परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र)
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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
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पिछले सत्र में हमने देखा था कि प्रेम और आसक्ति के बीच क्या अन्तर है ? प्रेम और आसक्ति का विवेक कैसे करें ? समाज में सभी लोग/अधिकांश लोग आसक्ति को ही प्रेम समझ रहे हैं। जैसे मगरमच्छ को हम लट्ठा समझ लेते हैं। आसक्ति का अंत दुःख और पीड़ा में ही होगा। ये सब ऋषियों की स्पष्ट दृष्टि है। प्रेम की उत्पत्ति -(देह रूपीबुलबुला से नहीं) समुद्र रूपी सच्चिदानन्द ब्रह्म दृष्टि से ही होती है। जो ब्रह्मदृष्टि में प्रतिष्ठित है , जिसका शरीर या बुलबुले के साथ कोई लेना-देना नहीं है , उस आत्मदृष्टि या ब्रह्मदृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि से) ही प्रेम उत्पन्न होता है। बुलबुला रूपी दृष्टि से सिर्फ आसक्ति - स्वयं को M/F शरीर समझने से सिर्फ आसक्ति ही उतपन्न होता है। एक शरीर दूसरे शरीर के प्रति आकृष्ट हो रहा है , यह प्रेम सा लग रहा है ; और समाज में/ सिनेमा में लोग इसीको प्रेम कहते हैं। यह प्रेम है ही नहीं , यह मोह है , यह राग है , यह आसक्ति है। ये प्रेम के समान दीखता है , लेकिन प्रेम नहीं है। प्रेम में शारीरिक आकर्षण- लैंगिक आकर्षण के लिए कोई स्थान ही नहीं है। लैङ्गिक आकर्षण को प्रेम नहीं है, प्रेम तो सच्चिदानन्द ब्रह्म से उत्पन्न होती है। जिस व्यक्ति की दृष्टि में सारे बुलबुले एक समान हैं - भीतर झाँकने पर जहाँ स्त्री-पुरुष सब समान दीखते हैं , उसकी भावनायें - feeling or concern, दो-चार व्यक्तियों तक सीमित नहीं हैं। उसके लिए कोई पराया नहीं है , वह सभी को अपना समझता है। प्रेम में सीमा नहीं होती। जो प्रेम केवल कुछ लोगों के प्रति होती है - वो प्रेम नहीं होती -आसक्ति है। हमारे भावी जीवन के लिए प्रेम और आसक्ति में विवेक होना- दोनों को स्पष्ट रूप से समझ लेना बहुत आवश्यक है। इसी विषय को लेकर हमलोग अक्सर जीवन में धोखा खा जाते हैं। हर विषय में (पाँचो में) हम धोखा खा रहे हैं , और दुःख पा रहे हैं। इसलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि है ! कोई शंका ? विवेक ही मुकुट मणि है , प्रकाश के समान है , ये जब आ जाती है , फिर आप हर चीज को वो जैसा है , वैसा देखना शुरू करते हो , फिर आपको किसीके गाइडेंस की जरूरत नहीं पड़ेगी। बिना गड्ढे में गिरे जीवन नौका को आगे ले जा सकते हो। यही आत्मविश्वास के साथ जीवन जीने की कला है , या पूरे आत्मविश्वास खेल के मैदान में उतरने का कौशल है। सत्य क्या है और सत्य सा प्रतीत क्या हो रहा है ? प्रेम क्या है -और क्या प्रेम सा प्रतीत हो रहा है ? शारीरिक आसक्ति यहाँ प्रेम सा प्रतीत हो रहा है , पर वो लैङ्गिक आकर्षण है। ये स्पष्टता जब आएगी , तब आपका व्यक्तित्व बदल जायेगा। अद्भुत बदलाव होता है -उसके लिए सब समान हो जाते हैं। (6.36) पिछले सत्र में हमने यहाँ तक देखा - अब श्लोक 84 को विस्तार में देखते हैं -
मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति,
त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा।
पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-
प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥
[ मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति,/ त्यज अतिदूरात् विषयान् विषं यथा/ पीयूषवत् तोष,दया, क्षमार्जव-प्रशान्ति, दान्ती: भज नित्यम् आदरात्। ]
अर्थ:-यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विषके समान दूर ही से त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य-सबसमय, आदरात्- जोश के साथ सेवन करो।
