह उस पशु को अपना शरीर देने की संभावना से खुश हुआ, जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध ने एक जीवन में किया था और मन ही मन कहा, "हम दोनों भूखे हैं, मैं तुम्हें नहीं खा सकता , पर तुम मुझे खा सकते हो, कम से कम हममें से एक को तो खाना मिल जाए।" हालांकि, बाघ वहां से चला गया।

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा था, 'किसी को यह बताने की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें देखकर ही पता चल जाता था कि वे भूखे व्यक्ति को खाने के लिए अपना मांस और पीने के लिए अपना खून स्वेच्छा से दे सकते थे।' 

दूसरे दिन जब स्वामी विवेकानंद हिमालय के एक मैदान में सूखी टहनियों की एक कच्ची छत के नीचे मृत्यु के कगार पर लेटे थे, तब उन्होंने एक आवाज़ सुनी, 'तुम नहीं मरोगे। तुम्हें दुनिया में बहुत बड़ा काम करना है।' एक बार रेलवे से लंबी यात्रा के दौरान उनकी मुलाक़ात एक ऐसे युवक से हुई जो तंत्र-मंत्र के प्रभाव में था। स्वामीजी भूखे थे और चुपचाप बैठे थे। लेकिन लड़का उनके पास आया और बातचीत करने लगा। स्वामीजी के मुँह से निकले शब्दों के साथ ही उसके दिमाग के सामने का कोहरा छंटने लगा। स्वामीजी ने कहा, आध्यात्मिकता का चमत्कारों से कोई लेना-देना नहीं है। मानसिक भ्रम की सनक भारतीय राष्ट्र का मनोबल गिरा रही थी। उन्होंने अन्यत्र कहा था "हमें तो एक ऐसे धर्म और दर्शन की आवश्यकता है जो अपने सामान्य ज्ञान और दृढ़ सामाजिक भावना से प्रेरित मनुष्य बना सके। " उस लड़के ने भी मनुष्य बनने की प्रेरणा महसूस की और स्वामीजी को भोजन दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।" 

जब वे भारत के सुदूर दक्षिणी छोर कन्याकुमारी पहुँचे, तो उन्हें समुद्र के उस पार चट्टान पर ध्यान लगाने का प्रलोभन हुआ, जहाँ पार्वती ने कन्या के रूप में शिव के लिए तपस्या की थी। उनके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे तैर कर समुद्र पार कर लिए और उस चट्टान तक पहुँच गए। लेकिन उनका यह पराक्रम अलक्षित (unnoticed) न रह सका और जब वे वापस आए, तो लोगों ने उनसे उत्सुकता से उनके और उनके ध्यान के बारे में जानना चाहा। उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हैं, जिनके बारे में पूरी दुनिया ने जल्द ही जान जाएगी। चट्टान पर अपने अनुभव के बारे में उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि जिस चीज़ की तलाश में वे वर्षों से शारीरिक और मानसिक रूप से भटक रहे थे, उसे उन्होंने मौके पर ही हासिल कर लिया।

और फिर अप्रैल 1902 में, अपने निधन से लगभग तीन महीने पहले, उन्होंने कहा, 'मेरे पास दुनिया में कुछ भी नहीं है। मेरे पास खुद के लिए एक पैसा भी नहीं है। मुझे जो कुछ भी दिया गया था, मैंने वह सब कुछ दे दिया है।'

और उनके पास पैसे आए कैसे थे? बस एक उदाहरण। 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद श्रीमती जॉन बी. लियोन के घर पर मेहमान थे। उनकी पोती कॉर्मेलिया कॉन्गर ने बहुत बाद में लिखा, 'जब उन्होंने (विवेकानंद) व्याख्यान देना शुरू किया, तो लोगों ने उन्हें भारत में उनके द्वारा किए जाने वाले काम के लिए पैसे देने की पेशकश की। उनके पास कोई पर्स नहीं था। इसलिए वे इसे एक रूमाल में बांधकर लाते थे और एक गर्वित छोटे बच्चे की तरह इसे मेरी दादी की गोद में रख देते थे। उन्होंने उन्हें अलग-अलग मूल्य के सिक्कों को पहचानना और उन्हें गिनकर व्यवस्थित तरीके से रखना सिखाया।'

पीड़ित मानवजाति के प्रति दिव्य करुणा से प्रेरित होकर, अनंत सूर्य के तट से जब वे अकेले ही अपनी छोटी नाव में सवार होकर, दुबारा समुद्र पार कर रहे थे, तो वह उस समय भी वह उतना ही अशांत था और कई ऊँची लहरों ने उन्हें गिराने का प्रयास भी किया था। उनके लिए न केवल स्नेह और प्रशंसा, आतिथ्य और सम्मान के साथ लोग प्रतीक्षा कर रहे थे , बल्कि कई जगह उन्हें विभिन्न नीच और दुष्ट प्रकृति के शत्रुओं का भी सामना करना पड़ा था, किन्तु उन्होंने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सभी पर प्रेम से विजय प्राप्त की थी । उन्होंने कभी नाम, शोहरत, धन आदि की परवाह नहीं लेकिन वे स्वतः उनके पैरों को चूमते हुए उनके पास आते गए, और कई प्रलोभन उनके इर्द-गिर्द लटके रहे। कॉर्नेलिया कांगर ने अपने संस्मरणों में लिखा है: 'स्वामीजी इतने गतिशील और आकर्षक व्यक्तित्व के थे कि कई महिलाएँ उनसे पूरी तरह प्रभावित थीं और अपनी तरफ उनका ध्यान खींचने के लिए उनको चापलूसी करने का हर संभव प्रयास करती थीं। वे उस समय भी युवा ही थे और अपनी उच्च आध्यात्मिक अनुभूति तथा अपने प्रखर बुद्धि की चमक के बावजूद, बहुत ही अलौकिक रूप से आकर्षक प्रतीत होते थे। और यही बात मेरी दादी को परेशान करती थी, उन्हें डर था कि उन्हें लोग किसी गलत या असुविधाजनक स्थिति में तो नहीं डाल देंगे, इसलिए उन्होंने उन्हें थोड़ा सावधान करने की कोशिश की। अपने प्रति उनकी चिंता ने उनके ह्रदय को छू लिया और उन्हें आश्वस्त करते हुए उनके हाथ को थपथपाते हुए उन्होंने कहा, "प्रिय श्रीमती लियोन, आप मेरी प्यारी अमेरिकी माँ हैं, मेरे लिए डरो मत। यह सच है कि मैं अक्सर किसी बरगद के पेड़ के नीचे सोता रहा हूँ, जहाँ कोई दयालु किसान भूख मिटाने के लिए मुझे एक कटोरा भात दे दिया करता था; किन्तु यह भी उतना ही सच है कि मैं उसी प्रकार अक्सर बड़े-बड़े राजा - महाराजाओं के महल में मेहमान भी होता रहा हूँ जहाँ, किसी  दासी को पूरी रात मेरे ऊपर मोर पंखा झलने के लिए नियुक्त किया जाता था !  इस प्रकार के प्रलोभनों से निर्लिप्त रहने की मुझे आदत है, अतएव आपको मेरे लिए डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।'

क्या हमें खेतड़ी की घटना याद नहीं है, जहाँ उन्होंने एक पेशेवर नृत्यांगना (nauch girl) के गीत -प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो ! ' सुनकर आशीर्वाद दिया था और 'जिसने उस दिन से अपना पेशा छोड़ दिया और पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ी थी ?'

मैडम कैल्वे ने अपने संस्मरण में लिखा है, 'एक दिन काहिरा में हम अपना रास्ता भूल गए। मुझे लगता है, हम बहुत ध्यान से बात कर रहे थे। किसी भी तरह, हम खुद को एक गंदी, बदबूदार सड़क पर पाते हैं, जहाँ आधी नंगी महिलाएँ खिड़कियों से और दरवाजों की चौखटों पर लेटती रहती हैं। उन मातृशक्तियों की दुर्दशा को देखकर वे (स्वामीजी)  रोने लगे। महिलाएँ चुप हो गईं और शर्मिंदा हो गईं। उनमें से एक महिला ने आगे की ओर झुककर उनके गेरुआ वस्त्र के किनारे को चूमा और टूटे-फूटे स्पैनिश में कहा-होमब्रे डी डिओस, होमब्रे डी डिओस!'- अर्थात अरे ! ये तो ईश्वर का आदमी है ! ईश्वर का आदमी है।) (Hombre de dios, Hombre de diosman of God, man of God-देवदूत है !) उनके तेज को देखकर एक दूसरी स्त्री अपने चेहरे के सामने अपनी बाँहों को रखकर अचानक विनम्रता और भय के भाव के साथ उसे छुपाने की चेष्टा करने लगी मानो वह स्त्री अपनी सिकुड़ती आत्मा को विवेकानंद की उन पवित्र आँखों से सचमुच छिपाना चाहती हो।'

और नाम और यश के बारे में क्या? धर्म-संसद की पहली बैठक के बाद जब वे रात को अपने होटल लौटे, तो उनके भव्य आतिथ्य के देखकर उन्हें अपने देशवासियों की भीषण गरीबी याद आई,और वे एक बालक की तरह रो पड़े। जब । एक रात उनकी पीड़ा इतनी तीव्र हो गई कि वे कराहते हुए फर्श पर लोटने लगे: "हे माँ, जब मेरी मातृभूमि घोर गरीबी में डूबी हुई है, तो मैं नाम और यश की क्या परवाह करूँ? हम गरीब भारतीय किस दुखद स्थिति में पहुँच गए हैं, हमारे लाखों देशवासी जहाँ मुट्ठी भर चावल के लिए मर रहे हैं, वहीँ यहाँ के लोग अपने निजी सुख-सुविधाओं पर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं! भारत के लोगों का पालन-पोषण कौन करेगा? उन्हें रोटी कौन देगा? हे माँ, मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं उनकी कैसे मदद कर सकता हूँ।"

विश्व धर्म संसद में अपना खुला आक्रमण शुरू करने से पहले ही उन्होंने श्री आलासिंगा पेरुमल को एक पत्र (दिनांक 20 अगस्त, 1893) में लिखा था-

     " कमर कस कर खड़े हो जाओ , वत्स ! प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। ... आशा तुम लोगों से है - जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपारायण हैं। दुःखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो - वह अवश्य मिलेगी। मैं 12 वर्षों तक ह्रदय  पर बोझ लादे और सिर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घुमा। ह्रदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया।  परन्तु ईश्वर सर्व शक्तिवान है - मैं जानता हूँ , वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ , परन्तु युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों, और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (भगवान श्रीकृष्ण) के मन्दिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे -...    उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो , अपने समस्त जीवन की बलि दो - उन दीन -हीनों और उत्पीड़ितों के लिए , जिनके लिए भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे , जो दोनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।  .... प्रभु की जय हो , हम अवश्य सफल होंगे।  इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे , पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। .. विश्वास, सहानुभूति - दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए ! जीवन तुच्छ है , मरण भी तुच्छ है , भूख तुच्छ है  और जाड़ा भी तुच्छ है।  जय हो प्रभु की ! आगे कूच करो ! प्रभु ही हमारे सेनानायक हैं।  पीछे मत देखो कौन गिरा, पीछे मत देखो - आगे बढ़ो, बढ़ते चलो ! " ( १/ ४०४-४०५)  

उपरोक्त बातों का पुनरावलोकन करने से वह व्यक्तित्व-जो उनके नाम विवेकानन्द के चारों तरफ विकसित हुआ है; स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाता है। उनकी विराट छवि के विस्तृत रुपरेखा को देख पाना तो कठिन है, फिर भी कल्पना में उनकी जिस छवि को देखा जा सकता है, वह किसी भी गंभीर मन को विस्मय और प्रशंसा से भर देती है। उनके विषय में हम निश्चित रूप से उनके अपने शब्दों का ही उपयोग कर सकते हैं और कह सकते हैं: "विवेकानंद एक शक्ति हैं। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह या वह है। लेकिन वे एक शक्ति हैं, जो अभी भी जीवित हैं और दुनिया में काम कर रहे हैं। हमने उन्हें अपने विचारों में बढ़ते हुए देखा है, और वे अभी भी बढ़ रहे हैं।' क्योंकि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी " हो सकता है कि एक जीर्ण (पुराने) वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं तब तक काम करना नहीं छोड़ूँगा, जब तक सम्पूर्ण विश्व यह नहीं जान जाये कि वह ईश्वर के साथ एक है- मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा " [सूक्तियाँ एवं सुभाषित /खंड १०/२१७-[44. It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God. (Volume 5, Sayings and Utterances)]  

स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी यह प्रतिज्ञा हमें बीती हुई बातों को याद करने के बजाये, भविष्य की सम्भावना ' Vivekananda- The Power' का अनुसरण करने का निर्देश देती है जो जड़ को भी गतिशील बना सकती है ! वही 'विवेक-प्रयोग शक्ति' इस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में छठी शक्ति (The Sixth Force in Cosmos)  के रूप में हर जगह क्रियाशील है, तथा भविष्य में यह शक्ति और भी अधिक तीव्रता से कार्य करेगी, तथा क्रमशः प्रत्येक मन के भीतर प्रविष्ट हो जाएगी; और तब हमारे देश में एक ऐसा महत्वपूर्ण परिवर्तन घटित होगा ! [जिसके बारे में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक -'Ignited Minds' में लिखा है -" Dream, Dream, Dream/ Dreams transform into thoughts, And thoughts result in action!"  (साभार https://crpf.gov.in/writereaddata/images/pdf/Ignited_Minds.pdf)]

शायद सभी या शायद कोई भी नहीं इस विवेक-प्रयोग शक्ति (या परा शक्ति) को स्वामी विवेकानन्द के नाम के साथ जोड़कर नहीं देख पाएंगे; फिर भी यह शक्ति मनुष्य जाति को अपना भाग्य स्वयं बनाने का प्रयास करने के लिए अनुप्रेरित करती रहेगी। और मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दिशात्मक सुधार ( directional corrections) के द्वारा यह कार्य अलक्षित रूप से (Unnoticed) जारी रहेगा। रात में गिरने वाली ओस की बूंदों की तरह अदृश्य और अनसुनी रहते हुए भी विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रचार-प्रसार में लगे रहने का कार्य, उन अनेकों व्यक्तियों के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित कर देगा, जो गाँव -गाँव तक इस शिक्षा को पहुँचा देने के कार्य में लगे रहेंगे। [दादा कहते थे इस Be and Make आन्दोलन से जुड़े रहो, तब तुम्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ऐसे ही मुक्त हो जाओगे !] 