'यदि' तुम इन सारे बंधनों से मुक्त होना चाहते हो , यहाँ 'अगर' -यदि शब्द बहुत महत्वपूर्ण है - यदि तुम बन्धनों से मुक्त होना चाहते हो ? क्योंकि बहुत से लोग तो विषयों की आसक्ति से मुक्त होना ही नहीं चाहते ? समाज में आपको क्या दीखता है ? हर बुलबुला अपने नजदीकी 4-5 बुलबुलों में डूबा हुआ है। अभी उनको उन बाहर निकलने की इच्छा अभी आयी नहीं है। लेकिन अगर आपके अंदर आ चुकी है , मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति ? तो आपको ये करना होगा। दूसरे क्या करते हैं - वो अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले में राग रूपी अदृश्य रस्सी के द्वारा हर बुलबुला दूसरे बुलबुलों से बंधे हुए हैं। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के साथ आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी में एकदम जकड़े हुए हैं -सर्वसधारण मनुष्य उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। पग पग पर चोट खाता रहता है , फिरभी उसकी ऑंखें नहीं खुलती ? श्रीरामकृष्ण उदाहरण में कहते थे - रेगिस्तान में ऊँट नागफनी (बबूल) की कटीली झाड़ियों को खाता रहता है , मुहँ से खून गिरता है , फिर भी खाना नहीं छोड़ता। श्री रामकृष्ण कहते थे - संसार में डूबे लोग - कामिनी -कांचन में, एक बुलबुला जो दूसरे बुलबुले में डूबा हुआ है -उसकी भी यही दशा है। पीड़ा हो रही है , पर उसमें से बाहर होने इच्छा उसमें नहींहै। (10.29) दुःख हुआ तो सिनेमा देख लेते हैं। ये शुतुरमुर्ग वाली दशा है। यदि इस दशा से आपको बाहर निकलना हो तो आपको क्या करना है ? -त्यज अतिदूरात् विषयान् विषं यथा !// पहले बता दिया गया कि सारे विषय - दूर सी मारने वाले विष के समान हैं। दूसरे बुलबुलों से चिपकना नहीं।ऋषि लोग कहते हैं -हमने विषयों को नहीं भोगा भोगों ने हमें भोग लिया -
"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः"
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।।"
अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगो ने हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं। ये जान करके कि सभी विषय विष समान हैं - तो विवेक पूर्वक बुलबुलों से 8 हाथ दूर रहो , इनसे चिपको मत। यदि थोड़ा भी राग पूर्वक स्पर्श किया - तो तुमको डूबा देंगे। तो जो पाँचों विषय विष के समान हैं - इनको दूर से ही छोड़ दो। और कुछ गुण ऐसे हैं जो अमृत जैसे हैं - उनको उपार्जित करो। यहाँ उनमें से कुछ गुणों का संकेत दे रहे हैं पीयूषवत् तोष,दया, क्षमा, आर्जव, प्रशान्ति और दान्ती; पहले तो दूसरे बुलबुलों में विषय की आसक्ति से दूर रहें - और इन गुणों को वर्धित करें।
अमृत तुल्य गुण हैं - सन्तोष , ये तब आएगा जब बुलबुला अपने समुद्र रूपी सत्य रूप को जान लेगा , तब वो संतुष्ट हो जायेगा। कई ऐसे गृहस्थ दम्पत्तियों को मैं जानता हूँ जो एक दम संतुष्ट सरल जीवन जीते हैं। उनको पूछिए कुछ चाहिए ? कुछ नहीं चाहिए। और कुछ लोग आर्थिक दृष्टि से सब कुछ होते हुए भी हमेशा असंतुष्ट बने रहते हैं। जो बुलबुला दूसरे बुलबुलों पर निर्भर है , वो कभी संतुष्ट नहीं होगा। श्रीरामकृष्ण हर समय सन्तुष्ट रहते थे , क्यों ? वे हर समय समुद्र के साथ एकरूप रहते थे। वो किसी भी बुलबुले से चिपकते नहीं थे। सन्तोष धन सबसे बड़ी सम्पत्ति है -
गोधन गजधन बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
दूसरा गुण है दया , इसका उल्टा है -क्रूरता। जो राग रूपी रस्सी एक बुलबुले को दूसरे बुलबुले से बाँध देता है , उसी राग रूपी सिक्के का दूसरा पहलू है द्वेष। (22.40) राग (Attachment) ही द्वेष (hatred) का रूप ले लेता है। जिस व्यक्ति के प्रति मेरा राग था -कुछ दिनों के बाद उसी व्यक्ति के प्रति मुझे द्वेष हो जाता है। छः महीने बाद ही विवाह टूट रहा है। सिर्फ शारीरिक आकर्षण के आधार पर जो संबंध बनते हैं , वे द्वेष में परिणत हो जाते हैं। जब आपको किसी के प्रति द्वेष होगा तो आप क्रूर भी हो जाओगे। इसीलिए अपराध बढ़ रहे हैं। दया के गुण को कैसे वर्धित किया जायेगा ? जब प्रेम होगा तो दया भी आएगी। जब आपके लिए कोई पराया नहीं होगा , सभी को समान रूप से देखोगे , तो सभी पर सिर्फ दया ही होगी, क्रूरता आ ही नहीं सकती । तीसरा अमृतमय गुण है - क्षमा ! इसको सहनशीलता भी कह सकते है -सभी को क्षमा कर देना। किसी को माफ़ नहीं करना - क्षमा नहीं करना , विष जैसा जहरीला स्वभाव है। जो कीसी को माफ़ नहीं करता , नुकसान उसीका होता है। उसीका मन जलता रहेगा। यदि हम किसी को बड़ी से बड़ी गलती पर भी क्षमा नहीं करेंगे तो, कभी भी अपने सत्यस्वरुप में स्थित नहीं हो पाएंगे। हाँ कामड़ाबी ना फोंस कोरबी - उसके प्रति सावधान रहना होगा। क्षमा कर दीजियेगा तो आप शांत रह पाइयेगा , जप-ध्यान कर पाइयेगा। मन में गुस्सा पकड़कर बैठे रहोगे , इसने मेरे साथ वैसा किया ? मैं छोड़ूँगा नहीं इसको ! इन्हीं भावनाओं में हम जलते