स्वामी विवेकानन्द की दो सौवीं जयंती (=2063 तक) और दो सौ पचासवीं जयंती (=2113)  के बीच पारस्परिक और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मौलिक परिवर्तन हो चुके  होंगे, हर विचार एक ही छलनी (filter) से छनकर निकलेगा- 'मैं नहीं, बल्कि तू !' और यही एकमात्र नीति होगी जिसकी सर्वत्र प्रसंशा की जाएगी, और उससे कई लोगों का कल्याण होगा । इस विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रभाव से मतभेदों की क्षुद्र भावना धीरे-धीरे कुंद होती जाएगी और सार्वभौमिक एकात्मकता (Universal Oneness) का विचार उभरेगा। मनुष्य की गरिमा को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त होगी। सुसंयोग (opportunities) के मामले में विशेषाधिकार और भेदभाव की बातें -भूतकाल की बातें हो जाएंगी। भौतिकवादी विचार धरती में दफन हो जाएंगे और ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय बन जाएंगे। आध्यात्मिकता की धड़कन का स्पन्दन हर जगह महसूस होगा।

उन्नीसवीं सदी के अंत में एक दिन भविष्यवाणी करते हुए विवेकानंद ने अपने आस-पास के लोगों को यह कहकर चौंका दिया कि, 'अगला महान उथल-पुथल जो एक नए युग का सूत्रपात करेगा, वह रूस या चीन से आएगा।' और रूस और चीन दोनों देशों में ऐसा परिवर्तन हुआ, जिससे नये  सामाजिक सिद्धांतों के प्रस्तावकों की अन्य सभी गणनाएं विफल हो गईं।

रूस में एक बार फिर से एक नई उथल-पुथल मची है। भौतिकवादी बौद्धिक दिग्गज चाहे जो भी कहें, वर्तमान पेरेस्त्रिका (या पुनर्गठन-restructuring) और उस्कोरेनी (या त्वरण-acceleration) के पीछे के विचारों का यदि मौलिक रूप से जांच करें बुद्धिमान दिमागों को पता चल जाएगा कि वे जिस शक्ति का मानव समाज परअनुप्रयोग कर रहे हैं, वह विवेकानंद के ,या  वेदांत के विचार ही हैं। रूस में हुए परिवर्तन के बाद, उससे भी अधिक स्पष्ट परिवर्तन अब चीन में आयेगा, फिर धीरे-धीरे अन्य देशों में भी आएगा। यह बदलाव भारत में भी आएगा, लेकिन बाद में, क्योंकि यहाँ जड़ता बहुत गहरी है।

हमारी उदासीनता के बावजूद यह विवेक-प्रयोग शक्ति दुनिया में मनुष्य और उसके भाग्य को बदलने के लिए काम करेगी। लेकिन किसी भी शक्ति द्वारा किया गया कार्य उस प्रतिरोध के व्युत्क्रमानुपाती होता है जिसे उसे दूर करना होता है। सकारात्मक प्रतिरोध का सवाल ही नहीं उठता, हमारी आधी-अधूरी स्वीकृति और विवेक-प्रयोग शक्ति पर शब्दाडंबरपूर्ण प्रशंसा भी प्रतिरोध के रूप में काम करती है; और वे केवल इसके काम को धीमा करते हैं। हम अपनी स्वेच्छा से स्वीकृति और जानबूझकर की गई कार्रवाई के माध्यम से अपनी भागीदारी सुनिश्चित करके इस प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं।

हममें से प्रत्येक को मार्था ब्राउन फिंके के स्वर से स्वर मिलाकर यह कहने की ईमानदारी और साहस हासिल करना चाहिए: 'मैं अक्सर उस समय के बारे में सोचती हूँ जो मैंने खो दिया है, उस रास्ते के बारे में जो मैं टटोलते हुए आयी हूँ, जबकि ऐसे विवेक-शक्ति के मार्गदर्शन के तहत मैं सीधे लक्ष्य पर पहुँच सकती थी ।'  लेकिन एक अमर आत्मा के लिए समझदारी की बात तो यह है कि पछतावे में समय बर्बाद न किया जाए, क्योंकि विवेक-प्रयोग के रास्ते पर चलते रहना ही महत्वपूर्ण बात है।' 

    हम लोग भी कब सिस्टर देवात्मा के जैसा यह कहने में सक्षम होंगे कि- 'अब विवेकानन्द के उपदेशों को श्रवण का समय समाप्त हो गया है, अब उनके उपदेशों पर मनन करने और उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के अभ्यास में उतारने करने का समय आ गया है।'

स्वामीजी ने कहा था " अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " (मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२०)   

- " मेरी आशा , विश्वास तुम्हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक ठीक समझकर उसीके काम में लग जा। ... उपदेश तो तुझे अनेक दिए ; कम से कम एक उपदेश  को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बात सुनना सार्थक हुआ है। " 

यही इस विवेकानन्द -शक्ति की संभावना है, जिसमें मनुष्य का सुप्त भाग्य निहित है। हे मानव! उठो ! जागो!  और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए!

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Vivekananda -The Power 

A hundred and twenty-six years ago on the twelfth of January was born in Calcutta, then the capital of India, in an aristocratic family, a lad, Narendranath Datta, who in the thirties of his life conquered the world with love and wisdom as Swami Vivekananda, and left the mortal coil before he reached forty.

How did he conquer the world? Benoy Kumar Sarkar writes: With five words he conquered the world, so to say, when he addressed men and women as, "Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature! Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." 

 The first four words summoned into being the gospel of joy, hope, virility, energy , and freedom for the races of men . And yet with the last word , embodying as it did a sarcastic question he demolished the whole structure of soul -degenerating, cowardice-promoting, negative, pessimistic thoughtsOn the astonished world, the little five-word formula fell like a bomb shell. 

The first four words he brought from the East, and the last word he brought from the West. All these are oft-repeated expressions, copy-book phrases both in the East and the West. And never in the annals of human thought was the juxtaposition accomplished before Vivekananda did it in the  dynamic manner and obtained instantaneous recognition as a world's champion."   

How did he acquire the power with which he accomplished it? It is a long story of a hard struggle; it is difficult to imagine how hard it was. It was like a small boat tossing all the while on the bosom of a turbulent sea, yet crossing the vast span and reaching the shore, where the sun shins for ever and ever. 

Mysterious depths of knowledge thoroughly surveyed through incomparable erudition with the brilliance of intellect as that of a thousand mighty suns, matchless guidance of a peerless Master , who saw in him only Narayana, meticulous objective study of the mundane and decadent spiritual life of his nation, not merely with the eye of an economic or political philosopher, but with a heart which bled at the sight of the least suffering of any being - all these three elements  went to make  what he was and endowed  him with power that he wielded with ease for the good of one and all .  

So he said, " May I be born again and again, and suffer thousands  of miseries so that I may worship the only God that exists , the only God I believe in , the sum total of all souls - and above all , my God the poor of all races , pf all species , is the special object of my worship."  

Having planted his feet on the safe soil of sunshine across the sea, he could not feel satisfied . 