रहते हैं , उसको माफ़ करो या मत करो , लेकिन आप फँसे हुए हो। आप कभी भी सत्य में प्रतिष्ठित नहीं रह पाओगे , आप जलते रहोगे। अमृतमय ऐसा गुण है क्षमा। आर्जव -सरलता , समझने के लिए श्रीरामकृष्ण जैसे महापुरुष को देखें। किसी व्यक्ति ने उनको माली समझा, पर उन्होंने कुछ बुरा नहीं माना। हमलोग स्मार्ट दिखने की कोशिश करते हैं , हमारा लक्ष्य स्मार्ट (चालाक) बनना नहीं है - सरल बनना है। मन-मुख को एक रखना सरलता है। महात्मा लोग मनसा वाचा कर्मणा -तीनों में ही शुद्ध और पवित्र होते हैं। उनके व्यवहार में कोई दिखावा नहीं , कोई दोगलापन नहीं होता। आजकल के मातापिता अपने बच्चे को स्मार्ट बनने सिखाते हैं , माने किसी न किसी भी तरिके अपना जो काम निकलवा ले -उसको स्मार्ट समझते हैं। लेकिन जो विवेकी होता है उसको प्रैक्टिकल नहीं है - आदर्शवादी है -ऐसा कहकर उसको निम्न कोटि का मनुष्य समझते हैं। अभी हमलोगों का फोन , tv , सब स्मार्ट है , बच्चों को भी हम सरल नहीं स्मार्ट बनाना चाहते हैं। चालाकी से आप संसार की कोई चीज प्राप्त कर लोगे , लेकिन उसीमें फँसते भी चले जाओगे। आप सत्य का अविष्कार नहीं कर पाओगे, सत्य को जानना है -तो आपको सरल होना होगा।
मनस्य एकं वचस्य एकं कर्मण्य एकं महात्मनाम्।
मनस्य अन्यत वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्।।
महात्मा लोग - महांपुरुष अथवा महान व्यक्ति मन वचन और कर्म से एक होते हैं। महान व्यक्तियों के मन में भी पवित्र विचार होते हैं -वो वही बोलते हैं - उनके वचन सुंदर, शुद्ध और प्रेरणादायक होते हैं। और वो वैसे ही कर्म करते हैं - उनके कर्म भी सुंदर और पवित्र होते हैं जो किसी के दुःख का कारण नहीं बनते। लेकिन इस के विपरीत - दुरात्मा अर्थात बुरे एवं स्वार्थ भाव रखने वाले लोगों के मन में कुछ और होता है और वचन एवं कर्म में कुछ और। उसके बाद अमृतमय दो गुण हैं - प्रशान्ति और दान्ती ; प्रशान्ति का अर्थ है 'शम' और दान्ती का मतलब है - 'दम' ! (31.40) फिर शंकराचार्यजी कह रहे हैं - 'भज' नित्यम् आदरात्। भज -माने अपने व्यक्तित्व में इन गुणों को अर्जित करो -अर्थात इन सब अमृतमय गुणों को अपने चरित्र में वर्धित करो। नित्यम् माने सब समय, आदरात् - माने पूरे जोश के साथ इन अमृतवत गुणों को वर्धित करो।
इस श्लोक में- मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति,/ त्यज अतिदूरात् विषयान् विषं यथा/ पीयूषवत् तोष,दया, क्षमार्जव-प्रशान्ति, दान्ती: भज नित्यम् आदरात्। शंकराचार्यजी कह रहे हैं , अगर तुम इन बंधनों से - आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी के बंधन से मुक्त होना चाहते हो , तो पहला चरण है - इन 5 विष-तुल्य विषयों से, बुलबुलों से चिपको मत ! और दूसरा चरण है - जितने कुछ 24 गुण हैं या - सन्तोष, दया, क्षमा, आर्जव (सरलता) , प्रशान्ति (शम) और दान्ती (दम) आदि चरित्र के अमृततुल्य सद्गुण हैं उनको, अपने जीवन में , अपने चरित्र में जोश के साथ वर्धित करो।इसी सुंदर व्यक्तित्व से हम मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं।
(31 st अगस्त, 2025 : सद्गुरु राधा तव शरणं/राधा अष्टमी (Radha Ashtami 2025) का पर्व भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन सद्गुरु राधा रानी की पूजा करने से श्रीकृष्ण का आशीर्वाद मिलता है। इस साल राधा अष्टमी 31 अगस्त यानी आज के दिन मनाई जा रही है।)
तो आसक्ति और प्रेम का अन्तर समझने से पहले - ये सारा अध्यन शुरू हुआ था - अनात्मा क्या है ? और अनात्मा का विचार करते समय पहले हमने स्थूल शरीर को लिया; इस प्रश्न का उत्तर है - हमारा स्थूल शरीर ही सबसे बड़ा अनात्मा है। (33.29) क्योंकि यह स्थूल शरीर ही तो हमारे 'मैं और मेरा' का आस्पद है। जिसमें सभी समाज मोहित है - मैं ये बुलबुला हूँ - M/F शरीर हूँ - इसको हमने एकदम सत्य समझ लिया है। मैं एक बुलबुला या बुलबुली हूँ ! ?? यही समझकर समझकर हम राग वश हम दूसरे बुलबुलों से मोहित हो जाते हैं, रागवश हम बंध जाते हैं। सारा अध्यन स्थूल शरीर को ही लेकर चल रहा है। एक बुलबुला दूसरे से चिपक जाता है , तब बंध जाता है - जो नहीं चिपकता वो मुक्त (मोदी) हो जाता है ! इसी बात को आगे बढ़ाते हुए शंकराचार्य जी 86 वें श्लोक में कह रहे हैं -
शरीरपोषणार्थी सन्, य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा, नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