It so happens rarely with some great souls only , as observed by Shankaracharya :  

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्
अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

- विवेकचूडामणिः- 37 ||

37. There are good souls, calm and magnanimous, who do good to others as does the spring, and who, having themselves crossed this dreadful ocean of birth and death, help others also to cross the same, without any motive whatsoever.
So he deeply felt for the suffering of humanity in bondage and under the weight of its concomitants and cried out calling: 'Ye, divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature.' And he manifested true human nature in his life and teachings
What sort was it ? When Swami Vivekananda went to Oakland in 1900 one gentleman among many listened to him . 'When he returned, he was very much excited and could scarcely contain his enthusiasm. He said, " I have met a man who is not a man ; he is a God ! And he spoke the truth !"   
josephine Macleod went to see her ailing brother when he was in his death bed. His hostess was in no way related to them. Josephine found a portrait of Swami Vivekananda over his bed. She asked the hostess , ' Who is the man whose portrait is over my brother's bed ? She drew herself up with all the dignity of her seventy years and said , " If ever there was a God on earth , this is the man ." 
A lady, an agnostic, heard Vivekananda once and then went into a room and was weeping. Someone Asked her the reason and she replied , ' The man has given me eternal life. I never wish to hear him again . 
Sister Christine wrote ,' Walking along the Fifth Avenue (in New York) one day , with two elderly forlorn devoted creature walking in front , he said , ' Don't you see, life has conquered them ! " The pity, the compassion for the defeated in his tone ! Yes, and something else, - for then and there the one who heard , prayed and vowed that never life should conquer her , not even when age, illness, and poverty should come . And so it has been . His silent blessing was fraught with power .'/

During his itinerant life in India , after the passing away of Sri Ramakrishna, he suffered the pangs of hunger- certain times because he was during the times under a vow not to ask for food and not to eat anything that was not offered to him. At other times, when not under such a vow , various kinds of  ideas sized him and he went without food - the longest such period , as he once told Sister Nivedita , being five days - and was on the verge of death. Once question arose in his mind whether he had a right to beg for food from the poor , for he thought he did nothing for them in return .In any case, thought he , if they could save an extra morsal of food , their children had a better claim upon it than he. One day , being in a mood like this , he walked on through a forest without food till he sank to the ground , fixing his mind on God. At night he saw a tiger approaching him and he felt happy at the prospect of giving his body to the animal, as Buddha is said to have done in one life and said within himself , " We are both hungry, let one of us at least be fed ." The beast , however , walked away. 
Sister Christine wrote , ' One did not need be told , but seeing him one knew that he would willingly have offered his flesh for food and his blood for drink to the hungry.'  
Another day as Swami Vivekananda lay at the point of death in a Himalyan glade under a rude thatch of a dry branches,' he heard a voice say, ' You will not die. You have a great work to do in the world.'  Once during a long journey by railway he came  across a young man, who was under the spell of occultism. Swamiji was hungry and sat quietly. But the boy approached him and started conversation. The mists before his mind started shifting as words poured out from Swamiji's mouth. Swamiji said, spirituality had nothing to do with miracle mongering. The craze for psychic illusions was demoralizing the Indian nation. He went on : " What we need is strong common sense, a public spirit, and a philosophy and religion which will make us men ." The boy felt inspired and offered food to Swamiji which he accepted.
When he reached the southernmost tip of India at Kanykumari , he felt tempted to meditate on the rock across the sea, where Parvati as Kanya did her tapasya for Shiva. Not having a pie with him he swam across the sea to reach the rock. This was not unnoticed and when he came back , people asked him eagerly about himself and his meditation. He only said that he was a disciple of Sri Ramakrishna Parmhamsa , about whom the  whole world soon hear .As regards his experience on the rock he only said that the thing in the search of which he had been wandering both physically and mentally for years he had achieved on the spot . 
And again in April 1902, about three months before he passed away , he said , ' I have nothing in the world . I haven't  a penny to myself. I have given away everything that has ever been given to me. '     
And how did money come to him ? Just an instance . In 1893 at Chicago Swami Vivekananda was the guest at the home of Mrs John B. Lyon . Her granddaughter, Cornelia Conger, wrote long after, 'When he (Vivekananda) began to give lectures, people offered him money for the work he hoped to do in India. He had no purse. So he used to tie it up in a handkerchief and bring it back -like a proud little boy- pour it into my grandmother's lap to keep for him. She made him learn the different  coins and to stack them up neatly to count them .' 
From the shore of eternal sunshine when he re-crossed the ocean in his small boat all alone driven by a divine compassion for suffering mankind, it was no less turbulent, and many a crest attempted to throw him off. Not only affection and admiration, hospitality and honour were in store for him, he had to face hostility of various mean and malign nature , to which he did not offer the least resistance, but he overcame them all.

He did not seek any, but name , fame , money came to him kissing his feet, and temptations dangled about. Cornelia Conger wrote in her reminiscences : ' Swamiji was such a dynamic and attractive personality that many women were quite  swept away by him and made every effort by flattery to gain his interest. He was still young and in spite of his great spirituality and his brilliance of mind, seemed to be very unworldly.  
This used to trouble my grandmother who feared he might be put in a false or uncomfortable position, and she tried to caution him a little. Her concern touched and amused him, and he patted her hand and said , " Dear Mrs Lyon, you dear American mother of mine , don't be afraid for me. It is true I often sleep under a banyan tree with a bowl of rice given me by a kind peasent , but it is equally true that I also am sometimes the guest in the palace of a great Maharaja and a slave girl is appointed to wave a peacock fan over me all night long ! I am used to temptation, and you need not fear for me. '  
Do we not remember the incident at Khetri, where he blessed the singer (a nautch -girl) 'who from that day gave up her profession and entered the path leading to perfection?' Madame Calve wrote in her reminiscence, 'One day we lost our way in Cairo. I suppose , we had been talking too intently. At any rate , we found ourselves in a squalid , ill-smelling street, where half-clad women lolled from windows and sprawled on doorsteps.
The Swami noticed nothing until a particularly noisy group of women on a bench in the shadow of a dilapidated building began laughing and calling to him. One of the ladies of our party tried to hurry us along , but the Swami detached himself gently from our group and approached the women on the bench.
 " Poor children !" he said . " Poor creatures ! they have put the divinity in their beauty. Look at them now ! " 
He began to weep. The women were silenced and abashed . One of them leaned forward and kissed the hem of the robe, murmuring broken in Spanish, " Hombre de Dios, Hombre de Dios! (Man of God !) Another, with a sudden gesture of modesty and fear, threw her arm in front of her face as though she would screen her shrinking soul from those pure eyes. ' 
And of name and fame ? When he returned to his hotel the night after the first meeting of the parliament , he wept like a child. Their lavish hospitality made him sick at heart when he remembered the crushing poverty of his own people. His anguish became so intense one night that he rolled on the floor , groaning : " O Mother , what do I care for name and fame when my motherland remains sunk in outmost poverty?  To what a sad pass have we poor Indians come when millions of us die for want of a handful of rice , and here they spend millions of rupees upon their personal comfort ! Who will raise the masses of India ? Who will give them bread ? Show me, O Mother , how I can help them ."  