[शरीरपोषणार्थी सन् य: आत्मानं दिदृक्षते स: ग्राहं दारुधिया (इति) धृत्वा नदीं तर्तुं इच्छति ।शरीरपोषणार्थी - शरीरस्य पोषणं अर्थयितुं शीलं अस्य इति/आत्मानं - स्वस्वरूपम् /दिदृक्षते - दृष्टुमिच्छति/ ग्राहं - ग्राहम्/दारुधिया - दारुधिया/धृत्वा - धृत्वा। नदीं - नदीम्/तर्तुं - तरणम् कर्तुम्/ स: - स:/ इच्छति - इच्छति]
अर्थ:- जिसका चरित्र स्वयं को केवल शरीर समझकर उसीके पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़ कर नदी पार करना चाहता है।
ये हमारे साथ कदम पर हो रहा है , और हमें इसके चलते कष्ट हो रहा है। इससे बचना है तो हमें चाहिए विवेक ! हम मगरमच्छ को लट्ठा समझकर नदी पर करना चाहते हैं। इसके लिए चाहिए विवेक - मगरमच्छ को ही लट्ठा न समझे। आसक्ति को प्रेम न समझें। मूर्खता को समझदारी नहीं समझें। तो देखिये शास्त्र और गुरु (सद्गुरु राधा) कैसे हमारी ऑंखें खोल रहे हैं। जब हमारे मन -बुद्धि में आत्मा-अनात्मा का विवेक एकदम स्पष्ट रहने लगेगा तो हम स्वयं अपनी समस्याओं का हल ढूँढ लेंगे।
शंकराचार्य जी कह रहे हैं , भाई एकतरफ तो आप शरीर पोषणार्थी हो ? माने - हम सब दिनभर अपने को शरीर ही 'मैं ' (M/F) मान रहे हैं। हम सब अज्ञान में ऐसे ही हैं - जब तक विवेक नहीं जगता हम अपने को बुलबुला या बुलबुली ही समझ रहे हैं। अज्ञान में हम तो शरीर को ही 'मैं' मानकर चल रहे हैं। शरीर पोषणार्थी माने उस बुलबुला या बुलबुली भाव को पोषित करने में (खाद डालने ?) लगे हुए हैं। आपकी सारी ऊर्जा इस बुलबुले को पोषित करने में ही खर्च हो रही है। We are completely engaged in just nourishing the bubble . तो इसका परिणाम क्या होगा ? (36.44) आप इस शरीर को कितना भी पोषित कीजिये - ये बुलबुला तो टूटने ही वाला है। एक तरफ तो हम इस शरीर को पोषित करते जा रहे हैं , इसी को 'मैं ' समझ रहे हैं ? और साथ ही साथ आप आत्मा का भी दर्शन करना चाहते हो -आत्मानं दिदृक्षति ? का मतलब आप स्वयं को मिथ्या M/F शरीर समझते हुए - इस शरीर के विपरीत लिंग के आकर्षण में आसक्त रहते हुए , आप आत्मानं दिदृक्षति ? मतलब आप सत्य को जानना चाह रहे हो ? पहली शर्त - यदि आप शरीर-पोषणार्थी हो तो आप- एथेंस का सत्यार्थी नहीं हो सकते! और अगर आप सचमुच सत्यान्वेषी हो, सत्यार्थी हो तो शरीर पोषणार्थी नहीं हो सकते। और अगर आप शरीर के पोषण में ही लगे हो , तो सत्य का अविष्कार 57 साल का बूढ़ा हो जाने के बाद क्या - कभी नहीं होगा -75 का बूढ़ा हो जाने के बाद भी नहीं होगा। क्योंकि हर उम्र के बुलबुला -बुलबुली घूम रहे हैं। क्योंकि शरीर-पोषणार्थी होना और सत्यार्थी होना दोनों परस्पर विरोधी चीजें हैं। Being a seeker of body and being a seeker of truth are two contradictory things ! मैं दुबारा कहता हूँ - अगर आप सत्यान्वेषी हो ? सत्यार्थी हो ? नरेन्द्रनाथ की तरह आप भी अगर ईश्वर को देखना चाहते हो ? तो आप शरीर पोषण में नहीं लगे रह सकते ! और अगर आप शरीर पोषणार्थी हो तो , कभी सत्य में प्रतिष्ठित नहीं रह सकोगे। ये दोनों बिल्कुल दो विपरीत चीजें हैं। क्योंकि जो केवल शरीर-की भोग इच्छाओं को पूर्ण करने में ही लगा रहता है , वो उस व्यक्ति के समान है , जो मगरमच्छ को ही लट्ठा समझकर उसको आलिंगन करके बैठा हुआ है। वो क्या कभी नदी पार कर पायेगा ? जो शरीर के पोषण में लगा हुआ है , इन्द्रिय-भोगों में लगा हुआ है, और वह आत्मा का दर्शन करके जीवन में सुखी होना भी चाहता है ? तो गणित के हिसाब से फल क्या निकलेगा ? आप बुलबुला से चिपके हुए हो और आत्मा का दर्शन भी कर लेना चाहते हो ? सभी दुःखों से मुक्त भी होना चाहते हो ? तो आपकी यह आशा भी उसी प्रकार की आशा है , जैसे कि आप मगरमच्छ को लट्ठा समझकर , उसके पीठ पर बैठ जाते हो , और नदी पर करने की आशा करते हो ? So is this hope of yours the same kind of hope in which you consider a crocodile to be a log, sit on its back, and hope to cross the river? ये कभी सम्भव है ? क्या मगरमच्छ को लकड़ी का बोटा समझकर उसपर बैठकर नदी पार किया जा सकता है ? उसी प्रकार तुम दिन-रात सिर्फ शरीर में डूबे हुए हो , इन्द्रियों में डूबे हुए हो , और तुम समझते हो कि तुम जीवन में सुखी हो पाओगे ? असम्भव ! Very Important observation !