Even before he launched his open offensive at the Parliament of Religions, he wrote in a letter (dated :20th August, 1893.)- " Grid up your loins , my boys ! I am called by the Lord for this . The hope lies in you - in the meak, the lowly , but the faithful . Feel for the miserable and look up for help - it shall come. I have travelled 12 years with this load in my heart and this idea in my head. I have gone from door to door of the so-called ' rich and great ', With a bleeding heart I have crossed half the world to this strange land , seeking help . 
The Lord is great. I know He will help me. I may perish of cold and hunger in this land, but I bequeath to you young men this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed. Vow, then to devote your whole lives to the cause of these three hundred millions , going down and down every day. Glory unto the Lord! We will succeed. Hundreds will fall in the struggle - hundreds will be ready to take it up. Faith - sympathy, fiery faith, and fiery sympathy!  Life is nothing , death is nothing , -hunger nothing , cold nothing . Glory unto the Lord ! March on , the Lord is our General . Do not look back to see who falls - forward - onward !  
The retrospect brings forth in dotted lines the personality that grew around the name Vivekananda. It is difficult to view the detailed outline, but the image that can be visualized fills any serious mind with awe and admiration. We may certainly use his own words in his own case and say: " Vivekananda is a force. You should not think that his doctrine is this or that . But he is a power, living even now and working in the world. ' We 'saw him growing in his ideas. He is still growing .' And he said , " I will not cease to work .' 
This takes us from the retrospect to the prospect of ' Vivekananda, The Power .' This has been working and will work more vigorously in the future gradually entering into all minds and bringing about a vital transformation . It is and will be working everywhere as the Sixth Force in the universe . Not all or none will perhaps be able to identify this power with Vivekananda , yet it will work for invigorating man to strive for his destiny.  Unnoticed it will work for directional corrections for the march of man. Unseen and unheard like the dew drops that fall at night, it will bring into blossom lives that will find fruition of their efforts in the happiness of the many. Between his two hundredth and two hundred -fiftieth birth anniversaries interpersonal and international relations will have undergone fundamental changes , every thought will pass through the filter - ' Not I , but thou ' - and the only policy that will be applauded will be good of the many .  
The mean sense of differences will gradually get blunted and the idea of universal unity will be ascending in the sway of this power. Recognition of the dignity of man will be supreme. Special privileges and differentiation in the matter of opportunities will become things of the past. Materialistic ideas will be buried in the earth and will become a subject for historical probe. The pulse of spirituality will be felt everywhere
Towards the end of the nineteenth century one day in a prophetic mood Vivekananda startled those around him by saying, ' The next great upheaval which is to bring about a new epoch will come from Russia or China .' And it came both in Russia and China to the discomfiture of other calculations by propounders of social theories.   
Again a new upheaval has now come in Russia. Whatever materialistic intellectual giants might say, a radical examination of the thoughts behind the present perestrika ( or restructuring) and uskorenie (or acceleration) would reveal to intelligent minds that they are application in human society of this power , call it Vivekananda , Vedanta , or anything , if you like. It will next come more conspicuously in China and then gradually in other countries. It will also come in India, but later , for the inertia is deep here.
The power will work in the world to remold man and his destiny in spite of our lukewarmness. But work done by a force is inversely proportional to the resistance it has to overcome. The question of positive resistance does not arise , our half-hearted acceptance and wordy eulogies on the power work as resistance; they only slow down its working. We can accelerate the process by our willing acceptance and through deliberate action ensuring our own involvement.  
Each of us should acquire the honesty and courage to say with Martha  Brown Fincke: ' I often think of the time I have lost , of the round about way I have come, groping my way , when under such guidance I might have aimed directly for the goal. But for an immortal soul it is wiser not to spend time in regrets, since to be on the way is the importeant thing .' When shall we be able to say with Sister Devatma ? ' The time of hearing was over , the time of pondering and practicing had come. '  

Said Swami Vivekananda : ' I have given you advice enough ; now put at least something in practice. Let the world see that your listening to me has been a success.'    
This is the prospect of this power , in which lies the dormant destiny of man . O Man ! ' Arise , awake , and stop not till the goal is reached ! ' 
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" शक्ति क्या है ? शक्ति वह है जो जड़ को गति देती है। और जड़ क्या है ? जड़ क्या है ? जड़  [2H -देह और मन] वह है जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है। यह तो गोल-मोल बात हुई। इस वस्तुस्थिति का नाम ही 'माया' है।  न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही। इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है ; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है। मनुष्य का सच्चा स्वरुप वह है जो अनादि, अनन्त , आनंदमय तथा नित्यमुक्त है ; वही देश , काल और परिणाम के फेर में फंसा है।  " (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/११८)  

 हमारी साधना का पहला भाग है- अचेतन (unconscious) को अपने अधिकार में लाना।  दूसरा है चेतन के परे जाना।  जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है , उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है।  जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था को पहुँच जाता है , तब वह मुक्त हो जाता है। ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लोह जंजीरें मुक्ति बन जाती है।  अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। ... अतएव महत्वपूर्ण बात है , पूरे मनुष्य को पुनरुज्जीवित जैसा कर देना , जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाये। ' (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/१२१)           

विवेकानन्द के निकट जो कुछ सत्य (अपरिवर्तनीय) है, वह सब वेद है ! वे कहते हैं, वेदों का अर्थ कोई ग्रन्थ नहीं है। वेदों का अर्थ है विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तियों (ऋषियों) द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों (सूत्रों या महावाक्यों) का संचित कोष। प्रसंगवश वे सनातन धर्म के सम्बन्ध में भी अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहते हैं - 'जिस प्रकार सनातन हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक लक्ष्य - ईश्वर की प्राप्ति है, उसी प्रकार  इसका आध्यात्मिक नियम है प्रत्येक आत्मा (अव्यक्त ब्रह्म) की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतन्त्रता ।"

एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है -" My Master's message to mankind is: "Be spiritual and realize truth for Yourself." मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह संदेश है कि - "Be spiritual and realize truth for Yourself." -अर्थात  प्रथम स्वयं सत्य की  उपलब्धि करो और आध्यात्मिक व्यक्ति (ऋषि) बनो!" वे कहते थे - 'प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सारवस्तु अर्थात आत्मतत्व (दिव्यता या ब्रह्मत्व) अन्तर्निहित है, उसकी तुलना में विभिन्न प्रकार के मतवाद, आचार -अनुष्ठान, पन्थ, गिरजाघर या मन्दिर आदि अत्यन्त तुच्छ हैं। और जिस व्यक्ति के अंदर यह ब्रह्मत्व (Oneness) जितना अधिक अभिव्यक्त होता है, वह व्यक्ति (नेता) जगतकल्याण के लिए उतना अधिक सामर्थ्यवान हो जाता है। - 'Earn that first, acquire that, and criticise no one, for all doctrines and creeds have some good in them.'

   -अतएव पहले इसी आध्यात्मिक धन का, (एकात्मकता -Oneness) उपार्जन करो, और किसी सम्प्रदाय में दोष मत ढूँढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति (spiritual realization)। ' Only those can understand who have felt. Only those who have attained to spirituality can communicate it to others,'  जिन्हें अनुभव हुआ है वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने स्वयं धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्यजाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं - 'They alone are the powers of light.' - 'केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं !'   

 यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत् वि-जानतः।

तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वम् अनुपश्यतः।

(ईशोपनिषद : श्लोक ७)

 जब  किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, कि  एक परमात्मा ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुआ है, तब उस  एक परम तत्व को सर्वत्र  देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न कोई शोक ही रह जाता है॥] 

Let people praise you or blame you, let fortune smile or frown upon you, let your body fall today or after a Yuga, see that you do not deviate from the path of Truth. How much of tempest and waves one has to weather, before one reaches the haven of Peace! The greater a man has become, the fiercer ordeal he has had to pass through.  
[Volume 7, Conversations And Dialogues/III /Swamiji has removed the Math from Alambazar to Nilambar Babu's garden at Belur. /खंड 7, वार्तालाप और संवाद / III / स्वामीजी ने मठ को आलमबाजार से हटाकर बेलूर में नीलाम्बर बाबू के बगीचे में स्थापित कर दिया है। 
खण्ड ६/ पेज 88 / 
" लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा , लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हों या न हों , तुम्हारा देहांत आज हो या एक युग में , तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न होना। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्य शांति के राज्य में पहुँचता है। जो जितना बड़ा हुआ है , उसके लिए उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गयी है। "  ]
Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such & the world becomes  revolutionized. {#CWSV-3 : Lectures from #Colombo to #Almora : My Plan of Campaign}
" मनुष्य , केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सबकुछ अपनेआप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान , तेजस्वी , श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की।  ऐसे सौ मिल जाएँ , तो संसार का कायाकल्प हो जाये। " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/११८ /
" अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२० /  
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The quote “For what is force? — that which moves matter. And what is matter? — that which is moved by force” .... This state of things has been called Maya. It has neither existence nor non-existence. You cannot call it existence, because that only exists which is beyond time and space, which is self-existence. Yet this world satisfies to a certain degree our idea of existence. Therefore it has an apparent existence. appears in The Complete Works of Swami Vivekananda/वॉल्यूम 2/Hints on Practical Spirituality

" This is the first part of the study, the control of the unconscious. The next is to go beyond the conscious. Just as unconscious work is beneath consciousness, so there is another work which is above consciousness. When this superconscious state is reached, man becomes free and divine; death becomes immortality, weakness becomes infinite power, and iron bondage becomes liberty. That is the goal, the infinite realm of the superconscious." 