लेकिन कुछ लोग इसका कुछ गलत अर्थ भी लगा सकते हैं। (39.14) क्या शरीर का पोषण नहीं करने का ये मतलब है कि तुमको शरीर, की उपेक्षा करना होगा, शरीर को दुर्बल बना देना होगा? नहीं इसका ये मतलब है कि शरीर को बहुत Intelligently handle करना है। शरीर का पोषणार्थी नहीं होने का मतलब है कि इन्द्रियभोगों में दिनरात डूबे नहीं रहना है। They begin to neglect the body , that is also not correct.कुछ मूढ़ लोग शरीर की उपेक्षा करने लगते हैं, यह भी सही नहीं है। मानव-शरीर एक बहुत अद्भुत मशीन है - इसको बहुत समझदारी से सदुपयोग करना है। इसका सदुपयोग क्या है ? युवाओं को पौष्टिक आहार लेना चाहिए, नियमित व्यायाम करना चाहिए। लड़के लड़कियों दोनों का शरीर स्वस्थ और सबल होना चाहिए। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः- बलहीन लोगों को सत्य (आत्मा) का ज्ञान नहीं हो सकता। सत्य का आविष्कार कोई कमजोर व्यक्ति नहीं कर सकता। कोई बीमार व्यक्ति भी सत्य का अविष्कार नहीं कर सकता। जितना Cosmetic Industries है - वो शरीर को लेकर ही हैं। स्त्री ही नहीं पुरुष लोग भी शरीर को लेकर उतने ही मोह ग्रस्त हैं। तो न शरीर की उपेक्षा करनी है , न इसको भोगों में डुबो कर रखना है -बिद्धिमानी से अपने स्वस्थ-सबल शरीर का सदुपयोग करना है। पुरुष लोग कितने प्रकार का कॉस्मेटिक यूज करते हैं। यदि सभी लोग अद्वैत वेदांती बन जाएँ , तो प्रसाधन उद्योग -Cosmetic - कान्तिवर्धक उद्योग ही बंद हो जायेगा। इसके पीछे यह भ्रान्ति मन में बैठी है कि हम एक बुलबुला हैं - या एक बुलबुली हैं , क्योंकि कई लोगों के नाम भी बब्लू-बब्ली होते हैं। बुलबुले को आप कितना भी सजा लीजिये - एक दिन टूटने वाला है , मुरझा जाने वाला है। सूख जायेगा , कोई रोक नहीं पाया है। पहले के जितने भी मिस्टर और मिस यूनिवर्स हैं , सब सूख कर चले भी गए हैं ! एक जमाने में जो प्रसिद्द हीरो-हीरोइन थी अब सूखकर बिखर गए हैं ? शरीर का पोषण आप कितना भी कर लीजिये - बुलबुला तो टूटने ही वाला है। बुलबुला तो टूटेगा , सूखेगा , बिखरेगा -अदृश्य हो जायेगा। जो अपनी समस्त ऊर्जा को शरीर के भरण-पोषण में ही लगा देगा , और आशा करेगा कि वो जीवन में सुखी होगा ; वो वही मूढ़ है जो मगरमच्छ के पीठ पर बैठकर, उसको लट्ठा समझकर नदी पार करने की आशा करता है - वो कभी सम्भव नहीं है। लेकिन इसको आपलोग गलत मत समझना - शरीर का अतिपोषण भी अच्छा नहीं और इसकी उपेक्षा करना भी उचित नहीं। हमारा दृष्टिकोण -संतुलित रहना चाहिए। पौष्टिक आहार कीजिये , व्यायाम कीजिये , ये आश्चर्यजनक मशीन है - इसको शुद्ध और पवित्र रखिये। मानवशरीर योग का सधन है , भोग का साधन नहीं है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- 'कुमारसम्भव' में एक अनुपम बात लिखी- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात् यह मानव शरीर ही धर्म (आत्मा -अनात्मा =विवेक) का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस तन में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं ? कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है? गीता में भी है -युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17। ये जो संतुलित दृष्टिकोण है - आपका आहार संतुलित होना चाहिए। आपका भोजन और कर्मक्षमता संतुलित होना चाहिए। किसी बात में अति नहीं होना चाहिए। निद्रा 6 -7 घंटे की होना यथेष्ट है। 7 घंटा पर्याप्त है , 8 घंटा से अधिक ठीक नहीं है। शरीर को स्वस्थ रखिये , इसको योग के लिए तैयार कीजिये - भोग के लिए नहीं। मनुष्य शरीर अद्भुत मशीन है - -ईश्वर पाने का द्वारा है , इसको ही शंकराचार्य जी कहते है - जन्तूनां नर जन्म दुर्लभं ! (जन्तूनां नर जन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिक धर्ममार्ग परता बिद्वत्वमस्मात्परम् । आत्मानात्म विवेचनं स्वऽनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-र्मुक्तिर्नोशत जन्म कोटि सुकृतेः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म-क्षुद्र जन्तु से विकास होते-होते दुर्लभ मनुष्य जन्मलाभ होता है, फिर इसके आगे मनुष्य में भी पुरुष जन्म है। इस पुरुष जन्म में भी जिसमें विप्रता या ब्राह्मणत्य के गुण आ जाते हैं और इसके आगे भी जिसमें धर्ममार्गपरता, विद्वत्ता और सनातन वैदिक मार्ग के प्रति ज्ञान, रुचि आदि का उद्भव होता है, वह जीवन वास्तव में ही धन्य कहलाता है। दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त करके भी जो मनुष्य (या स्त्री) आत्ममुक्ति के साधन हेतु प्रयत्न नहीं करता, उससे बड़ा आत्महन्ता और कौन हो सकता है? इसको भोग में भी नहीं डुबोना है , इसकी उपेक्षा भी नहीं करनी है। इस पंचभौतिक शरीर को योग के लिए सदुपयोग करना है। योग का अभ्यास करने से आपको प्रसाधन -उबटन नहीं लगाना होगा - ऐसी एक अलग प्रकार की कान्ति, तेज और चैतन्य आपके चेहरे पर दमकती रहेगी। अच्छा स्वामी विवेकानन्द कोई कॉस्मेटिक यूज करते थे क्या ? उनसे ज्यादा सुंदर कोई दूसरा मनुष्य है ? उनका व्यक्तित्व क्या कॉस्मेटिक यूज करके बना था ? चेहरे पर वो तेज , चैतन्य और कान्ति आत्मज्ञान से आता है , अपने सत्यस्वरूप को जानने से आता है। (46.57) आप किसी भी आदर्श पुरुष के चेहरे को देखिये। हनुमान जी को लीजिये। हमारे आदर्श तो महावीर हनुमान हैं। उनका कॉस्मेटिक कैसा है ? बलवान शरीर। और अंतःकरण में किसी दूसरे बुलबुले के प्रति कोई राग है ? या अन्य किसी भोग की चीजों के प्रति कोई आसक्ति है ? हनुमान जी में यदि कोई आसक्ति है , कोई राग है - तो सिर्फ श्रीराम के प्रति है।
विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
क्या सुंदर उनके जीवन का दर्शन है ! इसलिए स्वामी जी कहते हैं - युवाओं के आदर्श तो महावीर हनुमान होने चाहिए। 'राम लखन सीता मन बसिया' का मतलब है - आत्मा और कुछ नहीं ! वो समुद्र हैं , वे आत्मा हैं -जो हनुमानजी के मन (हृदय) में बसे हुए हैं ! श्रीराम आत्मा ही हैं , सच्चिदानन्द ब्रह्म ही हैं , और कुछ नहीं। सारी सुंदरता और कान्ति का मूल स्रोत सच्चिदानन्द ब्रह्म ही हैं। सारी सुंदरता हृदय -आत्मा से निकलता है। कॉस्मेटिक से कोई सुंदर नहीं होता। वहाँ मत देखिये -कुछ नहीं है। योगाभ्यास ही सबसे उत्तम चीज है , हम भोग में मानवशरीर की ऊर्जा को नष्ट कर देते हैं। स्थूल शरीर का विवरण यहाँ पर समाप्त हो गया। (48.53 मिनट)
हमने चर्चा शुरू की थी - अनात्मा क्या है ? यहाँ से। और अनात्मा को समझने के लिए हमने सबसे पहले अपने स्थूल शरीर से ही शुरू किया था। और इसको समझने के लिए कि स्थूल शरीर है क्या ? हमने 2mm चमड़ी के भीतर प्रवेश किया था। तो हमारी दृष्टि बदलने लगती है ,पहले हमारी दृष्टि क्या थी ? चरम-दृष्टि या मोहित दृष्टि से देखने के बदले जब आप ब्रह्म दृष्टि से सब कुछ देखोगे -जितना भीतर जाकर देखोगे - तो सब समान हैं। ऊपर से कुछ देखकर मोहित होने के लिए कुछ है क्या ? विवेकी के लिए मोहित होने के लिए कुछ नहीं है। सब समान है। स्त्री-पुरुष का भेद सिर्फ अविवेक में या अज्ञान में दीखता है। सब एक हैं ! शरीर की दृष्टि से नहीं देखने पर मन मुक्त होता है कि नहीं ? मन एक बहुत पुराने रोग आसक्ति रोग - मोहित होने के रोग से मुक्त होने लगता है। तो हमने देखा कि ये स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है ! और मोहित होने से मेरी धारणा क्या है ? मैं ये पुरुष हूँ , और ये मेरी स्त्री है ! सारा सांसारिक संबन्ध इस स्थूल शरीर को लेकर ही बन जाता है। इसी से सारा जाल फैलना शुरू हो जाता है - पोता-पोती, नाती -नतनी। सबके मूल में क्या है ? राग ! प्रेम में बंधन नहीं होगा। पोता-पोती से प्रेम होगा , राग रूप अदृश्य रस्सी नहीं रहेगा, कट जायेगा। यह आसक्ति ही हमारे जन्म-मृत्यु का कारण बन जाता है। राग के द्वारा हम विषयों से कैसे बंध जाते हैं - शंकराचार्य जी उसका उदाहरण देते हैं -पाँच पशुओं का। जो कि मात्र एक विषयों में आसक्ति के कारण वे मृत्युग्रस्त हो जाते हैं। फिर मनुष्यों की बात क्या करें , जो पाँचो विषयों से आसक्त है ? ये सारे विषय इतने जहरीले हैं कि वे हमें दूर से ही मार देती हैं। ये काळा नाग के विष से भी अधिक जहरीला है। लेकिन विषय रूपी जहर सिर्फ अविवेकी को ही मारता है , विवेकी और इस राग -द्वेष का कुछ असर नहीं होता। विवेकी को कोई नहीं मार सकता , क्योंकि वो सभी विषयों को देखता है; फिर भी वो नहीं मरता। लेकिन जो अविवेकी है , वो विषयों से प्रलोभित होता है , प्रभावित होता है , विषयों से घायल होता है -किन्तु विवेकी कभी किसी के नयन वाणों से घायल नहीं होता। ऋषियों की ये बहुत गहरी दृष्टि का विश्लेषण है। अगर आप इस राग के बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो , इन विषयों से दूर रहो। किसी भी बुलबुले से चिपको नहीं। कहीं भागना नहीं है , परिवार के बीच ही रहना है - स्त्री-पुरुष के बीच रहिये लेकिन किसी से चिपकिये नहीं। एक बुलबुला किसी भी दूसरे बुलबुले में डूबे नहीं। यदि डूबे तो ऐसे गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल ही नहीं है। विषयों को विवेक पूर्वक सदुपयोग करें। और कुछ अमृतवत चरित्र के गुण हैं , जिनको हमें अपने चरित्र में वर्धित करना है। कौन- कौन से अमृततुल्य गुण हैं ? सन्तोष है , दया है , क्षमा है , आर्जव है और प्रशान्ति- दान्ती हैं। यानि शम और दम को बढ़ाना चाहिए। और शरीर के पोषणार्थी न बनें। अगर किसी बुलबुले में ही अपने को डुबो दोगे तो फिर समुद्र को कैसे पाओगे ? शरीर-पोषणार्थी हो और सत्य को पाना चाहते हो ? ये कैसे सम्भव होगा ? ये वैसे ही होगा जैसे आप मगरमच्छ को लट्ठा समझकर बैठ रहे हो और नदी पार करने की आशा कर कर रहे हो। हमें सचेत कर रहे हैं कि इस मनुष्य शरीर से सुंदर मशीन अन्य कोई शरीर नहीं है। ये सबसे सुंदर मशीन है - लेकिन भोग के लिए नहीं है। यह मानव-शरीर योग के लिए है, भोग के लिए नहीं है। ये अद्भुत मानव मशीन सत्य की खोज के लिए है। इस स्थूल शरीर को स्वस्थ रखिये निरोगी रखिये, शुद्ध -पवित्र रखिये और इसका सदुपयोग कीजिये -- योग को जानने के लिए , सत्य को जानने के लिए। इसीसे एक सुंदर जीवन बनता है। सही सुख , सही तृप्ति , सही पूर्णता इस प्रकार के जीवन से आती है। भोग से कभी भी आने वाली नहीं है। पूर्णता में स्त्री-पुरुष शरीर के प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर सभी को समान रूप से प्रेम करने लगोगे। एक एक ही बुलबुले से - ये सीमित बुलबुलों के प्रति आसक्ति में नहीं फंसोगे।
[इस श्लोक में आदि शंकराचार्यजी ने साधना मार्ग में एक अत्यंत सूक्ष्म और गंभीर बाधा की ओर संकेत किया है। यहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन का अधिकांश समय और ऊर्जा केवल शरीर के पोषण, उसकी सुविधा और सुख-साधनों की व्यवस्था में लगाता है, और साथ ही यह भी चाहता है कि उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो, तो उसकी स्थिति अत्यंत विरोधाभासी है। आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि साधक अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से तय करे—शरीर का पोषण और देखभाल तो आवश्यक है, परंतु उसका अति-आसक्त होकर पीछा करना आत्मज्ञान के मार्ग में बड़ी रुकावट बन जाता है।