  
             
 
     


       

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

."मनुष्य का वास्तविक और प्रतिभासिक पहचान ! " वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य : The Real and the Apparent Man ! 2.'

Volume 2/Jnana-Yoga/ खंड 2/ज्ञान-योग: The real and practical identity of man!/ The real and practical man

🔱🕊 🏹 🙋वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य 🔱🕊 🏹 🙋

 या 

मनुष्य का वास्तविक और प्रतिभासिक पहचान ! 

(स्वामी विवेकानन्द द्वारा न्यूयॉर्क में दिया गया भाषण) 

" वेदान्त दर्शन का एक विषय है - एकत्व की खोज। '  वह क्या है , जिसके जान लेने से सब कुछ सब कुछ जाना जा सकता है ? हिन्दू दार्शनिकों के मतानुसार समस्त जगत का विश्लेषण करके उसे 'आकाश ' में पर्यवसित किया जा सकता है। हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं , छूते हैं , आस्वादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। पदार्थ की तीनों अवस्थाएं - ठोस, तरल और गैस , सब प्रकार के नाम-रूप, शरीर , पृथ्वी , सूर्य , चंद्र , तारे -सब इसी आकाश से निर्मित हैं। (२/२१)

" वह कौन सी शक्ति (महामाया माँ सारदा हैं !) है जो इस आकाश पर कार्य करती है और इससे इस जगत्-प्रपंच का निर्माण करती है? आकाश के साथ-साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ हैं -आकर्षण, विकर्षण या विचारशक्ति भी सभी 'प्राण ' नामक एक महाशक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके इस इस जगत्प्रपंच की रचना की है। कल्पांत में सभी ठोस पदार्थ पिघल जायेंगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायेगा। और वह अधिक सूक्ष्म और तेज (finer and more uniform heat vibrations एकसमान तापीय कम्पन) में परिवर्तित हो जाएगा, अंत में सब कुछ जिस आकाश से उत्पन्न हुआ था , उसीमें विलीन हो जायेगा।  और आकर्षण, विकर्षण और विचार-गति आदि समस्त शक्तियाँ  धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जायँगी। " (२/२२)

" उसके बाद जबतक फिर से कल्पारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था में रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना नाम-रूपों को प्रकाशित करेगा। और कल्पान्त में फिरसे सब का लय हो जायेगा। पर यह विश्लेषण अधूरा है। इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी पता है। लेकिन इसके परे की अवस्था - (इन्द्रियातीत सत्य स्वरुप तक) भौतिक विज्ञान की पहुँच नहीं है। पर इस अनुसन्धान का अन्त यहीं नहीं हो जाता है। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकेगा। 

   हमने पूरे ब्रह्मांड को दो भागों में विभाजित कर दिया है, जिन्हें पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy)  कहते हैं, या जिन्हें भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने आकाश (Akasha) और प्राण (Prana) कहा है। अगला कदम इस आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में ( into their origin.) पर्यवसित/ (विभाजित या रूपांतरित) करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है।  मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से ही प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। आकाश या प्राण की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक  सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वब्यापी मन ही था और इसने स्वयं को व्यक्त , परिवर्तित , और विकसित करके आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना। (२/२२-२३) 

>>>दर्शन-क्रिया कैसे होती है ? 

' अब हम मनोविज्ञान (मनःसंयोग -psychology) पर चर्चा करेंगे। मैं आपको देख रहा हूँ। आँखें देखने के साधन नहीं हैं। वे केवल बाहरी उपकरण हैं। इस चक्षु के पीछे मस्तिष्क में यथार्थ चक्षुरन्द्रिय है। इसीप्रकार नासिका घ्राण-इन्द्रिय नहीं है , घ्राणीन्द्रिय भी उसके पीछे स्थित है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए , कि बाह्य यंत्र या उपकरण इस स्थूल शरीर में अवस्थित हैं और इनके पीछे मस्तिष्क में उनकी इन्द्रिय भी मौजूद है। किन्तु उनके साथ यदि मन नहीं जुड़ा हो -तो आप घंटे की आवाज नहीं सुन पाएंगे। बाहरी यंत्र भले ही आवाज को भीतर ले जाये। मन भी इन्द्रियों के साथ जुड़ा हो फिर भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं होगी, भीतर से भी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से ज्ञान उत्पन्न होगा। बाह्य इन्द्रियों ने मानों मेरे अन्दर संवाद -प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे लेकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया। बुद्धि ने निर्णय किया। परन्तु इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई। एक अचल वस्तु -परदे की आवश्यकता है जिसपर चित्र डाला जा सके। वह कौन सी वस्तु है जो हर पल गतिशील वस्तु की पहचान को बनाए रखता है? वह कौन सी वस्तु है जो विभिन्न गतियों के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है ? और उस वस्तु को शरीर और मन की तुलना ,में अचल होना आवश्यक है। यदि पर्दा अचल न हुआ तो उस पर चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात उस वस्तु को, उस द्रष्टा को एक व्यक्ति (Individual) होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन यह सब चित्रांकन करता है , जिस पर मन और बुद्धि द्वारा ले जाई गई संवेदनाएँ स्थापित , श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं , बस उसीको मनुष्य  की आत्मा कहते हैं। (२/२४) 

" तो , हमने देखा है कि समष्टि मन, महत जो है वो आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है।और मन के पीछे है आत्मा ! समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है , उसे ईश्वर (इष्टदेव) कहते है। व्यष्टि में यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन ही आकाश और प्राण के रूप परिणत हो गया है , उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। तो क्या मनुष्य का मन ही उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की स्रष्टा है? अर्थात्, मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा - ये तीन (3H) क्या तीन विभिन्न वस्तुयें हैं , अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं , अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएं हैं ? अबतक हमने देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे इन्द्रियां हैं , फिर मन , उसके बाद बुद्धि और बुद्धि के पीछे आत्मा। तो पहली बात ये हुई कि आत्मा शरीर से पृथक है, तथा वह मन से भी पृथक है !  बस यहीं से धर्म जगत में मतभेद देखा जाता है।  द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है , अर्थात भोग, सुख-दुःख आदि सभी वास्तव में आत्मा के धर्म हैं , पर अद्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा निर्गुण है, उसमें ये धर्म नहीं है। 

यह आत्मा आकाश और प्राण से गठित न होने के कारण तथा शरीर और मन (अहंकार) से पृथक होने के कारण - निश्चित रूप से अजर , अमर, अविनाशी है !! क्यों ? मृत्यु का या शरीर-मन के नश्वर होने का क्या अर्थ है ? विघटित ( decomposed) हो जाना ; और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोजन से बनती हैं , वही विघटित भी होती है। जो अन्य पदार्थों के संयोजन से उत्तपन्न नहीं हुई है , वह कभी विघटित नहीं होती। इसलिए वह अविनाशी है। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी।    