आदि शंकराचार्यजी ने इसे एक अद्भुत और प्रभावशाली उपमा से स्पष्ट किया है—ऐसा व्यक्ति मानो किसी नदी को पार करना चाहता है, लेकिन नदी पार करने के लिए नाव या तैरने का सहारा लेने के बजाय, वह ग्राह (मगरमच्छ) को पकड़कर तैरने की कोशिश करता है। यह बुद्धिहीनता का चरम है, क्योंकि मगरमच्छ नदी पार कराने के बजाय उसे पकड़कर डुबा देगा। इसी प्रकार, शरीर-आसक्ति और इन्द्रिय-सुखों में लिप्त रहकर आत्मज्ञान की आकांक्षा करना भी अंततः साधक को संसार रूपी बंधन में और गहरा डुबो देता है।
यहाँ "दारुधिया" का अर्थ है लकड़ी के टुकड़े की तरह बुद्धि, अर्थात् जड़ और विवेक-शून्य सोच। जैसे कोई मूर्ख यह न समझ पाए कि मगरमच्छ उसके जीवन के लिए खतरा है और उसे पकड़कर पार करना तो असंभव ही है, वैसे ही जो साधक यह नहीं समझ पाता कि शरीर-आसक्ति और आत्मसाक्षात्कार एक-दूसरे के विपरीत दिशा में ले जाते हैं, वह अपने ही प्रयासों से विनाश की ओर बढ़ रहा है। शरीर साधन है, साध्य नहीं; परंतु अधिकांश लोग साधन को ही साध्य मान बैठते हैं।
आत्मज्ञान का मार्ग विवेक, वैराग्य और मन-इन्द्रियों की निग्रह-साधना पर आधारित है। यदि मन निरंतर शरीर की आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं की ओर खिंचता रहेगा, तो वह आत्म-विचार की गहराई में नहीं जा पाएगा। शंकराचार्यजी यहाँ यह नहीं कह रहे कि शरीर की उपेक्षा करनी चाहिए, बल्कि यह सिखा रहे हैं कि शरीर की देखभाल न्यूनतम आवश्यक स्तर तक हो, जिससे साधना बाधित न हो। परंतु यदि शरीर-सेवा ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बन जाए, तो आत्मज्ञान का मार्ग लगभग बंद हो जाता है।
इस उपमा का मर्म यह है कि संसार और शरीर की मोह-माया को साधना का साधन समझना सबसे बड़ी भूल है। जैसे मगरमच्छ अपनी प्रकृति के अनुसार मार ही डालेगा, वैसे ही शरीर-आसक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मन को विषय-भोग की ओर ही खींचेगी। आत्मज्ञान की चाह रखने वाले के लिए यह अनिवार्य है कि वह शरीर को मात्र एक उपकरण माने, जो आत्मसाधना के लिए उपयोगी है, परंतु उसका उद्देश्य केवल उसकी सेवा करना न बन जाए।
अतः यह श्लोक साधक को चेतावनी देता है कि आत्मज्ञान के मार्ग में विवेक आवश्यक है। विवेक के बिना शरीर-आसक्ति साधक को उसी तरह डुबा देती है जैसे ग्राह नदी में पकड़ने वाले को। यदि आत्मदर्शन का लक्ष्य रखना है तो शरीर को आवश्यक सीमा तक साधन की तरह उपयोग करें, उससे मोह न रखें, और पूरी लगन से अपने चित्त को आत्मविचार और ब्रह्मज्ञान की ओर मोड़ें। यही सच्ची साधना है और यही नदी पार करने का सही मार्ग है।
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श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित...
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
अर्थ- श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।
अर्थ- हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूं। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुखों व दोषों का नाश कार दीजिए।
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥1॥
अर्थ- श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।
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राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
अर्थ- हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।
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महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥
अर्थ- हे महावीर बजरंग बली!आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालों के साथी, सहायक है।
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कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
अर्थ- आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।
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हाथबज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजै॥5॥
अर्थ- आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।
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शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
अर्थ- शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।
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विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥
अर्थ- आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
अर्थ- आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।
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सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
अर्थ- आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।
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भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
अर्थ- आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्देश्यों को सफल कराया।
लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
अर्थ- आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
अर्थ- श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥13॥
अर्थ- श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥
अर्थ- श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।
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जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥15॥
अर्थ- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।
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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
अर्थ- आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।
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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥
अर्थ- आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।
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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
अर्थ- जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥
अर्थ- आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुंह में रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
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दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥
अर्थ- संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।
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राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे॥21॥
अर्थ- श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
अर्थ- जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।
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आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक तें कांपै॥23॥
अर्थ- आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते है।
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भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
अर्थ- जहां महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।
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नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥
अर्थ- वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
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संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
अर्थ- हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।
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सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥
अर्थ- तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।
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और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
अर्थ- जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
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चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥
अर्थ- चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
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साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
अर्थ- हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥31॥
अर्थ- आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।
1.) अणिमा- जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है।
2.) महिमा- जिसमें योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।
3.) गरिमा- जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।
4.) लघिमा- जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।
5.) प्राप्ति- जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।
6.) प्राकाम्य- जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है।
7.) ईशित्व- जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य हो जाता है।
8.) वशित्व- जिससे दूसरों को वश में किया जाता है।
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राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
अर्थ- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।
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तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥
अर्थ- आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
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अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥
अर्थ- अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।
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और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥
अर्थ- हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।
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संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
अर्थ- हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
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जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥
अर्थ- हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझ पर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।
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जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई॥38॥
अर्थ- जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥
अर्थ- भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।
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तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मंह डेरा॥40॥
अर्थ- हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।
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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सूरभूप॥
अर्थ- हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।
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