वेदान्तियों के मतानुसार जब इस नश्वर शरीर का नाश हो जाता है , तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं , मन का प्राण में लय हो जाता है , प्राण आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और तब मानव की आत्मा मानो सूक्ष्म शरीर अथवा लिंगशरीर रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है। इस सूक्ष्म शरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं - वे फिर सूक्ष्म शरीर पर कार्य करते रहते हैं। जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गए हैं , जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है , वे ही सूर्य किरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते हैं। जो मध्यम वर्ग के लोग हैं , जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते हैं , वे चंद्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते हैं , और देव  शरीर प्राप्त करते हैं , पर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उन्हें पुनः मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। जो अत्यंत दुष्ट हैं वे राक्षस आदि निम्न-योनियों में जाने के बाद पशु शरीर में जन्म लेते हैं , और मुक्ति लाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ता है। 

    इस पृथ्वी को कर्मभूमि ( the sphere of Karma) कहा जाता है, अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। वेदान्त मत से मनुष्य ही जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह कर्मभूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है , क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है। देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण (perfect) होने के लिए मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक महान केंद्र , अद्भुत स्थिति (the wonderful poise) और अद्भुत अवसर (wonderful opportunity) है। 

आत्मा, मन और शरीर , ये तीनों (3H) पृथक-पृथक वस्तुएं नहीं हैं , बल्कि वे एक ही हैं , क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह , कभी मन और कभी देह और मन से परे आत्मा के रूप में प्रतीत होती है। किन्तु वह एक ही समय में यह तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं , वे मन को नहीं देख पाते ; जो मन को देखते हैं वे आत्मा को नहीं देख पाते ; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन , दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं ! जो लोग केवल गति देखते हैं [चलचित्र फिल्म शोले देखते हैं], वे सम्पूर्ण स्थिर भाव (पर्दे) को नहीं देख पाते , और जो इस सम्पूर्ण स्थिर-भाव को (पर्दे को) देख पाते हैं, उनके लिए गति (चलचित्र की कथा महाभारत या शोले)/ न जाने कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है , उसके लिए रज्जु न जाने कहाँ चली जाती है , और जब भ्रान्ति दूर हो जाने पर वह व्यक्ति रज्जु देखता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता।  (2/30)

तो हमने देखा कि सर्वव्यापी सत्ता एक ही है, और वह 'एक' ही 'अनेक' रूपों में प्रतीत होती है। (and that one appears as manifold.) अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम-रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक नहीं है। फिर भी तरंग क्यों पृथक प्रतीत होती है ?  नाम और रूप के कारण - तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग ' नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक किया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है। वास्तव में "मैं" अथवा "तूम" कुछ नहीं है- सब एक ही है। चाहे कह लो ' सभी मैं हूँ ", या कह लो -" सभी तूम हो "। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का फल है। जब विवेक का उदय होने पर [विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेक-श्रोत के उद्घाटित होकर विवेकज ज्ञान होने पर ] मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएं नहीं हैं , एक ही वस्तु है , तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं ही यह अनंत ब्रह्माण्ड स्वरुप है। और मैं ही अपरिणामी , निर्गुण , नित्य पूर्ण (100 % नहीं 99. 9 %? निःस्वार्थपर) , नित्यानन्दमय हूँ -सच्चिदानन्द हूँ !  (२/३१) 

दो प्रश्न उठते हैं - पहला क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है ? दूसरा क्या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की उपलब्धि के बाद उनकी तुरंत मृत्यु हो जाती है ? ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय जीवित हैं , जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। ...उतनी जल्दी नहीं, जितनी जल्दी हम समझते हैं।मानलो एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ-साथ चल रहे हैं। अब यदि मैं एक पहिये को पकड़ कर बीच की लकड़ी को कुल्हाड़ी से काट दूँ , तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है , वह तो रुक जायेगा , पर दूसरा पहिया , जिसमें पहले का वेग कभी नष्ट नहीं हुआ है , कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्धस्वरुप आत्मा मानों एक पहिया है , और शरीर -मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया ; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है , जो जोड़नेवाली इस लकड़ी को काट देता है। .. जब तक पूर्व कर्मों का वेग बचा रहता है, पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता , तबतक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाती है। जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है , जिन्हें कम से एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है , उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का का लक्ष्य है। " (२/३६) 

" एक दिन यह मरीचिका (जगत-प्रपंच) अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी - शरीर को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है , अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं , तबतक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। नर, नारी , पशु , उद्भिद, आसक्ति , कर्तव्य -सबकुछ आएगा , पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का  नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा , वैसे ही उसका स्वरुप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। " (२/३६) 

" मनुष्य परमार्थतः मुक्त ही है , किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है , ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है , त्योंही वह बद्ध हो जाता है ? 'स्वाधीन इच्छा ' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती।  होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है , तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है, उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है , वह तो सदा ही मुक्त है। " (२/३७) 

" जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिहोंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ-संस्कार , शुभ-वेग ही बचा रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं ; उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। यदि वह कुछ भी न बोले, तो भी उसका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीष-स्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी संत बना देता है। " (२/३८) 

" अतएव जिन्होंने परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को प्रत्यक्ष कर लिया है , उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय -युक्ति , तर्क-वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए परम् 'सत्य जीवन का जीवन या हस्तामलकवत हो गया है। आत्मानुभूति सम्पन्न लोग निःसंकोच भाव से कह सकते है - "Here is the Self" - 'यही आत्मा है !'  तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो , वे तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे। वे उन्हें बकने देंगे। उन्होंने अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति कर लिया है , और पूर्ण हो गए। 

मान लो कि तुम एक देश देखकर आये, और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे इस उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे , पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि वह पागलखाने में भेज देने लायक है। इसी प्रकार, जो आत्मसाक्षात्कार  कर चुके हैं , वे कहते हैं - "जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाते हैं, वे सब केवल बच्चों की सी बातें हैं। आत्मसाक्षात्कार ही धर्म का सार है। धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। realization is the soul, the very essence of religion." Religion can be realised. क्या तुम तैयार हो? क्या तुम इसे चाहते हो? अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें आत्मसाक्षात्कार मिलेगा, और तब तुम सच्चे धार्मिक होगे। जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल जाता, तब तक तुममें और नास्तिकों में कोई अंतर नहीं है। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट  होते हैं, लेकिन जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं धर्म में विश्वास करता हूँ ,पर कभी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है।  (२/३९) 

>>>.दूसरा प्रश्न यह कि आत्मसाक्षात्कार के बाद क्या होता है ? [The next question is to know what comes after realisation] मान लो , मैंने जान लिया कि एकमात्र आत्मा ही विद्यमान है और वही विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है। -- यह जान लेने से जगत का क्या उपकार होगा ? 

" लोगों को यह भय होता है कि जब उन्हें यह ज्ञान हो जायेगा कि सभी एक हैं , तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जायेगा , किन्तु जो व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता से उदासीन हो गए हैं , वे ही जगत में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हुए हैं। मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है , जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मिट्टी का ढेला नहीं , किन्तु वास्तव में स्वयं भगवान हैं। स्त्री पति और अधिक प्रेम करेगी, यदि वह यह समझेगी कि स्वामी साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। पति भी स्त्री से अधिक प्रेम करेगा , यदि वह यह जानेगा की स्त्री स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे , जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्म स्वरुप हैं। 'Such a man becomes a world-mover for whom his little self is dead and God stands in its place. ' --- जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है , वे ही लोग जगत के प्रेरक हो सकते हैं। उनके लिए समग्र विश्व दिव्यभाव में रूपांतरित हो जायेगा। ऐसे ही व्यक्ति को कहने का अधिकार है कि जगत कितना सुन्दर है।" (खंड २/४०)  

" इस प्रकार की ' एकात्मकता (Oneness) तथा अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) ' की प्रत्यक्ष उपलब्धि से -या आत्मसाक्षात्कार करने से जगत का सबसे बड़ा हित यह होगा कि अविराम विवाद, द्वन्द्व , आदि सब दूर होकर जगत में शान्ति का राज्य हो जायेगा। यदि जगत के सभी मनुष्य आज इस महान सत्य (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप) के एक बिन्दु की भी उपलब्धि कर सकें , तो उनके लिए यह सारा जगत एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा [रूस -यूक्रेन, इस्राईल -हमास, हिन्दू-मुस्लिम] समाप्त होकर शान्ति का राज्य [सतयुग या रामराज्य ] आ जायेगा। एक-दूसरे से ऊँचा दिखने में यह घिनौना उतावलापन ,यह स्पर्धा , जो हमें अन्य सबों को ठेलकर, धोखे से भी आगे बढ़ निकलने के लिए बाध्य करती है , इस संसार से उठ जायेगी। इसके साथ-साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा , ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ सदा के लिए चला जायेगा। उस समय देवता लोग इस जगत में वास करेंगे। उस समय यही जगत स्वर्ग हो जायेगा। और जब जब देवता देवता से खेलेगा , देवता देवता के साथ मिलकर कार्य करेगा, देवता देवता से प्रेम करेगा  ,(Be and Make का कार्य -आंदोलन करेगा), तब क्या अशुभ ठहर सकता है ? ईश्वर के प्रत्यक्ष उपलब्धि (या आत्मसाक्षात्कार) की यही एक बड़ी उपयोगिता है। तब तुम किसी भी मनुष्य को (अपने सहोदर भाई-बहन को ?) बुरा नहीं समझोगे। यही प्रथम महालाभ है उस समय तुम अन्याय कर्म करने वाले बेचारे स्त्री-पुरुष को घृणा की दृष्टि से नहीं देखोगे। और वैश्या -वृत्ति करने को मजबूर स्त्री की ओर भी घृणा से नहीं देख सकोगे , क्योंकि वहाँ भी साक्षात् ईश्वर को ही देखोगे। तब तुममें ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा , तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्यपथ पर चलाने के लिए फिर चाबुक मारने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी । ' (२/४१)  

" उस समय चारों ओर घृणा के बीज न बोकर , ईर्ष्या और असत चिंता का प्रवाह न फैलाकर , सभी देशों के लोग सोचेंगे कि सभी 'वह ' है। जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो वह सब 'वही ' है ! तुम्हारे भीतर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे ? तुम्हारे भीतर यदि -चोर, धोखेबाज न हो , तो तुम किस प्रकार चोर-धोकेबाज देखोगे ? साधु हो जाओ , तो असाधु भाव तुम्हारे अन्दर से एकदम चला जायेगा। इस प्रकार सारे जगत का परिवर्तन हो जायेगा। यही समाज का सबसे बड़ा लाभ है। " (२/४१) 

[Instead of throwing tremendous bomb-shells of hatred into every corner, instead of projecting currents of jealousy and of evil thought, in every country, people will think that it is all He. He is all that you see and feel. How can you see evil until there is evil in you? How can you see the thief, unless he is there, sitting in the heart of your heart? 

" ये सब विचार -भाव , प्राचीन काल में (उपनिषद युग में) अनेक ऋषियों के द्वारा आविष्कृत और कार्य-रूप में परिणत हुए थे। पर आचार्यों की संकीर्णता और देश की 1000 वर्षों की गुलामी आदि अनेक कारणों से ये सब भाव चारों ओर फ़ैल न सके। लेकिन जहाँ भी इन विचारों का (4 महावाक्यों का) प्रभाव पड़ा , वहीँ मनुष्य ने देवत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसे ही एक देवस्वभाव मनुष्य (गुरुदेव और CINC ?) के स्पर्श से मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है; आज इन सब भावों का (एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति का) जगत में प्रचार करने का समय आ गया है। इन महावाक्यों को मठों की चहार दीवारी में आबद्ध न रखकर, केवल पण्डे -पुरोहितों के पोथियों में आबद्ध न रखकर , इन भावो का प्रचार सम्पूर्ण जगत में करना होगा। जिससे ये महान विचार साधु, पापी , आबालवृद्ध-वनिता , शिक्षित , अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो जायें। तब ये महान विचार -अद्वैतवाद इस जगत के वातावरण को ओतप्रोत कर देंगे और हम श्वास-प्रश्वास द्वारा जो वायु ले रहे हैं , वह अपने प्रत्येक स्पन्दन के साथ कहने लगेगी - तत्त्वमसि ! तब  असंख्य चन्द्रमा-और सूर्यों से परिपूर्ण यह समग्र ब्रह्माण्ड , बोलने की शक्ति से युक्त प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर से कह उठेगा - तत्वमसि ! " (२/४२)  

Be good (and do good) , and evil will vanish for you. The whole universe will thus be changed. This is the greatest gain to society. This is the great gain to the human organism. These thoughts were thought out, worked out amongst individuals in ancient times in India. For various reasons, such as the exclusiveness of the teachers and foreign conquest, those thoughts were not allowed to spread. 

    Yet they are grand truths; and wherever they have been working, man has become divine. My whole life has been changed by the touch of one of these divine men, about whom I am going to speak to you next Sunday; and the time is coming when these thoughts will be cast abroad over the whole world. 

     Instead of living in monasteries, instead of being confined to books of philosophy to be studied only by the learned, instead of being the exclusive possession of sects and of a few of the learned, they will all be sown broadcast over the whole world, so that they may become the common property of the saint and the sinner, of men and women and children, of the learned and of the ignorant. They will then permeate the atmosphere of the world, and the very air that we breathe will say with every one of its pulsations, "Thou art That". And the whole universe with its myriads of suns and moons, through everything that speaks, with one voice will say, "Thou art That".                

The Real and the Apparent Man 

 Everything that we see around us, feel, touch, taste, is simply a differentiated manifestation of this Akasha. It is all-pervading, fine. All that we call solids, liquids, or gases, figures, forms, or bodies, the earth, sun, moon, and stars — everything is composed of this Akasha. This Prana, acting on Akasha, is creating the whole of this universe.

 " This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace. 

This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace. 

This indecent and brutal hurry which forces us to go ahead of every one else will then vanish from the world. With it will vanish all struggle, with it will vanish all hate, with it will vanish all jealousy, and all evil will vanish away for ever. Gods will live then upon this earth. This very earth will then become heaven, and what evil can there be when gods are playing with gods, when gods are working with gods, and gods are loving gods? That is the great utility of divine realization. Everything that you see in society will be changed and transfigured then. No more will you think of man as evil; and that is the first great gain.

 No more will you stand up and sneeringly cast a glance at a poor man or woman who has made a mistake. No more, ladies, will you look down with contempt upon the poor woman who walks the street in the night, because you will see even there God Himself. No more will you think of jealousy and punishments. They will all vanish; and love, the great ideal of love, will be so powerful that no whip and cord will be necessary to guide mankind aright.

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